Tuesday 31 March 2009

प्रतिभा-वाक्यार्थ के विरूद्ध जयन्त का तर्क: एक विवेचना



प्रो0 डी0 एन0 तिवारी
धर्म एवं दर्शन विभाग, बी0 एच0 यू0, वाराणसी *

जयंत भट्ट न्याय मंजरी1 में भर्तृहरि के प्रतिभा जैसे वाक्यार्थ का खण्डन करते हैं। उनकी प्रतिज्ञप्ति के अनुसार व्याकरण के दृष्टिकोण से प्रतिभा भाषा का विषय है और अर्थ प्रतिभा का विषय है और केवल इसी सन्दर्भ में प्रतिभा अर्थ कही जाती है। प्रतिभा के इस दृष्टिकोण को दृष्टि में रखते हुए जयन्त तर्क देते हैं कि यद्यपि आकार (रूप) नेत्र का विषय है फिर भी रूप का प्रत्यय (बुद्धि में रूप) नेत्र का विषय नहीं है। सामान्यतया प्रतिभा भाषा से उत्पन्न होती है लेकिन यह भाषा का विषय नहीं है। वाह्य वस्तुओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। यह कहना उचित नहीं है कि वाह्य वस्तुएँ वास्तव में अस्तित्ववान नहीं है। अतः यह प्रतिभा है जो भाषा का विषय है। उदाहरणार्थ ‘शेर आ गया’ ‘बहादुरों’, ‘कायरों’ जैसे शब्द अन्य-अन्य व्याक्तियों में अलग-अलग प्रभाव उत्पन्न करती है। ये प्रभाव प्रतिभा के कारण नहीं है परन्तु वाह्य संसार में अस्तित्ववान शेर के पहुँचने के व्यक्ति में निर्दिष्टीकरण द्वारा उत्पन्न होते हैं। यह न केवल शेर का बोध या प्रत्यय है वरन् वाह्य शेर की पहुँच है जो व्यक्तियों मंे भय आदि उत्पन्न करता है। जयन्त कहते हैं कि यह कहना समुचित नहीं है कि उस समय शेर वहां सत्य ही नहीं है क्योंकि ‘शेर नहीं आया था’ ‘मैंने झूठ बोला’ जैसे वाक्य नहीं सुने गए और इस प्रकार यहां कोई कथन नहीं है, जो एक वाह्य शेर के उपस्थिति का खण्डन करे। प्रतिभा को प्रायः वासना के आधार पर भाषा का अर्थ स्वीाकर नहीं किया जा सकता है बोध की विभिन्नता बर्हिअस्तित्ववान वस्तुओं के भिन्न निदृष्टिकरण के फलस्वरूप है। इसलिए जयन्त कहते हैं प्रतिभा केवल ‘उद्देश्य’ (तात्पर्य) (जैसे वाक्य के अर्थ) की तरह स्वीकृति है, लेकिन यह व्यक्तकत्र्ता (वक्ता) के व्यक्त (वाक्) जैसा स्वीकार नहीं किया जा सकता। अब यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रतिभा परस्परतः सम्बद्ध व्यक्त (संसृत्) जैसे वाक्यार्थ है, क्योंकि प्रतिभा जैसा कीव्याकरण मानता है एक पूर्ण अभाज्य है और सम्बद्ध पूर्ण नहीं है। जयन्त के अनुसार एक वाक्यार्थ वह है जो प्रयुक्त शब्दों में निहित उद्देश्य के बीच से जानी जाती है।
जयन्त द्वारा प्रतिभा-वाक्यार्थ पर उठाए गए प्रश्न का भर्तृहरि द्वारा समाधानः-
भर्तृहरि के मत से कहा जा सकता है कि जयन्त का यह तर्क कि प्रतिभा भाषा द्वारा उत्पन्न है और यह भाषा का अर्थ या विषय नहीं है, प्रतिभा शब्द के गलत अर्थ पर आधारित है। प्रतिभा भाषा द्वारा उत्पन्न नहीं होती परन्तु सुभिन्नतया इससे प्रकट होती है और केवल इसी सन्दर्भ में प्रतिभा को भाषा के विषय की तरह लिया जा सकता है। जयन्त की मान्यता से भिन्न अर्थ स्वयं प्रतिभा का विषय नहीं है। यह प्रत्यय की ‘अर्थ प्रतिभा का विषय है’, भर्तृहरि को एक सीमा तक स्वीकार नहीं है। यद्यपि उन्होंने ‘अर्थ प्रतिभा का विषय है; जैसे प्रत्यय का खण्डन नहीं किया तथापि यह उनके लिए स्वयं अर्थ है। यदि हम प्रतिभा को एक तात्त्विक (पराभौतिकी) मूल्य प्रदान करें और तब हम अर्थ को इसके विषय की तरह व्याख्या करें, उनका प्रतिभा जैसे अर्थ का दर्शन असम्मत होगा। इसका कारण है कि वे भाषा दार्शनिक के भाॅति सर्दव दार्शनिक प्रतिच्छाया के सीमा के प्रति सचेत रहे और यह दिखाने को बहुत इच्छुक थे कि कोई तात्त्विक पदार्थ (भाषा से अनछुआ) दार्शनिक प्रतिच्छाया का विषय नहीं है। इस प्रकार जब हम स्वयं को उनके विचार तक सीमित रखते हैं तब हम पाते हैं कि वह प्रतिभा को अर्थ की तरह भाषा द्वारा मस्तिष्क में अंकित स्फोट, सुभिन्न प्रबोधन जैसा संप्रेषित करते हैं जिसके आधार पर व्यावहार पूर्ण होता है। प्रतिभा करने या न करने के सभी प्रबोधकों का कारण है और मस्तिष्क में भाषा द्वारा प्रकट होता है और केवल इसी सन्दर्भ में यह भाषा का विषय कही जाती है, अन्यथा नहीं।
प्रतिभा स्वयं को वक्ता के वचन से संचरित होने के कारण के रूप में प्रकटित होता है। बिना विशिष्टीकृत प्रतिभा के अंकन के भाषा के द्वारा व्यवहार की आशा संभव नहीं है। इस प्रकार वक्ता के दृष्टिकोण से प्रतिभा भाषा के विषय की तरह समझी जाती है।
व्याकरणिक प्रतिभा के अर्थ जैसे सन्दर्भों में प्रतिभा को मनस या प्रज्ञा के रूप में प्रयुक्त करते हैं और दर्शित करते हैं कि प्रतिभा को प्रज्ञा जैसा बनने में कुछ नहीं कहा जा सकता। एम0एम0गोपीनाथ कविराज ने प्रतिभा के मनस या प्रज्ञा जैसे रूप को अधिक स्पष्ट रूप से विवेचित किया है। जैसे कि हमारा आयाम प्रतिभा जैसे अर्थ की प्रतिज्ञप्ति से सीमित है। हम सुझाव देते हैं कि यद्यपि मनस में विभिन्न प्रकार की प्रतिभाएं प्रकट होती हैं तथापि सभी सुभिन्न और विशिष्ट है, तथापि उनमें से सभी प्रतिभा उसी समान शब्द द्वारा अभिहित की जाती है। जब हम भर्तृहरि के प्रतिभा के अर्थ के विषय जैसे सिद्धान्त का मूल्यांकन करें उस समय प्रतिभा की यह व्याख्या मस्तिष्क में उपस्थित रहनी चाहिए और निश्चित है कि प्रतिभा यदि इस दृष्टिकोण बिन्दु से देखी गई तो मनस (प्रज्ञा) या सत्त्वात्मक सत्ता जैसी दृष्टियों में भ्रमित नहीं होंगे, जो कि अर्थ-बोध सत्ता से भिन्न है और इस प्रकार भर्तृहरि के प्रतिभा जैसे अर्थ और प्रतिभा जैसे मस्तिष्क के दृष्टिकोण में विभेदन आसान है।
अब प्रतिभा जैसे अर्थ या जैसे एक बोधात्मक अस्तित्व की समस्या पर आते हैं। यह कहा जा सकता है कि प्रतिभा अभाज्य स्फोट द्वारा प्रकट अभाज्य आभा है; वह प्रत्यय या विचार का विषय है। जिन्हें अज्ञानी या बच्चों द्वारा नहीं समझा जा सकता है। क्योंकि वे अभाज्य को अंश में समझते हैं या सम्पूर्ण को एक-एक करके समझते हैं जो उनसे विश्लेषण की माँग करती है। इस उद्देश्य के लिए वैयाकरणिक न्याकरणात्मक विश्लेषण (अपोधरा) की तकनीकि अपनाते हैं। यहां पर यह उल्लेखित करना उचित होगा कि वाक्यार्थ जो वैयाकरणिक के लिए अभाज्य आभा है, व्याकरणात्मक विश्लेषण (अपोधरा) की प्रक्रिया से विभिन्न शब्दार्थों (पदार्थों) में विश्लेषित है तब वाक्यार्थ उनके लिए विभिन्तया संश्लेषण, उद्देश्य, विभिन्न शब्दार्थों के साहचर्य, क्रिया, भावना आदि जैसे व्याख्यायित होता है। यह भी कहा जा सकता है कि पिछले अंक में विवेचित वाक्यार्थ के सभी सिद्धान्त अभाज्य प्रतिभा के व्याख्या के लिए उपयोगी है। परन्तु किसी भी विचार को सिद्धान्त या वाक्यार्थ की परिभाषा स्वीकार करना अनुचित है। प्रतिभा वाक्यार्थ है और अभाज्य आभा है। यह साहचर्य उद्देश्य आदि जैसे पृथकतया परिभाषित होते हैं। क्योंकि एक अभज्य किसी भी और अन्य प्रकार से परिभाषित नहीं हो सकता है। परिभाषा स्वयं अंश और पूर्ण की समझ पर आधारित है और इसलिए प्रतिभा की परिभाषा है।2
प्रतिभा वाक्यार्थ की विविध परिभाषाओं में साहचर्य का सिद्धान्त उन विचारकों द्वारा अनुमोदित है जो ‘भाव सम्बन्धों का पूर्ववर्ती है’ में विश्वास करते हैं (अभिहितान्वयवादिन)। अज्ञानी को शब्दार्थों के साहचर्य से वाक्यार्थ के अध्यापन के दृष्टि बिन्दु से उचित प्रतीत होता है। परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त उन विचारकों द्वारा अनुमोदित है जो ‘सम्बन्ध भाव का पूर्ववर्ती है, में विश्वास करते हैं (अभिधान वादिन)। उच्चारित शब्द या व्यंजित अर्थों के उद्देश्य की व्याख्या के दृष्टिकोण से समर्थित प्रतीत होती है जबकि वाक्यार्थ अभाज्य जैसा विश्वास करने वाले विचारक (अखण्डवाक्यावादिन), सामान्य व्यवहार में एक इकाई अर्थ की पूर्ति के लिए आगे की अभिलाषा को हटाकर, बोध की सम्पूर्णता की दृष्टिकोण से, इसे बोधित उचित ठहराते हैं। मस्तिष्क में अंकित वाक्यार्थ एक शब्दार्थ को अन्य शब्दार्थ से जोड़ने जैसा नहीं वरन् एक अभाज्य बोध जैसे जिसकी व्याख्या के लिए वाक्यार्थ के अन्य सिद्धान्त भी महत्त्वपूर्ण हैं।3
विरोध वाक्यार्थ के खण्डन या मण्डन से नहीं है क्योंकि सभी सिद्धान्तकार इसको स्वीकार करते हैं। यह तो इसकी व्याख्या है, जो अन्तर उत्पन्न करती है। अभाज्य अर्थ जैसा प्रतिभा का सिद्धान्त न केवल वाचिक भावो, वाक्य-चिह्नों, हाव-भावों आदि से स्फोट द्वारा मस्तिष्क में अंकित या प्रकट बोधों की वरन् योगियों और अन्य सिद्ध-पुरूषों की प्रत्यक्ष बोध की व्याख्या करने में उपयुक्त है। बोध सत्वात्मक, परिमेय, अतिपरिमेय आदि जैसे सुभिन्नतः स्पष्ट रूप से ज्ञापित होती हैं। कीट और प्राणियों की सत्वात्मक बोध, उनकी अदृश्य परिमेय गतिविधियों के प्रेक्षण के आधार पर लिए गए अनुमान से जानी जाती है, परिमेय बोध जब वाचिक भावों से उद्भाषित स्फोट द्वारा प्रकटन जैसा बोध है। ये संचारणीय बोध हैं जो मनोदशा से संचारित हो तो सत्यनिष्ठ बोध उत्पन्न करती हैं। अति परिमेय बोध प्रत्यक्ष आभाएं हैं, वे सिद्ध-पुरूषों की दृष्टि है (ऋषिः मन्त्र दृष्टिारः)। और वे जिसे यह प्राप्त है के अतिपरिमेय दैवीय गतिविधियों के प्रस्तुतीकरण के प्रेक्षण से जाना जाता है।

सन्दर्भ ग्रन्थ
1. न्याय मंजरी, पृ0-104-5।
2. इदम तदिति सान्येशामनाख्येया कथंचन् प्रत्यामवृत्त्सििद्ध पुष्पराज 2/44
3. पुष्पराज 2/1




* साभार-द सेन्ट्रल प्राब्लम आॅफ भर्तृहरिज फिलासफी, लेखक प्रो0 डी0एन0तिवारी, प्रकाशक- आई0सी0पी0आर0, नई दिल्ली। इस अंश के अनुवादक श्री राजेन्द्र तिवारी अधि0, उ0 न्या0, इलाहाबाद।

प्राथमिक शिक्षा में प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापक एवम् विशिष्ट बी0टी0सी0 अध्यापकों के मध्य व्यवसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन


डाॅ0 राजीव कुमार चैहान (प्रवक्ता)
(प्रवीन चैधरी), (तनु गुप्ता, शोध छात्रा)
बाबू कामता प्रसाद जैन महाविद्यालय,
बड़ौत (बागपत)

