Monday 31 March 2008

परमाणु करार एवं भारत


बैजनाथ दुबे
सदस्य विधान सभा, उत्तर प्रदेश |


              भारत द्वारा अमेरिका एवं एन0एस0जी0 देशों से जो करार किया गया है, वह भारत के हित में है। इस करार सें भविष्य में भारत की घरेलू ऊर्जा की आवश्यकता काफी हद तक पूरी हो सकेगी। वर्तमान समय में भारत के पास 4000 मेगावाट परमाणु विद्युत ऊर्जा उत्पादन करने की क्षमता है। अनुमान है कि देश में जितना यूरेनियम भण्डार उपलब्ध है उससे आसानी से 40 वर्षों तक 10,000 मेगावाट परमाणु विद्युत उत्पन्न किया जा सकता है। अगले दो दशकों में भारत के लिए आवश्यक 60,000 मेगावाट विद्युत ऊर्जा की पूर्ति सम्पोषणीय तरीके से परमाणु ऊर्जा से ही सम्भव हो सकती है। पूर्व राष्ट्रपति डाॅ0 कलाम के अनुसार 2020 तक यदि भारत 20,000 मेगावाट परमाणु विद्युत ऊर्जा उत्पादित करता है तो वह प्रतिवर्ष 145 मिलियन टन कार्बन डाई-आक्साइड को वायुमण्डल में उत्सर्जित होने से बचा सकता है।
               भारत पर वर्ष 1974 में पोखरण विस्फोट के बाद से पाबन्दी लगी है जिसके कारण वह परमाणु ईंधन उपकरण और उच्च प्रौद्योगिकी प्राप्त करने मेें असहाय हो गया। यहाँ तक कि रूस के द्वारा क्रायोजेनिक इंजन निर्माण में प्रयुक्त यूरेनियम के प्रयोग पर अमेरिकी चेतावनी के बाद रूस हिम्मत नहीं जुटा सका और भारत को स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन बनाने में 15 साल लग गये। रूस के मदद सेे 2 परमाणु ऊर्जा रिएक्टर तो बना लिए गए थे, पर अब केरल के कुन्डलकुलम में चार रिएक्टर और लगाने के लिए एन0एस0जी0 देशों के सामने रूस भी हिम्मत नहीं कर पा रहा है।  यहाँ तक कि डी0आर0डी0ओ0 की मिसाइल परियोजना लम्बित होती गई और उसकी लागत भी बढ़ गई। जो देश मित्रता की वजह से ईंधन देना चाहते थे वो अन्तर्राष्ट्रीय पाबन्दी के कारण मुह फेरने लगे। अब हमें रूस फ्राँस जैसे तमाम 40 देशों के साथ व्यापार करने की स्वतंत्रता मिल जायेगी और हमारे वैज्ञानिक व उनके द्वारा शोध की कई परियोजनाओं को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी क्षमता दिखाने का मौका मिलेगा। जो परमाणु रिएक्टर यूरेनियम की कमी से जूझ रहे थे (कई रिएक्टर तो 30 प्रतिशत की क्षमता भी नहीं बना पाए थे) वे सब विकसित हो जाएगें।
                     जहाँ तक विस्फोट की बात है कि भारत 2 बार विस्फोट कर चुका हैं। तो ध्यान रहे कि अभी विस्फोटों की हमें आवश्यकता नहीं है तथा जो प्रतिबन्ध अन्य देशों पर है वही हमारे ऊपर भी रहेगा। हमारे द्वारा भी परमाणु बम बनाने की तकनीक का प्रयोग शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए किया जायगा।
भारत एक विकासशील देश है। उसे प्रचुर मात्रा में विद्युत नहीं मिल पा रहा है। जिससे कल कारखानों में उत्पादन होने वाले वस्तुओं की लागत अधिक हो जाती है और अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की प्रतिस्पद्र्धा के मूल्यों में हम नहीं ठहर पाते हैं। जिन देशों में विद्युत की उपलब्धता के कारण उत्पादन अधिक होता है वहाँ उत्पादित होने वाली वस्तुओं का  मूल्य कम है। वर्तमान में मौसम के बदलाव के कारण विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता खेती किसानी में भी अधिक होने लगी है। इससे अनाज की लागत अधिक आ रही है तथा हमारे अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ रहा है। परमाणु करार से ऊर्जा की बढ़ती माँग पूरा हो सकेगी। इसके अतिरिक्त चिकित्सा, जैव प्रौद्योगिकी, मौसम विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान आदि क्षेत्रों को भी फायदा होगा। साथ ही जिस पर्यावरण के लिए हम विश्व में खतरनाक बन रहे थे उससे भी निजात मिल जायेगी।
