अन्जू गुप्ता
शोध छात्रा, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन सभी धर्मों में भविष्य के संदर्भ में कोई न कोई अवधारणा प्राप्त होती है। वैष्णव धर्म अवतारवाद की प्रतिष्ठापना करता है, जिसमें ‘कल्कि’ को भविष्य का अवतार बताया गया है। बौद्ध धर्म मैत्रेय सहित कुल 10 भावी बुद्धों का उल्लेख करता है और वहीं जैन धर्म में भविष्य में होने वाले तीर्थंकरों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
जैन धर्म में काल के दो विभाग हैं- अवसर्पिणी काल तथा उत्सर्पिणी काल। इसमें अवसर्पिणी काल अनुलोम अर्थात् ह्रासोन्मुख और उत्सर्पिणी काल प्रतिलोम अर्थात् उत्कर्षोन्मुख कहा गया है। जिस प्रकार अवसर्पिणी काल में तीर्थंकर आदि हुए हैं उसी प्रकार आगे आने वाले उत्सर्पिणी काल में भी तीर्थंकर होते रहेंगे। जैन धर्म में यह भी बताया गया है कि जम्बूद्वीप सात क्षेत्रों में विभाजित है- भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत।1 भरत क्षेत्र में अवसर्पिणी काल के 6 विभाग होते हैं जिनके नाम और विभाग इस प्रकार हैं-
1. सुषमा-सुषमा, 2. सुषमा, 3. सुषमा-दुषमा, 4. दुषमा-सुषमा, 5. दुषमा, 6. दुषमा-दुषमा (अति दुषमा)।
यही 6 काल विभाग उत्सर्पिणी काल में भी होते हैं। लेकिन ये अवसर्पिणी काल के 6 विभागों के उल्टे अनुक्रम से होते हैं।
जैन ग्रन्थों में यह वर्णन मिलता है कि जिस प्रकार अवसर्पिणी काल में 63 शलाका पुरुषों2 (24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव और 9 प्रति-वासुदेव) का अस्तित्व था उसी प्रकार उत्सर्पिणी काल में भी 63 शलाका पुरुष होंगे, जिसमें भविष्य के 24 तीर्थंकरों की सूची कुछ परिवर्तन के साथ अनेक जैन ग्रन्थों यथा- समवायांग, तित्थोगाली-पइण्णय, तिलोय-पण्णत्ती, हरिवंश पुराण, उत्तर पुराण, त्रिलोकसार, अभिधान चिन्तामणि आदि से प्राप्त होती है। लगभग इन सभी ग्रन्थों में भावी तीर्थंकरों की संख्या 24 बतायी गयी है यद्यपि कि उनके क्रम तथा नामों में कुछ-कुछ भिन्नता अवश्य ही है। उपरोक्त सभी ग्रन्थों में जो 24 भावी तीर्थंकरों के नाम दिये गये हैं उनका वर्णन आगे सूची द्वारा किया गया है-
उपरोक्त सभी ग्रन्थों में (अभिधान चिन्तामणि को छोड़कर) भविष्य के प्रथम तीर्थंकर का नाम महापद्म दिया गया है जिनके विषय में विस्तृत जानकारी तित्थोगाली-पइण्णय से मिलती है। ‘‘तित्थोगाली-पइण्णय’’ में वर्णित प्रथम भावी तीर्थंकर ‘महापद्म’-
ऐसी मान्यता है कि जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का परम भक्त राजा श्रेणिक था। वह राजा अपनी 84,000 वर्ष की आयु पूर्ण कर भगवान महापद्म के रूप में सुमति नामक राजा की रानी भद्रा के गर्भ से उत्पन्न होंगे। इनका जन्म आगामी उत्सर्पिणी काल के दुषम-सुषम नामक तृतीय आरक के तीन वर्ष और साढ़े 8 मास व्यतीत होने पर अर्थात् चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को चन्द्र का हस्तोत्तरा के साथ योग होने पर होगा।
