Thursday 1 April 2010

समकालीन परिवेश में महिला सशक्तिकरण: एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण


डाॅ0 विनोद कुमार पाण्डेय
डाॅ0 नीरज कुमार राय
प्रवक्ता, समाजशास्त्र विभाग, अम्बिका प्रसाद डिग्री काॅलेज, धीना, चन्दौली।
समाजशास्त्र विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व शोध छात्र।


महिलाओं की सशक्त भूमिका का अवलोकन वेद कालीन मनीषियों के कृतित्व में लक्षित है। व्याकरणविद् कात्यायन और पतंजलि की रचनाएं महिलाओं को सत्ता भागीदारी, शक्ति पर नियंत्रण और सामुदायिक कार्य संचालन में सशक्त और अग्रगामी महिला के रुप में प्रस्तुत करते हैं। गार्गी, मैत्रेयी को ऋग्वेद और उपनिषद के अंशों में प्रभावकारी महिला के रुप में अवलोकित किया जा सकता है। लेकिन समय के परिवर्तन चक्र में महिलायें अशक्त होती गईं और स्मृति काल से प्रारम्भ अवनति की स्थिति, मध्यकाल के सती, जौहर, बाल-विवाह, पुरधा, देवदासी से होते हुए महिलाओं के विरुद्ध घृणित व्यवहार, हिंसा, वेश्यावृत्ति और वर्ष 2008 के प्रथम दिन ही जे0 डब्ल्यू0 मेरियट छेड़खानी मामला से लेकर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक भागीदारी में अल्पता तथा स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार में अशक्त स्थिति का आकलन सूचना समाज और उत्तर आधुनिक काल के रुप में प्रक्षेपित 21वीं शताब्दी (वर्तमान में इसे बड़े जोर-शोर से महिला शताब्दी के रुप में प्रस्तुत किया जा रहा है) के इस प्रथम दशक में किया जा सकता है।
महिला सशक्तिकरण भविष्य के वैश्विक समाज के संतुलित, सशक्त और सातत्य हेतु नीति-निर्माताओं, प्रशासकों, समाज वैज्ञानिकों तथा भविष्य विश्लेषकों के केन्द्रीय सामाजिक सार्थकता के प्रश्न से जुड़ा है। विचारक महिला सशक्तिकरण को सत्ता, शक्ति और ज्ञान में बढ़ते पेशेवरीकरण से सम्बन्धित करते हैं। लेकिन यह कुछ विशेष पक्षों का विश्लेषण नहीं है बल्कि महिला सशक्तिकरण को बहुलआयामी और बहुलस्तरीय प्रक्रिया के रुप में अभिव्यक्त किया जा सकता है। यह महिलाओं के जन्म से लेकर जीवन की अन्तिम अवस्था तक उसकी अभिप्रेरणा, योग्यता और शक्ति का वैयक्तिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और कानूनी, परिवेश में अनवरत बढ़ाव है। यह अन्तर्सम्बन्धित महिलाओं के विविध पक्षों का सशक्तिकरण है। युवा सामाजिक विश्लेषकों ने परिवार और समुदाय के सशक्तिकरण को भी महिला सशक्तिकरण का एक आवश्यक घटक माना है। भारत भविष्य के समाज को संतुलित और प्रगति अभिमुख बनाने हेतु महिला सशक्तिकरण की परियोजना को आधारभूत स्तर पर संचालित कर रहा है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि भारतीय सामाजिक संरचना, ग्राम्य जन-जीवन आधारित संरचना है और यहाँ महिलाओं की आधी जनसंख्या निवास करती है अतः इनको त्यागकर महिला सशक्तिकरण की परिकल्पना को साकार नहीं किया जा सकता है।
स्वतंत्रता से पूर्व
महिला सशक्तिकरण को सुधारों की प्रक्रिया से जोड़ कर समझा जा सकता है। महिलाओं के सामाजिक जीवन परिवेश में सुधार की प्रक्रिया ब्रिटिशराज के दौरान राजाराममोहन राय और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के कार्य में दीख पड़ता है। 1829 के सती प्रथा निषेध कानून और 1856 का विधवा पुनर्विवाह अधिनियम तो प्रारंभिक सुधार के सबसे प्रभावकारी शस्त्र थे।
चन्द्रमुखी वसु, कादम्बिनी गांगुली और आनंदीगोपाल जोशी, स्वतंत्रा के पहले की कुछ ऐसी महिलायें थीं जिन्होंने प्रथम बार शैक्षणिक उपाधियाँ अर्जित कर अपनी सामाजिक सशक्तता प्रस्तुत की। महिलाओं की शैक्षणिक और सामाजिक गतिशीलता 1927 के अखिल भारतीय महिला शिक्षा सम्मेलन (पूणे) तथा 1929 के बाल विवाह निषेध कानून के रुप में सामने आई। राष्ट्रपिता ने इसका व्यापक समर्थन किया। भीकाजी कामा, ऐनी बेसेंट, विजयालक्ष्मी पंडित, अरुणा आसफअली, सुचेता कृपलानी, राजकुमारी अमृतकौर, सरोजनी नायडु, कस्तूरबा गांधी और लक्ष्मी सहगल स्वतंत्रता से पूर्व की सशक्त महिला प्रतिरुप हैं, जिनसे प्रेरित हो महिलायें आज भी अपने जीवन के कार्यों और उद्देश्यों को संचालित करती हंै।
स्वतंत्रता के पश्चात्
स्वतंत्रता के पश्चात् सुधारों की गतिविधि बढ़ीं और संवैधानिक तथा कानूनी प्रयासों से शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति, कला, साहित्य, मीडिया, उद्योग, विज्ञान, राजनीति आदि क्षेत्रों में महिलाओं नेे सक्रियता से भाग लेने के लिये प्रेरित हुयी। अनु0 14, 15, 15(1), 16, 39(क), 42, 46, 51(1) (क), 330, 332, 335, 338, 342 के रुप में संविधान महिलाओं को विशेष गारंटी प्रदान करता है। 1970 के बाद नारीवादी कार्यकर्ताओं में भी तेजी आई और मथुरा बलात्कार कांड राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं द्वारा चिंतन तथा चेतना का पहला मुद्दा बना। इस काण्ड का महिलाओं द्वारा प्रतिरोध, मीडिया द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत किया गया जिसके परिणामस्वरुप सरकार को साक्ष्य कानून, सी0पी0सी0 और आई0पी0सी0 में सुधार लाने के लिये विवश होना पड़ा और ‘कस्टोडियल रेप’ के रुप में एक नई श्रेणी बनायी गयी। घर और कार्य स्थलों पर मद्यपान तथा द्रव्य व्यसन के कारण महिलाओं के विरुद्ध घटित हिंसा के लिये आज कई महिला समूह’ आंध्रप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में ‘मद्यपान विरोधी मूहिम’ संचालित कर रही हैं। बहुत सी भारतीय मुस्लिम महिलाओं ने शरीयत कानून के अन्तर्गत महिला अधिकारों की व्याख्या और त्री स्तरीय तलाक प्रणाली की व्याख्या करने वाले रूढि़वादी नेताओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। 1990 के बाद विदेशी तथा सरकारी संस्थाओं से अनुदानित महिला उन्मुख गैर-सरकारी संगठन, स्वयं सहायता समूह, महिला दलों के रुप में महिला के अधिकारों की रक्षा तथा उनको सशक्त बनाने हेतु कार्य करना प्रारंभ किया है। सेवा, प्रिया, बचपन बचाओ, गुडि़या, किरन और आशा को महत्वपूर्ण उदाहरण के रुप में प्रस्तुत किया जा सकता है। स्थानीय अधिकारों और आंदोलनों के रुप में मेधा पाटेकर, अरून्धती राय, इला आर0 भट्ट जैसी महिलायें सामाजिक मंच पर सामने हैं जिन्होंने सुधारों से सशक्तिकरण को तीव्रता प्रदान की है।
महिलाओं की स्थिति का आकलन करने वाली आयोग के नकारात्मक प्रतिवेदन के बाद सुधारों में कुछ इजाफा हुआ और सरकार द्वारा 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग व 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया जो महिलाओं में कानूनी जागरूकता, चुनावी सहभागिता, कृषिगत कार्यों में सुरक्षा व सहयोग, जेल के अमानवीय यातनाओं से छुटकारा, संस्थात्मक क्षमता को संवेदीकृत व ताकत प्रदान करना तथा उपलब्ध स्रोतों का बेहतर तालमेल के साथ इस्तेमाल को प्रस्तावित करता है। 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन के साथ महिलाओं को ग्रामीण और नगर स्तर पर स्थानीय नेतृत्व करने की राजनीतिक शक्ति प्रदान की गई। महिलाओं के लिये, तैंतीस प्रतिशत आरक्षण की मांग विधानसभा तथा संसद में प्रतिनिधित्व हेतु 1990 के बाद से उठायी जा रही है लेकिन संसद के पटल पर यह पुरुष आधिपत्य से जकड़ी व्यवस्था का समर्थन हासिल नहीं कर पा रहा है। हालांकि 28 जनवरी 2008 को विपक्ष की एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी ने संगठन में पंचायत से लेकर केन्द्रीय स्तर तक महिलाओं को निर्धारित अनुपात में पद देने की घोषणा की है। अन्य राजनीतिक दलों द्वारा भी सीटें सुनिश्चित करने की बात की जा रही है। इस दौरान कुछ महत्वपूर्ण नीतियाँ, योजनायें भी संचालित की गई। जैसे- ड्वाकरा, ट्राइसेम, जे0आर0वाई0, एन0एस0ए0पी0, एन0एम0वी0एस0, एन0ओ0पी0एस, एन0एफ0बी0एस0, सी0आर0एस0पी0, कपार्ट, नाबार्ड, राष्ट्रीय महिला कोष, आई0सी0डी0एस0 इत्यादि।
21वीं शदी का प्रथम दशक
भारत सरकार ने वर्ष 2001 को ‘महिला सशक्तिकरण वर्ष’ घोषित किया है, जो स्वशक्ति या स्त्रीशक्ति के रुप में भी प्रतिबिंबित होता है। 2001 से महिलाओं के लिये राष्ट्रीय नीति की भी घोषणा हुई है। यह राष्ट्रीय नीति राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रुप से महिलाओं को सबल बनाती है। वैयक्तिक रुप से अपमानित होने तथा घरेलू हिंसा से बचने हेतु कानूनी न्यायिक प्रणाली को अतिशय उत्तरदायी और लिंगीय रुप से संवेदनकृत करता है। इससे जहाँ समुदाय में पूर्ण सहभागिता के अवसर प्राप्त होते हैं वहीं विवाह, तलाक व किसी भी प्रकार की क्षतिपूर्ति हेतु धार्मिक नेताओं को परिवर्तन के लिये प्रोत्साहित करने के लक्षण नीहित है। इससे संपत्ति और उत्तराधिकार में महिला को कानूनी हक प्राप्त होता है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, उद्योग एवं व्यापारिक प्रतिष्ठान व विभिन्न स्तर की समितियों में लिंग भेदभाव की समाप्ति का प्रयास राष्ट्रीय नीति का प्रमुख उद्देश्य है ताकि विकास की प्रक्रिया में महिलायें शामिल हो सकें।
महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण के लिये सूक्ष्म आर्थिक नीतियों को क्रियान्वित व निर्धनता समाप्ति हेतु कार्यक्रम को संचालित करना शामिल है ताकि सेवाओं के अन्तर्गत महिलाओं का गत्यात्मक स्वरूप विद्यमान रह सके। सूक्ष्म ऋण, उपभोग व उत्पादन हेतु वित्तीय संस्थाओं की स्थापना, कार्य की सहभागिता में वृद्धि करने का एक प्रयास है जो आर्थिक सहयोग की पुरानी रणनीति व कार्ययोजना को पुनर्संशोधित करता है। वैश्वीकरण के लगातार बढ़ते असमान प्रभावों ने लिंग भेदभाव को अर्थतंत्र मे संचालित किया है। इससे ग्रामीण क्षेत्र की महिलायें जो असंगठित क्षेत्र में कार्य कर रही हैं उनके लिये असुरक्षित वातावरण का सृजन हुआ है। कृषि के क्षेत्र में ग्रामीण महिलायें सशक्त रहे इसके लिए मृदा संरक्षण, सामाजिक वानिकी, दुग्ध उद्योग का विकास, छोटे पशुओं की देखभाल, मुर्गीपालन, मछलीपालन को बढ़ावा देना एक रणनीतिक कदम है। इनके कार्य प्रतिशत को इलेक्ट्रानिक सूचना प्रौद्योगिकी, खाद्य प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग) व कृषि उद्योग में बढ़ाना है तथा रात्रिकालीन कार्यों हेतु सुरक्षा, पारदर्शिता तथा परिवहन की सुविधा प्रदान करना है। इन सेवाओं को महिलाओं हेतु मित्रवत् बनाकर उनकी कार्यक्षमता तथा लिंग समानता में वृद्धि किया जा सकता है।
ग्रामीण महिलायें सामाजिक रुप से भी सशक्त हो इसके लिये शिक्षा के सार्वभौमिकीकरण के साथ, बालिकाओं का नामांकन प्रतिशत बढ़ाना सरकार का प्रमुख लक्ष्य है। व्यवसायिक, पेशेवर, तकनीकी कुशलता की महिलाओं में इजाफा, सेकेन्डरी और उच्चतर शिक्षा में लिंग अंतराल को कम करना आधारभूत तत्व है तथा इसमें अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग तथा अल्पसंख्यक वर्ग की महिलायें मुख्य केन्द्र में हैं। ग्रामीण महिलायें पोषण के तत्व और समुचित स्वास्थ्य सेवायें प्राप्त करें और मातृत्व मृत्युदर, शिशु मृत्युदर कम हो, इसके लिये पुरातन, संक्रमणकालीन और अन्य यौन संचारित रोगों (एच0आई0वी0/एड्स) को दूर करने तथा महिलाओं की शास्त्रीय चिकित्सा पद्धति व तरीकों को संरक्षित व नवीन रुप में विकसित करने की कोशिश की जा रही है। यह जल स्वच्छता, चिकित्सा सुविधा, रहने के लिये घरेलू सुरक्षा तथा स्थानीय रूप से घरेलू वातावरण का निर्माण कर किया जा रहा है। कुछ ऐसे भी क्षेत्रों की पहचान की गई है जो महिलाओं को निर्बल व परजीवी बनता है। विस्थापन, भूकंप, प्राकृतिक झंझावत ऐसे कारण हैं जो महिलाओं को पतनोन्मुख बना देता है। पारंपरिक रुप से महिलाओं के विरुद्ध हिंसा, संपत्ति में भेदभाव, यौन उत्पीड़न, बालिका शिशु हत्या, बाल विवाह, बाल वेश्यावृत्ति को बहुलस्तरीय उपायों से नियंत्रित किया जा रहा है। इसके लिये भारतीय तलाक (संशोधन) अधिनियम 2001, भारतीय उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2002, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005, अनैतिक व्यापार (निरोधक) संशोधन विधेयक 2006, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से महिलाओं का संरक्षण विधेयक 2007, लघु ऋण से संबंधित विधेयक 2007 व असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 प्रभावी है। स्वाधार 2001-02, स्वयंसिद्धा 2001-02, जननी सुरक्षा योजना 2003-04, इकलौती कन्या छात्रवृत्ति योजना 2006-07, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन 2005, आयुश, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना 2007, राष्ट्रीय पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन नीति 2007, एन0आर0ई0जी0ए0 2006 व भारत निर्माण 2005-09 जैसी योजनायें मुख्य धारा से कटे व शोषित महिलाओं पर विशेष ध्यान देती है।
महिला सशक्तिकरण अभी भी एक चुनौती
