Wednesday 2 January 2013

छायावादी कवियो का रहस्यवादी चिन्तन


मधु श्रीवास्तव

रहस्यवाद का सम्बन्ध रहस्यानुभूति से है तथा रहस्यानुभूति का सामान्य अर्थ है, रहस्य की अनुभूति या कोई भी ऐसी अनुभूति जो मानव बुद्धि के समझ के बाहर हो, कोई ऐसा धार्मिक सत्य जिसका प्रकटीकरण केवल दैवी प्रेरणा से सम्भव है। इसका सम्बन्ध रहस्यवादी व्यक्ति के विचार, धारणायें, प्रवृत्तियाँ, आदते, अनुभूतियों आदि से होती है। उल्लासमय चिन्तन या ध्यान के द्वारा दिव्यशक्ति से तादात्म्य की सम्भावना में विश्वास और अन्तिम शक्ति और परमात्मा से एकता से तात्कालिक अनुभूति रहस्यवाद कही जा सकती है। रहस्यवाद पर अपने विचारो को व्यक्त करते हुए छायावादी युगीन कुछ महान साहित्यकारो के चिन्तन का अध्ययन प्रस्तुत है।

जिसमें सबसे पहले जयशंकर प्रसाद जी के रहस्यवादी चिन्तन को स्थान दिया गया है। प्रसाद जी का कहना है कि रहस्य भावना प्राचीन है, लेकिन रहस्यवाद आधुनिक है और हिन्दी में छायावादी काव्य आन्दोलन से सम्बद्ध है।1 प्रसाद जी का रहस्यवाद हिन्दी साहित्य में सम्भवतः इस तरह का पहला प्रयत्न है- ‘आँसू में वे लिखते है
‘‘शशि मुख पर घूँघट डाले, अंचल में दीप छिपाये, जीवन की गोधूली मे, कौतूहल से तुम आये।’’
प्रसाद जी की सभी रचनाओ में रहस्यवाद झलकता है। कामायनी की रचना भी उन्होंने रहस्यवाद के प्रभावान्तर्गत ही किया उसी के बाद वो आधुनिक मनु कहे जाने लगे,
‘विस्मृत आ अवसाद घेर ले, नीरवता बस चुप कर दे
चेतनता चल जा जड़ता से, आज शून्य मेरा भर दे।’
प्रसाद जी की अंतरनिहित रहस्यात्मक या आध्यात्मिक ध्वनि आद्यांत सुनाई पड़ती है। प्रसाद जी का रहस्यवाद आंसू के पद्यो में या कामायनी के अन्तिम सर्गो मे मानसिक सन्तुलन के रूप में प्रयुक्त हुआ है।2
इसी प्रकार महादेवी जी रहस्यवाद के सम्बन्ध में कहती है कि- ‘‘रहस्यानुभूति भावावेश की आँधी नही वरन् ज्ञान के अनन्त आकाश के नीचे अजस्त्र प्रवाहमयी त्रिवेणी है, इसी से हमारे तत्व दार्शनिक बौद्धिक तथ्य को हृदय का सत्य बना सके’’।3 उनके अनुसार- ‘‘आज गीत मेें हम जिसे रहस्यवाद के रूप में ग्रहण करते है वह इन सब की विशेषताओं से युक्त होने पर भी उन सब से भिन्न है। उसने परा विद्या की अपार्थिवता ली, वेदान्त के अद्वैत की छायामात्र ग्रहण की, लौकिक प्रेम से तीव्रता उधार ली और इन सबको कबीर के सांकेतिक भाव सूत्र में बाँधकर एक निराले स्नेह सम्बन्ध की सृष्टि कर डाली जो मनुष्य के हृदय को पूर्ण अवलम्ब दे सका, उसे पार्थिव प्रेम के उपर उठा सका तथा मस्तिक को हृदयमय और हृदय को मस्तिष्कमय बना दिया।’’4 महादेवी जी के रहस्यवादी चिन्तन को चार दृष्टिकोण से देखा जाता है5-
1. साधना मूलक रहस्यनुभूति- इस रहस्यानुभूति में योगी एवं साधक किसी ब्रह्म की जिज्ञासा, अखण्ड साधना तथा ब्रह्म-प्राप्ति का आनन्द सम्मिलित रखता है इसलिए रहस्यवाद या ऐसी रहस्यानुभूति के तीन अंग स्वीकार किये गये है; (1) जिज्ञासा, (2) साधना या प्रयत्न, (3) मिलन और आनन्द।
2. भावना मूलक साधना- इस रहस्यानुभूति में जायसी जैसे सूफी कवियों की भांति उस चेतन सत्ता को अनन्य सौन्दर्यशाली प्रियतम के रूप में मानकर साधक अपने सर्वस्व का परित्याग करता हुआ उसके साथ अलौकिक रति जैसी अलौकिक दाम्पत्य रति में लीन रहना तथा उसके साथ एकाकार हो जाना अधिक अच्छा समझता है।
3. माधुर्य भाव मूलक रहस्यानुभूति- महादेवी जी ने पार्थिव प्रेम एवं भौतिक पूजा में तो अपना विश्वास प्रकट नहीं किया है किन्तु फिर भी अपनी कविताओं में अक्षत, चन्दन, अगरू, धूप, आरती की लौ, अभिषेक, जल, पुष्प आदि सभी पूजा की सामग्रियाँ उपस्थित कर दी है। महादेवी जी में माधुर्य भाव से परिपूर्ण रहस्यानुभूति मिलती है।
4. मानव मूलक रहस्यानुभूति- इसमें सम्पूर्ण मानवता के अन्तर्गत व्याप्त चेतनता की वह अनुभूति आती है, जिसके फलस्वरूप एक कवि, साधक एवं लेखक सर्वत्र व्याप्त चेतन सत्ता का अनुभव करता है, सर्वत्र एक आत्मा का दर्शन करता है, जड़ चेतन में एक ही अगोचर सत्ता का प्रभाव देखता है। जिसकी अनुभूति सर्ववाद पर आधारित होती है ऐसे रहस्यवादी को मानव मात्र से अटूट प्रेम होता है। वह सम्र्पूण मानवता का पुजारी बन जाता है और मानवता के सुख दुःख में अपने सुख-दुःख का दर्शन करता है।6
महादेवी जी के समान पंत जी का भी रहस्यवादी चिन्तन उनकी कविताओं में अभिव्यक्त हुआ है। पंत जी का रहस्यवाद प्रकृति से जुड़ा है। उनके विचार एवं जिज्ञासा, शिशु-सुलभ सरलता के साथ प्रकट हुई है। पंत की बाल-जिज्ञासा मे नवीन हृदय के प्रति जो विस्मय और कुतूहल का भाव दिखाई पड़ता है वह भी उसी रहस्य भावना का एक रूप है।12 पंत जी का ‘मौन निमंत्रण’ उसी रहस्य और जिज्ञासा की अभिव्यक्ति है जो किसी अज्ञात की ओर निश्चित संकेत अथवा प्रकृति के क्षेत्र में किसी अभिव्यक्त सौन्दर्य या माधुर्य से उठे हुए आह्लाद की अनुभूति की व्यंजना करती है। इसी को आचार्य शुक्ल ने स्वाभाविक रहस्यवाद माना है।
पंत जी की रहस्यात्मक कविताओं में प्रकृति को कहीं ‘वाह्य प्रकृति’ कहलाने का अवसर प्राप्त नही हुआ। पंत जी के ‘उच्छवास’ में भी रहस्यवाद की झलक मिलती है। पंत जी की कल्पना अपना चमत्कार उनकी रचनाओं में दिखाती रही है। पंत जी श्रृंगारी कवि भी है। उनकी प्रायः सभी रचनाओं में रहस्यवाद झलकता है, परिवर्तन में शाश्वत सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति देखने, उसका रहस्य जानने की उत्कण्ठा दिखायी पड़ती है। उनकी कल्पना की अभिव्यक्ति मधुवन, अप्सरा, अनंग, प्रथम रश्मि आदि कृतियों में प्रधान है। उन्होंने ‘एकतारा’ में गहन आत्मदर्शन की अभिव्यक्ति की चेष्टा की है।’’7
निराला जी का रहस्यात्म चिन्तन एवं विश्लेषण उनकी समस्त रचनाओं में दिखाई पड़ता है, परोक्ष की रहस्यपूर्ण अनुभूति से उनके गीत सज्जित है। रहस्य की कलात्मक अभिव्यक्ति की जो चेष्टाएं हैं आधुनिक हिन्दी काव्य में की गई है, उनमें निराला जी की कृतियां विशेष उल्लेखनीय है। कुछ कवियों ने तो रहस्यपूर्ण कल्पनाएं ही की है, किन्तु ‘निराला’ जी के काव्य का मेरुदण्ड ही रहस्यवाद है। उनके अधिकांश पदो में मानवीय जीवन के ही चित्र है किन्तु वे सब के सब रहस्यानुभूति से अनुरंजित है। जैसे सूरदास जी के पद अधिकांश श्रीकृष्ण की लोक लीला से सम्बद्ध होते हुए भी आध्यात्म की ध्वनि से आपूरित है वैसे ही ‘निराला’ जी के भी पद है। इस रहस्य प्रवाह के कारण कवि के द्वारा रचित साधारण जीवन के गीत भी असाधारण आकर्षण रखते है, किन्तु उनके कुछ पद स्पष्टतः रहस्यात्मक भी है जैसे- ‘अस्तांचल रवि जल छल-छल छवि’ पद में रहस्यपूर्ण वातावरण की सृष्टि की गई है। ‘हुआ प्राप्त प्रियतम तुम जाओगे चले’ जैसे पदो में परकीया की उक्ति के द्वारा प्रेम रहस्य प्रकट किया गया है।8
उपरोक्त वर्णन से यही निष्कर्ष निकलता है कि छायावादी कवियों में सर्वश्री जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी जी और निराला जैसे महान कवियों ने रहस्यवाद के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किए हैं। प्रसाद जी की कविताओं में रहस्यवाद मानसिक सन्तुलन के रूप में प्रकट हुआ है।9 महादेवी जी रहस्यानुभूति को भावावेश की आंधी नही वरन् ज्ञान के अनन्त आकाश के नीचे अजस्त्र प्रवाह मयी त्रिवेणी मानती हैं। छायावादी कवियांे में उनका रहस्यवादी चिन्तन सर्वाधिक व्यापक है। महादेवी जी को तो रहस्यवाद की साधिका ही कह दिया गया है10। निराला और पंत जी की रचनाए भी रहस्यवादी एवं प्रकृतिवादी हैै। इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि रहस्यवाद भी छायावादी कवियों की एक प्रमुख अंग है।
संदर्भ-ग्रन्थ
1. त्रिपाठी डाॅ0 राममूर्ति, रहस्यवाद, पृष्ठ-9
2. गुप्त डाॅ0 गणपति चन्द्र, साहित्यिक निबन्ध, लोकभारती प्रकाषन इलाहाबाद, उन्नीसवाॅ संस्करण, 2003
4 कबीर और जायसी का रहस्यवाद पृष्ठ-345।
5 महादेवी की रहस्य भावना-पृष्ठ-48।
7 गुप्त डाॅ0 गणपति चन्द्र, महादेवी, साहित्यायन प्रकाषन, कुरूक्षेत्र, 1969, पृष्ठ-163
8 सिंह नामवर, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाॅ, लोकभारती प्रकाषन इलाहाबाद, 2008, पृष्ठ-45, 47
9. गुप्त डाॅ0 गणपति चन्द्र, महादेवी नया मूल्यांकन, लोकभारती प्रकाषन इलाहाबाद, पृष्ठ- 173, 177
10.सक्सेना द्वारिका प्रसाद, आधुनिक हिन्दी के प्रतिनिधि कवि, विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा-2,सं0 नवम, पृ0 336
11. बाजपेयी नन्ददुलारे, हिन्दी साहित्य बीसवीं शताब्दी, लोकभारती प्रकाषन इलाहाबाद, 2007, पृष्ठ-124

मधु श्रीवास्तव
शोध छात्रा, हिन्दी विभाग
नेहरू ग्राम भारती विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, उ0प्र0

म्©त्रेयी पुष्पा के उपन्यासांे में आंचलिकता एवं बुनियादी समस्याएँ


सन्ध्या सचान

हिन्दी कथा साहित्य में आंचलिक कथा साहित्य का विषेष महत्व है। लगभग छठे दशक से विकसित आंचलिक उपन्यासों की एक सशक्त परम्परा हिन्दी साहित्य में विद्यमान है। आंचलिक शब्द अंचल से बना है जिसका अर्थ है कोई स्थान विशेष अर्थात् भौगोलिक सीमाओं द्वारा घिरा हुआ कोई जनपद या क्षेत्र। अंचल एक गाँव, शहर, मोहल्ला अथवा किसी वन की उपŸिाका कुछ भी हो सकता है। विशिष्ट अर्थ में आंचलिक उपन्यास वह है जिसमें किसी स्थान-विशेष का सम्पूर्ण जन-जीवन अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ प्रतिबिम्बित हो उठता है। हिन्दी के आंचलिक उपन्यासकारों में फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, नागार्जुन, रांगेय राघव, षिवप्रसाद सिंह आदि प्रमुख हैं।1 यह कहा जा सकता है कि मैत्रेयी पुष्पा ने अपने कथा साहित्य में आंचलिक उपन्यासकारों की गौरवपूर्ण विरासत को जीवंत विस्तार दिया है।

मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य की भावभूमि, रंग-चेतना, विषयवस्तु अद्भुत एवं वैविध्यपूर्ण हैं। इनके उपन्यासों में एक ओर बुन्देलखण्ड के लोक जीवन की सादगी, सहजता, लोकसंस्कृति, लोकजीवन का राग-विराग, हर्ष-विषाद, संवेदना, प्राकृतिक जीवन आदि समग्रता के साथ चित्रित है। वहीं दूसरी ओर समसामयिक राजनीतिक उतार-चढ़ाव, आर्थिक संकट, जातिगत संघर्ष एवं सामाजिक सरोकार जीवंत रूप में उद्घाटित हुए हैं। मैत्रेयी के उपन्यासों के अध्ययन अनुषीलन से स्पष्ट होता है कि आंचलिकता मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों की प्रमुख विषेषता है। बुन्देलखण्ड जैसे पिछड़े और ग्रामीण क्षेत्र को अपने उपन्यासों की कथावस्तु बनाने वाली मैत्रेयी पुष्पा बुन्देलखण्ड की पहचान बन चुकी हैं। मैत्रेयी ने अपने ग्रामीण अंचल एवं उससे जुडे़ पात्रों का सजीव चित्रण उपन्यासों में किया है। जिससे अंचल विषेष की सकारात्मक एवं नकारात्मक स्थितियाँ उजागर हुई हैं। ‘इदन्नमम’, ‘चाक’, ‘बेतवा बहती रही’, ‘अल्मा कबूतरी’, ‘अगनपाखी’, ‘झूलानट’, ‘कही ईसुरी फाग’, ‘त्रियाहठ’ आदि उपन्यासों में ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण हुआ है।
आंचलिक तत्व की दृष्टि से ‘इदन्नमम’ उपन्यास का मूल्यांकन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि उसमें बुन्देलखण्ड की दयनीय स्थिति जैसे- प्राकृतिक आपदाओं से जूझते किसान, उनकी अभावग्रस्तता, परम्परागत पूँजी के रूप में उनकी जमीनों पर क्रेषर मषीन के ठेकेदारों का कब्जा, खेतों की कम होती उर्वरता आदि का यथा तथ्य वर्णन मिलता है। यह स्थिति ‘इदन्नमम’ उपन्यास में चित्रित मात्र सोनपुरा गाँव की ही नहीं बल्कि पूरे बुन्देलखण्ड अँँचल की है। ‘सोनपुरा के बहाने मैत्रेयी ने पूरे बुन्देलखण्ड की करुण कथा इस उपन्यास में सुनाई है। आज पूरा बुन्देलखण्ड गिट्टी के क्रेषरों की घड़घड़ाहट से काँप रहा है, उसकी धूल से लोगों की जीवन-षक्ति और खेतों की उर्वराषक्ति नष्ट हो रही है। ऐसे क्षेत्रों में कानून का नहीं, गुंडागर्दी का बोलबाला है। बोली और जिसकी लटक तो मैत्रेयी पुष्पा की खास धरोहर हैं, जिसे वे बड़ी कुषलता से अपने पात्रों के मुँह से झरने की तरह अनवरत बहाती रहती हैं।’2
मैत्रेयी पुष्पा ने ग्रामीण अंचल एवं उसके प्राकृतिक वैभव सम्पदा का सूक्ष्म दृष्टि से चित्रण करते हुए वनजातियों के जीवन-संघर्ष को भी चित्रित किया है, जो उनकी मानवीय संवेदना एवं लोकजीवन के दःुख-दर्द की अनुभूति का द्योतक है। ‘पहाड़, वन, नदियाँ, महुआ, बेर, करौंदी, चिरौंजी, हल्दी, अदरख, अरे तमाम संपदा है, पर दुर्भाग्य है हमारा, कि हम नहीं बरत पाते दलालों के सुपुर्द हो जाती हैं, हमारी सम्पत्ति। पहाड़ों की निलामी, वनों की बोली, तहस-नहस कर देती है माहौल को। पहाड़ टूट रहे हैं, वन कट रहे हैं। सुनसान, सपाट मैदानों में फड़फड़ाते डोल रहे हैं पंक्षी-परेवा।’3
मैत्रेयी के ‘अगनपाखी’ उपन्यास में भी बुन्देलखण्ड के जन जीवन की अज्ञानता, धर्मभीरूता, एवं कृषक शोषण आदि का चित्रांकन हुआ है। ‘नाना को आगे कुछ न सूझा। अमान सिंह और सोच भी क्या सकते थे सिवा इसके कि जो हुइहैं असल बुंदेला लै लैहें मुखिया कौ मूँड। किसी हथियार की जरूरत न पड़ी, हाथ-हथौड़ा हो गये। लोहे का षिकंजा बन गये। गले का फंदा.....। मौत के जितने साधन हो सकते थे, नाना के शरीर से ही बने। नानी बताती है- मुखिया ने दुनिया से विदा ली। सच ने अपना भाँड़ा खुद फोड़ा, नाना खुद ही कबूल गये हों, हाँ मैंने मारा है, क्योंकि मारने के काबिल था। अन्याय किसे अच्छा लगता है? मैं कायर नहीं।4 यहाँ पर अन्याय के विरुद्ध किसानों के विद्रोह का प्रदर्षन उन्हीं की बोली-भाषा में होता है।
लेखिका ने ‘अल्मा कबूतरी’ उपन्यास में चित्रित किया है कि अभावग्रस्त जीवन जीते कबूतरा जाति के लोग जातिगत विद्वेष रूपी दंष को झेलते हुए अमानवीय जीवन जीने को बाध्य हैं-‘हम तो मरा मूसा भी खा लेते हैं। खाने और हगने की चिंता के सिवा और जिंदगी है क्या? 5 मैत्रेयी किस प्रकार मानवीय संवेदना की गहराई पर बैठकर अपराधी कही जाने वाली कबूतरा जाति की पीड़ा एवं विवषता को सभ्य समाज के सामने लाती हैं। यह उनका लेखकीय साहस व ऋषि दृष्टि है।
ग्राम्य जीवन की विविध परम्पराओं, रूढि़यों, रीति-रिवाजों को समस्यात्मक रूप में ‘बेतवा बहती रही’ उपन्यास में चित्रित किया गया है। बाल-विवाह के सम्बन्ध में दृष्टव्य है- ‘बैरागी का ब्याह बचपन में ही हो गया था। बुन्देलखण्ड की परम्परा के अनुसार माता-पिता द्वारा लिए गये निर्णय को तोड़ने का साहस कर पाना असंभव था, फिर भय भी तो रहता है कि यदि लड़के-लड़की ने किषोरावस्था पार कर ली तो कुँवारे ही रह जायेंगे। कहाँ मिलेगा बड़ी उमर का वर और कहाँ बैठी होगी इतनी उमर की कन्या। यादवों, लोधियों, कुर्मियों में यही धारणा शत-प्रतिषत अपना प्रभाव जमाए हुए है।’6
‘कही ईसुरी फाग’ उपन्यास में बुन्देलखण्ड के ग्रामीण जीवन एवं समाज के दोहरेपन, संकीर्ण मानसिकता तथा स्त्री के प्रति दुर्भावना व दुव्र्यवहार, स्वार्थपरता, परम्पराओं के प्रति मोह, रूढि़ग्रस्तता तथा असहिष्णुता आदि का बड़ा ही स्वाभाविक चित्रण है ‘सत्रह गाँवों की खाक छानकर आयी मैं ऋ़तु। जहाँ रजऊ की खोज में जाती वहाँ ईसुरी के निषान तो मिलते, प्रेमिका का पता कोई नहीं देता था, जैसे उसके बारे में बताना किसी वेष्या का पता देना है। ईसुरी के साथ जोड़कर लोग उसके नाम पर मजा लेते, मगर उसको अपने आस-पास की स्त्री मानने से मुकर जाते।’ प्रारम्भ से ही बुन्देलखण्ड अंचल की सबसे बड़ी व चिंतनीय समस्या दस्युओं की रही है। जो मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में उभरकर सामने आता है- ‘डाकू और डकैती पहूज और चम्बल के भरकों में कोई नई बात नहीं। औरतों के गहने-गुरिया जान की फजीहत बने हुए थे।’7
इतना ही नहीं बुन्देलखण्ड के ग्रामीण विकास हेतु चलाई जा रही विविध योजनाओं का भी मानो लेखिका लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं। सरकारी, गैर सरकारी षिक्षण संस्थानों, सरकारी योजनाओं तथा सर्व-षिक्षा अभियान का प्रयास बुन्देलखण्ड के ग्रामीण स्त्री षिक्षा एवं गरीब परिवार के बच्चों की षिक्षा के स्तर में कोई खास परिवर्तन नहीं ला पाये हैं। बालिका षिक्षा आज भी ग्रामीण क्षेत्रों के लिए समस्या बनी हुई है। ‘इदन्नमम’ उपन्यास की नायिका मन्दा चाहते हुए भी पढ़ने की इच्छा पूरी नहीं कर पाती है-‘बऊ हम पढ़ने जाया करेंगे, उसने उत्साह में कह डाला। ‘पढ़वै’?, ‘हाँ बऊ, यहीं के स्कूल में छः में दाखिल हो जायंेगे।’ बऊ दो क्षण मौन हो देखती रही। ‘कल से ही जायेंगे बऊ। मकरन्द किताबें ला देंगे मांेठ से पइसा दे देना।’ ‘बेटा न, ना मन्दा।’ ‘‘ना क्यों बऊ’? ‘‘बिटिया और बालकों की होड़, जिद न करो तुम्हारा बाहर पढ़ना ही मुसीबत हो पडे़गा। मन्दा फिर क्या मालूम कि हम कितेक दिना तक रह पाते हैं जम के, कब उखड़ना पड़े यहाँ से।’8 षिक्षा एक बुनियादी आवष्यकता एवं अधिकार है किन्तु मंदा जैसी न जाने कितनी बालिकाएँ व स्त्रियाँ षिक्षा से वंचित रह जाती हैं। स्त्री षिक्षा जैसी सार्वभौमिक समस्या को लेखिका ने अपने षिल्प कौषल से आँचलिकता का रंग दिया है जो कथावस्तु को प्रमाणिक बना रहा है।
अंधविष्वास, धार्मिक रीति-रिवाजों, पूजा-पाठ और कर्मकाण्डों के चलते स्त्रियों का दैहिक तथा मानसिक शोषण ‘झूलानट’ में समस्या के रूप में चित्रित हुआ है- ‘इसके बाद व्रत-उपवासों का सिलसिला सोलह सोमवार, संतोषी माता के शुक्रवार, केला पूजन के बृहस्पतिवार, शनिग्रह शांति के शनिवार। भाभी सूख-सूख कर कांटा होती चली जा रही हैं। उनका रंग बेरौनक हो गया। चेहरा लंबोतरा, सुन्दर दाँत बाहर निकल आये, बाल किषन डर गया, उसने मंगलवार का व्रत अपने जिम्मे ले लिया।’9
धर्म के नाम पर ग्रामीण समाज की मनःस्थिति, अंधविष्वासों के प्रति समर्पण, साधु-संन्यासियों की ढपोलषंख बातें तथा तंत्र-मंत्र के बहाने कुण्ठित अवसरवादियों की सच्चाई को ‘अगनपाखी’ उपन्यास उजागर करता है। ‘जोगिया धोती पहने भुवन बड़े-बड़े मनकों की कंठी दिखाने लगी-देखो नीम का तेल, कपूर का धुआँ और कबूतर की देह जलाकर जोत जगाई थी। भभूत बनाकर तैयार की और बताया कि रोगी के माथे, कान और भुजाओं पर भभूत लगाओ, मंत्र पढ़ो और माला फेरो, दिनभर उपासे रहो, रात को दो केलों से व्रत तोड़ो, चटपटा, चिकनाई और खट्टा मत खाओ, खटिया पर सोना नहीं, कहीं आना-जाना नहीं, कंठी का परहेज है, माला गंगाजल के पानी से फूंकी थी, वही पानी हमारे ऊपर छिड़का, हम बेहोष हो गये। स्वामी के चरणों पर गिरे सो चोट नहीं आई।’10
‘चाक’ उपन्यास के विष्लेषण पर यह तथ्य सामने आता है कि वंष परम्परा के आधार पर रोजगार करने तथा सरकारी योजनाओं के प्रति ग्रामीण समाज की मानसिकता रूग्ण है। प्रतिभाषाली युवक रंजीत सरकारी योजना के अन्तर्गत गाँव में ही व्यापार करने की योजना को बनाता है किन्तु इसकी इस भावना को जानकर गाँव वाले उसे लगातार उपेक्षित और लांक्षित करते हैं- ‘मैंने कितने विष्वास और भरोसे से कहा था कि गाँव की पोखर में मैं मछलियां पालँूगा। तो लोग ऐसे देखने लगे जैसे मैं कसाईखाना खोलने जा रहा हंू। एक राय होकर कहा गया रंजीत, जिस गाँव में सक्का तक अण्डा, प्याज छिपाकर खाते हैं तू वहाँ मच्छी-गोस्त के ढेर लगाएगा। भइया षिवजी की मढि़या सौ कदम के फासले पर है यह अधरम, महापाप इस गाँव में तो मत करे।’11
इस प्रकार मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यासों की कथा वस्तु को शहरी जीवन तथा शहरी सभ्यता से मुक्त कर उपेक्षित ग्रामीण जीवन में प्रतिष्ठित किया है। इनके कथा साहित्य में ग्रामीण जीवन शहरी जीवन की चकाचैंध से दूर अपनी अलग पहचान व वैषिष्ट्य के साथ अभिव्यंजित है। बुन्देलखण्ड का पूरा का पूरा परिदृष्य गाँव की संस्कृति, ग्रामीण जीवन की समस्याओं, अन्धविष्वासों, रूढि़यों, अभावों, सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों आदि का नयी चेतना, नई दृष्टि एवं नयी भावभंगिमा के साथ चित्रित हुआ है।
सन्दर्भ ग्रन्थः
1. रांग्रा रणवीर रांग्रा- समकालीन हिन्दी उपन्यास की भूमिका, पृ0सं0 72
2. दीक्षित दया - मैत्रेयी पुष्पा तथ्य और कथ्य, पृ0सं0 134
3. पुष्पा मैत्रेयी, इदन्नमम, पृ0सं0-357
4. पुष्पा मैत्रेयी, अगनपाखी, पृ0सं0-15
5. पुष्पा मैत्रेयी, अल्मा कबूतरी,, पृ0सं0-63
6. पुष्पा मैत्रेयी, बेतवा बहती रही, पृ0सं0-20
7. पुष्पा मैत्रेयी, कही ईसुरी फाग, पृ0सं0-14
8. पुष्पा मैत्रेयी, इदन्नमम, पृ0सं0-57
9. पुष्पा मैत्रेयी, झूला नट, पृ0सं0-43
10. पुष्पा मैत्रेयी, अगनपाखी, पृ0सं0-86
11. पुष्पा मैत्रेयी, चाक, पृ0सं0-53

डाॅ0 संध्या सचान
प्रवक्ता हिन्दी विभाग
श्री शक्ति डिग्री काॅलेज, कानपुर नगर, उ0प्र0

आधुनिक हिन्दी साहित्य में स्त्रियों का योगदान


जय प्रकाश पटेल एवं अन्जू सिंह पटेल

‘रेषा-रेषा धुनी जाती, पुर्जा-पुर्जा नुचती और देहरी-देहरी पर अपमानित होती हुई औरत की वे खौफनाक कथायें क्यों नही लिखी जाती जो आजाद भारत के चप्पे-चप्पे पर चस्पा है’ मैंत्रेयी पुष्पा के ये शब्द हिन्दी कहानी के इस पहलू को उजागिर कर रहे हैं कि अभी भी बहुत से कथानकों के दम कहानी के इतिहास में घुॅटे हुए से हैं। आधुनिक काल में कथा साहित्य की दुनिया में स्त्रियों की संख्या लगातार बढ़ रही है और बढ़ रही है स्त्रियों की अभिव्यक्ति का गान।

हिन्दी कथा साहित्य में नारी जागरुकता एवं दलित चेतना को स्वर देने वाली लेखिका चित्रा मुद्गल ने लक्षागृह, अपनी वापसी, इस हमाम में, जिनावर, भूख, लपटें जैसी कहानियाॅ लिखकर सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक समस्याओं को निर्भीकता से उजागर किया।1 मुद्गल अपने कलम की धार से समाज के क्रुरतम स्वरूप पर प्रहार करती है। महिला कहानीकारों में नमिता सिंह की कहानी निकम्मा लड़का, जंगल गाथा, खुले आकाष के नीचे, राजा का चैक आदि विषेष सराहनीय है। इसी तरह मणिक मोहनी ने अपना अपना सच, अभी तलाषी जारी है, अन्वेणी, ढाई आखर प्रेम का कहानी लिखकर समाज का दर्षन कराया। महान कहानीकार ममता कालिया की कहानियां छुटकारा, एक अदद औरत, सीन नं0 6, उसका यौवन मुखौटा हिन्दी पाठकों की संख्या बढ़ा रही है। लेखिका का मानना है कि आज सम्बन्धों के मूल्य और अर्थ बदले नहंी बल्कि नष्ट हो गए हंै5। शषि प्रभा शास्त्री की कहानियां उस दिन भी, पतझड़, अनुत्तरित, धुली हुई शाम एक टुकड़ा शान्तिरथ साहित्य जगत में अपना स्थान बना ली है। नारी के प्रसव पीड़ा का मार्मिक वर्णन जया जादवानी के कहानी संग्रह अन्दर की पानियों से झांकता पानी में मिलता है। किस प्रकार स्त्री प्रसव की असहनीय पीड़ा को झेलकर सृष्टि क्रम को आगे बढ़ातीे है।
राजनीतिक बिन्दुओं पर पुरुषों का एकाधिकार माना जाता था। लेकिन मन्नू भण्डारी ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए आज के राजनैतिक मुखौटों को प्याज की पत्तों की तरह उधेड़ दिया है’’6। भण्डारी द्वारा रचित कहानी के क्षेत्र में उन्होंने मैं हार गयी, यही सच है, तीन निगाहों की एक तस्वीर, त्रिशंकु, रानी मां का चबूतरा आदि लोकप्रिय कहानियां लिखी। जब कहानियों की बात चल रही है तो उषा प्रियंवदा का नाम सम्मान सहित लिया जाता है। उन्होंने अपनी कहानियों में देषी- विदेषी संस्कृति की टकराहट, आदमी का अकेलापन, विघटित परिवार की छटपटाहट जैसी समस्याओं को विषेष स्थान दिया है। रिटायर्ड गजाधर बाबू के जीवन पर आधारित कहानी ‘वापसी’ पर 1960 में सर्वश्रेष्ठ कहानीकार का पुरस्कार मिला। इसके अतरिक्त उन्होंने जिन्दगी और गुलाब के फूल, एक कोई दूसरा, कितना बड़ा झूठा लिखकर साहित्य के क्षेत्र में तहलका मचा दिया। कहानी के क्षेत्र में षिवानी के महत्वपूर्ण योगदान दिया है उन्होंने लाल हवेली, पुष्पहार, अपराधिनी, रतिविलाप, रथ्या, स्वंयसिद्धा लिखा। षिवानी के सम्बन्ध में अरुणा कपूर जी ने लिखा है कि- ‘‘षिवानी की लोकप्रियता का प्रमुख कारण है- कथा तत्व एवं रस दोनों तत्व पाठक को रचना में बांधे रहते हैं। उनकी हर नायिका अत्यधिक सुन्दरी होती है और रचनाओं में वैभव का चित्रण होता है। वस्तुतः उनकी रचनाओं में वैभव के साथ-साथ सामान्य जीवन स्थितियों का चित्रण भी हुआ है।’’7
स्त्री समस्याओं को चित्रित करने में मैंत्रेयी पुष्पा ने गहनता का परिचय दिया है। स्वंय उन्हीं के शब्दों में ‘रेषा-रेषा धुनी जाती, पुर्जा-पुर्जा नुचती और देहरी-देहरी पर अपमानित होती हुई औरत की वे खौफनाक कथायें क्यों नही लिखी जाती जो आजाद भारत के चप्पे-चप्पे पर चस्पा है।’8 मैत्रेयी पुष्पा के प्रमुख कहानियों में चिन्हार ललमनियां, गोमा हंसती है। जिसमें नारी की समस्याओं के साथ-साथ कोमलता का चित्रण भी मिलता है। निर्भीक अभिव्यक्ति के कारण कभी चर्चा एवं विवाद में रहने वाली मृदुला गर्ग नें कितनी कैदे, टुकड़ा-टुकड़ा आदमी, ग्लेषियर से, विनाष दूत, अगली सुबह, वेनकाब जैसी कहानियां लिखी। ‘‘व्यक्ति दो हिस्सों में बॅटकर जीता है, तो क्या दोनों के प्रति न्याय कर सकता है ? व्यक्ति की स्वतन्त्रता क्या आवष्यक रूप से समाज विरोधी होती है ? भीतर की आदिम और उद्दाम जिज्ञासाओं को घोंटकर जीना और बस जीते रहना ही क्या समाज के प्रति उत्तरदायी होना है ? आदि अनेक प्रष्नों से लिपटी जीवन व्यक्ति से ओत-प्रोत एक प्रेम कथा है।’’8
अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों एवं अलंकारों से सम्मानित कृष्णा सोबती ने स्त्री जीवन एवं आंचलिकता पर विषेष ध्यान दिया। बादलों के घेरे, सिक्का बदल गया कहानी लिखी। इनकी कहानियां सेक्स जन्य भावुकता से युक्त है। सोबती जी साहित्य वर्गीकरण को पुरूष लेख और स्त्री लेख के रूप में स्वीकार नहीं करती है। उनका विचार है कि- ‘‘किसी की रचनात्मक एवं कलात्मक कृति को प्रस्तुत करने वाले लेखक कलाकार में स्त्रीत्व और पुरुषत्व दोनों का मिश्रण रहता है। बौद्धिक रूप से मानवीय संवेदना के दोनों रंग और रूप कृतित्व के स्वरूप में मिले जुले रहते है।’’9 मंजुल भगत ने आत्महत्या के पहले, गुलमोहर के गुच्छे, सफेद कौआ, बूंद, अंतिम बयान आदि कहानियां लिखकर हिन्दी की सेवा की।
मुस्लिम समाज में पुरुषों द्वारा महिलाओं पर किए जा रहे अत्याचार का विरोध हिन्दी लेखिका नासिरा शर्मा ने कहानी के माध्यम से किया। नासिरा शर्मा ने पत्थर गली, शामी कागज, इब्ने मरियम, खुदा की वापसी, दूसरा ताजमहल कहानी लिखा। दूसरा ताजमहल में महिलाओं के मानसिक बलात्कार का चित्रण किया है। इन्होंने अपने कहानियों के माध्यम से ईराक एवं ईरान देष की महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को उजागर किया है। सिर्फ समस्याओं का चित्रण न करके समस्या-समाधान उषा यादव के लेखन में दिखाई देता है। उषा यादव ने ज्वलंत विषयों पर पुस्तक लिखकर जन-जन का ध्यान आकर्षित किया। इसके साथ-साथ बाल कहानियां लिखकर हिन्दी साहित्य के साथ-साथ समाज में भी अमूल्य योगदान दिया। उषा यादव का कहना है कि- महिलाएं आज निर्भीकता पूर्वक लेखनी चला रही है। आज महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में अपना योगदान सिद्ध कर रही है। इसके लिए महिला संगठन सहयोग प्रदान कर रहा है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि आज महिलायें प्रत्येक क्षेत्र की तरह हिन्दी साहित्य में भी योगदान कर रही है। हाथ में कलम लिए महिला साहित्यकारों की एक विषाल फौज सामने खड़ी है। उनमें प्रमुख है- मधु ककरिया (अंतहीन मरूस्थल, बीतते हुए), लवलीन (चक्रवात), साराराय (अबाबील की उड़ान, बिपावन), ऋता शुक्ला (कासौ कहौं में दर दिया, मानुष तन, क्रौचवध), चन्द्रकान्ता (सलाखों के पीछे, सूरज उगने तक, काली बर्फ), इन्दुबाली (अंधेरे की लहर, धरातल, चुभन, पांचवा युग), सूर्यबाला (थाली भर चांद, दिषाहीन में, मानुष गंध, मुडेर पर) मेहरूनिसां परवेज (टहनियों पर धूप, फालगुनी, अंतिम चढ़ाई, समर, लाल गुलाब), राजी सेठ (अंधे मोड़ से आगे, गमे हयात ने मारा, तीसरी हथेली), मृणाल पाण्डेय (दरम्यान, शब्दबेधी, पंडरपुर पुराण, रास्तों पर भटकते हुए)  एवं कांता भारती (रेत की मछली) महिला साहित्यकार अपने साहित्य में गुणात्मकता के स्तर को बढ़ाने के लिए विज्ञान एवं तकनीकी का सहयोग ले रही है, इन्हें अब मानवीय मूल्यों के साथ-साथ आर्थिक एवं राजनैतिक विषयों को बढ़ाना होगा। समाज में सिर्फ स्त्री परक विचारों से ऊपर उठकर सामाजिक एवं आर्थिक समानता पर विचार करना होगा। वर्तमान युग में पर्यावरण प्रदूषण मानव जीवन के लिए खतरा बन चुका है। इसे हिन्दी साहित्य के सहारे जन-जन को सचेत करना होगा। अब सिर्फ हंगामा खेज लोकप्रियता के अपेक्षा सार्वभौमिक गुणों का तराषना होगा। जिससे समाज एवं देष के साथ-साथ हिन्दी साहित्य में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकें।
सन्दर्भ
1. मिश्र, डाॅ0 प्रतीक एवं चैहान सुभद्रा कुमारी, उत्तर प्रदेष हिन्दी संस्थान लखनऊ, पृष्ठ- 31
2. वर्मा, धीरेन्द्र, हिन्दी साहित्य कोरा भाग-2, प्रकाषन ज्ञान मण्डल लि0 वाराणसी, 1986, पृष्ठ-639
3. श्रीवास्तव रंजना, नया ज्ञानोदय, भारतीय ज्ञानपीठ अंक-91, 2010, पृष्ठ 40
4. कालिया ममता, दौड़, वाणी प्रकाषन, नई दिल्ली, 2000
5. सिंह बच्चन, आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोक भारती प्रकाषन इलाहाबाद, 1999, पृष्ठ- 355
6. कपूर अरूणा, नारी मन की अद्भुत चितेरी षिवानी, नागरिक उ0प्र0 षिवानी स्मृति विषेषांक, पृष्ठ- 35
7. पुष्पा, मैत्रेयी, आजाद भारत और महिला लेखन, नया पथः स्वाधीनता विषेषांक, पृष्ठ- 112
8. गर्ग, मृदुला, चितकोबरा, नेषनल पब्लिषिंग हाउस, नई दिल्ली, 1998
9. सोबती, कृष्णा, एक साक्षात्कार से।

जय प्रकाश पटेल एवं अन्जू सिंह पटेल
इलाहाबाद उ0प्र0

संस्कृतनाटकेषु नारी


घनश्याम बैरवा

सर्वःप्रायेण लोकोऽयं सुखमिच्छति सर्वदा। सुखस्य च स्त्रियो मूलं नानाशीलाराश्च ताः।।ना.शा.20.63
भरतमुनिमतानुसारं जगति मानवमात्रस्य लक्ष्यं सुखमस्ति। तस्य मूलाधारं च नारी इति। मनुना कथ्यते यत् ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।’ इति वाक्येन सिध्यति यत् तत्काले नारी समाजे श्रेष्ठपदं प्राप्नोति स्म। व्यासेन कथितं यत् भार्या पुरुषस्य अर्धभागमस्ति सैव पुरुषस्य श्रेष्ठमित्रमस्ति, भार्या त्रिवर्गस्य मूलमस्ति। वासुदेवशरणेन उक्तं यत् स्त्री वृत्तस्य व्यासः इति पुरुषः तस्य परिधिरिति। लालालाजपतरायेण अपि उक्तं यत् स्त्रीणां प्रश्नः पुरुषाणामेव प्रश्नः, पुरुषाणां-उन्नतिः स्त्रीणां-उन्नत्या सह युज्यते। नारी कन्यागृहिणीमात् रूपेण परिवारसमाजराष्ट्राणां मंगलविधात्री अस्ति।

