Wednesday 2 January 2013

अद्वैतवेदान्तीय मायावाद-विषयक पाश्चात्य चिन्तन


अवधेश प्रताप सिंह

‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ अद्वैतवेदान्त का सारभूत सिद्धांत है। जिसके अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही सत् तत्त्व है तथा शेष समस्त जगत्प्रपं्च माया की प्रतीति है। शंकराचार्य के अनुसार नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त एवं चेतनस्वरूप ब्रह्म ही एकमात्र सत्ता1 तथा जगदुत्पत्ति, स्थिति एवं लय का निमित्त है।2 जगत् मात्र व्यावहारिक सत् है, पारमार्र्थिक नहीं।3 वेदान्तडिण्डिम में आचार्य नृसिंह सरस्वती ने कहा है -
यदस्त्यादौ यदस्त्यन्ते यन्मध्ये भाति तत्स्वयम्। ब्रह्मैवैकमिदं सत्यमिति वेदान्तडिण्डिमः।।
यन्नादौ यच्च नास्त्यन्ते तन्मध्ये भातमप्यसत्। अतो मिथ्या जगत् सर्वमिति वेदान्तडिण्डिमः।।4
जीव एवं जगत् दोनों मायाकृत् हैं। जगत् सत् एवं असत् से विलक्षण मिथ्यारूप है। जगत् की प्रसिद्धि अनिर्वचनीय मायामयता रूप से है।5 असद्रूप मिथ्याभूता माया ही जड़ जगत् का उपादानकारण है। त्रिगुणात्मिका6 माया ब्रह्म की अभिन्न एवं आत्मभूता शक्ति है तथा यह भौतिक एवं जड़, भावरूप, सदसदनिर्वचनीय तथा ज्ञाननिरस्या है।7 आचार्य शंकर ने माया को अद्भुत एवं अनिर्वचनीय बताया है।8 माया व्यावहारिक सत्ता का एक ऐसा नामधेय है, जो वण्र्य विषय के बाहर है।9 मायावाद सिद्धान्त के अनुसार एकमात्र निर्गुण ब्रह्म ही परमार्थ सत्य है। मायाविशिष्ट ब्रह्म की संज्ञा ईश्वर है, उसी के द्वारा सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि होती है। माया अपनी आवरणशक्ति के द्वारा घनच्छिन्न अर्क की भाँति ब्रह्म के स्वरूप को आवृत्त कर लेती है10 तथा विक्षेपशक्ति की सहायता से समस्त नामरूपात्मक जगत् की रज्जुसर्प की भाँति सृष्टि कर देती है।11 परमार्थ में असद्रूपा माया से उत्पन्न होने के कारण मायिक जगत् भी असत् ही है। परन्तु अध्यारोप न्याय के द्वारा ब्रह्म उसी प्रकार जगत् का कारण प्रतीत होता है, जिस प्रकार रज्जु सर्प का कारण है। सद् ब्रह्म में आरोपित होने के कारण ही असत् जगत् सद्वत् प्रतीत होता है। ब्रह्म माया से अप्रभावित है। जादूगर की जादू की भाँति ब्रह्म भी अपनी माया से अप्रभावित रहता है।12 माया पारमार्र्थिक दृष्टि से असत् है तो व्यावहारिक दृष्टि से सत् है। आचार्य शंकर का कथन है कि सत्य एवं अनृत दोनों के द्वारा ही समस्त लौकिक व्यवहार चलते हैं।13
अद्वैत वेदान्त के माया सिद्धान्त का प्रभाव पाश्चात्य चिन्तन मंे भी उपलब्ध होता है। प्लेटो, स्पिनोजा, बर्कले, काण्ट, ब्रेडले, लाइबनित्ज, शेलिंग, फिक्टे आदि पाश्चात्य दार्शनिकों के चिन्तन मंे ‘मायावाद’ का सिद्धांत किं्िचत् साम्य एवं वैषम्य के साथ प्रतिपादित है। प्लेटो के अनुसार बाह्य वस्तुएँ प्रातीतिक सत् हैं, क्यांेकि उनको सत्ता प्रत्ययों से मिली है। जागतिक वस्तुएँ प्रत्ययों में भाग लेते हैं, इसी कारण उनमें कुछ सत्ता है। अद्वैत के समान प्लेटो ने प्रातीतिक सत्ता एवं वास्तविक सत्ता में भेद किया है।