विविध संवैधानिक तथा कानूनी प्रावधान के बावजूद (48 प्रतिशत से ऊपर) महिलायें राजनीतिक निर्णयन में सहभागी नहीं हो पा रही हैं। कुछ हद तक स्थानीय स्तर पर चयनित होने के बावजूद सत्ता और शक्ति का संचालन उनके पारिवारिक सदस्यों द्वारा किया जाता है। यह निर्णयन सहभागिता की स्वतंत्रता मात्र सांकेतिक है। महिलाओं पर वर्किंग ग्रुप की रिपोर्ट (2007) के अनुसार एच0आई0वी0 एड्स की संभाव्यता महिलाओं में (18-24 वर्ष के मध्य) वर्ष 2002 के 0.74 से बढ़कर 0.86 तक हो चुकी है। यह नियंत्रित होने के बजाय बढ़ रही है। मातृत्व मृत्यु दर जहाँ 400 से ऊपर है वही दूसरी तरफ महिला शिशु मृत्यु दर में कोई विशेष सुधार नहीं है। अभी भी 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या मात्र 933 है। महिलाओं की साक्षरता दर 1991 की तुलना में 39 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2001 में 54.3 तक तो हुआ है लेकिन यह 21.6 प्रतिशत से ऊपर का लिंग अंतराल है। 2001 में निरक्षरों की संख्या 296 लाख के करीब रही है जिसमें से 190 लाख तो मात्र महिलायें हैं जिसमें ग्रामीण महिलायें सबसे ज्यादा निरक्षर हैं। 253 जिलों में महिला साक्षरता की दर 50 प्रतिशत से नीचे है। साक्षरता में लिंग अंतराल, 2001 के आंकड़ों के अनुसार अनुसूचित जाति में 19 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजाति के लोगों में 24 प्रतिशत है। वर्ष 2001 में महिला कार्य सहभागिता दर 25.7 है। निर्धनता दर में कमी आयी है तथा यह लगभग 22 प्रतिशत है लेकिन अभी भी अधिकतर निर्धन महिलायें ही हैं। भारत में 397 लाख से अधिक मजदूर कार्य कर रहे हैं जिसमें 123.9 लाख मात्र महिलायें हैं और इसमें भी 106 लाख ग्रामीण क्षेत्रों में अदृश्य, असंगठित और अवैतनिक कार्यों में संलग्न हंै। असंगठित क्षेत्रों में कुल कार्यों का बहुतायत प्रतिशत महिलाओं का है। अधिकतर महिलायें निम्न आय श्रेणी से सम्बन्धित होती हैं। यह खासतौर पर इनकी उत्तरजीविता और घरेलू कार्यों से संबंधित होता है। 85 प्रतिशत से ऊपर ग्रामीण महिलायें कृषि कार्यों में संलग्न हैं। महिलाओं का कृषि कार्यों में सहभागिता दर अनवरत बढ़ रहा है। ग्रामीण महिलायें स्वास्थ्य समस्याओं से ज्यादा पीडि़त हैं जिनमें सीमान्तीकृत महिलाओं, अनुसूचित जाति-जनजाति तथा दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं में स्वास्थ्य संक्रमण और कुपोषण, एनीमिया, यौनिक संचरण से होने वाले रोगों का ज्यादा प्रभाव है। विकलांग भी सबसे ज्यादा महिलायें ही हैं। ये तीन प्रकार की सामाजिक प्रताड़ना का सामना कर रही है। प्रथम तो वे विकलांग हैं द्वितीय वे निरक्षर हैं और तृतीय निरक्षर व विकलांग होने के साथ गरीब और असहाय हैं। महिलाओं के प्रति अपराध में भी कोई कमी परिलक्षित नहीं हुई है। 20,000 से अधिक बलात्कार का मामला वर्ष 2006 के अंत तक दर्ज किया गया अर्थात् औसतम 55 बलात्कार प्रत्येक दिन। छेड़खानी की घटनायें भी रोज 100 से ज्यादे घटित होती हैं। प्रतिदिन औसतन 22 से ज्यादा महिलायें दहेज से प्रताणित और 170 से अधिक दहेज की क्रूरता का शिकार होती हैं। यह बढ़ती असुरक्षा और अपराध से पीडि़त महिलाओं का प्रतीक है जो हमारी कमियों को उजागर करता है और सशक्तिकरण की योजना पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है।
महिला सशक्तिकरण परियोजना को विखण्डित करने वाले कारक
महिलाओं की दशा सुधारने की प्रक्रिया औपनिवेशिक शासन काल से ही आरम्भ कर दी गई थी। स्वतंत्रता के बाद संवैधानिक तथा कानून नियामकों के द्वारा महिला कल्याण से महिला विकास और महिला समानता से महिला सशक्तिकरण के रुप में इसको तीव्रता भी प्रदान की है लेकिन जिन नकारात्मक तथ्यों का वर्णन हमने किया है उससे महिला सशक्तिकरण अभी भी एक अधूरी परियोजना है, जिसका प्रथम कारण ग्रामीण भारत में गुणवत्ता युक्त शैक्षणिक संस्थाओं का अभाव है। इसकी वजह से हम अभी भी महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखते हैं और शिक्षा का अभाव महिलाओं में व्यक्तिगत स्तर पर विकास और चैतन्यता के अभिलक्षणों को अवरुद्ध रखता है। इससे सीमान्तीकृत व निर्धन महिलायें ज्यादा प्रभावित हैं। द्वितीय कारण ग्रामीण भारत की विद्यमान रूढि़वादिता है। रूढिवादिता प्रगति उन्मुख रोजगार में लिंग अंतराल को बढ़ाता है क्योंकि हम अपनी सोच, कार्य करने की शैली तथा आयातित संस्कृति के अनुरुप, ग्रामीण भारत में अपने आप को तैयार नहीं कर पाते हैं और महिलाओं को असुरक्षित समझकर उन्हें सुरक्षित रखने के लिये तथा प्रतिष्ठा और सम्मान का विषय समझकर प्रायोगिक तथा नवीन सामाजिक व्यवस्था में सहभागी होने से अवरुद्ध करते हैं और महिलाओं की सहभागिता की कमी से अनवरत् व्यवसायिक लिंग अंतराल बढ़ता जाता है। तृतीय कारण निम्न व वंचित तबकों की महिलाओं पर विशेष जोर नहीं देना। पिछड़े, सीमांतीकृत और गरीब तबकों से संबंधित महिलाओं को विकास की परियोजना में दूर रखा जाता है क्योंकि आज भी विकास कार्यक्रमों को लागू करने और उसकी सही तरीके से प्रयुक्तीकरण करने वाले उच्च पदस्थ अधिकारी या राजनेता अपने घृणित स्वार्थपूर्ति के लिये इनको विकास कार्यक्रमों से दूर रखना, अपने लिये अत्यावश्यक समझते हैं क्योंकि ये निम्न व पिछड़े वर्ग की महिलायें जितनी जागरूक होंगी उच्च पदस्थ लोग उतने ही संकटग्रस्त होते जायेंगे। इनका आज भी उद्देश्य मानसिक अलगाव के द्वारा अपने लक्ष्यों को पूरा करना तथा उनके लाभों को अपने लिये प्रयुक्त करना एक प्रमुख सामाजिक सह व्यवसायिक गुण है। चैथा कारण स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है। स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण हम 70 प्रतिशत से अधिक ठीक होने वाले रोगों से लड़ नहीं पाते है। एनीमिया, टी0बी0, खांसी, कुपोषण, हैजा और मलेरिया जैसी कुछ बिमारिया हैं जो आसानी से नियंत्रित की जा सकती है और रोगों से बचा जा सकता है। इसके अन्तर्गत भी अनुसूचित जाति और जनजाति महिलायें ज्यादा प्रभावित हैं। बालिका भू्रण हत्या के साथ बढ़ता मातृत्व मृत्यु दर भी इसका एक दूसरा पहलू है। बालिका भू्रण हत्या की सच्चाई पारिवारिक सामाजिक बोझ तथा वंशावली निर्योग्यता की पुरातन विचारधारा है वहीं मातृत्व मृत्यु दर तत्काल समय पर कुशल गुणवत्तायुक्त स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है व अकुशल एवं अशिक्षित लोगों द्वारा जन्म कार्य संचालन (डिलिवरी) भी प्रमुख है। नवीन युवा पेशेवरों का गाँवों तथा दूरस्थ क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा देने से मना करना भी आज स्वास्थ्य समस्या से लड़ते ग्रामीण भारत के लिये परेशानी खड़ा करने वाला एक ज्वलंत मुद्दा है। जिसे हम हाल में समाचारों की सुर्खियों में देख चुके हैं। शायद यह नैतिकता, कार्य के प्रति लगन का अभाव और जिस ग्रामीण समुदाय पर भारत का भविष्य है उसके प्रति विवकेशीलता की कमी है। पांचवा कारण आर्थिक सुविधाओं और ऋण प्रदान करने वाले संस्थाओं की कमी है। अभी भी ग्रामीण भारत की बहुसंख्यक महिलायें रोजगार, व्यवसाय, घर-गृहस्थी की सुरक्षा व अध्ययन कार्य को सम्पन्न करने हेतु किसी प्रकार का आर्थिक सहयोग या ऋण नहीं पा पाती हैं क्योंकि आर्थिक संस्थाओं का नेटवर्क पंचायत स्तर तक नहीं पहुँच पाया है। तहसील और जिला स्तर पर जो संस्थायें कार्य कर रही हैं उनकी कार्य प्रक्रिया आसान न होने के साथ-साथ विकासवादी सोच को जारी रखने के अभाव से भी ग्रसित है। छठां कारण उपर्युक्त समय पर विकास कार्यक्रमों तथा कानूनी सुरक्षात्मक प्रक्रियाओं का जानकारी न मिलना भी शामिल है। निःसन्देह हम चिंतित हैं और महिलाओं के सशक्तिकरण के लिये चिंतन भी कर रहे हैं। इसे केन्द्रीय सरकार द्वारा अनवरत लागू की जाने वाली योजनाओं के विकास कार्यक्रमों के रुप में देख सकते हैं लेकिन जिस वास्तविक (अन्तिम) व्यक्ति के लिये ये योजनायें व कार्यक्रम बने हैं उन तक यह सूचनाओं के अभाव के कारण पहुँच नहीं पाता है। विकास कार्यक्रमों का समुचित जानकारी न होना भी इनकी अशक्तता का कारण है। अभी हाल ही में भारत के एक युवा राजनेता ने विकास कार्यक्रमों के लिये जारी धनराशि के अतिशय कम पहुँच को पिछड़े इलाकों की दयनीय दशा का प्रमुख कारण बताया है। कहीं न कहीं से यह सार्वजनिक पद पर आसीन उच्च पदस्थ लोगों के लिये निर्धारित कर्तव्यों, दायित्वों और अधिकारों के गलत दुरुपयोग को अभिचित्रित करता है। कानूनी व सुरक्षा के स्तर पर समान संहिता का अभाव, असमान वातावरण की स्थिति, मुस्लिम महिलाओं का उत्तराधिकार से विलगाव, शरीयत का शास्त्रीय धर्मवेत्ताओं द्वारा गलत विश्लेषण, हिन्दू महिलाओं का उत्तराधिकार के प्रति जागरूकता का अभाव भी इनकी अशक्तता का कारण है। सातवंा कारण महिलाओं की संकुचित अभिधारणा है। महिलाओं के प्रति अपराधिक घटनायें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इसके लिए महिलाओं की संकुचित सोच भी उत्तरदायी है। भारतीय समाज में महिलायें स्वयं के प्रति घटित किसी भी अपराध को सामान्यकृत नहीं होने देना चाहती हैं। घटना को प्रचारित प्रसारित करने की बजाय वह इसे स्वयं सहन करना पसन्द करती हैं। बलात्कार और छेड़छाड़ से पीडि़त महिला कानूनी व आर्थिक सुरक्षा के बावजूद अपराध का खुलासा नहीं करती है कारण कि भारतीय समाज में पीडि़त महिलायें हेय दृष्टि से देखी जाती हैं। सामाजिक दृष्टि व मान्यताएं विवाह करने और अन्य सामाजिक भागीदारी हेतु अयोग्य घोषित कर देती हैं। अयोग्य न होने की चाह, उसकी अभिधारणा को जनसामान्य के बीच लाकर प्रतिवाद करने से रोकती है जिसका प्रतिफल अपराधी का उत्साहित होने के साथ सामने आता है।
महिला सशक्तिकरण की सम्भावनायें
महिलाओं को सशक्त कर सकते हैं अगर प्रथम स्तर पर संवेदनहीन दुर्योधन संस्कृति को रोका जाय। यह संस्कृति अपराध, हिंसा, बलात्कार, छेड़छाड़ व यौनिक तनावों व कंुठाओं का आधार है। इसके लिए हमें सामुदायिक सम्बद्धता को बढ़ावा देना होगा और महिलाओं के साथ हम का भाव विकसित कर आमजन को उनके प्रति सभ्य और संवेदनशील बनाना होगा। द्वितीय स्तर पर संस्कारों का विकास कर सांस्कृतिक प्रदूषण को नियंत्रित किया जाय। आज सार्वभौमिकीकरण के दौर में हमने आयातित मूल्य व विचारधाराओं को स्वीकार करने की ओर तेजी दिखाई है लेकिन अतिशय बाजारीकरण और स्वछंद होने के कारण हमने अपने सम्मानीय व श्रेष्ठ मूल्यों का तो परित्याग कर दिया है लेकिन आयातित सांस्कृतिक गुणों को पूर्णतः आत्मसात नहीं कर पाये हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि हम सांस्कृतिक लकवे का शिकार हो गये हैं। तृतीय स्तर पर शिक्षा और विवकेशीलता का अनवरत प्रसार होना चाहिये। हालांकि महानगरीय समाज जितना शिक्षित हो रहा है उतना ही वहाँ महिलाओं को प्रति अपराध भी बढ़ता जा रहा है। इसका कारण शिक्षा के साथ विवकेशीलता का अभाव है क्योंकि विवकेशीलता आंतरिक श्रेष्ठ गुणों के संवर्धन व संचालन का स्रोत है। चतुर्थ स्तर पर स्वास्थ्य और परिवहन जैसी आधारभूत सुविधाओं का व्यापक स्तर पर विस्तार करना होगा। असंगठित, कृषि और खतरनाक कार्यों में कार्यरत महिलाओं की स्वास्थ्य सुविधाओं की जरूरत नहीं समझी जायेंगी तो आने वाली महिलायें निःसन्देह अशक्त, अस्वस्थ तथा विकलांग होंगी और यही हमारे भविष्य का संसाधन होंगी। विकलांग संसाधन, विकलांग देश का प्रतीक होगा। अतः स्वास्थ्य और परिवहन के सुविधाओं के विस्तार से हम स्वस्थ महिला तो स्वस्थ देश की परियोजना को साकार कर सकते हैं। पांचवे स्तर पर छोटे-छोटे आर्थिक सहायता और साख ऋणों को देने वाली संस्थाओं की स्थापना करनी होगी। इससे शिक्षा व स्वरोजगार स्थापना के लिए जहाँ हम महिलाओं को तुरंत सहायता दे सकते हैं, वहीं दूसरी तरफ विस्थापन, प्रवजन, प्राकृतिक आपदा व संकट से ग्रस्त महिलाओं के स्वस्थ विकास को सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं। क्योंकि आपदा, संकट, प्रवजन तथा विस्थापन से ग्रस्त महिलायें आर्थिक संकट के कारण यौन व्यवहार व वेश्यावृत्ति की ओर उन्मुख होती हैं। वहीं यह अन्य अपराधिक गतिविधियों तथा विध्वंसक कार्यों को करने के लिये प्रेरित करता है। अतः सही समय पर छोटे-छोटे संस्थाओं के आर्थिक सहयोग से हम इन्हें नकारात्मक कार्यों से बचा सकते हैं तथा आर्थिक सामाजिक रुप से सशक्त भी कर सकते हैं। मोहम्मद युनुस के गरीब तबकों के लिये ‘लघु ऋण’ की अभिधारणा और इला आर0 भट्ट का ‘सेवा’ से सीमांतीकृत महिलाओं को वित्तीय सहयोग प्रदान करना हम सबके लिये एक बेहतर उदाहरण है। छठें स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी के अनवरत प्रसार को प्रस्तावित किया जा सकता है। यह एक यथार्थ सत्य है कि विश्व के साथ कदम ताल करना है तो भारतीय ग्रामीण महिलाओं की अन्तर्संयोजित व एक-दूसरे से व्युत्पन्न होने वाली समस्याओं का उन्मूलन करना होगा और इसमें सूचना प्रौद्योगिकी के उपकरण इंटरनेट, ई-मेल, मोबाइल, डी0टी0एच0 बेहतर साधन साबित हो सकते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी से जहां सूचनायें मिलने से पारदर्शिता तथा कार्य में गुणवत्ता आती है वहीं यह भ्रष्टाचार की जीवनशैली को निस्तारित तो करता ही है साथ ही साथ सही चेतना का प्रसार करता है। सही चेतना महिलाओं में विकास को प्रोन्नत करता है। सूचना प्रौद्योगिक भारतीय सामाजिक संगठन की विकृतियों को जहाँ दूर करता है वहीं इसे नवीन सामाजिक संगठन के रुप में आवश्यक पुनर्संशोधन के द्वारा प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। उदाहरण के लिये स्वामीनाथन का पांडिचेरी में सूचना गांव (इनफारमेशन विलेज) का प्रतिरुप जो प्रत्येक स्तर पर प्रत्येक का सशक्तिकरण है। मीडिया यह कार्य महिलाओं के ज्वलंत समस्याओं को सामने लाकर आसानी से और सकारात्मक रुप में कर रही है और यही महिलाओं का मीडिया सशक्तिकरण है।
कहा जा सकता है कि हम संवैधानितक आरक्षण प्रदान करें या कानूनी संस्थाआंे का विस्तार करें, महिला सशक्तिकरण एकाकी प्रयास नहीं है, बल्कि बहुत स्तरों पर बहुल तरीके से किया गया एक सकारात्मक प्रयास है। यह अन्तःजन्य परिस्थितियों को मजबूत बनाने के साथ महिलाओं की वाह्यजन्य परिस्थितियों की भी सबलता है क्योंकि अगर महिला सशक्त होगी तो परिवार सशक्त होगा, परिवार सशक्त होगा तो समाज सशक्त होगा और समान सशक्त होगा तो राष्ट्र सशक्त होगा। इसे हम ‘महिला सशक्त अर्थात् भारत सशक्त’ के रुप में प्रदर्शित कर सकते हैं।
संदर्भ ग्रन्थ
1- Shakuntala, N.: Empowering Women : An Alternative Strategy from Rural India, New Delhi, Sage Publications 1999.
2- Boraian, M.P.: Empowerment of Rural Women, The Indian Journal of Social Work, Vol. 64, No. 4, 2003 p.521-530.
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10. अर्चना द्विवेदी: स्वयं सहायता समूह बनाम लघु ऋण उद्देश्य और हकीकत का फासला, योजना, फरवरी 2008, पृ0 33-35
11. अनुराग मिश्रा और संदीप: इस व्यक्ति को श्रेय दें, योजना, ज 2008, पृ0 19-21
12. अमर उजाला, 29 जनवरी 2008

