Monday 1 April 2013

पत्रकारिता एवं जनान्दोंलनों का प्रगतिमान विष्लेषण


विनय कुमार त्रिपाठी                          

पत्रकारिता एवं जनान्दोंलन भारतीय परिवेष में सम्यक्रूपेण स्थापित हो चुका है। हिन्दुस्तान में जनसंचार के माध्यम के रूप में हिन्दी का प्रयोग कोई नयी बात नहीं है। अभिव्यक्ति की क्षमता पाते ही, जन-कथा एवं पुराण-कथा के रूप में हिन्दी जनसंचार का माध्यम बन गयी थी। संस्कृत साहित्य में भी मेघों, दूतों कबूतरों आदि के द्वारा पत्रों एवं सूचनाओं का प्रेषण किया जाता था। जनान्दोलनों में मीडिया ने हिन्दुस्तान के स्वतंत्रता आन्दोलन को हिन्दी के माध्यम से चलाया था। जन नेता हिन्दी की शक्ति को जानते हैं। इसलिए जनसंचार के विभिन्न माध्यमों यथा रंगमंच, प्रकाषन, पत्रिका, समाचार पत्र, प्रसारण, फिल्मों आदि के द्वारा जनसभा, संबोधन में हिन्दी का व्यापक प्रयोग कर विदेषी शासन के विरुद्ध सषक्त आन्दोलन चलाया गया था।
       ज्ञान, अनुभव, संवेदना, विचार, परिवर्तनों की साझेदारी ही संचार है। जनसंचार साधारण जनता के लिए होता है। इससे संदेष तीव्र गति से गन्तव्य तक पहुचता है। इसका रूप लिखित या मौखिक हो सकता है। इसके द्वारा जनसामान्य की प्रतिक्रिया का पता चल जाता है एवं इसका प्रभाव गहरा होता है। इन्हीं संम्प्रेषणों के द्वारा सम्पूर्ण विष्व के आन्दोलनों में जनसम्पर्क अथवा पत्रकारिता का स्थान अतुलनीय है। लोगों तक समस्त तथ्यों का बोध कराना एवं उसकी प्रक्रियाओं का भी आकलन करना पत्रकारिता का मूल लक्ष्य है।
       हिन्दी की संप्रेषण क्षमता अतुलनीय है। संप्रेषण हमारे वातावरण के साथ शारीरिक, मानसिक और सामाजिक स्तर पर एक प्रकार की अन्तःक्रिया है। मीडिया के रूप में प्रचलन में एक है प्रिन्ट मीडिया दूसरा है इलेक्ट्रानिक मीडिया। प्रिंट मीडिया में समाचार पत्र एवं पत्रिकाएँ आती हैं। स्वतंत्रता के बाद समाज में राजनैतिक जागृति, सामाजिक, धार्मिक, आपराधिक, आर्थिक, गतिविधियों एवं घटनाओं के प्रति जनसामान्य की जिज्ञासा में वृद्धि के कारण हिन्दी समाचारपत्रों के प्रसार संख्या में बड़ी वृद्धि हो रही है।
पुराने समय में जनता तक अपनी बात कहने के तरीके को जनसम्पर्क कहा जाता था किन्तु अंग्रेजी हूकूमत में आधुनिकीकरण के कारण यह शब्द जनसंचार हो गया। आजादी के पष्चात् भारतीय विद्वानों ने इसे एक नया नाम पत्रकारिता दे दिया।
वस्तुतः जनसम्पर्क बीसवीं शताब्दी की देन है। वैसे इसका इतिहास पुराना है, पर व्यवसाय के रूप में एकदम नया है। सभ्यता के आगमन के समय से ही समाज में जनसम्पर्क की उपस्थिति रहीं है। प्राचीन मिश्र, बेबीलोन, सुमेरिया एवं दूसरे प्राचीन राज्यों के शासकों को यह ज्ञात था कि अपनी महानता का बखान जनता के मध्य सुविचारित तरीके से कैसे किया जाएं? ऐसे अनेक अवसर देखने को मिलते हैं जिसमंे राजा अपने आपको ईष्वर तुल्य समझकर जनता को आदेषपत्र जारी करने एवं पालन करवाने का अधिकार रखता था। प्राचीन काल के राजा महाराजा जन अभिमत निर्माण में अनेक प्रकार के प्रचार साधनों तथा माध्यमों का प्रयोग करते थे।