14 प्लेटो के अनुसार विचारात्मक ज्ञान असत्य ज्ञान है, मात्र प्रत्ययों का ज्ञान ही सत्य ज्ञान है।15 वस्तु विषयक सत्य ज्ञान भी प्रत्यय विषयक ज्ञान के माध्यम से सम्भव है, इसलिए आश्रित एवं सापेक्षतया प्लेटो के दर्शन के अनुसार बाह्य वस्तुएँ मिथ्या हैं। छाया एवं प्रतिकृति की भाँति बाह्य वस्तुओं की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, किन्तु प्लेटो के अनुसार बाह्य वस्तुएँ असत् नहीं है। अद्वैत के मिथ्या जगत् एवं प्लेटो के सापेक्ष एवं न्यूनसत्ता में साम्य दृष्टिगत होता है। स्पिनोजा के अनुसार एकमात्र परमतत्त्व ही सत्य है। परमतत्त्व का लक्षण है - ‘द्रव्य वह है जिसकी स्वतन्त्र सत्ता हो और जिसके ज्ञान के लिए किसी अन्य पदार्थ के ज्ञान की अपेक्षा न हो।’16 ईश्वर ही सभी वस्तुओं का कारण है, फिर भी कार्य या गुणरूप जगत् ईश्वर से अनन्य है। अद्वैताचार्यों ने जिस प्रकार कार्य को कारणाजन्य कहा है, स्पिनोजा भी सभी वस्तुओं को कारणाभिन्न कहते हैं। स्पिनोजा परमतत्त्व ईश्वर से स्थावर-जंगमात्मक विश्व को भिन्न नहीं मानते हैं।17 स्पिनोजा के अनुसार ईश्वर सबका कारण है, फिर भी वह शुद्ध है। कारण की शुद्धता को बनाए रखने के लिए स्पिनोजा के परमतत्त्व को विवर्त कारण कहा जा सकता है।18 अद्वैत वेदान्त के अनुसार व्यवर्तमान वस्तुएँ मिथ्या हैं।19 इसी प्रकार स्पिनोजा का विशेषण दूसरी वस्तुओं को व्यावृत्त करता हुआ स्वयं भी व्यावृत्त होता है, अतः प्रातीतिक अर्थात् मिथ्या है। हेगल के अनुसार अद्वैत के जगन्मिथ्यात्ववाद से स्पिनोजा की गुणविषयक धारणा मिलती है। तथापि अद्वैत के सदसद्विलक्षण मिथ्यात्व से स्पिनोजा का जगत् मिथ्यात्व भिन्न है।
बर्कले ने बाह्य वस्तुओं का प्रत्याख्यान किया है। बाह्य जड वस्तुओं के प्रत्याख्यान के लिए बर्कले ने ‘म्ेेममेज च्मतबपचप’20 सूत्र का उपन्यास किया है जिसके अनुसार सत्ता अनुभवमूलक है। बर्कले बाह्य जड़ वस्तुओं की सत्ता का प्रत्याख्यान उनके ज्ञान के सिद्धान्त के आधार पर करते हैं। बर्कले प्रत्ययों की स्थिति आत्मा में स्वीकार करते हुए उन प्रत्ययों को ईश्वर सृष्ट मानते हैं।21 प्रत्यय जीवात्मा की व्यक्तिगत कल्पना नहीं है किन्तु ईश्वर द्वारा सृष्ट प्रत्यय है। तात्पर्य यह है कि प्रत्यय ज्ञानसापेक्ष है। प्रत्ययों की ज्ञानसापेक्षता के साथ अद्वैत के दृष्टिसृष्टिवाद की कुछ समानता है। ‘नाभावः उपलब्धे’22 इस सूत्र के भाष्य एवं टीकाओं में अद्वैताचार्यों ने बाह्य वस्तुओं की स्थिति ज्ञान से भिन्न मानी है, फिर भी अद्वैत में बाह्य वस्तुएँ ज्ञानाध्यस्त या मिथ्या हैं, अलीक नहीं। बर्कले के अनुसार बाध्यता अलीक है, सब कुछ आन्तर है। यही अद्वैत एवं बर्कले में बाह्यार्थ की स्थिति मंे अन्तर है।