महिला सशक्तिकरण और सामाजिक विद्यायन


डाॅ0 अजीत कुमार
प्रवक्ता, राजनीति विज्ञान , आर0आर0पी0जी0 काॅलेज, अमेठी, सुल्तानपुर


किसी भी समाज की कल्पना बिना नारी के नहीं की जा सकती, समाज का स्वरूप वहाँ की नारी की स्थिति पर निर्भर करता है, न केवल हमारा देश अपितु सम्पूर्ण विश्व इस सत्य को नहीं नकार सकता और यदि कोई समाज या देश इस सत्य के साथ कोई भी छेड़छाड़ करता है तो उसका दुष्परिणाम उसे तुरन्त मिलने लगता है। नेपोलियन बोनापार्ट ने नारी की महत्ता को बताते हुए कहा था कि ‘‘मुझे एक योग्य माता दो मैं तुमको एक योग्य राष्ट्र दूँगा।’’ भारत में भी नारी के संदर्भ में युक्ति है कि- ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’’ अतीत से ही नारी का समाज में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। उसे सुख-समृद्धि का प्रतीक माना जाता रहा है, यह स्थिति काफी समय तक चलती रही किन्तु समयानुसार स्वार्थवश नारी को मात्र भोग-विलास की वस्तु मान लिया गया। यही कारण था कि समाज में नारी की स्थिति दयनीय हो गयी।
डाॅ0 राधाकृष्णन् ने जीवन में नारी के महत्व को स्पष्ट करते हुए बताया है कि, ‘‘जब आकाश बादलों से काला पड़ जाता है, जब हम अंधकार में अकेले होते हैं प्रकाश की एक किरण भी नहीं दिखाई देती और चारों ओर सिर्फ कठिनाईयाँ ही कठिनाईयाँ होती हैं तब हम अपने आपको किसी प्रेममयी नारी (माँ) के हाथों में छोड़ देते हैं और निश्चिंत हो जाते हैं।
शास्त्रों में भी नारी के संबंध में मिलता है कि-
‘‘या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमों नमः।।
महिलाओं से संबंधित मुद्दे वैश्विक और सार्वभौमिक है। समता विकास और शांति पर आधारित समाज के लिए यह अति आवश्यक है कि महिलाओं का सर्वांगीण विकास और उनके अधिकारों को सम्मान मिले।
विश्व स्तर पर महिला सशक्तिकरण: यद्यपि प्राचीन काल से आज तक विद्वानों का मत अपने जगह कायम रहा है कि स्त्रियों के उत्थान के बिना सामाजिक उत्थान सम्भव नहीं है। इसीलिए प्लेटो रिपब्लिक में स्त्री शिक्षा की अनिवार्यता को स्वीकार करते हैं। अरस्तू, मिल, माक्र्स, ग्रीन और गाँधी तक ने जब मानव जाति के उत्थान पर विचार किया है, स्त्रियों की दशा एवं दिशा पर विचार किया है। इतिहास गवाह है कि वे समाज एवं सभ्यतायें विनाश के गर्त में समा गई जिनमें स्त्री को वस्तु के रूप में निरूपित किया गया। आज भी युद्ध,भूख, महामारी, अशिक्षा एवं अस्वास्थ्यकर स्थित से जूझते विश्व के समक्ष स्त्रियों की दशा सुधारने का प्रश्न ज्वलंत है। स्त्रियों के अधिकारों एवं सम्मानजनक स्थिति के निर्माण के लिए समस्त जनसेवी विश्व संस्थायें सक्रिय हैं। विश्व संगठन का प्रयास इसी प्रयास की एक कड़ी है।
1946 में आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा स्थापित महिलाओं के परिस्थित पर कमीशन परिषद की एक कार्यकारी परिषद है। महिलाओं की प्रस्थित पर कमीशन ने राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक क्षेत्रों में महिलाओं के अधिकारों की प्रोन्नति तथा पुरूषों के समान महिलाओं द्वारा समान अधिकारों की प्राप्ति के क्षेत्र में अमूल्य योगदान दिया है।
1949 में महिलाओं की राष्ट्रीयता से सम्बन्धित अभिसमय तैयार की जाने की अनुशंसा महिलाओं की परिस्थित कमीशन ने की ताकि महिलाओं को राष्ट्रीयता के मामले में पुरूषों के समान समानता प्राप्त हो सके तथा उन्हें विवाह या विवाह विच्छेद से होने वाली विराष्ट्रीयता से बचाया जा सके। इस संदर्भ में 1957 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विवाहित महिलाओं की राष्ट्रीयता पर अभिसमय को अंगीकार किया। इसमें निम्न प्रावधान रखे गये-
1. राज्य पक्षकार के राष्ट्रीयता वाली महिला व विदेशी के मध्य विवाह अथवा विवाह विच्छेद तथा पति के राष्ट्रीयता के परिवर्तन से पत्नी की राष्ट्रीयता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
2. किसी अन्य राज्य की राष्ट्रीयता प्राप्त करने या राष्ट्रीयता के परित्याग करने वाले पुरूष की पत्नी की राष्ट्रीयता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा अर्थात् पत्नी अपनी राष्ट्रीयता कायम रख सकती है।
3. एक राष्ट्र की राष्ट्रीयता वाले पुरूष की विदेशी पत्नी विशेषाधिकृत प्राकृतिकरण प्रक्रिया से पति की राष्ट्रीयता प्राप्त कर सकती है परन्तु ऐसी राष्ट्रीयता प्रदान करना कुछ परिसीमाओं के अधीन होगा जो राष्ट्रीयता सुरक्षा या लोक नीति के अधीन लगाई जा सकती है।
4. वर्तमान समय में ऐसे किसी कानून या न्यायिक अभ्यास पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालेगा कि ऐसी राष्ट्रीयता वाले व्यक्ति की पत्नी प्रार्थना करके अधिकार के रूप में पति की राष्ट्रीयता प्राप्त कर सकती है।
29 मार्च से 7 अप्रैल 89 तक हुए सत्र में कमीशन ने इस बात पर बल दिया है कि महिलाओं के उत्थान के लिए अंकित आंदोलन को पुनर्जीवित किये जाने के लिए कुछ विशेष कार्यों को किया जाना आवश्यक है। कमीशन ने विभिन्न विषयों पर अपने विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत किये हैं जैसे- एड्स, बुढ़ापा, शरणार्थी एवं विस्थापित महिलाओं, जाति एवं गरीबी भेदभाव पर 23 पाठ अंगीकार किये तथा आर्थिक-सामाजिक परिषद को अनुमोदन हेतु भेजा गया है।
1993 के विएना में हुए सत्र में महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा की समाप्ति के विषय में सर्वसम्मति से प्रारूप घोषणा का अनुमोदन किया गया। राष्ट्र संघ महासभा के 49 वें सत्र में इसे अंगीकार किये जाने हेतु भेजा गया। इसमें यह संस्तुति प्रस्तुत की गई कि महिला हिंसा संयुक्त राष्ट्र संघ के तीन मुख्य लक्ष्य समानता, विकास और शांति की प्राप्ति के लिए एक बाधा है। इस प्रकार पहली बार व्यक्त रूप से महिलाओं के विरुद्ध भौतिक, लैंगिक तथा मानविक हिंसा के मसले को हल करने का प्रयास किया गया।
1994 में न्यूयार्क में हुए सत्र में कमीशन ने समान कार्य करने के लिए समान वेतन शहरों में रहने वाली महिलाओं तथा महिलाओं के विरुद्ध हिंसा समाप्त करने के मामलों पर विचार किया।
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद- एक में उद्घोषित किया गया कि ‘सभी मानव व्यक्ति स्वतंत्र जन्में हैं तथा उनकी गरिमा एवं अधिकार समान हैं।’’ स्पष्ट है कि व्यक्तियों के अवैध व्यापार एवं महिलाओं के वेश्यावृत्ति पूर्ण असंगत है। राष्ट्र संघ के अन्तर्गत इस विषय पर विधि निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया था। संयुक्त राष्ट्र संघ का इस विषय पर न केवल विधि को संगठित करना था बल्कि इस बुराई को प्रभावशाली ढंग से दूर करने का उपाय करना था। इस उद्देश्य से वेश्यावृत्ति शमन का अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय 25 जुलाई 1951 से लागू किया गया। इसमें ऐसे व्यक्तियों को दंडित करना स्वीकार किया गया-
1. जो वेश्यावृत्ति के प्रयोजन हेतु किसी अन्य व्यक्ति चाहे उसके सम्मति से ही क्यों न हो प्राप्त करता हो, फुसलाता हो या लाता है।
2. जो अन्य व्यक्ति की वेश्यावृत्ति का शोषण करता है चाहे वह उसकी सहमति से ही क्यों न किया गया हो।
महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव शब्दों से तात्पर्य है लिंग पर आधारित कोई भेद अपवर्जन या प्रतिबन्ध जिसके कारण उनकी वैवाहिक प्रास्थिति पर ध्यान दिए बिना राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सिविल या अन्य कोई क्षेत्रों में पुरुषों के समान मानव अधिकार एवं मौलिक स्वतंत्रताओं की महिलाओं द्वारा मान्यता, उपभोग या प्रयोग को क्षति पहुँचाया जाए।
राष्ट्र संघ चार्टर के अनुच्छेद 1 तथा 55 में वर्णित है ‘‘लिंग आदि के भेदभाव के बिना मानव अधिकारों एवं मौलिक स्वतंत्रताओं की सार्वभौमिक प्रोन्नति है। महिलाओं के विरूद्ध भेदभाव मानव गरिमा एवं समाज कल्याण के विरुद्ध है। यह महिलाओं या सम्भाव्य शक्ति की पूर्ण प्राप्ति में बाधक है। सार्वभौमिक घोषणा 1948 के अनुच्छेद 1 में यह वर्णित है कि सभी मनुष्य जन्म से ही गरिमा और अधिकारों की दृष्टि से समान एवं स्वतंत्र है। अनुच्छेद 3 में प्राण व दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है। अनुच्छेद 16 में विवाह करने एवं कुटुम्ब स्थापित करने का अधिकार है। तेहरान घोषणा 1968 में महिलाओं के भेदभाव से सम्बन्धित है जिसमें यह कहा गया है कि दुनिया के सभी क्षेत्रों में अब भी महिलाओं के साथ भेदभाव किया जा रहा है उसका समापन किया जाना चाहिए। 1975 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष की घोषणा की गयी जिसका उद्देश्य पुरुषों एवं महिलाओं के समानता के सिद्धान्त, सार्वभौम मान्यता विधितः और दृढ़ता प्रदान करता है। 7 नवम्बर 1967 को महासभा ने महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव की समाप्ति की घोषणा पारित की है। घोषणा में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की समानता को कम करना या इन्कार करना मानव गरिमा के विरुद्ध अपराध है। अनुच्छेद 2 के माध्यम से महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव करने वाली विधियाँ, प्रथायें, विनियमों एवं अभ्यासों को समाप्त करने के उपयुक्त उपाय किये जायेंगे। महिलाओं एवं पुरुषों को समान अधिकारों के लिए उपयुक्त विधिक संरक्षण स्थापित किया जायेगा। महिलाओं को कानूनी क्षेत्रों मे पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त होंगे उन्हें सम्पत्ति प्राप्त करने; उनका प्रशासन करने, उपभोग करने, व्यय करने तथा उत्तराधिकार प्राप्त करने का अधिकार होगा। इसके अतिरिक्त विवाह की न्यूनतम आयु से विद्यायनी समेत विवाह का अनिवार्य पंजीकरण करना होगा।
उपर्युक्त अधिनियमों के अतिरिक्त भी संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिला अधिकार के क्षेत्र में पुरुषों के समान अधिकार प्रदान करने के लिए कुछ कार्य किए गए हैं जो निम्नलिखित हैंः-
1. अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संस्था द्वारा 1951 में पुरुषों एवं महिला अधिकारियों को समान कार्य पर समान वेतन का अधिनियम है।
2. 1952 में मतदान के अधिकार सहित समान राजनैतिक अधिकार।
3. नियोजन एवं उपजीविका से संबंधित भेदभाव पर अधिनियम, 1960
4. महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव की समाप्ति की घोषणा 1967
5. महासभा द्वारा महिलाओं के संयुक्त राष्ट्र दशक के लिए स्वैच्छिक फंड तथा महिलाओं की उन्नति के लिए संयुक्त राष्ट्र शोध संस्थान की स्थापना।
6. 1980 में कोपनहेगन में महिलाओं पर द्वितीय एवं 1985 में नैरोबी में महिलाओं पर तृतीय सम्मेलन। इन सम्मेलनों में महिलाओं के लिए संयुक्त राष्ट्र विकास फण्ड कायम किया गया जो संयुक्त राष्ट्र विकास प्रोग्राम के अन्तर्गत एक स्वायत्त संस्था है।
7. 1986 में महिलाओं के विकास पर प्रथम विश्व सर्वेक्षण।
8. 1991 में महिलाओं की विश्व स्थितियों पर विश्व महिलायें, प्रवृत्तियों एवं सांख्यिकी का प्रकाशन।
9. 1992 में पर्यावरण एवं विकास पर महिलाओं की भूमिका पर सम्मेलन।
महिलाओं के मानव अधिकार को सुव्यस्थित करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रायोजित चार विश्व सम्मेलन हो चुके हैं:-
1. प्रथम विश्व सम्मेलन में मेक्सिकों में 1975 में हुआ जिसमें 1975 से 85 के दौरान महिलाओं के समानता, विकास तथा शांति पर अधिक बल दिया गया।
2. द्वितीय विश्व सम्मेलन कोपनहेगन में 1980 में हुआ जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य एवं नियोजन जोड़े गये हैं।
3. तृतीय महिला विश्व सम्मेलन नैरोबी में 1985 में हुआ जिसमें उपरोक्त तीनों विषय 2000 तक रचना कौशल के अन्तर्गत रखे गये।
4. चैथा महिला विश्व सम्मेलन चीन में बीजिंग में 1995 में हुआ जिसमें समानता, विकास और शांति के विषय को आगे बढ़ाया गया।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिला अधिकारों के क्षेत्र में किए गए उपरोक्त प्रयासों के संदर्भ में आवश्यकता है कि प्रत्येक देश के राष्ट्रीय एवं राज्य मानव अधिकार आयोगों द्वारा प्रस्तुत संकल्पनाओं को मूर्त रूप देने एवं महिलाओं को उनका उचित मौलिक अधिकार दिलाने का प्रयास करे।
भारत में महिला सशक्तिकरण: भारत हमेशा से महिलाओं के निमित्त अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर हिमायती रहा है। स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद ही भारत ने लिंग पर आधारित पूर्वाग्रह को मिटाने के लिए संगठित प्रयास किये हैं ताकि महिलायें सही अर्थों में पुरुषों के समान अपनी हैसियत का उपयोग कर सकें। भारतीय संविधान ने सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्यास सभी के लिए सुनिश्चित करने की बात की है। अनुच्छेद 14 सभी को विधि के समक्ष समता और विधियों का समान संरक्षण प्रदान करता है। अनुच्छेद 15 (1) लिंग पर आधारित भेद का प्रतिषेध करता है। अनुच्छेद 15 (3) महिलाओं के लिए विशेष उपबन्ध करता है। अनुच्छेद 16(2) नियोजन में लिंग भेद का प्रतिषेध करता है। अनुच्छेद 21 प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता की व्यवस्था की गयी है। अनुच्छेद 39 (क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध करना है। वहीं संविधान का 73 वां, 74 वां संशोधन पंचायतों और नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान करता है।