       प्रस्तावना:प्राचीन काल में शिक्षा छात्रों को गुरुकुलों में प्रदान की जाती थी। वैदिक काल में शिक्षक का स्थान इतना ऊँचा होता था कि गुरु की तुलना ब्रह्मा, विष्णु और महेश से की जाती थी। छात्र गुरुकुल में रहकर ही शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु समस्त विषयों का ज्ञाता और समाज का हितैषी होता था। शिक्षक राष्ट्र का सच्चा निर्माता होता था। विद्यार्थियों को शिक्षकों से बड़ी-बड़ी आशायें होती थी, क्योंकि विद्यार्थियों के जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान उसे ही करना होता है। बालक के व्यक्तित्व विकास में शिक्षक का महŸवपूर्ण स्थान है। इसी कारण शिक्षक को समाज में सर्वाधिक सम्मान दिया जाता है परन्तु विगत के दशक से शिक्षण प्रशिक्षण एवं शैक्षिक समस्याओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रायः अधिकांश शिक्षकों में गुणवत्ता का स्तर दिन प्रतिदिन घटता जा रहा है। सभी शिक्षकों में दक्ष शिक्षकों की कमी है। जिनकी प्राथमिक स्तर पर विशेष आवश्यकता है। इसका मुख्य कारण है कि शिक्षक कम वेतन के कारण अपने व्यवसाय के प्रति सन्तुष्ट नहीं है। अर्थात शिक्षकों की स्थिति शोचनीय है।
हमारे संविधान की धारा 45 में यह घोषणा की गई है कि संविधान लागू होने के समय से 10 वर्ष की अवधि के अन्दर 14 वर्ष तक के बच्चों की अनिवार्य एवम् निःशुल्क शिक्षा के लक्ष्य में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 लागू हैं, 10$2$3 शिक्षा संरचना लागू हैं और इसकी प्रथम 10 वर्षीय आधारभूत पाठ्यचर्या को तीन भागों में विभाजित किया गया है - कक्षा 1 से 5 तक प्राथमिक शिक्षा, कक्षा 6 से 8 तक उच्च प्राथमिक, कक्षा 9 तथा 10 माध्यमिक और $ 2 अर्थात कक्षा 11 तथा 12 को उच्च माध्यमिक शिक्षा कहा गया है। इस समय हमारे देश में 05 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की शिक्षा प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत आती हैं।
समस्या कथन:-‘‘प्राथमिक शिक्षा में प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापक एवम् विशिष्ट बी0टी0सी0 अध्यापकों के मध्य व्यवसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन‘‘
अध्ययन उद्भवः-1951 से हमारे देश में सभी विकास कार्य योजनाबद्ध तरीके से शुरू किये गये। 1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) शुरू हुई। इस योजना में शिक्षा पर 153 करोड़ रुपये व्यय किए गए जिनमें से 85 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा के विकास पर व्यय किए गए। दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) में शिक्षा पर 273 करोड़ रुपये व्यय किए गये जिनमें से 95 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा पर व्यय किये गये। तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66) में शिक्षा पर 589 करोड़ रूपये व्यय किये गये, जिनमें से 201 करोड़ रूपये प्राथमिक शिक्षा पर व्यय किये गए। चतुर्थ पंचवर्षीय (1969-74) में शिक्षा पर कुल 786 करोड़ रुपये व्यय किए गए जिनमें से 239 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा पर व्यय किये गये। पांचवी पंचवर्षीय योजना में 317 करोड़, छठी पंचवर्षीय योजना में 836 करोड़, सातवी पंचवर्षीय योजना में 2849 करोड़, आठवी पंचवर्षीय योजना में 9201 करोड़, नवीं में 1184.4 करोड़ रुपये व दसवीं पंचवर्षीय योजना में 28750 करोड़ रुपये रखे गये हैं। इस योजना का मुख्य लक्ष्य शिक्षा का सार्वभौमिकरण है।
प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में इसकी 45 वीं धारा में स्पष्ट निर्देश हैंः-‘‘राज्य इस संविधान के लागू होने के समय से दस वर्ष के अन्दर 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करेगा।‘‘और बस तभी से हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क करने की ओर ठोस कदम उठाए गए, यह बात दूसरी है कि उस लक्ष्य को हम 10 वर्षों के अन्दर तो क्या आज 56 वर्ष बाद भी प्राप्त नहीं कर सके हैं।
अध्ययन की आवश्यकता एवं महत्त्वः-आज शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर शिक्षकों की दशा शोचनीय है। उसे विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण शिक्षा का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है। जिसका मुख्य कारण शिक्षकों में गुणवत्ता का अभाव शिक्षण सामग्री का निम्न स्तर, शिक्षण कार्यों के प्रति उदासीनता, शिक्षकों का स्वार्थी होना, शिक्षण संस्थानों की दोषपूर्ण नीति एवं आर्थिक दशायें इत्यादि हैं।
शिक्षक शिक्षण में तथा छात्र अध्ययन में रुचि नहीं ले रहे हैं क्योंकि आज शिक्षक विभिन्न समस्याओं से ग्रस्त हैं। इसका मुख्य कारण है कि शिक्षक अपने व्यवसाय के प्रति उदासीन है। विद्यालयों में उन्हें उचित दर्जा नहीं दिया जा रहा है। विद्यालयों में शिक्षण कार्य अधिक व वेतन कम दिया जा रहा है जिसके कारण अध्यापक अपने विषय के प्रति रुचि नहीं ले रहे हैं। उनकी समस्याओं की ओर ध्यान में रखकर ही शोधकर्ता ने प्राथमिक स्तर के बी0टी0सी0 व एस0बी0टी0सी0 प्रशिक्षित अध्यापकों की व्यवसायिक संतुष्टि हेतु अपना शोध एवम् उनका उपयुक्त समाधान खोजने हेतु समस्या का चयन किया है।
अध्ययन के उद्देश्यः-प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में निम्नलिखित उद्देश्य लिए गये हैंः-
1. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्राथमिक स्तर के प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापक एवं एस0बी0टी0सी0 अध्यापकों की व्यावसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना।
2. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्राथमिक स्तर के प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापिकाओं व एस0बी0टी0सी0 अध्यापिकाओं की व्यवसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना।
3. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्रशिक्षित एस0बी0टी0सी0 अध्यापकों व अध्यापिकाओं की व्यवसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना।
4. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापकों एवं अध्यापिकाओं की व्यवसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना।
प्रस्तुत शोध की परिकल्पनायेंः-परिकल्पना का शाब्दिक अर्थ है ‘‘पूर्व चिन्तन‘‘। यह अनुसंधान की प्रक्रिया का दूसरा महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है। इसका तात्पर्य है कि किसी समस्या के विश्लेषण और परिभाषिकरण के बाद उनमें कारणों तथा कार्य-कारण के सम्बन्ध में ‘‘पूर्व चिन्तन‘‘ कर लिया है। इस निश्चय के बाद उसका परीक्षण शुरू हो जाता है। अनुसंधान कार्य इस परिकल्पना के निर्माण और उसके परीक्षण के बीच की प्रक्रिया है।
प्रस्तुत शोध के सन्दर्भ में शून्य परिकल्पनायें निर्धारित की गई हैं।
1. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्राथमिक स्तर के प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापक एवं एस0बी0टी0सी0 प्रशिक्षित अध्यापकों की व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अन्तर नहीं है।
2. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्राथमिक स्तर के प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापिकपाओं एवं एस0बी0टी0सी0 प्रशिक्षित अध्यापिकाओं की व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अन्तर नहीं है।
3. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्रशिक्षित एस0बी0टी0सी0 अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के मध्य व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अन्तर है।
4. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के मध्य व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अन्तर नहीं है।
शोध विधि एवं प्रक्रिया:-
शैक्षिक अनुसंधान की अनेक विधियां हैं। इनमें से प्रत्येक विधि का अनुसंधान में आवश्यकतानुसार समस्या शोध की प्रकृति, स्थिति, काल, दशा एवं उद्देश्यों के आधार पर चयन किया जाता है। उचित विधियों का उपयुक्त समस्या में उपयुक्त स्थान पर सही अनुप्रयोग करने से शोध कार्यों की सार्थकता व निष्कर्षों की वैधता में सहायता मिल जाती है। प्रस्तुत शोध में सर्वेक्षण विधि का प्रयोग किया गया है। सर्वेक्षण शब्द से आशय खोज या अवलोकन से है।
न्यायदर्श एवं न्यायदर्श विधि:-
अनुसंधान चाहे किसी भी प्रकार का हो उसमें प्रदत्त संकलन की आवश्यकता होती है। यह प्रदत्त संकलन प्राथमिक और द्वितीय स्रोतों से संकलित किया जाता है। प्राथमिक स्रोतों में भौगोलिक क्षेत्र, संस्थायें तथा व्यक्ति सम्मिलित होते हैं और इन सबका समग्र रूप अर्थात सम्पूर्ण भौगोलिक संबंध, सम्पूर्ण संस्थायें संबंध सम्पूर्ण व्यक्ति, परिवार इत्यादि ‘‘समष्टि‘‘ की रचना करते हैं। इसका कोई भी अंग उसका एक ‘‘एलीमेन्ट‘‘ कहा जाता है। ‘‘समष्टि‘‘ का एक भाग जो वांछित न्यायदर्श से चुना जाता है। उस अध्ययन का न्यायदर्श कहलाता है। समष्टि से इस प्रकार के न्यायदर्श के चयन की विधि को सुनिश्चित करने की प्रक्रिया को न्यायदर्श कहते हैं।
प्रस्तुत शोध कार्य में शोधकर्ता ने स्वीकृत यादृच्छिकी न्यायदर्श विधि का प्रयोग किया है। इस विधि में न्यायदर्श का मानव विचलन या अन्य विचलन कम करने के उद्देश्य से कभी-कभी ‘‘समष्टि‘‘ को समवायी स्तरों में बाँट देते हैं। अब प्रत्येक स्तर में पड़ने वाली इकाइयों का ढांचा तैयार करते हैं और उन ढांचों में से इकाइयों की या दृच्छिकी न्यायदर्श विधि से चुन लेते हैं। शोधकर्ता ने आंकड़ों के चयन हेतु बागपत जनपद में स्थित बी0टी0सी0 व एस0बी0टी0सी0 प्रशिक्षित प्राथमिक स्तर के विद्यालयों में से 64 बी0टी0सी0 व 64 एस0बी0टी0सी0 पुरुष व महिला अध्यापकों को चयनित किया है।


अध्ययन के उपकरण:-
प्रस्तुत शोध समस्या पर मानवीकृत उपकरण ‘‘व्यवसायिक सन्तुष्टी मापनी‘‘ का प्रयोग किया गया है। यह उपकरण ‘‘डा0 मनोरमा तिवारी‘‘ व ‘‘डी0एन0 पाण्डेय‘‘ द्वारा निर्मित है।

अकंन एव विशलेषण:-
1BTC o SBTC  अध्यापकों के अंकों से प्राप्त मध्यमान एवं ैण्क्ण् से ब्ण्त्ण् ज्ञात करना:

वर्ग ैण्क्ण्
ठज्ब् डंसम 32 110.12 15.11
ैठज्ब् डंसम 32 118.75 11.21
ब्ण्त्ण्ब्ण् (क्रान्तिक निष्पŸिा)
क्ध्ैम्क्
क् ड1ड2
110ण्12.118ण्75
           8ण्63
ैम्क् त्र दो सहसंबंधित मध्यमानों के अंतर की संभावित त्रुटि

ैम्क् 12ध्छ122ध्छ2

          ;15ण्11द्ध2ध्32;11ण्21द्ध2ध्32

          228ण्3ध्32125ण्7ध्32

          7ण्13ण्9

          11
          3ण्32
ैम्क्  3ण्32
ब्त्ब्  8ण्63ध्3ण्32
ब्त्ब्  2ण्599
प्रस्तुत तालिका नं0 (1) का अवलोकन करने से ज्ञात हुआ है कि ठज्ब् व ैठज्ब् का ब्त् का मान 2ण्599 है जो .1 स्तर (2.156) एवं .5 (1.26) स्तर से अधिक है। इसलिए हम कह सकते हैं कि ठज्ब् व ैठज्ब् अध्यापकों के व्यवसायिक सन्तुष्टि में अन्तर है।
2द्ध ठज्ब् व ैठज्ब् अध्यापिकाओं के अंकों से प्राप्त मध्यमान एवं ैण्क्ण् से ब्ण्त्ण् ज्ञात करना:
वर्ग ैण्क्ण्
ठज्ब् ;थ्मउंसमद्ध 32 130.43 11.3
ैठज्ब् ;थ्मउंसमद्ध 32 120.18 17.20
ब्ण्त्ण्ब्ण् (क्रान्तिक निष्पŸिा)
क्ध्ैम्क्
क् ड1ड2
त्र          130ण्43.120ण्18
त्र          10ण्25
ैम्क् त्र दो सहसंबंधित मध्यमानों के अंतर की संभावित त्रुटि

ैम्क् 12ध्छ122ध्छ2

          ;11ण्3द्ध2ध्32;17ण्2द्ध2ध्32

          127ण्69ध्32295ण्84ध्32

          16ण्85

          4ण्1
ैम्क्  4ण्1
ब्त्ब्  10ण्25ध्4ण्1
ब्त्ब्  2ण्5
प्रस्तुतं तालिका नं0 (2) का अवलोकन करने से ज्ञात हुआ है कि ठज्ब् व ैठज्ब् का ब्त् का मान 2.5 है जो .1 स्तर एवं .5 स्तर से अधिक है। इसलिए हम कह सकते हैं कि ठज्ब् व ैठज्ब् अध्यापिकाओं के व्यवसायिक सन्तुष्टि में अन्तर है।
3द्ध ैठज्ब् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के अंकों से प्राप्त उमंद व ैण्क्ण् से ब्ण्त् ज्ञात करना:
वर्ग  ;ैण्क्ण्द्ध
ैठज्ब् ;डंसमद्ध 32 118.75 11.21
ैठज्ब् ;मिउंसमद्ध 32 120.18 17.20
ब्ण्त्ण्ब्ण् (क्रान्तिक निष्पŸिा)
क्ध्ैम्क्
क् ड1ड2
त्र          118ण्75120ण्18
त्र          1ण्43
ैम्क् त्र दो सहसंबंधित मध्यमानों के अंतर की संभावित त्रुटि

ैम्क् 12ध्छ122ध्छ2


          ;11ण्21द्ध2ध्32;17ण्20द्ध2ध्32

          125ण्66ध्32295ण्84ध्32

          3ण्939ण्25

          13ण्18

          3ण्63
ैम्क्  3ण्63
ब्त्ब्  1ण्43ध्3ण्63
ब्त्ब्  ण्394
प्रस्तुतं तालिका नं0 (3) का अवलोकन करने से ज्ञात हुआ है कि ैठज्ब् अध्यापक व अध्यापिकाओं का मान .394 है जो .1 स्तर एवं .5 स्तर से कम है। इसलिए हम कह सकते हैं कि ैठज्ब् अध्यापक व अध्यापिकाओं के व्यवसायिक सन्तुष्टि में कोई अन्तर नहीं है।
4द्ध ठज्ब् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के अंकों से प्राप्त उमंद व ैण्क्ण् से ब्ण्त् ज्ञात करना:
वर्ग  ;ैण्क्ण्द्ध
ठज्ब् ;डंसमद्ध 32 110.12 15.11
ठज्ब् ;थ्मउंसमद्ध 32 130.43 11.30
ब्ण्त्ण्ब्ण् (क्रान्तिक निष्पŸिा)
क्ध्ैम्क्
क् ड1ड2
त्र          110ण्12130ण्43
त्र          20ण्31
ैम्क् त्र दो सहसंबंधित मध्यमानों के अंतर की संभावित त्रुटि

ैम्क् 12ध्छ122ध्छ2

          ;15ण्11द्ध2ध्32;11ण्30द्ध2ध्32

          7ण्133ण्99

          11ण्12
          3ण्33
ैम्क्  3ण्33
ब्त्ब्  20ण्31ध्3ण्33
ब्त्ब्  6ण्09
प्रस्तुतं तालिका नं0 (4) का अवलोकन करने से ज्ञात हुआ है कि ठज्ब् व ैठज्ब् अध्यापक व अध्यापिकाओं का मान 6.09 है जो .1 स्तर एवं .5 स्तर से अधिक है। इसलिए हम कह सकते हैं कि ठज्ब् अध्यापक व अध्यापिकाओं के व्यवसायिक सन्तुष्टि में अन्तर है।
निष्कर्ष:
1. प्रस्तुत शोध में बी0टी0सी0 अध्यापकों एवं एस0बी0टी0सी0 अध्यापकों के मूल्यांकन के पश्चात् व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अंतर पाया गया है।
2. प्रस्तुत शोध में बी0टी0सी0 एवं एस0बी0टी0सी0 अध्यापिकाओं के मूल्यांकन के पश्चात् उनकी व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अंतर पाया गया है।
3. प्रस्तुत शोध में एस0बी0टी0सी0 अध्यापक व अध्यापिकाओं के मूल्यांकन के पश्चात् उनकी व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अंतर नहीं पाया गया।
4. प्रस्तुत शोध में बी0टी0सी0 अध्यापक व अध्यापिकाओं के मूल्यांकन के पश्चात् इनकी व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अंतर पाया गया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ

1. भारत में शिक्षा का विकास - डाॅ0 रामशक्ल पाण्डेय
2. भारत में शिक्षा का विकास एवं समस्यायें - डाॅ0 एस0पी0 गुप्ता
3. शैक्षिक अनुसंधान व उसकी विधियां - एच0के0 कपिल
4. शैक्षिक अनुसंधान की विधियां - पारसनाथ
5. शैक्षिक सांख्यिकी - एस0पी0 गुप्ता
6. कु0 शालू द्वारा झाँसी नगर के माध्यमिक विद्यालयों के अध्यापक एवं अध्यापिकाओं की व्यवसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन वर्ष 2001-02 में से।



उत्तर प्रदेशः विकास के मार्ग को प्रशस्त करती ग्रामीण विकास कार्यक्रम


धनंजय शर्मा
शोध छात्र, समाजशास्त्र,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।

