Thursday 1 April 2010

समकालीन परिवेश में महिला सशक्तिकरण: एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण


डाॅ0 विनोद कुमार पाण्डेय
डाॅ0 नीरज कुमार राय
प्रवक्ता, समाजशास्त्र विभाग, अम्बिका प्रसाद डिग्री काॅलेज, धीना, चन्दौली।
समाजशास्त्र विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व शोध छात्र।


महिलाओं की सशक्त भूमिका का अवलोकन वेद कालीन मनीषियों के कृतित्व में लक्षित है। व्याकरणविद् कात्यायन और पतंजलि की रचनाएं महिलाओं को सत्ता भागीदारी, शक्ति पर नियंत्रण और सामुदायिक कार्य संचालन में सशक्त और अग्रगामी महिला के रुप में प्रस्तुत करते हैं। गार्गी, मैत्रेयी को ऋग्वेद और उपनिषद के अंशों में प्रभावकारी महिला के रुप में अवलोकित किया जा सकता है। लेकिन समय के परिवर्तन चक्र में महिलायें अशक्त होती गईं और स्मृति काल से प्रारम्भ अवनति की स्थिति, मध्यकाल के सती, जौहर, बाल-विवाह, पुरधा, देवदासी से होते हुए महिलाओं के विरुद्ध घृणित व्यवहार, हिंसा, वेश्यावृत्ति और वर्ष 2008 के प्रथम दिन ही जे0 डब्ल्यू0 मेरियट छेड़खानी मामला से लेकर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक भागीदारी में अल्पता तथा स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार में अशक्त स्थिति का आकलन सूचना समाज और उत्तर आधुनिक काल के रुप में प्रक्षेपित 21वीं शताब्दी (वर्तमान में इसे बड़े जोर-शोर से महिला शताब्दी के रुप में प्रस्तुत किया जा रहा है) के इस प्रथम दशक में किया जा सकता है।
महिला सशक्तिकरण भविष्य के वैश्विक समाज के संतुलित, सशक्त और सातत्य हेतु नीति-निर्माताओं, प्रशासकों, समाज वैज्ञानिकों तथा भविष्य विश्लेषकों के केन्द्रीय सामाजिक सार्थकता के प्रश्न से जुड़ा है। विचारक महिला सशक्तिकरण को सत्ता, शक्ति और ज्ञान में बढ़ते पेशेवरीकरण से सम्बन्धित करते हैं। लेकिन यह कुछ विशेष पक्षों का विश्लेषण नहीं है बल्कि महिला सशक्तिकरण को बहुलआयामी और बहुलस्तरीय प्रक्रिया के रुप में अभिव्यक्त किया जा सकता है। यह महिलाओं के जन्म से लेकर जीवन की अन्तिम अवस्था तक उसकी अभिप्रेरणा, योग्यता और शक्ति का वैयक्तिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और कानूनी, परिवेश में अनवरत बढ़ाव है। यह अन्तर्सम्बन्धित महिलाओं के विविध पक्षों का सशक्तिकरण है। युवा सामाजिक विश्लेषकों ने परिवार और समुदाय के सशक्तिकरण को भी महिला सशक्तिकरण का एक आवश्यक घटक माना है। भारत भविष्य के समाज को संतुलित और प्रगति अभिमुख बनाने हेतु महिला सशक्तिकरण की परियोजना को आधारभूत स्तर पर संचालित कर रहा है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि भारतीय सामाजिक संरचना, ग्राम्य जन-जीवन आधारित संरचना है और यहाँ महिलाओं की आधी जनसंख्या निवास करती है अतः इनको त्यागकर महिला सशक्तिकरण की परिकल्पना को साकार नहीं किया जा सकता है।
स्वतंत्रता से पूर्व
महिला सशक्तिकरण को सुधारों की प्रक्रिया से जोड़ कर समझा जा सकता है। महिलाओं के सामाजिक जीवन परिवेश में सुधार की प्रक्रिया ब्रिटिशराज के दौरान राजाराममोहन राय और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के कार्य में दीख पड़ता है। 1829 के सती प्रथा निषेध कानून और 1856 का विधवा पुनर्विवाह अधिनियम तो प्रारंभिक सुधार के सबसे प्रभावकारी शस्त्र थे।