भाँट एवं घुमन्तू चारण कवि अपने आश्रयदाता राजाओं एवं वीरों की महानता के गीत गाते थे। ये उस काल के लोकप्रिय जनसंचार माध्यम थे। जो कि जनता तक राजनीति का संप्रेषण करते थे तथा वीरों एवं राजाओं के पक्ष में जन अभिमत तैयार करते थे। यूनान के लोग अभिमत के महत्त्व को भलीभाँति समझाते थे। जनसम्पर्क के क्षेत्र में रोम उन दिनों सब देषों का अग्रणी था। रोमन बादषाह जूलियस सीजर ने दैनिक समाचार पत्र ‘‘एक्टा डियूर्ना’’ भी 44से 100ई0पू0 में प्रकाषित करना शुरू किया था। इस पत्र में केवल शासन सम्बन्धी सूचनाएं रहती थी। पैम्फलेट्स वितरण, प्रदर्षन, नारेबाजी का रिवाज भी रोम से ही विकसित हुआ और प्रजातन्त्र प्रणाली वाले देषों में फैलता चला गया। सैनिक वेषभूषा तथा युद्ध प्रोपेगैण्डा भी रोमन साम्राज्यों की देन है। जनसम्पर्क का रोम में एक आदर्ष रूप रहा होगा। जनसम्पर्क के उत्कर्ष स्वरूप का सबसे बड़ा उदाहरण इस कहावत से स्पष्ट होता है कि वहाँ ‘वाक्स पापुलि वाक्स डेई ;टवग च्वचनसपए टवग क्मपद्धष् अर्थात् जनता की आवाज भगवान की आवाज माना जाता था।
यूरोप के विभिन्न हिस्सों एवं ब्रिटेन से अमेरिकी कालोंनियों में आकर बस रहे नये निवासियों एवं ब्रिटिष शासकांे के मध्य संघर्ष अवष्यमभावी हो गया। ब्रिटिष आधिपत्य से छुटकारा पाने हेतु अमरीकी जनता ने अमरीकी स्वतन्त्रता आन्दोलन में जन समर्थन जीतने हेतु अनेक नवीन तकनीकों का प्रयोग किया, जो कि कालान्तर में जनसम्पर्क का माध्यम बन गया। बाद में पर्ची एवं समाचारपत्रों का प्रचार-प्रसार भी इसके माध्यम के रूप में जुड़ गया। देष-विदेष के गणमान्य व्यक्तियों तक पत्र-सम्प्रेषित किए गये। जनसमितियों एवं सभाओं में सम्भाषणों एवं उक्तियों का व्यापक उपयोग किया गया। प्रदर्षनियों के आयोजन, नाट्यमंचनों, लोकगीतों एवं लोकनृत्यों के माध्यम भी स्वतन्त्रता आन्दोलन को सफल बनाने हेतु प्रयुक्त किये गए।
 ब्रिटिष शासकों ने आन्दोलन को दबाने हेतु प्रेस की आजादी पर तरह-तरह से रोक लगाना शुरू कर किया। स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के लिए प्रेस माध्यमों पर कानून बनाकर भारी टैक्स देना एवं लाइसेंस लेना अनिवार्य कर किया। सरकार समाचारपत्रों एवं अन्य प्रकाषनों को तरह-तरह से परेषान किया जाने लगा। प्रेस की आजादी की मुखर माँग कालान्तर में स्वयंमेव स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़ गयी।