संस्कृतनाटकेषु नारीणामवस्था ठाट्सोन्मुखी दृश्यते। तस्याः वैदिकयुगीनदेवीपदं लुप्तप्रायमस्ति। आसीदस्मिन् काले नारी सामाजिक-नियमेषु बन्धनेषु च आवद्ध। नारी-स्वातंत्रयं नाममात्रमेवासीत्।
आर्य! धर्माचरणेऽपि परवशोऽयं जनः।
गुरोः पुनरस्या अनुरूपवरप्रदाने संकल्पः।। अभि. शा. अंक 1, पृ. 21
उपपन्ना हि दारेषु प्रभुता सर्वतोमुखी। अभि. शा. 5.26
नाटकेषु प्रयुक्तैः कुटुम्बिनी-गृहिणी-शब्दैरिदमभिव्यज्यते यत् नारीणं-कार्य-क्षेत्रं विस्तृतं न भवति स्म अपितु गृहपरिवारयोः सीमापर्यान्तमेव आसीत्, तासां गृहिणीपदं अत्यन्त-उत्तरदायित्वपूर्णं मन्यते। तस्य प्राप्तिः सहजसुगमं च नासीत् तस्य कृते त्यागतपसी चावश्यकीति। दुश्चरित्रादुराचारिणी च नारी कुलस्य कृते आदिस्वरूपा भवति स्म।
......यान्त्येवं गृहिणी पदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः।। अभि. शा. 4.18
कुलवधूनां कृते तासां पतिरेव मण्डनमासीत्।
आर्यपुत्र एव मम आभरणविशेषः इति जानातु भवति। मृच्छ. 6 पृ. 317
स्वप्नवासवदत्तनाटके महादेवीवासवदत्ता स्वपत्युः उत्कार्षाय सम्पूर्णराजभोगान् त्यक्त्वा प्रच्छन्नवेषं धारयति इति, अपि च पद्मावत्या सह स्वपत्युः विवाहनिष्पादने सहायिका सिद्ध भवति। एषा त्यागस्य चरमसीमा। पत्युः सम्मानस्नेहं च प्राप्तिरेव पतिव्रतानां परं ध्येयं आसीत् अतः भतर््स्नेहस्य अधिकारिणी नारी मृत्युप्राप्तेऽपि अजरा-अमरा मन्यते स्म तस्याः विषये विवाहादि-शुभावसरे कथ्यते-
भर्तुर्बहुमताभव, भर्तुर्बहुमासूचकं महादेवी शब्दं लभस्व। अभि.शा.अंक 4 पृ. 317
धन्य सा स्त्री या तथा वेत्ति भर्ता। भर्तृस्नेहात् सा हि दग्धाप्यदग्धा।। सव.वा. 1.13
पतिपरित्यक्तानां नारीणां जीवनं निष्फलमेव भवति स्म। गृहेषु नारीणां स्थाननिर्धारणं तस्याः मातृत्वे आधारितम्। पुत्रवती नारी एव वंशपरम्परायाः अविच्छिन्नविधात्री गण्यते स्म तेन कारणेन सा एव कुलस्य प्रतिष्ठा आसीत्।
संरोपितेऽप्यात्मनि धर्मपत्नी त्यक्ता मया नाम कुलप्रतिष्ठा। अभि.शा. 6.24
अभिज्ञानषाकुन्तले विरहपीडितदुष्यन्तस्य शोकस्य मूलकारणं तस्य शकुन्तलां प्रति अखण्डस्नेहमेवास्ति परं च तस्य दुखस्य मूलहेतुरयमप्यस्ति यत् आपन्नसत्वां शकुन्तलां विहाय तेन स्ववंशं समाप्तम्। मातृत्वं नारीणां चरमपरिणतिरिति मातेति सुधावर्षिणीमभिधां प्राप्त्वा नारी स्वजीवनं सार्थकं मन्यते। वीरप्रसविनी माता गौरवशालिनी भवति स्म। पुत्रदर्शनेन माता रोमांचिता जाता।
वत्से! वीरप्रसविनी भव। सुतं त्वमपि समाजं सेव पूरूमवाप्नुहि।। अभि.शा. अंक.4 पृ.65
इयं ते जननी प्राप्ता त्वदालोकनतत्परा। स्नेह प्रस्वनिर्भिन्नमुद्वहन्ती स्तनांशुकम्।।विक्र.5.12
माता किल मनुष्याणं देवतानां च देवतम्। मध्य. वव्या. 1.37
तत्कालीनयुगे नारी सामाजिकार्थिकश्च दृष्ट्या परतन्त्रैव। समाजे गृहिणी- पत्नी-प्रेयसी-माता इति विधिसंज्ञायासु समादृतापि सा व्यक्तिगताचरणे स्वतन्त्रा नासीत्। तस्याः कृते स्वेच्छाचारिता न बहुमन्यते स्म। दुष्यन्तेन निरादृशकुन्तलायै कण्वशिष्यः कथयति यत्।
शार्ङरवः- सरोषं निवृत्यद्ध किं पुरोभागे स्वातं×यमवलम्बसे? अभि.शा. अंक.5 पृ. 64
शारद्वत- तदेषा भवतः कान्ता त्यज वैनां गृहाण वा।
अतः समीपे परिणेतुरिष्यते प्रियाप्रिया वा प्रमदा स्वबन्धुभिः।
सतीमपि ज्ञाति कुलैकसंश्रयां जनोऽन्यथा भर्तृमतीं विशंकते।। अभि.शा. 5.17
शार्ङरवः- अथ तु वेत्सि शुचिव्रतमात्मनः। पति कुले तव दास्यमपि क्षमम्।।अभि.शा.5.27
पुरुषाणां बहुविवाहस्य स्वीकृतिरपि नारीणं परतन्त्रतायां सहयोगं करोति स्म। नारी पतिना निरादृता अपि पतिकुले निवसितुं विवशासीत्, परं च पुरुषः सच्चरित्रायाः पत्न्यः विद्यमानायामपि बहुविवाहकृते स्वतन्त्रः किल। परिग्रहबहुत्वेऽपि द्वे प्रतिष्ठे कुलस्य मे। अभि.शा.3.17
समाजे सतीप्रथाऽपि प्रचलिता परं च अस्यां कठोरता नासीत्। मृच्छकटिकप्रकरणे पतिव्रता धूता स्वेच्छया पत्युः मृते सति अग्नौ प्रवेष्टुमिच्छति।
आलोच्यनाटकानां अध्ययनेन ज्ञायते यतः तत्समाजे पर्दा-प्रथाऽपि आसीत्। अभिज्ञानशाकुन्तले शकुन्तला दुष्यन्तस्य समक्षं अवगुण्ठनवती भूत्वा आगच्छति। अन्तःपुरस्य नार्यः धनाढ्य-स्त्रियोऽपि च कंचुकावृतशिविकायां स्थित्वा बहिर्गच्छन्ति स्म। अवगुण्ठनं नारीणां प्रतीकमासीत्। का स्विदवगुण्ठनवती नातिपरिस्फुटशरीरलावण्या। अभि.शा. 5.13
समाजे कुलनारीणामतिरिक्तं गणिकाभिधाऽपि नारी भवति स्म। याः शिक्षिता अपि विभिन्नकलासु नृत्यसंगीतादिषु दक्षाः भवन्ति स्म। पण्यस्त्रियः विक्रयवस्तूनां सदृशाः।
यस्यार्थास्तस्य सा कान्ता धनहार्यो ह्यसौ जनः। मृच्छ. 5.9
समुद्रवीचीवचलस्वभावाः सन्ध्याभ्रलेखेव मुहूर्तरागाः।
स्त्रियो हृतार्थाः पुरुषं निरर्थं निष्पीडितालक्तकवत् त्यजन्ति।। मृच्छ. 4.15
अलं चतुशालमिमं प्रवेश्य प्रकाशनारीधृत एष यस्मात्। मृच्छ. 3.7
एताः निम्ना-अपवित्रश्च। कतिपयगणिका श्रेष्ठापि आसन् या अर्थस्यापेक्षागुणान् बहुमन्यन्ते स्म। वसन्तसेना एवं रूपा, एता गणिका ईप्सितपुरुषैः सह विवाहं कृत्वा कुलवधूपदं प्राप्नुवन्ति स्म। यदा-कदा राजानोपि गणिकानां सद्गुणैः प्रभावितो भूत्वा ताः ‘वधू’ इति अभिधां दत्तवन्तः। यत्नेन सेवितव्यः पुरुषः कुलशीलवान् दरिद्रोऽपि। मृच्छ. 8.33
  सुदृष्टः क्रियतामेष शिरसा वन्द्यतां जनः। यत्र ते दुर्लभं प्राप्तं वधूषब्दावगुण्ठनम्।। मृच्छ. 4.24
आर्ये वसन्तसेने! प्रितुष्टो राजा भवतीं वधूशब्देना नुगृझति। मृच्छ. 10 पृ.598
स्त्रीशिक्षायाः पूर्णस्वातं×यमासीत् नाटकेषु शिक्षितानां नारीणां वर्णनं प्राप्यते। शकुन्तलायाः ललितपदसंवलितप्रेमपत्रेण स्द्धियति यत् सा शिक्षिता इति। वीणावादने प्रवीणा वासवदता इत्यपि प्रमाणी भवति।
समाजे नारीणां धार्मिकदृष्ट्या महत्वपूर्णं स्थानं वर्तते स्म। धार्मिकक्षेत्रे स्त्री पत्युः सहयोगिनी धर्मचारिणी च आसीत्। धार्मिकक्रिया पत्नीं विना न सम्पन्ना भवति स्म। अतः सहधर्माचरणाय विवाहानिवार्यः संस्कारः इति। वानप्रस्थाश्रमेऽपि सा पत्युः धर्मपालने सहायिका भवति स्म।
न्नु सहधर्मचारिणी खल्वहम्। प्रतिमा. अंक 2 पृ. 39
तदिदानीमापन्नसत्वेयं प्रतिगृह्यतां सहधर्माचरणायेति। अभि.शा. अंक 5 पृ. 86
उक्तविवेचनेनैवं निष्कर्षं जातं यत् नार्यः प्रति आलोच्यनाटककारसाहित्यकारयोः च दृष्टिः अत्यन्ता-उदारा-विशदा चासीत्। नारी तेभ्यः पवित्रापूजनीया च। तत्काले नारीणां ठाट्सोन्मुखीमवस्थां विलोक्य तेषां मनांसि विचलितानि भवन्ति स्म। अतः तासामुत्कर्षाय च स्वकृतिषु ताः विशिष्टं स्थानं दत्तम्। नारीविषयकप्रचलितभ्रान्तीनां निवारणाय तस्याः श्रेष्ठस्वरूपस्यचित्रणमकुर्वन्। तैः आधि स्वरूपाः दुश्शीला नार्यः स्वनाटकेषु आदर्शपदं न दत्तम् अपितु पत्युः सहधर्मचारिणी, गुरुजनानां शुश्रूषाविधात्री, त्यागस्वरूपा, देवीरूपा नारीणं चित्रं-चित्रितमिति।
।।इति।।

डाॅ0 घनश्याम बैरवा
व्याख्याता, संस्कृत विभाग
डाॅ0 बी0आर0अम्बेडकर राजकीय महाविद्यालय,
श्रीगंगानगर, राजस्थान।

गीता में वर्णित मानसिक पर्यावरण की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में उपादेयता


छाया पाण्डेय

आज मानव जाति पर्यावरण-असन्तुलन, आर्थिक-संकट, बाल-शोषण, नारी-उत्पीणन, जातिवाद, आतंकवाद, बढ़ती जनसंख्या, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद आदि समस्याओं का सामना कर रही है; यदि ये समस्याएँ हल न हुयीं तो मनुष्यता को सामूहिक विनाश की ओर बढ़ने से नहीं रोका जा सकता। ये सारी स्थितियाँ मानसिक रोगों को जन्म दे रही है। आधुनिक काल में नैतिकता का अत्यधिक पतन हो रहा है, मनुष्य के नैतिक मूल्यों की गिरावट चरम सीमा तक आ पहुँची है और जैसा कि हम जानते हैं कि हमारी मानसिक प्रवृत्तियाँ जड़ चेतन सभी को प्रभावित करती हैं इस प्रकार पर्यावरण के प्रदूषित होने की प्रक्रिया हमारे कलुषित मन से ही प्रसूत हो रही है।

भगवद्गीता यह शिक्षा देती है कि कलुषित चेतना को शुद्ध करना है, शुद्ध चेतना होने पर सारे कर्म ईश्वर की इच्छानुसार होंगे और इससे हम सुखी हो सकेंगे। शुद्ध कर्म भक्ति कहलाते हैं। भक्ति में कर्म सामान्य होते हुए भी कलुषित नहीं होते- इसी बात का वर्णन गीता के तृतीय अध्याय में इस प्रकार किया गया है-
यस्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।। 3/7
आज के भौतिकवादी युग में प्रत्येक व्यक्ति भाँति-भाँति की चिंताओं एवं मानसिक अशांति से ग्रस्त है। पति-पत्नी, पिता-पुत्र ही नहीं मानव जाति एवं प्रकृति के संबंधों में भी कड़वाहट और दरार पड़ती जा रही है। पूरे सामाजिक वातावरण में बिखराव आ रहा है, इन सभी के मूल कारणों एवं उनके सही समाधान को भगवद्गीता समाहित किए हुए है। गीता की दृष्टि में व्यक्ति के स्वभाव में सुधार ही सामाजिक पर्यावरण के सुधार का उपाय है। भगवद्गीता में स्पष्ट रूप से प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कर्मों का उल्लेख है- सात्विक, राजसिक, तामसिक इसी प्रकार आहार के भी तीन भेद किये गये हैः क्योंकि शरीर खाए हुए भोजन से ही बनता है, इसीलिए भोजन के प्रकार का बहुत महत्व है, इनका विशद् विवेचन 17वें अध्याय में किया गया है। यदि इन उपदेशों का ठीक से पालन करें। तो हमारा सम्पूर्ण जीवन शुद्ध एवं सात्विक हो जायेगा और यह भौतिक जगत् भी अत्यधिक पावन हो जायेगा। भगवद्गीता के 15वें अध्याय में सम्पूर्ण भौतिक पर्यावरण के ईश्वरत्व की ओर संकेत किया गया है1 यथा-
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्। यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।। 15/12
इन वाक्यों से समझ सकते हैं कि, सूर्य सम्पूर्ण मण्डल को प्रकाशित कर रहा है, सूर्य का प्रकाश परमेश्वर के आध्यात्मिक तेज के कारण है। सूर्योदय के साथ ही मनुष्य के कार्यकलाप प्रारम्भ हो जाते हैं वे भोजन पकाने के लिए अग्नि जलाते हैं और फैक्ट्रियाँ चलाने के लिए भी अग्नि जलाते हैं, अग्नि की सहायता से अनेक कार्य किये जाते है अतएव सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि की सहायता के बिना कोई जीव नहीं रह सकता। चन्द्रमा समस्त वनस्पतियों का पोषण करता है, चन्द्रमा के प्रभाव से फल एवं सब्जियाँ सुस्वादु बनती हैं। वास्तव में मानव-समाज भगवत् कृपा से काम करता है, सुख से रहता है और भोजन का आनन्द लेता है अन्यथा मनुष्य जीवित न रहता-
पुष्णामि चैषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।। 15/13
मनुष्यों को इस प्राकृतिक सम्पदा को उस परम सत्ता की देन समझकर इसकी सुरक्षा करनी चाहिए एवं इसके प्रति श्रद्धा भाव से युक्त होना चाहिए जिससे सम्पूर्ण पर्यावरण चक्र सुन्दरतम रूप को धारण कर सकेगा। श्रद्धा को गीता में इस प्रकार विवेचित किया गया है-
   सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरूषो यो यच्छूद्धः स एव सः।। 17/3
श्रद्धा मानवता पर पड़ने वाला आत्मा का दबाव है। यह वह शक्ति है, जो मानवता को न केवल ज्ञान की दृष्टि से अपितु आध्यात्मिक जीवन की समूची व्यवस्था की दृष्टि से उत्कृष्टतर की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती है।
प्रकृति समस्त भौतिक कारणों तथा कार्यों की हेतु कही जाती है और जीव इस संसार में विविध सुख-दःुख के भोग का कारण कहा जाता है, इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता है।2 यदि जीव प्रकृति की अलौकिकता से परिचित हो जाए, तो प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की चिर-अभिलाषित आकांक्षा समाप्त हो जाए और ज्यों-ज्यों वह प्रभुत्व जताने की इच्छा को कम करता जायेगा त्यों-त्यों उसी अनुपात में वह आनन्दमय जीवन का आस्वादन करेगा।
मानव समाज में समस्त पतनों का मुख्य कारण प्राकृतिक नियमों के प्रति लापरवाही है, यह मानव जीवन का सर्वोच्च अपराध है। मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान के अनुसार क्या कत्र्तव्य है और क्या अकत्र्तव्य उसे ऐसे विधि-विधानों के अनुसार कर्म करना चाहिए।3 गीता में स्वयं भगवान् कृष्ण ने भी कहा है कि- यदि मैं नियतकर्म न करू तो ये सारे लोक नष्ट हो जायेंगे। उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।3/24
मनुष्य लोभ व उपभोक्तावाद की वृत्ति के वश में होकर विज्ञान द्वारा प्रस्तुत की गई शक्ति से प्रकृति के द्वारा उपलब्ध संसाधनों की आवश्यकता से कहीं अधिक दोहन किया है। उससे जिस प्रकार का पर्यावरण खतरा उत्पन्न हुआ उसने भावी-पीढि़यों के लिए पृथ्वी को नरक बना दिया है। भगवद् का उपदेश हमें इस पर्यावरण से उत्पन्न संकट का सामना करने में मदद करता है। पर्यावरण के संकट का सामना करने के लिए आवश्यकताओं को सीमित करना आवश्यक है। गीता का उपदेश हमें अपनी आवश्यकताएँ संतुलित करने में मदद करता है। चैथे अध्याय में कहा गया है कि- हे अर्जुन। यह योग न तो बहुत खाने वाले का सिद्ध होता है और न बिल्कुल न खने वाले का तथा न अति शयन करने के स्वभाव वाले का और न अत्यन्त जागने वाले को ही सिद्ध होता है। यह दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथा योग्य आहार और विहार करने वाले का तथा कर्मों में यथा योग्य चेष्टा करने वाले और यथा योग्य शयन करने व जागने वाले का ही सिद्ध होता है।4
इसके अतिरिक्त गीता में यज्ञ के द्वारा प्रकृति में संतुलन लाने का उपदेश किया गया है। गीता में कहा गया है कि- प्रजापति ब्रह्म ने यज्ञ का विधान करते हुए कहा है कि यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता लोग तुम लोगों की उन्नति करें। इस प्रकार आपस में कत्र्तव्य समझकर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होंगे।5
इस प्रकार गीता में मानसिक प्रवृत्तियों की स्वच्छता व निर्मलता से इस भौतिक पर्यावरण को दूषित होने से बचाने की शिक्षा प्रदान की गई है। गीता में लोकसंग्रह अर्थात् संसार की एकता पर जो बल दिया गया है, उसकी मांग है कि, हम अपने जीवन की सारी पद्धति को बदलें। प्रत्येक व्यक्ति को उस स्थान से ऊपर की ओर उठना होगा। जहाँ कि वह खड़ा है। जो व्यक्ति ऐसा कर लेगा वह किसी से ईष्र्या नहीं करेगा, न किसी वस्तु की उसे लालसा रहेगी, वह प्रकृति के बन्धनों से छूट जायेगा।6 वह उस दिव्य स्वभाव को प्राप्त कर लेगा जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है, और इसी शरीर में आध्यात्मिक सुख को प्राप्त कर सकेगा- जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते। 14/20
परन्तु जो उच्चतर गुणों तक ऊपर न उठ कर निरन्तर तमोगुण में ही बने रहते हैं उनका भविष्य अत्यन्त अंधकारमय हो जाता है। ऊध्र्वगच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः। जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा।। 14/18
संदर्भ
1. श्रीमद्भगवद्गीता - 15/12, 13, 14,
2. श्रीमद्भगवद्गीता - 13/21, 22
3. श्रीमद्भगवद्गीता - 16/24
4. श्रीमद्भगवद्गीता - 4/16,17
5. श्रीमद्भगवद्गीता - 3/10, 11
6. श्रीमद्भगवद्गीता - 14/25
7. श्रीमद्भगवद्गीता - गीता प्रेस, गोरखपुर।

