Tuesday 31 March 2009

अथर्ववैदिक कालीन शिक्षा एवं संस्कृतिकरण


सुनीता सिंह
शोध छात्रा, इतिहास विभाग,
म0गां0का0 विद्यापीठ, वाराणसी |

अथर्ववैदिक काल तक वैदिक शिक्षा की परम्परा सुस्थापित व उसका स्वरूप सुनिश्चित हो चुका प्रतीत होता है। उस काल में वैदिक शिक्षा ही शिक्षण का पर्याय थी। भारतीय सभ्यता व संस्कृति के विकास की दृष्टि से वैदिक सभ्यता के अन्तर्गत सुनियोजित शिक्षा व्यवस्था के विकास का महत्वपूर्ण योगदान है। वैदिक संस्कृति की विशिष्टता का आधार वैदिक शिक्षा व्यवस्था ही थी। जिसके द्वारा अनार्य या अवैदिक संस्कृति से वैदिक आर्य अपनी भिन्नता बनाये रखने में सफल हुए थे। शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए अथर्ववेद में कहा गया है कि शिक्षा के द्वारा व्यक्ति की बुद्धि तीक्ष्ण होती है, शिक्षा उसे वृद्धि एवं प्रगति की ओर ले जाती है, तथा उसका सौभाग्य वर्द्धन करती है।1 विद्या एवं बुद्धि के समन्वय से सुख की प्राप्ति होती है।2 ब्रह्म (ज्ञान) को कवच बताते हुए उसे सभी प्रकार के संकटों से रक्षा करने वाला कहा गया है।3 छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार विद्या और अविद्या एक दूसरे से भिन्न है। विद्या और सच्ची लगन के साथ जो मनुष्य कर्म करता है वही अधिकांशतः शक्तिशाली होता है।4 ज्ञान के देवता वृहस्पति को आत्मा कहा गया है। विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती के लिए कहा गया है कि उसका उदय सुख और शान्ति का दाता है। यह जीवन को मधुर बनाती है। अथर्ववेद में मेधा के महत्व का वर्णन किया गया है। मेधा (बुद्धि) सुखों को देने वाली है।5 वरूण, अग्नि आदि सभी देव से मेधा बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना की गई है।।6 मेधा को गुणों में प्रथम स्थान दिया गया है। इसकी तुलना सूर्य की किरणों से की गई है।7 धारणावती बुद्धि को मेधा कहा गया है। ऋषियों ने मेधा का महत्व जाना था।8 मेधा बुद्धि के द्वारा ही मनुष्य सूर्य की तरह तेजस्वी हो जाता है।9
वैदिक शिक्षा के लिए उपनयन और दीक्षा का विधान था जो इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि वैदिक शिक्षा द्वारा वैदिक धर्म एवं संस्कृति का अंग वही व्यक्ति बन सकता था जो कि वैदिक शिक्षा की प्रक्रिया से गुजरा हो। अथर्ववेद में उपनयन के विषय में कहा गया है कि ब्रह्मचारी को अपने पास रखने वाला आचार्य उसको अपने अन्दर उदर में तीन रात्रि तक रखता है, जब वह ब्रह्मचारी द्वितीय जन्म लेकर बाहर आता है, तब उसको देखने के लिए सभी विद्वान सब प्रकार से इकट्ठे होते है।10 अथर्ववेद में विद्या अथवा शिक्षा के उद्देश्य व उसके परिणामों का उल्लेख किया गया है। जिसमें श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, धन, आयु और अमृतत्व को सन्निहित किया गया है।11 वैदिक शिक्षा का प्रारम्भ उपनयन द्वारा होता था एवं सम्पादन ब्रह्मचर्य से। ब्रह्मचर्य धारण करने के पश्चात् ब्रह्मचारी का कर्तव्य है कि वह अपने मन, वाणी, हृदय और बुद्धि को पवित्र रखे।12