उपर्युक्त संवैधानिक व्यवस्था के अतिरिक्त महिलाओं के उत्थान एवं सुरक्षा से सम्बन्धित अन्य प्राविधान किये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं:-
।ण् भारतीय दण्ड संहिता 1860 में महिला संबंधी छेड़छाड़, लज्जा भंग, बलात्कार, यौन अपराध, दहेज आदि के लिए दण्ड की व्यवस्था है।
ठण् भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1972 के अन्तर्गत महिलाओं से संबंधित प्रावधान के धाराओं 112, 113 (क), 113(ख), 114(क) में विशेष उपबन्ध।
ब्ण् दीवानी प्रक्रिया संहिता 1908- महिला गिरफ्तारी से संबंधी विशेष उपबंध है जो कि महिला की विशेष स्थिति को ध्यान में रखते हुए है।
क्ण् भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925- महिला को उत्तराधिकार संबंधी अधिकार प्रदान करने के लिए यह अधिनियम विशेष उपबन्ध करता है जिससे महिला की स्थित सशक्त हुई है।
म्ण् हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 एवं विवाह विच्छेद अधिनियम 1969-में विवाहित महिलाओं के भरण-पोषण के उपबंधों का वर्णन है जिससे विवाह पश्चात् महिलाओं केा अधिकारों से वंचित न किया जा सके।
थ्ण् अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956- इसका उद्देश्य महिलाओं के अनैतिक व्यापार को समाप्त करना है जिससे वे गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत कर सकें।
ळण् गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम 1971- कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के उद्देश्य से यह अधिनियम बनाया गया है। जिससे गर्भ का लिंग पता लगाना अपराध है।
भ्ण् दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973- महिलाओं के भरण-पोषण एवं गिरफ्तारी से छूट के संबंध में विशेष उपबंध।
प्ण् स्त्री अशिष्ट रूपण (निषेध) अधिनियम 1986- इसका उद्देश्य विज्ञापन के माध्यम, प्रकाशन, लेख, रंग चित्रण में महिलाओं को अशिष्ट रूप से प्रदर्शन करने पर रोक लगाना है।
श्रण् घरेलू हिंसा अधिनियम 2005-हिंसा से महिला को संरक्षण प्रदान करना है।
इन सबके अतिरिक्त कई और अधिनियम और नियम महिलाओं की स्थिति सुधारने हेतु बनाये गये हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(3) के ही प्रावधानों का सहारा लेकर संसद ने 1990 में राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम पारित किया है। इस आयोग द्वारा महिलाओं के अधिकारों एवं समानता द्वारा लैंगिक न्याय पाने के लिए कोशिश करता है।
दहेज प्रतिषेध अधिनियम भी सामाजिक कुरीतियों पर नियंत्रण एवं दूर करने के लिए बनाया गया।
बाल विवाह अवरोध अधिनियम (1929) द्वारा बाल विवाह पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया एवं इस अधिनियम में 1978 में संशोधन के बाद अब विवाह की न्यूनतम उम्र बढ़ाकर वर के लिए 21 वर्ष और वधू के लिए 18 वर्ष कर दी गई है।
सती निवारण अधिनियम के द्वारा सती के अत्यधिक प्रभावी ढंग से निवारण और उससे सम्बन्धित मामलों के लिए उपबन्ध करने हेतु अधिनियमित किया गया है। सती प्रथा को भारत में अंग्रेजों ने विधि द्वारा 1829 में प्रतिबन्धित कर दिया था।
किन्तु इन अधिनियम और नियमों से केवल दण्ड देकर अपराध कम किये जा सकते हैं। समाप्त नहीं। क्योंकि इन अधिनियमों से समाज की मानसिकता को नहीं बदला जा सकता। समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी लड़की को जन्म नहीं देना चाहता शायद आज भी नारी को समाज में वो सम्मान नहीं मिला है कि हम कह सकें कि आज की नारी सशक्त है।
वास्तविक स्थितिः महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले सभी धर्मों, संस्कृतियों, समाज और समुदायों में पाये जाते हैं। स्वतंत्रता के उपरान्त से महिलाओं के सशक्तीकरण से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों के कारण हम उन्हें समाज में उचित स्थान दिलाने, सम्मान दिलाने और उनके अधिकारों के संरक्षण की दिशा में तेजी से बढ़े हैं।
महिलाओं के संदर्भ में आजादी के बाद की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी संविधान के 73 वें एवं 74 वें संशोधन (1993), का पारित होना, जिसके द्वारा महिलाओं को पंचायत और शहरी निकायों में एक तिहाई स्थान आरक्षित किया गया। यही नहीं इन संस्थाओं में प्रधान और अध्यक्ष पद के लिये एक-तिहाई पद भी महिलाओं के लिए आरक्षित किये गये ताकि केवल प्रतिनिधित्व ही नहीं नेतृत्व करने का अवसर भी मिले। हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 पारित किये जाने से देश की स्वतंत्रता के 58 वर्ष बाद यह संभव हुआ है कि महिलायें पैतृक सम्पत्ति में अपने हक का कानूनी दावा कर सकती हें।
दिल्ली स्थित एक सामाजिक अनुसंधान केन्द्र द्वारा कराये गये नये अध्ययन के अनुसार भारत में करीब 5 करोड़ महिलाओं को अपने घरों में हिंसा का सामना करना पड़ता है और उनमें मात्र 0.1 प्रतिशत ही अत्याचार के खिलफ रिपोर्ट करने के लिए आगे आती हैं। इस दिशा में घरेलू हिंसा संरक्षक विधेयक 2006 महिलाओं को राहत पहुँचाने में सक्षम है।
आज महिलायें रोजगार के सभी क्षेत्रों में कार्य कर रही हैं और कार्य करने की जगहों पर उनके साथ भेदभाव, शारीरिक शोषण और कई तरह के अधिकारों के हनन के मामले भी प्रकाश में आते हैं यह एक गम्भीर समस्या है इस समस्या को गंभीरता से मझते हुए उच्चतम न्यायालय ने सन् 1997 में एक मामले की सुनवाई करते हुए एक महत्वपूर्ण फैसला दिया जिसमें कामकाजी महिलाओं के मौलिक अधिकारों की व्याख्या की गयी है उच्चतम न्यायालय ने इस फैसले में शारीरिक शोषण को भी परिलक्षित किया है।
वर्तमान समय में प्रत्येक क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों के साथ कार्य कर रही हैं एवं सफल हो रही हैं। आज महिलाएँ डाॅक्टर हैं, वकील हैं, जज हैं, इन्जीनियर हैं, प्रोफेसर हैं, आर्किटेक्ट हैं, सफल राजनीतिज्ञ हैं, वैज्ञानिक हैं। भारतीय नारी की ये सब उपलब्धियोँ सच हैं पर उतना ही सच हैं उनकी स्थिति का अन्धकारमय पक्ष। हमें इस सत्य को नहीं भूलना चाहिये कि ये सब उपलब्धियाँ शहरी महिलाओं एवं मध्यम या उच्च वर्ग की महिलाओं तक ही सीमित है। यदि आन्तरिक तौर पर देखा जाये तो आज भी ये प्रगतिशील कहीं जाने वाली महिलायें पूर्ण रूप से पति, पिता, भाई, पुत्र अर्थात् पुरुष वर्ग पर निर्भर हैं। अधिकांश स्त्रियाँ अपने कोई भी निर्णय पुरुष वर्ग की इच्छा के बिना नहीं ले सकती। निम्न वर्ग की महिलायें तो पूर्ण रूप से घर की आर्थिक समस्या एवं जिम्मेदारियाँ उठाने के बावजूद भी किसी तरह भी स्वतंत्र नहीं हैं। अपने निर्णय स्वयं नहीं ले सकती हैं। उसे बात-बात पर प्रताडि़त किया जाता है और लांछन सहना पड़ता है।
सैद्धान्तिक रूप से चाहे जो भी कहा जाये लेकिन व्यवहारिक रूप से नारी आज भी शोषित हो रही है। वर्तमान समय में आज भी नारी के समक्ष प्रमुख समस्यायें निम्नलिखित हैंः-
1. भारतीय महिलाओं के समक्ष जीवन-पर्यन्त आर्थिक समस्यायें रहती हैं जन्म से वह परावलम्बी रहती है। इसलिये आर्थिक आवश्यकताओं के लिए स्वयं कुछ नहीं कर सकती।
2. वस्तुतः भारतीय समुदाय की महिलायें स्वयं को समाज की प्राकृतिक शिकार मानती हैं। वे हिंसा को अपनी नियति मानकर आत्मसमर्पण कर देती हैं।
3. बहुत सी महिलायें संवैधानिक और धार्मिक बन्धनों के बीच अन्तर न समझकर उनसे बंधी रहती हैं।
4. महिलाओं को बचपन से ही लज्जा उनका गहना है ऐसे संबोधनों के कारण उनमें व्याप्त डर और भय की भावना व्याप्त हो जाती है।
5. देश में महिलाओं की साक्षरता का स्तर बहुत ही कम है। कन्या महाविद्यालय खोल देने से ही शिक्षा समस्या हल नहीं हो जाती है। आज की शिक्षा भारतीय नारी के आदर्श की रक्षा नहीं कर पा रही है। आर्थिक समस्या के कारण अशिक्षा की समस्या का जन्म होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में नारी का उद्देश्य एक नागरिक बनना नहीं बल्कि बच्चे पैदा करना एवं उन्हें पालना ही है। इसलिए वे शिक्षा को उचित नहीं मानती हैं।
6. भारतीय नारी के प्रति हिंसा के लिए बाल विवाह, पर्दा प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियाँ भी जिम्मेदार हैं जिसके कारण 10-15 वर्ष की बच्ची अपरिपक्व अवस्था में माँ बनकर बचपन खो देती है, जिसका परिणाम जीवन भर बीमारी, कमजोरी एवं असमय मृत्यु होती है।
आज भी लड़की एक अनचाही संतान होती है अनेकों कानून, सुविधाओं और प्रोत्साहन के बाद भी आज लिंगानुपात निरन्तर बदलता ही जा रहा है। नारियों की संख्या प्रतिदिन कम होती जा रही है।
21 वीं सदी में महिलाओं के प्रति अत्याचार समाज का घिनौना चेहरा है। स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा था, ‘‘स्त्रियों की दशा में सुधार न होने तक विश्व के कल्याण का कोई मार्ग नहीं।’’ किसी भी पक्षी का एक पंख के सहारे उड़ना नितान्त असंभव है। चिरकाल से चली आ रही नारी जाति की कोमलता, शक्ति और सहनशीलता के आदर्श को प्राप्त करने के लिए इन समस्याओं को समाप्त करना अति आवश्यक है। बनाये गये कानून को सफल बनाने के लिए असली लड़ाई हर महिला को स्वयं लड़नी होगी।
विश्व की कुल जनसंख्या में आधी जनसंख्या महिलाओं की है इस आधी आबादी को उपेक्षा से बचाने और गरिमापूर्ण जीवन देने हेतु निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए:-
1. महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए सर्वप्रथम समाज की मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा क्योंकि बिना जनमत के किसी भी कानून का महत्व नहीं होता। समाज में इस हेतु सकारात्मक भूमिका आवश्यक है। जब तक जनमत महिला वर्ग के पक्ष में नहीं होगा तब तक महिला सशक्तीकरण की कल्पना अधूरी है।
2. कहा जाता है कि बिना स्वयं के मरे स्वर्ग नहीं मिलता। अतः महिलाओं को अपनी स्थिति सुधारने हेतु स्वयं भी प्रयास करने होंगे। जैसे स्वयं को शिक्षित करें, अपने अधिकारों को जाने और उन्हें पाने के लिए अन्तिम क्षण तक संघर्ष करें ताकि कोई उन्हें अधिकारों से वंचित न कर सकें।
3. महिलाओं को स्वरोजगार योजनाओं के द्वारा आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने का प्रयत्न करें।
4. महिलाओं से संबंधित विद्यायनों एवं योजनाओं का समुचित प्रचार-प्रसार न होने से महिलायें इन लाभों से वंचित रहती हैं। अतः ऐसी योजनाओं का समुचित प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए।
5. श्श्रनेजपबम कमसंलमक पे रनेजपबम कमदपमकश् सही कथन है। न्यायिक व्यवस्था में सुधार किये जाने चाहिए ताकि पीडि़त महिलायें न्याय का इंतजार न करती रहें और अपराधी आजाद घूमते हुए अन्य अपराध करता रहे।
6. महिलाओं से संबंधित कानूनों का प्रशासन द्वारा उचित क्रियान्वयन किया जाना चाहिए ताकि कानून केवल किताबों की घरोहर न रह जायें।
7. महिलाओं के विरुद्ध अपराधों पर प्रभावी रोक लगाई जाये। इस क्षेत्र से जुड़े कानूनों का वास्तविक क्रियान्वयन हो, पुलिस व प्रशासन इस हेतु मानसिक रूप से तैयार हों।
8. दूरदर्शन, इंटरनेट, सिनेमा आदि पर सार्थक नियंत्रण रखे जाने हेतु प्रभावी कदम उठाये जाने चाहिए और उन पर अंकुश लगाया जाना चाहिए ताकि महिलाओं के अभद्र रूप से प्ररदर्शन पर रोक लग सके और उनके दिन-प्रतिदिन होने वाले अपमान से उनको बचाया जा सके।
आज हर शिक्षित नारी का यह कर्तव्य है कि वह मात्र परिवार को ही अपनी गतिविधियों का दायरा न बनाये बल्कि समाज के प्रति भी अपने कर्तव्य के बारे में सोंचे और इससे भी पहले अपने आपके प्रति भी अपने कर्तव्य के बारे में सोंचे जब तक हम स्वयं को न जानेंगे दूसरे हमें नहीं जान सकते। महादेवी ने कहा था, ‘‘भारतीय नारी भी जिस दिन अपने सम्पूर्ण प्राण प्रवेग से जाग सकेगी उस दिन से उसकी गति रोकना किसी के लिए संभव नहीं।’’ वह जागरण आरम्भ हो चुका है इस जागरण की गति तीव्रतर करने का दायित्व भारतीय नारी का है। राजनीति, कानून, प्रशासन, पुलिस, व्यापार तथा कला सभी क्षेत्रों में अधिक से अधिक नारियों की भागीदारी ही हमारे समाज को अधिक स्वस्थ और संतुलित बनायेगी। आज हर स्त्री को अपने आपके प्रति अधिक से अधिक ईमानदार बनना है। अपने जीवन का हर महत्वपूर्ण निर्णय करने का अधिकार स्त्री को है। तसलीमा नसरीन की कविता स्त्रियों को एक शाश्वत संदेश देती है:-
औरत तुम उठो और जियो
अपने फेफड़ों में भर लो ताजी हवा,
ये बादल, पानी-हवा सब हैं तुम्हारे लिये
मिट्टी, घास, फूल, पंछी और यह समुद्र है तुम्हारा।
ईश्वर की सृष्टि में अपनी अनिवार्यता समझने वाली, अपनी क्षमता को पहचानने वाली, अपने अधिकार और कर्तव्यों के प्रति सजग, ऊर्जावान स्त्रियाँ ही हमारे भविष्य की आशा हैं। अपनी सार्थक भूमिका के साथ-साथ सार्थक जीवन बिताने वाली स्त्रियाँ ही हमारे समाज और राष्ट्र की थाती हैं। संस्कृति और परम्परा के नाम पर इनके पैरों में बन्धन डालना युगानुरूप नहीं है। परिवर्तन की बयार को अपने जीवन में आत्मसात करना ही विकास है। हमारे समाज के पुरोधा और नेता जितनी जल्दी इस तथ्य को समझ लें उतना ही समाज का कल्याण होगा।
संदर्भ ग्रन्थ
1. भारतीय नारी, वर्तमान समस्यायें और भावी समाधान, लेखक- डाॅ0 आर0पी0 तिवारी
2. माइलस्टोन, हिन्दी मासिक पत्रिका, 2006
3. स्त्री मुक्ति का सपना, लेखक- श्री अरविन्द जैन,, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली।
4. । श्रवनतदंस व ि।ेपं वित क्मउवबतंबल ंदक क्मअमसवचउमदजए टवस प्प्प्ए छवण्4ए व्बजण्.क्मबण् 2003ए डवतमदं ;डण्च्ण्द्ध
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6. पइपक टवसण् टप्प्प्ए छवण्3ए 200

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था पर साम्प्रदायिकता का प्रभाव


प्रो0 कौशल किशोर मिश्र एवं संजय कुमार पाल (शोध छात्र) 
राजनीति विज्ञान विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।


लोकतंत्र पर आधारित राष्ट्रवाद के प्रति प्रतिबद्धता भारतीयों के लिए चुनौती की तरह आयी। क्या विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों में बंटे लोग एक राष्ट्र के रूप में संगठित हो सकते है? क्या अनेक समुदायों के इस सम्मिलित राष्ट्र में लोकतंत्र को अल्पसंख्यक लोग अपने हितों के अनुकूल प्रभावित कर सकते हैं? धर्म, संस्कृति या इतिहास, किसी भी प्रकार की ‘अतिरिक्त क्षेत्रीय निष्ठा’ न होने के कारण हिन्दुओं का तादात्म्य इस नए राष्ट्रवाद के साथ होना अत्यन्त स्वाभाविक और सरल था। उन्हें किसी से कहना नहीं था, केवल नए आदर्शों के अनुसार आपस में जुड़ना भर था, किन्तु मुसलमानों में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रीय राष्ट्रवाद के प्रति निष्ठा नहीं थी। उन्होंने पूछा: ‘क्या नस्ल, धर्म, संस्कृति, और इतिहास के सूत्र उन्हें एक समुदायिक एकता में बांधकर हिन्दुओं से अलग व्यक्तित्व नहीं प्रदान करते हैं? कुछ मुसलमान राष्ट्रीय आन्दोलन की ओर आकर्षित हुए, किन्तु अधिकांश ने राजनीतिक अलगाव के मार्ग को अपनाया। अलगाव के आन्दोलन को भावनात्मक और सैद्धान्तिक आधार देने के लिए उन्होंने मुसलमानों के सांस्कृतिक वैशिष्ट्य पर जोर दिया। अल्पसंख्यक होने के नाते उन्होंने लोकतंत्रीय राष्ट्रवाद को अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा के लिए खतरनाक पाया। लोकतंत्र ने तलवार के स्थान पर ‘संख्या’ को सत्ता का निर्णायक बनाकर मुसलमानों की स्थिति एक स्थायी अधीनस्थ समुदाय की कर दी। लोकतंत्र के रहते हुए इस स्थिति में परिवर्तन सर्वथा असम्भव था। इस निश्चित क्षेत्र से बचने का एकमात्र मार्ग हिन्दुओं से अलगाव था। अलग सामुदायिक अस्तित्व से यदि उन्हें पूरी सत्ता नहीं तो कम से कम उसका एक महत्वपूर्ण अंग सम्भव बात थी। राष्ट्रवाद की तुलना में सम्प्रदायवाद, मुस्लिम अभिजात वर्ग के लिए अधिक लाभकारी था।
राष्ट्रवाद को लेकर उठी सब शंकाओं का समाधान साम्प्रदायिक विचारधारा में था। अतः मुसलमानों ने आरम्भ में एक धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में राजनीतिक मान्यता प्राप्त करने का प्रयास किया। उसमें सफल होने के बाद अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उन्होंने एक पृथक इस्लामी राज्य की मांग रखी। इसके विपरीत हिन्दू सम्प्रदाय का आर्विभाव मुस्लिम सम्प्रदायवाद की प्रतिक्रिया में हुआ है। मुसलमानों की दिन-प्रतिदिन बढ़ती मांगों और ब्रितानी सरकार तथा कांग्रेस द्वारा दी जाने वाली रियायतों ने हिन्दुओं के एक वर्ग में दुश्चिन्ता पैदा कर दी। उनको आशंका हुई कि रियायतों की इस नीति से बहुसंख्यक समुदाय के रूप में मिलने वाले उनके अधिकारों और सुविधाओं को गहरा आघात पहुंचेगा।
भारत के चेतनशाील समाज में सम्प्रदायवाद की व्याख्या भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न विचारों या मान्यताओं के संदर्भ में की गई है, जो वास्तविक तथ्यों एवं घटनाओं के क्रमबद्ध भौतिकवादी एवं मनोवैज्ञानिक विवेचना से सारगर्भित है। साम्प्रदायिकता शब्द मूलतः सम्प्रदाय शब्द की निकृष्ट अभिव्यक्ति है। जब कोई पंथ या मत स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी भी सीमा का निरादर करने को सक्षम एवं तैयार रहते हैं, तब इस क्रिया को साम्प्रदायिकता कहते हैं। साम्प्रदायिकता का प्रारम्भिक परिवेश उदार और अंतिम रूप उग्र होता है। अन्तिम रूप इतना भयावह हो सकता है कि इसकी कल्पना आगजनी, लूटपाट और हत्या के रूप में परिलक्षित होती है। साम्प्रदायिकता दो स्तरों पर होती है। एक स्तर उसका मन और दूसरा स्तर उसका व्यवहार । मन में जब-जब भयावह उद्वेग जन्म लेते हैं, तब-तब उसका व्यवहार कुत्सित चेष्टाओं की ओर प्रेरित होता है, इसलिए दो स्तरों पर साम्प्रदायिकता पहुंच जाती है। आधुनिक युग में भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में साम्प्रदायिकता की समस्या सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप में विकराल रूप धारण करती है।
भारतीय संविधान संप्रदाय, जाति, भाषा, क्षेत्र, नस्ल के आधार पर किये जाने वाले भेदभाव का निषेध करता है।1 अर्थात् भारतीय राज्य की कल्पना एक धर्मनिरपेक्ष और गैर-साम्प्रदायिक राज्य से की गई है। लेकिन चुनाव प्रसार का स्वरूप जातिवादी था, क्योंकि अल्पसंख्यकों समेत सभी लोगों की पहचान जाति ही मानी जाती थी, परन्तु इसने समाज को उतना नहीं बांटा जितना कि स्पष्टतः धार्मिक या साम्प्रदायिक आधार पर चुनाव प्रचार ने बांट दिया।
प्रायः चुनाव वाले दिन ही मतदान के मध्य सक्रिय कार्यकर्ता अफवाहें उड़ाते हैं। मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में एकतरफा मतदान धर्म के नाम पर किया जा रहा है, प्रतिक्रिया स्वरूप वैसा ही व्यवहार हिन्दू भी करते है। इसीलिए हिन्दुओं का धार्मिक कर्तव्य है कि हिन्दूओं को वोट दें। और एक पक्षीय मतदान हो जाता हैं। प्रायः चुनावों से पूर्व छुट-पुट बातों को लेकर साम्प्रदायिक दंगे की योजना राजनीतिक दलों द्वारा तैयार कर ली जाती है।2 धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति केवल इस बात को लेकर चिंतित नही है कि आगामी चुनाव में साम्प्रदायिकता की क्या भूमिका होगी बल्कि वे यह भी जानना चाहते हैं कि इस भूमिका को कैसे कम किया जाये और साम्प्रदायिक शक्तियों को प्रस्फुटित होने से किस प्रकार रोका जाये? साम्प्रदायिकता का संकुचित अर्थ ऐसी राजनीति से है जो सम्प्रदायवादी विचारधारा के इर्द-गिर्द खड़ी होती है। इस दृष्टि से मुस्लिम लीग, अकाली दल और भाजपा साम्प्रदायिक दल है। इनमें भाजपा केवल अपनी साम्प्रदायिक विचारधारा के कारण ही सम्प्रदायवादी नही है अपितु इसलिए भी जैसा 1979 में मधु लिमये ने कहा था ‘‘इसका लौह ढांचा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा प्रदत्त है, जबकि साम्प्रदायिकता भारत को तोड़ देगी’’, चुनावों में अनिवार्यतः बहुत सारे पाखण्ड, मिथ्या-प्रचार और झूठे वायदे का प्रदर्शन होता है। एक दूसरे पर कीचड़ उछाली जाती है। यह सब कितना ही निंदनीय क्यों न हो लेकिन उससे अमूमन राज्य सत्ता को कोई दूरगामी नुकसान नहीं होता। 1957 से 1962 के दौर में कांग्रेस और स्वतंत्र पार्टी ने एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाये, परन्तु जब चुनाव का प्रयोग साम्प्रदायिक भावनाओं को जाग्रत करने में होता है तो यह क्षति स्थायी होती है।
यद्यपि साम्प्रदायिकता बुनियादी रूप से विचारधारा है जिसकी अभिव्यक्ति राजनीति में होती है तथापि उसके विरुद्ध संघर्ष-क्षेत्र चुनाव नहीं बन सकता। चुनाव का उपयोग व्यक्ति साम्प्रदायिकता के प्रति अपनी राजनैतिक एवं वैचारिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए कर सकते हैं। चुनाव राजनीतिक सत्ता प्राप्ति का एक साधन है। इसलिए उसका उपयोग साम्प्रदायिक दलों को राजसत्ता से दूर करने और उन्हें राजनैतिक रूप से अलग थलग करने के लिए हो सकता है। धर्म निरपेक्ष दल एवं व्यक्ति चुनावों का इस्तेमाल जनता को शिक्षित करने में और साम्प्रदायिकता के वास्तविक चरित्र एवं परिणामों के बारे में सही समझ विकसित करने में कर सकते हैं। दूसरी ओर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी, जनता दल, तेलगूदेशम, असमगण परिषद, डी0एम0के0, ए0आई0ठी0एम0के0 ने हाल के वर्षों में साम्प्रदायिकता के प्रति अवसरवादी नीति का अनुसरण किया है। साम्प्रदायिक पार्टियों एवं संगठनों की दिलचस्पी साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने में होती है, जबकि साम्प्रदायिक उभार के समक्ष अवसरवादी धर्म निरपेक्ष पार्टियां ढुलमुल हो जाती है और वापस मुड़ती हैं।
दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति की धारा जो सम्प्रदायवाद से बचकर रहती थी। धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। भारतीय राजनीति का सामान्य अधोःपतन केवल भ्रष्टाचार में और राजनेता नौकरशाही तथा गुंडा तत्वों में गठजोड़ में ही व्यक्त नहीं हो रहा है बल्कि वह हिन्दू-मुस्लिम सिक्ख अथवा ईसाई साम्प्रदायिकता के प्रति उसके नरम दृष्टिकोण में भी अभिव्यक्त होता है। यहां तक कि कुछ धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति भी, दलितों, पिछड़ी जातियों, मुसलमानों तथा सिखों के बीच साम्प्रदायिक तालमेल की वकालत करने में कोई संकोच नहीं करते। सम्प्रदायवाद के प्रति बौद्धिक आलस्य भी धर्मनिरपेक्ष एवं साम्प्रदायिक पार्टियों के मध्य कोई भेद नहीं करता, वह दोनों को समान धरातल पर रखता है।3
यह अवसरवादिता पं0 जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी के दृढ़ दृष्टिकोण के ठीक विपरीत है। नेहरू जी साम्प्रदायिकता को फांसीसवाद का ही एक रूप मानते थे, जिसके साथ कोई समझौता नहीं हो सकता। उन्होंने साम्प्रदायिकता को एक ऐसी छुरी बताया ‘‘जो भारत के राजनीतिक शरीर में घोंप दी गई थी।’’ जवाहरलाल नेहरू ने पहले लोकसभा चुनाव 1952 में साम्प्रदायिकता के प्रश्न को अपने अभियान का केन्द्रीय मुद्दा बनाया था। आगे चलकर 1954 में घोषणा की’’ जहां तक मेरी बात है, मैं हिन्दुस्तान में प्रत्येक चुनाव हारने के लिए तैयार हूँ परन्तु साम्प्रदायिकता अथवा जातिवाद को छूट देने के लिए तैयार नहीं हूँ।4
चुनाव आधारित जनतंत्र उग्र राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काता है और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देता है। ऐसे जनतंत्र की नजर में लोगों की हैसियत सिर्फ वोटरों की होती है। चुनाव के इस खेल का उद्देश्य है बहुसंख्या को किसी भी प्रकार अपने पक्ष में कर लेना यानि जनतंत्र बहुसंख्यावाद बन जाता है और समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण के माहौल में यह बहुसंख्यावाद बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच झड़प का रूप ले लेता है। साम्प्रदायिकता की राजनीति इसी बहुसंख्यावाद की उपज है।
हिन्दू मध्यवर्ग लम्बे अरसे से अपने आपको अल्पसंख्यकों से घिरा महसूस करता है। बार-बार सवाल उछाला जाता रहा है कि हम क्यों उनको बढ़ावा देते है? राज्य ने हमारे लिए आखिर किया क्या है? उन्हें हथियार रखने की छूट है। वे दिन-प्रतिदिन सम्पन्न होते जा रहे हैं और राज्य इसमें उनकी मदद कर रहा है। सिर्फ हमें ही मदद नहीं मिलती इस प्रकार बहुसंख्यक समुदाय आहत महसूस कर रहा है।5
जब अन्य समुदाय यह देखते हैं कि मुस्लिम समाज दल विशेष के पीछे गोलबन्द हो रहा है तो उनमें भी ध्रुवीकरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। हमारे देश में बहुसंख्यकों के बीच साम्प्रदायिकता का जो भी उभार होता दिख रहा है, वह अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता का ही दुष्परिणाम है।6
भारत में इंडोनेशिया के बाद विश्व की सर्वाधिक मुस्लिम आबादी निवास करती है। संख्या के लिहाज से इस विशाल आबादी को अल्पसंख्यक कहना उचित नहीं, लेकिन भारत में मुस्लिम समाज अल्पसंख्यक शब्द का पर्यायवाची बनकर रह गया है। हमारे देश में अल्पसंख्यावाद की जो भी राजनीति है, उसका आधार मुस्लिम समाज है। वर्तमान में अनेक ऐसी राजनीतिक एवं मजहबी शक्तियां हैं, जो मुस्लिम समाज को अशिक्षा के अंधेरे में कैद रखना चाहती है। यही वे शक्तियां है, जो अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिए मुस्लिम समाज को कदम-कदम पर बरगलाती हैं। चुनाव के समय ये शक्तियां विशेष रूप से सक्रिय हो जाती है ताकि मुस्लिम समाज को एक थोक वोट बैंक के रूप में मजबूर किया जा सके।7
बात चाहे हिन्दू-मुस्लिम दंगे की हो अथवा हिन्दू-सिक्ख दंगे अथवा अन्य समुदायों के बीच भी हिंसक झड़पों से यही देखने में अधिक आता है कि किसी न किसी समुदाय का कोई न कोई राजनीतिक दल अथवा राजनीतिज्ञ भड़काने का काम करते हैं।9 जब यह कार्य दोनों ही पक्षों के कथित हितैषी दल अथवा नेताओं की ओर से किया जाता है तो विद्वेष इतना गंभीर रूप ले लेता है कि लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। समस्या यह है कि जो लोग भीड़ को उकसाते हैं, उनके चेहरे भले ही सामने आ जायें वे सजा पाने से बच जाते हैं। सजा देना और भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि सम्बन्धित पार्टी उनके पक्ष में खड़ी हो जाती है।
राजनीतिक नेतृत्व की कमजोरी ने स्थित को निरंतर बिगड़ने ही दिया हैं। सच्चाई यह है कि देश में इस समय एक करोड़ से अधिक विदेशी मौजूद हैं जो सुरक्षातंत्र के लिए खतरा उत्पन्न कर रहे हैं। आज यदि हम एक नरम राष्ट्र बनकर रह गये हैं तो सिर्फ इसलिए कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व को देश से अधिक वोट बैंक की चिन्ता है। उनके लिए राष्ट्रीय उद्देश्य नगण्य है। यही जम्मू-कश्मीर में हो रहा है, असम में हो रहा है, पूरे पूर्वोत्तर में हो रहा है। और अब देश के दूसरे हिस्सों में भी आरम्भ हो गया है।10 मुम्बई के बम धमाकों ने 200 लोगों की जान ले ली और सैकड़ों घायल हुए। मुम्बई समेत देश के दूसरे भागों के लोगों ने इस त्रासदी पर मजबूती और धैर्य का परिचय दिया। हमारे पास चुनौतियों का सामना करने के लिए संसाधन और कौशल है लेकिन क्या इसके लिए जरूरी राजनीतिक संकल्पनाशक्ति भी है, जवाब नकारात्मक है।
इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद में घट रही घटनाओं11 से साफ हो जाता है कि आतंकवाद को फैलाने, साम्प्रदायिक हिंसा को भड़काने बल्कि शुरूआत करने, अव्यवस्था व बर्बरता को बढ़ावा देने और इस माहौल का इस्तेमाल कर जनसमुदाय के बड़े हिस्सों में अंधराष्ट्रवादी भावनाओं को उभारने में12 सरकार और शासक दल की प्रत्यक्ष भूमिका है।13 दिल्ली, गुजरात आदि शहरों में अभी हाल ही में हुए दंगों ने अपराधी किस्म के राजनीतिज्ञों की भूमिका को स्पष्ट कर दिया है।
विडम्बना यह है कि यह सब ’’साम्प्रदायिक तत्वों से लड़ने और राष्ट्रीय एकता व अखण्डता’’ बनाये रखने के नाम पर हो रहा हे। जब भी किसी समुदाय या क्षेत्र के मामले में ’’फूट डालो राज करो’’ की नीति का इस्तेमाल किया जाता है, राष्ट्रीय एकता के नाम पर ही किया जाता है। मध्यवर्ग के भीतर भय पैदा करने, उसे धमकाने और हतोत्साहित करने, विरोध को गैर कानूनी करनेे, जनमत की मुख्यधारा  को आतंकित करने और प्रेस, न्यायपालिका तथा बुद्धिजीवी वर्ग का मुँह बन्द करने की यह राजनीति पूर्णतः नये किस्म की राजनीति है।14
इसी के साथ ही कुछ नेताओं ने ‘क्षेत्रवाद’ का सहारा लेकर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया। प्रारम्भ में क्षेत्रीयता की अभिव्यक्ति प्रधानतः भाषायी या साम्प्रदायिक आधार पर होती थी। लेकिन सन् 50 के बाद जब सामाजिक, राजनीतिक एकता में एक साथ भाषायी धार्मिक  जातीय रंग घुले-मिले नजर आये तथापि राजनीतिक व्यवहार की रोशनी से देखने पर आज भी उन्हें साम्प्रदायिक और भाषायी पहचान से निकलने वाली क्षेत्रीयता में बांटकर देखा जा सकता है।
क्षेत्रीय उभार के कारण भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक, राजनीतिक मनोवैज्ञानिक संघर्ष और तनाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक क्षेत्र अपने स्वार्थों या हितों को सर्वोच्च मान लेते हैं और उसे यह चिन्ता नही होती कि उसका दूसरे क्षेत्रों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? क्षेत्रवाद के कारण कुछ स्वार्थी नेता और संगठन विकसित होने लगते हैं और जनता की भावनाओं को उभारकर अपने स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं। ऐसे नेता कभी भाषा, कभी सम्प्रदाय, कभी किसी और संकीर्ण भावनाओं को उकसा कर क्षेत्रवाद को बढ़ावा देते हैं। भारत में ‘जमायते इस्लामी’ संगठन इसका प्रतीक है।15