छाया पाण्डेय
वरिष्ठ शोध अध्येता, संस्कृत विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ

भारतीय वाङ्मय में सौन्दर्य शब्द के पर्याय


अनुराधा शुक्ला

सौन्दर्य एक भावना है जिसे हम अपने दैनिक जीवन में अपनी इन्द्रियों द्वारा अनुभव करते हैं। सौन्दर्य का स्पष्ट गुण सुख है, सुखानुभूति एक सकारात्मक अनुभूति है। सुन्दर वस्तु पाने की इच्छा ही सौन्दर्य-बोध है तथा सौन्दर्य का विश्लेषण करने वाले शास्त्र को ‘सौन्दर्य- शास्त्र’ नाम से बोधित किया गया है। सौन्दर्यबोध ही सौन्दर्य-शास्त्र की प्रथम कड़ी है। पाश्चात्य काव्य शास्त्र में सौन्दर्य शब्द के लिए ब्यूटी शब्द का प्रयोग किया जाता है किन्तु भारतीय वाङ्मय में सौन्दर्य शब्द के लिए अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया जाता है। वेदों एवं उपनिषदों में भी सौन्दर्य शब्द का साक्षात् रूप उपलब्ध नहीं है। अपितु उसके वाचक व्य्ंजक शब्दों का पर्याप्त प्रयोग मिलता है। संस्कृत वाङ्मय में सुन्दर शब्द के निम्नलिखित पर्याय प्राप्त होेते है:-

‘‘सुन्दर रुचिरं चारू सुषमं साधु शोभनम्। कान्तं मनोरमं रूच्यं मनोज्ञं मंजु मंजुलम्।
अभीष्टेऽभीप्सितं हृदयं दयितं बल्लभ प्रियम्।।’’1
प्रो0 ब्रजमोहन चतुर्वेदी ने ‘सौन्दर्यकारिका’ नामक कृति में सौन्दर्य पद के चित्ताह्लादक भाव की प्रतीति कराने वाले अट्ठारह पर्यायवाची शब्दों को उद्दिष्ट किया है-
रमणीयता च शुचिता लावण्यं चारूता च सौन्दर्यम्।
शोभा कान्तिः सुषमा श्रीश्च रूपं च सौकुमार्यम्।।
सौभाग्यं विच्छित्तिः कला च मुग्धताऽथ मनोहारिता।
अभिरामता मधुरता दश चाष्टौ सौन्दर्य पर्यायाः।।2
इस प्रकार सौन्दर्य शब्द की वस्तुपरक एवं भावपरक अर्थ की अभिव्यक्ति करने वाले पर्याय है- सुन्दर, रमणीयता, शुचिता, लावण्य, चारूता, शोभा, कान्ति, सुषमा, श्री, रूप, सौकुमार्य सौभाग्य, विच्छिति, कला, मुग्धता, मनोहारिता, अभिरामता आदि।
सुन्दर शब्द ‘सु’ उपसर्ग पूर्वक ‘उन्द’ धातु से ‘अरन्’ प्रत्यय लगकर बनता है।3 जिसका अर्थ है- सु अर्थात सुष्ठु या अच्छी प्रकार अर्थात आर्द्र करना और अरन् कर्तृवाचक प्रत्यय अर्थात सुन्दर। इस प्रकार सौन्दर्य शब्द का व्युत्पत्ति परक अर्थ है- ‘भली-भँाति आर्द्र या सरस करने वाला’। सुन्दर शब्द की एक और व्युत्पत्ति भी होती है। सुन्दराति इति सुन्दरम् तस्य भावः सौन्दर्य।4
अंग्रेजी में सौन्दर्य शब्द का पर्याय ठमंनजल है।5  ठमंऩजल न्यू अर्थात प्रिय रसिक अथवा श्रृङ्गारी पुरुष तथा जल भाववाचक प्रत्यय है। इस प्रकार इसका अर्थ है- ‘रसिक का भाव या रसिकता अथवा श्रृङ्गारी पुरुष का गुण’।
रमणीयता शब्द का प्रयोग भी सौन्दर्य के पर्याय के रूप में किया है। ‘रमु क्रीडायां’ धातु में ‘अनीयर प्रत्यय’ के योग के द्वारा रमणीयता शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। रमणीय का भाव ही रमणीयता है। नित्य नवीनता का भाव ही रमणीय है। महाकवि माघ ने चिर-नवीन आकर्षण का पर्याय सौन्दर्य को माना है। तथा रमणीयता को परिभाषित करते हुए लिखा है- ‘‘क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः’’।6 पण्डितराज जगन्नाथ ने भी काव्य-लक्षण में रमणीयता अर्थ के प्रतिपादक शब्द को काव्य माना है रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्ः।7
शुचिता शब्द ‘इशुचिर् पूतिभावे’ धातु से कृदन्त ‘इन् प्रत्यय’ के द्वारा शुचि पद निष्पन्न हुआ है। शुचिता का अर्थ है- पवित्रता। वस्तु या विषय का वह धर्म जो हृदयाङ्गम होते ही मन को पवित्रता से ओत-प्रोत कर दे वह ‘शुचिता’ कहलाता है। सौन्दर्य एवं शुचिता दोनों के पर्याय भिन्न-भिन्न होते है। सौन्दर्य की परिणति जहां आनन्द में होती है। वहीं शुचिता की परिणति प्रसन्नता में होती है।
लावण्य पद ‘लुनाति इति लवणं’ के द्वारा ‘लू’ छेदने धातु के कर्ता अर्थ में ‘ल्युट्’ प्रत्यय के द्वारा निष्पन्न होता है। ध्वनिवादी आचार्य अभिनवगुप्त ने लावण्य पद को व्याख्यायित करते हुए कहा है कि- ‘‘लावण्य अवयव- संस्थानों से अभिव्य्ंजित होने वाला अवयवों से व्यतिरिक्त उनका एक भिन्न धर्म होता है। अवयवों की निर्दोषता या अलङ्कारता लावण्य नहीं है अपितु वह उनसे व्यतिरिक्त विलक्षण वस्तु है।’’8
      माधुर्य शब्द ‘मधु$रा’ तथा ‘क प्रत्यय’ के संयोग से निष्पन्न हुआ है। ‘मधु माधुर्यम् अस्ति अस्य’ अर्थात माधुर्य युक्त। आनन्दवर्धन ने मधुर का अर्थ ‘परप्रहलादन’ किया है।9 काव्यशास्त्र में भी माधुर्य गुण को प्रसाद एवं ओज गुण से अधिक महत्व प्राप्त हुआ है। माधुर्य गुण के द्वारा सहृदय का चित्त शीघ्रता से द्रवित हो जाता है। मधुरता का सम्बन्ध हृदय की आर्द्रता से है।
मनोहरता का अर्थ है-‘‘वह तत्त्व जो मन को हरने में समर्थ हो।’’ प्रो0 ब्रजमोहन चतुर्वेदी ने कहा है कि सौन्दर्य के विविध पक्ष हमारी इन्द्रियों के विषय होते है और उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करते है। उनके द्वारा ही वे व्यक्ति पर जब अपना प्रभाव प्रकट करते है किन्तु कुछ ऐसे भाव है जिनका ग्रहण साक्षात् मन से ही होने लगता है क्योंकि इन्द्रियाँ शिथिल होने के कारण उनके ग्रहण में समर्थ नहीं हो पाती उन्हीं को मनोहर कहते हैं जिनका भाव मनोहारिता है।10
सौकुमार्य अथवा सुकुमारता पद का भी प्रयोग सौन्दर्य शब्द के पर्याय के रूप में उपलब्ध होता है जिनका भाव है-‘सौम्य’। सौम्य पद के द्वारा व्यक्ति के आन्तरिक गुण कोमलता, मृदुता आदि का बोध होता है। भवभूति ने भी उत्तररामचरितं में सीता की सुकुमारता का वर्णन करते हुए कहा है कि -
‘‘किसलयमिव मुग्धं बन्धनाद् विप्रलूनं, हृदयमलशोवी दारूणो दीर्घशोकः।।
ग्लपयति परिपाण्डु क्षाममस्याः शरीरं, शरदिज इव धर्मः केतकीगर्भपत्रम्।।11
व्यक्ति या वस्तु के वे गुण जिनका बोध उसके क्रिया-कलापों से होता है, वे चारुता कहलाते है। चारुता मुख्यतः वस्तु या व्यक्ति में निहित धर्म है। प्रसन्नता में ही चारूता की परिणति होती है। किसी व्यक्ति या वस्तु के किसी विशिष्ट गुण पर आकृष्ट होना सौभाग्य है। महाकवि कालिदास ने चारुता को परिभाषित करते हुए कहा है कि- ‘‘प्रियेषु सौभाग्य फला हि चारूता’’12 भामह ने चारुता के विषय में कहा है कि- ‘‘न नितान्तादिमात्रेण जायते चारूता गिराम्’’13 अर्थात् किसी भी वस्तु या व्यक्ति विशेष के रूप में नितान्त आदि पदों का प्रयोग करने से अभिव्यक्ति में चारुता नहीं होती।
शोभा शब्द ‘शुभ्’ धातु से करण अर्थ में ‘घ्ं’ प्रत्यय के द्वारा ‘शोभन्ते अनया’ की व्युत्पत्ति के द्वारा निष्पन्न हुआ है। प्राकृतिक वस्तुओं के रूपात्मक सौन्दर्य को शोभा शब्द के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। काव्य शास्त्रीय आचार्य वामन ने भी गुणों को शोभा का स्वरूपाधायक तत्त्व माना है- ‘‘काव्य शोभायाः कत्र्तारो धर्मा गुणाः’’।14
कान्ति पद ‘‘कमु कान्तौ’ धातु से स्त्री विवक्षा में ‘क्तिन् प्रत्यय’ के द्वारा निष्पन्न हुआ है। कान्ति का अर्थ है-‘चमक’ वस्तु की कान्ति ही दर्शक को उसे प्राप्त की इच्छा का मूल कारण स्वीकार किया जाता है।
‘श्रयतीति श्रीः’ अर्थात् श्री धातु से ‘क्विप्’ प्रत्यय के द्वारा श्री पद व्युत्पन्न होता है। यह पद जन्म से ही प्राप्त होता है। यह वस्तु या व्यक्ति के सहज धर्म का द्योतक होता है। श्री पद का सम्बन्ध आरोपित सौन्दर्य से न होकर स्वाभाविक एवं सहज सौन्दर्य से है।
सौन्दर्य के लिए रूप शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। रूप गोस्वामी ने अपने ग्रन्थ ‘उज्ज्वलनीलमणि’ में ‘‘रूप’’ को परिभाषित करते हुए लिखा है-
‘‘अङ्गान्यभूषितान्येव केनचिद् भूषणादिना। येन भूषितवद् भान्ति तद्रूपमिति कथ्यते।।’’15
अर्थात् व्यक्ति के वाह्य अङ्गों के सौन्दर्य को ‘रूप’ शब्द के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है।
विच्छित्ति पद ‘वि’ उपसर्ग पूर्वक ‘छिद्’ धातु से ‘क्विन्’ प्रत्यय के द्वारा निष्पन्न होता है। यह वस्तु एवं व्यक्ति का आन्तरिक धर्म है। यह सौन्दर्य के उस पक्ष को व्यक्त करता है, जिसके अवबोधन से इन्द्रियों का उनके विषयों से सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है।
अभिरामता शब्द का प्रयोग उस सन्दर्भ में किया जाता है जहाँ व्यक्ति या वस्तु आभ्यान्तर एवं वाह्य उभयविध सौन्दर्य से संवलित हों।
सौन्दर्य के पर्याय रूप में सौभाग्य पद का प्रयोग होता है। सुभग का भाव ही सौभाग्य है। सौभाग्य पद सु उपसर्ग पूर्वक भाग्य पद के द्वारा व्युत्पन्न हुआ है। किसी व्यक्ति या वस्तु का सर्वोत्कृष्ट गुण सौभाग्य है।
सुषमा शब्द का प्रयोग भी सौन्दर्य के पर्याय के रूप में किया जाता है। वस्तु एवं व्यक्ति के वाह्य अंगों की परस्पर अनुरूपता में निहित धर्म सुषमा कहलाता है।
कला शब्द ‘कल्’ धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है- प्रकट करना, गिनना तथा संकलन करना। इस प्रकार कला वह मानवीय क्रिया है जिसका विशेष लक्षण ध्यान से देखना, गणना अथवा संकलन, मनन, चिन्तन एवं स्पष्ट रूप से प्रकट करना है।
निष्कर्षतः शब्द और अर्थ को काव्य का शरीर कहा जाता है। शब्दार्थ शरीर को चमत्कृत करने के लिए जिन तत्वों का प्रयोग किया जाता है। उन्हें विभिन्न आचार्य रस, ध्वनि आदि नामों से अभिहित करतेे हंै। उन्हीं को भारतीय साहित्य में विभिन्न आचार्यों ने चारुता, लावण्य, चमत्कार आदि शब्दों से विभूषित किया है। इस प्रकार सौन्दर्य को अभिव्यक्त करने वाले विभिन्न पर्यायवाची शब्द एक दूसरे से सूक्ष्म दृष्टि से अन्तर रखते हंै।
सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची
1. अमरकोश, तृतीय कारिका, पृ.- 52-53
2. आप्टे वामन शिवराम, संस्कृत-हिन्दीकोश, पृ.- 115
3. शर्मा अंजु, निराला की सौन्दर्य चेतना, पृ.- 15
4. वाचस्पत्यम्, पृ.- 5314
5. डाॅ. नगेन्द्र, भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की भूमिका, पृ.-34
6. शिशुपालवधम्, 4/17
7. पण्डितराज जगन्नाथ, रसगङ्गाधरम, 1/1
8. पाठक जगन्नाथ, ‘लावण्यं हि नामावयवसंस्थानामिव्यंग्यमवयव्यतिरिक्तं धर्मान्तरमेव न चावायवानामेव निर्दोषता वा भूषणयोगी वा लावण्यम्’। ध्वन्यालोकलोचन, कारिका- 4 की वृत्ति
9. व्याख्याकार आचार्य विश्वेश्वर, ध्वन्यालोक, कारिका- 2.7
10. चतुर्वेदी प्रो. बृजमोहन, भारतीय सौन्दर्यदर्शन, पृ.- 21
11. उत्तररामचरितम्, 3/5
12. अभिज्ञानशाकुन्तलम, चतुर्थ अङ्क, पृ.-96
13. भामह, काव्यालङ्कारम्, 1/26
14. वामन, काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति, 3/1/1-2
15. रूपगोस्वामी, उज्ज्वलनीलमणि, 11/23

अनुराधा शुक्ला
शोधच्छात्रा, संस्कृत विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