शतपथ ब्राह्मण में ब्रह्मचर्य धारण करने के प्रथम चरण को प्रायणीय और स्नातक होने के दिन को ‘‘उदयनीया’’ कहा गया है।13 अथर्ववेद के अनुसार ब्रह्मचारी का जीवन सत्य व तप और नियम से आबद्ध था, इसलिए कहा गया है कि ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करने वाला ही ‘ब्रह्म‘ (ज्ञान) को धारण करता है और उसमें सभी देवता निवास करते है।14 अथर्ववेद में कहा गया है कि ब्रह्मचारी का तप और आचरण इतना शक्तिशाली है कि सभी उनके सामने झुक जाते है। ब्रह्मचर्य के तप के प्रभाव के कारण ही राजा राष्ट्र की रक्षा करने में समर्थ होता है। ब्रह्मचर्य के कारण ही आचार्य शिष्यों को यथोचित रूप में शिक्षित करने की योग्यता अपने में समाहित कर पाता है।15 शिक्षा में अनुशासन के महत्व पर बल दिया गया है। अथर्ववेद के एक मन्त्र में कहा गया है कि शिक्षक खुद अनुशासन में रहे और शिष्यों को अनुशासित रखें।16 अथर्ववेद में शिक्षा के निम्न लिखित विषयों का उल्लेख किया गया है।
1. ऋच (ऋवेद), 2. सामानि (सामवेद), 3. यजूषि (यजुर्वेद), 4. ब्रह्म (ब्रह्मवेद, अथर्ववेद), 5. इतिहासः (इतिहास), 6. पुराणम् (पुराण, पुरातत्व), 7. गाथाः (पद्यात्मक कथावृत दानस्तुतियाँ आदि), 8. नाराशंसी, (उदार दानियों की स्तुतियाँ एवं जीवनवृत)17
गोपथ ब्राह्मण में विविध विद्याओं को वेद का नाम देते हुए पाँच वेदों का उल्लेख प्राप्त होता है।
1. सर्पवेद (सर्पविद्या, विषचिकित्सा आदि), 2. पिशाचवेद (पिशाच विद्या, रक्षोनाशन, पिशाचनाशन आदि), 3. असुरवेद (आसुरी विद्याएं यातु एवं माया आदि का प्रयोग एवं निवारण, अभिचार कर्मो का प्रयोग और निवारण), 4. इतिहास वेद (ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन आदि, प्राचीन इतिहास), 5. पुराणवेद (पुरातत्व, सृष्टि-उत्पत्ति आदि, प्राचीन राजवंशावलियां आदि),18 शतपथ ब्राह्मण ने स्वाध्याय के अन्तर्गत ऋचाओं, यजुओं, सामों, अथर्वांगिरसों (अथर्ववेद), इतिहास, पुराण, गाथाओं आदि विषयों को गिना है।19
गुरूकुल:
वैदिक शिक्षा की सामान्य परम्परा नगरों और ग्रामों से पृथक किन्तु किसी सन्निकट एकान्त स्थान पर आचार्य द्वारा अपने आश्रम में शिष्यों को शिक्षा देने की थी। अथर्ववेद तथा अन्य वैदिक साहित्य में शिक्षा से सम्बन्धित गुरूकुल परम्परा का संकेत देते है। इन आश्रमों में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले तथा वेद की शिक्षा लेने वाले शिष्यों को ‘‘अन्तेवासी’’ कहा जाता था।20 जिस प्रधान शिक्षक के आश्रम में रहकर शिक्षार्थी विधिवत शिक्षा लेते थे, उन्हें आचार्य या गुरू कहा जाता था।21 उपनिषदों में ‘आचार्य कुल‘ का उल्लेख हुआ है।22