जब प्रथम भावी तीर्थंकर का जन्म होगा तो विविध रत्नों की कलकल करती हुयी वसुधारा की वर्षा होगी और गगनमण्डल में देवताओं द्वारा प्रताडि़त दुन्दुभियों का मधुर गम्भीर घोष गुंजरित हो उठेगा।11 उसके बाद दिशा कुमारियां यान-विमानों पर आरूढ़ होकर वहां आएंगी। यान-विमानों के दिव्य प्रकाश के कारण समस्त शतद्वारा नगरी प्रकाश से जगमगा उठेगी। देवियां बड़ी प्रसन्न होंगी तथा देवों के समूह आनन्दित होकर पद्ममणियों, रत्नों एवं स्वर्ण मुद्राओं की बड़ी सुन्दर वर्षा करेंगे। उस समय के ग्राम नगरों के समान, नगर देवलोक के समान, कुटुम्बी राजा के समान और राजा वैश्रवण के समान होंगे और उस समय लोग पारस्परिक द्वेष से रहित, भय, दण्ड, महामारी तथा चोर-लुटेरों के भय से विहीन तथा कर भार से उन्मुक्त होंगे।
तत्पश्चात् तित्थोगाली-पइण्णय में भावी तीर्थंकर महापद्म के रूप-सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जब ये पैदा होंगे तो- ‘‘इनके बाल भौंरे के समान काले-काले होंगे, आँखें अति विशाल, होंठ बिम्ब फल के समान लाल-लाल, दाँत स्वच्छ, सफेद पंक्तिबद्ध और वर्ण गौर होगा तथा ये प्रफुल्लित नील कमल के फूल की गन्ध के समान सुगन्धित श्वास- निःश्वास वाले होंगे। यथा-
असित सिरतो सुनयणो बिंबट्ठो धवलदंती पंतीओ।
वरपउमगब्भगोरो, फुल्लुप्पल गंधनीसासो।।12
इनका नामकरण करते समय महाराज सुमति अपने परिजनों के समक्ष कहेंगे- ‘‘जिस समय हमारे नगर में इस पुत्र का जन्म हुआ उस समय पद्म-मणियों की वर्षा हुयी अतः इसका नाम महापद्म रखा जाएगा।’’ यथा-
जम्हा अम्हं नगरे, जायं जंमे इमस्स पुत्तस्स।
पउमेहिं महावासं, नामं से तो महा पउमो।।13
ये प्रभु महापद्म कभी क्षीण न होने वाले मति (इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान) श्रुति (सुनकर प्राप्त किया गया ज्ञान), अवधि (कहीं रखी हुयी किसी भी वस्तु का दिव्य अथवा अलौकिक ज्ञान), इन तीन ज्ञान से युक्त तथा उस समय के सभी मनुष्यों की अपेक्षा अत्यधिक कान्ति एवं पुष्टि वाले होंगे। तदनन्तर इनके माता-पिता इनको 8 वर्ष से अधिक वय के जानकार कौतुकालंकारों से अलंकृत कर लेखाचार्य के पास ले जायेंगे। देवराज शक्र लेखाचार्य के समक्ष ही भगवान महापद्म को उच्च आसन पर आसीन कर उनसे शब्द का स्वरूप पूछेंगे। तीन ज्ञान को धारण करने वाला यह बालक महापद्म इन्द्र को शब्द के लक्षण, अवयव आदि की विस्तारपूर्वक व्याख्या कर व्याकरण के गूढ़ रहस्य को बताएगा।14
इसके पश्चात् इनके माता-पिता इनका राज्याभिषेक करेंगे और इसके बाद इनके माता-पिता शुभ तिथि और शुभ करण में बड़े सामन्त कुल में उत्पन्न हुयी यशोदा नामक एक सुन्दर राजकुमारी के साथ इनका विवाह करेंगे यहाँ पर एक उल्लेखनीय बात यह है कि 24वें तीर्थंकर महावीर का विवाह भी यशोदा नाम की कन्या से हुआ था।
तित्थोगाली में इसके पश्चात् महापद्म के विषय में ऐसा कहा गया है कि महापद्म आगामी उत्सर्पिणी काल में भरत क्षेत्र के प्रथम राजा होंगे तथा मणिभद्र और पूर्णभद्र देव उन राजा महापद्म के लिए अश्व-गज एवं रथारोही योद्धाओं की एक अति विशाल सेना संगठित करेंगे।15 पूर्व-जन्म के मित्र देवों द्वारा सेना के संगठित किये जाने के कारण महापद्म का दूसरा नाम देवासुर पूजित देवसेन भी प्रसिद्ध होगा। यथा-