महाकाव्यों का उद्भव और विकास

सन्ध्या शुक्ला

लोकविश्रुत देववाणी संस्कृत विश्व की समस्त भाषाओं की शिरोमुकुट उदात्त एवम् उज्ज्वल विचारों की मनोरम मंजूषा, प्राचीन भारत के साहित्यिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनैतिक जीवन की कमनीय कुंजिका तथा पुरुषार्थ चतुष्टय की निर्मल मुकुर है। इस भूमण्डल पर सर्वाधिक प्राचीन कही जाने वाली यही आर्यों की गीर्वाणवाणी है। संस्कृत साहित्य भारत का राष्ट्रीय गौरव है, वह भारतीय संस्कृति का निर्मल दर्पण है। उसमें हमे अपने गौरवमय अतीत की झाँकी देखने को मिलती है।1
भारतीय काव्य के निर्माण की पूर्व प्रेरणा कवियों को रामायण तथा महाभारत जैसे महनीय महाकाव्यों के अध्ययन से प्राप्त हुई। प्रस्तुत है महाकाव्य के उद्भव और विकास का निरूपण-
महाकाव्य के विकास का इतिहास
रूपगत विकास शैलीगत विकास
वैदिक काल वीर महाकाव्य काल लौकिक महाकाव्य काल प्रसादात्मक शैली अलंकारात्मक शैली श्लेषात्मक शैली
आख्यान, देवस्तुति, भाव प्रधानता रामायण, महाभारत, भाव एवं आख्यान तत्वों की प्रधानता कालिदास एवं परवर्ती काव्यकार, भावपक्ष की अपेक्षा कला पक्ष उदात्त यह शैली रामायण, महाभारत, कालिदास, अश्वघोष आदि के काव्यों में प्राप्त होती है यह शैली भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि के काव्यों में प्राप्त होती है। यह शैली द्वयर्थक काव्यों में प्राप्त होती है।
द्वयर्थक
काव्य-धनंजय-द्विसन्धानकाव्य कविराजसूरिकृत-राघवपाण्डवीय त्र्यर्थक काव्य-राघवचूड़ामणिदीक्षित राघवायादवपाण्डवीय।
महाकाव्यों का उद्भव ऋग्वेद के आख्यान सूक्तों- इन्द्र, वरुण, विष्णु और उषा आदि के स्तुति मन्त्रों तथा नराशंसी गाथाओं से हुआ है। ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में इन आख्यान आदि का वृहद रूप मिलता है। यही स्वरूप आगे चलकर महाकाव्य के रूप में परिवर्तित हो गया। क्रौंच वध से खिन्न मन वाले महाकवि वाल्मीकि के वाणी से प्रस्फुटित व्याध्या-शाप (मा निषाद प्रतिष्ठा त्वम्) वाल्मीकि कृत रामायण के रूप में आदिकाव्य के गौरव को प्राप्त कर लिया, तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि का गौरव प्राप्त हुआ।2 वाल्मीकि रामायण काव्यरूपी गंगोत्री का उद्गम है जहाँ से विभिन्न कवियों को काव्यस्रोतस्विनी रूपी मन्दाकिनी अविरल प्रवाहित हो रही है। रामायण के बाद वेदव्यास कृत महाभारत भी परवर्ती कवियों का उपजीव्य काव्य बन गया। रामायण और महाभारत आगे चलकर परवर्ती काव्यों और महाकाव्यों के लिए उपजीव्य ग्रन्थ हो गये।3
रामायण और महाभारत के प्रणयन के उपरान्त प्राप्त होने वाले विपुल महाकाव्य साहित्य के बीज वैदिक साहित्य में खोजना व्यर्थ सा ही है। किन्तु भारतीय परम्परा वेद को ही प्रत्येक शास्त्र काव्य आदि का उत्पत्ति स्थल मानती रही है। वैदिक ऋषि की सर्वाधिक मनोहर कल्पनाएं ऋग्वेद के उषस् सूक्तों में समस्त काव्यात्मक उन्मेष के साथ प्रस्फुटित हुई है।4 देवस्तुति के अतिरिक्त नराशंसियों में भी काव्यस्वरूप झलकता है। तत्कालीन उदार दानी राजाओं की प्रशंसा में नितान्त अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्तियाँ ही नराशंसी कहलाती है। ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ की सप्तम पंचिका में ‘शुनः शेप आख्यान’ एवं अष्टम पंचिका में ‘ऐन्दमहाभिषेक’ के अनेक अंश सुन्दर काव्य ही छटा बिखेरते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में काव्य तत्वों का अस्तित्व तो दृष्टिगोचर होता है किन्तु महाकाव्य शैली का पूर्ण परिपाक कहीं प्राप्त नहीं होता है। संस्कृत महाकाव्य धारा का मूल उद्गम स्थल आदिकाव्य रामायण ही है, जिसमें महाकाव्य की सभी प्रवृत्तियों का सम्यक् दर्शन हो जाता है। सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य पर इस आदिकाव्य का दाय प्रत्येक साहित्यानुरागी को विदित ही है।
संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों के विकास परम्परा में संस्कृत व्याकरण के ‘मुनित्रय’ पाणिनि, वररूचि तथा पतंजलि का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है।5 आचार्य रुद्रट कृत ‘काव्यालंकार सूत्र’ के टीकाकार नेमिसाधु ने पाणिनी के द्वारा रचित महाकाव्य ‘जाम्बवतीजय’ या ‘पातालविज’ का उल्लेख किया है। पतंजलि के महाभाष्य (ईस्वी पूर्व द्वितीय शती) में काव्यगुणों से सम्पन्न पद्य उपलब्ध है। इन प्रमाणों के आधार पर महाकाव्य का उदय ईस्वी पूर्व की अष्टम शती में ही पाणिनी द्वारा हो चुका था। सूक्तिग्रन्थों में ‘राजशेखर’ ने पाणिनी को व्याकरण तथा ‘जाम्बवतीजय’ दोनों का रचयिता माना है।
‘‘नमः पाणिनये तस्मै यस्मादाविरभूदिह। आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम्।।6
‘वररूचि’ के नाम से भी अनेक सुन्दर श्लोक विभिन्न सुभाषित संग्रहों में उपलब्ध होते हैं। न केवल ‘सुभाषितावलि’ तथा शारंगधरपद्धति’ में ही इनके पद्य पाए जाते हैं। बल्कि इससे भी प्राचीन ‘सदुक्तिकर्णमृत’ में वररूचि कृत श्लोकों की उपलब्धि होती है। पतंजलि ने वररूचि के बनाये हुए किसी काव्यग्रन्थ (वाररूचं काव्यं) का उल्लेख महाभारत में किया है। ‘‘यथार्थता कथं नाम्नि मा भूद वररूचेरिह। व्यघत्त कण्ठाभरणं यः सदारोहणप्रियः।।’’7
वररूचि कृत महाकाव्य का नाम ‘कण्ठाभरण’ है। वररूचि ने पाणिनी का अनुसरण ‘वार्तिक’ लिख कर ही नहीं किया प्रत्युत, काव्य रचना से भी उसकी पूर्ति की।
‘पतंजलि’ ( 150 ई0पूर्व) ने अपने महाभाष्य में दृष्टान्त के ढंग पर बहुत से श्लोकों या श्लोक खण्डों को उद्धृत किया। जिनके अनश्ुाीलन से संस्कृत काव्यधारा की प्राचीनता स्वतः सिद्ध होती है। ‘छन्दशास्त्र’ के अनुशीलन से भी महाकाव्य की प्राचीनता विषदरूपेण प्रमाणित होती है। काव्य अपने रूचिर निर्माण तथा रचना के निमित्त शान्त वातावरण, आर्थिक समृद्धि तथा सामाजिक शान्ति की जितनी अपेक्षा रखता है उतनी ही वह किसी गुणग्राही आश्रयदाता की प्रेरणा की भी।8 प्राचीन भारतवर्ष के इतिहास में वह युग शकों के भयंकर आक्रमणों से भारतीय जनता, धर्म तथा संस्कृति के रक्षक मालव संवत के ऐतिहासिक संस्थापक शकारि मालवगणाध्यक्ष विक्रमादित्व का है।9 इसी युग में भारतीय संस्कृति के उपासक हमारे राष्ट्रीय कवि कालिदास का काव्याकाश मे उदय होता है। कालिदास को ही वस्तुतः प्रौढ़ परिष्कृत, प्रांजल एवं मनोज्ञ काव्य शैली का प्रवर्तक कहा जा सकता है।10 उन्होंने जो आदर्श उपस्थित किया वह परकालिन कवियों एवं महाकवियों के लिए अनुकरणीय हुए।
संस्कृत महाकाव्य के विकास को तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है।
1. कालिदास के पहले का समय जिसमे कथानक की प्रधानता रही। रामायण और महाभारत इस समय के आदर्श काव्य है।
2. कालिदास का समय जिसमे आडम्बरों में रहित, सहज एवं सरल ढंग से भाव तथा कला का मंजुल समन्वय स्थापित करके काव्य की धारा प्रवाहित हुई। जैसे- ‘रघुवंशम’ और कुमारसम्भवम्’ इत्यादि।
3. कालिदास के बाद का समय जिसमें काव्य लेखन भाषा और भाव की दृष्टि से क्लिष्ट होता हुआ दिखाई पड़ता है जिसकी परम्परा ‘भारवि’ से शुरू होकर ‘श्रीहर्ष’ की रचना तक अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है और एक वैदग्ध तथा पाण्डित्यपूर्ण परम्परा का निर्माण होता है।
विद्वानों ने कालिदास के पूर्ववर्ती कवि व्यास और वाल्मीकि को ऋषिकोटि में माना है। इनकी रचनाओं में सरलता और स्वाभाविकता का पुट है। संस्कृत साहित्य में महाकवि ‘भारवि’ का नाम विशेष उल्लेखनीय रहेगा क्योंकि संस्कृत के महाकाव्यों की परम्परा में समय एवं कवित्व दोनों दृष्टियों से कालिदास के बाद भारवि का प्रमुख स्थान है।11 इनका एकमात्र महाकाव्य ‘किरातार्जुनीयम्’ है जो अपनी अर्थपूर्ण उक्तियों के लिए विद्वान्मण्डली में लोकप्रिय हो गया। इसके बाद उसी कोटि का महत्वपूर्णकाव्य ‘माघ’ का ‘शिशुपालवधम्’ है। कवि के नाम पर इसे ‘माघकाव्य’ भी कहा जाता है।12 संस्कृत महाकाव्यों की परम्परा में कालक्रम के अनुसार सबसे अन्तिम और महत्वपूर्ण काव्य 12वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखा गया महाकवि ‘श्रीहर्ष’ का ‘नैषधीयचरितम्’ है। इन्होंने अपने महाकाव्य को तत्कालीन समाज में प्रचलित परम्परा के अनुरूप ही आगे बढ़ाया और उस शैली के विकास को चरम तक पहुँचा दिया।13
इस प्रकार महाकाव्य के विकास पर दृष्टिपात करने से स्पष्टतः प्रतीत होता है। कि आरम्भिक युग में नैसर्गिकता का ही काव्य में मूल्य था।14 वहीं गुण आदर की दृष्टि से देखा जाता था। कवियों ने अपने काव्यों में अक्षराडम्बर तथा अलंकार विन्यास की ओर अपना दृष्टिपात किया और उन्हें ही काव्य का जीवन मानने लगें।
संदर्भ ग्रन्थ
1. द्विवेदी कपिल देव, संस्कृत साहित्य का इतिहास
2. वाल्मीकि रामायण
3. आदिपर्व 1/68-69
4. ऋग्वेद: उषस् सूक्त
5. संस्कृत शास्त्रों का इतिहास (वाराणसी 1969 पृष्ठ 416)
6. राजशेखर,  सूक्तिग्रन्थ
7. पतंजलि, महाभाष्य 4/2/65
8. आचार्य उपाध्याय बलदेव संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 137, 138
9. उपाध्याय गुप्त साम्राज्य का इतिहास - 2 पृष्ठ 100
10. ए0ए0 मैक्डोनेल: ए हिस्ट्री आॅफ संस्कृत लिटरेचर पृ0 343
11. भारतीय साहित्य शास्त्र ‘दूसरा खण्ड’ पृष्ठ 186, 196
12. डाॅ0 व्यास: संस्कृत कवि दर्शन
13. कीथ: ए हिस्ट्री आॅफ संसकृत लिटरेचर पृ0 140
14. गैरोला वाचस्पति, संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृ0 756

सन्ध्या शुक्ला
शोधच्छात्रा, उ0प्र0रा0ट0मु0 विश्वविद्यालय।

वैश्विक परिदृश्य में संस्कृत शिक्षा की उपादेयता


अंजलि यादव

एडम स्मिथ ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वेल्थ आॅफ नेशन्स’ में लिखा है कि पहिया, लिपि और मुद्रा ये तीन ऐसे कालजयी आविष्कार हैं जिस पर सम्पूर्ण संसार का विकास निर्भर है। इन्हीं तीनों आविष्कारों के बल पर मानव अन्तरिक्ष, समुद्र एवं धरती पर विजय पताका फहराने में समर्थ हुआ है। लिपि अर्थात् भाषा एक ऐसी विधा है जो संसार के लोगों के विचारों एवं उनकी भावनाओं तथा उनके द्वारा किये गये विविध आविष्कारों को समझने में सहायक सिद्ध हुआ है। संस्कृत भाषा विश्व की प्राचीनतम् भाषाओं में से एक है। इसका साहित्य एवं व्याकरण विश्व में सबसे अधिक समृद्धशाली एवं सुव्यवस्थित है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की उदात्त एवं निष्णान्त विचारधारा को चरितार्थ करने के लिए ‘‘जिओ और जीने दो’’ की परिकल्पना को साकार करने के लिए तथा दुनियों को ‘सत्य और अहिंसा’ का पाठ पढ़ाने के लिए संसार से भुखमरी, बेरोजगारी, आतंकवाद मिटाने के लिए ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए संस्कृत की शिक्षा अनिवार्य है। क्योंकि संस्कृत साहित्य के पौराणिक ग्रन्थों में मानव जाति से सम्बन्धित समस्त समस्याओं का समाधान निहित है। इतना तो दुनिया के सभी बुद्धिजीवी मुक्तकंठ से स्वीकार करते ही हैं कि अन्य विषयों के अध्ययन और अध्यापन की तुलना में संस्कृत साहित्य का अध्ययन और अध्यापन करने वाला व्यक्ति अत्यधिक संयमित और धर्मपरायण होता है। जिसमें सदाचार एवं मानवोचित संस्कार अक्षुण्य रूप में विद्यमान रहते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि संस्कृत साहित्य का सम्पूर्ण दर्शन मानवतावादी दृष्टिकोण पर आधारित है। अध्यात्म और योग दो ऐसी विधायें हैं जो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’ की संकल्पना को साकार कर सकते हैं।
वेदों में पीपल के वृक्ष को जल देने एवं घर के आॅगन में तुलसी का पौधा लगाने तथा घर के आस पास नीम के वृक्ष को लगाने की बात कही गयी है। वास्तव में इन बातों पर यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चिन्तन किया जाय तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि पीपल का वृक्ष समस्त वृक्षों में सबसे अधिक आक्सीजन का निष्कासन करता है जो प्राणि जीवन के लिए अमूल्य है। तुलसी के पौधे से बैक्टीरिया नाशक रसायन निकलता है इसलिए मनीषियों ने इसे घर के आॅगन में लगाने की सलाह दी। इसी प्रकार घर के आस पास नींम के पेड़ को लगाने की बात कही गयी है वास्तव में नींम का पेड़ हवा को शुद्ध करता है। भारत जैसे विकासशील देश में अधिकांश लोग अशिक्षित हैं इसलिए हमारे देश के मनीषियों ने इसे धर्म से जोड़ दिया और यह बताया कि इन वृक्षों (पीपल और तुलसी) में ईश्वर का वास होता है। इसलिए इसे जल देना चाहिए। पौराणिक ग्रंथों में नदियों को देवी की संज्ञा प्रदान की गयी है। इसके जल के सेवन एवं स्नान से बहुत से शारीरिक विकार दूर हो जाते हैं। भारत की गंगा नदी को यदि देखा जाये तो स्पष्ट पता चलता है कि यह नदी 2510 किमी0 की यात्रा करने के पश्चात बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इतने लम्बे सफर में यह नदी उन क्षेत्रों से होकर प्रवाहित होती है जहाॅ का धरातल फास्फोरस युक्त तथा हिमालय की विविध प्रकार की वनस्पतियों से स्पर्शोपरान्त गंगा नदी के जल में ऐसी जड़ी बूटियाॅ मिल जाती हैं जिससे गंगा नदी के जल में कीटाणु नहीं पनप पाते हैं। इसलिए मकर संक्रांति जैसे पर्व पर (जो कि कुछ लोग जाड़े में स्नान नहीं करते और विविध चर्म रोगों से ग्रसित हो जाते हैं) स्नान करने मात्र से उनके शरीर का चर्म रोग आदि ठीक हो जाता है। इसलिए नदियों की अविरल धारा को बनाये रखने के लिए और उन्हें प्रदूषण मुक्त करने के लिए दुनिया के लेगों में चेतना जाग्रत करने की आवश्यकता है। नदियों पर बाॅध तो बनाये पर नदियों के अस्तित्व को दाॅव पर लगाकर नहीं।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र सम्पूर्ण राजनीति का संविधान है जिसमें राजनीति के नीतिगत बातों का सुन्दर ढंग से समन्वय किया गया है। इसलिये कुशल राजनीतिज्ञ होने के लिए कौटिल्य के अर्थशास्त्र का अध्ययन विश्व में अपरिहार्य है। महाभारत और रामायण में ऐसे अनेक दृष्टान्त भरे पड़े हैं जिनके अध्ययन से मानव का कल्याण हो सकता है। हम बड़े आत्म विश्वास के साथ कह सकते हैं कि यदि विश्व में केवल गीता के बारहवें और तेरहवें अध्याय का अध्ययन और अध्यापन अनिवार्य कर दिया जाय तो मानव जाति से सम्बन्धित अनेक समस्याओं का समाधन स्वतः हो जायेगा।
संस्कृत भाषा में निबद्ध काव्यों में ह्नदय के भावों की उतनी ही स्वाभाविक अभिव्यक्ति है जितनी किसी की प्रौढ़ साहित्य के माननीय काव्यों में हो सकती है। संस्कृत साहित्य को भारतीय संस्कृति का प्रधान वाहन कह सकते हैं क्योंकि संस्कृत के काव्यों में ही संस्कृति का वास्तविक दर्शन हमें प्राप्त होता है। त्याग से अनुप्राणित, तपस्या से पोषित तथा तपोवन में संवर्धित भारतीय संस्कृति का रमणीय आध्यात्मिक रूप संस्कृति तथा जनजागरण का अग्रदूत संस्कृत कवि तात्विक रूप से जीवन के अन्तस्तल को परखता है और उसका सच्चा वर्णन प्रस्तुत करता है, परन्तु जीवन का मंगलमय पर्यवसान तथा कल्याणमय उद्देश्य होने के कारण वह दुःखपर्यवसायी काव्यों तथा नाटकों की रचना से सर्वदा परांमुख होता है। संस्कृत साहित्य का यही मौलिक वैशिष्ट्य है।
हमारी संस्कृत भाषा संसार की सभी भाषाओं में सर्वश्रेष्ठ है। संस्कृत साहित्य समग्र सभ्य साहित्य से प्राचीनता, व्यापकता, तथा अभिरामता में बढ़कर है। यदि इस भूमि पर कोई भी भाषा सबसे प्राचीन होने की अधिकारिणी है, तो वह संस्कृत भाषा ही है। सबसे प्राचीन ग्रन्थ और हमारे धर्म-सर्वस्व वेद भगवान् इसी गौरवमयी गीर्वाणवाणी आराधीनय ऋषियों के द्वारा परमात्मा की आन्तरिक प्रेरणा से ‘दृष्ट’ हुए हैं। अध्यात्म की गुत्थियों को सुलझाने वाले तथा मानव मस्तिष्क के चरम विकास को प्रकट करने वाले उपनिषद् भी इसी भाषा में अभिव्यक्त किये गये हैं। पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर प्रलय तक का विस्तृत तथा विविध इतिहास प्रस्तुत करने वाले पुराणों की रचना इसी सुन्दर भाषा में की गयी है।
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि लौकिक अभ्युदय तथा पारलैकिक निःश्रेयस की सिद्धि के साधक जितने ज्ञान और विज्ञान है, जितने कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड हैं, इन सबको अवगत करने का उपाय यही संस्कृत भाषा है।
संस्कृत साहित्य की महत्ता को प्रदर्शित करने वाले अनेक कारणों में एक कारण इसकी प्राचीनता है, क्योंकि इतना प्राचीन साहित्य कहीं भी उपलब्ध नहीं है। संस्कृत साहित्य की अविच्छिन्न परम्परा आठ अहार वर्षाें से निरन्तर चली आ रही है, प्राचीनता की दृष्टि से यदि विचार किया जाए अथवा अविच्छिन्नता की कसौटी पर इसे कसा जाए तो यह साहित्य आधुनिक युग में नितान्त महत्वपूर्ण प्रतीत होता है।
संस्कृत साहित्य सर्वांगीण है। यह सब अंगों से परिपूर्ण है। मानव-जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का विवेचन संस्कृत साहित्य में विस्तार से प्राप्त होता है।
संसार में सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, अध्यात्मिक, आर्थिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, वैज्ञानिक एवं दार्शनिक प्रगति के लिए संस्कृत शिक्षा की आवश्यकता है। विश्व में यही एक ऐसा साहित्य है जिसमें विकास के समस्त सोपानों पर बड़े ही विधिसम्मत ढंग से विवेचना की गयी है। आज जब विश्व आर्थिक मन्दी के दौर से गुजर रहा है तो ऐसे में संस्कृत शिक्षा की अनिवार्यता और भी बढ़ जाती है। संसार से आतंकवाद मिटाने के लिए पारिस्थितिकी संतुलन को बनाये रखने के लिए तथा नक्सलवाद एवं नस्लवाद की समस्याओं के समाधान के लिए संसार में संस्कृत शिक्षा की अनिवार्यता एवं आवश्यकता बढ़ जाती है।
संदर्भ गं्रथ सूची
1. शर्मा चन्द्रधर, भारतीय दर्शन, प्रका0 मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली, 1990
2. श्रीमद्भगवद्गीता, गीता प्रेस गोरखपुर, उ0प्र0
3. उपाध्याय बलदेव, संस्कृत साहित्य का इतिहास, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1980
4. द्विवेदी आचार्य कपिलदेव, संस्कृत साहित्य का इतिहास, ज्ञानमण्डल लिमिटेड वाराणसी, 1998
5. बंदिष्टे डी0डी0, भारतीय दार्शनिक निबंध, मध्य प्रदेश ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, म0प्र0, 1999

डाॅ अंजलि यादव
प्रवक्ता, संस्कृत विभाग,
ज्वाला देवी विद्यामन्दिर स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
कनपुर, उ0प्र0

तिब्बत में तंत्र परंपरा तथा बज्रयान परंपरा का विकास


जी0 यस0 तिवारी एवं सुनीता पाण्डेय

आजकल के षिक्षित लोगों के लिए तंत्र का अर्थ पंचमकार से है, अर्थात् मत्स्य, मांस, मद्य, मैथुन एवं मधु की सिद्धि के नाम पर भोग-विलास का जीवन बिताने के लिए अनुष्ठानों का संपादन। किन्तु आरंभिक तांत्रिक साहित्य तथा प्रतिमाओं एवं तांत्रिक आचारों के अवषेषों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि तंत्र सम्प्रदाय में अनेक महत्वपूर्ण तत्वों का समावेष था। लिखित तंात्रिक ग्रन्थो और प्रतिमाषास्त्र में मातृदेवी की पूजा को महत्व का स्थान दिया गया है।1(1) यद्यपि तंत्र-साधना मुख्य रूप से शाक्त सम्प्रदाय से सम्बद्ध है तथापि शैव एवं वैष्णव सम्प्रदायों तथा बौद्ध और जैन धर्म में भी इसका स्थान बाद के दिनों में अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया। बौद्ध धर्म में तंत्र-साधना ने महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर लिया। तिब्बत जैसे देषों में इसका स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया।