अथर्ववेद के एक मन्त्र में गुरूकुल मंे रहकर ब्रह्मचारी द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के महत्व पर प्रकाश डाला गया है।23 गुरूकुल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रथम अनिवार्यता ब्रह्मचर्य व्रत का पालन था। अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि विद्यार्थी का यह कर्तव्य था कि वो शिक्षा ग्रहण करे तथा गुरू के सानिध्य में अपने सहपाठियों के साथ मिलजुल कर रहें।24 ब्रह्मचारी से पूर्ण संयम बरतने, कर्मनिष्ठ होने तथा मधुरवचन बोलने की अपेक्षा की गई है।25 ब्रह्मचारी के लिए कहा गया है कि ब्रह्मचारी, ब्रह्म अर्थात ज्ञान धारण करें और आस्तिक हो।26
 गुरूकुल में रहकर वेदों का अध्ययन करने के साथ ही शिक्षार्थी को कुछ नियमित दैनिक कार्य करने होते थे। पवित्र अग्नि में ईंधन डालने के लिए समिधा एकत्र करना, भोजनादि की व्यवस्था के लिए भिक्षाटन के लिए जाना इत्यादि।27 अथर्ववेद के एक मन्त्र से गुरू शिष्य के आदर पूर्ण एवं मधुर सम्बन्ध के विषय में पता चलता है। गुरू एवं शिष्य एक दूसरे के प्रति शुभ चिन्तक होते थे, अतएव समिधाओं से यज्ञ करने के पश्चात् शिष्य अग्नि से यह प्रार्थना करता है कि वह उसे दीर्घायु बनावें और आचार्य को अमर करें।28 एक अन्य मन्त्र से ज्ञात होता है कि जिस प्रकार सभी देवताओं ने मिलकर अन्धकार से संसार को बचाने के लिए सूर्य को प्रकट किया है, उसी प्रकार गुरू अपने शिष्य को ज्ञान देकर उसको इतना तेजस्वी बनाता है कि जिससे वो इस संसार के अन्धकार (अज्ञान, बुराई, दुर्गुण) से अप्रभावित रहते हुए इसके प्रसार को रोके।29
शिक्षक तथा शिक्षार्थियों के प्रकार:
अथर्ववेद में आचार्य को विभिन्न नामों से सम्बोन्धित किया गया है। आचार्य को मृत्यु, वरूण, सोम, औषधि, और पयस कहा गया है।30 आचार्य के कड़े अनुशासन के कारण उसे ‘मृत्यु’ कहा गया है। वह शिष्य को दुर्गुणों और पापों से मुक्त करने के कारण ‘वरूण’ कहा गया है। शान्तिदाता होने से ‘सोम’ है। पोषण के कारण ‘औषधि’ तथा सर्वांगीण विकास करने के कारण ‘पयस’ है।31 आचार्य के विषय में कहा गया है कि आचार्य को स्वयं भी ब्रह्मचारी होना चाहिए। ब्रह्मचर्य के द्वारा ही वह अपने शिष्यों का सर्वांगीण विकास करता है।32
अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि आचार्य शिष्य को मेखला बांधकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दृढ़ संकल्पित करता था। गुरू के विषय में कहा गया है कि वह ऐसा पढ़ाये जो कि शिष्य रूचि व सहजता के साथ पढ़ ले। अथर्ववेद में विद्याध्ययन की समाप्ति पर समावर्तन संस्कार का उल्लेख है। जो स्नान संस्कार को करने वाला होता था उसे स्नातक कहा गया है।33 इसके अतिरिक्त अथर्ववेद में शिक्षार्थी के प्रकार के विषय में उल्लेख प्राप्त नहीं होता है जैसा की समकालीन ग्रन्थों से ज्ञात होता है।
