Thursday 1 April 2010

वैश्विक क्रांति: प्रथम विश्व युद्ध और उसका प्रभाव


अर्चना राय
प्रवक्ता, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नैनी, इलाहाबाद।


सन् 1914 ई0 में प्रथम विश्व युद्ध का विस्फोट विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। यूरोप में गुप्त सन्धियों का सिलसिला इस युद्ध का सर्वप्रमुख मौलिक कारण था, जिसे शुरू करने वाला जर्मन साम्राज्य का चांसलर बिस्मार्क था। सन् 1871-1890 ई0 तक जर्मनी का नेतृत्व बिस्मार्क के हाथों में रहा। उसने फ्राँस को यूरोप की राजनीति से पूरी तरह पृथक रखते हुए जर्मनी का एकीकरण पूरा किया था, फलस्वरूप फ्रँास में प्रतिरोध की भावना का विकास हुआ। सन् 1888 ई0 में नये सम्राट विलियम द्वितीय ने बिस्मार्क को पद से हटाने के बाद शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। जर्मनी की आकांक्षा संपूर्ण विश्व में अपनी प्रभुता स्थापित करने की थी।
चीन के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप की बात हो या अफ्रीका के बँटवारे के बात लगभग प्रत्येक मामले में जर्मनी के हस्तक्षेप का विश्व की शांति पर अहितकर प्रभाव पड़ा। संपूर्ण विश्व अंतर्राष्ट्रीय अराजकता का जीवंत प्रतीक बन चुका था और प्रत्येक देश अंधाधुंध तरीके से अपनी आयुध शक्ति बढ़ाकर अपनी स्वाधीनता को सुरक्षित करना चाहता था।
अफ्रीका महाद्वीप के अधिकाधिक भाग पर अधिकार करने की इच्छा यूरोपीय राज्यों के मध्य संघर्ष का एक प्रमुख कारण थी। ‘‘कम से कम दो सम्राज्यवादी संकटों ने यूरोपीय शांति का भविष्य खतरे में डाल ही दिया था। एक था दक्षिण अफ्रीका का बोअर युद्ध जिसने जर्मनी और ब्रिटेन में तनातनी पैदा की और दूसरा थ सूडान को लेकर फसोदा काण्ड, जिससे इंग्लेण्ड और फ्राँस युद्ध के मैदान में टकराने से बाल-बाल बचे।’’1
चीन की दुर्बलता का फायदा उठाकर विभिन्न यूरोपीय राज्यों ने उसको अनेक प्रभाव क्षेत्रों में बाँटने के साथ ही अनेक सुविधाएँ भी प्राप्त कर ली व चीन को जापानी साम्राज्यवाद का भी शिकार होना पड़ा। ‘‘जापानी प्रसारवाद की इस गतिविधि से रूस के साथ उसका टकराव अवश्यम्भावी हो गया और 1904-05 में रूस का यूरोपीय राजनीति पर भी प्रभाव पड़ा और वहाँ का वातावरण तनावपूर्ण हो गया।’’2 बाल्कन प्रायद्वीप पर भी रूस, तुर्की व आस्ट्रिया के साम्राज्यवादी हित परस्पर टकराते थे। रूस व आस्ट्रिया दोनों ही बाल्कन से तुर्की को हटाकर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। रूस व आस्ट्रिया का यह हित विरोध भी विश्व युद्ध के प्रमुख कारणों में एक था।
इसी समय वैज्ञानिकों ने डार्विन के विकासवाद का सिंद्धांत सामाजिक जीवन पर लागू कर बताया कि युद्ध जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है और इस युद्ध संग्राम में शक्तिशाली व योग्य ही जीवित रह सकते हैं, अयोग्य व कमजोर तो तुरंत ही नष्ट हो जायेगें। 19 वीं शताब्दी का इंग्लैण्ड का एक अत्यंत प्रसिद्ध लेखक ‘रस्किन’ युद्ध की तरफदारी करते हुए कहता है- ‘‘युद्ध ने शिक्षा दी शांति ने धोखा दिया। बड़ी-बड़ी कौमें युद्ध से पैदा होती हैं और शांति में मर जाती हैं।’’3
जब यूरोप इन परिस्थितियों से गुजर रहा था, उसी समय राष्ट्रवाद का विकृत स्वरूप सामने आया जो कि प्रथम विश्व युद्ध का एक प्रमुख कारण बना। रस्किन कहते हैं- ‘‘इंग्लैण्ड को यही बात करनी चाहिए, नहीं तो वह नष्ट हो जायेगा। उसे उपनिवेश बनाना चाहिए और जहाँ कहीं भी उसे जमीन का ऐसा वीरान हिस्सा मिले, जिसमें उपज हो सकती है, उस पर कब्जा कर लेना चाहिए।’’4