तंत्र सम्प्रदाय में युक्ति तथा मुक्ति की प्राप्ति एवं लोगों की तरह-तरह की भौतिक कामनाओं (काम्यानि) की पूर्ति के विभिन्न प्रकार के गुह्य अनुष्ठानों का विधान किया गया है। लगभग छठी सदी ईस्वी की एक वैष्णव तांत्रिक रचना में तंत्र सिद्धान्त को चतुर्वर्ग अर्थात् अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति करने वाला बताया गया है।1(2) यह सिद्धि पूजा अथवा भक्ति द्वारा प्राप्त की जा सकती है। भक्ति का अर्थ है अराध्य देव तथा गुरू के प्रति समर्पण। तांत्रिक संगठनों में गुरू या आचार्य को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। विषाल तंत्र साहित्य में विभिन्न तांत्रिक धाराओं तथा विविध धर्माचरणों को स्थायी और सुव्यवस्थित रूप दिया गया। व्यवहारतः तंत्र सम्प्रदाय हिन्दू धर्म के समान ही था। उसकी दृष्टि सर्वथा सम्प्रदाय निरपेक्ष एवं भौतिकवादी थी। विभिन्न वर्गो के जीवन के जितना निकट तंत्र सम्प्रदाय था उतना कोई अन्य सम्प्रदाय नहीं था।
लगभग सभी तांत्रिक ग्रन्थों की रचना दूरस्थ जनजातिय क्षेत्रों में हुई है। तंत्रो पर आधारित बौद्ध मंत्रयान का उद्भव छठी सदी में आन्ध्र मंे हुआ।1(3) गुह्य समाज वज्र षिखर, सर्वतयागततत्त्व संग्रह और महा वैरोजन बौद्धों के प्राचीनतम तंत्र ग्रन्थ है। उनकी रचना छठी और सातवीं सदियों में हुई क्योंकि परंपरा के अनुसार उन्हें नागार्जुन और नागबोधि तथा दक्षिण के साथ जुड़ा हुआ माना जाता है, इसलिए उनकी उत्पत्ति आंध्र या कलिंग में मानी जाती है।2(3) इस संदर्भ में रामषरण शर्मा लिखते हैं कि ऐसा लगता है कि गुंटुर जिले में पछेती सातवाहन राजाओं तथा उनके उत्तराधिकारियों ईक्ष्वाकुओं ने जो बौद्ध भिक्षुओं को बसाया था उसके कारण पहले महायान के उदय में सहायता मिली, और बाद में तंत्र के जन्म का मार्ग प्रषस्त हुआ।1(4)
भारत में बौद्ध तंत्र ने सर्व प्रथम छठी-सातवीं सदियों में मजबूती से बंगाल में अपने पैर जमाए। धर्म कीर्ति के काल (600-615 ई0) तक ये तंत्र गुप्त रूप से कायम रखे गये।1 बहुत आगे चलकर आठवीं-बारहवीं सदियों में शायद इस काल के उत्तरार्ध में,2(4) सरह, लुइया, कम्बल, पद्म वज्र, कृष्णाचमि, ललिता वज्र, गंभीर वज्र तथा पित्स नामक बुद्धों ने तंत्र की विविध शाखाओं का प्रवर्तन किया।3(4) तंत्रोपासना और विषेष रूप से शाक्त पंथ की दृष्टि से मिथिला एवं उत्तर तथा पूर्वी बंगाल अर्थात् बांग्लादेष को मध्यकाल में एक ही धार्मिक ईकाई माना जाता था। कुलार्णवतंत्र की पाण्डुलिपियाँ उत्तर तथा पूर्व बंगाल में मिली हैं, और कौलाचर तो मिथिला में आज भी कायम है। नौ नाथ कौल तंत्रों के रचयिता माने जाते हंै। महाकौल ज्ञान-विनिर्णय की प्रतिलिपि जिसे मत्स्येद्रनाथ नेपाल ले गये थे।
कष्मीर में तंत्र साधना की रचना पर जोर दसवीं सदी से आरंभ हुआ, क्योंकि वहाँ आठवीं सदी से पूर्व तंत्र का प्रवेष नहीं हो पाया था।1(5) तंत्र साहित्य के सबसे प्रसिद्ध रचयिता अभिनव गुप्त थे2(5) उसने तंत्रलोक नामक वृहत ग्रन्थ की रचना की, जिसमें तंत्र की कुल तथा त्रिक पद्धतियों की षिक्षा को सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया गया है। प्रांरभिक तांत्रिक ग्रन्थ मुख्य रूप से कष्मीर, नेपाल, बंगाल, असम तथा पष्चिमी और दक्षिणी भारत में पाये गये हैं।
दैवी तथा मौलिक दोनों धरातलों पर तंत्र सम्प्रदाय के संस्थागत पक्ष का विकास पूर्व मध्यकाल की आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था के अभिन्न अंग के रूप में हुआ। यह पूर्व मध्यकाल की आवष्यकताओं की उपज था। उसमें स्त्रियों, शूद्रांे तथा बाहर से शामिल होने वाली जनजातियों को स्थान दिया गया। तंत्र सम्प्रदाय संघर्ष को तीव्रता देने के स्थान पर सामाजिक सौहार्द तथा एकता स्थापित करने का धार्मिक प्रयास था।
तंत्रयान तथा बज्रयान के सन्दर्भ में संस्कृत आचार्यों द्वारा, संस्कृत भाषा में लिया गया, मूल साहित्य अब प्रायः कम मिलता है, किन्तु ‘बस्तन-हग्युर’ में तिब्बती भाषा में किया गया, उनका अनुवाद सुरक्षित है।1(6) तिब्बती इतिहास में वर्णित इन सिद्धाचार्यो में से अनेक पाल काल से सम्बन्धित माने जाते हैं। महायान बौद्ध धर्म से विकसित हुए, विभिन्न यानों से सम्बन्धित साहित्य को प्रायः तंत्र (ज्र्युद) की संज्ञा दी गयी है। यह इस कारण से सम्भव हो सकता है कि ये अत्यधिक अस्पष्ट अथवा सांकेतिक भाषा में गुह्य उपदेषों, रीतियों व कृत्यों की षिक्षा देते हैं। तारानाथ के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि पाल काल में अनेक वज्राचार्य थे जो विभिन्न सिद्धियों पर अपना अधिकार रखते थे व आष्चर्य पूर्ण कृत्यों का प्रदर्षन करते थे। भारतीय व तिब्बती साक्ष्यों में पर्याप्त मतभेद के कारण आचार्यो का काल क्रम मात्र सापेक्षतया से अथवा संषय से निर्धारित किया जा सकता है। साहित्यिक कृतियों और विषिष्ट लेखकों-आचार्यों की पहचान के सम्बन्ध में अनिष्चितता प्रायः प्रबल है। विनोयतोष भट्टाचार्य ने इनके कालक्रम को व्यवस्थित करने का प्रयास किया है।1(7) राहुल सांकृत्यायन ने मंत्रयान व वज्रयान का समय क्रमषः 400-700ई0 व 700-1200ई0 निर्धारित किया है।2(7) उन्होंने यह विष्वास व्यक्त किया है कि तांत्रिक बौद्ध धर्म का उदय दक्षिण भारत में लगभग छठी शताब्दी ईसवी में हुआ तथा उत्तर भारत में 84 सिद्धों के माध्यम से फैला।
वज्रयान- व्रजयान, योगाचार दर्षन में ही संवर्धन व विस्तार का अन्तफल था। यह दर्षन तृतीय शताब्दी ईसवी में प्रतिपादित किया गया था। योगाचार दर्षन के अनुसार इस दृष्य संसार का कोई अस्तित्व नहीं है। यह चित्त की सृष्टि है। यह क्षणिक ज्ञान, चेतना अथवा बोध है जो कि वास्तविक अथवा सत्य है। इसी दर्षन के अनुसार लौकिक दृष्टि अथवा सत्य है। इसी दर्षन के अनुसार लौकिक दृष्टि विषय स्वप्न की भांति है। मानो जादू से स्थापित किए गए हों। सभी मत्र्य क्षणिक ज्ञान, चेतना अथवा बोध की श्रृंखला में बद्ध है और वे तब तक जन्म व पुनर्जन्म की श्रेणी से गुजरते हैं, जब तक उन्हें मुक्ति नहीं मिलती। शून्य का प्रत्यक्षीकरण अनन्त ज्ञान, सर्वज्ञान प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। उन्होंने दो प्रकार के अवरोध1(8) बताए- प्रथम प्रकार का विध्न है- ‘क्लेषावरण’ अथवा दुःख-पीड़ा का आवरण तथा द्वितीय ‘ज्ञेयावरण’ अर्थात् वह रुकावट जो सर्वालिखित सत्य को छिपाती है। अनुराग, आसक्ति, घृणा, अनिच्छा आदि प्रकार के अनुभव व स्पर्शज्ञान दुःख-पीड़ा का आवरण है। ये किसी भी तथ्य को जो कि वह वास्तव में हैं, जानने में अवरोध उत्पन्न करते है। दूसरे प्रकार का विध्न या अवरोध है- पूर्ण ज्ञान का अभाव और उस पूर्ण ज्ञान को दूसरों तक पहुँचा पाने की अयोग्यता। प्रथम प्रकार का आवरण जगत की शून्यता के प्रत्यक्षीकरण द्वारा हटाया जा सकता है। अनुराग, घृणा, अनिच्छा, आदि अनुभव व स्पर्ष ज्ञान बाह्य इन्द्रिय विषय द्वारा उत्पन्न नहीं होते हैं, बल्कि यह यथार्थ आत्मा के द्वारा निरन्तर चिन्तन करने से उत्पन्न होते है। ‘श्रावक’ व ‘प्रत्येक’ जो कि भव या उत्पत्ति के चक्र से भयभीत रहते है और केवल अपने लिए निस्तारण चाहते हंै, आत्मा के पूर्ण नाष के लिए इस प्रकार के चिन्तन को आवष्यक मानते हैं। इसके दूसरी ओर महायानी जो कि दुःखित, पीडि़त मानवों के प्रति करूणा रखने वाली असीम व अमित भावना से ओत-प्रोत है और सदैव दुःखित व पीडि़त मानवों की सहायता हेतु तत्पर रहते हैं, वे अपनी करूणा की भावना से उत्प्रेरित होकर निरात्मा के प्रत्यक्षीकरण के लिए एक प्रकार का चिन्तन करते हैं। इस प्रकार हीनयानी व महायानी में यह अंतर है कि बाह्य संसार की शून्यता के चिन्तन में हीनयानी स्वार्थी हैं और महायानी निःस्वार्थ भाव से चिन्तन करते हैं।
लगभग सातवीं शताब्दी ईसवीं के अन्त में अनंगवज्र द्वारा रचित ‘प्रज्ञोपाय विनिष्चयसिद्धि’1(9) में वज्रयान से सम्बन्धित मुख्य अभिप्रायों, मतों व सिद्धांतो का वर्णित किया गया है। प्रथम अध्याय में ‘भव’ अथवा उत्पत्ति को पारिभाषित किया गया है। यह स्थिति सांसारिक दृष्टि विषयों को सत्य मानने पर मिथ्या विचारों अथवा कल्पनाओं के कारण उत्पन्न होती है। इससे अनेक प्रकार के दुःखों, क्लेषों व उससे सम्बन्धित कार्यों व उनके परिणामों की उत्पत्ति होती है। उनमें से ही जन्म व मृत्यु जैसे अन्य दुःखों की उत्पत्ति होती है। जब तक मनुष्य अज्ञानता के कारण सांसारिक दृष्टि विषयों के बाह्य प्रकाषन को सत्य मानते हैं; वे न स्वयं अपना और न अन्य लोगों का कल्याण कर पाते हैं। करूणा को ‘उपाय’ अथवा ‘साधन’ कहा जाता है क्यांेकि यह सदैव नौका के सदृष्य लक्ष्य की ओर मार्ग-निर्देषन करती है। ‘प्रज्ञा’ व ‘उपाय’ का संयोजन दूध व जल के संयोजन की भांति है। इसमें द्वैतता बिना किसी भेद के एक में मिल जाती है और इसे ‘प्रज्ञोपाय’ कहा जाता है। यह ‘प्रज्ञोपाय’ सम्पूर्ण संसार का मूल सिद्धान्त है। प्रत्येक कुछ इसी सिद्धान्त से निकलता है व विकसित होता है। यह ‘महासुख’ कहलाता है क्योंकि यह शाष्वत सुख प्रदान करता है। यह ‘सामन्तभद्र’ नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह पूर्णतः मंगलकारी है।
‘प्रज्ञोपायविनिष्चयसिद्धि’ के द्वितीय अध्याय में इस संबंध में चर्चा कि गई है कि ‘पूर्ण ज्ञान’ परिभाषित नहीं किया जा सकता है। यह कम या अधिक रूप में आत्म प्रत्यक्षीकरण पर आश्रित रहता है। पूर्णज्ञान केवल प्रवीण गुरू के ही माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। यह अत्यंत आवष्यक है कि तंात्रिक क्रियाओं में पूर्ण रूप से दक्ष गुरू को, महान समर्पण द्वारा पूजा जाए, उसकी सेवा की जाए तभी ज्ञान प्राप्त हो सकता है और पूर्णता प्राप्त की जा सकती है। जिस प्रकार से सूर्यकान्तमणि सूर्य की किरणों में संपर्क में आने पर स्फुलिंग छोड़ने लगती है। उसी प्रकार गुरू के संपर्क में आने पर षिष्य की चिन्तामणि प्रज्ज्वलित हो उठती है।
तृतीय अध्याय षिष्य के दीक्षा-संस्कार, ‘प्रज्ञोपाय’ में दीक्षित होने से संबंधित है। षिष्य अत्याधिक आभूषणों से सुसज्जित व बाह्य उपस्थिति में अत्यंत रामणी प्रतीत होने वाली ‘महामुद्रा’ के साथ गुरू के समीप जाता है। तत्पष्चात् षिष्य दीर्घ स्तुति से गुरू की उपासना करता है और अंत में प्रार्थना करता है कि उसे दीक्षा प्रदान करें ताकि वह बुद्धों के कुल से उनकी संतान की तरह संबंध रख सके। तब गुरू षिष्य को महामुद्रा के साथ संयुक्त करके आवष्यक दीक्षा प्रदान करता है। इसी क्रम में गुरू उसे पाँच ‘संयम’ प्रदान करता है और बोधिसत्त्व पर आरोपित किए जाने वाले ‘संवर’ अथवा संयम संबंधी आदेष देता है। इस प्रकार दीक्षित षिष्य अपने गुरू पर इस कृपा दृष्टि के प्रत्युत्तर में अगाध श्रद्धा प्रकट करता है क्यांेकि उसके गुरू ने उसे दुःखों-क्लेषों से वह मुक्ति दी है, जिसके लिए वह अत्याधिक इच्छित था। इसके साथ ही वह एक संकल्प यह भी लेता है कि स्वयं बुद्धत्व प्राप्त करने के पश्चात् अन्य प्राणियों को त्रिलोकों में बुद्धत्व की स्थिति में स्थापित करेगा।
चतुर्थ अध्याय में ‘प्राज्ञोपाय विनिष्चय सिद्धि’ का प्रणेता ‘प्रज्ञोपाय’ के चिन्तन मनन व ध्यान के संबंध में विस्तार से कहता है। वह अपरिभाषित है जो न तो ‘षून्य’ है न इसके विपरीत है और न ही इन दोनों का निषेध है। ‘षून्य’ अथवा ‘अषून्य’ को स्वीकार करने में असंख्य मिथ्या विचार उत्पन्न होते हैं और उनके पूर्ण परित्याग के प्रलोभन से उनको त्यागने का निष्चय उत्पन्न होता है। इसलिए इन दोनों का त्याग कर देना चाहिए। षून्यता और संकल्प भी त्यागने के प्रयास में आत्मबोध प्रधान हो जाता है। इसलिए इस प्रकार की सभी रीतियां छोड़ देनी चाहिए। उपासक को स्वयं भी अपरिवर्तनषील, पूर्ण, नामरहित, निर्मल व्योम की भांति (जिसका न आदि है न अंत) सोचना चाहिए। पूर्ण करूणामय, बोधिसत्व को क्लेषित प्राणियों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए। ‘प्रज्ञा’ को ‘प्रज्ञा’ इसलिए कहा जाता है कि यह रूपान्तर अथवा परिवर्तन को स्वीकार नहीं करती है यह ‘कृपा’ (करूणा) पूर्ण है। जब प्रज्ञा व करूणा का संयोजन हो जाता है तब न तो ज्ञान रह जाता है न जानने वाला और न ही ज्ञान का उद्देष्य। यही वास्तव में सर्वोच्च ज्ञान है। जब प्रज्ञा और करूणा का संयोजन होता है तब न तो कोई कार्य करने वाला रह जाता है न कोई उपभोग करने वाला क्योंकि यह कार्य करने वाले तथा उपभोग करने वालों के ज्ञान से मुक्त है। इसे महान सत्य का ज्ञान कहा जाता है। इसमें न तो कोई प्राप्त करने वाला होता है न ही कोई प्रदान करने वाला, साथ ही न कुछ दिया जा सकने वाला होता है न ही कुछ लिया जा सकने वाला। जो इस महान् सत्य को प्रत्यक्ष कर लेते हंै उन्हें साधारण से साधारण कार्य करते हुए असंख्य योग्यताओं, गुणों और विधाओं की प्राप्ति होती है। ये साधारण से साधारण कार्य है - देखना, सुनना, बातचीत करना, हंसना, खाना या तब भी जब उनका ध्यान कहीं और लगा हो। यह सत्य अद्वैत बोधिचित्त, व्युत्पन्न वज्रसत्व की भांति भी माना जाता है। यह ‘प्रज्ञापारमिता’ की भांति भी माना जाता है। जो कि सभी पारमिताओं की मूर्तिमत्ता है। इसमें से जगत् व उसकी चर अथवा अचर वस्तुओं की उत्पत्ति होती है और इसमें असंख्य बोधिसत्वों, सम्बुद्धों व श्रावकों का जन्म होता है। योगी को सभी सत्यता व असत्यता के विचारों को छोड़कर इसका ध्यान करना चाहिए। जो कोई भी सत्यता व असत्यता के विचारों को छोड़ सकता है वही षीघ्रातिषीघ्र पूर्णता प्राप्त कर सकता है। इस तरह पापों से मुक्ति पाने पर वह सभी दुःखों व क्लेषों से मुक्त हो जाता है और सदैव सर्वश्रेष्ठ गुणों को प्राप्त करता है।
इसके पष्चात् ‘प्रज्ञोपायविनिष्चय सिद्धि’ के रचयिता संसार व निर्वाण के संबंध में दो छंद लिखते हैं, जो संभवतः गूढ़ दर्षन की उन ऊंचाइयों को प्रदर्षित करते प्रतीत होते हैं, जहाँ तक वज्रयानी पहुंच सके थे। संसार के संबंध मेें1(10) ‘वज्र को धारण करने वाला संसार को चित्त को उस अवस्था की भांति परिभाषित करता है जो असंख्य मिथ्या विचारों, संकल्पनाओं आदि से उत्पन्न अज्ञानता से व्यग्र, व्याकुल है (जो) क्षणिक है जैसे तूफान में बिजली की चमक और जो आसक्ति व लगाव की गर्त से लिपा पुता है, यह गर्त सरलता से हटाई नहीं जा सकती है।’ निर्वाण की स्थिति संसार की स्थिति से सर्वथा भिन्न है।1 ‘श्रेष्ठ निर्वाण चित्त की दूसरी अवस्था है जो विषुद्धता से उज्ज्वल है, सभी मिथ्या विचारों, संकल्पनाओं और आसक्ति के ख्ंिाचाव की गर्त से विमुक्त है, जिसे न तो अनुभव कर सकते हैं न जाना जा सकता है और जो शाष्वत है।’’
पंचम अध्याय में पापों से मुक्ति प्राप्त करने हेतु षिष्य को ‘तत्वाचर्या’ (तांत्रिक आचरण) के संबंद्ध में अभ्यासिक संकेत दिए गए है। प्रणेता का तो यह भी कहना है कि यह ‘तत्वाचर्या’ हिंदू देवताओं मुरारि, षिव, इंद्र, कुबेर द्वारा भी आदृत व पूजित है। इन आचरणों को निरंतर नियम पूर्वक अभ्यास में लाते रहने से सर्वोच्च निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है।1(11)