प्रथम विष्वयुद्ध एवं जनसम्पर्कः- जनसम्पर्क का वास्तविक स्वरूप प्रथम विष्वयुद्ध के दौरान 1914-18 के काल में ज्यादा मुखरित हुआ। विष्व इतिहास में प्रथम बार, एक अलग तरह का युद्ध प्रारम्भ हुआ। इस मध्य व्यापारिक, वैज्ञानिक एवं पुनर्जागरण काल की एक नवीन क्रान्ति हुई। अनेक टापुओं पर बसे कई देषों की खोज हुई। यूरोप के व्यापारी सुदूर समुद्रों में बढ़ गए। व्यापार के लिए नये देष खोज निकाले गये। इस प्रगति के साथ-साथ युद्ध सामग्री का निर्माण भी प्रारम्भ हो गया। चेतना की जागृति तथा जनसम्पर्क के अवसरांे के कारण विचारों का आदान-प्रदान होने लगा। प्रचार और प्रोपेगण्डा ने व्यापक रूप ले लिया। अनेक सुप्त देषों में अधिकारों के लिए ललक जागी। कतिपय देषों द्वारा की गई प्रगति असहाय हो गयी। इन सभी कारणों ने मिलकर विष्व में एक महायुद्ध का रूप धारण कर लिया।
 अमरीका ने इस महायुद्ध में अप्रैल, 1917 में प्रवेष किया। अमेरिका पहला देष था जिसने सरकारी तौर पर जनसम्पर्क पर विषेष ध्यान किया। राष्ट्रपति विल्सन ने अपनी सरकार के लिए अप्रैल, 1917 ई0 में एक पूर्व समाचारपत्र संपादक जार्ज ग्रील के निर्देषन में ‘‘कमेटी आन पब्लिक इन्फार्मेषन’’ गठित की थी। यह कमेटी वास्तव में बिल्सन साहब की नीतियों और कार्यो की योजना बद्ध तरीके से प्रचार करती थी। यह कमेटी जनसम्पर्क के इतिहास में ‘‘ग्रील कमेटी’’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस कमेटी ने सरकारी तौर पर एक विभाग के रूप में जनसम्पर्क के महत्त्व को स्थापित किया। इस कमेटी का एक सदस्य प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिंग्मंड फ्रायड का भतीजा ‘एडवर्ड’ एल बर्नेज भी था। 1923 ई0 में इन्होंने दुनिया में जनसम्पर्क के पक्ष को मुखरित करने वाली पुस्तक ‘‘क्रिस्टलाइजिंग पब्लिक ओपनियन’ भी लिखी, जो बड़ी लोकप्रिय हुई। इनके प्रयास से अमरीका में जनसम्पर्क व्यवसायियों की पहली पीढ़ी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रथम विष्वयुद्ध के दौरान इनके द्वारा विकसित जनसम्पर्क की तकनीकों का प्रचार अन्य अनेक देषों तक पहँुच गया।
द्वितीय विष्वयुद्ध एवं जनसम्पर्कः- द्वितीय विष्वयुद्ध के प्रारम्भ में जनसम्पर्क आषातीत ऊँचाई का स्पर्ष कर चुका था। इस मध्य प्रकाषन की नई तकनीकों रेडियों एवं सवाक् फिल्मों के आविष्कारों का जनसम्पर्क प्रयोग हेतु अधिकाधिक प्रयोग किया गया। जनसामान्य की अभिरूचि के अनुसार जनता के विभिन्न वर्गो के मध्य संवाद स्थापित कर अपने संगठन के प्रति समर्थन जुटाने में, रेडियों एवं सवाक फिल्मों की नवीन तकनीकों ने अपनी अभूतपूर्व प्रामाणिकता सिद्ध कर दी। प्रसिद्ध अमेरिकी व्यापारिक पत्रिका ‘फाचर््यूँन’ जिसने 1938 में पहली बार जनसम्पर्क की आवष्यकता की वकालत की थी। 1949 में जनसम्पर्क के क्षेत्र में एक व्यापक सर्वेक्षण कराने हेतु अपनी रूचि प्रदर्षित की मई के अपने अंक में इसने अपने सर्वेक्षण के परिणामों को प्रकाषित भी किया। इस रिर्पोट में यह विष्लेषित किया गया कि अमरीका का व्यापार जगत मुसीबतों में चल रहा है, और इसके उज्ज्वल भविष्य को स्थापित करने में मात्र अच्छा जनसम्पर्क ही सहायता कर सकता है।