चन्द्रमुखी वसु, कादम्बिनी गांगुली और आनंदीगोपाल जोशी, स्वतंत्रा के पहले की कुछ ऐसी महिलायें थीं जिन्होंने प्रथम बार शैक्षणिक उपाधियाँ अर्जित कर अपनी सामाजिक सशक्तता प्रस्तुत की। महिलाओं की शैक्षणिक और सामाजिक गतिशीलता 1927 के अखिल भारतीय महिला शिक्षा सम्मेलन (पूणे) तथा 1929 के बाल विवाह निषेध कानून के रुप में सामने आई। राष्ट्रपिता ने इसका व्यापक समर्थन किया। भीकाजी कामा, ऐनी बेसेंट, विजयालक्ष्मी पंडित, अरुणा आसफअली, सुचेता कृपलानी, राजकुमारी अमृतकौर, सरोजनी नायडु, कस्तूरबा गांधी और लक्ष्मी सहगल स्वतंत्रता से पूर्व की सशक्त महिला प्रतिरुप हैं, जिनसे प्रेरित हो महिलायें आज भी अपने जीवन के कार्यों और उद्देश्यों को संचालित करती हंै।
स्वतंत्रता के पश्चात्
स्वतंत्रता के पश्चात् सुधारों की गतिविधि बढ़ीं और संवैधानिक तथा कानूनी प्रयासों से शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति, कला, साहित्य, मीडिया, उद्योग, विज्ञान, राजनीति आदि क्षेत्रों में महिलाओं नेे सक्रियता से भाग लेने के लिये प्रेरित हुयी। अनु0 14, 15, 15(1), 16, 39(क), 42, 46, 51(1) (क), 330, 332, 335, 338, 342 के रुप में संविधान महिलाओं को विशेष गारंटी प्रदान करता है। 1970 के बाद नारीवादी कार्यकर्ताओं में भी तेजी आई और मथुरा बलात्कार कांड राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं द्वारा चिंतन तथा चेतना का पहला मुद्दा बना। इस काण्ड का महिलाओं द्वारा प्रतिरोध, मीडिया द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत किया गया जिसके परिणामस्वरुप सरकार को साक्ष्य कानून, सी0पी0सी0 और आई0पी0सी0 में सुधार लाने के लिये विवश होना पड़ा और ‘कस्टोडियल रेप’ के रुप में एक नई श्रेणी बनायी गयी। घर और कार्य स्थलों पर मद्यपान तथा द्रव्य व्यसन के कारण महिलाओं के विरुद्ध घटित हिंसा के लिये आज कई महिला समूह’ आंध्रप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में ‘मद्यपान विरोधी मूहिम’ संचालित कर रही हैं। बहुत सी भारतीय मुस्लिम महिलाओं ने शरीयत कानून के अन्तर्गत महिला अधिकारों की व्याख्या और त्री स्तरीय तलाक प्रणाली की व्याख्या करने वाले रूढि़वादी नेताओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। 1990 के बाद विदेशी तथा सरकारी संस्थाओं से अनुदानित महिला उन्मुख गैर-सरकारी संगठन, स्वयं सहायता समूह, महिला दलों के रुप में महिला के अधिकारों की रक्षा तथा उनको सशक्त बनाने हेतु कार्य करना प्रारंभ किया है। सेवा, प्रिया, बचपन बचाओ, गुडि़या, किरन और आशा को महत्वपूर्ण उदाहरण के रुप में प्रस्तुत किया जा सकता है। स्थानीय अधिकारों और आंदोलनों के रुप में मेधा पाटेकर, अरून्धती राय, इला आर0 भट्ट जैसी महिलायें सामाजिक मंच पर सामने हैं जिन्होंने सुधारों से सशक्तिकरण को तीव्रता प्रदान की है।
महिलाओं की स्थिति का आकलन करने वाली आयोग के नकारात्मक प्रतिवेदन के बाद सुधारों में कुछ इजाफा हुआ और सरकार द्वारा 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग व 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया जो महिलाओं में कानूनी जागरूकता, चुनावी सहभागिता, कृषिगत कार्यों में सुरक्षा व सहयोग, जेल के अमानवीय यातनाओं से छुटकारा, संस्थात्मक क्षमता को संवेदीकृत व ताकत प्रदान करना तथा उपलब्ध स्रोतों का बेहतर तालमेल के साथ इस्तेमाल को प्रस्तावित करता है। 