भारतीय संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है।17 लेकिन भारत में कई राजनीतिक दलों का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है। जैसे मुस्लिम लीग, शिरोमणि अकाली दल, हिन्दू महासभा, शिवसेना आदि के निर्माण में धर्म की प्रभावकारी भूमिका रही है। ये दल धर्म को राजनीति में प्रधानता देते हैं। धर्म या सम्प्रदाय के आधार पर ये अपने उम्मीदवार खड़े करते हैं, प्रचार करते हैं, वोट मांगते हैं। चुनावों में धर्म और पंथ या सम्प्रदाय को आधार मानकर प्रचार किया जाता है। धर्म के अधिकारियों, इमामों, पादरियों, साधु-सन्तों, मठाधीशों आदि का आश्रय वोट मांगने के लिए किया जाता है। उनसे मतदाताओं के नाम धार्मिक अपील के आधार पर सुविचारित तरीके से निर्मित जन-समर्थन ने काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अब धर्म का प्रचार तथाकथित धर्म निरपेक्ष शक्तियां कर रही है, जिनका उद्देश्य लोगों को अशक्त और साम्प्रदायिक बनाना है। यह वैसा ही जैसा कि टेलीविजन पर मनोरंजन के कार्यक्रम, फिल्मी धारावाहिक, विज्ञापन और दिन भर प्रसारित होने वाले खेलकूद समारोह आदि। यह सब धार्मिक उत्सव या टेली धारावाहिक नई आम संस्कृति के निर्माण के नायाब तरीके हैं। यह संस्कृति बनावटी है। यह लोगों की संवेदनाओं और उनके सोचने-विचारने की क्षमता को कम करके यानि उनके अराजनीतिकरण की वृहत्तर योजना का हिस्सा है।
देश के विभिन भागों के बीच पाये जाने वाला आर्थिक असंतुलन, आर्थिक शोषण पारस्परिक मतभेदों को बढ़ावा देने में प्रभावशाली कारक रहा है। देश के कुछ राज्यों की आर्थिक स्थिति ज्यादा अच्छी है, ज्बकि बिहार, उ0प्र0 जैसे कुछ राज्य आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक पिछड़े हुए हैं। राजनीतिक कारणों से विभिन्न राज्यों के सांसदों में इस बात के लिए होड़ रहती है कि ज्यादा से ज्यादा औद्योगिक विकास और अन्य आर्थिक योजनाएं उनके राज्य में और उनके चुनाव क्षेत्र में लाई जाए, भले ही राष्ट्रीय हित की दृष्टि से ऐसा करना अनुपयुक्त ही क्यों न हो। एक राज्य विशेष के आर्थिक संसाधनों पर दूसरे राज्य के लोगों के आधिपत्य का घोर विरोध कर रहा है।18 उदाहरण के लिए बिहार में ‘बिहार बचाव मोर्चा’ इस बात की मांग कर रहा है कि बिहार में जो भी सार्वजनिक या निजी उपक्रम, खनिज उत्पादन (मिनरल प्रोडक्ट्स) का व्यापार कर रहे हैं, उनके मुख्य कार्यालय बिहार राज्य के अन्तर्गत स्थित होना चाहिए। राज्य के बाहर इनके मुख्यालय होने से बिहार वालों के लिए रोजगार का अवसर खत्म हो जाता है। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में ‘पहाड़ी समाज’ नामक संगठन विदेशियों के विरुद्ध आन्दोलन कर रहा है। उनका कहना है कि स्थानीय निवासियों को विदेशियों के हाथ कोई सम्पत्ति नहीं बेचना चाहिए।
1981 व वर्तमान में भी महाराष्ट्र में दक्षिण भारत के रहने वालों के विरुद्ध शिवसेना के नेतृत्व में हिंसात्मक घटनाएं हुई। उसने केरल वासियों, कर्नाटक वासियों, उ0प्र0, बिहार तथा तमिल लोगों को महाराष्ट्र से निकालने की मांग की। इसी प्रकार कर्नाटक में भी यह मांग की जा रही है कि केरलवासी और तमिल लोग कर्नाटक राज्य को छोड़कर चले जायें।
ये परिवर्तन राज्य व्यवस्था के जनाधार को भी प्रभावित कर रहे हैं। इस स्थिति में द्वन्दों का स्वरूप आर्थिक कम साम्प्रदायिक ज्यादा होता है। स्थानीय स्तर पर संसाधनों के नियंत्रण को लेकर संघर्ष तीव्र और उग्र होता जा रहा है। जंगल और गांव के सार्वजनिक संसाधनों और दूसरे सामुदायिक संसाधनों पर नियन्त्रण किसका होगा और वस्तुओं के उत्पादन व सेवाओं के बारे में सामुदायिक निर्णय कौन करेगा? इसको लेकर संघर्ष बढ़ता जा रहा है। इस प्रकार विकास की इस प्रक्रिया के जारी रहने के परिणामस्वरूप न सिर्फ प्रति-व्यक्ति आय और बुनियादी सेवाओं के मामले में कमी दिखाई दी है, बल्कि बुनियादी बात यह है कि न्यूनतम प्राकृतिक संसाधन भी गरीबों की पहुंच से दूर होते जा रहे हैं। इस प्रकार यह धनिकों द्वारा गरीबों की खुली लूट और डकैती है। यकीनन यह सब समुदाय के भीतर प्रायः खुद गरीबों के बीच, निचली जातियों और समुदायों के बीच हिंसात्मक झड़पों और हिंसा का माहौल तैयार करता है।19 उच्च वर्ग द्वारा किये गये शोषण से ध्यान हटाने के लिए उन्हें साम्प्रदायिक दंगों में फंसाये रहते हैं।
समस्या की जड़ में सरकार द्वारा 50 वर्षों से लागू किया जा रहा आर्थिक विकास का माडल हैं, जिसमें ऊपरी वर्ग के लिए उत्तरोत्तर समृद्धि है तो आम आदमी के लिए कुछ विशेष नहीं। आम आदमी की स्थिति में मामूली सुधार अवश्य हुआ है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या लगभग 50 प्रतिशत से 27 प्रतिशत हो गयी है। परन्तु इस अवधि में ऊपरी वर्ग के आय में कई गुना वृद्धि हुई है। इस बढ़ती असमानता के बीच आम आदमी को उसकी बदहाली स्वीकार नहीं है, इसलिए यह माओवादी नक्सलवादी गुटों का समर्थन करता है।20
भारतीय साम्प्रदायिकता के सम्बन्ध में यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि लगभग सभी मुसलमान, ईसाई, सिक्ख तथा अन्य धर्मावलम्बी उन हिन्दुओं के वंशज हैं, जिन्होंने समय-समय पर हिन्दू धर्म को त्यागकर दूसरे धर्म अपनाये, क्योंकि वे हिन्दू समाज में व्याप्त ऊँच-नीच धाराणाओं पर आधारित श्रेणीबद्ध तथा जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था द्वारा किये किसी न किसी अर्थ में पद दलित तथा शोषित थे, जिसके कारण हिन्दू समाज में सदैव ही मौलिक एकता का अभाव रहा है। अतः एक महत्वपूर्ण अर्थ में यथा तथ्य ही है कि आधुनिक भारत में जाति के आधार पर हिन्दूओं का विभक्त होना साम्प्रदायिकता की वृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
स्वतंत्रता आन्दोलन के समय से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मुसलमानों के साथ राजनीतिक गठजोड़ रहा है। इस गठजोड़ में मुसलमानों की प्रतिनिधि उ0प्र0 के सहरनपुुर स्थित देवबंद स्कूल से सम्बन्धित जमायत-अल-उलेमा-ए-हिन्द थी। कांग्रेस के साथ जमायत के सहयोग के पीछे एक राजनीतिक सौदेबाजी थी, जिसके तहत उलेमा का मानना था कि उनके समर्थन के एवज में उनके पूजास्थल, धार्मिक निधियों, मुस्लिम पर्सनल लाॅ और इस्लामी संस्कृति के अन्य पहलुओं की रक्षा की जायेगी। कांग्रेस को मिला मुस्लिम समर्थन 1952, 1957, 1962 में हुए तीन आम चुनावों में उसे मिले वोटों से समझा जा सकता है। 1963 में साम्प्रदायिक दंगों की वजह से मुसलमान कांग्रेस से असंतुष्ट हुए, वे मानने लगे कि राष्ट्रीय राजनीति में अपनी प्रधान हैसियत और मुसलमानों के सम्पूर्ण समर्थन के बावजूद कांगेे्रस ने उनके भरोसे को तोड़ा है। यह भी माने जाने लगा कि कांग्रेस सरकार दंगों के दौरान उनके जान-माल की रक्षा नहीं कर पायी। मुसलमान इस बात से भी खफा थे कि उर्दू को उसका राजकीय दर्जा नहीं दिया गया।23 न ही शिक्षा और अर्थव्यवस्था में मुसलमानों को उचित हिस्सा मिल सका।
1967 में जब राजनीति में कांग्रेस का प्रभुत्व कमजोर हुआ तब मुस्लिम-मजलिस-ए मुशावरात (मुस्लिम सलाहकार समिति) ने एक नई रणनीति पर चलने की कोशिश की। 1964 लखनऊ में मुस्लिम नेताओं ने एक बैठक में की थी। मुशावरात में भारतीय मुसलमानों से जुड़े सभी वैचारिक नजरियों को शामिल किया गया था। उनमें राष्ट्रवादी जमायत-अल-उलेमा-ए-हिंद, जमायत-ए-इसलामी, मुस्लिम लीग कांग्रेसी और गैर-गांग्रेसी आधुनिकतावादी शामिल थे। 1967 में इसने ‘पीपुल्स मैनोफेस्टो’ छापा और राजनीतिक पार्टियों व उम्मीदवारों के सामने समर्थन देने के बदले कुछ शर्तें रखी पर यह रणनीति नाकाम साबित हुई। 1967 के चुनावों के बाद से मुशावरात का कामकाज सुस्त पड़ गया।24 पर उसकी असफलता ने कई मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों को जन्म दिया जैसे उ0 प्र0 में मुस्लिम मजलिस (1968) और आन्ध्र प्रदेश में मजलिस-ए-इत्तिहाद-उल-मुसलीन। ये दोनों ही केरल में मुस्लिम लीग केी सफलता से प्रभावित थी। कुछ लोगों का मानना था कि एक अलग मुस्लिम राजनीतिक पार्टी का होना निहायत जरूरी है क्योंकि ‘इस्लामी राजनीतिक मूल्यों’ के संदर्भ में मुसलमानों को ही मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करना चाहिए, न कि राजनीतिक जिम्मेदारी लेने वाले निर्वाचित गैर-मुसलमानों को।25 यह आग्रह इस इस्लामी विश्वास पर आधारित है कि समाज मुसलमानों और गैर मुसलमानों में अपरिवर्तनीय रूप से बंधा है।
गरीबी, शैक्षणिक पिछड़ापन बार-बार होने वाले साम्प्रदायिक दंगों और अपनी पहचान खत्म होने के डर से मुसलमान कई जगहों पर सामूहिक रूप से वोट डालना पसन्द करते हैं। खासतौर से ऐसे जगहों पर जहां लोक जीवन में मुसलमानों की हैसियत परंपरागत रूप से अच्छी खासी है। पर उन्हें साथ में यह डर भी लगा रहता है कि बड़ी संख्या में मुस्लिम वोटों की गोलबंदी की प्रतिक्रिया में कहीं हिन्दूओं में भी ऐसी लहर न चल पड़े। हमारे देश की संवैधानिक संरचना में निहित लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता और विधि के शासन जैसे मूल्यों को मुस्लिम धर्मगुरूओं और इस समुदाय से सम्बन्धित नेताओं द्वारा कई दशकों से निशाना बनाया जा रहा है। चूँकि हर राजनीतिक दल की निगाह अल्पसंख्यक मतों पर टिकी होती है। इसलिए मुस्लिम धर्मगुरूओं ने राजनेताओं के साथ सांठ-गांठ कर न्यायालयों के निर्णयों को विधायिका के जरिए प्रभावशून्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सच यह है कि उन्होंने नौकरशाही पर भी राजनीतिक दबाव डलवाया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है शाहबानो मामला। जिस क्षण इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया, उलेमाओं ने राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार पर कानून में संशोधन करने का दबाव डालना आरंभ कर दिया।26
मुस्लिम सम्प्रदायिकता के समक्ष सरकार ने समर्पण कर दिया और मुस्लिम महिला अधिनियम 1986 पारित कर दिया। धर्मगुरूओं द्वारा राजनेताओं का ब्लैकमेल करने का एक अन्य उदाहरण है, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक्ट 1981, जिसे सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को प्रभावशून्य बनाने के लिए पारित किया गया था। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब राजनीतिक नेतृत्व ने मुस्लिम समुदाय के दबाव में घुटने टेक दिए और उनके पक्ष में कानून को ही संशोधित कर डाला।
इस प्रकार साम्प्रदायिकता भारतीय राजनीति को तेजी से प्रभावित कर रही है। राजनीतिज्ञों द्वारा धार्मिक उन्माद फैलाकर सत्ता प्राप्त करने की हर कोशिश साम्प्रदायिकता को बढ़ा रही है, चाहे वह कोशिश किसी भी व्यक्ति, समूह या दल के द्वारा क्यों न होती हो। अधिकतम् वोट हासिल करने के लिए धर्म-गुरूओं और धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल लगभग सभी दल कर रहे है, इसमें धर्म-निरपेक्षता की बात कहने वाले राजनीतिक दल भी शामिल है। यदि धर्म निरपेक्षता की बात कहने वाले दलों ने मौका परस्ती की यह राजनीति नहीं की होती तो धर्म-सम्प्रदाय आधारित राजनीति करने वालों को इतना बढ़ावा कभी नहीं मिलता। जब धर्म-सम्प्रदाय की राजनीति होगी तो स्पष्ट है कि साम्प्रदायिकता अधिक ताकतवर बनेगी।
पूँजीवादी शोषणकारी वर्तमान व्यवस्था के पोषक और पोषित, वे सभी लोग साम्प्रदायिकता  बढ़ाने में सक्रिय साझेदार है। हमें याद रखना चाहिए कि धर्म सम्प्रदाय की राजनीति के अगुवा चाहे वे हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो, इसाई हो या अन्य किसी धर्म को मानने वाले, आम तौर पर वही लोग है, जो वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था से अपना निहित स्वार्थ साध रहे है- पूँजीपति, पुराने राजे-महाराजे, नवाबजादे, नौकरशाह और नये-नये सत्ताधीश, सत्ता के दलाल! और समाज का प्रबुद्ध वर्ग, जिससे यह अपेक्षा की जाती है कि साम्प्रदायिकता जैसी समाज को तोड़ने वाली दुष्प्रवृत्तियों का विरोध करेगा, आज की उपभोक्ता संस्कृति का शिकार होकर मूक दर्शक बना हुआ है, अपने दायित्वों का निर्वाह करना भूल गया है और, हम-आप भी, जो इनमें से नही है, धार्मिक-उन्माद में पड़कर यह भूल जाते है कि भविष्य का निर्माण इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने से नहीं होता। अगर इतिहास में हुए रक्तरंजित सत्ता, धर्म, जाति, नस्ल, भाषा आदि के संघर्षें के बदला लेने की हमारी प्रवृत्ति बढ़ी, तो एक के बाद एक इतिहास की पर्ते उखाड़ेगी और सैकड़ों नहीं हजारों सालों के संघर्षों, जय-पराजयों का बदला लेने वाला उन्माद उभड़ सकता है। फिर तो, कौन सा धर्म-समूह है जो साबूत बचेगा क्या हिन्दू-समाज के टुकड़े-टुकड़े नहीं होंगे? क्या इस्लाम के मानने वाले एक पंथ के लोग दूसरे पंथ से बदला नहीं लेगे? दुनिया के हर धर्म में पंथ भेद है और उनमें संघर्ष हुए है। तो बदला लेने की प्रवृत्ति मानव-समाज को कहाँ ले जायेगी? क्या इतिहास से हम सबक नहीं सीखेंगे? क्या क्षमा, दया, करुणा, प्यार, सहिष्णुता, सहयोग आदि मानवीय गुणों का वर्धन करने के बजाय प्रतिरोध, प्रतिहिंसा, क्रूरता, नफरत, असिहिष्णुता, प्रतिद्वन्द्विता को बढ़ाकर हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को कब तक संभाल पायेंगे। अतः अब वक्त आ गया है कि हम भारतीय समाज में बढ़ती विघटनकारी प्रवृत्तियों को गहराई से समझे और साम्प्रदायिकता के फैलते जहर को रोके।
संदर्भ ग्रन्थ
1. भारत का संविधान, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1998, पृ0-5
2. सारस्वत आनन्द प्रकाश, साम्प्रदायिकता और राष्ट्रीय एकीकरण (मेरठ 1991), पृ0131
3. वाजपेयी एम0एस0, राजनीति का साम्प्रदायीकरण, दैनिक जागरण, लखनऊ, 1996, पृ06
4. गुप्ता पी0डी0, चुनावी साम्प्रदायिकता (लेख) दैनिक जागरण, मेरठ, 1993, पृ0 7
5. अग्रवाल राकेश, स्वतंत्र भारत में एकीकृत समाज निमाण में साम्प्रदायिकता चुनौतियां विचार गोष्ठी, (हापुड़), 5 जनवरी, 1990
6. दैनिक जागरण, 23 अक्टूबर, 2005, वाराणसी, पृ06
7. दैनिक जागरण, 23 अक्टूबर, 2005, वाराणसी, पृ08
8. दैनिक जागरण, 14अगस्त, 2005, वाराणसी, पृ08
9. दैनिक जागरण, 22 जुलाई, 2005, वाराणसी, पृ08
10. कोठारी रजनी, चुनाव के खेल से निकली साम्प्रदायिकता (सम्पादित), डा0 अक्षय कुमार दुबे, पृ0 77, विनय प्रकाशन, दिल्ली।
11. एन0एन0 बोहरा, 5 अक्टूबर, 1993, रिपोर्ट पर आधारित।
12. दुबे अभय कुमार, साम्प्रदायिकता के स्रोत, विनय प्रकाशन, मेरठ, 1993 पृ079
13. उपरोक्त, पृ079
14. सईद पी0एम0, भारतीय राजनीतिक व्यवस्था, सुलभ प्रकाशन, लखनऊ, पृ0 369, 1998
15. उपरोक्त, पृ0 323
16. उपरोक्त, पृ0 368
17. दुबे अभय कुमार, साम्प्रदायिकता के स्रोतः विनय प्रकाशन, दिल्ली, 1998, पृ0 78
18. दैनिक जागरण, वाराणसी, 30 नवम्बर, 2005, पृ08
19. कोठारी रजनी, कास्ट इन इण्डियन पोलिटिक्स, ओरियंट लोगमैन, दिल्ली, 1970, पृ0 4
20. जोन्स मोरेस, गवर्नमेंट एण्ड पालिटिक्स आॅफ इण्डिया, पृ0 52
21. दुबे अभय, साम्प्रदायिकता के स्रोत, विनय प्रकाशन, दिल्ली, पृ0 50
22. कुरैशी जहीर मसूद, इलेक्ट्रोल स्ट्रेटजी आॅफ ए माइनरिटी, प्रेशर ग्रुप, द मुस्लिम मलिए-ए मशायरात, एशियन सर्वे (27 दिसम्बर, 1968), पृ0 476-8
23. खालिदी उमर, इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, 5 जनवरी, 1993
24. दैनिक जागरण, 25 जनवरी, 2005, वाराणसी, पृ08