 इसी मध्य अमेरिकी विष्वविद्यालयों के शैक्षिक जगत पर भी जनसम्पर्क का प्रभाव पड़ा और कालान्तर में यह विष्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी शामिल कर लिया गया। सन् 1944 से ‘‘पब्लिक रिलेसन्स न्यूज’’ एवं ‘‘पी आर जर्नल’’ नामक प्रकाषन भी अमेरिका से प्रकाषित होने लगे। सन् 1948 में पूर्व में स्थापित अनेक संगठानों द्वारा मिलकर अमेरिका में ‘‘पब्लिक रिलेसंस सोसायटी आँफ अमेरिका’’ नामक जर्नल का प्रकाषन आरम्भ किया। नागासाकी शहरों में परमाणु बमों के प्रचण्ड विनाश ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर अच्छी समझ एवं मानवीय पहलुओं की सोच की आवष्यकता को जन्म दिया। इसी आवष्यकता ने 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। इसके चार्टर के मूल में मानवीय पहलुओं को केन्द्रित किया गया। साथ ही मनुष्य के मौलिक अधिकारों की रक्षा को सर्वोपरि रखा गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्य देषों ने ‘‘मानवाधिकार के चार्टर’’ में विष्वास प्रकट करके हस्ताक्षर किए। इस चार्टर में कहा गया कि मनुष्य की शारीरिक और भौतिक आवष्यकताओं की पूर्ति की बात के साथ ही उसका बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक जरूरतों की पूर्ति भी इन अधिकारों के तहत होनी चाहिए।3 जनसम्पर्क की अन्तर्राश्ट्रीय आचार संहिता ;प्ब्म्त्द्ध में सभी सदस्य राष्ट्रों के जनसम्पर्क व्यवसायिकों के लिए भी निर्धारित अन्तर्राष्ट्रीय नैतिक संहिता और मानवीय पहलुओं को सर्वोपरि रखा गया।
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन एवं जनसम्पर्कः- भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में जनसम्पर्क का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। जनता को अपने विचार व्यक्त करने के लिए कुछ राष्ट्रवादी अखबारों के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं था और जो थे भी उन पर सरकार द्वारा इतने प्रतिबंध एवं निषेध लगाए गए थे कि उनमें से अधिकांष को अपना प्रकाषन बंद कर देना पड़ा अथवा सरकार द्वारा जबरन बन्द करा दिया गया। द्वितीय विष्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिष हुकूमत को एक बार पुनः जनता के पास जाने एवं उसका विष्वास जीतने की नौबत आई। ऐसे हालात जबकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एवं राष्ट्रीय जनता की भावना युद्ध के खिलाफ थी तब भी युद्ध के पक्ष में भारतीय जनमानस को मोड़ना एवं समर्थन में खड़ा करना आवष्यक था। ऐसे समय में सरकार को अनेक जनकल्याणकारी कदम उठाने पड़े थे।
 इसी समय ‘सूचना एवं प्रसारण मन्त्रालय का गठन किया गया तथा पूर्व में गठित सूचना निदेषालय को इस मंत्रालय में सम्मिलित कर किया गया। नवीन मंत्रालय ने युद्ध के समर्थन में आने के लिए जनसम्पर्क की नवीन तकनीकों का प्रयोग बहुत ही चेतना के साथ प्रराम्भ किया। इसके लिए एक राष्ट्रीय युद्ध प्रकोष्ठ का गठन किया गया तथा मंत्रालय के अधीन अनेक नवीन इकाइयों का यथा, युद्ध परक प्रदर्षनी इकाई, फिल्म प्रभाग एवं सेन्ट्रल ब्यूरों आॅंफ पब्लिक ओपिनियन का गठन किया गया।4 युरोप एवं अमेरिका की ही भाँति भारत में भी युद्ध के पक्ष में भारतीय जनमानस को ब्रिटिष हुकूमत के साथ लाने का प्रचार और प्रयास काम आया और इसने अन्ततः भारतीय जनमानस एवं ब्रिटिष सरकार के मध्य एक संगठित क्रियाकलाप को जन्म किया।