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन के साथ महिलाओं को ग्रामीण और नगर स्तर पर स्थानीय नेतृत्व करने की राजनीतिक शक्ति प्रदान की गई। महिलाओं के लिये, तैंतीस प्रतिशत आरक्षण की मांग विधानसभा तथा संसद में प्रतिनिधित्व हेतु 1990 के बाद से उठायी जा रही है लेकिन संसद के पटल पर यह पुरुष आधिपत्य से जकड़ी व्यवस्था का समर्थन हासिल नहीं कर पा रहा है। हालांकि 28 जनवरी 2008 को विपक्ष की एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी ने संगठन में पंचायत से लेकर केन्द्रीय स्तर तक महिलाओं को निर्धारित अनुपात में पद देने की घोषणा की है। अन्य राजनीतिक दलों द्वारा भी सीटें सुनिश्चित करने की बात की जा रही है। इस दौरान कुछ महत्वपूर्ण नीतियाँ, योजनायें भी संचालित की गई। जैसे- ड्वाकरा, ट्राइसेम, जे0आर0वाई0, एन0एस0ए0पी0, एन0एम0वी0एस0, एन0ओ0पी0एस, एन0एफ0बी0एस0, सी0आर0एस0पी0, कपार्ट, नाबार्ड, राष्ट्रीय महिला कोष, आई0सी0डी0एस0 इत्यादि।
21वीं शदी का प्रथम दशक
भारत सरकार ने वर्ष 2001 को ‘महिला सशक्तिकरण वर्ष’ घोषित किया है, जो स्वशक्ति या स्त्रीशक्ति के रुप में भी प्रतिबिंबित होता है। 2001 से महिलाओं के लिये राष्ट्रीय नीति की भी घोषणा हुई है। यह राष्ट्रीय नीति राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रुप से महिलाओं को सबल बनाती है। वैयक्तिक रुप से अपमानित होने तथा घरेलू हिंसा से बचने हेतु कानूनी न्यायिक प्रणाली को अतिशय उत्तरदायी और लिंगीय रुप से संवेदनकृत करता है। इससे जहाँ समुदाय में पूर्ण सहभागिता के अवसर प्राप्त होते हैं वहीं विवाह, तलाक व किसी भी प्रकार की क्षतिपूर्ति हेतु धार्मिक नेताओं को परिवर्तन के लिये प्रोत्साहित करने के लक्षण नीहित है। इससे संपत्ति और उत्तराधिकार में महिला को कानूनी हक प्राप्त होता है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, उद्योग एवं व्यापारिक प्रतिष्ठान व विभिन्न स्तर की समितियों में लिंग भेदभाव की समाप्ति का प्रयास राष्ट्रीय नीति का प्रमुख उद्देश्य है ताकि विकास की प्रक्रिया में महिलायें शामिल हो सकें।
महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण के लिये सूक्ष्म आर्थिक नीतियों को क्रियान्वित व निर्धनता समाप्ति हेतु कार्यक्रम को संचालित करना शामिल है ताकि सेवाओं के अन्तर्गत महिलाओं का गत्यात्मक स्वरूप विद्यमान रह सके। सूक्ष्म ऋण, उपभोग व उत्पादन हेतु वित्तीय संस्थाओं की स्थापना, कार्य की सहभागिता में वृद्धि करने का एक प्रयास है जो आर्थिक सहयोग की पुरानी रणनीति व कार्ययोजना को पुनर्संशोधित करता है। वैश्वीकरण के लगातार बढ़ते असमान प्रभावों ने लिंग भेदभाव को अर्थतंत्र मे संचालित किया है। इससे ग्रामीण क्षेत्र की महिलायें जो असंगठित क्षेत्र में कार्य कर रही हैं उनके लिये असुरक्षित वातावरण का सृजन हुआ है। कृषि के क्षेत्र में ग्रामीण महिलायें सशक्त रहे इसके लिए मृदा संरक्षण, सामाजिक वानिकी, दुग्ध उद्योग का विकास, छोटे पशुओं की देखभाल, मुर्गीपालन, मछलीपालन को बढ़ावा देना एक रणनीतिक कदम है। इनके कार्य प्रतिशत को इलेक्ट्रानिक सूचना प्रौद्योगिकी, खाद्य प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग) व कृषि उद्योग में बढ़ाना है तथा रात्रिकालीन कार्यों हेतु सुरक्षा, पारदर्शिता तथा परिवहन की सुविधा प्रदान करना है। इन सेवाओं को महिलाओं हेतु मित्रवत् बनाकर उनकी कार्यक्षमता तथा लिंग समानता में वृद्धि किया जा सकता है।