किंतु इन अनेक कारणों के होते हुए भी युद्ध का तात्कालिक और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण था- आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या। कुछ प्रांतों पर अधिकार को लेकर आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या कर दी गयी। आस्ट्रिया ने सर्बिया को कुचल देने का निश्चय करते हुए सर्बिया से युवराज की हत्या के लिए उत्तर माँगा। संतोषजनक उत्तर न मिलने पर आस्ट्रिया ने सर्बिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। सभी अपने-अपने मित्र राष्ट्रों का पक्ष लेते हुए युद्ध में कूद पड़े।
‘‘ज्यों-ज्यों लड़ाई महीने पर महीने और साल पर साल बढ़ती गई नये-नये राष्ट्र इसके अंदर फँसते गये। गुप्त रूप से रिश्वतें पेश करके तटस्थ देशों को अपनी तरफ मिलाने की कोशिशें दोनों ही तरफ के लोग करते थे।’’5 विश्व युद्ध को जारी रखने की पीछे यह तर्क दिया जाता था कि यह युद्ध आत्म सम्मान व आजादी की रक्षा के लिए, युद्ध खत्म करने के लिए, लोकतंत्र को सुरक्षित रखने व आत्मनिर्णय तथा छोटी-छोटी कौमों की आजादी के लिए लड़ा जा रहा है।
प्रारंभ में चार महान शक्तियों- फ्रँास, रूस, इंग्लैण्ड व जापान ने आस्ट्रिया व जर्मनी के खिलाफ मोर्चा लिया। ‘‘युद्ध की अवधि जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे संसार के कई अन्य राज्य भी इसमें शामिल हो गए और शुरू के एक यूरोपीय युद्ध ने विनाशकारी विश्व युद्ध का रूप धारण कर लिया, जिसका अंत 11 नवम्बर, 1918 को हुआ।’’6
जर्मन सेनाओं ने क्षणिक संधि स्वीकार कर ली। प्रथम विश्व युद्ध का अंत हुआ और जर्मन साम्राज्य नष्ट हो गया। मित्र राष्ट्रों ने वर्साय की संधि में अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के 14 सिद्धान्तों को विश्व शांति के लिए स्वीकार किया, जो मुख्यतः निःशस्त्रीकरण, छोटे राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार, गुप्त समझौते नहीं, राष्ट्रसंघ की स्थापना आदि पर आधारित था।
प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम स्वरूप जन और धन की अपूर्व हानि होने के साथ ही कई साम्राज्य व राजवंश भी नष्ट हो गए। जर्मनी, आस्ट्रिया, तुर्की व रूस के निरंकुश शासकों की स्वेच्छाचारिता का अंत हो गया। यूरोप के अनेक प्रदेशों में जनतंत्र के आगमन के साथ ही वहाँ के निवासी अपने भाग्य का निर्णय स्वंय करने लगे।’’7
लगभग सभी सरकारों को अपनी वित्तीय स्थिति को नियन्त्रित करने के लिए भारी मात्रा में नोट छापने पड़े, जिससे मुद्रास्फीति की भंयकर समस्या का सामना करना पड़ा। निम्न व मध्यवर्ग विशेषकर निश्चित आमदनी वाले लोग तो तबाह हो गये। युद्ध के समय सरकारों द्वारा किये गये ऋण को चुकाने के लिए जनता को वर्षों तक अधिकाधिक कर देना पड़ा।
आर्थिक व सामाजिक परिवर्तनों के फलस्वरूप पूँजीपतियों के मनमानेपन को समाप्त करने के लिए आर्थिक जीवन पर सरकार ने नियंत्रण स्थापित किया। विदेशी व्यापार पर भी सरकार का नियंत्रण स्थापित हुया।
विश्व युद्ध के बाद श्रम का महत्व बढ़ा मजदूर वर्ग द्वारा रहन, सहन के स्तर में उन्नति के साथ ही अधिक वेतन की माँग को लेकर आंदोलन करने से राजनीतिक क्षेत्र में इस वर्ग का महत्व बढ़ा।