जम्हा देवा सेणं पडियग्गंति उ पुव्व संगइया।
तम्हा उ देवसेणो, देवासुर पूजितो नाम।।16
विमल यश के भागी राजा महापद्म सर्वांग सुन्दर चतुर्दन्त नामक एक महान एवं श्वेत रंग के हाथी पर आरोहण करेंगे इसलिए उनका तीसरा नाम विमलवाहन भी प्रसिद्ध होगा। यथा-
धवलं गयं महंतं, सत्तंग पइट्ठितं चउद्दंतं।
वाहेति विमल जसो, नामं तो विमलवाहणोत्ति।।17
इस प्रकार प्रथम भावी तीर्थंकर महापद्म के 2 और नाम- देवसेन तथा विमलवाहन भी होंगे।
इसके पश्चात् ऐसा बताया गया है कि महावीर स्वामी के समान महापद्म भी 30 वर्ष तक गृहवास करेंगे और उसके बाद जब इनके माता-पिता स्वर्गस्थ हो जाएंगे तब ये प्रव्रजित होंगे। प्रव्रजित होने से पहले एक वर्ष तक प्रतिदिन सूर्योदय पश्चात् एक प्रहर तक स्वर्ण-मुद्राओं का वर्षीदान देंगे और इस प्रकार लोकान्तिक देवों द्वारा किये गये निवेदन से एक वर्ष पश्चात् भगवान महापद्म का अभिनिष्क्रमण होगा।18 एक वर्ष तक प्रतिदिन तीर्थंकर भगवान द्वारा जो दान दिया जाता है उसमें कुल मिलाकर (वर्ष भर में) तीन अरब अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान दिया जाता है।
तित्थोगाली में इसके पश्चात् यह बताया गया है कि ‘सारस्वत, आदित्य, वह्नि, वरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, अग्राह्य और अरिष्ट ये 9 देवनिकाय अर्थात् लोकान्तिक देव समस्त संसार के प्राणियों का हित करने वाले भगवान महापद्म से कहेंगे- ‘‘भगवन्! तीर्थ का प्रवत्र्तन कीजिए।’’19 और इस प्रकार देवताओं द्वारा स्तुति किये जाने पर भगवान महापद्म को तीर्थ-प्रवचन का ध्यान आएगा और उसी क्षण भवनपति, ज्योतिष्क और वैमानिक देव पृथ्वीतल और आकाश में बिजली का प्रकाशन करेंगे। तथा महापद्म के विषय में ऐसा कहा गया है कि वे अपना राज्य अपने ज्येष्ठ पुत्र नलिनी कुमार को सौंपेंगे जबकि यह बात महावीर स्वामी के साथ नहीं थी।
इसके बाद उन भगवान महापद्म के लिए चन्द्रप्रभा नामक की एक पालकी लायी जाएगी जो कि सर्वतः सुसज्जित होगी। वह चन्द्रप्रभा नाम की जो पालकी होगी वह 50 धनुष लम्बी, मध्य में 25 और शेष आगे-पीछे के भागों में 20 धनुष चैड़ी तथा 36 धनुष ऊँची बतायी गयी है। उस चन्द्रप्रभा शिविका के बीचोबीच उन भगवान महापद्म तीर्थंकर के लिए पादपीठ सहित दिव्य मणियों, रत्नों एवं स्वर्ण से निर्मित एक मूल्यवान सिंहासन होगा। और सुविशाल भाल पर अति ललित मुकुट धारण किये हुए प्रकाशमान देह छवि वाले अजानु विशाल वनमालाओं से विभूषित एवं लाख स्वर्ण मुद्राओं के मूल्य वाले श्वेत वस्त्र को धारण किये हुए अति विशुद्ध अध्यवसायों (परिणामों) एवं लेश्याओं से युक्त भगवान महापद्म उस चन्द्रप्रभा पालकी पर आरूढ़ होंगे। पालकी के मध्य भाग में स्थित सिंहासन पर प्रभु महापद्म आसीन होंगे। भगवान महापद्म की उस पालकी को आगे की ओर से मनुष्य तथा पीछे की ओर से असुरेन्द्र, सुरेन्द्र तथा नागेन्द्र वहन करेंगे।20
और तब उस समय वहाँ का वातावरण अत्यन्त ही रमणीय हो उठेगा जिस प्रकार प्रफुल्लित सुविशाल पुष्प वन अथवा शरद ऋतु में पद्म-सरोवर यत्र-तत्र सर्वत्र खिले फूलों से सुशोभित होता है, उसी प्रकार सुरों एवं सुरबालाओं के समूहों से व्याप्त वहां का गगन मण्डल इस प्रकार शोभायमान होने लगेगा मानो सिद्धार्थ वन, सरण वन, अशोक वन और आम्रवन एक साथ ही वहाँ कुसुमित हो उठे हों।21
इस प्रकार ये भगवान महापद्म चन्द्रप्रभा नामक पालकी में बैठकर देवों, मनुष्यों एवं असुरों की परिषदों द्वारा घिरे हुए एवं स्तूयमान भगवान महापद्म शतद्वार नगर के मध्यवर्ती मुख्य मार्गों में निरन्तर दान देते हुए तथा नलिन कुमार से सेवित वीरवर पद्मिनी खण्ड नामक उद्यान में पधारेंगे। तब प्रभु महापद्म पद्मिनी खण्ड नामक उस उद्यान में ईशान दिशा में पहुँचने पर पालकी से नीचे उतर कर स्वयमेव ‘पंचमुष्टि-लुंचन’ करेंगे।
इसके पश्चात् भगवान महापद्म सिद्धों को नमस्कार कर यह प्रतिज्ञा करेंगे-
‘‘मेरे लिए सब प्रकार के पाप अकरणीय हैं और इस प्रकार की प्रतिज्ञा द्वारा वे चारित्र (पंचमहाव्रत) ग्रहण करेंगे।’’
यथा-
काऊण नमोक्कारं, सिद्धाणमभिग्गहं तु सो गिण्हे।
सव्वं मे अकरणिज्जं, पावंति चरित्तमारूढो।।22
तित्थोगाली में इसके पश्चात् महापद्म के ज्ञान प्राप्त करने के सन्दर्भ में ऐसा कहा गया है कि तपश्चरण और श्रमण-गुणों में अनुरक्त भगवान महापद्म अनुक्रमशः अप्रतिहत विहार करते हुए वैशाख शुक्ल दशमी के दिन जृम्भिका नामक ग्राम के बाहर शालवृक्ष के नीचे उकङू (गोदोहिका) आसन से बैठे हुए बैले की तपस्या से केवल ज्ञान प्राप्त करेंगे। यहाँ पर एक बात उल्लेखनीय है कि महावीर स्वामी को भी जृम्भिक नामक ग्राम के समीप एक शाल के वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। और तब अनन्त ज्ञान, दर्शन और अनन्त चारित्र के उत्पन्न होने पर जम्बू द्वीपस्थ भरत क्षेत्र के आगामी प्रथम तीर्थंकर भगवान महापद्म रात्रि के समय में ही विहार कर महासेन वन नामक उद्यान में समवसृत होंगे।
तत्पश्चात् सुरेन्द्रों तथा नरेन्द्रों द्वारा पूजित प्रभु महापद्म मध्यम पावा नगरी में हुए दूसरे समवसरण में धर्मचक्रवर्ती प्रवर के पद से विभूषित होंगे।23 भगवान महावीर के समान प्रथम भावी तीर्थंकर महापद्म के भी 11 गणधर होंगे, जो कि मध्यम पावा में अनुष्ठित होने वाले यज्ञ की यज्ञशाला में एकत्र होंगे। उन 11 गणधरों में प्रमुख एवं प्रथम गणधर ‘काम कुम्भसेन’ होगा, जो महासत्त्वशाली और महान धीर वीर होगा।
और इसके बाद वैशाख शुक्ल एकादशी के दिन प्रथम प्रहर में हस्तोत्तरा नक्षत्र के योग में भगवान महापद्म गणिपिटक (द्वादशांगी) के अर्थ का उपदेश करेंगे।24 और तब उस समय माता-पिता देव दम्पती तुल्य, सास माता के समान ममतामयी और श्वसुर पिता तुल्य स्नेह मूर्ति होंगे। उस समय के मानव धर्म तथा अधर्म के भेद को भली-भाँति जानने वाले, विनय, सत्य एवं शौच सम्पन्न, गुरू और साधु जनों की पूजा में तत्पर और संतोषी होंगे। उस समय के लोग विज्ञान सम्पन्न और धर्म के प्रति आदर भाव रखने वाले होंगे। उस समय विद्या सम्पन्न पुरुषों का पूजा-सत्कार किया जाएगा और कुल तथा शील को सर्वाधिक महत्व दिया जाएगा। इस प्रकार फूलों से लहलहाते हुए जनपदों में भगवान महापद्म विचरण करेंगे।
और इस प्रकार तित्थोगाली में यह बताया गया है कि अन्त में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के आगामी उत्सर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर महापद्म कार्तिक की मास के कृष्ण पक्ष की अंतिम रात्रि में शेष अघाती चार कर्मों के जाल को भी पूर्णतः समाप्त कर अपर अपापा नगरी में सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होंगे। यथा-
निट्ठविय कम्मजालो, कत्तियबहुलस्स चरम रातीए।
सिज्झिहिति नाम पउमो, अण्णाए पावा नगरीए।।25
इस प्रकार कहा जा सकता है कि तित्थोगाली-पइण्णय में भविष्य के प्रथम तीर्थंकर महापद्म की पूरी जीवन कहानी ही वर्णित कर दी गयी है। तित्थोगाली में इनके अतिरिक्त 23 और तीर्थंकर बताये गये हैं जिनके नाम सूची में वर्णित हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं हिन्दू धर्म में जो स्थान ईश्वर के अवतारों का है वही स्थान बौद्ध धर्म में बुद्धों का तथा जैन धर्म में तीर्थंकरों का। जहाँ तक हिन्दू परम्परा की बात है यहाँ पर अवतार का उद्देश्य साधुजनों के उद्धार, लोगों के कल्याण के साथ ही साथ दुष्टजनों का संहार भी है जबकि जैन परम्परा में तीर्थंकरों का उद्देश्य लोगों का कल्याण तो है लेकिन मात्र उपदेश के द्वारा न कि संहार के द्वारा। ऐसा इसलिए क्योंकि जैन धर्म में अहिंसा पर बल दिया गया है। यद्यपि कि जितनी लोकप्रियता भावी अवतार कल्कि को तथा भावी बुद्ध मैत्रेय को मिली है, उतनी लोकप्रियता भावी तीर्थंकरों को नहीं मिली है। इस बात की पुष्टि इसी से हो जाती है कि जहाँ ब्राह्मण और बौद्ध ग्रन्थों में भविष्य के अवतार कल्कि तथा भावी बुद्ध मैत्रेय के संदर्भ में पर्याप्त सूचना उपलब्ध होती है साथ ही पुरातात्विक साक्ष्यों जिसमें मुख्यता मूर्तियों से भी इन दोनों अवतारों के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध होता है वहीं जैन ग्रन्थों के विवरण में भविष्य के तीर्थंकरों के संदर्भ में निश्चित एवं प्रामाणिक सूचना का अभाव दिखायी देता है तथा पुरातात्विक साक्ष्यों में भी इस प्रकार की सूचना की नितान्त अनुपलब्धता है। इससे ऐसा लगता है कि जैन धर्म ने भावी अवतार तथा भावी बुद्ध की अवधारणा से प्रेरणा लेने का प्रयत्न किया है। 24 भावी तीर्थंकरों के नाम कुछ जैन ग्रंथों यथा- समवायांग तित्थोगाली, तिलोय-पण्णत्ती, हरिवंश पुराण, उत्तर पुराण, त्रिलोकसार, अभिधान चिन्तामणि इत्यादि से मिलती है। उपरोक्त ग्रंथों (तित्थोगाली को छोड़कर) में केवल इनके नाम ही मिलते हैं। तित्थोगाली से प्रथम तीर्थंकर महापद्म के जीवन के विषय में कुछ जानकारी मिलती है जिसे देखकर लगता है कि महावीर स्वामी तथा प्रथम भावी तीर्थंकर महापद्म के जीवन में काफी समानताएं थीं जैसे- दोनों ही तीर्थंकरों (महावीर तथा महापद्म) की पत्नी का नाम यशोदा, गृहस्थ जीवन का समय 30 वर्ष, शालवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति तथा साथ ही दोनों ही तीर्थंकरों के गणधरों की संख्या 11 बतायी गयी है। इससे ऐसा लगता है कि प्रथम भावी तीर्थंकर महापद्म का जीवन महावीर स्वामी के जीवन से प्रेरित होगा।
संदर्भ ग्रन्थ
1.
