Thursday 1 April 2010

माननीय व्यक्तित्व एवं मन का स्वरूप (बौद्ध दर्शन के विशेष सन्दर्भ में)



रत्ना त्रिपाठी (शुक्ला)
शोध छात्रा, मनोविज्ञान विभाग, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया।


बौद्ध धर्म मात्र सिद्धान्त मूलक न होकर, मूलतः व्यवहारपरक है। बुद्ध ने ज्ञानप्राप्ति के उपरान्त 45 वर्षों तक जो कुछ, जहाँ कहीं, जो भी उपदेश दिया, वे उनके द्वारा अनुभूत एवं प्रयुक्त थे। उन्होंने सम्बोधि के क्रम में जिन्हें देखा, अनुभूत किया और जिन्हें सत्य पाया, उन्हें ही जनमानस के सम्मुख रखा। वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि किसी भी बात को परम्परा के आधार पर, शास्त्र के आधार पर या आचार्य-बुद्धि के आधार पर स्वीकार नहीं करनी चाहिए, जब तक उसकी परीक्षा न की जाय। जैसे स्वर्णकार स्वर्ण की परीक्षा करने के उपरान्त ही उसे स्वर्ण मानता है। बुद्ध के इन वचनों से यह स्पष्ट है कि बौद्ध-धर्म-दर्शन कितना व्यवहारपरक है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण बुद्ध-वचन को तीन भागों में विभक्त किया गया है- परियत्ति, पटिपत्ति एवं पटिवेध। परियत्ति सिद्धान्त को कहते हैं। पटिपत्ति व्यवहार है तथा पटिवेध ज्ञान का नाम है। प्रस्तुत लेख पटिपत्ति अर्थात् प्रयोग पर आधारित है।
यह धर्म मूलतः नीति एवं मनोविज्ञानपरक है। इसमें मानवीय जीवन से सम्बद्ध घटनाओं एवं समस्याओं का समाधान नीति एवं मन के द्वारा ही बताया गया है। इसके अनुसार सभी समस्याओं का उद्भव एवं समाधान मन के द्वारा होता है। मन ही मनुष्य के सुख-दुःख अर्थात् बन्धन एवं मोक्ष का कारण है। कहा भी गया है... ‘‘संक्लिट्ठचित्ता सत्ता संक्लिस्सन्ति, परिसुद्धचित्ता सत्ता विसुज्झन्ति।’’ अर्थात् संक्लिष्ठ (क्लेश-युक्त) चित्त सत्वों (प्राणियों) को संक्लिष्ट करते हैं तथा परिशुद्ध चित्त सत्त्वों को परिशुद्ध करते हैं।1 धम्मपद की प्रथम एवं द्वितीय गाथा मानव जीवन में मन की प्रधानता को दर्शाते हुए मनुष्य के सुख-दुःख की उत्पत्ति का कारण मन को ही मानती है।
  ‘‘मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया। मनसा चे पदुट्ठेन, भासति वा करोति वा।
   मनसा चे पसन्नेन, भासति वा करोति वा। ततो नं सुखमन्वेति, छाया व अनपायिनी।।’’2
अर्थात् मन सभी प्रवृत्तियों का अगुआ है, मन उसका प्रधान एवं श्रेष्ठ है। यदि कोई दूषित मन से वचन बोलता है या करता है, तो दुःख उसका अनुसरण उसी प्रकार करता है, जिस प्रकार कि चक्का गाड़ी खींचने वाले बैलों के पैर का। पुनः दूसरी गाथा में भी मन की प्रधानता को दिखलाते हुए कहा गया है कि मन सभी प्रवृत्तियों का अगुआ है, मन श्रेष्ठ एवं प्रधान है। यदि कोई प्रसन्न (स्वच्छ) मन से वचन बोलता है या काम करता है, तो सुख उसका अनुसरण उसी प्रकार करता है, जिस प्रकार कभी साथ नहीं छोड़ने वाली छाया। स्पष्ट है कि मन से सभी क्रियाओ का संचालन होता है।