शैक्षणिक जीवन:
वैदिक शैक्षणिक जीवन का प्रारम्भ उपनयन संस्कार और समापन समावर्तन संस्कार द्वारा माना गया है। सामान्य परम्परा बाल्यावस्था में ही उपनयन और दीक्षा की थी। उपनयन के विषय में अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि ‘‘आचार्य उपनयन करता हुआ बालक को तीन रात्रि तक अपने गर्भ में धारण करता है। इसके पश्चात् बालक द्वितीय जन्म धारण करता है।’’34 उपनयन के पश्चात् शिष्य ब्रह्मचारी कहलाता था और उसके शैक्षणिक जीवन का प्रारम्भ होता था। शिष्य आचार्य कुल या गुरूकुल में रहकर शिक्षा प्राप्त करता था। अथर्ववेद का कथन है कि शिष्य आचार्य के निरीक्षण में विद्या और संयम के द्वारा महत्वपूर्ण शक्तियां अर्जित करके इन्द्र के तुल्य हो जाता है और वह अपनी शक्ति से आसुरी भावनाओं का विनाश करता है।35
अथर्ववेद में ब्रह्मचारी द्वारा गृहस्थों से भिक्षा मांगना और उससे अपने भोजन की व्यवस्था करना भी प्रमुख कर्तव्य कहा गया है।36 अथर्ववेद में ब्रह्मचर्य की अवधि के विषय में उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। गोपथ ब्राह्मण के अनुसार ब्रह्मचर्य की अवधि 48 वर्ष थी। इस प्रकार प्रत्येक वेद के लिए 12 वर्ष का समय निर्धारित किया गया था। अथर्ववेद में समावर्तन संस्कार का उल्लेख प्राप्त होता है। सामवर्तन संस्कार का दूसरा नाम स्नान संस्कार है। जो स्नान को करने वाला होता है उसे स्नातक कहते है। अथर्वकाल में ब्रह्मचर्य जीवन की समाप्ति व शिक्षा पूर्ण कर लेने के पश्चात् अपने गृह लौटने का द्योतक समावर्तन संस्कार था। स्नातक का अथर्ववेद में अत्यन्त महत्व वर्णित किया गया है। स्नातक के विषय में कहा गया है कि विद्याध्ययन के समाप्त हो जाने पर ब्रह्मचारी स्नातक होकर अत्यन्त तेजस्वी हो जाता है, और अपने तेज के कारण संसार में प्रसिद्धि पाता है।37
शिक्षा का आर्थिक आधार:
वैदिक काल में आचार्य की कोई आय निश्चित नहीं होती थी। आचार्य अत्यधिक सन्तोषी प्रकृति का होता था, इसलिए वह प्रायः धन की मांग नहीं करता था। शिक्षार्थियों द्वारा भिक्षाटन करके लाया गया अन्न तथा दान दक्षिणा में प्राप्त धन ही आचार्य के आय का साधन थी। शिक्षा प्रदान करना आचार्य अपना कर्तव्य समझता था। वह अपने शिष्य से धन की मांग नहीं करता था। परन्तु अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि गुरू दक्षिणा प्रदान करने की प्रथा वैदिक समाज में अज्ञात नहीं रह गयी थी, गुरू दक्षिणा की प्रथा का सूत्रपात हो गया था। जो आचार्य के प्रति शिष्य के मन की श्रद्धा व सम्मान को प्रकट करने का माध्यम था। अथर्ववेद के एक मन्त्र में शिक्षा प्रदान करने के पश्चात् आचार्य को अपने शिष्य द्वारा गुरू दक्षिणा मिलने का उल्लेख है।38 शतपथ ब्राह्मण में भी शिक्षा की समाप्ति पर धन के रूप में पृथ्वी को गुरू दक्षिणा में देने का उल्लेख मिलता है।39