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, हीरा लाल जैन, भोपाल, 1975, पृ0 94
2.
वही, पृ0 10
3.
महापउमे सूरदेवे सूपासे य सयंपभे। सव्वाणभूई अरहा देवस्सुए य होक्खइ।।
उदए पेढालपुत्ते य पोट्टिले सत्तकित्ति य मुणिसुव्वए य अरहा सव्वभावविऊ जिणे।।
अममे णिक्कसाए य निप्पुलाए य निम्ममे। चित्तउत्ते समाही य आगमिस्सेण होक्खइ।।
संवरे अणियट्टी य विजए विमले ति य। देवोववाए अरहा अणंतविजए इ य।।
एए वुत्ता चउव्वीसं भरहे वासम्मि केवली। आगामिस्सेण होक्खंति धम्मतित्थस्स देसगा।।
समवायांग सूत्र, भगवत्सु धर्म स्वामि प्रणीत, पं0 हीरालाल जी शास्त्री (अनु0) राजस्थान, 1982, 667/74-78
4.
सुमंगले य सिद्धत्थे णिव्वाणे य महाजसे। धम्मज्झए य अरहा आगामिस्साण होक्खई।।
सिरिचंदे पुप्फकेऊ महाचंदे य केवली। सुयसागरे य अरहा आगामिस्साण होक्खई।।
सिद्धत्थे पुण्णघोसे य महाघोसे य केवली। सच्चसेणे य अरहा आगमिस्साण होक्खई।।
सूरसेणे य अरहा महासेणे य केवली। सव्वाणंदे य अरहा देवउत्ते य होक्खई।।
सुपासे सुव्वए अरहा अरहे य सुकोसले। अरहा अणंतविजए आगमिस्साण होक्खई।।
विमले उतरे अरहा अरहा य महाबले। देवाणंदे य अरहा आगमिस्साण होक्खई।।
एए वुत्ता चउव्वीणं एरवयम्मि केवली आगमिस्साण होक्खंति धम्मतित्थस्स देसगा।।
समवायांग सूत्र, भगवत्सु धर्म स्वामी प्रणीत, पं0 हीरा लाल जी शास्त्री (अनु0) राजस्थान, 1982, 674/89-95
5.
महा पउमे हिय सुरदेवे सुपासे य सयंपभे। सुव्वाणुभूति अरहा, देवगुत्तो य होहिहि।।
उदग पेढाल पुत्तेय पोट्टिले सत्त गीत्तिय। मुणिसुव्वते य अरहा सत्वभाव विउजिणे।।
अममे णिक्कसाए य, निप्पुलाए य निम्ममे। चित्तगुत्ते समाही य आगमिस्साए ते होहिति।।
संवरे अणियवट्ठी य विवागे विमलित्ति य। देवोववायए अरहा समाहिं पढिदिसंतु मे।।
अणंतविजए तियए, एतेवुत्ता चउव्वीसं। भरहे वासंमि केवली आगमेस्साए होहिंति।।
तित्थोगाली-पइण्णय, पन्यास कल्याण विजय गणिवर (सं0) जालोर, 1975, गाथा सं0 1116-1120
6.