ग्रामीण महिलायें सामाजिक रुप से भी सशक्त हो इसके लिये शिक्षा के सार्वभौमिकीकरण के साथ, बालिकाओं का नामांकन प्रतिशत बढ़ाना सरकार का प्रमुख लक्ष्य है। व्यवसायिक, पेशेवर, तकनीकी कुशलता की महिलाओं में इजाफा, सेकेन्डरी और उच्चतर शिक्षा में लिंग अंतराल को कम करना आधारभूत तत्व है तथा इसमें अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग तथा अल्पसंख्यक वर्ग की महिलायें मुख्य केन्द्र में हैं। ग्रामीण महिलायें पोषण के तत्व और समुचित स्वास्थ्य सेवायें प्राप्त करें और मातृत्व मृत्युदर, शिशु मृत्युदर कम हो, इसके लिये पुरातन, संक्रमणकालीन और अन्य यौन संचारित रोगों (एच0आई0वी0/एड्स) को दूर करने तथा महिलाओं की शास्त्रीय चिकित्सा पद्धति व तरीकों को संरक्षित व नवीन रुप में विकसित करने की कोशिश की जा रही है। यह जल स्वच्छता, चिकित्सा सुविधा, रहने के लिये घरेलू सुरक्षा तथा स्थानीय रूप से घरेलू वातावरण का निर्माण कर किया जा रहा है। कुछ ऐसे भी क्षेत्रों की पहचान की गई है जो महिलाओं को निर्बल व परजीवी बनता है। विस्थापन, भूकंप, प्राकृतिक झंझावत ऐसे कारण हैं जो महिलाओं को पतनोन्मुख बना देता है। पारंपरिक रुप से महिलाओं के विरुद्ध हिंसा, संपत्ति में भेदभाव, यौन उत्पीड़न, बालिका शिशु हत्या, बाल विवाह, बाल वेश्यावृत्ति को बहुलस्तरीय उपायों से नियंत्रित किया जा रहा है। इसके लिये भारतीय तलाक (संशोधन) अधिनियम 2001, भारतीय उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2002, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005, अनैतिक व्यापार (निरोधक) संशोधन विधेयक 2006, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से महिलाओं का संरक्षण विधेयक 2007, लघु ऋण से संबंधित विधेयक 2007 व असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 प्रभावी है। स्वाधार 2001-02, स्वयंसिद्धा 2001-02, जननी सुरक्षा योजना 2003-04, इकलौती कन्या छात्रवृत्ति योजना 2006-07, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन 2005, आयुश, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना 2007, राष्ट्रीय पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन नीति 2007, एन0आर0ई0जी0ए0 2006 व भारत निर्माण 2005-09 जैसी योजनायें मुख्य धारा से कटे व शोषित महिलाओं पर विशेष ध्यान देती है।
महिला सशक्तिकरण अभी भी एक चुनौती
विविध संवैधानिक तथा कानूनी प्रावधान के बावजूद (48 प्रतिशत से ऊपर) महिलायें राजनीतिक निर्णयन में सहभागी नहीं हो पा रही हैं। कुछ हद तक स्थानीय स्तर पर चयनित होने के बावजूद सत्ता और शक्ति का संचालन उनके पारिवारिक सदस्यों द्वारा किया जाता है। यह निर्णयन सहभागिता की स्वतंत्रता मात्र सांकेतिक है। महिलाओं पर वर्किंग ग्रुप की रिपोर्ट (2007) के अनुसार एच0आई0वी0 एड्स की संभाव्यता महिलाओं में (18-24 वर्ष के मध्य) वर्ष 2002 के 0.74 से बढ़कर 0.86 तक हो चुकी है। यह नियंत्रित होने के बजाय बढ़ रही है। मातृत्व मृत्यु दर जहाँ 400 से ऊपर है वही दूसरी तरफ महिला शिशु मृत्यु दर में कोई विशेष सुधार नहीं है। अभी भी 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या मात्र 933 है। महिलाओं की साक्षरता दर 1991 की तुलना में 39 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2001 में 54.3 तक तो हुआ है लेकिन यह 21.6 प्रतिशत से ऊपर का लिंग अंतराल है। 