Tuesday 31 March 2009

भारतीय लोकतंत्र में सूचना का अधिकार: समस्याएं एवं समाधान


प्रदीप कुमार जायसवाल
शोध छात्र, राजनीतिविज्ञान विभाग,
काशी हिन्दू वि0वि0, वाराणसी।

                  भारतीय लोकतन्त्र में आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि जनता के इस शासन में जनता को अधिक से अधिक कैसे भागीदार बनाया जाएं ? स्वाधीनता के बाद भारतीय लोकतन्त्र में जनता को दो बड़े अधिकार मिले-पहला, जनहित याचिका दायर करने की और दूसरा, सूचना का अधिकार, जो पहले अधिकार से भी बड़ा है। भारतीय संसद ने मई, 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम पारित किया, जून 2005 में राष्ट्रपति ने इसे स्वीकृति प्रदान की और 12 अक्टूबर, 2005 से यह पूरी तरह अमल में आ गया। यह अधिनियिम लोकतन्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने का प्रयास कर रहा है। यह एक ऐसा व्यापक कानून है, जो सरकारी अधिकारियों से सूचना प्राप्त करने के लिए नागरिकों को वैधानिक अधिकार प्रदान करता है जिसके कारण शासन में पारदर्शिता एवं उत्तरदायित्व की भावना पनप रही है। आज के लोकतंत्रीय देश मुक्त तथा पारदर्शी शासन पर अत्यधिक बल दे रहे हैं। सरकार में लोगों की सहभागिता को लोकतन्त्र का एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता है, लोगों की सहभागिता तब तक सुनिश्चित नहीं हो सकती जब तक कि उन्हें यह सूचना न हो कि सरकार क्या कर रही है और कैसे कर रही है? सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 केन्द्र और सभी राज्य सरकारों, स्थानीय सरकारी निकायों और कार्यपालिका के अतिरिक्त न्यायपालिका और विधायिका भी इसके अधिकार क्षेत्र में आती है। यह सरकार के स्वामित्व एवं नियन्त्रण वाले प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से वित्तपोषित निकायों और गैर सरकारी संस्थाओं पर भी लागू होता है। इस अधिनियम का उद्देश्य यह है कि पूरी सूचनाएं आसानी से उपलब्ध हो तथा प्रत्येक जन सूचना अधिकारी द्वारा नियमित अन्तराल पर लोगों को सूचनाएं प्रदान की जाएं । शासन की भागीदारी किसी भी सफल लोकतन्त्र का मूलमन्त्र है। नागरिकों के रूप में हमें केवल चुनावों के वक्त ही नहीं बल्कि नीतिगत निर्णयों, कानूनों और योजनाएं बनाएं जाने के वक्त और परियोजनाओं तथा गतिविधियों का कार्यान्वयन करते समय भी दैनिक आधार पर भागीदारी करने की जरूरत होती है। जनसहभागिता न केवल शासन की गुणवत्ता में वृद्धि करती है, वह सरकार के कामकाज में पारदर्शी और जवाबदेही को भी बढ़ावा देती है पर हकीकत में नागरिक शासन में भागीदारी कैसे कर सकते हैं ? जनता कैसे समझ सकती है कि फैसले कैसे लिए जा रहे हैं ? साधारण लोग कैसे जाने कि कर(टैक्स) से आये पैसे को कैसे और कहाँ खर्च किया जा रहा है या सार्वजनिक सेवाएं सही तरीके से चलायी जा रही हैं या नहीं या निर्णय लेते समय सरकार ईमानदार और निष्पक्षता से काम कर रही है या नहीं ? सरकारी अधिकारियों का काम जनता की सेवा करना है,पर इन अधिकारियों को जनता के प्रति जवाबदेह कैसे बनाया जाएं ?
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 लागू हो जाने के बाद भारत के सभी नागरिकों को सूचनाएं मांगने का अधिकार है। यह अधिनियम इस बात को मान्यता देता है कि भारत जैसे लोकतन्त्र में सरकार के पास मौजूद सभी सूचनाएं अन्ततः जनता के लिए एकत्रित की गयी है। जनता को जानने का अधिकार है कि सार्वजनिक अधिकारी उनके पैसे और नाम पर क्या कर रहे हैं ?
