Tuesday 31 March 2009

भारतीय समाजिक व्यवस्था में जातीय विषमता और संवैधानिक प्रावधान


सविता कुमारी
शोध छात्रा, राजनीतिविज्ञान विभाग,
काशी हिन्दू वि0वि0, वाराणसी।

               विकसित देश के समाज का प्रमाण अधिकार है। वर्तमान समय में मानवाधिकार को प्रत्येक देश में एक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली संस्था के रूप में देखा जाता है। भारतीय समाज में मानवाधिकार के प्रति बढ़ती चेतना इस बात का ंसंकेत है कि समाज में अब प्रत्येक वर्ग में अपने अधिकारों के प्रति सक्रिय दिलचस्पी है। मानवाधिकार का अस्तित्व प्राचीन काल से ही था, परन्तु तब कोई इसकी स्पष्ट परिभाषा नहीं थी। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में उन सभी विषयों पर ध्यान दिया गया है, जो अधिकार के साथ कत्र्तव्यों से भी जुड़े थे, उस समय कत्र्तव्य को ही अधिकार के रूप में परिभाषित किया जाता था। आज मानवाधिकार एक नया पहचान लेकर दुनिया के समक्ष आया है, हालांकि इसकी सार्वभौमिक घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 10 दिसम्बर 1948 को ही कर दिया गया था। भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में जब हम मानवाधिकार की बात करते हैं, तो सहज ही हमारा ध्यान उन वर्गों पर जाता है, जिन्हें वर्तमान में संविधान के द्वारा विशेष सुविधाएँ प्रदान की गई हैं, अखिर क्यों हमारा समाज कई वर्गों में बँटा है, सामान्य वर्ग, पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनु0 जनजाति इत्यादि। इस सवाल का उत्तर जानने के लिए हमे अपने इतिहास के पन्ने को पलटना होगा। इतिहास में हमारा समाज कैसा था, सामाजिक व्यवस्थाएँ कैसी थीं? तब हम पूरी व्यवस्था की जान समझ सकते हैं।
कोई भी विचार अचानक नहीं उत्पन्न नहीं होता है, विचारों की उत्पत्ति के लिए गहन पृष्ठभूमि होती है। किसी भी समाधान के पीछे समस्याएँ भी होती हैं, क्योंकि समाधान समस्या के निवारण के लिए ही होता है प्राचीन भारतीय समाज में ऐसे बहुत से कारण थे, जिसके कारण भारतीय समाज कई वर्गों में बँट हुआ था। प्राचीन भारतीय समाज में जाति प्रथा की व्यवस्था अत्यन्त ही कठोर थी, जिसमें निम्न वर्ग के लोगों के साथ पशुवत व्यवहार किया जाता था। धर्मसूत्रों में चाण्डाल को अत्यधिक हीन और महापातकी जाति के अन्तर्गत रखा गया है। गौतम के अनुसार ये कुत्ते और कौए के कोटि के थे।1 आपस्तम्ब की दृष्टि में चाण्डाल का स्पर्श करना ही पाप नहीं था, बल्कि उससे सम्भाषण करना और उसका दर्शन करना भी पाप था, जिसके लिए प्रायश्चित का विधान किया गया था।2 इस प्रकार के विधिशास्त्र से पता चलता है कि समाज में मनुष्य-मनुष्य के बीच में कितना भेद-भाव व्याप्त था। समाज की पूरी व्यवस्था धर्म पर आधारित थी।
छठीं शताब्दी वह काल था जब बौद्ध-धर्म का उत्कर्ष हुआ था। समाज में बौद्ध धर्म को लोकप्रियता मिली, क्योंकि बौद्ध-धर्म जाति के आधार पर अपने धर्म में कोई भेद-भाव नहीं करता था और सभी जाति के लिए बौद्ध धर्म के द्वारा खुले हुए थे। परन्तु बौद्ध कालीन युग में भी चाण्डाल जाति अत्यन्त निम्न स्तर का जीवन जीती थी। उसे नगर सीमा से बाहर रहना पड़ता था। उसे सर्वत्र तिरस्कार का सामना करना पड़ता था।3 जातकों से चाण्डाल की अत्यन्त हीन अवस्था का पता चलता है। उनमें उसकी अनेकानेक दयनीय अवस्थाओं का चित्रण है। स्मृतियों, पुराणों और समकालीन ग्रंथों में अपराध के लिए सजा का प्रावधान भी जाति के अनुसार था। एक ही अपराध के लिए ब्राह्मणों को सबसे कम सजा और शूद्रों को सबसे अधिक सजा मिलती थी।