2001 में निरक्षरों की संख्या 296 लाख के करीब रही है जिसमें से 190 लाख तो मात्र महिलायें हैं जिसमें ग्रामीण महिलायें सबसे ज्यादा निरक्षर हैं। 253 जिलों में महिला साक्षरता की दर 50 प्रतिशत से नीचे है। साक्षरता में लिंग अंतराल, 2001 के आंकड़ों के अनुसार अनुसूचित जाति में 19 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजाति के लोगों में 24 प्रतिशत है। वर्ष 2001 में महिला कार्य सहभागिता दर 25.7 है। निर्धनता दर में कमी आयी है तथा यह लगभग 22 प्रतिशत है लेकिन अभी भी अधिकतर निर्धन महिलायें ही हैं। भारत में 397 लाख से अधिक मजदूर कार्य कर रहे हैं जिसमें 123.9 लाख मात्र महिलायें हैं और इसमें भी 106 लाख ग्रामीण क्षेत्रों में अदृश्य, असंगठित और अवैतनिक कार्यों में संलग्न हंै। असंगठित क्षेत्रों में कुल कार्यों का बहुतायत प्रतिशत महिलाओं का है। अधिकतर महिलायें निम्न आय श्रेणी से सम्बन्धित होती हैं। यह खासतौर पर इनकी उत्तरजीविता और घरेलू कार्यों से संबंधित होता है। 85 प्रतिशत से ऊपर ग्रामीण महिलायें कृषि कार्यों में संलग्न हैं। महिलाओं का कृषि कार्यों में सहभागिता दर अनवरत बढ़ रहा है। ग्रामीण महिलायें स्वास्थ्य समस्याओं से ज्यादा पीडि़त हैं जिनमें सीमान्तीकृत महिलाओं, अनुसूचित जाति-जनजाति तथा दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं में स्वास्थ्य संक्रमण और कुपोषण, एनीमिया, यौनिक संचरण से होने वाले रोगों का ज्यादा प्रभाव है। विकलांग भी सबसे ज्यादा महिलायें ही हैं। ये तीन प्रकार की सामाजिक प्रताड़ना का सामना कर रही है। प्रथम तो वे विकलांग हैं द्वितीय वे निरक्षर हैं और तृतीय निरक्षर व विकलांग होने के साथ गरीब और असहाय हैं। महिलाओं के प्रति अपराध में भी कोई कमी परिलक्षित नहीं हुई है। 20,000 से अधिक बलात्कार का मामला वर्ष 2006 के अंत तक दर्ज किया गया अर्थात् औसतम 55 बलात्कार प्रत्येक दिन। छेड़खानी की घटनायें भी रोज 100 से ज्यादे घटित होती हैं। प्रतिदिन औसतन 22 से ज्यादा महिलायें दहेज से प्रताणित और 170 से अधिक दहेज की क्रूरता का शिकार होती हैं। यह बढ़ती असुरक्षा और अपराध से पीडि़त महिलाओं का प्रतीक है जो हमारी कमियों को उजागर करता है और सशक्तिकरण की योजना पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है।
महिला सशक्तिकरण परियोजना को विखण्डित करने वाले कारक
महिलाओं की दशा सुधारने की प्रक्रिया औपनिवेशिक शासन काल से ही आरम्भ कर दी गई थी। स्वतंत्रता के बाद संवैधानिक तथा कानून नियामकों के द्वारा महिला कल्याण से महिला विकास और महिला समानता से महिला सशक्तिकरण के रुप में इसको तीव्रता भी प्रदान की है लेकिन जिन नकारात्मक तथ्यों का वर्णन हमने किया है उससे महिला सशक्तिकरण अभी भी एक अधूरी परियोजना है, जिसका प्रथम कारण ग्रामीण भारत में गुणवत्ता युक्त शैक्षणिक संस्थाओं का अभाव है। इसकी वजह से हम अभी भी महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखते हैं और शिक्षा का अभाव महिलाओं में व्यक्तिगत स्तर पर विकास और चैतन्यता के अभिलक्षणों को अवरुद्ध रखता है। इससे सीमान्तीकृत व निर्धन महिलायें ज्यादा प्रभावित हैं। द्वितीय कारण ग्रामीण भारत की विद्यमान रूढि़वादिता