अब यहाँ यह विचारणीय है कि सत्त्व अर्थात् प्राणियों के स्वरूप का विवेचन करते हुए उसमें मन एवं मनोविज्ञान के स्वरूप तथा महत्त्व का आकलन किया जाय। बौद्ध वाङ्गमय से स्पष्ट है कि बुद्ध ने जनमानस के हित, सुख एवं कल्याण के लिए ही 45 वर्षों तक चारिका की थी। उनकी चारिका का मुख्य उद्देश्य मानव को दुःख से त्राण दिलाना था। इस क्रम में उन्होंने सर्वप्रथम सत्त्व या प्राणी अथवा मनुष्य के व्यक्तित्व का उद्घाटन किया और परीक्षोपरान्त यह घोषणा की कि प्राणी पंचस्कन्धों का ही संघात मात्र है। पंचस्कन्धों के अतिरिक्त उसके व्यक्तित्व में किसी प्रकार की कोई नित्य सद्-वस्तु नहीं है। तब, वह सत्त्व या मनुष्य क्या है? और उसके व्यक्तित्व का निर्माण कैसे होता है? यह दर्शाना आवश्यक है। इस प्रश्न पर पिटक, अनुपिटक, अट्ठकथा तथा अन्य बौद्ध-साहित्य में सामग्रियों की बहुलता देखी जाती है। पिटक में यह कथन उपलब्ध है- यह मेरा काय रूपी, चार महा-भूतों से निर्मित, माता-पिता सम्भुत, ओदन व्यंजनादि से उपचित, छेदन, भेदन, विधन्सन धर्मा अर्थात् अनित्य है। यह मेरा विज्ञान इसमें आबद्ध है- अयं खो मे कायोरूपी चतुमहाभतिको मातःपेतिकसम्भवो ओदनकुम्मासूपचयो अनिच्चुच्छादन- परिमद्दनभेदन-विद्धंसनधम्मो; इदं च पन मे वि´्´ाणं एत्थ चित्तं एत्थ पटिबद्धं’ ति।3
जिस प्रकार अंगों के सम्भार से रथ होता है, उसी प्रकार स्कंधों के विद्यमान रहने से यह सत्त्व है, ऐसा कहा जाता है-
यथा हि अङ्गसम्भारा, होति सद्दो रथो इति।
एवं खन्धेसु सन्तेसु, होति सत्तोति सम्मुति।।4
पुनः बुद्ध को यह कहते हुए देखते हैं - हे भिक्षु, यह प्राणी आयतनों का समूह मात्र है इत्यादि।5
मनुष्य या प्राणी नाम-रूप का व्यावहारिक नाम मात्र है। इन्हें पंचस्कंध या द्वादस-आयतन या अठारह धातुओं का पुंज भी कहा जाता है, क्योंकि ये नाम-रूप के विस्तार हैं। शब्द प्रयोग के दृष्टि से ये भिन्न-भिन्न दृष्टिगोचर होते हैं, पर सभी एक ही अर्थ के द्योतक हैं। ये संक्षेप या विस्तार भाव से नामरूप या पंचस्कन्ध के अधिवचन हैं। लोक-व्यवहार के लिए सत्त्व या प्राणी नाम दिया गया है- ‘‘सत्तोति समुत्तिवोहारमत्तं।’’ ऐसा प्रयोग कि यह सत्त्व है, पुद्गल है, पंचुपादन स्कंधों के लिए ही लोक संकेतार्थ चलता है।6 शैला भिक्षुणी ने सत्त्व का परिचय देते हुए कहा है-
 ‘‘एवं खन्धा च धातुओ, छ च आयतना इमे। हेतुं पटिच्च सम्भूता, हेतुभंगा निरूज्झरे।।’’7
यह पंचस्कन्ध क्या है? रूप-स्कन्ध, वेदना-स्कन्ध, संज्ञा-स्कन्ध, संस्कार-स्कन्ध तथा विज्ञान-स्कन्ध को सामूहिक रूप से पंचस्कन्ध कहा जाता है।8 मनुष्य या सत्त्व इन्हीं पंचस्कन्धों का समुच्चय मात्र है। इनका संक्षिप्त परिचय
रूप-स्कन्ध-
भूत-भौतिक पदार्थ अर्थात् स्थूल काय को रूप कहते हैं। यह सम्पूर्ण भौतिक विकारों एवं अवस्थाओं का समुच्चय मात्र हैं। इसके अन्तर्गत चार महाभूत, यथा-पृथ्वी, जल, उष्ण तथा वायु और इनसे उत्पन्न 24 उपादा रूप को यप कहते हैं- ‘‘चत्तारो च महाभूता, चतुन्नं च महाभूतानं रूपं।’’9 चक्षु, श्रोत, घ्राण, जिह्वा, काय, केश, लोम, नख, दन्त आदि इसी रूप के अन्तर्गत हैं।
यह स्वरूपतः परिवर्तनशील है- ‘‘रूप्पतीति रूप’’। शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा आदि के प्रभाव से परिणाम को प्राप्त करने के कारण यह रूप कहलाता है। समस्त रूप 28 प्रकार के कहे गये हैं- इन्हें 11 समूहों में विभक्त कर इस प्रकार दर्शाया गया है-