कान्ट की प्रस्थापना है कि व्यावहारिक ज्ञान के लिए ज्ञान के माध्यम बुद्धि विकल्प (केटेगोरीज) एवं देशकाल हैं। इन्हीं के माध्यम से हमें व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त होते हैं। व्यावहारिक ज्ञान अवभासों का ज्ञान होता है, वस्तुस्वरूप का नहीं। कान्ट का कथन है कि, जो अवभास नहीं है वह अनुभव का विषय नहीं बन सकता। बुद्धि संवेदन के उन नियमों का अतिक्रमण नहीं कर सकती, जिनके माध्यम से वस्तुओं की उपस्थापना अवभास के रूप में होती है।23 कान्ट ज्ञात जगत् को प्रातीतिक कहते हैं। दृश्य वस्तुओं की सत्ता प्रातीतिक है, अंतिम सत्य परमार्थ वस्तुस्वरूप है। अद्वैतवेदान्त मंे मान्य व्यावहारिक जगत् भी प्रातीतिक ही है। ‘दृश्यत्वेन सर्वं मिथ्या’ यह अद्वैत मत कान्ट के प्रपं्चवाद से मिलता है। कान्ट के अनुसार यह जगत्प्रपं्च सार्वजनिक है। सबके लिए है, सत्य है, किन्तु व्यावहारिक सत्यता है इसमें। इसी कारण काण्ट व्यावहारिक वस्तुवादी हैं, जैसा कि अद्वैत वेदान्त व्यावहारिक वस्तुवाद का सिद्धान्त है।24
बे्रडले प्रतीयमान वस्तुओं को आभास या मिथ्या कहते हैं। ब्रेडले ने अपनी पुस्तक ‘एपीयरेन्स एण्ड रियलिटी’ में सभी प्रतीयमान वस्तुओं को तर्कों एवं युक्तियों के द्वारा आभास सिद्ध किया है। ब्रेडले अद्वैत के ही समान यह मानते हैं कि सत् के बिना आभास सम्भव नहीं है।25 ब्रेडले ने प्रतीयमान वस्तुओं को आभास अवश्य कहा है, किन्तु उन्हें असत् नहीं कहा है। सभी प्रतीयमान वस्तुओं में कुछ सत्ता अवश्य होती है। व्यावहारिक दृष्टि से ब्रेडले आभास को सत्य मानते हैं। यद्यपि सभी प्रतीयमान वस्तुओं को आभास कहा गया है, फिर भी व्यवहार में सत्य और मिथ्या का अन्तर है। व्यावहारिक दृष्टि से प्रतीयमान वस्तुएँ सभी सत्य हैं।26 ब्रेडले आभास को अद्वैत के मिथ्या के समान ही एक सार्वभौम व्यावहारिक सत्य मानते हैं।
बुद्धिजीवी दार्शनिक लाइबनित्ज ने चिदणुवाद का सिद्धांत दिया है। चिदणुवाद में चेतन एवं जडतत्त्व के भेद को स्वीकार किया गया है। उसके अनुसार केवल चैतन्य ही वास्तविक तत्त्व हो सकता है। चूँकि चेतना विस्तार से रहित होती है, इसलिए उसका विभिन्न अवयवों में विभाजन एवं विश्लेषण नहीं हो सकता है। इसी अविभाज्य एवं चेतन तत्त्व को लाइबनित्ज ने चिदणु (डवदंक) कहा है।27 इन्हीं चेतन तत्त्वों (चिदणुओं) के द्वारा सम्पूर्ण सृष्टि की रचना हुई है। लाइबनित्ज के अनुसार यद्यपि प्रत्येक चिदणु क्रियाशील है, तथापि ईश्वर को छोडकर अन्य सभी चिदणुओं में एक गत्यावरोधक शक्ति विद्यमान है। इसे ‘सूक्ष्म जडता’ अथवा ‘मैटेरिया प्राइमा’ कहा जाता है। यह ‘सूक्ष्म जड़ता’ ही चेतन शक्ति के विकास को बाधित करती है। इसके कारण ही चिदणुओं के स्वभाव में सीमितता, अपूर्णता एवं निष्क्रियता पाई जाती है। लाइबनित्ज के अनुसार इसी मैटेरिया प्राइमा के कारण ही आत्मकण ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर पाता है। अद्वैतवेदान्त के मायावाद में भी माया की इस शक्ति का विस्तृत विवेचन किया गया है।28 लाइबनित्ज का ‘मैटेरिया प्राइमा’ या ‘सूक्ष्म जड़ता’ वेदान्त की ‘अविद्या’ के समान है।29