भारत में भी राष्ट्रीय आन्दोलन को सफल बनाने में जनसम्पर्क की तकनीकों ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की जनसम्पर्क के क्षेत्र की पकड़ के लिए महात्मा गाँधी ने ‘हरिजन’ तथा यंग इण्डिया नाम के दो पत्र प्रकाषित करने आरम्भ किये। उधर लोकमान्य तिलक से भी गोरी सरकार काँप गई थी क्योंकि इनके पत्रांे का अभिमत जनता का सही प्रतिनिधित्व करता था। यद्यपि महात्मा गाँधी एवं तिलक भाषाई एवं सांस्कृतिक आधार पर देष की अन्य जनता से विभिन्नता रखते थे तथापि उनके जनसम्पर्क का अनूठा प्रयोग भाषा, जाति, लिंग, धर्म आदि को लाँघता हुआ देष को आजादी के द्वार तक पहुँचा दिया। सरकार द्वारा लगायी गई विभिन्न पाबंदियों एवं ज्यादतियों का विरोध करने तथा जनता का समर्थन पाने के लिए जिस तकनीक का प्रयोग करते थे। वह तकनीक आज सम्पूर्ण विष्व में जनसम्पर्क व्यवसाय की उच्च मानक है। पैम्पलेट्स एवं प्रचार सामग्रियों ने कर दिखाया।5
महात्मा गाँधी जनता तक अपनी बात पहुचाने हेतु जन संप्रेषण के परम्परागत माध्यमों की कभी भी उपेक्षा नहीं करते थे। उन्होंने सम्मेलनों, बैठकों, परिचर्चाओं एवं संभाषणों के अतिरिक्त ‘हरिजन’ एवं यंग इण्डिया’ जैसे जर्नल भी लगातार प्रकाषित कर जनता से उनकी समस्याओं को जानने एवं उनका निराकरण करने हेतु आन्दोलन का मार्ग पकड़ने के लिए राजी किया।
इस प्रकार स्वतन्त्रता प्राप्ति के साथ ही भारत में प्रजातान्त्रिक निर्वाचित सरकार ने जनता को सूचना देने के महत्त्व का अनुभव किया क्योंकि समस्त विष्व के जनान्दोलनों में जनसंचार एवं पत्रकारिता के विविध आयामों का सहयोग रहा है। इसी जनसंचार एवं पत्रकारिता के माध्यमों का प्रगति हेतु सरकार ने विषाल स्तर पर जनसंचार एवं सूचना के माध्यमों की सुविधाओं का विकाष करना प्रारम्भ कर किया है। इस कार्य को वरीयता के आधार पर महत्त्व प्रदान किया जाता है। आजकल केन्द्र में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन जनसम्पर्क के लिए सूचना एवं प्रसार विभाग काम करता है। यही मंत्रालय सूचना एवं प्रसारण के विभिन्न माध्यम इकाइयों के साथ सूचना नेटवर्क बनाकर निरीक्षण एवं संचालन आदि का कार्य करता है।