है। रूढिवादिता प्रगति उन्मुख रोजगार में लिंग अंतराल को बढ़ाता है क्योंकि हम अपनी सोच, कार्य करने की शैली तथा आयातित संस्कृति के अनुरुप, ग्रामीण भारत में अपने आप को तैयार नहीं कर पाते हैं और महिलाओं को असुरक्षित समझकर उन्हें सुरक्षित रखने के लिये तथा प्रतिष्ठा और सम्मान का विषय समझकर प्रायोगिक तथा नवीन सामाजिक व्यवस्था में सहभागी होने से अवरुद्ध करते हैं और महिलाओं की सहभागिता की कमी से अनवरत् व्यवसायिक लिंग अंतराल बढ़ता जाता है। तृतीय कारण निम्न व वंचित तबकों की महिलाओं पर विशेष जोर नहीं देना। पिछड़े, सीमांतीकृत और गरीब तबकों से संबंधित महिलाओं को विकास की परियोजना में दूर रखा जाता है क्योंकि आज भी विकास कार्यक्रमों को लागू करने और उसकी सही तरीके से प्रयुक्तीकरण करने वाले उच्च पदस्थ अधिकारी या राजनेता अपने घृणित स्वार्थपूर्ति के लिये इनको विकास कार्यक्रमों से दूर रखना, अपने लिये अत्यावश्यक समझते हैं क्योंकि ये निम्न व पिछड़े वर्ग की महिलायें जितनी जागरूक होंगी उच्च पदस्थ लोग उतने ही संकटग्रस्त होते जायेंगे। इनका आज भी उद्देश्य मानसिक अलगाव के द्वारा अपने लक्ष्यों को पूरा करना तथा उनके लाभों को अपने लिये प्रयुक्त करना एक प्रमुख सामाजिक सह व्यवसायिक गुण है। चैथा कारण स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है। स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण हम 70 प्रतिशत से अधिक ठीक होने वाले रोगों से लड़ नहीं पाते है। एनीमिया, टी0बी0, खांसी, कुपोषण, हैजा और मलेरिया जैसी कुछ बिमारिया हैं जो आसानी से नियंत्रित की जा सकती है और रोगों से बचा जा सकता है। इसके अन्तर्गत भी अनुसूचित जाति और जनजाति महिलायें ज्यादा प्रभावित हैं। बालिका भू्रण हत्या के साथ बढ़ता मातृत्व मृत्यु दर भी इसका एक दूसरा पहलू है। बालिका भू्रण हत्या की सच्चाई पारिवारिक सामाजिक बोझ तथा वंशावली निर्योग्यता की पुरातन विचारधारा है वहीं मातृत्व मृत्यु दर तत्काल समय पर कुशल गुणवत्तायुक्त स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है व अकुशल एवं अशिक्षित लोगों द्वारा जन्म कार्य संचालन (डिलिवरी) भी प्रमुख है। नवीन युवा पेशेवरों का गाँवों तथा दूरस्थ क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा देने से मना करना भी आज स्वास्थ्य समस्या से लड़ते ग्रामीण भारत के लिये परेशानी खड़ा करने वाला एक ज्वलंत मुद्दा है। जिसे हम हाल में समाचारों की सुर्खियों में देख चुके हैं। शायद यह नैतिकता, कार्य के प्रति लगन का अभाव और जिस ग्रामीण समुदाय पर भारत का भविष्य है उसके प्रति विवकेशीलता की कमी है। पांचवा कारण आर्थिक सुविधाओं और ऋण प्रदान करने वाले संस्थाओं की कमी है। अभी भी ग्रामीण भारत की बहुसंख्यक महिलायें रोजगार, व्यवसाय, घर-गृहस्थी की सुरक्षा व अध्ययन कार्य को सम्पन्न करने हेतु किसी प्रकार का आर्थिक सहयोग या ऋण नहीं पा पाती हैं क्योंकि आर्थिक संस्थाओं का नेटवर्क पंचायत स्तर तक नहीं पहुँच पाया है। तहसील और जिला स्तर पर जो संस्थायें कार्य कर रही हैं उनकी कार्य प्रक्रिया आसान न होने के साथ-साथ विकासवादी सोच को जारी रखने के अभाव से भी ग्रसित है। छठां कारण उपर्युक्त समय पर विकास कार्यक्रमों तथा कानूनी सुरक्षात्मक प्रक्रियाओं का जानकारी न मिलना भी शामिल है। निःसन्देह हम चिंतित हैं और महिलाओं के सशक्तिकरण के लिये