भारत में अभी तक गोपनीयता सभी सरकारी संस्थाओं के कामकाज में व्याप्त रही है, लेकिन सूचना का अधिकार अधिनियम के साथ ही यह पासा पलटने लगा है। जहाँ शासकीय गोपनीयता अधिनियम,1923 में सूचना को सार्वजनिक करने को एक दण्डनीय अपराध की श्रेणी में रखा गया था, वहीं सूचना का अधिकार अधिनियम अब सरकार में खुलेपन की मांग करता है। पहले सरकार के पास मौजूद सूचनाओं को जनता को उपलब्ध कराना एक दुर्लभ अपवाद हुआ करता था जो आम तौर पर किसी लोक प्राधिकरण के अधिकारियों की इच्छाओं पर निर्भर करता था लेकिन अब सूचना का अधिकार अधिनियम ने सभी नागरिकों को शासन और विकास में अपने जीवन को प्रभावित करने का अधिकार दे दिया हैं। यह अधिनियम अधिकारियों के द्वारा अपने भ्रष्ट तौर -तरीकों पर पर्दा डालने को ज्यादा मुश्किल बना देता है। सूचनाओं तक पहुँच के कारएा खराब नीति -निर्माण प्रक्रिया को उजागर करने में मदद मिलेगी और इससे भारत के राजनीतिक ,आर्थिक और सामाजिक विकास में नवजीवन का संचार होगा।
समस्याएं
सूचना का अधिकार को लागू करके सरकार ने आम जनता के हाथ में ऐसा यन्त्र प्रदान किया है जिसके द्वारा न केवल भ्रष्टाचार समाप्त होगा बल्कि अफसरशाही को भी अपना अडि़यल रवैया छोड़कर जनता के सामने झुकना पड़ेगा और उन्हें वांछित सूचनाएं प्रदान करनी पड़ेगी। इस कानून की उपयोगिता को लेकर कोई सन्देह नहीं फिर भी इस कानून को व्यवहारिक रूप में लागू करने में कुछ कठिनाइयां सामने आयेगी, जिनका विवरण निम्न हैं:
सबसे पहली सम्भावित समस्या यह है कि इस कानून के लागू हो जाने से लोक सूचना अधिकारियोें के पास इतनी ज्यादा संख्या में सूचना पाने सम्बन्धी आवेदन दिये जाएंगे कि परिणामस्वरूप प्रशासकीय कार्य प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पायेगा। यह भी हो सकता है कि कुछ व्यक्ति पूर्णतया अनावश्यक व निरर्थक सूचनाओं की मांग करने लगे । एक और समस्या है कि हमारे देश में जहाँ भ्रष्टाचार का बोलबाला है और सरकारी दफ्तरों में बिना मुट्ठी गर्म किए काम ही नहीं बनते व अधिकारियों में पूरी निष्ठा से , ईमानदारी से व पारदर्शिता के साथ काम करने की कमी पायी जाती है, ऐसी परिस्थिति मे इस कानून को व्यवहारिक रूप में लागू करना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव भी है। सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के कुछ एक प्रावधान असंगत एवं गैर कानूनी हैं कि सूचना के अधिकार के प्रावधानों के अन्तर्गत कोई गैर-सरकारी संगठन, ट्रस्ट, सोसाइटी, कोई अन्य संस्था सूचना के लिए आवेदन नहीें कर सकती। यह गैर - कानूनी है व इन संस्थाओं के मौलिक अधिकारों के विरूद्ध है। अधिनियम के अन्तर्गत सूचना प्राप्त करने की अधिकतम फीस दस रूपये निर्धारित की गई है। परन्तु कई राज्य सूचना प्रदान करने के लिए पाँच सौ रूपये तक अधिकतम फीस वसूल कर रहे है। उदाहरण के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा सूचना प्रदान करने पर पाँच सौ रूपये शुल्क निर्धारित किया गया है। हरियाणा मे सूचना शुल्क पचास रूपये निर्धारित किया गया हे जो कि एक आम आदमी के लिए अदा करना विचारणीय होता है। इस अधिनियम के अन्तर्गत यह प्रावधान है कि यदि कोई अधिकारी सूचना प्रदान करने कोई कोताही बरते तो उस पर 250 रूपये प्रतिदिन के हिसाब से जुर्माना किया जाता है परन्तु कुछ राज्यों में सूचना उपलब्ध न करवाने की दशा में अधिकारियों पर केवल 50 रूपये प्रतिदिन के हिसाब से दण्ड लगााया जाता है जो इस बात को स्पष्ट करता है कि इन राज्यों की सरकारें इस अधिनियम को प्रभावशाली ढ़ग से लागू करने के बजाय सरकारी अधिकारियों के कल्याण के बारे में ज्यादा चिन्तित हैं। इस अधिनियम की सबसे बड़ी खामी यह है कि यदि किसी व्यक्ति को किसी विभाग से किसी विषय पर एक से अधिक वर्ष की जानकारी प्राप्त करनी है तो उसे प्रत्येक वर्ष की सूचना प्राप्त करने के लिए प्रत्येक वर्ष के लिए अलग-अलग प्रार्थना पत्र देने पड़ते हैं और प्रत्येक वर्ष के लिए अतिरिक्त फीस अदा करनी पड़ती है जो कि न्यायोचित नहीं है।