वैश्विक क्रांति: प्रथम विश्व युद्ध और उसका प्रभाव


अर्चना राय
प्रवक्ता, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नैनी, इलाहाबाद।


सन् 1914 ई0 में प्रथम विश्व युद्ध का विस्फोट विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। यूरोप में गुप्त सन्धियों का सिलसिला इस युद्ध का सर्वप्रमुख मौलिक कारण था, जिसे शुरू करने वाला जर्मन साम्राज्य का चांसलर बिस्मार्क था। सन् 1871-1890 ई0 तक जर्मनी का नेतृत्व बिस्मार्क के हाथों में रहा। उसने फ्राँस को यूरोप की राजनीति से पूरी तरह पृथक रखते हुए जर्मनी का एकीकरण पूरा किया था, फलस्वरूप फ्रँास में प्रतिरोध की भावना का विकास हुआ। सन् 1888 ई0 में नये सम्राट विलियम द्वितीय ने बिस्मार्क को पद से हटाने के बाद शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। जर्मनी की आकांक्षा संपूर्ण विश्व में अपनी प्रभुता स्थापित करने की थी।
चीन के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप की बात हो या अफ्रीका के बँटवारे के बात लगभग प्रत्येक मामले में जर्मनी के हस्तक्षेप का विश्व की शांति पर अहितकर प्रभाव पड़ा। संपूर्ण विश्व अंतर्राष्ट्रीय अराजकता का जीवंत प्रतीक बन चुका था और प्रत्येक देश अंधाधुंध तरीके से अपनी आयुध शक्ति बढ़ाकर अपनी स्वाधीनता को सुरक्षित करना चाहता था।
अफ्रीका महाद्वीप के अधिकाधिक भाग पर अधिकार करने की इच्छा यूरोपीय राज्यों के मध्य संघर्ष का एक प्रमुख कारण थी। ‘‘कम से कम दो सम्राज्यवादी संकटों ने यूरोपीय शांति का भविष्य खतरे में डाल ही दिया था। एक था दक्षिण अफ्रीका का बोअर युद्ध जिसने जर्मनी और ब्रिटेन में तनातनी पैदा की और दूसरा थ सूडान को लेकर फसोदा काण्ड, जिससे इंग्लेण्ड और फ्राँस युद्ध के मैदान में टकराने से बाल-बाल बचे।’’1
चीन की दुर्बलता का फायदा उठाकर विभिन्न यूरोपीय राज्यों ने उसको अनेक प्रभाव क्षेत्रों में बाँटने के साथ ही अनेक सुविधाएँ भी प्राप्त कर ली व चीन को जापानी साम्राज्यवाद का भी शिकार होना पड़ा। ‘‘जापानी प्रसारवाद की इस गतिविधि से रूस के साथ उसका टकराव अवश्यम्भावी हो गया और 1904-05 में रूस का यूरोपीय राजनीति पर भी प्रभाव पड़ा और वहाँ का वातावरण तनावपूर्ण हो गया।’’2 बाल्कन प्रायद्वीप पर भी रूस, तुर्की व आस्ट्रिया के साम्राज्यवादी हित परस्पर टकराते थे। रूस व आस्ट्रिया दोनों ही बाल्कन से तुर्की को हटाकर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। रूस व आस्ट्रिया का यह हित विरोध भी विश्व युद्ध के प्रमुख कारणों में एक था।
इसी समय वैज्ञानिकों ने डार्विन के विकासवाद का सिंद्धांत सामाजिक जीवन पर लागू कर बताया कि युद्ध जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है और इस युद्ध संग्राम में शक्तिशाली व योग्य ही जीवित रह सकते हैं, अयोग्य व कमजोर तो तुरंत ही नष्ट हो जायेगें। 19 वीं शताब्दी का इंग्लैण्ड का एक अत्यंत प्रसिद्ध लेखक ‘रस्किन’ युद्ध की तरफदारी करते हुए कहता है- ‘‘युद्ध ने शिक्षा दी शांति ने धोखा दिया। बड़ी-बड़ी कौमें युद्ध से पैदा होती हैं और शांति में मर जाती हैं।’’3
जब यूरोप इन परिस्थितियों से गुजर रहा था, उसी समय राष्ट्रवाद का विकृत स्वरूप सामने आया जो कि प्रथम विश्व युद्ध का एक प्रमुख कारण बना। रस्किन कहते हैं- ‘‘इंग्लैण्ड को यही बात करनी चाहिए, नहीं तो वह नष्ट हो जायेगा। उसे उपनिवेश बनाना चाहिए और जहाँ कहीं भी उसे जमीन का ऐसा वीरान हिस्सा मिले, जिसमें उपज हो सकती है, उस पर कब्जा कर लेना चाहिए।’’4
किंतु इन अनेक कारणों के होते हुए भी युद्ध का तात्कालिक और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण था- आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या। कुछ प्रांतों पर अधिकार को लेकर आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या कर दी गयी। आस्ट्रिया ने सर्बिया को कुचल देने का निश्चय करते हुए सर्बिया से युवराज की हत्या के लिए उत्तर माँगा। संतोषजनक उत्तर न मिलने पर आस्ट्रिया ने सर्बिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। सभी अपने-अपने मित्र राष्ट्रों का पक्ष लेते हुए युद्ध में कूद पड़े।
‘‘ज्यों-ज्यों लड़ाई महीने पर महीने और साल पर साल बढ़ती गई नये-नये राष्ट्र इसके अंदर फँसते गये। गुप्त रूप से रिश्वतें पेश करके तटस्थ देशों को अपनी तरफ मिलाने की कोशिशें दोनों ही तरफ के लोग करते थे।’’5 विश्व युद्ध को जारी रखने की पीछे यह तर्क दिया जाता था कि यह युद्ध आत्म सम्मान व आजादी की रक्षा के लिए, युद्ध खत्म करने के लिए, लोकतंत्र को सुरक्षित रखने व आत्मनिर्णय तथा छोटी-छोटी कौमों की आजादी के लिए लड़ा जा रहा है।
प्रारंभ में चार महान शक्तियों- फ्रँास, रूस, इंग्लैण्ड व जापान ने आस्ट्रिया व जर्मनी के खिलाफ मोर्चा लिया। ‘‘युद्ध की अवधि जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे संसार के कई अन्य राज्य भी इसमें शामिल हो गए और शुरू के एक यूरोपीय युद्ध ने विनाशकारी विश्व युद्ध का रूप धारण कर लिया, जिसका अंत 11 नवम्बर, 1918 को हुआ।’’6
जर्मन सेनाओं ने क्षणिक संधि स्वीकार कर ली। प्रथम विश्व युद्ध का अंत हुआ और जर्मन साम्राज्य नष्ट हो गया। मित्र राष्ट्रों ने वर्साय की संधि में अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के 14 सिद्धान्तों को विश्व शांति के लिए स्वीकार किया, जो मुख्यतः निःशस्त्रीकरण, छोटे राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार, गुप्त समझौते नहीं, राष्ट्रसंघ की स्थापना आदि पर आधारित था।
प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम स्वरूप जन और धन की अपूर्व हानि होने के साथ ही कई साम्राज्य व राजवंश भी नष्ट हो गए। जर्मनी, आस्ट्रिया, तुर्की व रूस के निरंकुश शासकों की स्वेच्छाचारिता का अंत हो गया। यूरोप के अनेक प्रदेशों में जनतंत्र के आगमन के साथ ही वहाँ के निवासी अपने भाग्य का निर्णय स्वंय करने लगे।’’7
लगभग सभी सरकारों को अपनी वित्तीय स्थिति को नियन्त्रित करने के लिए भारी मात्रा में नोट छापने पड़े, जिससे मुद्रास्फीति की भंयकर समस्या का सामना करना पड़ा। निम्न व मध्यवर्ग विशेषकर निश्चित आमदनी वाले लोग तो तबाह हो गये। युद्ध के समय सरकारों द्वारा किये गये ऋण को चुकाने के लिए जनता को वर्षों तक अधिकाधिक कर देना पड़ा।
आर्थिक व सामाजिक परिवर्तनों के फलस्वरूप पूँजीपतियों के मनमानेपन को समाप्त करने के लिए आर्थिक जीवन पर सरकार ने नियंत्रण स्थापित किया। विदेशी व्यापार पर भी सरकार का नियंत्रण स्थापित हुया।
विश्व युद्ध के बाद श्रम का महत्व बढ़ा मजदूर वर्ग द्वारा रहन, सहन के स्तर में उन्नति के साथ ही अधिक वेतन की माँग को लेकर आंदोलन करने से राजनीतिक क्षेत्र में इस वर्ग का महत्व बढ़ा।
इस युद्ध ने महिलाओं को अपनी स्थिति में सुधार का मौका दिया। अधिकतर पुरुषों के सेना में भर्ती होने के कारण औरतों ने उन क्षेत्रों में भी हाथ आजमाना शुरू किया, जो पहले केवल पुरूषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र थे। अतः समाज में महिलाओं की स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव आया। महिलाओं ने अब पुरुषों के बराबर अधिकारों की माँग शुरू कर दी। यूरोपीय देशों में औरतों को मताधिकार भी प्रथम महायुद्ध के बाद ही मिला।
युद्ध का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व दूरगामी परिणाम था- विश्व राजनीति पर से यूरोपीय प्रभुत्व के समाप्त होने के युग का प्रारंभ। युद्ध के समाप्त होते ही यूरोप में पतन के सभी लक्षण एक ही साथ देखने को मिले। संपूर्ण विश्व में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का प्रभाव बढ़ा।
इस संपूर्ण घटनाक्रम ने एशियाई प्रदेशों पर भी अपना प्रभाव डाला। भारत, चीन, मिस्र व पूर्वी अफ्रीका में राष्ट्रीयता के आंदोलन ने जोर पकड़ा। पहले के अविकसित देश नयी परिस्थिति में अब औद्योगीकरण के पथ पर बढ़ चलने को तैयार थे और 1920 ई0 के दशक में उन्होनें उल्लेखनीय प्रगति भी की। इसी तरह का आर्थिक विकास भारत में भी हुआ। पश्चिमी एशिया के अनेक युद्धस्थलों पर सामान पहुँचाने के लिए भारत के औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन देना आवश्यक हो गया, जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार को भारत के औद्योगिक विकास पर लगाये गये बंधनों को हटाने के लिए बाध्य होना पउ़ा। भारत में अनेक औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन देना आवश्यक हो गया, जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार को भारत के औद्योगिक विकास पर लगाये गये बंधनों को हटाने के लिए बाध्य होना पड़ा। भारत में अनेक औद्योगिक प्रतिष्ठानों की स्थापना हुई।
‘‘1914 में छिड़े प्रथम विश्व युद्ध ने भारतीय राष्ट्रीयता के प्रहरियों को झकझोरा, उन्हें उद्वेलित किया। उस समय यह धारणा प्रचलित की कि ब्रिटेन पर किसी भी तरह का संकट भारत के हित में है, उसके लिए एक मौका है। इस मौके का कई जगहों पर कई तरह से फायदा उठाया गया।’’8
युद्ध की समाप्ति के बाद सन् 1919 ई0 में वर्साय की संधि में अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने कहा कि यह युद्ध सदैव के लिए संसार से युद्ध का नाश करने के लिए लड़ा गया व अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व शांति के लिए सन् 1919 ई0 में राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई।
संदर्भ ग्रन्थ
1. वर्मा दीनानाथ, सिंह शिव कुमार, विश्व इतिहास का सर्वोक्षण, भारती भवन, पटना, संस्करण 1991, पृष्ठ 410।
2. विश्व इतिहास का सर्वोक्षण, भारती भवन, पटना, संस्करण 1991, पृष्ठ 410।
3. नेहरू जवाहर लाल, विश्व इतिहास की झलक, सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली, पृष्ठ 893
4. वही पृष्ठ 894
5. वही पृष्ठ 894
6. विश्व इतिहास का सर्वोक्षण, भारती भवन, पटना, 1991, पृष्ठ 412।
7. पाल एस0 एन0, विश्व इतिहास का सर्वेक्षण, करेण्ट बुक क, जयपुर, पृष्ठ 391।
8. प्रो0 विपिन चन्द्र, भारत का स्वतन्त्रता संघर्ष, हिंदी माध्यम कार्यन्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वितीय संस्करण 1998, पृष्ठ 114।

श्रीमद्भागवतस्य भक्तिशास्त्रत्वम्


रूपम पाठक
शोधच्छात्रा, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय, (साहित्य विभाग) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।


जानन्त्येव प्रायः सर्वे सुमेधसः यदस्मिन् जगतीतले तत्रापि कर्म भूमौ भारताजिरे जाता जीवाः स्वकृत कर्मवशाद् चतुरशीति लक्षयोनिषु जन्ममरण परम्परामनुभवन्तः कदाचिदीशानुग्रहेण मानवशरीरं प्राप्नुवन्ति अत उक्तम् आग्नेये-
नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र व्युत्पत्तिस्तु सुदुर्लभा।।1
तदतिदुर्लभं मानवशरीरमवाप्यापि जन्तुः पुनः-पुनः स्वसुखार्थं विषयासक्त अर्थ कामोपार्जने लीनो दुःख-परम्परामनुभवन् पुनः-पुनः जन्ममरणचक्रे चङ्क्रममाणः यथा श्रीमद्भागवते-
बुद्बुदा इव तोयेषु मशका इव जन्तुषु।
जायन्ते मरणायैव कथाश्रवण वर्जिताः।।2
इत्थं जीवानामतिशयं दुखं विचार्य महर्षयः जीवेष्वनुग्रहं विदधानास्तेषामुद्धारार्थं धर्मार्थकाममोक्षाख्यान् चतुर्वर्गानुपदिदिशुः वेद-शास्त्र-काव्य-पुराणादीनां प्रणयनं कृतम्। न्यायदर्शनं पदार्थान् प्रतिपादयन्नपि परमपुरुषार्थरूपं निःश्रेयस प्राप्तिरेवास्य फलं ब्रूते।
वैशेषिकदर्शनमपि विशेषपदार्थं प्रतिपादयन् चतुर्वर्गस्य मूलं धर्मं साधयति।
सांख्यदर्शनमपि चतुर्विंशति-तत्त्वानि वर्णयन् दुःखत्रय-विधाताय निवृत्तिरूपमत्यन्तपुरुषार्थमुपदिशति। योगदर्शनं जीवेश्वरयोरभेदज्ञानपूर्वकं समाधिना कैवल्यप्राप्तिमुपदिशति। श्रीमद्भागवतमपि शुकशास्त्रं भक्तिशास्त्रं महापुराणमपि अस्ति। तस्यापि भगवत्तत्त्वसाक्षात्कार द्वारा परमपुरुषार्थोपलब्धिर्भवति। तदुक्तं भगवता श्रीकृष्णेन गीतायाम्-
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।3
श्रीमद्भागवतेऽपि-
आत्मारामाश्च मुनयोनिग्र्रन्था अप्युरूक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।।4
श्रीमद्भागवतानुसारं भक्तिसुखं स्वतन्त्रपुरुषार्थः यथा योगशास्त्रे समाधिसुखमिव स्वतन्त्र पुरुषार्थः। जीवाः द्विविधा भवन्ति केचन् द्रुतचित्ताः अपरे अद्रुतचित्ताः, अद्रुतचित्तानां विषयेषु निर्वेदपूर्वकं तत्वज्ञानं भवति तदेव शान्तरसपदेन अभिधीयते। द्रुतचित्तानां तु भगवल्लीला तथा श्रवणादि श्रद्धापूर्विका भक्तिः, इयं भगवद्भक्तिः जननमरणरूप दुःख बहुलात् संसारादुद्धृत्य परमानन्दपूर्ण स्थिति भक्तान् प्रयच्छति एतत् तत्वं यद्यपि प्रायः सर्वपुराणेषु वर्णितं, तथाऽपि श्रीमद्भागवतेमहापुराणे भक्तितत्वस्य सर्वाङ्गीणं विश्लेषणं प्रस्तुतमस्ति। परमात्मनि भक्त्या समः कल्याणकारी कश्चन् अन्यः पन्था दृग्गोचरो न भवति। भक्तः भक्त्या यावत् पुलकिताङ्गद्रवीभूतहृदयो विगलिताऽनन्दाश्रुः न भवति तावत् अन्तःकरणं परिपूतं न भवति। यदा समाधौ चित्तवृत्तिनिरोधात् मनः परमात्मनिविलीनं भवति तदा सर्वविषयाः विनष्टाः भवन्ति पापाश्च नश्यन्ति। अन्तःकरणं च शुद्धं भवति। तथैव भगवद्भक्त्या परमानन्दसम्बन्धात् अघौघः प्रणश्यति, अनन्तरं अग्निदाहात् यथा सुवर्णनिर्मलं भवति। स्वाभाविकं स्वरूपं च प्राप्नोति तथैव भगवद्भक्त्याऽपि मलिनसंस्कारः गलितो भवति। जीवः स्वाभाविकं निजं स्वरूपं प्राप्य शान्तिमनुभवति। तदुक्तं श्रीमद्भागवते-
तदा पुमान् मुक्तसमस्तबन्धन- स्तद्भावभावानुकृताशया कृतिः।
निर्दग्धबीजानुशयो महीयसा  भक्तिप्रयोगेण समेत्यधोक्षजम्।।5
पुरूषार्थचुतुष्टयस्य प्राप्तिः मानव योनौ एव सम्भवति। अतएव मानवयोनिसर्वोत्कृष्टा उच्यते। मानवानां सृष्टिं विधाय एव जगत्स्रष्टा बह्माऽतीव सन्तुष्टोऽभूत् तदुक्तं श्रीमद्भागवते-
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽऽत्मशक्त्या वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान्।
तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः।।6
अतो मानवशरीरं सम्प्राप्य ये विषयभोगेलीनाः ते स्वहस्तगतं चिन्तामणिरत्नं परित्याज्य काचे मग्नाः भवन्ति, पुनः-पुनः जायन्तेम्रियन्ते च हा कथंचिद् भवसागरं तर्तुं देवदुर्लभं मानवशरीरं लब्ध्वापि वंचिताः भूत्वा पुनः संसारसागरे पतन्ति, ते आत्मघातिनः उच्यन्ते। अतो मानवशरीरस्य फलं परमात्मसाक्षात्कार एव, सोऽवश्यं सम्पादनीयः। अयमेव परमपुरुषार्थः इष्टसिद्धिः अमूल्यासम्पत्तिरस्ति। श्रीमद्भागवते मुचुकुन्देनाऽपि भगवतः श्रीकृष्णस्य समक्षम् उक्तम् यथा-
लब्ध्वा जनो दुर्लभमत्र मानुषं  कथंचिदण्यङ्गमयत्नतोऽनघ।
पादारविन्दं न भजत्यसन्मति  र्गृहान्धकूपे पतितो यथा पशुः।।7
श्रीमद्भागवतं भवबन्धनतोमुक्तये प्रधानतया साधनत्रयं निर्दिशति।
योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्।।8
श्रीमद्भागवतमाहात्म्येऽपि प्रोक्तम्-
सत्यादित्रियुगे बोधवैराग्यौ मुक्तिसाधकौ।
कलौ तु केवला भक्तिब्र्रह्मसायुज्यकारिणी।।9
इयं भक्तिर्भगवतः प्राणतोऽप्यधिका प्रिया, इत्युच्यते श्रीमद्भागवते
त्वं तु भक्ते! प्रिया तस्य सततं प्राणतोऽधिका।
त्वया हूतस्तु भगवान् याति नीचगृहेष्वपि।।10
यद्यपि भगवत्भक्तौ जीवमात्रस्याधिकारः प्रतिपादितो दृश्यते। भगवद्भक्ति प्राप्तये जाति-कुल-गुण-रूप-विद्या धनादीनामपेक्षा नास्ति,! केवलं भगवति प्रेमोत्कर्ष एवापेक्षिता भवति।
सर्वकामनाहीनः भगवत्यनुरक्तः जनः सर्वतो भावेन भगवच्चरणशरणागतिरेव भक्तिरूच्यते। इयं भक्तिः त्रिधाः साधनरूपा, भावरूपा, प्रेमारूपा च तत्र साधनभक्तिद्र्विधा- वैधी रागानुगा च। शास्त्रे यस्याः विधानं वर्तते सा वैधी भक्तिः रागावाप्ता या भक्तिः सा रागानुगा वर्तते।
भक्तेः अधिकारी चतुर्विधः प्रोक्तः-
चतुर्विधा भजन्ते मां जनासुकृतीनोऽर्जुन।
आर्तोजिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।11
तत्र विशुद्धान्तःकरणः वासनारहितः पुरुषः शुद्ध भक्तेः अधिकारी भवति। यावत् भोगस्य मोक्षस्य वा हृदि स्पृहा भवति तावत् भक्तेः अभ्युदयो न भवति। अतः श्रीकृष्णचरणारविन्दयोः सेवया निर्मलचेतषां भक्तानां मोक्षार्यमपि कदापि स्पृहा न भवति।
इत्थं मुक्तिः भक्तानां कृते त्याज्यतया एव निरूपिता परं सालोक्य, सारूप्य, सायुज्य, सामीप्यरूपा मुक्तिः भक्तिः विरोधिनी न भवति। सिद्धान्ततः विष्णुश्रीकृष्णयोः भेदोनास्ति परं विष्णु स्वरूपाऽपेक्षया कृष्णरूपे मधुररसस्थितिः स्वभावतो वर्तते।
अतः श्रीमद्भागवते प्रधानत्वेन रसरूपेण भक्तिरेव।
संदर्भ ग्रन्थः
1. साहित्यदर्पण- प्रथमपरिच्छेद  पृ0 सं0-7
2. श्रीमद्भगवतमहापुराण माहात्म्य- (5/63) पृ0 सं0-32
3. श्रीमद्भगवद्गीता- (18/55) पृ0 सं0-315
4. श्रीमद्भागवतमहापुराण- (1/7/10) पृ0 सं0-67
5. श्रीमद्भागवतमहापुराण (7/7/36) पृ0 सं0-604
6. श्रीमद्भागवत महापुराण (11/9/28) पृ0 सं0 - 653
7. श्रीमद्भागवतमहापुराण (10/51/47) पृ0 सं0 - 384
8. श्रीमद्भागवतमहापुराण (11/20/6) पृ0 सं0 - 706
9. श्रीमद्भागवतमहापुराण माहात्म्य(2/4) पृ0 सं0 - 8
10. श्रीमद्भागवतमहापुराण माहात्म्य(2/3) पृ0 सं0 - 8
11. श्रीमद्भगवद्गीता - (7/16)