‘‘भूतप्पसादविसया भावो हदयमिच्चपि। जीविताहाररूपेहि अट्ठासविधं तथा।।
परिच्छेदो च विं´त्ति विकारो लक्खणं ति च।  अनिप्फन्ना दसा चेति अट्ठवीसविधं भवे।।’’10
अर्थात् भूत-रूप-4, प्रसाद-रूप-5, गोचर-रूप या विषय-रूप-4, भावरूप-2, हृदय-रूप-01, जीवित-रूप-1, आहाररूप-1, परिच्छेदरूप-1, विज्ञप्तिरूप-2, विकाररूप-3, लक्षणरूप-4, इस प्रकार समस्त रूप 28 प्रकार के कहे गये हैं और इन्हीं के समूह को रूप-स्कंध कहते हैं। विभंग में रूप-स्कन्ध का परिचय देते हुए कहा गया है कि- जो कुछ भी रूप, चाहे अतीत या अनागत या वर्तमान का हो, चाहे आन्तरिक या बाह्य हो, स्थूल या सूक्ष्म हो, हीन या प्रणीत हो, दूर का हो या समीप का, सभी को एक राशि कर एक कोट्ठास कर रूप स्कन्ध कहा जाता है।11
वेदनास्कन्ध-
वेदना का अर्थ अनुभव या अनुभूत होता है। यह वेदयित या अनुभवन लक्षण से युक्त कही गई है-वेदयितलक्खणा वेदना, अनुभवं लक्खणा चाति।12 दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि वेदना वह है, जो अनुभव करती है। हमारे जीवन में प्रतिक्षण सुख-दुःख का अनुभव होता है। इन्द्रियों के आपाथ में अनुकूल आलम्बन के आने पर मन के साथ उनका सम्पर्क होता है। अनुकूल आलम्बन के होने पर सुख की अनुभूति तथा प्रतिकूल आलम्बन के होने पर दुःख की अनुभूति या वेदना होती है। आलम्बन के समभाव होने पर उपेक्षा अनुभव होता है। इस प्रकार मुख्य रूप से वेदना 3 कही गयी है। जिनका उल्लेख 5रूपों में भी प्राप्त होता है, वे हैं- सुख, दुःख, सौमनस्य, दौर्मनस्य तथा उपेक्षा। मज्झिम-निकाय के बहुवेदनिय-सुत्त में वेदना के 108 भेद बतलाये गये हैं।13 इन्हीं वेदनाओं के पंुज को वेदना-स्कन्ध कहा जाता है। उपर्युक्त कथन से मन की प्रधानता प्रकट होती है। मनःस्थिति के अनुसार वेदना के रूप में परिवर्तन आ सकता है।
संज्ञास्कन्ध-
संज्ञा संजानना या प्रजानना को कहते हैं। समान्य रूप से जानने को संजानना एवं विशेष रूप से जानने को प्रजानना कहते हैं। इसलिए संज्ञा को संजानन लक्षणवाली कहा गया है।- संजाननलक्खणा संज्ञा।’’ विषयों को जानना इन्द्रियों के द्वारा होता है, यथा-चक्षु द्वारा रूप को जाना जाता है, श्रोत द्वारा शब्द को जाना जाता है आदि जिसे हम क्रमशः रूपसंज्ञा, शब्दसंज्ञा आदि कहते हैं। मन के साथ विषय का सम्पर्क होने पर इस प्रकार का ज्ञान कि यह आलम्बन नील है, पीत है या लोहित है या अवदात है आदि संज्ञा कहलाती है।14 विषय के भेद से इसके छः भेद होते हैं। इन्हीं के समूह को संज्ञा स्कन्ध कहते हैं। यहाँ भी मन की प्रधानता देखी जाती है।
संस्कारस्कन्ध-
संस्कार का अर्थ अभिसंस्करण करना या एकत्र करना है। ‘‘संखतमभिसंखरोन्तीति संखारा।’’