हमारे देश में जहाँ काफी लोगों की आधारभूत आवश्यकताएं पूरी नहीं होती, वे अशिक्षित व गरीब है तो हम कैसे मान लें कि लोग अधिकार के प्रति गम्भीर होकर इसका लाभ उठाएंगे। लोगों को शिक्षित एवं जागरूक किए बिना इस कानून को प्रभावशाली ढंग से लागू नहीं किया जा सकता।
समाधानः
इस कानून को प्रभावशाली ढंग से लागू करने के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता यह है कि विभिन्न सरकारी अधिकारियों को नैतिक शिक्षा प्रदान की जाएं। जब अधिकारी भौतिकवाद से आध्यात्मवाद की ओर अग्रसर होगें तो वे स्वतः ही अपने आप को जनता का सेवक समझने लगेंगे, और अपने कर्तव्य का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी व पारदर्शिता के साथ करेंगे। मेरा विचार यह है कि लोक सूचना अधिकारी के अधीन पर्याप्त अधिकारियों की नियुक्ति किया जाय जिससे सूचना पाने सम्बन्धी अधिक आवेदन आने पर भी प्रशासकीय कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। सूचना के अधिकार के बारे में सम्बन्धित अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे जनता को समय पर सूचना प्रदान कर पाएं और जिससे यह कानून प्रभावशाली ढंग से लागू हो पाए। इस अधिनियम के तहत सूचना प्राप्त करने के लिए फीस अदा करने के तरीके को और सरल बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए और इसके साथ ही यदि किसी व्यक्ति को किसी विभाग से एक से अधिक वर्षों की जानकारी प्राप्त करनी हो तो उसे केवल एक ही आवेदन पत्र देना पड़े और उसे प्रत्येक वर्ष के लिए अतिरिक्त शुल्क अदा न करनी पड़े । केन्द्र सरकार का भी यह कर्तव्य है कि वह सभी राज्यों को निर्देश दे कि सभी एक समान शुल्क वसूल करें ।
इस अधिनियम को प्रभावशाली ढ़ग से लागू करने के लिए आवश्यक है कि लोगों को इस अधिकार के बारे में जागरूक किया जाय । लोगों को जागरूक बनाने के लिए इस बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए। इस कार्य के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार के द्वारा विशेष संगोष्ठियों का आयोजन किया जाना चाहिए और ये संगोष्ठियंा गांवों में समूह बनाकर आयोजित किया जाना चाहिए । इस कार्य को और प्रभावशाली बनाने के लिए युवा संगठनों, स्वंय सेवी संगठनों तथा अन्य शिक्षित व्यक्तियों विशेषकर सेवानिवृत्त लोगों की सेवाएं लेना उचित होगा। जागरूकता की इस प्रक्रिया को निरन्तर आगे बढ़ाने के लिए दूरदर्शन, रेडियो , समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं के माध्यम से सूचना के अधिकार के बारे में जानकारी देने के बारे में विशेष प्रयत्न किए जाने चाहिए। सूचना के अधिकार के विभिन्न प्रावधानों जो कि कठिन तथा समझ से परे है उन्हें विशेष तौर पर साधारण भाषा में स्थानीय आवश्यकताओं को ध्याान में रखते हुए लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाना चाहिए। यदि कोई अधिकारी इस अधिकार के प्रावधानों की अवहेलना करता है तो उसके विरूद्ध दण्डात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए और पारदर्शिता लाने की इस प्रक्रिया को बिना रोक टोक के आगे बढ़ाना चाहिए। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे अभिकरण जिन पर इस अधिनियम को लागू करने का दायित्व है उन्हें धन तथा सुविधाओं की कमी न हो ताकि वे पूर्ण क्षमता के साथ कार्य कर सकें। लोक प्राधिकरणों को भी सब कुछ व्यवस्थित करने तथा प्रकाशित करने के लिए कुछ अधिक व्यय करना पड़ेगा। योजना आयोग को इन पर आने वाले व्यय का अनुमान लगाना चाहिए तथा तद्नुसार प्रत्येक वर्ष बजट में इसकी व्यवस्था करनी चाहिए। वर्तमान में सूचना का अधिकार अधिनियम में न्यायिक विवाद अथवा मुकदमा उत्पन्न होने पर निर्णय सम्बन्धी कोई प्रावधान नहीं है, यदि कोई वाद न्यायालय तक पहुँच जाता हैैै। यदि ऐसा होता है तो वाद खिंचता चला जायेगा और अन्ततः इससे हानि आवेदक को ही होगी।