महापउमो सुरदेओ सुपासणामो सयंपहो तहय। सव्वपहो देवसुदो कुलसुदउदकाय पोट्ठिलओ।।
जयकित्ती मुणिसुव्वयअरयअपापा यणिक्कसायाओ। विउलोणिम्मलणामा अ चित्तगुत्तो समाहिगुत्तो य।।
उणवीसमो सयंभू अणिअट्टी जयो य विमलणामो य।तह देवपालणामा अणंतविरिओ अ होदि चउवीसा।। तिलोय-पण्णत्ती, श्री-यति-वृषभाचार्य विरचित, पं0 बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री (अनु0) शोलापुर, 1943, गाथा सं0 1579-1581
7.
तीर्थकृच्च महापद्मः सुरदेवो जिनाधिपः। सुपाश्र्वनामधेयोऽन्यो यथार्भश्च स्वयंप्रभः।।
सर्वात्मभूत इत्यन्तो देवदेवः प्रभोदयः। उदङ्कः प्रश्नकीर्तिश्च जयकीर्तिश्च सुव्रतः।।
अरश्च पुण्यमूर्तिश्च निष्कषायो जिनेश्वरः। विपुलो निर्मलाभिख्यश्चित्तगुप्तोपरः स्मृतः।।
समाधिगुप्तनामान्यः स्वयम्भूरनिवर्तकः। जयो विमलसंज्ञश्च दिव्यपाद इतीरितः।।
चरमोऽनन्तवीर्योऽमी वीर्यधैर्यादिसद्गुणाः। चतुर्विंशतिसंख्याना भविष्यत्तीर्थकारिणः।।
हरिवंश पुराण, जिनसेन प्रणीत, पं0 पन्ना लाल जैन साहित्याचार्य (सं0) भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, 1962, 60/558-562
8.
उत्तर पुराण, आचार्य गुणभद्रकृत, डा0 पन्ना लाल जैन (अनु0), नई दिल्ली, 1993, षटसप्ततितम पर्व, 477-481
9.
महापउमो सुरदेवो सुपासणामो सयंपहो तुरियो। सव्वप्पभूद देवादीपुत्तो होहि कुलपुत्तो।।
तित्थयरूदंक पोट्ठिल जयकित्ती मुणिपदादि सुव्वदओ। अरणिप्पावकसाया विउलो किण्हचरणिम्मलओ।।
चित्तसमाहीगुत्तो सयंभु अणिवट्टओ य जय विमलो। तो देवपाल सच्चइपुत्तचरोऽणंतविरीयंतो।।
त्रिलोकसार, नेमिचन्द्र विरचित, बिदुषी आर्यिका (हिन्दी टीकाकत्री), राजस्थान, वीर निर्वाण संवत 2501 गाथा सं0 873-875
10.
भाविन्यां तु पद्मनाभः शूरदेवः सुपाश्र्वकः स्वयम्प्रभश्च सर्वानुभूति र्देव श्रुतोदयौ।
पेढालः पोट्टिलश्चापि शतकीर्तिश्च सुव्रतः अममो निष्कषायश्च निष्पुलाकोऽथ निर्ममः।
चित्रगुप्तः समाधिश्च संवरश्च यशोधरः विजयो मल्लदेवौ चानन्तवीर्यश्च भद्रकृत।।
अभिधानचिन्तामणि, श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित, पं0 हरगोविन्दशास्त्री (व्याख्याकार), वाराणसी, 1964 1/53-55
11.
तित्थोगाली-पइण्णय, पन्यास कल्याण विजय गणिवर (सं0) जालोर, 1975, गाथा सं0 1034
12.
वही, गाथा सं0 1047
13.
वही, गाथा सं0 1042
14.
वही, गाथा सं0 1048-1050
15.
वही, गाथा सं0 1053
16.
वही, गाथा सं0 1054
17.
वही, गाथा सं0 1055
18.
वही, गाथा सं0 1056-1057
19.
वही, गाथा सं0 1064-65
20.
वही, गाथा सं0 1073-1079
21.
वही, गाथा सं0 1081-1082
22.
वही, गाथा सं0 1090
23.
वही, गाथा सं0 1098
24.
वही, गाथा सं0 1101
25.
वही, गाथा सं0 1111