इस तरह देखा जा सकता है कि वज्रयान ने प्रायः सर्वश्रेष्ठ दार्षनिक मतों व सिद्धांतो को ग्रहण किया। संभवतः यही कारण था कि वज्रयान ने अतिषय लोकप्रियता अर्जित की। इसने सभ्य सुसंस्कृत, असभ्य, सज्जन, दुरात्मा निम्न तथा श्रेष्ठ (उच्च) सभी वर्गो को संतुष्ट करने का सफल प्रयास किया।
यह कहना कठिन है कि तंत्रयान, वज्रयान ने कहाँ जन्म लिया। ‘साधनमाला’1(12) में चार पीठों का उल्लेख है जो वज्रयानियों से संबंधित थे-कामाख्या, सिरिहट्ट, पूर्णगिरी उड्डियान। कामाख्या का समीकरण गुवाहटी से कुछ मील की दूरी पर इसी नाम के स्थान से किया जा सकता है। सिरिहट्ट संभवतः आधुनिक सिल्हट है। पूर्णगिरी का समीकरण पुण्यतीर्थ से किया गया है। यह भी असम में ही है। चारों मठों में उड्डियान का उल्लेख अत्याधिक हुआ है। इसके निष्चित समीकरण के विषय में पर्याप्त मतभेद है। किन्हीं विद्वानों द्वारा इसका समीकरण स्वात घाटी में उड्यान के साथ तो किन्हीं विद्वानों ने उड्डियान को उडि़सा से समीकृत किया है।2(12)
तिब्बती ग्रन्थ ‘पग-सम-जोन-जंग’1(13) के आधार पर कहा जा सकता है कि उड्डियान में तंत्रयान सर्वप्रथम विकसित हुआ।2(13) प्रारंभिक सिद्धाचार्यो में से एक लुई-पा को पग-सम-जोन-जंग’3(13) में मछुआरा जाति का बाताया गया है तथा वह उड्डियान के राजा द्वारा लेखक के रूप में नियुक्त हुआ। वह शबरी-पा से मिला, जिन्होंने उसे तंत्रयान में दीक्षित किया। तंग्युर में लुई-पा को ‘महायोगिश्वर’ कहा गया है। लुई-पा ने बाग्लां भाषा में अनेक गीत रचे जो ‘बुद्ध गान ओ दोहा’ के अंतर्गत है। लुई पा ने संभवतः ‘लुई-पाद-गीतिका’ की रचना की। यह अब तिब्बती अनुवाद में सुरक्षित है। इस प्रकार लुई पा के मूल निवास स्थान के विषय में दो तथ्य मिलते हैंै। इसको पग सम जोन जग में उड्डियान व ताग्यूर में बंगाल बताया गया है। इस आधार पर यह संभावना अधिक है कि उड्डियान असम तथा बंगाल में कहीं स्थित रहा हो। उड्डियान में ही सर्वप्रथम विकसित होने के बाद तंत्रयान अन्य पीठों कामाख्या, सिरिहट्ट, पूर्णगिरी में फैला। बौद्ध धर्म ने बंगाल में काफी पहले ही प्रवेष पा लिया था। ह्वेनसांग ने बंगाल में प्रसरित बौद्ध धर्म के विषय में विवरण दिया है किन्तु पाल काल में जो बौद्ध धर्म का स्वरूप था वह काफी भिन्न था। प्राचीन सर्वास्तिवाद, संपतीय, आदि अब पूर्वी भारत में विस्मृत किए जा चुके थे। तंत्रयान, वज्रयान, की जड़े काफी गहरी पहुंच गई थी, जिन्होंने असंख्य मनुष्यों को प्रभावित किया।
आधुनिक विद्वानों की ऐसी धारणा है कि तांत्रिक बौद्ध धर्म सातवीं शताब्दी ईसवीं में प्रकट हुआ। यद्यपि बिनोयतोष भट्टाचार्य, तुची, गोपीनाथ कविराज व गोविन्द चन्द्र पाण्डेय तंात्रिक धर्म की तिथि मैत्रेय व असंग के समय रखते है। इन विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि तारानाथ का ऐसा विष्वास है था कि तंत्र व गुह्य प्रकृति के तांत्रिक विचार महायानी नागार्जुन के जितने प्राचीन हैं और वे लगभग तीन सौ वर्षों तक गुरू से षिष्यों तक पहुँचते रहे। इसके अतिरिक्त बहुत से तांत्रिक व अर्द्धतांत्रिक ग्रन्थ हैं जो 700 ईंसवी के पूर्व के हैं। तांत्रिक बौद्ध धर्म से संबंधित जो पहली कृति है वह हैं-‘गुह्य समाज-तंत्र’ (तीसरी अथवा चैथी शताब्दी ईसवीं) और ‘मंजुश्री मूल कल्प’। पहली योग व अनुन्तरयोग से संबंधित है और दूसरी मुद्रा, मण्डल, मंत्र, क्रिया, चर्या, शील, व्रत शौचाचार, नियम, होम जप व ध्यान से संबंधित है। ‘मंजुश्रीमूल कल्प’ में तांत्रिक बौद्ध धर्म से संबंधित देवी-देवताओं को चित्रित किए जाने के निर्देष मिलते हैं।1(14) इस प्रकार यह ग्रन्थ न केवल महायान के विकसित रूप को प्रकट करता है अपितु तांत्रिक कर्मकांडो व उपासना के विकास को दर्षाता है। यद्यपि यह ग्रन्थ गुप्तोत्तर काल में संषोधित हुआ, तथापि इसे मूल रूप से द्वितीय शताब्दी ईसवीं में रखा जा सकता है। अन्य तांत्रिक ग्रन्थों में संभवतः चैथी शताब्दी ईसवी का ‘करण्डव्यूह सूत्र’ मध्य एषिया का धारिणी व ‘महाप्रत्यंगिराधारणी’ जो बौद्ध देवी तारा की स्तुति में है, छठीं शताब्दी ईसवी का है।
इससे ऐसा प्रतीत होत है कि तांत्रिक बौद्ध धर्म का आरंभ महायान के आरंभ के साथ रहा। तिब्बतियों ने महायान व वज्रयान में कभी भी अंतर नहीं किया2(14) नागार्जुन ने स्वयं भी महायान को ‘गुहृा’ वर्णित किया है। इस वज्रयान बौद्ध धर्म के कुछ प्रमुख मत अभिप्राय सिद्वांत थे। ये निम्न लिखित प्रकार के वर्णित किए जा सकते हैं -
भारत में प्राचीन काल से ही चाहे वह धर्म का क्षेत्र हो अथवा धर्मेंतर, गुरू की आवष्यकता सर्वदा ही अनुभव की गई परंतु गुरू को जैसा महत्व वज्रयान बौद्ध धर्म में मिला, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। वे यह निष्चय के साथ उद्घाटित करते हैं कि गुरू के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। गुरू के बिना रहस्यपूर्ण उपदेष व कृत्यों का अनुसरण करना ही संभव नहीं है। यह गुरू का ही कार्य था कि वह षिष्य को उसी केन्द्र बिंदु की ओर निर्देषित करें जिसके कि वह योग्य है। षिष्य किस तरह की सिद्धि प्राप्त कर सकता है यह भी गुरू ही निर्दिष्ट करता था। वैसे तो बुद्ध के समय में ही बौद्धों में गुरू की परंपरा विद्यमान थी किंतु वज्रयान में गुरू की स्थिति अत्यंत विषिष्ट थी। तांत्रिक कृतियों में गुरू के प्रति उच्च आदर मान-सम्मान के साक्ष्य हैं।1 यह ठीक है कि षिष्य को कोई मंत्र ज्ञात है और सर्वथा सही ज्ञात है, किन्तु यह आवष्यक नहीं कि इसकी सहायता से षिष्य ‘‘सिद्धि’’ प्राप्त कर लें। यह प्रायः वज्रयान के नियमों के विरूद्ध है। सर्वप्रथम उसे गुरू द्वारा दीक्षित तथा विभिन्न प्रकार से अभिषिक्त होना पड़ता है, तथा जब गुरू द्वारा दिये गये सभी निर्देष षिष्य द्वारा ठीक-ठीक पालित होते हंै तब ही सिद्धि सम्भव होती है।
वज्रयान बौद्ध-धर्म के अन्तर्गत षिष्य को अपना जीवन किस तरह व्यतीत करना चाहिए; इस सन्दर्भ में परस्पर विरोधी तथ्य देखने को मिलते हैं। उदाहरणार्थ-उन्हें अधिक भोजन से दूर रहना चाहिए, सभी प्रकार के प्रतिबंधित भोज्य पदार्थों जैसे-प्याज, तेल, नमक आदि को त्याग देना चाहिए तथा अविवाहित जीवन की मर्यादा का उल्लघंन नहीं करना चाहिए। अन्य स्थानों पर उन्हें मांस, मदिरा तथा अन्य प्रतिबन्धित पदार्थों का व्यवहार करते बताया गया है। ऐसे ही एक अन्य स्थान पर कहा गया है कि उन्हें स्नान आदि के पष्चात् शरीर शुद्धि होने पर पूजा-अराधना करनी चाहिए तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। एक स्थान पर तो किसी प्रकार के नियमों का प्रतिबंध नहीं है न तो भोजन के सम्बन्ध में और न किसी और के सम्बन्ध में। एक सामान्य नियम यह था कि बिना व्रत, उपवास के स्वयं को शुद्ध किए ही केवल मंत्रों के जाप से सिद्धि की जा सकती है।1(15) इस सम्पूर्ण विवरण में जो प्रतिकूलता दृष्टिगत होती है वह सम्भवतः इसलिए है कि वज्रयानियों ने आराधकों की विभिन्न श्रेणियों को देखा तथा उन्होंने अलग-अलग वर्गों के लिए भिन्न-भिन्न नियम बनाए। ‘‘अद्वयवज्र’’ ने बौद्धों को शैक्ष व अषैक्ष दो वर्गों में विभाजित किया। शैक्षों के लिए, जो अपेक्षाकृत कम उन्नत थे, कठोर नियम बनाए तथा अशैक्षों को, जो आध्यात्मिक क्षेत्र में अधिक अनुगामी था योग तंत्रों द्वारा निर्धारित उच्च रूप वाले उन्नत कृत्यों का अनुसरण करने की अनुमति थी।1(16)
वज्रयान का अनुसरण करने वालों को सम्भवतः चार प्रमुख वर्गों में रखा गया था। किन्तु काजी दवसम्दुण ने वज्रयान को 6 चरणों में रखा है2(16) क्रिया तंत्रयान, चर्यातंत्र व अनुत्तरयोग तंत्र ही भारत में ज्ञात थी ये चार ही तंात्रिक बौद्ध साहित्य में स्वच्छन्द रूप से मिलते हंै। क्रियातंत्र षिष्यों के लिए निम्नतम स्थिति थी। इसमें उन्हें अनुषासन के कठोर नियमों तथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना होता था। योगतंत्र की स्थिति सम्भवतः तब समझी जाती थी जब वह ‘‘षक्ति’’ के साथ संयुक्त होने हेतु योग्य हो जाता था तथा रहस्यपूर्ण कृत्यों को ध्यान से देखता था। अनुत्तर योगी इन सब नियमों से चाहे वे मानवीय हो अथवा दैवीय मुक्त था। इस वर्ग से सम्बन्धित योगी ही सम्भवतः सिद्ध समझा जाता था, जो विविध आष्चर्यपूर्ण कर्मों को करने की विलक्षण प्रतिभा रखता था।
बोधिचित्त की वज्रयान सम्बन्धी अवधारणा योगाचार दर्षन की अवधारणा की भांति है। इस दर्षन के अनुसार मानव चित्त अथवा बोधिचित्त क्षणिक ज्ञान अथवा चेतना बोध का निरन्तर प्रवाह है। यह क्षणिक ज्ञान अथवा चेतना-बोध, प्रत्येक क्षण पूर्व क्षण के ज्ञान अथवा चेतना-बोध को परिवर्तित करता है। अग्रगामी चेतना-बोध सर्वदा पूर्व चेतना-बोध का कारण भूत होता है। इस क्षणिक ज्ञान अथवा चेतना-बोध का आरम्भिक बिन्दु पहचान लेना कठिन होता है। प्रायः बोधिचित्त को स्वाभाविक रूप से स्मृतियों, इच्छाएं, घृणित विचार तथा मिथ्या कल्पनाएं आदि अषुद्ध करते हैं। इनका ज्ञान होने पर इनको दूर करने का प्रयास किया जाता है और जब तक अषुद्धियाँ दूर नहीं हो जाती तब तक बोधिचित्त को पुनः-पुनः रूपान्तरित होना पड़ता है। जब सभी अषुद्धियाँ एक के बाद एक दूर हो जाती हैं तब बोधिचित्त विभिन्न अध्यात्मिक चक्रों की ओर उत्तरोत्तर उन्मुख होना प्रारम्भ करता है। महायानियों ने इन चक्रों को ‘भूमि’ कहा है। इन ‘भूमियों’ की संख्या दस है और ‘दषभूमिक सूत्र’ में इन दस भूमियों का वर्णन है-प्रमुदिता, विमला, प्रभाकरी, अचिंती, सुदुरजया, अभिमुक्ति, दूरंगमा, अचला, साधुमती, धर्ममेंध्या। इस सबके बाद ही बोधिचित्त को अनन्तज्ञान अथवा सर्वज्ञान प्राप्त होता है। बोधिचित्त की परिभाषा व वज्रयान सम्बन्धी अवधारणा बोधिसत्वयान के मत अभिप्राय व सिद्धान्त के अनुरूप है। यह सर्वप्रथम ‘‘गुह्य समाज’’ के उद्घाटित हुआ था। इसके अनुसार बोधिसत्व वह है जहाँ शून्यता व करूणा स्वरैक्य होकर कार्य करते हैं।1(17) वज्रयान में एक विषिष्ट लक्षण है जो कि ‘अहंकार’ के मत में निहित है। जिस भी देवी या देवता की अराधना की जा रही है। उससे बोधिचित्त का सादृष्य स्थापित हो जाना ही ‘अहंकार’ है। इसकी व्याख्या इस प्रकार भी की जा सकती है- ‘मैं ही देवी हूँ और देवी मुझमें है।’1(18) इसके अनुसार आराधक को स्वयं ईष्वर मान लेना चाहिए, सर्वथा उसी रंग-रूप के अनुरूप जैसा कि साधन में वर्णित है। अतः किसी बाह्य विषय के स्थान पर स्वयं ही आराधना करनी चाहिए।
अद्वय की वज्रयान सम्बन्धी अवधारणा को समझने के लिए शून्यता व करूणा के सिद्धान्त को ध्यान में रखना आवष्यक है। शून्यता तथा करूणा परस्पर मिलकर बोधिचित्त की रचना करते हैं। शून्यता व करूणा का परस्पर संयोग ही अद्धय है। शून्यता पर प्रायः सभी तांत्रिक कृतियों में विचार किया गया है। यह सोचने-विचारने में, सभी सांसारिक दृष्टि विषयों, क्षणिक अस्थायी, अनात्मा में, ऐसे पदार्थ जो स्वप्न अथवा जादू में देखे जाते हों, निहित है।1(19) अद्वय को इस उपमा द्वारा भी समझा जा सकता है- ‘‘जिस प्रकार ताम्र विषिष्ट प्रकार के घोल के सम्र्पक में आने पर अपनी कृष्णता को तज देता है उसी प्रकार शरीर से भी प्रेम, अनुराग, घृणा, अनिष्ठा आदि विकार अद्वय के मद्यकि के सम्पर्क में आते ही दूर हो जाते हैं।’’2(19)
शून्यता व करूणा का संयोजन जल में घुले लवण (नमक) की भांति है। जहाँ द्वैतता समाप्त होती है और अद्वैतता जन्म लेती है। वज्रयान से सम्बन्धित हेरूक व प्रज्ञा शून्य करूणा के मूर्तिरूप हैं। वे युग नद्ध रूप अथवा ‘युव-युग’ रूप में परस्पर आलिंगित होकर एकात्मकता की सृष्टि करते हैं। द्वैयता एक में मिल जाती है और केवल मात्र हेरूक रूप का ही उदय होता है।
सम्भवतः तांत्रिक रूप के कारण ही बौद्ध धर्म विस्तृत व असंख्य कोटि देवी देवताओं पर गर्व कर सकता है, जिनकी जानकारी हम बौद्ध साहित्य से प्राप्त करते हैं। उनसे विभिन्न प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति की याचना की गई है। सम्भवतः यह भी एक कारण हो सकता है कि वज्रयान बौद्ध धर्म ने अपने विषिष्ट मतों, सिद्धान्तों, परम्पराओं, कृत्यों तथा असंख्य मूर्तियों द्वारा जनसामान्य में विषिष्टता प्राप्त की। ऐसा कह सकते हैं कि देवी-देवताओं की अवधारणा अविभेद्य रूप से वज्रयान के दर्षन से सम्बन्धित है। यह सम्भवतः शून्य की अवधारणा से सम्बन्धित है। बौद्ध तंत्रों के अनुसार कह सकते हैं कि वज्रयान से सम्बन्धित देवी-देवता शून्य का प्रकाषन है। पाल सत्ता के पुनस्र्थापक महीपाल प्रथम का समकालीन अद्वयवज्र, जो 978 ईंसवी से 1030 ईंसवी तक रहा ‘अद्वयवज्र संग्रह’ के एक स्थल पर कहता है कि देवतागण और कुछ नहीं बल्कि शून्य का प्रकाषन है और स्वभावतः अस्तित्वहीन है जब कभी भी प्रकाषन है, तब स्वत्व-नित्कर्ष में शून्य हैं।1(20) ‘अद्वयवज्र संग्रह’ के ही एक अन्य स्थल पर देवताओं के शून्य से क्रमिक विस्तार की व्याख्या की गई है। इस क्रमिक विस्तार में चार चरण बताए गए हैं-प्रथम है शून्यता का उचित बोध अथवा ज्ञान, द्वितीय है बीज (मंत्र) से संबंध, तृतीय है मूर्ति की अवधारणा और चतुर्थ चरण है देवताओं का बाह्य प्रकटीकरण।1(21)
बिखरे हुए अनेक संदर्भों के आधार पर बिना किसी ऊहा-पोह के स्वीकार किया जा सकता है कि वज्रयानी देवी-देवताओं का वास स्थान बौद्धों का अकनिष्ठ स्वर्ग था, जो की रूप स्वर्गों में सर्वोच्च है।2(21) यदाकदा देवताओं को तथागतों के समान वर्णित किया गया है। इससे तात्पर्य संभवतः पंचध्यानी बुद्धों में से है। इसका अर्थ हो सकता है कि देवी-देवता पंच स्कंधों के मूर्तीमत्ता है। प्रत्येक स्कंध एक बुद्ध ध्यानी के अधीन है।3(21) ‘विज्ञान’; वैरोचन के ‘रूप’ रत्नसंभव के ‘वेदना’ अमिताभ के ‘संज्ञा’ तथा अमोघसिद्धि के अधीन है ‘संस्कार’। जब इन पंच स्कंधो में से कोई एक विषिष्ट स्थान रखता तब वह देवी या देवता उस ध्यानी बुद्ध से उत्पन्न माना जाता है और जब वह विषिष्ट देवी या देवता कला रूप में प्रकट होता है तब वह अपने मस्तक पर उसी ध्यानी बुद्ध को धारण करता है और उसी की संतान समझा जाता है तथा उसके ही कुल से संबंधित माना जाता है। अन्य ध्यानी बुद्ध उस मुख्य देवी या देवता के प्रभामण्डल पर अंकित किए जाते हंै।
बौद्ध तंत्रों ने सभी देवी-देवताओं को विषिष्ट रंग प्रदान किए हैं। सम्भवतः इन रंगों से गहरी आध्यात्मिक भावना संबंद्ध है। प्रत्येक ध्यानी बुद्ध का अपना अलग रंग है। उस विषिष्ट ध्यानी बुद्ध से जो भी देवी-देवता उत्पन्न होते हैं वे साधारण रूप से उस ही विषेष रंग के होते है। उदाहरणार्थ विज्ञान स्कंध के मूर्तिमत् अक्षोभ्य नीलवर्णी है, अतः जो भी देवी या देवता इनके परिवार से संबंधित होगा वह नीलवर्णी होगा यह एक सामान्य नियम है, किंतु इसके अपवाद भी हैं। यदि कोई विषिष्ट देवी या देवता विनाष व रक्षा दोनों प्रकार के कार्य कर सकता है तो यह आवष्यक नहीं कि वह एक ही रंग वाला हो क्यांेकि विभिन्न प्रकार के कार्य रंग, रूप, स्थिति में भिन्नता रखते हैं।1(22)