जर्मन प्रत्ययवाद के विकास मंे ‘फिक्टे’ का महत्वपूर्ण योगदान है। फिक्टे ने विज्ञानवाद की प्रतिष्ठा की है। फिक्टे के अनुसार मौलिक सत्ता चेतनस्वरूप है। यह संकल्प युक्त अहम् अथवा आत्मा (म्हव) है, जिसे ‘निरपेक्ष आत्मा’ कहा जाता है। अपनी संकल्प शक्ति से आत्मा स्वयं को सीमित करके ज्ञाता के रूप मंे प्रकट करता है। बाह्य जगत्, जो जड एवं अनात्मरूप प्रतीत होता है, वस्तुतः आत्मा का ही परिणाम है। आत्मा की चित् शक्ति ही अचित् के रूप में भासित होती है। चित् और अचित् में कोई मौलिक भेद नहीं, क्यांेकि दोनों एक ही आत्मतत्त्व के दो रूप हैं।30 जगत् की सत्ता निरपेक्ष आत्मा से स्वतन्त्र नहीं है। यह एक चैतन्य स्वरूप एवं संकल्पयुक्त निरपेक्ष आत्मा की अभिव्यक्ति है। फिक्टे के अनुसार बाह्य जगत् की सृष्टि आत्मा की क्रियात्मक शक्ति के द्वारा होती है। फिक्ते का यह ‘प्रतिनिवृत्ति सिद्धांत’ (।देजवे) अद्वैत मत के
मायावाद से आंशिक साम्य रखता है। प्रतिनिवृत्ति सिद्धांत के अनुसार आत्मा में एक विरोधी प्रतिनिवृत्ति की क्रिया होती है जिसके कारण आत्मा में सीमितता आती है। अद्वैतमत में भी ब्रह्म माया के कारण सीमित प्रतीत होता है। किन्तु मायावाद एवं फिक्टे के प्रतिनिवृत्ति सिद्धांत में मौलिक वैषम्य यह है कि प्रतिनिवृत्ति सिद्धांत में आत्मा की सीमितता वास्तविक है जबकि मायावाद में यह केवल प्रातीतिक है।
जर्मन दार्शनिक शेलिंग निरपेक्ष तत्त्व को ‘प्रकृति’ के नाम से सम्बोधित करते हैं। शेलिंग की यह प्रकृति चैतन्यस्वरूप है तथा जीव एवं जगत् दोनों का अधिष्ठान है। प्रकृति एवं आत्मा दोनों एकरूप हैं। मूल प्रकृति, अपनी संकल्प-शक्ति के कारण, अपने ही चैतन्य को आवृत्त करके जड जगत् के रूप में प्रतीत होती है। जीव एवं जगत्, चेतन और अचेतन वस्तुतः एक हैं, क्योंकि एक ही परमतत्त्व के परिणाम हैं। यह परमतत्त्व पूर्णतया समन्वयात्मक और स्वचेतन है। व्यावहारिक जीवन में भले ही अनेकता, भेद एवं द्वैत विद्यमान है, परन्तु तत्त्वतः कोई भेद नहीं है।31 अद्वैत मत में भी यह जगत्प्रपं्च मायामात्र है, परमार्थतः केवल अद्वय तत्त्व ही विद्यमान है।32 शेलिंग बौद्धिक प्रतिमान से भी उच्चस्तरीय साक्षात् अनुभूति की अवस्था को स्वीकार करता है। उसके अनुसार सविकल्प बुद्धि के द्वारा परम तत्त्व का ग्रहण शक्य नहीं है। यह कलात्मक अनुभूति से हो सकता है, क्योंकि कला में द्वैत का विलय हो जाता है।33 इसकी तुलना अद्वैत वेदान्त के अपरोक्षानुभूति से की जा सकती है, जहाँ ज्ञाता, ज्ञेय एवं ज्ञान तीनों अद्वैतानुभूति में विलीन हो जाते हैं। शेलिंग का ‘डार्क ग्राउण्ड सिद्धान्त’ अद्वैत के माया सिद्धान्त से साम्य रखता है। जिस प्रकार अद्वैत का ब्रह्म मायाशक्ति से सम्बद्ध होने पर ईश्वर रूप को प्राप्त होता है, उसी प्रकार शेलिंग का परमतत्त्व भी ‘डार्क ग्राउण्ड’ के सम्बन्ध से द्रष्टा या ईश्वररूप को प्राप्त कर लेता है।