                 उत्तर प्रदेश जनसंख्या की दृष्टि से एक विशाल, क्षेत्रीय असंन्तुलन और सामाजिक, आर्थिक एवं भौगोलिक विषमताओं की दृष्टि से एक विविधतापूर्ण प्रदेश है, वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार यहाँ देश की कुल जनसंख्या का 16.17 प्रतिशत भाग निवास करता है जो कुल क्षेत्रफल की दृष्टि से अभी भी देश का पाँचवां सबसे बड़ा राज्य है। देश के भौगोलिक क्षेत्रफल का 7.33 प्रतिशत भाग उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत है। यह 2 लाख 40 हजार 928 वर्ग किलोमीटर के घेरे में 70 जिलों, 302 तहसीलों, 813 विकास खण्डों 52028 ग्राम पंचायतों और 97 हजार 942 गाँवों में फैला हुआ है। यहां जनसंख्या का घनत्व प्रतिवर्ग किलोमीटर 690 व्यक्ति है, जबकि सम्पूर्ण देश का अर्थात् अन्य सभी राज्यों का औसत घनत्व 325 व्यक्ति प्रतिवर्ग किलोमीटर है, वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार प्रदेश की कुल जनसंख्या 16,61,97,921 है। वर्तमान में प्रदेश की कुल आबादी में 8.76 करोड़ पुरूष तथा 7.86 करोड़ महिलाएं सम्मिलित है। प्रदेश में ग्रामीण और शहरी जनसंख्या का प्रतिशत क्रमशः 80 तथा 20 के करीब है वर्ष 2005-06 में भारत में बिहार के बाद सर्वाधिक गरीबी उत्तर प्रदेश में है। जहाँ 24.25 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे है। यहाँ वर्तमान में जनसंख्या की दशकीय वृद्धि दर (1991-2001) 25.85 प्रतिशत रही है। जो देश की सम्पूर्ण दशकीय वृद्धि दर (21.54) की तुलना में 4.31 प्रतिशत अधिक है। जनसंख्या वृद्धि की तीव्र दर का प्रदेश के विकास पर अत्यधिक विपरीत प्रभाव परिलक्षित हुआ है।
प्रदेश में व्यापक रूप से पायी जाने वाली आर्थिक, सामाजिक और क्षेत्रीय, विषमताओं ने यहाँ विकास की गति को अत्यधिक रूप से प्रभावित किया है, जैसा कि गोविन्द सहाय कमेटी में कहा गया कि विकास कार्यक्रमों का अधिकांश लाभ कुछ ही लोगों को प्राप्त होता है। बेबर के अनुसार सामाजिक, आर्थिक स्थिति एक समान नहीं होती हैं इसमें तीन अयाम होते हंै। प्रस्थिति (जाति) वर्ग तथा शक्ति ये आयाम व्यक्तियों में पीढ़ीगत् असमानता उत्पन्न करते हंै।
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के सुझाव पर प्रदेश में ग्रामीण विकास का सुनियोजित कार्यक्रम निर्धारित करने और कार्यक्रम को चलाने के लिए अमेरिकन विशेषज्ञ श्री अल्बर्ट मायर को उत्तर प्रदेश सरकार का नियोजन एवं विकास सलाहकार नियुक्त किया गया। 1948-49 में इटावा जिलें के 64 गाँवों में अग्रगामी विकास परियोजना आरम्भ की गई जिसका मुख्य उद्देश्य नये प्रयोग करना, उनका मूल्यांकन करना और जिन कार्यक्रमों को जनता अपना ले और लाभकारी हो उनका सघन प्रसार करना था।
2 अक्टूबर, 1952 को प्रदेश में समुदायिक विकास कार्यक्रम चलाया गया जिसका उद्देश्य ग्रामीण आवास, पेयजल स्वच्छता तथा गाँवों में विद्युतीकरण पर विशेष बल दिया गया तथा इस कार्यक्रम के उद्घाटन करते हुए नेहरू जी ने कहा था, ‘‘जो कार्यक्रम हम आरम्भ कर रहे हंै वह मातृभूमि की सेवा और जिस देश के हम सब अंग है। उसकी सेवा के लिए है। हमें कठिन परिश्रम और खून-पसीना एक करके उसकी सेवा करनी चाहिए यदि आवश्यक हुआ तो उसके लिए हम अपना रक्त बहा देंगे जिससे हमारे करोड़ों देशवासी प्रगति कर सकें और उनके दर्द और परेशानियों का अंत हो सके।’’ इसके बाद विभिन्न ग्रामीण विकास कार्यक्रमों एवं परियोजनाओं ने विकास को गति प्रदान करने की कोशिश की। वर्तमान में प्रदेश में निम्नलिखित ग्रामीण विकास योजनायें चलाई जा रही है। जो विकास के मार्ग में प्रशस्त कर रहीं हैं।
स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना ;ैळैल्द्ध
स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना गाँवों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों को रोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 1 अप्रैल 1999 को प्रारम्भ की गई। इस योजना में पहले से चल रही 6 योजनाओं का विलय कर दिया गया। जो इस प्रकार हैं- (1) समन्वित ग्राम विकास कार्यक्रम (प्त्क्च्) (2) स्वरोजगार के लिए ग्रामीण युवाओं को प्रशिक्षण कार्यक्रम (ज्त्ल्ैम्ड) (3) ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं एवं बाल विकास कार्यक्रम (क्ॅब्त्।) (4) ग्रामीण दस्तकारों को उन्नत औजारों की किट की आपूर्ति का कार्यक्रम (ैप्ज्त्।), (5) गंगा कल्याण योजना (ळज्ञल्) तथा (6) दस लाख कुँआ योजना (डॅै)। इस योजना के अन्तर्गत बैंक ऋण और सरकारी अनुदान के माध्यम से स्वा सृजन करने वाली परिसम्पत्तियां गरीब परिवारों को उपलब्ध कराकर उन्हें स्वरोजगार में लगाने का कार्य किया जा रहा है। इसमें केन्द्र सरकार और राज्य सरकार का क्रमशः 75 और 25 प्रतिशत अंश का योगदान है। योजनान्तर्गत सामूहिक दृष्टिकोण पर बल दिया जाता है। 50 प्रतिशत समूह महिलाओं 50 प्रतिशत अनुसूचित जाति/जनजाति एवं 3 प्रतिशत विकलांग को दिया जाता है। योजना में सामान्य वर्ग को 30 प्रतिशत (अधिकतम रूपये 7500.00) अनुसूचित जाति/जनजाति एवं विकलांग व्यक्तियों को 50 प्रतिशत (अधिकतम रुपये 10000.00) तथा सामूहिक ऋण हेतु 50 प्रतिशत (प्रति स्वरोगार रुपये 10000.00 अथवा रुपये 1.25 लाख जो भी कम हो) अनुदान दिया जाता है। वर्ष 2006-07 में 2.95 लाख व्यक्तियों को स्वतः रोजगार में स्थापित किया गया है।
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ;छत्म्ळ।द्ध
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी अधिनियम (छत्म्ळ।) 7 सितम्बर 2005 को संसद में पारित किया गया था। जिसमें 100 दिन की रोजगार की गांरटी दी गयी है। इस योजना का प्रारम्भ 2 फरवरी 2006 को आन्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले में किया गया पहले चरण में यह सुविधा 200 जिलों में उपलब्ध कराई गई थी। 2007-08 में इस कानून का विस्तार 330 अतिरिक्त जिलों में किया गया जबकि बाकी जिलों को इसमें शामिल करने की अधिसूचना 1 अप्रैल, 2008 को जारी कि गयी। इसमें काम के बदले अनाज कार्यक्रम व सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना का विलय कर दिया गया है। इस योजना में परिवार को एक वित्तीय वर्ष में 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराया जायेगा। जिसमें 33 प्रतिशत लाभार्थी महिलायें होंगी। रोजगार के इच्छुक एवं पात्र व्यक्ति द्वारा पंजीकरण कराने के 15 दिन के भीतर रोजगार न दिये जाने पर निर्धारित दर से बेरोजगारी भत्ता सरकार द्वारा प्रदान किया जायेगा। प्रदेश में वर्तमान मजदूरी दर रू0 58.00 प्रति मानव दिवस निर्धारित है। प्रदेश के कुल रोजगार सृजन 4.53 करोड़ की कार्य दिवस की मांग थी जिसमें 4.28 करोड़ मानव दिवस का रोजगार सृजन किया गया।
सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना (ैळत्ल्)
इस योजना का शुभारम्भ प्रधानमंत्री द्वारा 25 सितम्बर 2001 को किया गया। जिसमें रोजगार आश्वासन योजना (म्।ै) और जवाहर ग्राम समृद्धि योजना (श्रळैल्) को मिला दिया गया था। इसका खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अतिरिक्त अवसरों का सृजन तथा स्थायी परिसम्पत्तियों का सृजन करना ा मुख्य उद्देश्य है। इस योजना के अन्तर्गत टिकाऊ ग्रामीण परिसम्पत्तियों के निर्माण से सम्बन्धित परियोजना के लिए त्रिस्तरीय पंचायतों के माध्यम से रोजगार के अवसर सृजित किये जाते हैं। इस योजना के अन्तर्गत लाभार्थियों को न्यूनतम 5 किलो अनाज और कम से कम 25 प्रतिशत मजदूरी नकद दी जाती है। इस कार्यक्रम का खर्च (नकद भाग) केन्द्र तथा राज्यों में 75ः25 अनुपात के आधार पर बाँटा जाता है। इस कार्यक्रम के लिए संसाधनों का आंवटन पंचायती राज के तीनों स्तरों यानी जिला पंचायत, पंचायत समिति तथा ग्राम पंचायत द्वारा 20ः30ः50 के अनुपात में किया जाता है। 2007 तक 6.10 करोड़ मानव दिवस का रोजगार सृजन किया गया जिससे काम की तलाश में भटकने वाले बेरोजगार को विशेष सम्बल प्राप्त हुआ है।


इन्दिरा आवास योजना (प्।ल्)
इन्दिरा आवास योजना वर्ष 1985-86 में (मई 1985 में) त्स्म्ळच् की एक उप योजना के रूप में आरम्भ की गयी थी। इसका उद्देश्य गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले आवास हीन ग्रामीण परिवारों को निःशुल्क आवास उपलब्ध कराना है। जिसमें केन्द्र और राज्य का 75ः25 प्रतिशत का योगदान होता है। भवन-निर्माण की उच्च लागत को देखते हुए, 1 अप्रैल 2008 के पश्चात् स्वीकृत नये मकानों के संबंध में मैदानी इलाकों में प्रति इकाई सब्सिडी को 25000 रुपये से बढ़ाकर 35000 रू0 और पर्वतीय/दुर्गम इलाकों में 27500 रुपये से बढ़ाकर 38500 रुपये करने का प्रस्ताव है। मकानों के उत्पादन के लिए सब्सिडी 12500 रू0 प्रति यूनिट से बढ़ाकर 15000 रुपये की गयी है। वर्ष 2006-07 में 2,65,613 आवासों का निर्माण किया गया। जिससे लाखों लोगों को खुले आसमान में सोने से बचाया जा सका है। जिससे उनके मन में आत्मविश्वास पैदा हुआ है।
प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना (च्डळैल्)
ग्रामीण सड़कों द्वारा गाँवों को जोड़ने का उद्देश्य ने केवल देश के ग्रामीण विकास में सहायक है बल्कि इसे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम में एक प्रभावी घटक स्वीकार किया गया है। स्वतंत्रता के 6 दशकों के बाद भी लगभग 40 प्रतिशत भारत के गाॅव अच्छी सड़कों से जुड़े हुए नही हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु 25 दिसम्बर 2000 से यह योजना प्रारम्भ किया गया। प्रारम्भ में यह योजना केवल 1000 आबादी वाले गाँवों के लिए था लेकिन 2003 से 500 तक आबादी वाले गाॅव को भी शामिल कर लिया गया। प्रदेश में राज्य योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार 1000 या उससे अधिक आबादी वर्ग की कुल 39139 ग्रामीण बसावटे्र थी, जिसमें से 10.898 सर्वऋतु मार्गो से गैर जुड़ी हुई थी। इसी प्रकार 500-999 आबादी वर्ग की कुल 41.452 ग्रामीण गाॅवों में से 17944 गाँवों को सभी वस्तु मार्गो से जोड़ा जाना शेष था। ‘‘प्रदेश में निर्मित की गयी सड़कों के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वर्ष 2005-06 में सम्पूर्ण भारत वर्ष में निर्माण की गुणवत्ता के सन्दर्भ में प्रदेश का स्थान प्रथम रहा हैं।’’
ग्रामीण पेयजल योजना
इस योजना का प्रारम्भ प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना (2000) के अन्तर्गत ग्रामीण लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के उद्देश्य से किया गया। स्वजल धारा के अतिरिक्त (1) त्वरित ग्रामीण पेयजल योजना (2) ग्रामीण जल सम्पूर्ति-जलोत्सारण योजना (3) गुणवत्ता प्रभावित बस्तियों में शुद्ध पेयजल इन तीनों योजनाओं में प्रदेश को 2006-07 के बजट प्राविधान के अनुसार 871.43 रुपये करोड़ निर्धारित किया गया था। वर्ष 2006-07 में कुल सम्भावित हैण्डपम्पों के सापेक्ष दिनाँक 15.07.06 तक एक लाख हैण्डपम्प जलनिगम द्वारा (90000 हैण्डपम्प ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 10000 नगरीय क्षेत्रों में) तथा 10000 हैण्डपम्प यू0पी0एग्रो द्वारा लगायी जा चुकी है। जिससे प्रदेश के अधिकांश जिलों में स्वच्छ पेयजल कि समस्या का निदान हो रहा है।
स्वजल धारा कार्यक्रम
ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल की समस्या के समाधान के लिए स्वजल धारा कार्यक्रम की शुरुआत केन्द्र सरकार ने दिसम्बर 2002 में की थी। इसका उद्घाटन 25 दिसम्बर 2002 को विडियों कान्फ्रेसिंग के जरिये उत्तर प्रदेश के लखनऊ जिले के गोहाकलाँ गाँव में किया गया। ग्राम पंचायतों के माध्यम से लागू किये जाने वाले इस कार्यक्रम के तहत गाँव-वासियों को कुएँ, बावडी बनाने व हैण्डपम्प लगाने की सुविधा प्रदान की गई हैं। योजना लागत का केवल 10 प्रतिशत भाग ही गाँव वासियों को वहन करना होगा, शेष 90 प्रतिशत राशि की भरपाई केन्द्र सरकार द्वारा की जायेगी। सभी गाॅवों में 2004 तक पेयजल उपलब्ध कराने के लक्ष्य वाले इस कार्यक्रम का संचालन ग्रामीण विकास मंत्रालय के तत्वाधान में किया जायेगा।
राष्ट्रीय सम विकास योजना
यह योजना वर्ष 2003-04 के दौरान योजना आयोग द्वारा शुरू की गई। इस योजना के तीन अंग हैं- (1) बिहार के लिए विशेष योजना (2) उड़ीसा के ज्ञठज्ञ (कालाहांडी -बोलंगीर- कोरापुट) जिलों के लिए विशेष (3) पिछड़े जिलों के लिए पहल। इस कार्यक्रम की वित्त व्यवस्था केन्द्र सरकार द्वारा की जाती है। क्रियान्वयनकत्र्ता राज्यों को शत-प्रतिशत अनुदान के रूप में सहायता दी जाती है।
पिछड़े जिलों के लिए पहल के दायरे में 100 पिछड़े जिले आते हैं। उत्तर प्रदेश में 21 जिले (रायबरेली, हरदोई, सोनभद्र, उन्नाव, सीतापुर, फतेहपुर, बांदा, चित्रकूट, मीरजापुर, बाराबंकी, चन्दौली, महोबा, प्रतापगढ़, जालौन, हमीरपुर, जौनपुर, कौशाम्बी, ललितपुर, कुशीनगर, गोरखपुर, आजमगढ़) शामिल है। जिनका चयन पिछड़ापन सूचकांक के आधार पर तीन पैरामीट्र्स पर किया जाता है। (1) अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या के आधार पर गरीबी के आंकड़े (2) प्रतिश्रमिक कृषि उत्पादकता (3) कृषि मजदूरी की दरें। जिनका प्रभारी जिले के जिलाधिकारी होता है। जिले को तीन वर्ष तक 15 करोड़ प्रति वर्ष दिया जाता है। इसके अन्तर्गत सर्वऋतु सड़कों का निर्माण, पुलिया निर्माण, स्कूल/कालेज की बाउन्ड्रीवाल का निर्माण, कम्प्यूटर कक्षों का निर्माण, स्वच्छ पेयजल के ओवरहैड टैक का निर्माण, तालाबों की खुदाई का कार्य, नहरों की क्षमता वृद्धि, अस्पताल भवन का निर्माण, पोस्टमार्टम भवन का निर्माण, आंगनवाडी केन्द्र, सोलर स्ट्रीट लाईट का निर्माण, विद्युत उपकेन्द्रों का निर्माण, कृषि विकास से सम्बन्धित परियोजनायें, पम्पिंग कैनाल का निर्माण आदि कार्य निर्धारित हैं।