                     पानी की कमी के कारण भी बिजली भरपूर नहीं मिल पाती है। भारत के पास विश्व का 1/3 भाग थोरियम का भण्डार मौजूद हैं। इसके दोहन के लिए संयत्रों की आवश्यकता होगी। भारत के पास जो यूरेनियम उपलब्ध है वह उच्च क्वालिटी का नहीं है तथा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार से महँगा है। परमाणु करार करके भारत इन तमाम समस्याओं से निजात पाते हुए विश्व की दौड़ती हुई अर्थव्यवस्था में पूरी तत्परता एवं आत्मविश्वास से में हर स्तर मंे सम्मिलित हो सकता है।
                     जो लोग कह रहें हैं कि भारत ने परमाणु परीक्षण करने का अधिकार खो दिया है। वह जनता को भ्रम में डाल रहे हैं। कोई भी सम्प्रभु राष्ट्र परीक्षण कर सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य दलों का विरोध इस लिए है कि कदाचित सरकार गिरती है, तो सब मिलकर मुझे प्रधानमन्त्री बना देंगे।
अतः हम कह सकते हैं कि परमाणु करार प्रत्येक दृष्टि से भारत के हित में है इससे हम सस्ती एवं अधिक विद्युत उत्पादन करके विश्व की दौड़ती हुई अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धा में शामिल हो सकेगें तथा काफी मात्रा में निवेशक हमारे देश में आयेंगे इससे रोजगार का अवसर मिलेगा तथा जो हमारे रक्षा प्रतिष्ठान बाधित थे उन्हें उच्च प्रौद्योगिकी विकसित करने में मदद मिलेगी तथा विशेष करके वैश्विक ऊर्जा की सुरक्षा तथा जलवायु परिवर्तन के दंश को भी झेलने से विश्व बच सकता है। भारत भी विश्व-बिरादरी से अलग रह कर खोने के अतिरिक्त कुछ नहीं प्राप्त कर सकता है।

साम्प्रदायिक सद्भाव के समग्र चिन्तन में संगीत की भूमिका


प्रियंका सिंह
शोध छात्रा, संगीत एवं प्रदर्शन कला विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद |


संगीत विश्व की भाषा है। विश्व बंधुत्व एवं मानव कल्याण के लिए यह एक प्रभावशाली माध्यम है। गाँधी जी ने अपनी ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाणे रे’ गाकर अपने करोड़ों भक्तों तक सद्भावना का संदेश पहुँचाया। उन्होंने ईश्वर, अल्लाह तेरो नाम, गाकर देश में साम्प्रदायिक द्वेष को कम करने का सेदेश प्रसारित किया।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानव-मानव में पारस्परिक प्रेम और सहयोग की भावना को जागृत करने में संगीत का विशेष योगदान है। भ्रतृभाव के उन्नयन हेतु भारत आरम्भ से ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की कल्पना करता रहा है। पश्चिमी देश आज जिस वैश्वीकरण पर जोर दे रहे हैं वह भारत की मूल भावना से अभिप्रेरित है। इस अन्तर्राष्ट्रवाद की मूल भावना यह है कि व्यक्ति केवल अपने राज्य का ही सदस्य नहीं वरन् विश्व का सदस्य है। संगीत इस भावना के विकास में सहायक सिद्ध हो रही है।