बहुधा उत्तरकालीन बौद्ध धर्म के साथ यह दोष संयुक्त हो जाता है कि वह केवल मूर्ति पूजा का रूप था। संम्भवतः आंकने की इस क्रिया में कहीं ना कहीं अषुद्धि अवष्य है। एक ऐसा विचार जो रूप विहीन है, एक अदृष्य शक्ति जिसे ईष्वर कहा जाता है यह ऐसा विषय है जिसे महायोगियों द्वारा भी ध्यान में लाया जाना कठिन है। अतः उन साधारण मनुष्यों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता है जो इस बात का विचार नहीं रखते कि ईष्वर वास्तव में कौन-कौन से विशिष्ट गुण रखता है। मूर्तियों के माध्यम से संभवतः यह कार्य संभव है। मूर्तियों के माध्यम से लोगों को उस परब्रह्म, अदृष्य शक्ति का विश्वास दिलाया जा सकता है तथा पीडि़त, क्लेषित मानव के प्रति उसकी असीमित करूणा की प्रतीति कराई जा सकती है। उनमें यह समझ बैठाई जा सकती है कि पाप से डरना चाहिए तथा धर्मनिष्ठ व ईष्वर के प्रति आसक्त होना चाहिए। मूर्ति पूजा महान उपयोगिता से परिपूर्ण है तथा इसमें सामाजिक कल्याण संभव है। संभवतः जब कुछ अर्थहीन शब्दों का जाप मूर्ति मंे जीवन का संचार करने हेतु किया जाता है तो ईष्वर द्वारा मूर्ति का रूप ग्रहण कर लेना सिद्ध किया जा सकता है। किन्तु इस वैज्ञानिक युग में यह विष्वास करना अत्यन्त कठिन है। सम्भवतः अनेक कारणों में से एक कारण यह भी है कि क्यों मूर्ति पूजा केवल मूढ़ विष्वास मूलक मानी गई तथा मूर्ति की पूजा करने वाला मूर्ति पूजक।
बौद्ध धर्म में बाह्य जगत का कोई अस्तित्व नहीं है। यह शरीर सचेतन इंन्द्रियों से युक्त होने पर भी असत्य, असार व दिखावा मात्र है। वास्तविक ज्ञान न होने योग्य विषय केवल ‘षून्य’ है जो कि ‘करूणा’ के साथ संयुक्त होकर ‘‘बोधिचित्त’’ की सृष्टि करता है। अतः बोधिचित्त भी सत्य है और बाह्य जगत में इस चित्त से परे कुछ भी नहीं है। शरीर भी बाह्य होने पर वास्तविकता को धारण नहीं कर सकता। वज्रयान में यही चित्त व बाह्य जगत की अवधारणा है। वज्रयान का अनुसरण करने वाले के लिए एक मूर्ति में भी किस प्रकार वास्तविकता हो सकती है।
बौद्ध धर्म में आराधना करने वाला ‘बोधिसत्व’ कहलाता है। गुरू के आदेषों के अनुरूप निर्दिष्ट रीति का अनुसरण कर वह स्वयं को और कुछ नहीं बल्कि क्षणिक चेतना की श्रृंखला मानता है। पीडि़त मानव के प्रति करूणा से युक्त रहता है। ‘षून्य’ ‘विज्ञान’ व महासुख से ध्यानी बुद्धों को उनकी विषिष्टताओं के साथ निम्न प्रकार समझा जा सकता है -
परिवार
ध्यानी बुद्ध का नाम वर्ण (रंग) मुद्रा वाहन प्रतीक ‘‘षक्ति’’ का नाम बोधिसत्व
द्वेष अक्षोभ्य नील भू-स्पर्ष गज वज्र लोचना वज्रपाणि
मोह बैरोचन श्वेत धर्मचक्र ड्रेगन चक्र वज्रधालीष्वरी सामन्त भद्र
राग अमिताभ रक्त समाधि मयूर कमल पण्डरा महापाणिपद्य
चिंतामणि रत्नसम्भव पीत वरद अश्व रत्न मामकी रत्नपाणि
समय अमोधसिद्धि हरित अभय गरूड़ विष्ववज्र आर्यतारा विष्वपाणि
युक्त ‘षून्य’ की सहायता की याचना करता है। यह सहायता तभी मांगी जा सकती है जब बोधिसत्व का ‘बोधिचित्त’ शून्य के साथ पूर्णतः एकीकृत हो। बीजमंत्र के अनुरूप अथवा उद्देष्य के अनुरूप जिसके लिए सहायता मांगी गई; यह उद्देष्य एक देवत्तव के रूप में परिवर्तित हो जाता है जिसके साथ बोधिचित्त एकीकृत हो जाता है। जब बोधिचित्त देवता के साथ एकीभूत होता है तो बोधिचित्त एकीकृत हो जाता है। जब बोधिचित्त देवता के साथ एकीभूत होता है तो बोधिचित्त महान शक्ति प्रकाषित करता है, नहीं तो देवता विषिष्ट नियम द्वारा चित्त से अलग हो जाता है। देवताओं की सूची देखने पर वज्रयानियों के लक्ष्यों व उद्देष्यों को जानने पर पता चलता है कि ‘षून्य’ को कितने प्रकार के कार्य करने पड़ते थे एवं यह अनेक रूपों में परिवर्तित होता है। किसी भी देवता या देवता की बाह्य उपस्थिति को ध्यान में लाना, किसी मूर्ति या चित्र के बिना और वह भी वहाँ जहाँ असंख्य देवी देवता हों, एक कठिन कार्य है। सम्भवतः इसी कारण वज्रयानी बौद्ध देवी देवताओं की मूर्तियों प्रस्तर, धातु आदि में गढ़ी गई। उनके सारणी साहित्य में भी इस तथ्य का अनुसरण करते साक्ष्य विद्यमान है।
‘द्वेष’ परिवार अक्षोभ्य से संबंधित हैं। उनका तथागत रूप में सर्वप्रथम उल्लेख संभवतः ‘अमितायुस-सूत्र’ में मिलता है। अक्षोम्य से जो देव उत्पन्न होता है उनमें हेरूक, हयग्रीव व यमारि प्रमुख हैं। अक्षोभ्य का नीलवर्ण संभवतः उग्र देवों व तंत्र में भीषण-भंयकर कृत्यों से संबंधित है। जो देव इनसे उत्पन्न होते हंै वे भी सामान्यतः नीलवर्णी होते हैं। वे सामान्यतः भयावह उपस्थिति, विकृत चेहरे, बड़े नोकीले दांत, तीन नेत्र, बाहर निकली जीह्वा मुण्डमाला धारण करने व्याघ्रचर्म धारण करने व सर्पाभूषण पहनने वाले होते हंै। इनमें हेरूक संभवतः सर्वाधिक प्रचलित, प्रसिद्ध व शक्तिषाली हैं। वे विभिन्न शक्तियों के साथ संयुक्त माने गये हंै। इस प्रकार उनके रूप पृथक-पृथक माने गए हैं-बुद्धकपाल, सम्वर, वज्रडाक, सप्ताक्षर, महामाया आदि। उन्हें द्विभुजी षडभुजी, द्विनेत्र, त्रिनेत्र आदि माना गया। जब वे ‘चित्रसेना’ के साथ यब-युम (आलिंगन बद्ध) रूप से होते हैं तो यह रूप ‘बुद्ध कपाल’ का था। जब ‘वज्रराही’ के साथ संयुक्त होते हैं तब रूप ‘वज्रडाक’ ‘सम्बर’ व ‘सप्ताक्षर’ था। जब वे ‘वज्रयोगिनी’ (बुद्धडाकिनी) के साथ संयुक्त होते है तब रूप ‘महामाया’ का था।
‘यमारि’ को दो विभिन्न रूपों रक्त व नीलवर्ण वाला बताया गया है। यद्यपि ‘यमारि’ के और भी रूप वर्णित हैं किन्तु सम्भवतः उपर्युक्त दो रूप ही सर्वाधिक प्रसिद्ध व प्रचलित थे। ऐसा कहा जा सकता है उनकी उपासना विषेषतः अन्य स्त्री व पुरूषों को मंत्रों द्वारा वषीभूत करने के लिए की जाती थी। ऐसा विवरण मिलते हैं कि वे वृषभमुखी व उनके असीन होने का स्थान भी वृषभ ही था। इस भयंकर रूप वाले देव के संबंध में एक अच्छी जानकारी तिब्बती साक्ष्यों में है। उनकी उत्पत्ति के विषय में कहा गया है कि एक समय एक पवित्र आत्मा व्यक्ति एक गुफा में गहन ध्यान में लगभग 50 वर्षों से लीन था, जिसके पष्चात् उसे निर्वाण प्राप्त होने वाला था। इस काल के समाप्त होने से कुछ वर्ष पूर्व दो चैरात्मा पुरुष एक चोरी किया हुआ वृषभ लेकर उस गुफा में आए व वहाँ उसका वध कर दिया। किन्तु जब उन्होंने वहाँ अपने इस दुष्कृत्य के साक्षी योगी को देखा जो उन्होंने उसका (योगी का) मस्तक उसके धड़ से अलग कर दिया। शीघ्र ही उन्होंने यम का भयंकर रूप ग्रहण किया तथा वृषभ का मस्तक उसके धड़ से अलग कर दिया तथा वृषभ का मस्तक अपने कटे हुए मस्तक के स्थान पर स्थापित कर दिया और उन दोनों चोरों को मारकर उनके कपाल को प्याला बनाकर उसमें उनके रक्त का पान किया। अपने इस तीक्ष्ण, उग्र व प्रचण्ड रूप से उन्होंने संपूर्ण तिब्बत को जन शून्य करने की धमकी दी। तिब्बतियों ने अपनी रक्षा करने वाले देव ‘मंजूश्री’ से अनुनय विनय किया। इस पर उन्होंने भयंकर ‘यमान्तक’ रूप धारण किया व यम को एक क्रूर युद्ध में परास्त किया। ‘यमारि’ को संभवतः एक मुखी, त्रिमुखी व षडमुखी, चतुर्भुजी, द्विभुजी अथा षट्भुजी माना गया।
‘द्वेष’ परिवार के स्त्री सदस्यों में ‘एक जटा’ महत्वपूर्ण है। वे नीलवर्णी, उग्र उपस्थिति वाली, भय बढ़ाने वाली, अग्नि की ज्वाला के समान ऊपर उठे हुए केषों वाली, प्रत्येक जबड़े से नुकीले दांतो वाली, व्याघ्रचर्म के वस्त्र धारण करने वाली, रक्तपूर्ण तीन नेत्रों वाली तथा बाहर निकली जिह्वा वाली मानी गई। सम्भवतः तिब्बत में एकजटा की उपासना सातवीं शताब्दी ईसवी के मध्य में सिद्ध नागार्जुन द्वारा आरंभ की गई। ‘निरात्मा’ भी द्वेष परिवार की प्रमुख देवी हैं। नौरात्मा का तात्पर्य है- आत्मा विहीन। यह सम्भवतः शून्य का दूसरा नाम है। ऐसा माना गया कि निर्वाण प्राप्ति होने पर बोधिसत्व इसी में मिल जाता है। ऐसा कहा जा सकता है कि वज्रयान में शून्य की अवधारणा ने एक देवी का रूप ले लिया, जिसके शाष्वत आलिंगन में बोधिसत्व नित्य परमसुख व मोक्ष का अनुभव करता है। सम्भवतः शून्य के कारण निरात्मा का वर्ण भी नीला माना गया।
‘मोह’ परिवार के उत्पत्तिकर्ता ‘वैरोचन’ माने गए। ‘मोह’ परिवार के सदस्यों में से ‘मारीची’ व ‘वज्रवाराही’ को उदाहरण स्वरूप लिया जा सकता है। तिब्बत के लामाओं के अनुसार ‘मारीची’ की स्तुति प्रातःकाल के आगमन पर होती है। सम्भव है कि उनका संबंध सूर्य के साथ करने की चेष्टा हो। हिन्दू देवता सूर्य की भांति वह भी एक रथ पर आरूढ़ हैं। ‘मारीची’ का रथ सात सूकरों द्वारा खींचा जाता है जबकि सूर्य का रथ सात अष्वों द्वारा। सूर्य के सारथि अरूण पगविहिन है तो मारीची के सारथि राहू मात्र सिर वाले हंै। मारिची के छः विभिन्न रूपों की कल्पना की गई। उन्हें एक, त्रि, पंच अथवा षडमुखी तथा द्वि, अष्ट दष अथवा द्वादषमुखी माना गया। उनके साथ उनके चार अनुचर वर्ताली, वदाली, वराली बारहमुखी, भी माने गए। उन्हें उनके सूकर (स्त्री सूकर) द्वारा पहचाना जा सकता है। सुई तथा धागा उनके विषिष्ट प्रतीक माने गए। ‘वज्रवाराहि’ ‘मोह’ परिवार की दूसरी प्रमुख देवी हंै। सम्भवतः ‘वज्रवाराहि’ व हेरूक का संयोग ही दो प्रसिद्ध तंत्रों ‘चक्रसंमरतंत्र’ व वज्रवराहीतंत्र’ का प्रमुख विषय है। उन्हें साधनों में श्री हेरूक की प्रथम राज्ञी बताया गया है। उन्हें सम्भवतः डाकिनी भी कहा गया है। यह इसलिए भी हो सकता है कि बौद्ध तंत्र उस देवी को ‘डाकिनी’ अर्थ में सूचित करते हैं जो पुरुष देवता के साथ आलिंगनबद्ध हो।
‘राग’ परिवार के प्रमुख ‘अमिताभ’ माने गए हंै। ‘लाकेष्वर’ अथवा ‘अवलोकितेष्वर’ वज्रयान में सम्भवतः सर्वाधिक प्रचलित देव थे; क्यांेकि उन्हें ही करूणा की प्रतिमूर्ति माना गया। ‘रवसर्पण’ व ‘सिंहनाद’ उनके दो प्रमुख रूप थे। ‘कुरूकुल्ला’ को इस परिवार की देवियों में से उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है। ऐसा कहा गया है कि ‘कुरूकुल्ला’ वंषीकरण के तांत्रिक कृत्य में सफलता प्रदान करती हैं। यदि उनके मंत्र को दस हजार बार जपा जाए तो किसी भी साधारण मनुष्य को वष में किया जा सकता है। ऐसा भी कहा गया है कि उनका मंत्र सर्पदंष व रोगी के शरीर में से विष को निकालने की भी शक्ति रखता है और यदि तीस हजार बार जपा जाए तो यह मंत्री को व एक लाख बार जपा जाए तो राजा को भी वष में किया जा सकता है।
चिन्तामणि परिवार के प्रमुख ‘रत्नसंभव’ माने गए। इनसे अधिक देव नहीं उत्पन्न होते हैं तथा सम्भवतः इन्हें आदि बुद्धि भी नहीं माना गया। इनके परिवार के सदस्यों में धन-वैभव के देव ‘जम्भल’ व समृद्धि की देवी ‘वसुंधरा’ प्रमुख है। ‘समय’ परिवार के प्रमुख ध्यानी बुद्ध ‘अमोधसिद्धि’ माने गए। सामान्य रूप से अधिक देव उनसे उत्पन्न हुए माने जाते हैं। एक विषिष्ट बात जो देखने को मिलती है वह यह है कि ‘विष्वपाणि’ को छोड़कर इस परिवार के सभी सदस्य स्त्री हैं। ‘खदिरवणी’ तारा व ‘पर्णषवरी’ प्रमुख देवियाँ मानी गई। जो मंत्र ‘पर्णषवरी’ के साथ संबंधित है वे उन्हें ‘पिषाची’ व सर्व ‘मारिप्रषमनी’ की भाँति सूचित करते हैं। उन्हें सर्वप्रकार के रोगों को दूर करने वाला बताया गया। यह बहुत सम्भव है कि उस समय महामारियों - हैजा, प्लेग व चेचक आदि से मुक्ति पाने हेतु पर्णषवरी की स्तुति उपासना की गई।
इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वज्रयान बौद्ध धर्म की परिकल्पना अत्यंत विस्तृत थी। इसने अपने विषिष्ट रूप से जन मानस में गहरी जड़े जमा ली थी। वज्रयान बौद्ध धर्म में बुद्ध को सामान्य मत्र्य मनुष्य मानकर, पंच ध्यानी बुद्धों को सर्वोच्च माना गया। गुरू षिष्य बोधिचित्त, अंहकार, अद्वय आदि इसके प्रमुख मत अभिप्राय व सिद्धांत थे।
तंत्रों में वर्णित धर्म, मंत्रों, मण्डलों, मुद्राओं, मेंथुन योग, विस्तृत देवकुल, जादुई कृत्यों, संकेतों, ज्यातिषविद्या, रसायन विद्या, स्त्री साहचर्य का विषिष्ट मिश्रण था। भौतिक संसार को स्पष्ट मान्यता मिली। यह मत दिया गया कि मानव शरीर में समस्त देवता श्रेष्ठतम सत्य के साथ विद्यमान रहते हैं। स्त्री का साहचर्य शक्ति साहचर्य है। यहाँ एक बात विषिष्ट थी कि निर्वाण को महासुख बताया गया। पुरुष (उपाय) व स्त्री (प्रज्ञा) के सम्मिलन (यब-युग) से महासुख की उत्पत्ति होती है। ‘म’ से उत्पन्न होने वाले निम्न पंाच-मद्य मांस, मत्स्य, मुद्रा, मैथुन को तंत्र के अंतर्गत खुली मान्यता दी गई।
सन्दर्भ:
(1) 1. षर्मा रामषरण, पूर्व मध्यकालीन भारत का सामंती समाज और संस्कृति।
(2) 1. जर्नल आॅफ द यू.पी., हिस्टाॅरिकल सोसाइटी ग्ग्प्प् (1951-52) पृ0 214 में वी.एस. पाठक द्वारा उद्घत।
(3) 1. बार्डर ए.के., इंडियन, बुद्धिज्म, दिल्ली, 1970, पृ0 485
   2. बार्डर ए.के. इंडियन बुद्धिज्म, दिल्ली, 1970, पृ0 487
(4) 1. चक्रवर्ती चिन्ताहरण, द तंत्र स्टडीज आॅन देयर रिलीजन एण्ड लिटरेचर, पृ0 21
   2. बागची पी.सी., स्टडीज इन द तंत्रण, पृ0 74
   3. चक्रवर्ती चिन्ताहरण,  द तंत्र स्टीइज आन देयर रिलीजन एण्ड लिटरेचर, पृ0 343
(5) 1. बनर्जी जे.एन., पौराणिक एण्ड तांत्रिक रिलीजन, पृ0 130-31
   2. पांडे के.सी., अभिनव गुप्त, एन. हिस्टोरिकल एण्ड फिलाॅसिफिकल स्टडी, वौपांवा, बनारस, 1435-85
   3. वही, पृ 4
(6) 1. मजूमदार आर.सी., ‘हिस्ट्री आॅफ बंेगाल’, पृ0 325, पाद टिप्पणी - 4
(7) 1. जनरल आॅव बिहार एण्ड ओरिसा रिसर्च सोसाइटी, 1928, पृ0 341
   2. जर्नल एषियाटिक, ब्ब्ग्ग्ट, 1934, पृ0 209
   3. जर्नल एषियाटिक ब्ब्ग्ग्ट, पृ0 211
(8) ‘‘तत्वसंग्रह’’, पृ0 ग्स्टप्प्
(9) 1. गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज में प्रकाषित ‘वज्रयान ग्रंथ द्वय’।
(10) 1. पृ0 18, ष्लोक - 22
‘अनल्पसंकल्पतओऽभिकूतं प्रभंजनान्यत्तताईच्चलं च। रागा दिदु र्वारअलावालिप्तं चितं हि संसारभुवाचवज्री।।’’
(11)  1. पृ0 18, ष्लोक - 23
‘‘प्रभास्वरं कल्पनमा विमुक्तं प्रहीणरागाविमल प्रलेपम्। ग्राह्यं न च याहकमग्रसत्वं तदेव निर्वाणवरं जगाद।।’’
(12) 1.पृ 453, 455
    2. भट्टाचार्य बी. - ‘एन इन्ट्रोडक्षन टू बुद्धिस्ट एसोटेरिज्म, पृ0 43, टिप्पणी - 3
    3.बागची, इण्डियन हिस्टाॅरिकल क्र्वाटरली 6
    4.वेडेल - ‘लामाइज्म’, पृ0 380 पृ0 576
(13) 1.‘पग-सम-जोन-जंग’, पृ0 ब्ग्स्प्
    2. भट्टाचार्य बी. एन इन्ट्रोक्षन टू बुद्धिस्ट एसोटेरिज्म’ पृ 45, इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली-जिल्द 2, जून, पृ 354
    3.पृ ब्ग्ट
(14) 1. दत्त एन., द एज आॅव इम्पीरियल कन्नौज, पृ॰ 265-66
   2. दासगुप्ता एन.एन., द स्ट्रगल फाॅर एम्पायर, पृ 406
(15) 1. ‘वज्रनाथ ग्रंथ द्वय’ गायकडवाड़ ओरियण्टल सीरीज, सं 44, पृ 12,  ष्लोक 9-16
(16) 1. अद्वयवज्रसंग्रह - अध्याय - 1, पृ 1
    2. ‘‘चक्रसम्भार तंत्र’’ (तांत्रिक ग्रंथ), भूमिका, पृ ग्ग्ग्प्प्
(17) 1. ‘वज्रयान ग्रंथ द्वयं’, पृ 75
(18) 1. साधन माला, पृ 318
(19) 1. ‘साधन माला’, पृ 111, अनित्य श्रेणिका
    2. ‘साधन माला’, पृ 82
(20) 1. अद्वय वज्र संग्रह, पृ0 51
(21) 1. अद्वयवज्र संग्रह, पृ 50 ‘‘षून्यता बोधितो बींज बीजा हिम्बं प्रजायते। सिम्बे च न्यासविन्यासौ आदि।
    2.साधन माला, पृ 47, 64
    3.‘वज्रयान ग्रंथ द्वय’
(22) 1. ‘साधन माला’, पृ 556, कर्मानुरूपतो वर्ण, पृ0 395

डाॅ0 जी0 यस0 तिवारी एवं सुनीता पाण्डेय
प्राचीन इतिहास विभाग,
के0एस0 साकेत महाविद्यालय, अयोध्या,
फैजाबाद, उ0प्र0