विधायक निधि
यह योजना उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 1998-99 में प्रारम्भ की गयी। इस योजना का उद्देश्य क्षेत्र का सन्तुलित विकास करते हुए जनता की विभिन्न कार्यो की तत्कालिक माँग की पूर्ति करना है, प्रारम्भ में विधायक निधि 1998-99 में 25 लाख निर्धारित था जो 1999-2000 में बढ़ाकर 50 लाख, तथा 2001-2002 में 75 लाख किया गया। पुनः 2004-05 में बढ़ाकर 1 करोड़ कर दिया गया था।
समग्र ग्राम विकास योजना
प्रदेश के ग्रामों के सर्वांगीण एवं बहुआयामी विकास हेतु 09.12.2003 से 70 जिलों में यह योजना लागू किया गया था। ग्राम विकास विभाग द्वारा ग्रामों में तीन कार्यक्रमों स्वर्णजयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना, इन्दिरा आवास योजना एवं स्वच्छ पेयजल योजना का संचालन किया जा रहा है।
1. स्वर्णजयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना
वर्ष 2004-05 में 4039 गाँवों में 34102 स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराने का लक्ष्य निर्धारित किया जिसमें 4028 गाँवों में 34032 व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध कराया गया। 2005-06 में 4158 गाँवों में 32494 स्वरोजगार के जगह 4005 ग्रावों में 31221 व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध कराया गया जबकि 2006-07 में 5084 गाँवों में 41080 स्वरोजगार उपलब्धता का लक्ष्य निर्धारित किया गया जिसमें 1411 गाँवों को 14367 व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध कराया गया।
2. इन्दिरा आवास योजना
गरीबों का आवास उपलब्ध कराने के लिए 2004-05 में 4580 गाँवों में 125271 आवासों का लक्ष्य निर्धारित किया गया जिसमें 4503 गाँवों में 114956 आवासों का निर्माण हो चुका। 2005-06 में 4439 गाँवों में 116576 आवासों के लक्ष्य के सापेक्ष 3979 गाँवों में 92096 आवासों का निर्माण हो चुका है। 2006-07 में लक्ष्य 4946 ग्रामों में 121276 आवासों के निर्माण का लक्ष्य के सापेक्ष 661 गाँवों में 20626 आवासों का निर्माण हो चुका है।
3. स्वच्छ पेयजल योजना
ग्रामीणों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए वर्ष 2004-05 में 368 गाँवों में 1313 इण्डिया मार्का-2 हैण्डपम्पों की स्थापना के लक्ष्य के सापेक्ष शतप्रतिशत ग्रामों 1313 हैण्डपम्प लगाकर पूर्ण लक्ष्य प्राप्त किया। जबकि 210 गाँवों में 544 इण्डिया मार्का हैण्डपम्प लगाने का लक्ष्य रखा गया था जो कि शत प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त किया गया जबकि 2006-07 में 139 गाँवों में 310 हैण्डपम्प लगाने का लक्ष्य रखा गया जिसमें 99 ग्रामों में 189 हैण्डपम्प स्थापित कराये गये हैं।
उपर्युक्त आंकड़ों से स्पष्ट है कि योजनाओं की सफलता दर समय के साथ घटती गयी है। प्रारम्भ में योजनायें ठीक ढंग से चली जबकि बाद में अपने लक्ष्य से भटकती हुई लग रही है।
नक्सल प्रभावित समग्र ग्राम विकास योजना
पूर्वी उत्तर प्रदेश के 4 मण्डलों (आजमगढ़, वाराणसी, मीरजापुर एवं गोरखपुर) के 8 जिले (मऊ, बलिया, गाजीपुर, चन्दौली, मीरजापुर, देवरियां, कुशीनगर एवम् सोनभद्र) के अन्तर्गत कुल 679 चिन्हित नक्सल प्रभावित ग्रामों में 2005-06 समग्र ग्राम्य विकास योजना लागू है। इस योजना के अन्तर्गत चिन्हित ग्रामों में ग्राम्य विकास विभाग द्वारा संचालित तीन कार्यक्रमों-स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना, इन्दिरा आवास योजना एवं स्वच्छ पेयजल योजना को शामिल किया गया है। जिससे इन क्षेत्रों के विकास की गति अत्यधिक तीव्र किया जा सके।
1. स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना
2005-06 में निर्धारित लक्ष्य 205 गाँवों में 3420 व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध कराया गया जबकि 2006-07 में निर्धारित लक्ष्य 400 गाँवों में 3439 स्वरोजगार के सापेक्ष 249 गाँवों में 1384 व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध कराया गया।
2. इन्दिरा आवास योजना
2005-06 में 248 गाँवों में 9365 आवास निर्माण के लक्ष्य के सापेक्ष 249 गाँवों में 8322 आवासों का निर्माण किया गया जबकि 2006-07 में 427 गाँवों में 19123 आवासों के निर्माण के लक्ष्य के सापेक्ष 83 ग्रामों में 3783 आवासों का निर्माण किया गया। जो लक्ष्य से बहुत ही कम है।
3. स्वच्छ पेयजल योजना
2005-06 में निर्धारित लक्ष्य 157 गाँवों में 444 इण्डिया मार्का-2 हैण्डपम्पों की स्थापना का लक्ष्य शतप्रतिशत प्राप्त किया गया जबकि 2006-07 में 377 गाँवों में 1077 हैण्डपम्प लगाने का लक्ष्य रखा गया जिससे 186 गाँवों में 873 हैण्डपम्प स्थापित किया गया। जो लक्ष्य का 80 प्रतिशत है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है। कि स्वतंत्रता के पहले और स्वतंत्रता के बाद प्रदेश के विकास में अनेक प्रयास किये गये हैं। लेकिन इधर कुछ वर्षो में विशेष योजनायें चलायी गयी हैं। जिससे कृषि, उद्योग, स्वास्थ्य संचार, यातायात और अर्थव्यवस्था आदि सभी क्षेत्रों में काफी तीव्र गति से विकास हुआ है। पिछले 60 वर्षो में उत्तर प्रदेश, उत्तम प्रदेश बनने के पथ पर अग्रसर हुआ है, और विकास को प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक गाँव और व्यक्ति तक पहुचाने के लिए बड़ी-बड़ी पंचवर्षीय योजनायें चलाई गई तथा प्रदेश के अत्यधिक पिछड़े जिले सोनभद्र, आजमगढ़, रायबरेली, बलिया, चन्दौली, मीरजापुर आदि जिलों को मुख्य धारा में लाने के लिए करोड़ों रुपया व्यय किया जा रहा है। तथा वहाँ स्कूलों, सड़कों, आवास, पेयजल, विजली जैसी मूलभूत सूविधाओं को काफी मात्रा में पहुचाने में सफलता भी मिली है। केन्द्र और प्रदेश सरकार द्वारा संचालित राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम तथा स्वर्ण-जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना प्रदेश के पिछड़े इलाकों में एक नई किरण बन कर आयी है। जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होने की सम्भावनायें बढ़ गयी है। तथा शहरों के तरफ इनका पलायन भी रुक गया है। युवाओं में स्वरोजगार की भावना भी उत्पन्न हुई है जिससे आत्म निर्भरता आयी है। और ये बेरोजगार युवक स्वयं के विकास के साथ-साथ समाज, प्रदेश और देश के विकास में भी सहायता प्रदान करेंगे। उपर्युक्त कार्यक्रम और योजनाओं ने प्रदेश में आधारभूत संरचना को मजबूत बनाने का प्रयास किया है। लेकिन प्रशासनिक लापरवाही, अधिकारियों, कर्मचारियों का असहयोगात्मक रवैया तथा भ्रष्टाचार पूर्ण व्यवहार इन योजनाओं में बाधक हैं। उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उपर्युक्त योजनाओं को ईमानदारी से लागू किया जाय तभी उद्देश्य को प्राप्त कर पायेंगे।

सन्दर्भ-सूची

1. भारत (2008) जनसंख्या, ग्रामीण विकास, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार।
2. उत्तर प्रदेश (2007) सूचना जन सम्पर्क विभाग, उत्तर प्रदेश लखनऊ।
3. ग्रामीण योजनाओं की सफलता, ग्राम्य विकास विभाग, उत्तर प्रदेश शासन (2006-2007)।
4. Govind Sahay Committee: Report of the Govind Sahay Committee, in Kurukshetra, March: 1961
5. Weber, Max:, From Max Weber: Essays in Sociology Trorslated by Girth, H.S. , Mills C. wright. London Oxford university Press, (1946)
6. "Mukherjees B. Community Development in india" Bombay Orient Longmans, 1961.

भारतीय लोकतंत्र में सूचना का अधिकार: समस्याएं एवं समाधान


प्रदीप कुमार जायसवाल
शोध छात्र, राजनीतिविज्ञान विभाग,
काशी हिन्दू वि0वि0, वाराणसी।

                  भारतीय लोकतन्त्र में आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि जनता के इस शासन में जनता को अधिक से अधिक कैसे भागीदार बनाया जाएं ? स्वाधीनता के बाद भारतीय लोकतन्त्र में जनता को दो बड़े अधिकार मिले-पहला, जनहित याचिका दायर करने की और दूसरा, सूचना का अधिकार, जो पहले अधिकार से भी बड़ा है। भारतीय संसद ने मई, 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम पारित किया, जून 2005 में राष्ट्रपति ने इसे स्वीकृति प्रदान की और 12 अक्टूबर, 2005 से यह पूरी तरह अमल में आ गया। यह अधिनियिम लोकतन्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने का प्रयास कर रहा है। यह एक ऐसा व्यापक कानून है, जो सरकारी अधिकारियों से सूचना प्राप्त करने के लिए नागरिकों को वैधानिक अधिकार प्रदान करता है जिसके कारण शासन में पारदर्शिता एवं उत्तरदायित्व की भावना पनप रही है। आज के लोकतंत्रीय देश मुक्त तथा पारदर्शी शासन पर अत्यधिक बल दे रहे हैं। सरकार में लोगों की सहभागिता को लोकतन्त्र का एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता है, लोगों की सहभागिता तब तक सुनिश्चित नहीं हो सकती जब तक कि उन्हें यह सूचना न हो कि सरकार क्या कर रही है और कैसे कर रही है? सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 केन्द्र और सभी राज्य सरकारों, स्थानीय सरकारी निकायों और कार्यपालिका के अतिरिक्त न्यायपालिका और विधायिका भी इसके अधिकार क्षेत्र में आती है। यह सरकार के स्वामित्व एवं नियन्त्रण वाले प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से वित्तपोषित निकायों और गैर सरकारी संस्थाओं पर भी लागू होता है। इस अधिनियम का उद्देश्य यह है कि पूरी सूचनाएं आसानी से उपलब्ध हो तथा प्रत्येक जन सूचना अधिकारी द्वारा नियमित अन्तराल पर लोगों को सूचनाएं प्रदान की जाएं । शासन की भागीदारी किसी भी सफल लोकतन्त्र का मूलमन्त्र है। नागरिकों के रूप में हमें केवल चुनावों के वक्त ही नहीं बल्कि नीतिगत निर्णयों, कानूनों और योजनाएं बनाएं जाने के वक्त और परियोजनाओं तथा गतिविधियों का कार्यान्वयन करते समय भी दैनिक आधार पर भागीदारी करने की जरूरत होती है। जनसहभागिता न केवल शासन की गुणवत्ता में वृद्धि करती है, वह सरकार के कामकाज में पारदर्शी और जवाबदेही को भी बढ़ावा देती है पर हकीकत में नागरिक शासन में भागीदारी कैसे कर सकते हैं ? जनता कैसे समझ सकती है कि फैसले कैसे लिए जा रहे हैं ? साधारण लोग कैसे जाने कि कर(टैक्स) से आये पैसे को कैसे और कहाँ खर्च किया जा रहा है या सार्वजनिक सेवाएं सही तरीके से चलायी जा रही हैं या नहीं या निर्णय लेते समय सरकार ईमानदार और निष्पक्षता से काम कर रही है या नहीं ? सरकारी अधिकारियों का काम जनता की सेवा करना है,पर इन अधिकारियों को जनता के प्रति जवाबदेह कैसे बनाया जाएं ?
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 लागू हो जाने के बाद भारत के सभी नागरिकों को सूचनाएं मांगने का अधिकार है। यह अधिनियम इस बात को मान्यता देता है कि भारत जैसे लोकतन्त्र में सरकार के पास मौजूद सभी सूचनाएं अन्ततः जनता के लिए एकत्रित की गयी है। जनता को जानने का अधिकार है कि सार्वजनिक अधिकारी उनके पैसे और नाम पर क्या कर रहे हैं ?
भारत में अभी तक गोपनीयता सभी सरकारी संस्थाओं के कामकाज में व्याप्त रही है, लेकिन सूचना का अधिकार अधिनियम के साथ ही यह पासा पलटने लगा है। जहाँ शासकीय गोपनीयता अधिनियम,1923 में सूचना को सार्वजनिक करने को एक दण्डनीय अपराध की श्रेणी में रखा गया था, वहीं सूचना का अधिकार अधिनियम अब सरकार में खुलेपन की मांग करता है। पहले सरकार के पास मौजूद सूचनाओं को जनता को उपलब्ध कराना एक दुर्लभ अपवाद हुआ करता था जो आम तौर पर किसी लोक प्राधिकरण के अधिकारियों की इच्छाओं पर निर्भर करता था लेकिन अब सूचना का अधिकार अधिनियम ने सभी नागरिकों को शासन और विकास में अपने जीवन को प्रभावित करने का अधिकार दे दिया हैं। यह अधिनियम अधिकारियों के द्वारा अपने भ्रष्ट तौर -तरीकों पर पर्दा डालने को ज्यादा मुश्किल बना देता है। सूचनाओं तक पहुँच के कारएा खराब नीति -निर्माण प्रक्रिया को उजागर करने में मदद मिलेगी और इससे भारत के राजनीतिक ,आर्थिक और सामाजिक विकास में नवजीवन का संचार होगा।
समस्याएं
सूचना का अधिकार को लागू करके सरकार ने आम जनता के हाथ में ऐसा यन्त्र प्रदान किया है जिसके द्वारा न केवल भ्रष्टाचार समाप्त होगा बल्कि अफसरशाही को भी अपना अडि़यल रवैया छोड़कर जनता के सामने झुकना पड़ेगा और उन्हें वांछित सूचनाएं प्रदान करनी पड़ेगी। इस कानून की उपयोगिता को लेकर कोई सन्देह नहीं फिर भी इस कानून को व्यवहारिक रूप में लागू करने में कुछ कठिनाइयां सामने आयेगी, जिनका विवरण निम्न हैं:
सबसे पहली सम्भावित समस्या यह है कि इस कानून के लागू हो जाने से लोक सूचना अधिकारियोें के पास इतनी ज्यादा संख्या में सूचना पाने सम्बन्धी आवेदन दिये जाएंगे कि परिणामस्वरूप प्रशासकीय कार्य प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पायेगा। यह भी हो सकता है कि कुछ व्यक्ति पूर्णतया अनावश्यक व निरर्थक सूचनाओं की मांग करने लगे । एक और समस्या है कि हमारे देश में जहाँ भ्रष्टाचार का बोलबाला है और सरकारी दफ्तरों में बिना मुट्ठी गर्म किए काम ही नहीं बनते व अधिकारियों में पूरी निष्ठा से , ईमानदारी से व पारदर्शिता के साथ काम करने की कमी पायी जाती है, ऐसी परिस्थिति मे इस कानून को व्यवहारिक रूप में लागू करना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव भी है। सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के कुछ एक प्रावधान असंगत एवं गैर कानूनी हैं कि सूचना के अधिकार के प्रावधानों के अन्तर्गत कोई गैर-सरकारी संगठन, ट्रस्ट, सोसाइटी, कोई अन्य संस्था सूचना के लिए आवेदन नहीें कर सकती। यह गैर - कानूनी है व इन संस्थाओं के मौलिक अधिकारों के विरूद्ध है। अधिनियम के अन्तर्गत सूचना प्राप्त करने की अधिकतम फीस दस रूपये निर्धारित की गई है। परन्तु कई राज्य सूचना प्रदान करने के लिए पाँच सौ रूपये तक अधिकतम फीस वसूल कर रहे है। उदाहरण के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा सूचना प्रदान करने पर पाँच सौ रूपये शुल्क निर्धारित किया गया है। हरियाणा मे सूचना शुल्क पचास रूपये निर्धारित किया गया हे जो कि एक आम आदमी के लिए अदा करना विचारणीय होता है। इस अधिनियम के अन्तर्गत यह प्रावधान है कि यदि कोई अधिकारी सूचना प्रदान करने कोई कोताही बरते तो उस पर 250 रूपये प्रतिदिन के हिसाब से जुर्माना किया जाता है परन्तु कुछ राज्यों में सूचना उपलब्ध न करवाने की दशा में अधिकारियों पर केवल 50 रूपये प्रतिदिन के हिसाब से दण्ड लगााया जाता है जो इस बात को स्पष्ट करता है कि इन राज्यों की सरकारें इस अधिनियम को प्रभावशाली ढ़ग से लागू करने के बजाय सरकारी अधिकारियों के कल्याण के बारे में ज्यादा चिन्तित हैं। इस अधिनियम की सबसे बड़ी खामी यह है कि यदि किसी व्यक्ति को किसी विभाग से किसी विषय पर एक से अधिक वर्ष की जानकारी प्राप्त करनी है तो उसे प्रत्येक वर्ष की सूचना प्राप्त करने के लिए प्रत्येक वर्ष के लिए अलग-अलग प्रार्थना पत्र देने पड़ते हैं और प्रत्येक वर्ष के लिए अतिरिक्त फीस अदा करनी पड़ती है जो कि न्यायोचित नहीं है।
हमारे देश में जहाँ काफी लोगों की आधारभूत आवश्यकताएं पूरी नहीं होती, वे अशिक्षित व गरीब है तो हम कैसे मान लें कि लोग अधिकार के प्रति गम्भीर होकर इसका लाभ उठाएंगे। लोगों को शिक्षित एवं जागरूक किए बिना इस कानून को प्रभावशाली ढंग से लागू नहीं किया जा सकता।
समाधानः
इस कानून को प्रभावशाली ढंग से लागू करने के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता यह है कि विभिन्न सरकारी अधिकारियों को नैतिक शिक्षा प्रदान की जाएं। जब अधिकारी भौतिकवाद से आध्यात्मवाद की ओर अग्रसर होगें तो वे स्वतः ही अपने आप को जनता का सेवक समझने लगेंगे, और अपने कर्तव्य का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी व पारदर्शिता के साथ करेंगे। मेरा विचार यह है कि लोक सूचना अधिकारी के अधीन पर्याप्त अधिकारियों की नियुक्ति किया जाय जिससे सूचना पाने सम्बन्धी अधिक आवेदन आने पर भी प्रशासकीय कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। सूचना के अधिकार के बारे में सम्बन्धित अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे जनता को समय पर सूचना प्रदान कर पाएं और जिससे यह कानून प्रभावशाली ढंग से लागू हो पाए। इस अधिनियम के तहत सूचना प्राप्त करने के लिए फीस अदा करने के तरीके को और सरल बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए और इसके साथ ही यदि किसी व्यक्ति को किसी विभाग से एक से अधिक वर्षों की जानकारी प्राप्त करनी हो तो उसे केवल एक ही आवेदन पत्र देना पड़े और उसे प्रत्येक वर्ष के लिए अतिरिक्त शुल्क अदा न करनी पड़े । केन्द्र सरकार का भी यह कर्तव्य है कि वह सभी राज्यों को निर्देश दे कि सभी एक समान शुल्क वसूल करें ।
इस अधिनियम को प्रभावशाली ढ़ग से लागू करने के लिए आवश्यक है कि लोगों को इस अधिकार के बारे में जागरूक किया जाय । लोगों को जागरूक बनाने के लिए इस बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए। इस कार्य के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार के द्वारा विशेष संगोष्ठियों का आयोजन किया जाना चाहिए और ये संगोष्ठियंा गांवों में समूह बनाकर आयोजित किया जाना चाहिए । इस कार्य को और प्रभावशाली बनाने के लिए युवा संगठनों, स्वंय सेवी संगठनों तथा अन्य शिक्षित व्यक्तियों विशेषकर सेवानिवृत्त लोगों की सेवाएं लेना उचित होगा। जागरूकता की इस प्रक्रिया को निरन्तर आगे बढ़ाने के लिए दूरदर्शन, रेडियो , समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं के माध्यम से सूचना के अधिकार के बारे में जानकारी देने के बारे में विशेष प्रयत्न किए जाने चाहिए। सूचना के अधिकार के विभिन्न प्रावधानों जो कि कठिन तथा समझ से परे है उन्हें विशेष तौर पर साधारण भाषा में स्थानीय आवश्यकताओं को ध्याान में रखते हुए लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाना चाहिए। यदि कोई अधिकारी इस अधिकार के प्रावधानों की अवहेलना करता है तो उसके विरूद्ध दण्डात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए और पारदर्शिता लाने की इस प्रक्रिया को बिना रोक टोक के आगे बढ़ाना चाहिए। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे अभिकरण जिन पर इस अधिनियम को लागू करने का दायित्व है उन्हें धन तथा सुविधाओं की कमी न हो ताकि वे पूर्ण क्षमता के साथ कार्य कर सकें। लोक प्राधिकरणों को भी सब कुछ व्यवस्थित करने तथा प्रकाशित करने के लिए कुछ अधिक व्यय करना पड़ेगा। योजना आयोग को इन पर आने वाले व्यय का अनुमान लगाना चाहिए तथा तद्नुसार प्रत्येक वर्ष बजट में इसकी व्यवस्था करनी चाहिए। वर्तमान में सूचना का अधिकार अधिनियम में न्यायिक विवाद अथवा मुकदमा उत्पन्न होने पर निर्णय सम्बन्धी कोई प्रावधान नहीं है, यदि कोई वाद न्यायालय तक पहुँच जाता हैैै। यदि ऐसा होता है तो वाद खिंचता चला जायेगा और अन्ततः इससे हानि आवेदक को ही होगी।
आज सूचना का अधिकार लागू हो गया है इसकी सफलता की प्रमुख चुनौती इसे लागू करने में बदलाव की है। सभी अधिकारियों सहित जनता को सूचना के आदान-प्रदान के लिए प्रेरित तथा प्रोत्साहित करना सबसे बड़ी चुनौती है। अतः उनके अन्दर शिक्षा एवं जागृत पैदा करना आवश्यक है। सूचना का अधिकार जनता का अधिकार है जब तक जनता इस अधिकार का प्रयोग नहीं करेगी तब तक यह कागजी ही बना रहेगा। यह कहा जा सकता है कि सूचना के अधिकार का क्रियान्वयन भारतीय जनतन्त्र की परिपक्वता की सिद्धि में एक सशक्त कदम होगा।
सूचना के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गयी है। जो कि सभी व्यक्तियों के अन्तर्निहित गौरव से निकट रूप से जुड़ा है। सूचना की स्वतन्त्रता, जिसके अन्तर्गत लोक निकायों में निहित सूचना को प्राप्त करने का अधिकार सन्निहित है, जो न केवल लोकतन्त्र, जवाबदेही तथा प्रभावी सहभागिता के लिए निर्णायक माना गया है वरन् इसे एक मौलिक मानवाधिकार भी माना गया है जो कि अन्तर्राष्ट्रीय तथा संवैधानिक कानून द्वारा रक्षित है। अतः स्पष्ट है कि सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों व मानवीय अधिकारों का ही व्यवहारिक व लोकतांत्रिक विस्तार है।
सूचना के अधिकार का प्रजातांत्रिक प्रक्रियाओं के पोषण करने तथा सम्वर्धित करने की दिशा में विशेष योगदान है। सुशासन, पारदर्शिता, दायित्व-निर्धारण और भागीदारी को सुनिश्चित करने में और भ्रष्टाचार के निवारण में इसकी व्यापक भूमिका है। एक विकसित प्रजातांत्रिक व्यवस्था के लिए सूचना का अधिकार निश्चय ही अपरिहार्य है। राजनितिज्ञों, अधिकारियों तथा प्रशासन से जुडे़ व्यक्तियों के कार्य कलाप के विषय में सूचना के आधार पर समाज में संवेदनशीलता और सक्रियता बढ़ेगी। जनता में सूचना के प्रसार से उसकी, देश के विकास कार्यों में भागीदारी भी निश्चित रूप से बढेगी। अब तक सूचना केवल विशिष्ट लोगों की थाती रही है और उसका उपयोग भेदभाव को बढ़ाने में ही अधिक होता रहा है। राज्य के शासन और जनता के बीच के सेतु के रूप में सूचना का अधिकार भविष्य में सामाजिक और प्रशासनिक विकास के व्यापक आधार को बल दे सकेगा। सूचना का अधिकार अपने प्रभावी रूप में समाज को सशक्त बनाता है और देश के विकास में सजग और सक्रिय भागीदारी का अवसर उपलब्ध कराता है। आवश्यक है कि इस अधिकार के उपयोग की उचित व्यवस्था हो और निगरानी भी होे। तकनीकी प्रगति के वर्तमान युग में जिसे ‘सूचना का युग’ भी कहा जाता है। भारत सूचना के अधिकार को अमली जामा पहना कर प्रजातंत्र के एक नए चरण में प्रवेश कर रहा है। आशा की जाती है कि इस पहल से प्रजातंत्र की जड़ें और भी मजबूत होगी।

सन्दर्भ सूची:

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12ण् अमर उजाला, 16 जुलाई,2007, नई दिल्ली

भारत में आतंकवाद और आतंकवाद के कारण उत्पन्न समस्या


राजीव कुमार
शोध छात्र, राजनीति विज्ञान विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।

                 विश्व में आतंकवाद का इतिहास काफी पुराना है। अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में आतंकवाद का जन्म द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् शीतयुद्ध के समय हुआ, जब अमेरिका एवं सोवियत संघ अपने विरोधी खेमों के देशों मंे वहां के विद्रोही संगठनों या बाहर के असैनिक दस्तों का समर्थन करते थे। वर्तमान मंे आतंक का पर्याय अलकायदा, जैश-ए-मोहम्मद, मुजाहिद्दीन आदि संगठन शीतयुद्ध की पृष्ठभूमि का परिणाम है।
आतंकवाद का सर्वप्रथम प्रयोग ब्रसेल्स मंे दण्ड विधान को समेकित करने के लिए 1931 मंे बुलाए गये तीसरे सम्मेलन मंे किया गया जिसके अनुसार आतंकवाद का अर्थ, ‘‘जीवन, भौतिक अखण्डता या मानव स्वास्थ्य को खतरे में डालने वाला या बड़े पैमाने पर सम्पत्ति को हानि पहुंचाने वाला कार्य करके जान-बूझकर भय का वातावरण उत्पन्न करना है। जबकि धार्मिक आतंकवाद की उत्पत्ति इजराइल के एक संगठन ‘हागानार’ जिसकी स्थापना इजराइल के उदय से पूर्व 1920 मंे हुई थी, से हुई है। इस संगठन को आधुनिक धार्मिक आतंकवाद का पितृ संगठन माना जाता है। साधारणतया आतंकवाद का अभिप्राय आतंक उत्पन्न करने के पीछे किसी संगठन या समूह का कोई निश्चित लक्ष्य ग्रुप कार्यवाहियों द्वारा प्राप्त करना होता है। यह लक्ष्य राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक  व व्यक्तिगत भी हो सकता है। आतंकवाद मंे ऐसे बर्बर हिंसक तरीकों को अपनाया जाता है जिन्हें आज के सभ्य मानवतावादी समाज मंे स्वीकार नहीं किया जाता है। संक्षेप मंे आतंकवाद एक ऐसा आपराधिक कृत्य है जो किसी राज्य के विरुद्ध होता है तथा जिसका उद्देश्य कुछ खास लोगों या सामान्य जनमानस के मन मंे भय या आतंक पैदा कर किसी निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति करना होता है। यह आतंकवाद किसी भी समुदाय द्वारा हो सकता है जैसे श्रीलंका मंे तमिल विद्रोही, भारत मंे पंजाब मंे सिक्ख, पूर्वोत्तर राज्यों मंे जनजातीय आतंकवाद, कश्मीर में इस्लामिक आतंकवाद आदि।
जहां तक भारत में आतंकवाद के प्रारम्भ होने का प्रश्न है तो इसकी शुरुआत पाकिस्तान के अलग होने के साथ ही शुरु हो गयी। तब से आज तक पाकिस्तान द्वारा आतंकवादी गतिविधियों को प्रश्रय दिया जाता रहा है। आज भारत मंे आतंकवादियों की जो गतिविधियां जारी है उसके केन्द्र में जम्मू-कश्मीर रहा है जिस पर पाकिस्तान की शुरु से ही कु-कृपादृष्टि रही है। आज तक भारत और पाकिस्तान के बीच जितने भी युद्ध हुए हैं उसमें एक युद्ध को छोड़कर शेष सभी युद्ध आतंकवाद के रूप मंे शुरू हुई हैं। जब पाकिस्तान युद्ध में सफल नहीं हुआ तो उसने छद्म युद्ध का सहारा लेना प्रारम्भ कर दिया और आतंकवाद को बढ़ावा दिया। आज भारत मंे जितने भी आतंकवादी संगठन हैं और आतंकवादी घटनाएं होती रही हैं उसको पाकिस्तान का शह प्राप्त होता है। चाहे पंजाब मंे जारी रहा सिक्ख आतंकवाद हो, या असम, मणिपुर तथा अन्य पूर्वाेत्तर राज्यों मंे जारी आतंकवाद हो, या 13 दिसम्बर 2001 की संसद पर हमला हो या 2005 वाराणसी मंे मन्दिरों और रेलवे स्टेशनों पर हुआ हमला हो या श्रमजीवी एक्सप्रेस मंे हुआ विस्फोट हो, या हाल मंे 26 दिसम्बर 2008 को बाम्बे मंे ताज, ओबेराय, नरीमन होटल तथा शिवाजी टर्मिनल स्टेशन पर हुआ हमला हो। सभी को पाकिस्तान का शह प्राप्त रहा है-
आज भारत के सामने इन आतंकी घटनाओं और आतंकवाद से अनेक तरह की चुनौतियाँ उत्पन्न हुई है जो इस प्रकार है-
1. धार्मिक, सांस्कृतिक एकता को चुनौती:- आतंकवादी न केवल हिंसा और आतंक फैलाते हैं बल्कि उसके साथ-साथ आर्य-द्रविड़ संस्कृतियों के आधार पर उत्तर और दक्षिण मंे वैमनस्य पैदा कर रहे हैं। हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म के क्रमशः मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघर को अपवित्र करके एक दूसरे समुदाय के बीच सांप्रदायिक दंगे उत्पन्न करते हैं। इससे हमारी राष्ट्रीय एकता कमजोर होती है। 2006 मंे अक्षरधाम मंे स्वामी नारायण मंदिर पर हमला, 2006 मंे बनारस मंे संकटमोचन मंदिर पर हमला कर हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक एकता को तोड़ने का प्रयास किया गया।
2. पृथक्तावाद के रुप मंे राष्ट्रीय एकता की समस्या:- भारत आजादी के बाद एक सम्प्रभु सम्पन्न राष्ट्र बना। परन्तु उसकी सम्प्रभुता को चुनौती देते हुए उत्तर पूर्व में उल्फा आतंकवादियों ने आतंकवादी घटनाओं को प्रश्रय दिया और आज भी दे रहे हैं। पंजाब मंे पृथकतावाद खालिस्तान की मांग को लेकर उत्पन्न हुआ तो कश्मीर मंे आतंकवाद स्वतंत्र कश्मीर की मांग को लेकर उभरा। आज इन सभी क्षेत्रों मंे जो आतंकवादी घटनाएं हो रही हैं और आतंकवादी संगठन सक्रिय है वह पृथक क्षेत्र की मांग और क्षेत्रीय असंतोष को लेकर है और यह पृथकतावाद हमारी एकता और अखण्डता को चोट पहुुंचा रहा है। असम में 1992-2000 के बीच 3348 आतंकवादी, 954 नागरिक और 1380 सुरक्षा बल के जवान मारे गये थे, त्रिपुरा मंे 1992-2003 के बीच 2239 आतंकवादी, 465 नागरिक और 300 सुरक्षाकर्मी मारे गये थे। इस प्रकार पृथकतावाद के रुप मंे हो रहे ये आतंकवादी घटनाएं हमारी एकता और अखण्डता को दिनों दिन कमजोर करती जा रही हैं।
3. संसदीय और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर चोट:-आतंकवादी संसदीय और लोकतांत्रिक व्यवस्था, राष्ट्र की संप्रभुता को खतरा पहुंचा रहे हैं। 13 दिसम्बर 2001 को संसद पर आतंकवादी हमला हुआ। जहां देश के लगभग 545 नेता, नीति-निर्माता एवं देश के विकास को आगे ले जाने वाले, बैठे थे। यह न केवल देश की संसदीय और लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त करने का प्रयास था बल्कि देश की आंतरिक सुरक्षा पर खतरा था।
4. आर्थिक विकास मंे बाधक:-आतंकवादी घटना के बाद करोड़ों रुपये की क्षति होती है। आये दिन ट्रेनों में, स्टेशनों पर आतंकी विस्फोट होता है जिससे रेलवे को भारी क्षति उठानी पड़ती है। रेलवे को क्षति होने से माल ढुलाई प्रभावित होती ह,ै जिससे उद्योग-धंधे के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
5. भारत की बौद्धिकता को खतरा:-आतंकवाद न सिर्फ देश को आर्थिक नुकसान पहुंचाते हैं बल्कि देश के योग्य कुशल वैज्ञानिकों को भी अपना निशाना बना रहे हैं। हाल ही मंे 2006 मंे बंगलौर मंे हुए आतंकी हमले मंे वैज्ञानिक का मारा जाना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
6. अवैध हथियारों एवं नशीले पदार्थों की तस्करी से आंतरिक सुरक्षा को खतरा:-आतंकवादी पैसे की कमी को पूरा करने और आतंक फैलाने के लिए अवैध एवं घातक हथियारों जैसे ए.के. 47, ए.के. 56 आदि की तस्करी करते हैं। इन हथियारों की अवैध तस्करी से देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त कोकिन, हेरोइन, चरस आदि नशीले पदार्थों की अवैध कमाई के लिए तस्करी करते हैं जो देश की युवा पीढ़ी को बरबाद करती है।
7. पर्यटन उद्योगों को खतरा:- 26 दिसम्बर 2008 को मुम्बई मंे होटलों पर हुए हमलों से पर्यटन उद्योग को क्षति पहुंची है। क्योंकि इन होटलों पर हमला कर वहां ठहरे विदेशी पर्यटकों मंे से कई को मार दिया गया जिससे विदेशी पर्यटकों में भय व्याप्त हो गया है और वे भारत आने से कतराने लगे हैं। जबकि मुम्बई, गोवा, आगरा, वाराणसी, बोधगया आदि जैसे भारतीय शहर विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण के केन्द्र रहे हैं। यदि इसी तरह इन शहरों पर हमला होता रहा तो भारत का पर्यटन उद्योग काफी हद तक अपनी प्रतिष्ठा खो देगा। जो न केवल भारतीय पर्यटन बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था को भी हानि पहुंचेगा।
इस प्रकार भारत के सामने आतंकवाद से उत्पन्न ये कुछ प्रमुख चुनौतियाँ हैं जिनसे भारत को बहुत जल्द से जल्द निपटना होगा नहीं तो भारत को आगे आने वाले समयों मंे एक और विभाजन के रूप मंे बड़ा बलिदान देना होगा।
जब तक कि समस्त राष्ट्र अहिंसा एवं शांतिपूर्ण विश्व के मूल्य को न समझे और सैनिक आक्रमण, अन्यायपूर्ण एवं दोहन करने वाली नीतियों का परित्याग न करें, सभ्यताओं के मध्य अच्छी भावनाओं को जब तक पनपाया नहंी जाए, विश्व मंे निराकरण, स्वतंत्रता आदि का जब तक आदर न करें। अपनी ही इच्छाओं को दूसरे पर लादने की प्रवृत्ति का त्याग न करें तब तक किसी भी प्रकार के आतंकवाद को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है।
अतः आवश्यकता इस बात की है कि इन चुनौतियों से निपटने के लिए न केवल भारतीय समुदाय, प्रशासन और सरकार को बल्कि पूरे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को मिलकर कार्य करना होगा क्योंकि उक्त समस्याएं उन राष्ट्रों मंे भी विद्यमान है जहां आतंकवादी घटनाएं हो रही हैं।
आतंकवाद से निपटने के लिए उपाय
1. आतंकवाद से निपटने के लिए स्थानीय लोगों की भागीदारी को बढ़ाया जाय।
2. सेना में आतंकी संगठनांे की सेंध के प्रयास को रोका जाए।
3. पाकिस्तान की भारत विरोधी गतिविधियांे को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय जनमत बनाया जाय।
4. पकड़े गये आतंकवादियों के खिलाफ दायर मुकदमों का निष्पादन त्वरित गति से किया जाय।
5. विश्व के सभी देश अपने हवाई अड्डों पर पुलिस की पुख्ता सुरक्षा, इंतजाम तथा प्रत्येक विमान के साथ कमांडों रखे।
6. विश्व के सभी देशों को इजराइल और पेरु की तरह सुपर फाइनर तकनीक को विकसित करना चाहिए।
7. विश्व मंे प्रत्येक देश सेना के तीनों अंगों को प्रयोग मंे लाएं।
8. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादियों के खिलाफ मंच तैयार करने की दिशा में दक्षेश देशों के बीच सहयोग प्रक्रिया शुरु होनी चाहिए।
9. प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपनी भूमिका सशक्त बनाना चाहिए। आतंकवाद और आतंकवादियों पर जब भी कोई कार्यक्रम प्रस्तुत हो उसकी प्रस्तुति और प्रकाशन, सही तथ्यों पर आधारित हो तथा उसमंे इससे निपटने के उपाय बताए जाने चाहिए।



संदर्भ ग्रंथ

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3. बी0 एल0 फाडिया, ‘‘भारतीय शासन और राजनीति’’, साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007।
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7- Naunihal Singh “The World of Terrorism”, New Delhi, South Asian Publishers, 1989.
8. प्रतियोगिता दर्पण, नवम्बर 2005।
9. योजना, अंक 11, फरवरी 2007।

बाजार, समाज और भूमंडलीकरण


बृजेश प्रताप सिंह
शोध छात्र, राजनीतिविज्ञान,
उ0प्र0 राजर्षि टण्डन मुक्त वि0वि0, इलाहाबाद |


प्राचीन काल से ही हमारे देश में आयोजित होने वाले मेलों में लोग दूर-दूर से आते थे और अपनी जरूरतों का सामान खरीदा करते थे। इन मेलों से खुदरा बाजार और लघु उद्योगों को प्रोत्साहन मिलता था। यह मेले उस काल खण्ड में वैश्वीकरण के स्थानीय संस्करण थे। जिसकी संस्कृति भारत में प्राचीनता से मौजूद थी। परन्तु कालान्तरण में बाजार ने श्रम विभाजन और विशेषीकरण को बढ़ावा दिया और धीरे-धीरे बाजार के विकास ने शहरों और शहरी सभ्यता को जन्म दिया। ऐसे में स्वावलम्बी कृषक परिवार समाज की बुनियादी इकाई के रहते हुए भी देशी बाजार जैसी बड़ी राष्ट्रीय ईकाइयों से जुड़ता गया और मानव सभ्यता के विकास के साथ अर्थ व्यवस्था या बाजार का स्वरूप और उसकी जरूरतें बदलती गईं। मुद्रा के जन्म, इसके स्वरूप तथा भूमिका में परिवर्तन तथा बैंकिंग व्यवस्था के विकास ने बाजार के विकास को त्वरित किया जिससे औद्योगिक पूँजीवाद के उदय के साथ ही बाजार, समाज के नियन्त्रण से बाहर ही नहीं हुआ बल्कि उस पर हावी भी हो गया। बाजार, ‘‘समाज में सन्निहित’’ न रहा और ‘‘समाज द्वारा विनियमित’’ न होकर अब ‘‘स्वविनियमित’’ हो गया।
आज जबकि हमारा देश वैश्विक पूँजीवादी व्यवस्था का एक हिस्सा है तथा यहाँ के शासक वर्ग आर्थिक सुधार की छत्रछाया में पूँजीवादी विकास के एक नये दौर, यानी वैश्वीकरण के रास्ते पर चल पड़े हैं। ऐसे में कुछ वर्जित सवालों का सामना करना और जवाब खोजना जरूरी हो गया है।
इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है कि हमारा देश 1947 से पहले भी विश्व बाजार अर्थव्यवस्था से अच्छी तरह जुड़ा हुआ था। हम तब भी वैश्वीकरण की गिरफ्त में थे जो साम्राज्यवाद के रूप  में मौजूद था और जिसे हम आज मध्य एशिया में तेल भण्डारों पर कब्जे के रूप में पहचान सकते हैं। किन्तु हमने इसके खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी। क्योंकि इसका मतलब साफ-साफ इंग्लैण्ड की समृद्धि और भारत की गरीबी से जुड़ा हुआ था। आज जो वैश्वीकरण पर सवार होकर आर्थिक विकास की बात कर रहे हैं, वे सही भी हो सकते हैं। मगर, पूँजीवादी आर्थिक विकास की संरचनात्मक तर्क संगति तो वही है जो हमेशा  रही है-अर्थ व्यवस्था अच्छी हालत में है, मगर जनता नहीं। यही स्थिति अभी है और रहेगी भी। केन्द्र से बहुत दूर परिधि पर पड़े लोगों की हालत तो शायद और भी खराब हो।
गौरतलब है कि भारत की आजादी के बाद यहाँ के शासकों ने समता तथा अनुपाती न्याय का वायदा करते हुए आत्मनिर्भर आर्थिक विकास की एक ‘‘राष्ट्रीय परियोजना’’ तैयार की। उन्होंने समाजवादी रास्ते पर चलने तक की बात की जिससे आर्थिक विकास तो हुआ पर जनसाधारण को कोई विशेष फायदा नहीं मिल पाया। जहाँ तक आर्थिक विकास की बात है तो उसकी प्राथमिकतायें स्पष्ट होनी चाहिए। जाहिर तौर पर इसे विश्व पूँजीवादी बाजार की जरूरतों तथा प्रभुत्व वर्गों के उपभोक्तावाद से नहीं, बल्कि भारतीय जनता की बुनियादी जरूरतों से सम्बद्ध होना चाहिए। इसका जनकेन्द्रित प्रबन्धन होना चाहिए।
औद्योगिक क्रान्ति के बाद यह माना जाने लगा कि बाजार को समाज के अधीन रखना तर्क संगत नहीं है उसे स्वविनियमित बाजार प्रणाली के तहत होना चाहिए। परन्तु आर्थिक प्रणाली के स्वतन्त्र इकाई के रूप में आने और अपने ही नियमों के अनुसार काम करने की क्षमता ने समाज को बाध्य कर दिया कि वह उसका अनुसरण करे। ऐसे में बाजार दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों को जन्म देते हैं, पहला यह कि बाजार की सीमाओं और परिधि को बढ़ाने की और दूसरा बाजार के क्षेत्र को कम कर लोगों की रक्षा करने की। ऐसे में स्वविनियमित बाजार से उत्पन्न होने वाले अनिश्चितता तथा उतार-चढ़ाव से समाज को बचाने के विकल्प तलाश किये जाने चाहिए जो विकासशील राष्ट्रों के शेयर बाजारों में उत्पन्न है।
वैश्वीकरण के युग में जब राष्ट्रीय सीमायें अर्थहीन हो गई हैं और राष्ट्र-राज्य की अवधारणा उपेक्षित हो गई है। भूमंडलीय बाजार के तर्क की माँग है कि सभी देश अपने दरवाजे वस्तुओं और पूँजी के उन्मुक्त प्रवाह के लिए खोल दें। उनके पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है जैसे-नाफ्टा और साफ्टा आदि। दावा किया जा रहा है कि ऐसा करने से पुराने झगड़े और प्रतिस्पर्धा समाप्त हो जायेगी। उनकी जगह सौहार्द आएगा तथा वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन तथा बेहतर प्रौद्योगिकी एवं व्यवसायिक संगठन के नए रूप ढूढ़ने के लिए मैत्रीपूर्ण होड़ होगी। इन सपनों के प्रति भी भारत सहित तमाम बाजारों में संशय है। इसी क्रम में जिस प्रकार राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्थायें सरकार की सक्रिय भूमिका पर निर्भर होती हैं उसी प्रकार भूंडलीकरण अर्थव्यवस्था को अंतिम ऋणदाता सहित शक्तिशाली विनियामक संस्थाओं की आवश्यकता है ऐसी संस्थाओं के न होने से अर्थव्यवस्था विशेष और वैश्विक बाजार को आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ेगा। मजदूर, खेतिहर और छोटे व्यवसायी आर्थिक संगठन के उस ढाँचे को वहन नहीं कर पायेंगे जिसमें उनकी दैनिक परिस्थितियों में समय-समय पर बड़े उतार-चढ़ाव हो। जो सामयिक मुद्रा स्फीति के उतार-चढ़ाव के सन्दर्भ में देखी जा सकती है। और इसी संकट में ऋणग्रस्त किसानों ने भारत के कई राज्यों में अपने असंतोष को व्यक्त करने के लिए आत्महत्या का रास्ता अपनाया है।
कहना न होगा कि बाजार की भूमिका में हुए मूलभूत रूपान्तरण को समझे बिना वर्तमान सामाजिक यथार्थ को समझ पाना बेहद जटिल है। इतना ही नहीं ‘‘वाशिंगटन आम राय’’ पर आधारित वर्तमान भूमण्डलीकरण की ठीक-ठीक पहचान भी नामुमकिन है।
यह कहना उचित नहीं होगा कि विकल्प नहीं है, विकल्प समाजवाद और उदारवादी लोकतन्त्र के संयोजन के आधार पर तैयार किया जा सकता है, इसके आधार पर देश के भीतर और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकार की भूमिका को बढ़ाना होगा और ‘‘अदृश्य शक्ति’’ अथवा बाजार की भूमिका को संतुलित करना होगा। जरूरत यह भी है कि सामान्य जन एकजुट होकर बाजार को जनतांत्रिक राजनीति के नियन्त्रण में लायें और भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था को अन्र्राष्ट्रीय सहयोग के आधार पर पुनर्निमित करें। वे जनतांत्रिक शासन के औजारों का इस्तेमाल कर अपनी व्यक्तिगत एवं सामूहिक आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के उद्देश्य से अर्थव्यवस्था का नियन्त्रण एवं निर्देशन करें। बाजार को समाज में फिर से सन्निहित करके भूमण्डलीकरण की नई व्याख्या करने और मानव को सर्वोपरि स्थान देने का कोई विकल्प नहीं है।

संदर्भ ग्रन्थ -
1. रयान पी0एम0 एल्लीस, द हिस्ट्री आॅफ द मार्केट स्टिम।
2. गिरीश मिश्र, इकाॅनामिक सिस्टम, दिल्ली, पृ0- 66,68।
3. द व्हील्स आॅफ काॅमर्स, पृ0-223।
4. कार्ल पोलान्यी, द ग्रेट ट्रंसफार्मेशनः द पोलिटिकल एंड एकोनाॅमिक ओरिजिंस आॅफ अवर टाइम, पृ0-57।