वर्तमान समय में कई टेलीविजन कार्यक्रम अपने संगीत के जादू से देश विदेश में अपनी कलात्मक पहचान व लोकप्रियता पा चुके हैं। ऐसे कार्यक्रमों में जी0टी0वी0 पर प्रसारित होने वाले सारेगामा कार्यक्रम का नाम उल्लेखनीय है। ऐसे कार्यक्रम विदेशों में रहने वाले अनिवासी भारतीयों को ही नहीं आकर्षित करते अपितु ये दूसरे देशों की संस्कृति को भी प्रभावित करते हैं। फिल्म संगीत से जुड़े अनेक संगीतज्ञों और पाश्र्व-गायकों ने विदेशों में अपनी संगीत कला के प्रदर्शन से दूसरे देशों के संगीत पे्रमियों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
भारत और पाकिस्तान के मध्य राजनीतिक स्तर पर भले ही कितनी भी कटुता भरी हो किन्तु पाकिस्तान के लोकप्रिय गायकों को यहाँ बड़े आदर के साथ आमंत्रित किया जाता है। स्व0 नुसरत फतेह अली खाँ के कार्यक्रमों का आयोजन हो अथवा गज़ल गायक गुलाम अली की बज़्म हो लोग इन्हें सुनने के लिए खिंचे चले आते हैं। संगीत का सम्मोहन सारे सीमा सम्बन्धी विवादों और पाकिस्तानी आतंकवाद की कटुताओं को भुला देती है। जब पाकिस्तान के लोग स्वर साम्राज्ञी, स्व0 नूरजहाँ को पाकिस्तान की ‘लता मंगेशकर’ का सम्मान देकर गौरवान्वित करते हैं, तब उनके मन में किसी प्रकार के क्षुद्र राष्ट्रवाद की भावना शेष न रह जाती। कहा जा सकता है संगीत धर्म, जाति एवं सम्प्रदाय जैसी तुच्छ बातों को लेकर लड़ने वाले लोगों का मार्गदर्शन करने की जड़ीबूटी है। उमेश जोशी महोदय, मुगल काल में संगीत द्वारा साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ाने की भूमिका को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि मुसलमान व हिन्दू दोनों वर्गों को संगीत ने एक स्तर पर मिला दिया था, वास्तव में संगीत ने दोनों को मिलाने में बड़ा कार्य किया। जन-जन के संकीर्ण मस्तिष्क को प्रशस्त किया। समाज में संगीत सीखने के लिए हिन्दुओं ने मुस्लिम संगीतज्ञों को गुरु बनाया तथा मुसलमानों द्वारा हिन्दू संगीतज्ञों को गुरु बनाये जाने के सैकड़ों दृष्टांत संगीत जगत् में प्राप्त होते हैं। भारतीय संस्कृति के अनुसार गुरु शिष्य परम्परा को पिता-पुत्र की भाँति दोनों धर्मों के अनुयायियों ने निभाया। जिससे दोनों वर्गों में आपसी प्रेम, भाइचारा तथा सद्भाव की भावना में वृद्धि हुई।
संगीत का प्रयोजन केवल मनोरंजन करना ही नहीं है, वह जीवन प्रेरणा भी है। पूज्य महर्षि महेश योगी जी द्वारा संगीत कला को उच्चतम कला स्वीकार किया गया है। उन्होंने संगीत द्वारा विश्व शान्ति के लिए प्रयास किया है। सन् 1987 में महर्षि गान्धर्ववेद संस्थान द्वारा सम्पूर्ण विश्व में ‘‘म्यूजिक फेस्टिवल फाॅर वल्र्ड पीस’’ का आयोजन किया गया जिसमें देश के विभिन्न कलाकारों के द्वारा बहुत से देशों में भारतीय संगीत के कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये। महर्षि जी का यह प्रयोग विश्व बंधुत्व व साम्प्रदायिक सद्भाव की वृद्धि करने में अत्यंत सफल रहा।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- ‘‘कला का कार्य व्यक्ति और समाज को परस्पर समीप लाना है, इस कार्य के लिए भाषाओं की उत्पत्ति हुई जिसमें से कला भी एक है।’’1 कला की अपनी भाषा होती है उसमें भी संगीत का तो कहना ही क्या? यदि कोई व्यक्ति परदे के पीछे बैठकर गाये या बजाये तो हम सिर्फ उसका संगीत सुनकर उसकी तारीफ करते हैं, उसके आनन्द में खो जाते हैं, भाव विभोर हो जाते हैं। वहाँ जाति धर्म सम्प्रदाय के सारे द्वेष समाप्त हो जाते हैं। वहाँ यह जानने की जरूरत नहीं कि गाने या बजाने वाला व्यक्ति किस धर्म जाति व सम्प्रदाय का है।