भारतीय समाज में जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता गया, सामाजिक जटिलता बढ़ने लगी। विकास के साथ जटिलता का सृजन होना स्वाभाविक है, परन्तु जब वह नकारात्मक ढंग से बढ़ती है, तो उस समाज को आज के सन्दर्भ में विकसित नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज विकास का स्तर अधिकार से मापा जाता हे और अधिकार सभी को समान रूप से प्राप्त होना सामाजिक न्याय की पहली शर्त है। भारतीय इतिहास में गुप्तकाल को स्वर्ण युग कहा जाता है। इसी काल में अनेक जाति-उपजाति की भावना बढ़ी। अस्पृश्यता की भावना अब इतनी बढ़ गई थी कि चाण्डाल के अतिरिक्त अनेक ऐसे जाति के लोग थे जिन्हें अस्पृश्य माना जाता था, और उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता था।4 आज के सन्दर्भ में जब मानवाधिकार को प्राथमिकता दी जाती है, तब हम कैसे गुप्तकाल को स्वर्ण युग का काल कह सकते हैं।
उपरोक्त वर्णन से हम जान सकते हैं कि प्राचीन भारतीय समाज में जाति-प्रथा अमानवीय ढंग से प्रचलित थी। समाज में शूद्रों के अलावा दासों और स्त्रियों के साथ भी अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था, उन्हें जीवन की अनेक आधारभूत आवश्यकताओं से वंचित रखा जाता था। एक तरफ समाज में उच्च वर्ग के लोग ऐशो-आराम का जीवन जीते थे, तो दूसरी तरफ मानव का एक विशाल वर्ग जाति प्रथा के कठोर संरचना के कारण अपमानित जीवन जीने पर विवश था। जाति के आधार पर ही उन्हें व्यवसय करने के लिए मजबूर किया जाता था। अस्पृश्यों को केवल निम्नतम श्रेणी के व्यवसाय करने का ही अधिकार प्राप्त था, जिसके उनकी कारण आर्थिक दशा अत्यन्त ही दयनीय होती गई। अस्पृश्यता के कारण उन्हें गन्दी बस्तियों में रहना पड़ता था, जहाँ उन्हें अनेक प्रकार के बिमारियों का सामना करना पड़ता था, जिसके कारण उनके स्वास्थ्य का स्तर काफी नीचा था। अस्पृश्य जातियों के व्यक्ति उच्च जाति के लोगों के साथ नहीं बैठ सकते थे। उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश नहीं दिया जाता था। शिक्षा से वंचित होने के कारण वे समाज के मुख्य धारा से बहुत दूर हो गये।
अस्पृश्यता को परिभाषित करते हुए डाॅ0 जी0एन0 शर्मा ने कहा ‘‘अस्पृश्य जातियाँ वे हैं जिनके स्पर्श से एक व्यक्ति अपवित्र हो जाए और उसे पवित्र होने के लिए कुछ कृत्य करने पड़े।’’5 ईश्वर ने सभी मानव को समान बनाया परन्तु समाज को लोगों ने अपने स्वार्थसिद्धि हेतु विभाजित कर दिया। डी0एन0 मजुमदार ने भारतीय समाज में प्रचलित जाति प्रथा को बहुत ही सुन्दर ढंग से परिभाषित किया है, उनके अनुसार ‘‘अस्पृश्य जातियाँ वे समूह हैं जो अनेक सामाजिक व राजनीतिक निर्योग्यताओं का शिकार है, इनमें से अनेक निर्योग्यताएँ उच्च जातियों द्वारा परम्परागत तौर पर निर्धारित और सामाजिक दृष्टि से लागू की गई है।’’6 इन परिभाषाओं से प्रतीत होता है कि अस्पृश्यता एक ऐसी भावना थी, जिससे की अपवित्रता और घृणा की भावना जुड़ी थी।