निष्कर्षतः मायावाद अद्वैत वेदान्त का एक विशिष्ट सिद्धान्त है। यद्यपि पाश्चात्य चिन्तकों के विचारों में माया सिद्धांत की झलक मिलती है, तथापि यह अद्वैत के मायावाद से पूर्णतः प्रभावित नहीं है। किन्तु यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इन विचारकों ने माया सिद्धांत का आश्रयण अवश्य लिया है।

संदर्भ
1. ‘अस्ति तावद् ब्रह्म नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं, सर्वज्ञं, सर्वशक्तिसमन्वितम्’, ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य, 1.1.1
2. (क) ‘ब्रह्म सर्वज्ञं सर्वशक्ति जगदुत्पत्तिस्थितिनाशकारणमित्युक्तम्’।, ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य 1.1.5
(ख) ‘जन्माद्यस्य यतः।’, ब्रह्मसूत्र 2
3. ‘भेदस्तूपाधिनिमित्तो मिथ्याज्ञानकल्पितो न पारमार्थिकः’। ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य 1.4.10
4. वेदान्तडिण्डिम
5. जगन्महिम्ना न जगत्प्रसिद्धिः, न चिन्महिम्नाऽपि जगत्प्रसिद्धिः।
न च प्रमाणाज्जगतः प्रसिद्धिः, स्वतोऽस्य मायामयताप्रसिद्धिः।। - संक्षेपशारीरक 231
6. छान्दोग्य 6.4.1 तथा श्वेताश्वर 1.3, 4.5
7. विवेकचूडामणि 111
8. श्वेताश्वतर 1.3
9. टमकंदजं क्वबजतपदम व िडंलंए डंींकमअ ैींेजतपए चण् 97
10. वेदान्तसार, (सं) सन्त नारायण श्रीवास्तव, पृ 56
11. वाक्यसुधा 13
12. ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य 2.1.9
13. ब्रह्मसूत्र अध्यासभाष्य - ‘सत्यानृते मिथुनीकृत्य...नैसर्गिकोऽयं लोकव्यवहारः।’
14. भ्पेजवतल व िॅमेजमतद च्ीपसवेवचीलए ठमतजतंदक त्नेेमससए चण् 135ण्
15. भ्पेजवतल व िळतममा च्ीपसवेवचीलए ैजंबमए चण् 191ण्
16. ज्ीम च्ीपसवेवचील व िैचपदव्रंए ;म्कण्द्धए श्रण् त्ंजदमतए चण् 122
17. भ्पेजवतल व िच्ीपसवेवचीलए भ्महंसए चण् 270ण्
18. शंकरोत्तर अद्वैत वेदान्त में मिथ्यात्व निरूपण, अभेदानन्द, पृ 183
19. गीता (2.16) पर शांकरभाष्य
20. ैमसमबजपवदे तिवउ ठमतामसमलए ।ण्ब्ण् थ्तं्रमतए चण् 36ण्
21. प्इपकण्ए चण् 55
22. ब्रह्मसूत्र 2.2.8
23. ज्ञंदजश्े डमजंचीलेपबे व िम्गचमतपमदबमए भ्ण्श्रण् च्ंजवदए चण् 223ण्
24. शंकरोत्तर अद्वैतवेदान्त में मिथ्यात्व निरूपण, अभेदानन्द, पृ 192
25. ।चचमंतंदम ंदक त्मसपजलए ठतंकमसमलए चण् 432ण्
26. ज्ीम ब्ीपम िब्नततमदजे व िब्वदजमउचवतंतल च्ीपसवेवचीलए क्ंजजंए चण् 74ण्
27. पाश्चात्य दर्शन का उद्भव एवं विकास, हरिशंकर उपाध्याय, पृ 157
28. ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य, 2.3.45
29. पाश्चात्य दर्शन, चन्द्रधर शर्मा, पृ 126
30. वही, पृ 210
31. पाश्चात्य दर्शन का उद्भव एवं विकास, हरिशंकर उपाध्याय, पृ 310
32. ‘मायामात्रमिदं द्वैतं, अद्वैतं परमार्थतः।’, गौडपादकारिका, 17
33. पाश्चात्य दर्शन, चन्द्रधर शर्मा, पृ 217

अवधेश प्रताप सिंह
शोधच्छात्र
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली