Tuesday 31 March 2009

प्रेस की आजादी के लिए तिलक का संघर्ष


संजय कुमार पाल
शोध छात्र, राजनीति विज्ञान विभाग,
काशी हिन्दू वि0वि0, वाराणसी।

               उन्नीसवीं सदी की शुरूआत के साथ ही भारत  में चेतना की लहरें हिलोरें लेने लगी थी। मानव अधिकारों और खासकर प्रेस की आजादी के सवाल को शिद्दत के साथ महसूस किया जाने लगा था। प्रेस पर तरह-तरह से दबाव डालने की ब्रिटिश सरकार की कोशिशों का विरोध अंगड़ाई लेने लगा। सन् 1870 ई0 से 1918 ई0 तक समय ऐसा था, जब चेतना और जागरूकता की लहर फैलनी तो शुरू हो गयी थी, लेकिन सामूहिक भागीदारी वाले राष्ट्रीय आंदोलन, का स्वरूप पूरी तरह नहीं उभर सका था। जनता को मुद्दों और सवालों से जोड़ने के लिए उस समय न तो छोटी-बड़ी सभाओं का सिलसिला शुरू हो सका था, जिसमें जनता की भागीदारी हो सकती और जिसे जन संघर्ष का रूप दिया जा सकता था। उस समय सबसे पहला राजनीतिक कार्यक्रम यही था, कि जनता का राजनीतिकरण किया जाए, राजनीतिक चेतना का प्रचार-प्रसार किया जाए, अपने अधिकारों के प्रति लोगों को शिक्षित किया जाए और राष्ट्रीय विचारधारा का प्रसार किया जाए। चूंकि उस समय भारतीय जनता के पास न कोई संगठन था और न कोई संगठित राजनीतिक कार्यक्रम सामने था, इसलिए प्रेस ही उस समय एक ऐसा हथियार था, जिसके जरिए जनता को राजनीतिक रूप से शिक्षित-प्रशिक्षित किया जा सकता था और एक राष्ट्रीय विचारधारा का ‘विरवा’ रोपा जा सकता था।1
सन् 1870 ई0 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय दण्ड संहिता में धारा 124ए को जोड़ा, जिसके तहत ‘‘भारत में विधि द्वारा स्थापित ब्रिटिश सरकार के प्रति विरोध की भावना भड़काने वाले व्यक्ति’’ को तीन साल की कैद से लेकर आजीवन देश निकाला तक की सजा दिए जाने का प्रावधान था।2 बाद में इस धारा में कई और कड़े प्रावधान जोड़े गये। भारतीय प्रेस ने सन् 1870 के दशक में मजबूती से पैर जमाना शुरू कर दिया था।3 शुरू से ही ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध आलोचनात्मक एवं आक्रामक रूख अपनाया। लार्ड लिटन के प्रशासन की तो उन्होंने खुलकर आलोचना की, खासकर 1876-77 के अकाल पीडि़तों के प्रति ब्रिटिश सरकार के अमानवीय रवैये की तो जबरदस्त आलोचना उन्होंने की। आरम्भ के दिनों में जब राष्ट्रीय पुनर्जागरण और आन्दोंलन को अग्रसर करने के लिए एक अखिल भारतीय मंच की आवश्यकता थी, तब भारतीय प्रेस ने इस कमी को बखूबी पूरा किया। सभी समाचार पत्र भारतीय राष्ट्रीय पुनर्जागरण और राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास में कामगर हथियार का काम कर रहे थे। ब्रिटिश सरकार भारतीय राष्ट्रीयता की मांग को पूरा नहीं करना चाहती थी, इसलिए समाचार पत्रों पर अंकुश लगाना चाहती थी।4
इसके साथ ही अखबारों का प्रसार भी बढ़ने लगा था और मध्यम वर्ग के पाठकों तक ही वे सीमित नहीं रह गए थे, बल्कि आम आदमी तक पहुंचने लगे थे। इससे ब्रिटिश सरकार की भौहें टेढ़ी होना स्वाभाविक ही था। ब्रिटिश प्रशासन अचानक इन अखबारों पर दमन की कुल्हाड़ी चलाई और सन् 1878 ई0 में ‘वर्नाकुलर प्रेस ऐक्ट’ लागू किया।5  इस अधिनियम को ‘मुह बंद करने वाला अधिनियम’ कहा गया।6 यह प्रेस कानून भाषाई अखबारों पर अंकुश लगाने के लिए बनाया गया था क्योंकि ब्रिटिश सरकार को उनकी ओर से बड़ा खतरा महसूस हो रहा था वजह साफ था कि ये अखबार आम जनता में ब्रिटिश शासन के खिलाफ माहौल बनाने लगे थे। सन् 1878 का ‘वर्नाकुलर’ प्रेस ऐक्ट लागू करने का निर्णय अचानक लिया गया था। और इस मामलें में बड़ी गोपनीयता बरती गई थी और लेजिस्लेटिव कौउंसिल ने चंद मिनटों की चर्चा-के बाद ही उस विधेयक को पारित कर दिया था। इस कानून में यह प्रावधान किया गया था कि- अगर सरकार समझती है, कि कोई अखबार राजद्रोहात्मक सामग्री छाप रहा है या उसने सरकारी चेतावनी का उल्लंघन किया है, तो सरकार उस अखबार, उसके प्रेस व अन्य सामग्री को जब्त कर सकती है। भारतीय राष्ट्रवादियों ने इस कानून का जमकर विरोध किया। 17 अप्रैल 1878 को कलकत्ता के टाउन में ‘इंडियन एसोसिएशन’ द्वारा बुलाई गयी सभा में 4000 लोग उपस्थित थे। किसी सार्वजनिक मुद्दे को लेकर यह पहला बड़ा विरोध प्रदर्शन था। इस कानून के खिलाफ भारतीय प्रेस और दूसरे अन्य संगठनों ने भी संघर्ष छेड़ा, फलस्वरूप सन् 1881 में लार्ड रिपन ने यह कानून वापस ले लिया।7
भारत की आजादी की लड़ाई के दौर में प्रेस की आजादी के सवाल को लेकर सबसे ज्यादा जुझारू संघर्ष उग्र राष्ट्रवादी नेता बाल गंगाधर तिलक ने किया। जी. जी. अगारकर के साथ उन्होंने सन् 1881 में मराठी भाषा में ‘केसरी’ और अंग्रेजी में ‘मराठा’ नाम से दो अखबारों का प्रकाशन शुरू किया। सन् 1888 में उन्होंने खुद इन दोनों अखबारों का संपादन संभाला और उनके जरिये ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनता में जागरूकता पैदा करना शुरू किया। साथ ही ब्रिटिश शासन के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन चलाने के लिए भी जनता को प्रेरित करने का काम शुरू किया। तिलक एक निडर, साहसी और बेलाग बोलने वाले पत्रकार थे, जिनकी भाषा स्पष्ट सरल और सीधी चोट करने वाली थी। यहीं कारण है कि जो कुछ भी वे कहते थे उसका सीधा प्रभाव उनके पाठकों के हृदय पर पड़ता था।8
बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रीयता की भावना का प्रचार-प्रसार करने के लिए कई उपाय किये। सारे महराष्ट्र में अत्यधिक उत्साह और श्रद्धा से मनाये जाने वाले गणपति महोत्सव को उन्होने पहली बार 1893 में प्रचार का माध्यम बनाया। इसके बाद 1896 में शिवाजी जयन्ती पर मनाये जाने वाले समारोहों का उन्होनंे भी इसी तरह इस्तेमाल किया और राष्ट्रीय संघर्ष के लिए युवा मराठियों को तैयार किया। उन्होंनेेेेेेेे कपड़े पर लगे उत्पादन शुल्क के विरोध में सारे महाराष्ट्र में विदेशी वस्त्र बहिष्कार आंदोलन चलाया। तिलक पहले राष्ट्रवादी नेता थे, जिन्होंने इस तथ्य को पहँुचाना, कि राष्ट्रीय आंदोलन में निम्न मध्यवर्ग, किसान, मजदूर और दस्तकार कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसलिए इन लोगों को भी कांग्रेस के साथ जोड़ा जाना चाहिए। अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने 1896-97 में पूना सार्वजनिक सभा के युवा कार्यकर्ताओं की मदद से महाराष्ट्र में ‘कोई टैक्स नहीं’ अभियान चलाया। अकालग्रस्त क्षेत्रों के लिए सरकार द्वारा तय की गई संहिता की मराठी प्रतियां छपवाकर उन्होंने हजारों की तादाद में बँटवाई और किसानों से अपील की कि अगर अकाल के कारण उनकी फसलें नष्ट हो गई हों, तो वे भू-राजस्व या लगान कत्तई अदा न करें।9
सन् 1897 में पूना में प्लेग फैल गया। सरकार ने घर-घर तलाशी ली, ताकि रोगियों की बाकी लोगों से अलग ले जाकर अस्पतालों में रखा जा सके। प्लेग फैलने के कारण कई नेता पूना छोड़कर चले गए थे, लेकिन बालगंगाधर तिलक मुस्तैदी से जन सेवा में लगे रहे। उन्होंने प्लेग से निपटने की सरकारी कोशिशें का समर्थन किया और खुद भी राहतकार्य शुरू किया। लेकिन प्लेग पीडि़तों के प्रति सरकारी अफसरों के बेरहम और हृदयहीन रवैये की उन्होंने कटु आलोचना की। अंग्रेज अफसरों के रवैये के प्रति जनता में जबरदस्त गुस्सा था और यह गुस्सा फूटा 22 जून सन् 1897 को जब चापेकर बंधुओं ने पूना की प्लेग कमेटी के अध्यक्ष रैंड और लेफ्ंिटनेंट आयस्र्ट की हत्या कर दिया।10
ब्रिटिश सरकार की ‘लेवी’ और ‘कर’ नीति मुद्रानीति और अकाल नीति को लेकर लोगों में खासा असंतोष था। भारतीय अखबारों ने भी इस असंतोष को स्वर दिया और सरकार पर तीखे प्रहार किए। माहौल कुछ ऐसा बनने लगा था, कि राष्ट्रवादी नेताओं का रूझान धीरे-धीरे जुझारू संघर्ष की दिशा पकड़ता जा रहा था। जाहिर है कि ब्रिटिश सरकार को स्थिति का पूरा एहसास था और भारतीय प्रेस को सबक सिखाने का मौका तलाश रही थी। बालगंगाधर तिलक महाराष्ट्र की ऐसी हस्ती थे, जो जुझारू संघर्ष की जमीन तैयार कर रहे थे और उग्र राष्ट्रवादियों में सबसे अग्रणी गिने जाते थे।
उनकी पत्रकारिता भी मुखर थी। लोगों पर उनका जबरदस्त असर था। रैंड की हत्या से सरकार को बहाना मिल गया। ब्रिटिश स्वामित्व वाले अखबारों और नौकरशाही ने बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ तूफान खड़ा कर दिया। रैंड की हत्या को लेकर आरोप लगाया गया, कि तिलक के नेतृत्व में पूना के ब्राह्मणों ने यह साजिश की थी। ब्रिटिश सरकार ने पूरी कोशिश की, कि तिलक को सीधे-सीधे इस हत्याकांड के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाय। लेकिन उनके खिलाफ वह कोई सबूत ही नही ंजुटा सकी। फिर तिलक ने अखबार के जरिए इस हत्याकांड की निंदा भी की थी।11
ब्रिटिश सरकार ने तिलक पर जो आरोप लगाये उसके लिए ‘केसरी’ के 15 जून के अंक में छपी दो सामग्रियों को आधार बनाया गया। एक तो तिलक का भाषण, जिसमें उन्होंने शिवाजी द्वारा अफजल खां की हत्या किए जाने का औचित्य सिद्ध किया था, दूसरी एक कविता, जिसका शीर्षक था- ‘‘शिवाजी के उद्गार।’’ इस सिलसिले में 27 जुलाई 1897 को तिलक गिरफ्तार कर लिए गए। न्यायाधीश स्ट्रेची की अदालत में मुकदमा चला। तिलक पर यह अभियोग लगाया गया, कि वह अपने अखबारों के जरिए यह प्रचारित करते रहे हैं कि अंग्रेजों को भारत में बने रहने का कोई अधिकार नहीं हैं। और किसी भी कीमत पर उन्हें देश से बाहर निकाला जाना चाहिए। जाहिर है कि तिलक पर लगाया गया यह अभियोग गलत नहीं था। तिलक ने सरकार द्वारा लगाए गए अभियोगों का खंडन किया और कहा कि विदेशी शासन के प्रति नफरत फैलाने की उनकी कोई मंशा नहीं थी। विदेशी शासकों का मुकाबला करने की अपनी इस पुरानी शैली का इस्तेमाल करते हुए तिलक ने त्याग और दृढ़ता का अनूठा उदाहरण पेश किया। तिलक जानते थे, कि वह एक नए किस्म की राजनीति शुरू कर रहे हैं। जिसे जनता का विश्वास तभी मिल सकता है, जब इस राजनीति को नए किस्म का नेतृत्व दिया जाय। यानी जल्दबाजी से काम लेकर धीरे-धीरे बुनियाद को पुख्ता किया जाए। संपूर्ण परिवर्तन की बात अभी कहने का मतलब होगा, सत्ता के दमन को बुलावा देना और किसी संगठित प्रतिरोध के अभाव में यह दमन इतना निरंकुश हो जाएगा कि समूचे संघर्ष का ही गलाघोंट देगा और नेताओं से जनता को अलग-अलग कर देगा।
न्यायधीश स्टैªची और उनकी जूरी के 6 सदस्यों ने तिलक को अपराधी ठहराया। तीनों भारतीय जूरी के सदस्यों की राय में तिलक ने कोई अपराध नहीं किया। तिलक को 18 महीने कड़ी कैद की सजा दी गयी गई। तिलक को सजा दिए जाने के फैसले का देश भर में जबरदस्त विरोध किया गया। राष्ट्रवादी अखबारों और राजनीतिक संगठनों ने मानव अधिकारों और प्रेस की आजादी पर हुए हमले के खिलाफ देश व्यापी आंदोलन छेड़ दिया, इस संघर्ष में  वे लोग भी साथ थे, जो तिलक की थोड़ी बहुुत आलोचना भी किया करते थे। अनेक अखबारों ने अपने प्रथम पृष्ठ पर चारों तरफ काली पट्टियां छापीं और कई अखबारों ने विशेष संस्करण निकालें, जिसमें प्रेस की आजादी के लिए तिलक के संघर्ष की सराहना की गई।12
बाल गंगाधर तिलक अखिल भारतीय नेता के रूप में लोकप्रिय हो गये। लोगों ने उन्हें ‘लोकमान्य’ की उपाधि दी। आत्म बलिदान की वह साकार प्रतिमा माने जाने लगे। तिलक जनता से अपीलें करते थे, तो उन्होंने खुद संघर्ष करके दिखाया। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को लेकर चले आंदोलन के कारण अंग्रेजों ने फिर दमन चक्र चलाया। सन् 1908 के शुरू में सरकारी अफसरों पर बमों से हमले किये जाने की कई वारदातें हुई। सरकार पुनः अखबार को निशाना बनाया प्रेस पर अंकुश रखने के लिए कई कानून बनाए गए। बहुत से अखबारों और संपादकों के खिलाफ मुकदमें चलाए गये और प्रेस की आजादी लगभग पूरी तरह कुचल दी गई। ऐसे में तिलक के अखबार की भी सुध ली गयी। बंगाल के बाहर तिलक ही तो बहिष्कार आंदोलन और जुझारू राजनीति के अगुआ थे। ब्रिटिश अफसरों पर हुये हमलों के संदर्भ में तिलक ने एक लेख माला लिखीं। उन्होंने व्यक्तिगत हत्याओं और हिंसा की निंदा की। तिलक ने इस प्रवृत्ति को एक जहरीला ‘पेड़’ कहा, साथ ही साथ तिलक ने सरकार की भी आलोचना की कि सरकार असंतोष और आलोचना का निर्ममता पूर्वक दमन कर रही है, और लोगों के अधिकारों को कुचल रही है। ऐसे माहौल में हिंसा चाहे वह कितनी भी निंदनीय क्यों न हो, अपरिहार्य हो गई है।13
ब्रिटिश हुकूमत  इन सब बातों से रूष्ट होकर 24 जून 1908 को तिलक को गिरफ्तार कर लिया और इन लेखों को प्रकाशित करने के लिए उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दायर किया। तिलक ने तर्क पेश किया कि वह निरपराध है। दरअसल, उन्हें सब पहले से ही ज्ञात था। उनके एक मित्र पुलिस अफसर ने उन्हें आगाह कर दिया था, कि वह गिरफ्तार किये जाने वाले है, इसलिए होशियार हो जाएं।