वल्लभ वेदान्त में भक्ति: एक विमर्श


कु० अनीता
शोधच्छात्रा (संस्कृत विभाग), डी.ई.आई. दयालबाग़, आगरा


श्री वल्लभाचार्य ने भक्ति के क्षेत्र में जिस मार्ग का प्रवर्तन किया उसे ‘पुष्टि-मार्ग’ या ‘अनुग्रह-मार्ग’ के नाम से जाना जाता है। पुष्टिमार्ग के अनुसार मुक्ति भक्ति से सम्भव है और भक्ति भगवदनुग्रह से। प्रभु-कृपा ही भक्त के सम्पूर्ण कार्यों की नियामक है। जिस भक्त पर भगवद्-अनुग्रह हो जाता है, वह भक्त मुक्ति का अधिकारी होता है। श्री वल्लभ के उपास्य देव सगुण रसरूप श्रीकृष्ण हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण के दो रूप मानें हैं-एक रसरूप ‘ब्रज-कृष्ण’ तथा दूसरा ‘धर्म-संस्थापक रूपधारी मथुरा-द्वारिका-कृष्ण’।
‘पुष्टि’ शब्द का अर्थ है- पोषणं तदनुग्रहः(1) अर्थात् भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करना। सब प्रकार से अपने आपको भगवान् की शरण में समर्पित कर देना ही पुष्टि-भक्ति है। इसमें भक्त भगवद्-प्रेम में डूबकर अलौकिक तत्त्व का स्मरण करते हुए मोह-माया, सुख-दुःख तथा अपने-पराये को भुलाकर दीनतापूर्वक प्रभु की सेवा करता है। भक्त भगवान् की अनुचर भाव से सेवा करते हुए परमानन्द की अनुभूति करता है। षोड्श-ग्रन्थ ‘बालबोध’ में वल्लभाचार्य ने लिखा है कि, अहंकार, ममता इत्यादि के नाश से साधक के स्वार्थमुक्त हो जाने पर सभी इन्द्रियों के आस्वाद्य पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण के स्वरूपभूत आनन्द का अनुभव किया जाता है-
  अहंताममतानाशे सर्वथा निरहंकृतौ। स्वरूपस्थो यदा जीव कृतार्थः स निगद्यते।(2)
आचार्य वल्लभ ने जीवों के तीन भेद किये हैं- पुष्टि-मार्गी, मर्यादा-मार्गी और प्रवाह-मार्गी। इन्हीं तीनों भेदों के आधार पर भक्ति भी तीन प्रकार की मानी है-पुष्टि पुष्ट भक्ति, मर्यादा-पुष्ट-भक्ति और प्रवाह-पुष्ट-भक्ति। इन तीनों के अतिरिक्त उन्होंने एक चैथी भक्ति भी मानी है जोकि लोकातीत है- शुद्ध-पुष्टि-भक्ति। यह भक्त की सिद्धावस्था है।
इस प्रकार श्री वल्लभ ने पुष्टि-भक्ति के चार भेद किये हैं-
1. प्रवाह-पुष्टि-भक्ति - यह प्रवाह-जीवों की भक्ति है। इस भक्ति के अन्तर्गत आने वाले जीव इस व्यावहारिक संसार के मोह-माया में, पड़कर भी ऐसे कार्यों का सम्पादन करते हैं, जिनमें भगवद्-प्राप्ति सम्भव होती है।
2. मर्यादा-पुष्टि-भक्ति - इसका अनुशरण करने वाले जीव सांसारिक विषयों में आसक्ति को त्यागकर इन्द्रियों को वश में करके भगवद्लीला के श्रवण, मनन और कीर्तन आदि के द्वारा अपने मन को भगवान् की ओर लगाते हैं।
3. पुष्टि-पुष्ट-भक्ति- इसमें भक्त भगवान् का अनुग्रह प्राप्त कर भक्ति के सहगामी ज्ञान को अर्जित करते हैं।
4. शुद्ध-पुष्टि-भक्ति - शुद्ध-पुष्टि-भक्ति में जीव ईश्वर-प्रेम में ही मग्न रहते हैं। ऐसी भक्ति करने वाले भक्त को वल्लभ-मत में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसकी सिद्धि भगवदनुग्रह से ही सम्भव है। भक्त और भगवान् में परस्पर अटूट सम्बन्ध होना ही इसका लक्ष्य है।
भक्ति के परिपे्रक्ष्य में ‘नारद-भक्ति-सूत्र’ में कहा गया है कि  भक्ति ईश्वर के प्रति परमप्रेमरूपा एवं अमृत स्वरूपा है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है तथा तृप्त हो जाता है। उस भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न शोक करता है, न द्वेष करता है, न किसी वस्तु में आसक्त होता है। उस प्रेम-स्वरूपा भक्ति को पाकर साधक प्रेमोन्मत्त, शान्त और आत्माराम बन जाता है-
सा त्वस्मिन् परम प्रेम रूपा, अमृत स्वरूपा च
यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धोभवति, अमृतो भवति।(3)
‘शांडिल्य-भक्ति-सूत्र’ में कहा है कि ईश्वर में अनुरक्ति ही भक्ति है-
सा परानुरक्तिरीश्वरे(4)
गोपेश्वर महाराज के मत में भक्ति एक ऐसा प्रेम है जिसका चरमोत्कर्ष प्रगाढ़ आनन्द में होता है-
यथा योगे वियोगे-वृत्तिः प्रेम तथा वियोगे योग-वृत्तिरपि प्रेम।(5)
श्री वल्लभाचार्य की शुद्ध-पुष्टि-भक्ति विशुद्ध-प्रेम का ही पर्याय है और इस की सिद्धि विरह से होती है इसलिए पुष्टि-भक्ति के श्रवण, कीर्तन और स्मरणादि सभी साधन विरहात्मक हैं। पुष्टि-भक्ति-मार्गी भक्त जब आराध्य के विरह में तन्मय होकर व्याकुल होता है और उसका रोम-रोम अपने इष्ट के विरह से व्यथित होने लगता है तब भक्त को क्लेश-युक्त देखकर अन्तस्थ प्रभु ब्रह्म रूप में आविर्भूत होते हैं। इस सम्बन्ध में श्री वल्लभ ‘तत्त्वार्थ-दीप-निबन्ध’ में लिखते हैं- भगवान् के प्रति महात्म्य ज्ञान, रखते हुए जो सुदृढ़ और सबसे अधिक स्नेह है, वही भक्ति है-
महात्म्य ज्ञान पूर्वस्तु सुदृढ़ सर्वतोऽधिकः।
स्नेहो भक्तिरिति प्रोक्तस्तयामुक्तिर्न चान्यथा।।(6)
श्री वल्लभ-वेदान्त में भक्ति के लिए दो बातें मुख्य हैं- प्रथम, ईश्वर के प्रति उत्कृष्ट प्रेम तथा दूसरी ईश्वर का निरन्तर ध्यान। पुष्टिमार्गीय भक्तों के लिए सम्पूर्ण कार्यों का नियामक भगवान् के अनुग्रह को ही बताया है-
अनुग्रहः पुष्टिमार्गे नियामक इति स्थितिः।(7)
श्री वल्लभाचार्य ने भक्ति का प्रचार-प्रसार ज्ञान के साधन के रूप नहीं किया। उनके मत में भक्ति का लक्ष्य ज्ञान अथवा मोक्ष न होकर प्रेम की पूर्णावस्था को प्राप्त करना है। इसमें पराभक्ति (निष्काम प्रेम) को प्राप्त करना ही साध्य है। भगवत्-प्रेम के अतिरिक्त कोई अन्य काम्य पदार्थ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना भक्त नहीं करता। इसलिए इस भक्ति को प्रेम-लक्षणा-भक्ति, अनुग्रह-भक्ति या पुष्टि-भक्ति कहा जाता है। प्रेम-भक्ति की भाव-समाधि में भगवान् के नाम और लीला द्वारा जिस परमानन्द और ईश्वर की रूप-सुधा का अनुभव भक्त करता है, उसे ‘भजनान्द’ कहा है-
ब्रह्मसंपद्यापिस्थितस्य जीवस्य प्रभोरत्यनुग्रहवशात् स्वरूपात्मकभजनान्दादित्सायां तत्कृत आविर्भावो भवत्येव।(8)
भगवान् की भक्ति कैसे की जाये? इस विषय में वल्लभाचार्य जी का मत है कि भगवान् सर्वभाव से भजनीय हैं। उनके अनुसार इस लोक के दुःखहर्ता तथा परलोक के बनाने वाले श्रीकृष्ण ही भगवान् हैं-
   एहिक परलोके च सर्वथा शरणं हरिः।  दुःखहानौ तथा पापे भये कामाद्यापूरणे।।(9)
भक्ति में, द्रोह में, प्रेम में सभी भावों में एकमात्र श्रीकृष्ण की ही शरण है-
भक्तृ द्रोहे भक्त यभावे भक्तैश्चापिकये कृते।
क्रिया प्रोक्तेन बहुनाशरणं भावयेद्धरिम्।।(10)
उपर्युक्त सभी प्रकार की भक्तियों का फल वल्लभाचार्य के अनुसार नित्य-लीला में अन्तःप्रवेश है। सभी पुष्टि-भक्तों के नित्य लीला में प्रविष्ट होने पर भी गुण-स्वरूप भेद से फल-स्वरूप भगवान् की प्राप्ति होती है-
गुणस्वरूपभेदेन तथा तेषां फलं भवेत।(11)
भक्ति के साधनों में श्री वल्लभाचार्य ने ‘नवधा-भक्ति’ (श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, वन्दन, दास्य, सख्य तथा आत्मा-निवेदन) के साथ-साथ ‘प्रेम लक्षणा’ नामक दसवीं भक्ति को भी माना है। इसके अन्तर्गत उन्होंने वात्सल्य तथा माधुर्य भावों को सम्मिलित किया है। उन्होंने ‘भक्तिवर्धिनी’ (श्लोक-3) में प्रेम-लक्षणा भक्ति की तीन अवस्थाओं का वर्णन किया है, वे हैं- स्नेह, आसत्ति और व्यसन। वे ‘स्नेह’ को भक्ति का सर्वप्रमुख तत्व मानते हैं। उनके अनुसार भगवान् के माहात्म्य का ज्ञान होने पर भगवान् के प्रति जो सुदृढ़ एवं सर्वाधिक स्नेह होता है, वही भक्ति है-
   महात्म्य ज्ञानपूर्वस्तु सर्वतोधिकः।  स्नेहो भक्तिरिति प्रोक्तास्तया मुक्तिर्नचान्यथा।।(12)
स्नेह के पश्चात् भगवान में ‘आसक्ति’ उत्पन्न होती है जिसके फलस्वरूप भक्त भगवान् में ही पूर्णरूपेण मन को लगाये रखता है। तत्पश्चात् उसे भगवान् में ‘व्यसन’ होता है। जब भक्त को भगवद्-व्यसन प्राप्त हो जाता है तब उसे संसार की कोई भी वस्तु अच्छी नहीं लगती। वह भगवान् में रमण करते हुए ही सर्वदा आनन्दित रहता है।
श्री वल्लभाचार्य के मत में भक्ति मुक्ति का साधन है परन्तु उसका महत्व मुक्ति से भी अधिक है। मुक्ति में जिस आनन्द का अनुभव होता है वह आत्मिक है परन्तु भक्त को जो रसानुभव होता है, वह इन्द्रियों तथा अन्तःकरण के द्वारा ही अनुभूत होता है। श्री वल्लभ ने इन्द्रियों तथा अन्तःकरण के द्वारा आनन्द का अनुभव करने वाले भक्तों की महत्ता जीवन्मुक्तों से भी अधिक मानी है-
  तथापि न प्रलीयन्ते जीवन्मुक्तगताः स्फुरम्,  आसन्यस्य हरेवापि सेवया देवभावतः।(13)
वल्लभाचार्य ने ‘अणुभाष्य’ में ‘सद्योमुक्ति’ तथा ‘क्रममुक्ति’ दो प्रकार की मुक्तियों का उल्लेख किया है। पुष्टि मार्गी भक्त की मुक्ति बिना भिन्न-भिन्न लोकोें में जाये और बिना प्रारब्ध कर्मों के भोगे ही हो जाती है- मर्यादा विपरीत स्वरूपत्वात् पुष्टिमार्गस्य न काचानात्रानुपपत्तिभर्वि नीया। तस्य अत्र भूषणत्वात्।(14) (पुष्टिमार्गी भक्त स्वयं प्रारब्ध नहीं भोगता, यह भगवदीय मर्यादा के विपरीत है, इसमें असम्भावना नहीं माननी चाहिए। यह तो पुष्टिमार्ग का आभूषण है।)
पुष्टि-भक्ति का अन्तिम लक्ष्य जीव के द्वारा भगवान् के लीलाधाम में पहुँचकर भगवद्-सानिध्य से मिलने वाले रसानन्द और स्वरूप-सुधा का पान करना है। यहाँ तक पहुँचने का एकमात्र उपाय भगवदनुग्रह ही हैं। भक्त का भगवान् की नित्य लीला में पहुँचना ही शुद्धाद्वैतमतानुसार मुक्ति है। इस मत में मुक्ति पर अधिक ध्यान न देकर भक्ति पर और भक्ति में भी पुष्टि-भक्ति पर अधिक ध्यान दिया गया है। पुष्टि-भक्ति की अवस्था को प्राप्त करना ही भक्त का सर्वप्रमुख और अन्तिम लक्ष्य है, परम प्राप्तव्य है क्योंकि इसी के परिणामस्वरूप भक्त भगवान् के लीलाधाम में अन्तः प्रवेश पाता है।
सन्दर्भ-
1. भागवत पुराण  - 2/10/4
2. बालबोध (षोडश ग्रन्थ)- 2
3. नारद-भक्ति-सूत्र - 15
4. शाडिल्य-भक्ति-सूत्र - 2
5. भक्ति मात्र्तण्ड, पृ0 75
6. तत्त्वार्थ-दीप-निबन्ध, श्लोक 46, पृ0127
7. सिद्धान्तमुक्तावली (षोडश ग्रन्थ), श्लोक-18
8. ब्रहमसूत्र, अणुभष्य-4/4/1
9. विवेक धैयेश्रय (षोडश ग्रन्थ) श्लोक-8
10. विवेक धैयेश्रय (षोडश ग्रन्थ) श्लोक-9
11. निरोध लक्षण (षोडश ग्रन्थ), श्लोक -17
12. तत्वार्थ- दीप-निबन्ध, प्र०प्र०,पृ० 80
13. तत्वार्थ-दीप-निबन्ध, शास्त्रार्थ प्रकरण, पृ० 77
14. ब्रहमसूत्र, अणुभाष्य- 4/1/17