गाँधी दर्शन में सत्याग्रह सिद्धान्त


सुमन मौर्य
शोध छात्रा, राजनीति विज्ञान विभाग,
हंडिया पी0जी0 काॅलेज, इलाहाबाद |

                  सत्याग्रह गाँधी जी के लिए संघर्ष का प्रमुख हथियार था। सत्याग्रह के इस हथियार को उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के अपने संघर्ष में, सत्य और अहिंसा की खोज करते हुए प्राप्त किया था। गाँधी जी रोलेट-एक्ट के विरूद्ध एक राष्ट्रव्यापी संघर्ष में उसका उपयोग करने से पहले अहमदाबाद के मिल मजदूरों के झगड़े को सुलझाने और बारदोली एवं कुछ अन्य स्थानों की शिकायतों को दूर करने के लिए कर चुके थे।
सत्याग्रह का निर्माण सत्य, अहिंसा और कष्ट-सहन इन तीन सिद्धान्तों से मिलकर हुआ है। कष्ट-सहन, विरोधी पर विजय प्राप्त करने के लिए हिंसात्मक साधनों का प्रयोग करने में हमारी असमर्थता का पर्याय नहीं है। दूसरे को कष्ट देना हिंसा है, परन्तु कष्ट-सहन, जिसका अर्थ ‘‘स्वयं अपने आपको कष्ट पहुँचाना है’’, गाँधी की दृष्टि में, ‘‘अहिंसा का सार’’ है। और इस प्रकार वह एक सकारात्मक नीति है, न कि निर्बल का अंतिम सहारा।
गाँधी जी ने सत्याग्रह की पद्धति में और निष्क्रिय प्रतिरोध की पद्धति में अंतर किया है। महात्मा गाँधी का कथन है कि ‘‘सत्याग्रह निष्क्रिय विरोध से उसी प्रकार भिन्न है जिस प्रकार उत्तरी ध्रुव, दक्षिणी ध्रुव से भिन्न है।1 इतिहास में निष्क्रिय प्रतिरोध का प्रयोग या तो हिंसा के प्रयोग में असमर्थता के कारण किया गया था, या हिंसा की ओर बढ़ने वाले एक प्रारम्भिक कदम के रूप में। ‘‘कमजोर की अहिंसा’’ का गाँधी जी की दृष्टि में कोई महत्त्व नहीं था।’’ गाँधीजी ने इस वाक्य को बार-बार दोहराया है कि ‘‘कायरता और हिंसा में से यदि एक को चुनना हो तो मेरी सलाह सदा ही हिंसा को चुनने की होगी।’’2
निष्क्रिय प्रतिरोध का प्रयोग हथियारों के उपयोग के साथ-साथ किया जा सकता था। सत्याग्रह में यह संभव नहीं था। निष्क्रिय प्रतिरोध में प्रतिपक्षों को परेशान करने का विचार छिपा हुआ था। सत्याग्रह में प्रतिपक्षी को हानि पहुँचाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। निष्क्रिय विरोध में हृदय परिवर्तन की शक्ति नहीं होती जबकि सत्याग्रह एक भावात्मक सिद्धान्त है अर्थात् ‘निष्क्रिय विरोध जीवन दर्शन नहीं बन सकता।’’3
डाॅ0 राधाकृष्णन ने इस संबंध में लिखा है कि - ‘‘सत्याग्रह प्रेम पर आधारित है न कि घृणा पर। यह अपने विरोधी का प्रेम से तथा पीड़ा सहकर हृदय परिवर्तन करता है। यह पाप का प्रतिरोध करता है, पापी का नहीं।’’4
सत्याग्रह सत्य के लिए आग्रह है। इस व्यापक अर्थ में इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के अन्याय व शोषण का प्रतिरोध तथा सभी प्रकार के संवैधानिक सुधारों एवं संवैधानिक सेवा के कार्यों का समावेश हो जाता है। गाँधी जी का सत्याग्रह एक आदर्श है।
गाँधी जी ने संघर्ष से बचने की कभी चेष्टा नहीं की, और न ही केवल हिंसा को उसका समाधान माना। ‘‘संघर्ष की स्थिति’’ का स्वागत गाँधी जी उसी भावना से करते थे जिससे एक योग्य चिकित्सक पुराने रोग से पीडि़त किसी रोगी का स्वागत करता है। आर्ननेस के शब्दों में, ‘‘गाँधी संघर्ष के केन्द्र की ओर स्वाभाविक रूप से आकर्षित हो जाते थे।’’ गाँधी कर्मयोगी थे। वे संघर्ष से अपने को अलग नहीं रखते थे बल्कि उसके बीच में घुस जाते थे। अर्थात् सत्याग्रही संघर्ष के केन्द्र में अपने आपको रखकर, उसकी तीव्रता में कमी लाने के उद्देश्य से हिंसा के प्रयोग को निरुत्साहित करने के काम में लग जाता है। यह उससे बच निकलने की चेष्टा नहीं करता।5
गाँधी जी के जीवन काल में आणविक अस्त्रों का अविष्कार हो चुका था। और जापान में मानवता के विरूद्ध प्रयोग में उन्हें लाये जाते हुए भी गाँधी जी ने देखा था। पर इससे अहिंसा और सत्याग्रह के तकनीक में उनकी आस्था और दृढ़ हुई। अब उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि आणविक अस्त्रों के विकास और प्रयोग के बाद हिंसात्मक प्रतिरोध असंभव हो गया था और अहिंसात्मक साधनों की श्रेष्ठता स्पष्ट रूप से स्थापित हो गयी थी। हिंसा का विनाश प्रतिरोध में अपनायी गयी हिंसा से संभव नहीं है। ‘‘मानवता को हिंसा से ऊपर उठने के लिए अहिंसा का मार्ग ही अपनाना होगा।’’6
गाँधी जी सत्याग्रह को ऐसे वट वृक्ष की तरह मानते थे जिसकी अनेक शाखाएँ होती हैं। उन्होंने सत्याग्रह के साधन के लिए कई पद्धतियों को स्वीकार किया जैसे- असहयोग, सविनय अवज्ञा, हिजरत और उपवास आदि।
असहयोग के परिप्रेक्ष्य में गाँधी जी का विचार है कि जिसके विरूद्ध सत्याग्रह किया जाता है उसके साथ सहयोग न करना तथा कोई ऐसा कार्य न करना जिससे अनैतिक कार्य को सहयोग एवं प्रोत्साहन मिले। अंग्रेजों के विरूद्ध 1920-1922 तथा 1942 में गाँधी जी के द्वारा चलाये गये आन्दोलन असहयोग की ही अभिव्यक्ति थे। असहयोग की अभिव्यक्ति कई तरह से की जा सकती है। जैसे- हड़ताल, प्रदर्शन, बहिष्कार एवं धरना आदि।
सविनय अवज्ञा असहयोग की तुलना में अधिक उग्र एवं आक्रामक अस्त्र है। यह अन्याय के प्रति एक तरह से विरोध है। यहाँ गाँधी ‘थोरो’ से प्रभावित दिखते हैं। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी ने सविनय अवज्ञा का प्रयोग किया।
सत्याग्रह का एक अन्य रूप हिजरत था। हिजरत का तात्पर्य है कि व्यक्ति अपनी इच्छा से अपना स्थाई निवास स्थान छोड़कर चला जाये इसका प्रयोग उन लोगों के लिए बताया जो यह महसूस करते थे कि उनका शोषण हो रहा है तथा वे उस स्थान पर अपने आत्म-सम्मान की रक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि उनमें शक्ति का अभाव है।
समय-समय पर गाँधी जी की सत्याग्रही के लिए उपवास का भी सुझाव देते थे। स्वास्थ्य की दृष्टि से उपवास तो महत्त्वपूर्ण होता ही है। किन्तु एक सत्याग्रही के लिए आत्म-शुद्धि, आत्म-बल, एकाग्र-चित्तता और शांति का अमूल्य साधन भी है। इसका उस व्यक्ति पर जिसके विरूद्ध सत्याग्रह किया जा रहा है, शीध्र प्रभाव पड़ता है।
गाँधी जी के सत्याग्रह की तकनीक केवल विदेशी शक्ति के विरोध तक ही सीमित नहीं थी। वे इस बात की परवाह नहीं करते थे कि देश पर शासन विदेशियों का है अथवा अपना। गाँधी जी ने सत्याग्रह की तकनीक का प्रयोग सामाजिक व आर्थिक न्याय को प्राप्त करने, औद्योगिक संघर्षों में तथा साम्प्रदायिकता और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों के विरूद्ध भी किया। गाँधी जी ने जिस युग में इस तकनीक का अविष्कार किया वह भारतीय राष्ट्रवादी शक्तियों के द्वारा अँग्रेजी शासन के विरूद्ध संघर्ष का युग था।
दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने खानों में काम करने वाले भारतीयों के द्वारा चलाये जाने वाले उस आन्दोलन का नेतृत्व किया जो दक्षिण-अफ्रीका की सरकार की जाति-भेद की नीतियों के विरूद्ध था। भारत में चलाया गया उनका सत्याग्रह आन्दोलन 1917 में बिहार के चम्पारन जिले में नील की खेती करने वाले किसानों पर किये जाने वाले आर्थिक और सामाजिक अन्यायों के विरूद्ध था। 1918 का खेड़ा सत्याग्रह किसानों का आन्दोलन था जिसका उद्देश्य भूमि-करों का भुगतान न करने के लिए बम्बई की सरकार पर नैतिक दबाव डालना था। 1928 का बारदोली सत्याग्रह भी भूमिकर में बहुत अधिक वृद्धि के विरूद्ध था। इस सब आन्दोलनों का उद्देश्य, जनसाधारण को आर्थिक न्याय की प्राप्ति कराना था।
गाँधी जी ने कुछ ऐसे आन्दोलन भी चलाये जो औद्योगिक प्रबन्धक व्यवस्था अथवा सामाजिक प्रतिक्रियावादिता के विरूद्ध थे। फरवरी-मार्च 1918 में चलाया गया अहमदाबाद मजदूर सत्याग्रह एक ऐसा मजदूर आन्दोलन था जिसका सरकार से किसी भी रूप  में सम्बंध नहीं था। मिल में हड़ताल हो जाने की स्थिति में व्यवस्थापकों ने बीच-बचाव करने के उद्देश्य से गाँधी जी को बुलाया था, परन्तु जब गाँधी जी ने देखा कि वस्तुओं के मूल्य-वृद्धि हो जाने के कारण मजदूरों के वेतन में 25 प्रतिशत बढ़ाने की माँग न्यायसंगत थी तो उन्होंने उपवास का भी सहारा लिया।
इसके बाद गाँधी जी ने रोलेट बिल के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाया। जयन्त बन्द्योपाध्याय ने यह ठीक ही लिखा है कि ‘‘सत्याग्रह के द्वारा स्वतंत्रता, समानता और भ्रार्तृत्व के मूल्यों को न केवल संरक्षण मिलता है और उनकी वृद्धि होती है, बल्कि सत्याग्रह के द्वारा ही उनकी अधिक से अधिक सुरक्षा और वृद्धि संभव है।’’7 गाँधीवादी दर्शन में सत्याग्रह को समाज परिवर्तन की पद्धति के रूप में स्वीकार किया गया है। माक्र्सवाद में वर्ग-संघर्ष का जो स्थान है, वही स्थिति गाँधी-दर्शन में ‘सत्याग्रह’ का है।
गाँधी जी के अहिंसा एवं सत्याग्रह के सिद्धान्त को कुछ विचारकों ने भारतीय संदर्भ में न केवल अप्रासंगिक बताया है, बल्कि उनकी आलोचना भी की है। डाॅ0 रामविलास शर्मा के अनुसार, आजादी प्राप्त करने के लिए गाँधी जी के सत्याग्रह का हथियार नाकाफी है।8 इसी तरह कम्युनिस्ट पार्टी का कहना था, राष्ट्रीय आन्दोलन सत्याग्रह द्वारा क्राँतिकारी परिणाम तक नहीं पहुँच सकता,  इसलिए कम्युनिस्ट उसे अस्वीकार करते हैं। गाँधीवाद की आलोचना करते हुए आलोचकों ने कहा है कि ‘‘वह साम्राज्यवाद को क्राँतिकारी शक्तियों का अलगाव करने और नाश करने का अवसर देता है, वह सत्याग्रही के कत्र्तव्य के बारे में शब्द-जाल द्वारा अपनी कायरता और दिवालियापन छिपाता है। वह खुलकर राजनीतिक हड़तालों का एवं जन सत्याग्रह का विरोध करता है, तथा वह रियासतों एवं युद्ध के मामले में साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेकता है।9
रजनीपामदत्त के अनुसार- गाँधी जी का अहिंसा शब्द बहुत निर्दोष, मानवीय और उपयोगी लगता है, पर इसके पीछे न केवल अंतिक संघर्ष को नकारने की बात छिपी है, बल्कि तात्कालिक संघर्ष को रोकने की भी बात छिपी है, क्योंकि हमेशा आम जनता के हितों को बड़े बुर्जुआ-वर्ग और जमींदार वर्ग के हितों के साथ जोड़ने की कोशिश की गई।10 गाँधीवाद के सत्य और अहिंसा की धारणा को भी अविश्वास की दृष्टि से देखा गया है। इस अविश्वास का कारण यह बताया जाता है कि जब तक मनुष्य में स्वार्थपूर्ण एवं अहंवादी प्रवृत्तियाँ हैं, तब तक हिंसा, शोषण, असत्य, अन्याय इत्यादि रहेंगे। सत्य और अहिंसा मानव जीवन के निर्देशित नियम नहीं बन सकते। इस प्रकार की आलोचना का सारांश यह है कि सत्य और अहिंसा का सिद्धान्त मूलतः अव्यावहारिक है और वह व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन का आधार नहीं बन सकता।11
आर्थर मूर तथा जाॅन बौंड्यूरैन्ट ने नैतिक अथवा आध्यात्मिक दृष्टि से सत्याग्रह की श्रेष्ठता में संदेह किया है, उनका कहना है कि सत्याग्रह ऐसे लोगों के लिए संघर्ष का साधन है जिनके पास इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। इसलिए, वे सत्याग्रह को मानसिक हिंसा कहते हैं और इसके विद्रोह अथवा युद्ध की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक उत्कृष्ट नहीं मानते।12
सत्याग्रह की प्रासंगिकता के सम्बंध में प्रो0 सुशीला कौशिक ने कहा है कि गाँधी ने जनसाधारण और जन-आन्दोलन की महत्त्वपूर्ण भूमिका को समझा तथा सत्याग्रह का एक ऐसा कार्यक्रम बनाया जिससे जन-साधारण राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति जागरूक हो सके तथा मजदूर, किसान, पूँजीपति, व्यापारी, विद्यार्थी, वकील, तथा निम्न जातियाँ आदि सभी तरह के लोग आन्दोलन में भाग ले सकें। अपनी विचारधारा की सीमाओं, खामियों तथा मजबूरियों के बावजूद, गाँधी जी ने पहली बार राष्ट्रीय आन्दोलन को जनसाधारण का बहुवर्गीय आधार प्रदान किया।13 हम कह सकते हैं कि सत्याग्रह एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा सरकार के कार्यक्रमों और उसकी नीतियों को आसान तरीकों से प्रभावित किया जा सकता है तथा समाज की विभिन्न समस्याओं की ओर सरकार का ध्यान खींचा जा सकता है। सत्याग्रह एक ऐसी तलवार है जिसके सब ओर धार है उसे जैसे चाहो वैसे काम में लाया जा सकता है। खून न बहाकर भी वह बड़ी कारगर होती है, उस पर न तो कभी जंग लगती है और न उसे कोई चुरा ही सकता है। यही सत्य-शक्ति है। गाँधी जी ने इसे प्रेम-शक्ति या आत्म-शक्ति भी कहा है। इसका प्रयोग व्यक्ति और समाज दोनों के द्वारा किया जा सकता है।
अंत में हम कह सकते हैं कि आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं वह बहुत ही विचित्र दौर है क्योंकि जब देश आजाद हुआ तब देश के संचालन का महत्त्वपूर्ण निर्णय पश्चिम की ओर ललचाई निगाहों से देखते हुए लिया गया। पश्चिमी ढंग पर जो बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनीं और उनके इर्द-गिर्द जो केन्द्र विकसित हुए उन्हीं को हमने नया भारत मान लिया। परन्तु आज स्वतंत्रता के साठ साल बाद भी देश खुशहाल नहीं है। अतः आज के इस आणविक युग में विशेषकर 21 वीं सदी में अणुबम या बढ़ते हुए आतंकवाद के खिलाफ शुद्ध हृदय से सत्य और अहिंसा के सामाजिक संगठन के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता।
संदर्भ ग्रन्थ -
1. गाँधी, एम0के0: सत्याग्रह पृ0-5
2. यंग इंडिया, 11 अगस्त 1920
3. दिवाकर आर0आर0: सत्याग्रह, पृ0-27
4. महात्मा गाँधी: जीवन और दर्शन पृ0-119
5. आर्ननेस: ‘‘गाँधी एण्ड दी न्यूक्लियर एज’’ न्यू जर्सी, 1965, पृ0-39
6. तेंदुलकर, ‘महात्मा’ खण्ड - 7, 1953, पृ0-248
7. जे0 बन्द्योपाध्याय, ‘माओत्सेतुंग एण्ड गाँधी, पर्सपेक्टिव्ज आॅन सोशल ट्रांसफार्मेशन, अलाइड पब्लिशर्स, 1973, पृ0-64-66
8. रामविलास शर्मा, भारत में अँग्रेजी राज और माक्र्सवाद, खण्ड-2, नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, 1983 पृ0-435-36
9. स्वतंत्रता संग्राम और गाँधी का सत्याग्रह, पृ0-86
10. रजनीपामदत्त: आज का भारत, दिल्ली:मैकमिलन इण्डिया, 1988 पृ0-351
11. डाॅ0 बी0आर0 पुरोहित: आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, पृ0-204
12. वेद प्रकाश वर्मा, महात्मा गाँधी का नैतिक दर्शन, दिल्ली: बी0एल0 प्रिन्टर्स, पृ0-165
13. प्रभात कुमार - स्वतंत्रता संग्राम और गाँधी का सत्याग्रह