एक सच्चाई यह भी है कि जिन चीजों का ज्यादा दमन होता है, उसका प्रतिकार भी उतना ही प्रबल होता है। भारतीय समाज में जाति के नाम पर की जाने वाली अमानवीयता के व्यवहार का समय आने पर लोगों ने उसका प्रबल विरोध करके, अपने-आपको समाज का एक सदस्य और मानव होने का गौरव भी प्राप्त किया। मध्यकाल में जब भारत में मुस्लिमों का साम्राज्य था, तब बहुत से लोगों ने जाति-पात के उलझनों और यातनाओं से छुटकारा पाने के लिए मुस्लिम धर्म को अपना लिया था, हालांकि यह बात भी सत्य है कि मुस्लिमों ने हिन्दुओं को मुस्लिम धर्म स्वीकार करने के लिए विवश भी किया था। आधुनिक काल में जब अंग्रेज भारत में अपना शासन स्थापित किया उस समय धर्म-परिवर्तन का एक लहर आया जिसमें बहुत से हिन्दुओं ने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया। अंग्रेजों ने अपने कूटनीति के तहत भारत में साम्प्रदायिकता का बीज बोया जिसका अन्तिम परिणाम भारत विभाजन के रूप में सामने आया। धर्म प्रारम्भ से ही भारतीय समाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता आ रहा है।
आधुनिक भारत में अस्पृश्यता को लेकर काफी विवाद हुआ, स्वयं अस्पृश्य जातियों ने अपने अधिकारों के लिए आंदोलन प्रारम्भ कर दिए। उनका साथ महात्मा गाँधी, डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर, पं0 मदनमोहन मालवीय जैसे विद्वानों ने दिये। दक्षिण भारत में अस्पृश्यों को मन्दिरों में प्रवेश का अधिकार नहीं था, जिसे स्वयं अस्पृश्य जातियों ने मन्दिरों में प्रवेश करके तोड़ा। उन्नीसवीं शताब्दी में समाज में अधिकार प्राप्त करने के लिए उन्होंने प्रबल विरोध किए। ज्योतिबा फूले एवं डाॅ0 अम्बेडकर ने अस्पृश्यों को संगठित करके ऐसे आन्दोलनों को आगे बढ़ाया। अस्पृश्यों को जब बुद्धिजीवियों का साथ मिला तब उनके विरोध में नई जान पैदा हो गई।जाति प्रथा के विरोध में ज्योतिबा फूले का योगदान अविस्मरणीय है। उन्होंने ‘सत्य-शोधन समाज’ की स्थापना करके अस्पृश्यों को उनके अधिकार दिलाने का प्रयास किया। बाद में इस आन्दोलन को डाॅ0 अम्बेडकर ने आगे बढ़ाया। 1920 ई0 में इनके नेतृत्व में ‘अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ’ एवं ‘अखिल भारतीय दलित वर्ग फेडरेशन’ स्थापित किए जिनके माध्यम से अस्पृश्यों के अधिकारों की आवाज उठाई गई। 30 दिसम्बर, 1931 ई0 को बम्बई में पं0 मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में एक विशाल सभा इुई और 1932 ई0 में सारे देश में अस्पृश्यता-निवारण के लिए ‘अखिल भारतीय सेवक संघ’ की स्थापना की गई।7 इस संघ ने अस्पृश्यों को उनके अधिकार दिलाने एवं निर्योग्यताओं को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे पूर्व राजाराम मोहन राय और उनके द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज ने भी जाति प्रथा का विरोध किया था।