वैदिक साहित्यों में कुछ ऐसे शिक्षकों का उल्लेख भी प्राप्त होता है जो किसी भी प्रकार का पारिश्रमिक स्वीकार नहीं करते थे। ये अपने शिष्यों से किसी प्रकार का मासिक शुल्क नहीं लेते थे। शिक्षार्थी द्वारा मांगे गये भिक्षा पर ही पूरा गुरूकुल आधारित होता था। ऐसे आचार्य जो किसी प्रकार का पारिश्रमिक स्वीकार नहीं करते थे, और अपनी सेवायें शिक्षक के रूप में स्वयं अर्पित करते थे, उन्हें ‘श्रोतिय अपरातिका ग्रहका’ कहा गया है तथा इन्हें जनश्रुतियों में ‘दक्षमानसेवी‘ अध्यापक बताया गया है।40 शतपथ ब्राह्मण में कुरू पांचाल देश के ब्राह्मण के पुत्र आरूणि उद्दालक को आचार्य ‘‘स्वैदायन शौनक’’ के द्वारा निःशुल्क शिक्षा का उल्लेख प्राप्त होता है।41
अथर्वकाल में गुरू दक्षिणा का उल्लेख प्राप्त होता है परन्तु यह गुरू के प्रति शिष्य की श्रद्धा, सम्मान व समर्पण का प्रतीक था। गुरू शिक्षा देना अपना कर्तव्य समझते थे। अतः शिक्षार्थियों को शिक्षा प्राप्ति में धन बाधा के रूप में नहीं थी, किन्तु, धीरे-धीरे शिक्षा प्राप्ति के बाद दक्षिणा देने की परम्परा का विकास हुआ। कालान्तर में जो गुरू धनलोभ में शिक्षा देते थे उन्हें धर्मशास्त्रकारों ने ‘उपाध्याय‘ कहा है।42
धर्मेंत्तर शिक्षा:
धर्मेंत्तर शिक्षा से तात्पर्य उन विषयों की शिक्षा से है, जिनका सम्बन्ध सीधे-सीधे धार्मिक जीवन से नहीं था। जूलियस इगलिंग ने विद्या शब्द को विविध अर्थों में लिया है, जिसके अन्तर्गत, सर्पविद्या, विषविद्या आदि43 उल्लेखनीय है। अथर्ववेद में चिकित्साशास्त्र इत्यादि अनेक विद्याओं का उल्लेख है। सांख्यायन श्रौत सूत्र में अथर्ववेद को भेषज वेद कहा गया है।44 ब्लूमफील्ड ने भेषज्य सम्बन्धी अरसठ सूक्तों का उल्लेख किया है।45 अथर्ववेद में आयुर्वेद को भेषज या भिषग्वेद पुकारा गया है।46 चरक संहिता का कथन है कि अथर्ववेद में इन विषयों के मन्त्र है- स्वतययन, बलि, मंगल, होम, नियम, प्रायश्चित और उपवास। ये विषय आयुर्वेद के है, अतः अथर्ववेद में चिकित्सा का वर्णन है।47 अथर्ववेद में शरीर विज्ञान, ज्योर्तिविज्ञान, रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान से सम्बन्धी सभी प्रणालियों का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में ज्योतिष विद्या से सम्बन्धित वर्णन प्राप्त होता है।48 उसमें कहा गया है कि ज्येष्ठध्वनी (बड़ों के लिए घातक) नक्षत्र में उत्पन्न शिशु विचृत और मूलवर्हण से ग्रस्त होता है।49 इसमें नक्षत्र शब्द तारे के आशय में लगभग 20 स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है।50 ज्योतिर्विद या ज्योतिषी के लिए नक्षत्रदर्श शब्द का उल्लेख मिलता है।51 यह नक्षत्रों की गणना करता है और उनके शुभाशुभ फल बताकर आजीविका चलाता है। छान्दोग्यउपनिषद् में अन्य विद्याओं के साथ नक्षत्र विद्या (गणित ज्योतिष) की भी गणना है।52 अथर्ववेद के एक मंत्र में रथ पर चढ़कर धनुष बाण हाथ में लेकर शत्रुओं पर आक्रमण करने का उल्लेख प्राप्त होता है। इससे ज्ञात होता है कि सैनिक शिक्षा भी प्रदान की जाती थी। इसमें धर्नुविद्या का उल्लेख भी प्राप्त होता है।53 गायन-वादन एवं नृत्य की भी शिक्षा दी जाती थी।