इस युद्ध ने महिलाओं को अपनी स्थिति में सुधार का मौका दिया। अधिकतर पुरुषों के सेना में भर्ती होने के कारण औरतों ने उन क्षेत्रों में भी हाथ आजमाना शुरू किया, जो पहले केवल पुरूषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र थे। अतः समाज में महिलाओं की स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव आया। महिलाओं ने अब पुरुषों के बराबर अधिकारों की माँग शुरू कर दी। यूरोपीय देशों में औरतों को मताधिकार भी प्रथम महायुद्ध के बाद ही मिला।
युद्ध का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व दूरगामी परिणाम था- विश्व राजनीति पर से यूरोपीय प्रभुत्व के समाप्त होने के युग का प्रारंभ। युद्ध के समाप्त होते ही यूरोप में पतन के सभी लक्षण एक ही साथ देखने को मिले। संपूर्ण विश्व में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का प्रभाव बढ़ा।
इस संपूर्ण घटनाक्रम ने एशियाई प्रदेशों पर भी अपना प्रभाव डाला। भारत, चीन, मिस्र व पूर्वी अफ्रीका में राष्ट्रीयता के आंदोलन ने जोर पकड़ा। पहले के अविकसित देश नयी परिस्थिति में अब औद्योगीकरण के पथ पर बढ़ चलने को तैयार थे और 1920 ई0 के दशक में उन्होनें उल्लेखनीय प्रगति भी की। इसी तरह का आर्थिक विकास भारत में भी हुआ। पश्चिमी एशिया के अनेक युद्धस्थलों पर सामान पहुँचाने के लिए भारत के औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन देना आवश्यक हो गया, जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार को भारत के औद्योगिक विकास पर लगाये गये बंधनों को हटाने के लिए बाध्य होना पउ़ा। भारत में अनेक औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन देना आवश्यक हो गया, जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार को भारत के औद्योगिक विकास पर लगाये गये बंधनों को हटाने के लिए बाध्य होना पड़ा। भारत में अनेक औद्योगिक प्रतिष्ठानों की स्थापना हुई।
‘‘1914 में छिड़े प्रथम विश्व युद्ध ने भारतीय राष्ट्रीयता के प्रहरियों को झकझोरा, उन्हें उद्वेलित किया। उस समय यह धारणा प्रचलित की कि ब्रिटेन पर किसी भी तरह का संकट भारत के हित में है, उसके लिए एक मौका है। इस मौके का कई जगहों पर कई तरह से फायदा उठाया गया।’’8
युद्ध की समाप्ति के बाद सन् 1919 ई0 में वर्साय की संधि में अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने कहा कि यह युद्ध सदैव के लिए संसार से युद्ध का नाश करने के लिए लड़ा गया व अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व शांति के लिए सन् 1919 ई0 में राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई।
संदर्भ ग्रन्थ
1. वर्मा दीनानाथ, सिंह शिव कुमार, विश्व इतिहास का सर्वोक्षण, भारती भवन, पटना, संस्करण 1991, पृष्ठ 410।
2. विश्व इतिहास का सर्वोक्षण, भारती भवन, पटना, संस्करण 1991, पृष्ठ 410।
3. नेहरू जवाहर लाल, विश्व इतिहास की झलक, सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली, पृष्ठ 893
4. वही पृष्ठ 894
5. वही पृष्ठ 894
6. विश्व इतिहास का सर्वोक्षण, भारती भवन, पटना, 1991, पृष्ठ 412।
7. पाल एस0 एन0, विश्व इतिहास का सर्वेक्षण, करेण्ट बुक क, जयपुर, पृष्ठ 391।
8. प्रो0 विपिन चन्द्र, भारत का स्वतन्त्रता संघर्ष, हिंदी माध्यम कार्यन्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वितीय संस्करण 1998, पृष्ठ 114।