आज सूचना का अधिकार लागू हो गया है इसकी सफलता की प्रमुख चुनौती इसे लागू करने में बदलाव की है। सभी अधिकारियों सहित जनता को सूचना के आदान-प्रदान के लिए प्रेरित तथा प्रोत्साहित करना सबसे बड़ी चुनौती है। अतः उनके अन्दर शिक्षा एवं जागृत पैदा करना आवश्यक है। सूचना का अधिकार जनता का अधिकार है जब तक जनता इस अधिकार का प्रयोग नहीं करेगी तब तक यह कागजी ही बना रहेगा। यह कहा जा सकता है कि सूचना के अधिकार का क्रियान्वयन भारतीय जनतन्त्र की परिपक्वता की सिद्धि में एक सशक्त कदम होगा।
सूचना के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गयी है। जो कि सभी व्यक्तियों के अन्तर्निहित गौरव से निकट रूप से जुड़ा है। सूचना की स्वतन्त्रता, जिसके अन्तर्गत लोक निकायों में निहित सूचना को प्राप्त करने का अधिकार सन्निहित है, जो न केवल लोकतन्त्र, जवाबदेही तथा प्रभावी सहभागिता के लिए निर्णायक माना गया है वरन् इसे एक मौलिक मानवाधिकार भी माना गया है जो कि अन्तर्राष्ट्रीय तथा संवैधानिक कानून द्वारा रक्षित है। अतः स्पष्ट है कि सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों व मानवीय अधिकारों का ही व्यवहारिक व लोकतांत्रिक विस्तार है।
सूचना के अधिकार का प्रजातांत्रिक प्रक्रियाओं के पोषण करने तथा सम्वर्धित करने की दिशा में विशेष योगदान है। सुशासन, पारदर्शिता, दायित्व-निर्धारण और भागीदारी को सुनिश्चित करने में और भ्रष्टाचार के निवारण में इसकी व्यापक भूमिका है। एक विकसित प्रजातांत्रिक व्यवस्था के लिए सूचना का अधिकार निश्चय ही अपरिहार्य है। राजनितिज्ञों, अधिकारियों तथा प्रशासन से जुडे़ व्यक्तियों के कार्य कलाप के विषय में सूचना के आधार पर समाज में संवेदनशीलता और सक्रियता बढ़ेगी। जनता में सूचना के प्रसार से उसकी, देश के विकास कार्यों में भागीदारी भी निश्चित रूप से बढेगी। अब तक सूचना केवल विशिष्ट लोगों की थाती रही है और उसका उपयोग भेदभाव को बढ़ाने में ही अधिक होता रहा है। राज्य के शासन और जनता के बीच के सेतु के रूप में सूचना का अधिकार भविष्य में सामाजिक और प्रशासनिक विकास के व्यापक आधार को बल दे सकेगा। सूचना का अधिकार अपने प्रभावी रूप में समाज को सशक्त बनाता है और देश के विकास में सजग और सक्रिय भागीदारी का अवसर उपलब्ध कराता है। आवश्यक है कि इस अधिकार के उपयोग की उचित व्यवस्था हो और निगरानी भी होे। तकनीकी प्रगति के वर्तमान युग में जिसे ‘सूचना का युग’ भी कहा जाता है। भारत सूचना के अधिकार को अमली जामा पहना कर प्रजातंत्र के एक नए चरण में प्रवेश कर रहा है। आशा की जाती है कि इस पहल से प्रजातंत्र की जड़ें और भी मजबूत होगी।

सन्दर्भ सूची:

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3ण् विष्णु राजगढि़या एवं अरविन्द केजरीवाल-‘सूचना का अधिकार’ राजकमल प्रकाशन, 2007, नई दिल्ली
4ण् डाॅ0 सी0 पी0 बर्थवाल-‘जानिये सूचना का अधिकार’ भारत बुक सेन्टर, लखनऊ, 2006
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9ण् योजना, जनवरी 2006, नई दिल्ली
10ण् दृष्टिकोण मंथन, 01-15 मई 2007, नई दिल्ली
11ण् दैनिक जागरण 26 मार्च, 2007 ,नई दिल्ली
12ण् अमर उजाला, 16 जुलाई,2007, नई दिल्ली

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