अथर्ववैदिक कालीन शिक्षा अपनी विकसित अवस्था में प्रतीत होती है। जिसका उद्देश्य प्रमुख रूप से आध्यात्मिक व चारित्रिक उत्थान करना एवं सामाजिक नियमों व अनुशासित जीवन शैली, धर्म का ज्ञान तथा वेद व अन्य विषयों का अध्ययन था।

सन्दर्भ ग्रन्थ
1 अथर्व0, 7/16/1, ‘वर्धयैनं ज्योतयैनं महते सौभगाय।
       संशितं चित् संतरं शिशधि।’
2 वही, 19/11/2, ‘शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।’
3 वही, 17/1/28, ‘ब्रह्मणा वर्मणा0।’
4 छान्दो0 उ0, 1/1/10, ‘उमौ कुरूतौं यश्चैतदेवं वेदयश्च न वेद।’ नाना तु विद्या विद्या च विद्या च। यदैव विद्या करोति श्रृवयोपनिषदा तदैव वीर्यवत्तरं भवति।
5 यजु0, 32/13
6 वही, 32/15
7 अथर्व0, 6/108/1
8 वही, 6/108/4
9 वही, 20/115/1, ‘मेधाम् ऋतस्य जग्रभ। अहं सूर्य इवाजनि।’
 0 वही, 11/5/3, ‘आचार्य उपनयमानों ब्रह्मचारिण कृणुते गर्भमन्तः।
     तं रात्रिस्तिस्त्र उदरे विभर्ति वं जातं द्रष्टुमाभिसंयन्ति देवाः।’
 1 वही, 11/3/5
 2 अथर्व0, 11/5/24
 3 शत0ब्रा0, 11/3/3/2
 4 अथर्व0, 11/5/2/4
 5 वही, 11/5/7
 6 वही, 1/1/3
17 वही, 15/6/8, 11
 8 गो0ब्रा0, 1/1/10, ‘पंच वेदान निरमिमत-सर्पवेदं, पिशाचवदम् असुरवेदम् इतिहासवेदम् पुराणवेदमिति।
 9 शत0ब्रा0, 11/5/7/6-8
20 वही, 5/1/5/17
21 वही, 12/2/2/13-14
22 छांन्दो0 उप0, 2/2/3/1
23 अथर्व0, 11/5/15
24 अथर्व0, 6/64/1
25 वही, 8/108/2, 1/33/3
26 वही, 11/5/24
27 वही, 11/5/9, 11/5/4
28 वही, 19/64/4, ‘आयुरस्मासु.........आचार्याय।’
29 वही, 2/10/8
30 वही,, 11/4/14, ‘आचार्यो मृत्युर्वरूणः सोम ओषधयः पयः’
31 अथर्व0, 11/5/14
32 वही, 11/5/16
33 वही, 11/5/26
34 वही, 11/5/3
35 अथर्व0, 11/5/7
36 वही, 11/5/9
37 वही, 11/5/26
38 अथर्व0, 11/5/15
‘अमा घृतं कृणुते केवलमचार्यों भूत्वा वरूणों यद्यदैच्छत् प्रजापतौ।-
  तद् ब्रह्मचारी प्रायच्छत् स्वान् मित्रों अध्यात्मनः।’
39 शत0ब्रा0, 11/5/6/3
40 वही, 13/4/3/14
41 वही, 11/4/1/9
42 मनु0, 3/156
43 से0बु0ई0, 44, पृ0 98, नोट 2
44 सां0श्रौ0सू0, 16/2/1, अथर्ववंदा वेदः सोऽयमिति भेषजं निगदेत्।
45 हिम्स आव दि अथर्ववेद, से0बु0 आफ दि ईस्ट, भाग 42, विषयसूची
46 अथर्व0, 11/6/14
47 चरक संहिता, 30/21
48 अथर्व0, 19/7/8
49 वही, 5/110/3
53 द्र0वै0इ0, भाग 1, पृ0 451
54 यजु0, 30/10
55 छान्दो0उप0, 7/2/1, ‘नक्षत्र विद्याम्’
56 अथर्व0, 10/1/27

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