चिंतन भी कर रहे हैं। इसे केन्द्रीय सरकार द्वारा अनवरत लागू की जाने वाली योजनाओं के विकास कार्यक्रमों के रुप में देख सकते हैं लेकिन जिस वास्तविक (अन्तिम) व्यक्ति के लिये ये योजनायें व कार्यक्रम बने हैं उन तक यह सूचनाओं के अभाव के कारण पहुँच नहीं पाता है। विकास कार्यक्रमों का समुचित जानकारी न होना भी इनकी अशक्तता का कारण है। अभी हाल ही में भारत के एक युवा राजनेता ने विकास कार्यक्रमों के लिये जारी धनराशि के अतिशय कम पहुँच को पिछड़े इलाकों की दयनीय दशा का प्रमुख कारण बताया है। कहीं न कहीं से यह सार्वजनिक पद पर आसीन उच्च पदस्थ लोगों के लिये निर्धारित कर्तव्यों, दायित्वों और अधिकारों के गलत दुरुपयोग को अभिचित्रित करता है। कानूनी व सुरक्षा के स्तर पर समान संहिता का अभाव, असमान वातावरण की स्थिति, मुस्लिम महिलाओं का उत्तराधिकार से विलगाव, शरीयत का शास्त्रीय धर्मवेत्ताओं द्वारा गलत विश्लेषण, हिन्दू महिलाओं का उत्तराधिकार के प्रति जागरूकता का अभाव भी इनकी अशक्तता का कारण है। सातवंा कारण महिलाओं की संकुचित अभिधारणा है। महिलाओं के प्रति अपराधिक घटनायें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इसके लिए महिलाओं की संकुचित सोच भी उत्तरदायी है। भारतीय समाज में महिलायें स्वयं के प्रति घटित किसी भी अपराध को सामान्यकृत नहीं होने देना चाहती हैं। घटना को प्रचारित प्रसारित करने की बजाय वह इसे स्वयं सहन करना पसन्द करती हैं। बलात्कार और छेड़छाड़ से पीडि़त महिला कानूनी व आर्थिक सुरक्षा के बावजूद अपराध का खुलासा नहीं करती है कारण कि भारतीय समाज में पीडि़त महिलायें हेय दृष्टि से देखी जाती हैं। सामाजिक दृष्टि व मान्यताएं विवाह करने और अन्य सामाजिक भागीदारी हेतु अयोग्य घोषित कर देती हैं। अयोग्य न होने की चाह, उसकी अभिधारणा को जनसामान्य के बीच लाकर प्रतिवाद करने से रोकती है जिसका प्रतिफल अपराधी का उत्साहित होने के साथ सामने आता है।
महिला सशक्तिकरण की सम्भावनायें
महिलाओं को सशक्त कर सकते हैं अगर प्रथम स्तर पर संवेदनहीन दुर्योधन संस्कृति को रोका जाय। यह संस्कृति अपराध, हिंसा, बलात्कार, छेड़छाड़ व यौनिक तनावों व कंुठाओं का आधार है। इसके लिए हमें सामुदायिक सम्बद्धता को बढ़ावा देना होगा और महिलाओं के साथ हम का भाव विकसित कर आमजन को उनके प्रति सभ्य और संवेदनशील बनाना होगा। द्वितीय स्तर पर संस्कारों का विकास कर सांस्कृतिक प्रदूषण को नियंत्रित किया जाय। आज सार्वभौमिकीकरण के दौर में हमने आयातित मूल्य व विचारधाराओं को स्वीकार करने की ओर तेजी दिखाई है लेकिन अतिशय बाजारीकरण और स्वछंद होने के कारण हमने अपने सम्मानीय व श्रेष्ठ मूल्यों का तो परित्याग कर दिया है लेकिन आयातित सांस्कृतिक गुणों को पूर्णतः आत्मसात नहीं कर पाये हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि हम सांस्कृतिक लकवे का शिकार हो गये हैं। तृतीय स्तर पर शिक्षा और विवकेशीलता का अनवरत प्रसार होना चाहिये। हालांकि महानगरीय समाज जितना शिक्षित हो रहा है उतना ही वहाँ महिलाओं को प्रति अपराध भी बढ़ता जा रहा है। इसका कारण शिक्षा के साथ विवकेशीलता का अभाव है क्योंकि विवकेशीलता आंतरिक श्रेष्ठ गुणों के संवर्धन व संचालन का स्रोत है। चतुर्थ स्तर पर स्वास्थ्य और परिवहन जैसी आधारभूत सुविधाओं का व्यापक स्तर पर विस्तार करना होगा। असंगठित, कृषि और खतरनाक कार्यों में