15 यह शब्द यहाँ एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त है। सम्पूर्ण चैतसिकों की संख्या 52 है। इनमें वेदना एवं संज्ञा का पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। अवशेष 50 चैतसिकों की गणना संस्कारस्कन्ध के अन्तर्गत की जाती है। इसमें सभी कुशल एवं अकुशल चैतसिक सम्मिलित हैं। इन 50 चैतसिकों में चेतना नामक चैतसिक प्रधान है। इसके साथ अन्य चैतसिकों का स्वतः समागम हो जाता है। विभंग-अट्ठकथा में कहा गया है कि चक्षु, श्रोत, घ्राण, जिह्वा, काय एवं मन के स्पर्श से चेतना का उदय होता है। मनुष्य अपने जीवन में प्रतिक्षण कुछ न कुछ करता है, उसके ये कार्य कुशल तथा अकुशल दोनों प्रकार के हुआ करते हैं। मनुष्य के इन कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख उत्पन्न करने वाली कर्म शक्ति उसके व्यक्तित्व में एकत्रित होती रहती है। इसी एकत्रित कर्मशक्ति को संस्कार कहते हैं।16 तथा इन्द्रियों के स्पर्श से उत्पन्न चेतना भी छः प्रकार की होती है और उन छः चेतनाओं का ही नाम संस्कार-स्कन्ध है।
विज्ञानस्कन्ध-
विज्ञान विशेष रूप से जानने को कहते हैं। ‘‘विजाननलक्खणं विज्ञाणं।’’17 मन अथवा चित्त के जो भेद, प्रभेद हैं उनको यहाँ दर्शाया गया है। मन का विषय के साथ सम्पर्क होने पर आलम्बन को वाह्य तथा अन्तः रूप से जानना ही विज्ञान है। आचार्य बुद्धघोष ने इस पर प्रकाश डालते हुए कहा है- ‘‘विज्ञान आलम्बन को नील, पीत आदि रूप से जानता है तथा लक्षण प्रतिवेध को भी प्राप्त करता है। अर्थात् अनित्य, अनात्म, दुःख स्वरूप को जानता है, इसे विषय-विज्ञान भी कहा गया है। यह छः प्रकार का होता है; यथा-चक्षु-विज्ञान, श्रोत-विज्ञान, घ्राण-विज्ञान, जिह्वा-विज्ञान, काय-विज्ञान तथा मनो-विज्ञान, इन्हीं के समुदाय को विज्ञानस्कन्ध कहते हैं।
इन्हीं पाँच स्कन्धों के समूह को पंचस्कन्ध कहा जाता हैं। इन पंच्स्कन्ध से मनुष्य अथवा सत्त्व अभिप्रेत है। इन्हीं स्कन्धों से मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। उसके व्यक्तित्व का विश्लेषण करने पर उसमें इन पाँच स्कन्धों के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ की उपलब्धि नहीं होती है, जिसे आत्मा या जीव कहा जा सके। पूर्व वर्णित पंचस्कन्धों में वेदना-स्कन्ध, संज्ञा-स्कन्ध एवं संस्कार-स्कन्धों से चित्त अर्थात् मन के सहवर्ती धर्म चैतसिक अभिप्रेत हैं। ये मन के साथ एक ही विषय पर एक ही क्षेत्र में उत्पन्न एवं निरुद्ध होते हैं। विज्ञान-स्कन्ध के अन्तर्गत 89 प्रकार के चित्तों का समावेश है। वे चित्त अपने स्वरूप एवं स्वभाव के दृष्टि से विभिन्न प्रकारों में विभाजित है। रूप-स्कन्ध 28 प्रकार के रूपों का नाम है। चित्त चैतसिक अर्थात् मन एवं मानसिक धर्मों से मनुष्य के आन्तरिक व्यक्तित्व का तथा रूप-स्कन्ध से वाह्य स्वरूप का निर्माण होता  है। इस प्रकार मनुष्य को व्यक्तित्वपूर्ण समझा जाता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. सं0 नि; 2-3, पृ0 369
2. ध0 प0 ; गा0; 1-2
3. दी0 नि0 (ना0); पृ0 67
4. सं0नि0 प्(ना0) पृ0 135
5. म0नि0-(ना0); पृ0 323-24
6. वि0म0; पृ0 501
7. सं0नि0 प्ए134
8. विभंग; पृ0 317
9. ध0 सं0; पृ0 147; सं0 नि0; पृ0 289
10. अ0सं0 (रेवत) पृ0; 165
11. विभंग, पृ0 3
12. मि0 प0; पृ0 48
13. म0 नि0- प् प् ; पृ0 72-74
14. मि0 प0; पृ0 49
15. सं0नि0 प् प्; पृ0 312
16. मि0 प0, पृ0 41-43; वि0 भा0; पृ0 149-50
17. सं0नि0 प् प्; पृ0 313; नि0प0; पृ0-495