महात्मा गाँधी का विचार था कि आपकी जनता जिस रूप में हो अगर आप उस रूप में नहीं हो, तब आप उसके सच्चे नेता एवं प्रतिनिधि नहीं हो। यही कारण था कि व्रिटेन के शाही अंदाज एवं लिबास के परिवेष में पले-बढ़े एवं पढ़े वैरिस्टर मोहनदास करमचन्द्र गाँधी जब भारत वापस लौटे और यहाँ की गरीबी-निर्धनता एवं ब्रिटिष हुकूमत की यातना देखी, तब उन्होंने अपने सारे अंग्रेजी लिबास त्यागकर सर्वाधिक गरीब भारतीय का पहनवा पहनकर जीवन जीना शुरू किया। इसी कारण वे जनता के सच्चे सेवक एवं करोड़ों जनता के शुभचिंतक बने। उन्होंने अपने हाथ की वुनी चरखे से काती धोती पहनकर लाखों लोगों को आत्मनिर्भरता का संदेष दिया। आगे चलकर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रतीक चिन्ह ‘‘चरखा’’ लाखों लोगांे की एक मात्र स्वाभिमान का घोतक हो गया। महात्मा गाँधी की जनसम्पर्क की तीसरी घटना ‘‘डान्डी यात्रा’’ से जानी जाती है जिसमें गाँधी जी ने ब्रिटिष ‘‘नमक कानून’’ को तोड़ने के लिए लाखों लोगों के साथ स्वयं नमक बनाया और ब्रिटिष सरकार की चूलें हिला दी थी। इसी के साथ उन्होंने विदेषी कपड़ों की होली जलवाकर खादी कपड़ों से देष को आत्मनिर्भरता का पाठ सिखाया। यह वैसी ही धटना थी, जैसा कि अमेरिका में (बोस्टन टी पार्टी)की घटना थी। इन घटनाओं ने लाखों लोगों तक संदेष पहुँचाने एवं उन्हें अपने समर्थन में खड़ा करने का कार्य बिना किसी पोस्टर, बैनर के कर दिया।
     सूचना एवं प्रसार मंत्रालय के अधीन सर्व प्रथम युद्ध परम प्रदर्षनी, फिल्म प्रभाग, सेन्ट्रल व्यूरो आफॅं पब्लिक ओपिनियन था। किन्तु बाद में पत्र सूचना कार्यालय ;च्प्ठद्ध विज्ञापन एवं दृष्य प्रचार निदेषालय ;क्।टच्द्धए आकाषवाणी, दूरदर्षन, फिल्मस डिवीजन, रजिस्ट्रार आव न्यूज पेपर्स फार इण्डिया ;त्छप्द्ध क्षेत्रीय प्रचार निदेषालय, फोटो डिवीजन, फिल्म महोत्सव निदेषालय, गीत और नाटक विभाग, गवेषणा एवं सन्दर्भ विभाग, केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड एवं प्रकाषन विभाग प्रमुख रूप से आते है।
अन्ततः यह कह सकते हंै कि जनसम्पर्क ही जनान्दोलनों का प्रमुख कारण है। डाॅं0 अर्जुन तिवारी का कथन है कि- ‘‘जनता की आवाज ही ईष्वर का आदेष है लोक निर्णय का सर्वोपरि मानना जनसम्पर्क का रहस्य है।’’7 इसी पत्रकारिता के माध्यम से आज ही नहीं वह भविष्य मानव अपनी संवेदनाओं की जनसमूहों में समक्ष रख सकती है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1ण् क्ीमदादमल टण्डए च्नइसपब तमसंजपवद ठनेपदमेे - च्नइसपब ।कउपदपेजतंजपवदपद प्दकपं टंपेींसप च्ववदंए 1992
2ण् ज्ञंनस श्रण्ड ए  च्नइसपब त्मसंजपवद पद पदकपं ंदक म्कनबजपवद छवलं च्ंतांेी ब्ंसबनजजं 1982
3ण् डमीजं क्ण्ैए  भ्ंदक इववा व ि च्नइसपब त्मसंजपवदे पदकपं ।ससपममक च्नइपेीमेे च्ज सजष्कए ठवउइंल 1980
4ण् ठंें ।दपस ए   च्नइसपब त्मसंजपवदे पद पदकपं ंदक च्तवेचमबजे क्मसीप 1982
5.गुप्त वलदेव राज, भारत में जनसम्पर्क विष्वविद्यालय प्रकाषन वाराणसी, 1984।
6.वैदिक डाँ0 वेदप्रताप- हिन्दी पत्रकारिता विविध आपाम।
7.आधुनिक पत्रकारिता, डाँ0अर्जुन तिवारी विष्वविद्यालय प्रकाषन चैक वाराणसी।
डाॅं0 विनय कुमार त्रिपाठी
‘‘प्रवक्ता’’ संस्कृत विभाग,
रघुवीर महाविद्यालय, रघुवीर नगर, थलोई जौनपुर।