भारतीय समाजिक व्यवस्था में जातीय विषमता और संवैधानिक प्रावधान


सविता कुमारी
शोध छात्रा, राजनीतिविज्ञान विभाग,
काशी हिन्दू वि0वि0, वाराणसी।

               विकसित देश के समाज का प्रमाण अधिकार है। वर्तमान समय में मानवाधिकार को प्रत्येक देश में एक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली संस्था के रूप में देखा जाता है। भारतीय समाज में मानवाधिकार के प्रति बढ़ती चेतना इस बात का ंसंकेत है कि समाज में अब प्रत्येक वर्ग में अपने अधिकारों के प्रति सक्रिय दिलचस्पी है। मानवाधिकार का अस्तित्व प्राचीन काल से ही था, परन्तु तब कोई इसकी स्पष्ट परिभाषा नहीं थी। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में उन सभी विषयों पर ध्यान दिया गया है, जो अधिकार के साथ कत्र्तव्यों से भी जुड़े थे, उस समय कत्र्तव्य को ही अधिकार के रूप में परिभाषित किया जाता था। आज मानवाधिकार एक नया पहचान लेकर दुनिया के समक्ष आया है, हालांकि इसकी सार्वभौमिक घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 10 दिसम्बर 1948 को ही कर दिया गया था। भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में जब हम मानवाधिकार की बात करते हैं, तो सहज ही हमारा ध्यान उन वर्गों पर जाता है, जिन्हें वर्तमान में संविधान के द्वारा विशेष सुविधाएँ प्रदान की गई हैं, अखिर क्यों हमारा समाज कई वर्गों में बँटा है, सामान्य वर्ग, पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनु0 जनजाति इत्यादि। इस सवाल का उत्तर जानने के लिए हमे अपने इतिहास के पन्ने को पलटना होगा। इतिहास में हमारा समाज कैसा था, सामाजिक व्यवस्थाएँ कैसी थीं? तब हम पूरी व्यवस्था की जान समझ सकते हैं।
कोई भी विचार अचानक नहीं उत्पन्न नहीं होता है, विचारों की उत्पत्ति के लिए गहन पृष्ठभूमि होती है। किसी भी समाधान के पीछे समस्याएँ भी होती हैं, क्योंकि समाधान समस्या के निवारण के लिए ही होता है प्राचीन भारतीय समाज में ऐसे बहुत से कारण थे, जिसके कारण भारतीय समाज कई वर्गों में बँट हुआ था। प्राचीन भारतीय समाज में जाति प्रथा की व्यवस्था अत्यन्त ही कठोर थी, जिसमें निम्न वर्ग के लोगों के साथ पशुवत व्यवहार किया जाता था। धर्मसूत्रों में चाण्डाल को अत्यधिक हीन और महापातकी जाति के अन्तर्गत रखा गया है। गौतम के अनुसार ये कुत्ते और कौए के कोटि के थे।1 आपस्तम्ब की दृष्टि में चाण्डाल का स्पर्श करना ही पाप नहीं था, बल्कि उससे सम्भाषण करना और उसका दर्शन करना भी पाप था, जिसके लिए प्रायश्चित का विधान किया गया था।2 इस प्रकार के विधिशास्त्र से पता चलता है कि समाज में मनुष्य-मनुष्य के बीच में कितना भेद-भाव व्याप्त था। समाज की पूरी व्यवस्था धर्म पर आधारित थी।
छठीं शताब्दी वह काल था जब बौद्ध-धर्म का उत्कर्ष हुआ था। समाज में बौद्ध धर्म को लोकप्रियता मिली, क्योंकि बौद्ध-धर्म जाति के आधार पर अपने धर्म में कोई भेद-भाव नहीं करता था और सभी जाति के लिए बौद्ध धर्म के द्वारा खुले हुए थे। परन्तु बौद्ध कालीन युग में भी चाण्डाल जाति अत्यन्त निम्न स्तर का जीवन जीती थी। उसे नगर सीमा से बाहर रहना पड़ता था। उसे सर्वत्र तिरस्कार का सामना करना पड़ता था।3 जातकों से चाण्डाल की अत्यन्त हीन अवस्था का पता चलता है। उनमें उसकी अनेकानेक दयनीय अवस्थाओं का चित्रण है। स्मृतियों, पुराणों और समकालीन ग्रंथों में अपराध के लिए सजा का प्रावधान भी जाति के अनुसार था। एक ही अपराध के लिए ब्राह्मणों को सबसे कम सजा और शूद्रों को सबसे अधिक सजा मिलती थी।
भारतीय समाज में जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता गया, सामाजिक जटिलता बढ़ने लगी। विकास के साथ जटिलता का सृजन होना स्वाभाविक है, परन्तु जब वह नकारात्मक ढंग से बढ़ती है, तो उस समाज को आज के सन्दर्भ में विकसित नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज विकास का स्तर अधिकार से मापा जाता हे और अधिकार सभी को समान रूप से प्राप्त होना सामाजिक न्याय की पहली शर्त है। भारतीय इतिहास में गुप्तकाल को स्वर्ण युग कहा जाता है। इसी काल में अनेक जाति-उपजाति की भावना बढ़ी। अस्पृश्यता की भावना अब इतनी बढ़ गई थी कि चाण्डाल के अतिरिक्त अनेक ऐसे जाति के लोग थे जिन्हें अस्पृश्य माना जाता था, और उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता था।4 आज के सन्दर्भ में जब मानवाधिकार को प्राथमिकता दी जाती है, तब हम कैसे गुप्तकाल को स्वर्ण युग का काल कह सकते हैं।
उपरोक्त वर्णन से हम जान सकते हैं कि प्राचीन भारतीय समाज में जाति-प्रथा अमानवीय ढंग से प्रचलित थी। समाज में शूद्रों के अलावा दासों और स्त्रियों के साथ भी अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था, उन्हें जीवन की अनेक आधारभूत आवश्यकताओं से वंचित रखा जाता था। एक तरफ समाज में उच्च वर्ग के लोग ऐशो-आराम का जीवन जीते थे, तो दूसरी तरफ मानव का एक विशाल वर्ग जाति प्रथा के कठोर संरचना के कारण अपमानित जीवन जीने पर विवश था। जाति के आधार पर ही उन्हें व्यवसय करने के लिए मजबूर किया जाता था। अस्पृश्यों को केवल निम्नतम श्रेणी के व्यवसाय करने का ही अधिकार प्राप्त था, जिसके उनकी कारण आर्थिक दशा अत्यन्त ही दयनीय होती गई। अस्पृश्यता के कारण उन्हें गन्दी बस्तियों में रहना पड़ता था, जहाँ उन्हें अनेक प्रकार के बिमारियों का सामना करना पड़ता था, जिसके कारण उनके स्वास्थ्य का स्तर काफी नीचा था। अस्पृश्य जातियों के व्यक्ति उच्च जाति के लोगों के साथ नहीं बैठ सकते थे। उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश नहीं दिया जाता था। शिक्षा से वंचित होने के कारण वे समाज के मुख्य धारा से बहुत दूर हो गये।
अस्पृश्यता को परिभाषित करते हुए डाॅ0 जी0एन0 शर्मा ने कहा ‘‘अस्पृश्य जातियाँ वे हैं जिनके स्पर्श से एक व्यक्ति अपवित्र हो जाए और उसे पवित्र होने के लिए कुछ कृत्य करने पड़े।’’5 ईश्वर ने सभी मानव को समान बनाया परन्तु समाज को लोगों ने अपने स्वार्थसिद्धि हेतु विभाजित कर दिया। डी0एन0 मजुमदार ने भारतीय समाज में प्रचलित जाति प्रथा को बहुत ही सुन्दर ढंग से परिभाषित किया है, उनके अनुसार ‘‘अस्पृश्य जातियाँ वे समूह हैं जो अनेक सामाजिक व राजनीतिक निर्योग्यताओं का शिकार है, इनमें से अनेक निर्योग्यताएँ उच्च जातियों द्वारा परम्परागत तौर पर निर्धारित और सामाजिक दृष्टि से लागू की गई है।’’6 इन परिभाषाओं से प्रतीत होता है कि अस्पृश्यता एक ऐसी भावना थी, जिससे की अपवित्रता और घृणा की भावना जुड़ी थी।
एक सच्चाई यह भी है कि जिन चीजों का ज्यादा दमन होता है, उसका प्रतिकार भी उतना ही प्रबल होता है। भारतीय समाज में जाति के नाम पर की जाने वाली अमानवीयता के व्यवहार का समय आने पर लोगों ने उसका प्रबल विरोध करके, अपने-आपको समाज का एक सदस्य और मानव होने का गौरव भी प्राप्त किया। मध्यकाल में जब भारत में मुस्लिमों का साम्राज्य था, तब बहुत से लोगों ने जाति-पात के उलझनों और यातनाओं से छुटकारा पाने के लिए मुस्लिम धर्म को अपना लिया था, हालांकि यह बात भी सत्य है कि मुस्लिमों ने हिन्दुओं को मुस्लिम धर्म स्वीकार करने के लिए विवश भी किया था। आधुनिक काल में जब अंग्रेज भारत में अपना शासन स्थापित किया उस समय धर्म-परिवर्तन का एक लहर आया जिसमें बहुत से हिन्दुओं ने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया। अंग्रेजों ने अपने कूटनीति के तहत भारत में साम्प्रदायिकता का बीज बोया जिसका अन्तिम परिणाम भारत विभाजन के रूप में सामने आया। धर्म प्रारम्भ से ही भारतीय समाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता आ रहा है।
आधुनिक भारत में अस्पृश्यता को लेकर काफी विवाद हुआ, स्वयं अस्पृश्य जातियों ने अपने अधिकारों के लिए आंदोलन प्रारम्भ कर दिए। उनका साथ महात्मा गाँधी, डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर, पं0 मदनमोहन मालवीय जैसे विद्वानों ने दिये। दक्षिण भारत में अस्पृश्यों को मन्दिरों में प्रवेश का अधिकार नहीं था, जिसे स्वयं अस्पृश्य जातियों ने मन्दिरों में प्रवेश करके तोड़ा। उन्नीसवीं शताब्दी में समाज में अधिकार प्राप्त करने के लिए उन्होंने प्रबल विरोध किए। ज्योतिबा फूले एवं डाॅ0 अम्बेडकर ने अस्पृश्यों को संगठित करके ऐसे आन्दोलनों को आगे बढ़ाया। अस्पृश्यों को जब बुद्धिजीवियों का साथ मिला तब उनके विरोध में नई जान पैदा हो गई।जाति प्रथा के विरोध में ज्योतिबा फूले का योगदान अविस्मरणीय है। उन्होंने ‘सत्य-शोधन समाज’ की स्थापना करके अस्पृश्यों को उनके अधिकार दिलाने का प्रयास किया। बाद में इस आन्दोलन को डाॅ0 अम्बेडकर ने आगे बढ़ाया। 1920 ई0 में इनके नेतृत्व में ‘अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ’ एवं ‘अखिल भारतीय दलित वर्ग फेडरेशन’ स्थापित किए जिनके माध्यम से अस्पृश्यों के अधिकारों की आवाज उठाई गई। 30 दिसम्बर, 1931 ई0 को बम्बई में पं0 मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में एक विशाल सभा इुई और 1932 ई0 में सारे देश में अस्पृश्यता-निवारण के लिए ‘अखिल भारतीय सेवक संघ’ की स्थापना की गई।7 इस संघ ने अस्पृश्यों को उनके अधिकार दिलाने एवं निर्योग्यताओं को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे पूर्व राजाराम मोहन राय और उनके द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज ने भी जाति प्रथा का विरोध किया था।
स्वतंत्रता प्राप्त होने से पूर्व ही अस्पृश्यता निवारण के लिए सरकारी प्रयास प्रारम्भ हो गये थे। 1920 ई0 में काँग्रेस ने अस्पृश्यता निवारण को अपने प्रयोग का एक महत्वपूर्ण अंग बनाया। 1936 ई0 में काँग्रेस मन्त्रिमण्डलों की स्थापना के बाद इनकी अवस्था सुधारने के प्रयास किए गए। भारतीय संविधान निर्माताओं ने जाति-पाँत के गंभीर समस्या पर विचार किया और इसके निवारण हेतु संविधान में कठोर प्रबंध किए गए। संविधान में मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत भेद-भाव को समाप्त करने का प्रावधान किया गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक समता का अधिकार दिया गया है, जो जाति के आधार पर भेदभाव रोकने का एक सशक्त माध्यम है। संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत ‘राज्य’ किसी नागरिक के साथ उसके धर्म, नस्ल, जाति, लिंग अथवा जन्म स्थान आदि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगा और न ही इनमें से किसी आधार पर किसी व्यक्ति को दुकानों, होटलों, कुओं, तालाबों, स्नानगृहों तथा मनोरंजन के अन्य स्थानों पर किसी प्रकार की मनाही होगी। अनुच्छेद 16 में कहा गया है कि ‘सभी-नागरिकों’ को सरकारी नौकरी पाने के समान अवसर होंगे और किसी भी प्रकार के भेद-भाव के बिना सरकारी नौकरी या पद प्राप्त करने में भेदभाव नहीं किया जाएगा। दलित जिन्हें पिछड़ा वर्ग भी कहा जाता है, बहुत लंबे समय तक कमजोर और सुविधाहीन जीवन जीते रहे, उन्हें ध्यान में रखकर संविधान के अनुच्छेद 17 में किसी भी प्रकार के भेदभाव का निषेध किया गया है जिसके आधार पर संसद द्वारा अस्पृश्यता अधिनियम (अपराध) 1955 बनाया गया।8 1976 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया यह अधिनियम 1955 (संशोधित) लागू कर दिया गया। भारतीय दण्ड संहिता के सामान्य कानून भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के साथ किए जाने वाले अपराध सिद्ध हुए हैं। भारतीय संसद ने 1989 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के नाम से एक प्रस्ताव पारित किया।
भारतीय संविधान के प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्षता की बात कही गयी है। डाॅ0 बी0आर0 अम्बेडकर ने (संसद में हिंदू कोड-बिल पर बहस में भाग लेते हुए) 1951 में धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा ‘धर्मनिरपेक्ष’ राज्य का अर्थ यह नहीं है कि वह लोगों की धार्मिक भावनाओं का ध्यान नहीं रखेगा। धर्म निरपेक्ष राज्य का अर्थ केवल यह है कि यह संसद सारी जनता पर कोई एक विशेष धर्म नहीं थोप पाएगी। केवल यही एक सीमा है जिसे संविधान मान्यता देता है।9 हम समझ सकते हैं कि भारतीय समाज में एक समय वह था, जब धर्म के अनुसार राज्य के कार्य होते थे, और जाति के आधार पर लोगों को पद प्राप्त होते थे। आज उसी भारत में धर्म के आधार पर कोई कार्य देश नहीं करता, देश में सभी धर्म सम्मानीय है, राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है। न्यायाधीश एच0आर0 खन्ना के अनुसार ‘‘धर्म निरपेक्षता न तो देव विरोधी हैं और न ही देव-समर्थक। इसका व्यवहार तो भक्त, नास्तिक और भौतिकवादी सबके प्रति एक समान रहता है। धर्मनिरपेक्षता राज्य के मामलों से धर्म को अलग रखती है और यह सुनिश्चित करती है कि धर्म के आधार पर किसी भी व्यक्ति से भेदभाव न किया जाए।’’10
भारतीय संविधान के अतिरिक्त मानवाधिकार आयोग और गैर-सरकारी संगठन के द्वारा भी पिछड़े वर्गों को विकास के मुख्य धारा में जोड़ने का कार्य किया जा रहा है। मानवाधिकार सुरक्षा अधिनियम जो 1993 में पारित हुआ था, इस बात पर विशेष रूप से जोर देता है कि समाज के विभिन्न वर्गों में मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता लाने के लिए ठोस कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।11 आज भी भारत में शिक्षा का स्तर काफी पिछडा़ हुआ है, जिसके कारण लोगों को अपने अधिकारों के विषय में पूर्ण रूप से जानकारी प्राप्त नहीं है, जिसके कारण वे संविधान द्वारा प्राप्त अपने अधिकारों का लाभ नहीं उठा पाते हैं। भारतीय संविधान में मानव अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं का समावेश एक ऐसे उपकरण के रूप में किया गया है जो सरकार को मर्यादित करते हैं और राज्य के प्रजातांत्रिक स्वरूप को व्यवहारिक आधार प्रदान करते हैं। ये अधिकार इस विश्वास की पुष्टि है कि प्रजातंत्र का आधार व्यक्तियों की स्वतंत्रता है। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के अतिरिक्त नीति निर्देशक तत्वों को सम्मिलित किया गया है, जो कि राज्य के कल्याणकारी स्वरूप को प्रदर्शित करते हैं, ये भारतीय राज्य के विधेयात्मक और सकारात्मक मार्ग-निर्देशक हैं, और शासन के संचालन में ‘‘मौलिक महत्त्व’’ रखते हैं।12 नीति-निर्देशक तत्त्व में सामाजिक न्याय पर बल दिया गया है जिसके अन्तर्गत पिछड़े वर्गों को विशेष संरक्षण, सबके लिए शिक्षा, समान कार्य के लिए समान वेतन, निर्धनों को मुफ्त कानूनी सहायता, एक समान विधि संहिता का उल्लेख है। 1986 की दिल्ली घोषणा में प्रत्येक मनुष्य के जीवन, स्वतंत्रता शांति और सुख के अधिकार को मान्यता दी गई तथा वैचारिक स्वतंत्रता को सम्मान देने की बात की गई।
स्वतंत्र भारत में अस्पृश्य और गरीब वर्ग के लिए सरकार ने रोटी, कपड़ा और मकान के लिए अथक प्रयास किये हैं क्योंकि उन्हें जीवन की ये तीन आवश्यकता भी सुलभ नहीं थी। सरकार द्वारा पिछड़े वर्गों के लिए अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम केन्द्र एवं राज्य स्तर पर संचालित किए जा रहे हैं। इंदिरा आवास योजना, बाल्मीकि अंबेडकर आवास योजना, जिसे क्रमशाः 1984 और 2001 में शुरू की गई थी, एक ऐसा प्रयास था, जिसके अन्तर्गत झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों की स्थिति में सुधार करने का प्रयास था।13
संवैधानिक प्रावधानों के द्वारा अस्पृश्य और दलित वर्ग कहे जाने वाले वर्ग को समाज में सम्मानजनक स्थिति देने का प्रयास किया गया है। विचारणीय बात यह है कि सिर्फ कानून बना देने से समस्या का समाधान नहीं हो जाता, आज भी दलितों के साथ भेद-भाव पूर्ण व्यवहार अपनाया जाता है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कानून हर जगह व्यवहारिक रूप से कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि जब तक एक मानव का दूसरे मानव के प्रति सोंच नहीं बदलेगा समाज से यह भावना नहीं जाने वाली है। कानून के अपने दायरे हैं, कानून किसी के चिंतन पर लागू नहीं हो सकता वह सिर्फ किये गये व्यवहार पर ही लागू होते हैं। के0एम0 पणिक्कर के मतानुसार, ‘‘यह मान लेना सर्वथा अनुचित होगा कि अस्पृश्यता समाप्त हो जाने की घोषणा कर देने से ही अस्पृश्यों की सामाजिक निर्योग्यताएँ समाप्त हो गई हैं।14 यह कथन बहुत हद तक सच्चाई को सामने रखती है क्योंकि व्यवहारिक जीवन में ये निर्योग्यताएँ आज भी दिखाई पड़ती हैं। हालांकि सरकारी और गैर-सरकारी दोनों तरह के प्रयास इस विषमता को समाप्त करने हेतु प्रयासरत है। मानवाधिकार आयोग के पास अगर दलितों के ऊपर होने वाली किसी भी प्रकार की शिकायत आती है, तो आयोग अविलम्ब कार्यवाही करता है। दलित वर्ग की स्थिति में पूर्णतः सुधार नहीं आना सरकार की लापरवाही न होकर भ्रष्ट प्रशासन और स्वयं दलितों में जागरूकता का अभाव है। आरक्षण का प्रावधान उनकी कमजोर पृष्ठभूमि को मजबूत बनाने के लिए ही किया गया है, परन्तु ये समाज के वे भाग हैं, जहाँ पूर्ण रूप से ‘शिक्षा’ नहीं है, जागरूकता नहीं है बल्कि कुंठा है, अभाव है। जब तक कुंठा और अभाव जीवन में रहता है वे अपनी क्षमताओं का विकास कर पाने में असमर्थ हैं।
पिछड़े वर्ग को विकास के रास्ते पर लाने के लिए सिर्फ कानून ही पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि पूरे समाज को जाति की ओछी भावना से ऊपर उठकर सोंचने की आवश्यकता है। समाज वह स्थान है जहाँ मनुष्य निवास करता है, समाज में ही उसे भावनाओं का सम्मान या अपमान मिलता है। जब तक सामाजिक रूप से अस्पृश्य कहे जाने वाले वर्ग को समानता का भाव प्राप्त नहीं होगा, तब तक ना तो सांविधानिक प्रावधान और न ही कोई आयोग इस विषमता को समाप्त कर पाने में सक्षम होगा, इसके लिए जन-जन में समान होने का भाव पैदा होना जरूरी है।
भारत में जाति का राजनीतिकरण कर दिया गया है। यह कथन प्रसिद्ध लेखक रजनी कोठारी का है। भारतीय समाज के वर्तमान स्वरूप को देखकर कोठारी जी का कथन सत्य लगता है, क्योंकि आज जाति के नाम पर विकास कम राजनीति अधिक हो रही है। जातिवाद आज के भारत का सबसे बड़ी समस्या है, इसके कारण अलगाववादी भावना का संचार हुआ, जिससे आतंकवाद, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद जैसे विचारों का प्रभाव व्यापक रूप से फैला है।
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, भारतीय लोकतंत्र सभी को मान्यता देता है। आज इस बात की आवश्यकता है कि वंचित लोगों के हितों की रक्षा करने के लिए सभी को प्रयास करना चाहिए, क्योंकि सिर्फ संवैधानिक प्रावधान किसी विचार, प्रथा को बदलने के लिए पर्याप्त नहीं है, इसके लिए आज मानसिक क्रांति की आवश्यकता है, जो व्यवहारिक जीवन में मानवता को सम्मान दे, जिससे भारत विकसित देशों की श्रेणी में गर्व से खड़ा हो सके।

सन्दर्भ ग्रन्थ -
1. गौतम धर्मसूत्र - 5.15-16, 15.25
2. आपस्तम्ब धर्मसूत्र- 2.1.8
3. जातक, पृ0- 200, 376, 390
4. बाशम, ए0एल0 - अद्भुत भारत, पृ0-84
5. शर्मा, जी0एन0 - भारतीय समाज और संस्कृति, पृ0-262
6. मजुमदार, डी0एन0- रेस एण्ड कल्चर आॅफ इण्डिया, पृ0-326
7. साह, घनश्याम - सोशल मूवमेन्ट एण्ड स्टेट
8. पाण्डे डाॅ0 जय नरायण- भारतीय संविधान, पृ0-84
9. पायली, एम0वी0-काॅनस्ट्यिूशन गवर्नमेंट आॅफ इण्डिया, पृ0-27
10. खन्ना, एच0 आर0- कान्स्टीच्यूशन एण्ड सिविल लिबरटीज, पृ0-53
11. दीक्षित, रमेशचंद्र- मानवाधिकार दशा और दिशा, पृ0-177
12. अग्रवाल, एच0ओ0- इम्पलीमेन्टेशन आॅफ ह्युमन राइट डेवलपमेंन्ट विद स्पेशल रेफरेन्स टू इण्डिया, पृ0-116
13. भारत 2007, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, पृ0-52
14. पणिक्कर, के0एम0 - हिन्दू सोसाइटी क्रास रोड्स, पृ0-27-28