अदालत में दो भारतीय जूरी के सदस्यों के असहमति के बावजूद तिलक को अपराधी ठहराया गया। तिलक के सजा सुनाये जाने के उपरान्त अखबारों ने घोषणा की, कि तिलक का अनुकरण करते हुए, वे भी जी जान से प्रेस की आजादी के लिए संघर्ष करेंगे। ब्रिटिश सरकार लगातार प्रेस का गला घोटने की कोशिश करती रहीं।14 तिलक के मामले में उसने जो कुछ किया था, उनकी पुनरावृत्ति तिलक के राजनीतिक उत्तराधिकारी, गाँधी के खिलाफ चले मुकदमें में हुई। गाँधी जी ने ‘यंग इण्डिया’ में कुछ लेख लिखे थे। इन लेखों के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1922 में उन पर धारा 124-। के तहत राजद्रोह के अभियोग में मुकदमा चलाया और उन्हें भी तिलक की तरह ही 6 साल की कैद की सजा सुनाई गयी। गाँधी जी ने सजा सुन कर जबाव दिया ‘‘आप लोगों ने लोकमान्य तिलक के खिलाफ चले मुदकमें की पुनरावृत्ति कर मेरा सम्मान किया है। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि मेरे लिए यह सबसे अधिक गर्व और प्रतिष्ठा की बात है कि तिलक के साथ मेरा नाम जुड़ गया’’। तिलक और गाँधी के खिलाफ चले मुकदमें में बस यही फर्क था, कि गाँधी जी ने अपने खिलाफ लगाये गये अभियोगों को स्वीकार किया था, जब कि तिलक ने अभियोगों का खण्डन किया था।
तिलक के समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि जब तिलक के विरूद्ध राजद्रोह का वाद न्यायालय में चल रहा था, उस समय उनके बचाव पक्ष की ओर से तत्कालीन कांग्रेस के अनुनयवादी (नरमदल) के नेताओं ने ब्रिटिश सत्ता के इस दमनकारी चक्र के विरोध में कोई सक्रिय योगदान नहीं दिया, परिणामतः अंग्रेजों की ‘‘बाॅटों और राज्य करो’’ की नीति सफल हुई और तिलक को जेल जीवन व्यतीत करने का फल प्राप्त हुआ।
इस प्रकार तिलक ने पत्रकारिता के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया। उनके प्रयासों से पत्रकारिता को एक नया आयाम मिला। उनकी क्षत्रछाया में भारतीय पत्रकारिता नई ऊँचाईयों को प्राप्त कर सकी। अपने पत्रों के माध्यम से उन्होंने भारत में एक सशक्त जन-शक्ति का निर्माण किया, लोगों को आत्म उन्नति का मार्ग सुझाया और लोगों में ‘स्वयं’ से ऊपर उठने की क्षमता पैदा की। भारत को एक राष्ट्र के रूप में एकता बद्ध करने का श्रेय लोकमान्य की पत्रकारिता को ही है। तिलक  का कहना था, कि हम शासको के लिए नहीं लिखते, लिखने का अभिप्राय है, कि हमारे दिल की धड़कन पाठकों के दिल की धड़कन बन जाये। वे हमारे विचारों, हमारी वेदनाओं और हमारे आक्रोश को समझें।

सन्दर्भ ग्रन्थ

1. विपिन चन्द्र: भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, दिल्ली हिन्दी माध्यम कर्यान्वयन निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय 1966। पृ0 64
2. विपिन चन्द्र: वही, पृ0 66
3. विपिन चन्द्र: वही, पृ0 67
4. ए0आर0 देसाई: भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि, द मैकमिलन कम्पनी आॅफ इण्डिया लिमिटेड, पृ0 106
5. विपिन चन्द्र: वही, पृ0 67
6. बी0एल0 ग्रोवर, यशपाल: आधुनिक भारत का इतिहास, एस0चन्द्र एण्ड कम्पनी लिमिटेड, 2004, पृ0 264
7. विपिन चन्द्र: वही, पृ0 68
8. ए0आर0 देसाई: वही, पृ0 182-83
9. विपिन चन्द्र: वही, पृ0 70
10. हंसराज रहबर: तिलक से आज तक, साक्षी प्रकाशन, दिल्ली, चैथा संस्करण, 2007, पृ0 27-28
11. विपिन चन्द्र: वही, पृ0 71
12. हंसराज रहबर: वही, पृ0 29
13. मनोज कुमार सिंह, शैलेश कुमार चैधरी: भारतीय राजनीतिक चिंतक: बाल गंगाधर तिलक, डिस्कवरी पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृ0 19-20
14. विपिन चन्द्र वही, पृ0 74।

No comments:

Post a Comment

Note: only a member of this blog may post a comment.