स्वतंत्रता प्राप्त होने से पूर्व ही अस्पृश्यता निवारण के लिए सरकारी प्रयास प्रारम्भ हो गये थे। 1920 ई0 में काँग्रेस ने अस्पृश्यता निवारण को अपने प्रयोग का एक महत्वपूर्ण अंग बनाया। 1936 ई0 में काँग्रेस मन्त्रिमण्डलों की स्थापना के बाद इनकी अवस्था सुधारने के प्रयास किए गए। भारतीय संविधान निर्माताओं ने जाति-पाँत के गंभीर समस्या पर विचार किया और इसके निवारण हेतु संविधान में कठोर प्रबंध किए गए। संविधान में मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत भेद-भाव को समाप्त करने का प्रावधान किया गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक समता का अधिकार दिया गया है, जो जाति के आधार पर भेदभाव रोकने का एक सशक्त माध्यम है। संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत ‘राज्य’ किसी नागरिक के साथ उसके धर्म, नस्ल, जाति, लिंग अथवा जन्म स्थान आदि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगा और न ही इनमें से किसी आधार पर किसी व्यक्ति को दुकानों, होटलों, कुओं, तालाबों, स्नानगृहों तथा मनोरंजन के अन्य स्थानों पर किसी प्रकार की मनाही होगी। अनुच्छेद 16 में कहा गया है कि ‘सभी-नागरिकों’ को सरकारी नौकरी पाने के समान अवसर होंगे और किसी भी प्रकार के भेद-भाव के बिना सरकारी नौकरी या पद प्राप्त करने में भेदभाव नहीं किया जाएगा। दलित जिन्हें पिछड़ा वर्ग भी कहा जाता है, बहुत लंबे समय तक कमजोर और सुविधाहीन जीवन जीते रहे, उन्हें ध्यान में रखकर संविधान के अनुच्छेद 17 में किसी भी प्रकार के भेदभाव का निषेध किया गया है जिसके आधार पर संसद द्वारा अस्पृश्यता अधिनियम (अपराध) 1955 बनाया गया।8 1976 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया यह अधिनियम 1955 (संशोधित) लागू कर दिया गया। भारतीय दण्ड संहिता के सामान्य कानून भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के साथ किए जाने वाले अपराध सिद्ध हुए हैं। भारतीय संसद ने 1989 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के नाम से एक प्रस्ताव पारित किया।
भारतीय संविधान के प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्षता की बात कही गयी है। डाॅ0 बी0आर0 अम्बेडकर ने (संसद में हिंदू कोड-बिल पर बहस में भाग लेते हुए) 1951 में धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा ‘धर्मनिरपेक्ष’ राज्य का अर्थ यह नहीं है कि वह लोगों की धार्मिक भावनाओं का ध्यान नहीं रखेगा। धर्म निरपेक्ष राज्य का अर्थ केवल यह है कि यह संसद सारी जनता पर कोई एक विशेष धर्म नहीं थोप पाएगी। केवल यही एक सीमा है जिसे संविधान मान्यता देता है।9 हम समझ सकते हैं कि भारतीय समाज में एक समय वह था, जब धर्म के अनुसार राज्य के कार्य होते थे, और जाति के आधार पर लोगों को पद प्राप्त होते थे। आज उसी भारत में धर्म के आधार पर कोई कार्य देश नहीं करता, देश में सभी धर्म सम्मानीय है, राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है। न्यायाधीश एच0आर0 खन्ना के अनुसार ‘‘धर्म निरपेक्षता न तो देव विरोधी हैं और न ही देव-समर्थक। इसका व्यवहार तो भक्त, नास्तिक और भौतिकवादी सबके प्रति एक समान रहता है। धर्मनिरपेक्षता राज्य के मामलों से धर्म को अलग रखती है और यह सुनिश्चित करती है कि धर्म के आधार पर किसी भी व्यक्ति से भेदभाव न किया जाए।’’10