कार्यरत महिलाओं की स्वास्थ्य सुविधाओं की जरूरत नहीं समझी जायेंगी तो आने वाली महिलायें निःसन्देह अशक्त, अस्वस्थ तथा विकलांग होंगी और यही हमारे भविष्य का संसाधन होंगी। विकलांग संसाधन, विकलांग देश का प्रतीक होगा। अतः स्वास्थ्य और परिवहन के सुविधाओं के विस्तार से हम स्वस्थ महिला तो स्वस्थ देश की परियोजना को साकार कर सकते हैं। पांचवे स्तर पर छोटे-छोटे आर्थिक सहायता और साख ऋणों को देने वाली संस्थाओं की स्थापना करनी होगी। इससे शिक्षा व स्वरोजगार स्थापना के लिए जहाँ हम महिलाओं को तुरंत सहायता दे सकते हैं, वहीं दूसरी तरफ विस्थापन, प्रवजन, प्राकृतिक आपदा व संकट से ग्रस्त महिलाओं के स्वस्थ विकास को सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं। क्योंकि आपदा, संकट, प्रवजन तथा विस्थापन से ग्रस्त महिलायें आर्थिक संकट के कारण यौन व्यवहार व वेश्यावृत्ति की ओर उन्मुख होती हैं। वहीं यह अन्य अपराधिक गतिविधियों तथा विध्वंसक कार्यों को करने के लिये प्रेरित करता है। अतः सही समय पर छोटे-छोटे संस्थाओं के आर्थिक सहयोग से हम इन्हें नकारात्मक कार्यों से बचा सकते हैं तथा आर्थिक सामाजिक रुप से सशक्त भी कर सकते हैं। मोहम्मद युनुस के गरीब तबकों के लिये ‘लघु ऋण’ की अभिधारणा और इला आर0 भट्ट का ‘सेवा’ से सीमांतीकृत महिलाओं को वित्तीय सहयोग प्रदान करना हम सबके लिये एक बेहतर उदाहरण है। छठें स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी के अनवरत प्रसार को प्रस्तावित किया जा सकता है। यह एक यथार्थ सत्य है कि विश्व के साथ कदम ताल करना है तो भारतीय ग्रामीण महिलाओं की अन्तर्संयोजित व एक-दूसरे से व्युत्पन्न होने वाली समस्याओं का उन्मूलन करना होगा और इसमें सूचना प्रौद्योगिकी के उपकरण इंटरनेट, ई-मेल, मोबाइल, डी0टी0एच0 बेहतर साधन साबित हो सकते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी से जहां सूचनायें मिलने से पारदर्शिता तथा कार्य में गुणवत्ता आती है वहीं यह भ्रष्टाचार की जीवनशैली को निस्तारित तो करता ही है साथ ही साथ सही चेतना का प्रसार करता है। सही चेतना महिलाओं में विकास को प्रोन्नत करता है। सूचना प्रौद्योगिक भारतीय सामाजिक संगठन की विकृतियों को जहाँ दूर करता है वहीं इसे नवीन सामाजिक संगठन के रुप में आवश्यक पुनर्संशोधन के द्वारा प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। उदाहरण के लिये स्वामीनाथन का पांडिचेरी में सूचना गांव (इनफारमेशन विलेज) का प्रतिरुप जो प्रत्येक स्तर पर प्रत्येक का सशक्तिकरण है। मीडिया यह कार्य महिलाओं के ज्वलंत समस्याओं को सामने लाकर आसानी से और सकारात्मक रुप में कर रही है और यही महिलाओं का मीडिया सशक्तिकरण है।
कहा जा सकता है कि हम संवैधानितक आरक्षण प्रदान करें या कानूनी संस्थाआंे का विस्तार करें, महिला सशक्तिकरण एकाकी प्रयास नहीं है, बल्कि बहुत स्तरों पर बहुल तरीके से किया गया एक सकारात्मक प्रयास है। यह अन्तःजन्य परिस्थितियों को मजबूत बनाने के साथ महिलाओं की वाह्यजन्य परिस्थितियों की भी सबलता है क्योंकि अगर महिला सशक्त होगी तो परिवार सशक्त होगा, परिवार सशक्त होगा तो समाज सशक्त होगा और समान सशक्त होगा तो राष्ट्र सशक्त होगा। इसे हम ‘महिला सशक्त अर्थात् भारत सशक्त’ के रुप में प्रदर्शित कर सकते हैं।
संदर्भ ग्रन्थ
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