भारतीय संविधान के अतिरिक्त मानवाधिकार आयोग और गैर-सरकारी संगठन के द्वारा भी पिछड़े वर्गों को विकास के मुख्य धारा में जोड़ने का कार्य किया जा रहा है। मानवाधिकार सुरक्षा अधिनियम जो 1993 में पारित हुआ था, इस बात पर विशेष रूप से जोर देता है कि समाज के विभिन्न वर्गों में मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता लाने के लिए ठोस कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।11 आज भी भारत में शिक्षा का स्तर काफी पिछडा़ हुआ है, जिसके कारण लोगों को अपने अधिकारों के विषय में पूर्ण रूप से जानकारी प्राप्त नहीं है, जिसके कारण वे संविधान द्वारा प्राप्त अपने अधिकारों का लाभ नहीं उठा पाते हैं। भारतीय संविधान में मानव अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं का समावेश एक ऐसे उपकरण के रूप में किया गया है जो सरकार को मर्यादित करते हैं और राज्य के प्रजातांत्रिक स्वरूप को व्यवहारिक आधार प्रदान करते हैं। ये अधिकार इस विश्वास की पुष्टि है कि प्रजातंत्र का आधार व्यक्तियों की स्वतंत्रता है। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के अतिरिक्त नीति निर्देशक तत्वों को सम्मिलित किया गया है, जो कि राज्य के कल्याणकारी स्वरूप को प्रदर्शित करते हैं, ये भारतीय राज्य के विधेयात्मक और सकारात्मक मार्ग-निर्देशक हैं, और शासन के संचालन में ‘‘मौलिक महत्त्व’’ रखते हैं।12 नीति-निर्देशक तत्त्व में सामाजिक न्याय पर बल दिया गया है जिसके अन्तर्गत पिछड़े वर्गों को विशेष संरक्षण, सबके लिए शिक्षा, समान कार्य के लिए समान वेतन, निर्धनों को मुफ्त कानूनी सहायता, एक समान विधि संहिता का उल्लेख है। 1986 की दिल्ली घोषणा में प्रत्येक मनुष्य के जीवन, स्वतंत्रता शांति और सुख के अधिकार को मान्यता दी गई तथा वैचारिक स्वतंत्रता को सम्मान देने की बात की गई।
स्वतंत्र भारत में अस्पृश्य और गरीब वर्ग के लिए सरकार ने रोटी, कपड़ा और मकान के लिए अथक प्रयास किये हैं क्योंकि उन्हें जीवन की ये तीन आवश्यकता भी सुलभ नहीं थी। सरकार द्वारा पिछड़े वर्गों के लिए अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम केन्द्र एवं राज्य स्तर पर संचालित किए जा रहे हैं। इंदिरा आवास योजना, बाल्मीकि अंबेडकर आवास योजना, जिसे क्रमशाः 1984 और 2001 में शुरू की गई थी, एक ऐसा प्रयास था, जिसके अन्तर्गत झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों की स्थिति में सुधार करने का प्रयास था।13
संवैधानिक प्रावधानों के द्वारा अस्पृश्य और दलित वर्ग कहे जाने वाले वर्ग को समाज में सम्मानजनक स्थिति देने का प्रयास किया गया है। विचारणीय बात यह है कि सिर्फ कानून बना देने से समस्या का समाधान नहीं हो जाता, आज भी दलितों के साथ भेद-भाव पूर्ण व्यवहार अपनाया जाता है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कानून हर जगह व्यवहारिक रूप से कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि जब तक एक मानव का दूसरे मानव के प्रति सोंच नहीं बदलेगा समाज से यह भावना नहीं जाने वाली है। कानून के अपने दायरे हैं, कानून किसी के चिंतन पर लागू नहीं हो सकता वह सिर्फ किये गये व्यवहार पर ही लागू होते हैं। के0एम0 पणिक्कर के मतानुसार, ‘‘यह मान लेना सर्वथा अनुचित होगा कि अस्पृश्यता समाप्त हो जाने की घोषणा कर देने से ही अस्पृश्यों की सामाजिक निर्योग्यताएँ समाप्त हो गई हैं।14 यह कथन बहुत हद तक सच्चाई को सामने रखती है क्योंकि व्यवहारिक जीवन में ये निर्योग्यताएँ आज भी दिखाई पड़ती हैं। हालांकि सरकारी और गैर-सरकारी दोनों तरह के प्रयास इस विषमता को समाप्त करने हेतु प्रयासरत है। मानवाधिकार आयोग के पास अगर दलितों के ऊपर होने वाली किसी भी प्रकार की शिकायत आती है, तो आयोग अविलम्ब कार्यवाही करता है। दलित वर्ग की स्थिति में पूर्णतः सुधार नहीं आना सरकार की लापरवाही न होकर भ्रष्ट प्रशासन और स्वयं दलितों में जागरूकता का अभाव है। आरक्षण का प्रावधान उनकी कमजोर पृष्ठभूमि को मजबूत बनाने के लिए ही किया गया है, परन्तु ये समाज के वे भाग हैं, जहाँ पूर्ण रूप से ‘शिक्षा’ नहीं है, जागरूकता नहीं है बल्कि कुंठा है, अभाव है। जब तक कुंठा और अभाव जीवन में रहता है वे अपनी क्षमताओं का विकास कर पाने में असमर्थ हैं।
पिछड़े वर्ग को विकास के रास्ते पर लाने के लिए सिर्फ कानून ही पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि पूरे समाज को जाति की ओछी भावना से ऊपर उठकर सोंचने की आवश्यकता है। समाज वह स्थान है जहाँ मनुष्य निवास करता है, समाज में ही उसे भावनाओं का सम्मान या अपमान मिलता है। जब तक सामाजिक रूप से अस्पृश्य कहे जाने वाले वर्ग को समानता का भाव प्राप्त नहीं होगा, तब तक ना तो सांविधानिक प्रावधान और न ही कोई आयोग इस विषमता को समाप्त कर पाने में सक्षम होगा, इसके लिए जन-जन में समान होने का भाव पैदा होना जरूरी है।
भारत में जाति का राजनीतिकरण कर दिया गया है। यह कथन प्रसिद्ध लेखक रजनी कोठारी का है। भारतीय समाज के वर्तमान स्वरूप को देखकर कोठारी जी का कथन सत्य लगता है, क्योंकि आज जाति के नाम पर विकास कम राजनीति अधिक हो रही है। जातिवाद आज के भारत का सबसे बड़ी समस्या है, इसके कारण अलगाववादी भावना का संचार हुआ, जिससे आतंकवाद, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद जैसे विचारों का प्रभाव व्यापक रूप से फैला है।
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, भारतीय लोकतंत्र सभी को मान्यता देता है। आज इस बात की आवश्यकता है कि वंचित लोगों के हितों की रक्षा करने के लिए सभी को प्रयास करना चाहिए, क्योंकि सिर्फ संवैधानिक प्रावधान किसी विचार, प्रथा को बदलने के लिए पर्याप्त नहीं है, इसके लिए आज मानसिक क्रांति की आवश्यकता है, जो व्यवहारिक जीवन में मानवता को सम्मान दे, जिससे भारत विकसित देशों की श्रेणी में गर्व से खड़ा हो सके।

सन्दर्भ ग्रन्थ -
1. गौतम धर्मसूत्र - 5.15-16, 15.25
2. आपस्तम्ब धर्मसूत्र- 2.1.8
3. जातक, पृ0- 200, 376, 390
4. बाशम, ए0एल0 - अद्भुत भारत, पृ0-84
5. शर्मा, जी0एन0 - भारतीय समाज और संस्कृति, पृ0-262
6. मजुमदार, डी0एन0- रेस एण्ड कल्चर आॅफ इण्डिया, पृ0-326
7. साह, घनश्याम - सोशल मूवमेन्ट एण्ड स्टेट
8. पाण्डे डाॅ0 जय नरायण- भारतीय संविधान, पृ0-84
9. पायली, एम0वी0-काॅनस्ट्यिूशन गवर्नमेंट आॅफ इण्डिया, पृ0-27
10. खन्ना, एच0 आर0- कान्स्टीच्यूशन एण्ड सिविल लिबरटीज, पृ0-53
11. दीक्षित, रमेशचंद्र- मानवाधिकार दशा और दिशा, पृ0-177
12. अग्रवाल, एच0ओ0- इम्पलीमेन्टेशन आॅफ ह्युमन राइट डेवलपमेंन्ट विद स्पेशल रेफरेन्स टू इण्डिया, पृ0-116
13. भारत 2007, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, पृ0-52
14. पणिक्कर, के0एम0 - हिन्दू सोसाइटी क्रास रोड्स, पृ0-27-28

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