प्रसिद्ध संगीतज्ञ ‘‘पं0 भीमसेन जोशी’’ संगीत को राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण मानते हैं। ‘‘उस्ताद अलाउछ्दीन खाँ सहब’’ ने अमीर-गरीब, जाति-पाॅति का भेदभाव मिटाकर सबको प्रेम से गले लगाया तथा सभी धार्मों के मानने वालों को अपना शिष्य बनाकर निस्वार्थ भाव से संगीत की शिक्षा दी। खाँ साहब के सम्बंध में केशव चन्द्र वर्मा कहते हैं-‘संगीत साधना की इस पद्धति ने इन्हें धर्म निरपेक्ष आस्थावान संत बना दिया जिसके सिरहाने कुरान शरीफ है तो भागवत् भी, दीवार पर ‘‘अल्लाहो अकबर’’ है तो माता शारदेश्वरी का चित्र भी, रामकृष्ण परमहंस है तो बीथोवेन भी।2
संगीत से सद्भाव व समन्वय के प्रभाव की व्याख्या विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से की है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति (स्व0) डा0 राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार ‘‘मेरी धारणा यह है कि संगीत द्वारा मानव अपने आप को ऊँचा उठा सकता है।3 बाहर की परिस्थितियाँचाहे जैसी भी हो उनमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन के बिना मानव संगीत के द्वारा एक विशेष प्रकार के समन्वय अथवा सामन्जस्य की भावना अनुभव कर परिस्थितियों से ऊपर उठ सकता है।
सन् 1921 के काँग्रेस अधिवेशन में जन समूह, गाँधी जी के आगमन की प्रतिक्षा कर रहा था, गाँधी जी के आते ही उनके दर्शनार्थ भीड़ उमड़ पड़ी जिससे गाँधी जी का सभा मंडप में पहुँच पाना कठिन हो गया। तभी पलुष्कर जी ने ‘‘रघुपति रघव राजा राम’’ कीर्तन का गान करने लगे जिससे जनता मंत्रमुग्ध हो गयी। उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘गाँधी जी को अन्दर जाने दें तो वे और भी मधुर भजन सुनायेंगे। प्रस्तुत दृष्टांत से हम देखते हैं कि अनेक जाति धर्म व सम्प्रदाय के लोगों की भीड़ या समुदाय किस प्रकार पलुष्कर जी के गायन से प्रभावित हुआ, यह संगीत का ही प्रभाव है। भारतीय दूरदर्शन पर राष्ट्रीय एकता से सम्बंधित गीत ‘‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’’ के गायक पं0 भीमसेन जोशी अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं ‘‘भिन्नता के इस वातावरण में अभिन्नता का सुर भरने के लिए हमारी सरकार ने संगीत जैसी सर्वजनीन भाषा के माध्यम से इस गीत के प्रसारण का कार्यक्रम बनाया है क्योंकि संगीत ही अब एक ऐसा सशक्त और सार्वभौमिक साधन है जो लोगों को एकसूत्र में पिरो सके।4 वास्तव में हम दैनिक जीवन में यह अनुभव करते हैं, कि जब सभी धर्म सम्प्रदाय के लोग एक साथ मिल बैठकर गायन वादन करते हैं या सुनते हैं तो उनमें कोई विरोधाभास दिखाई नहीं पड़ता, सब एक ही रंग में रंगे प्रतीत होते हैं।
संगीत की भूमिका आजादी की लड़ाई में राष्ट्रीयता की भावना से भरे गीतों में देखने को मिलती है ‘‘वन्दे मातरम्’’ ‘‘मेरा रंग दे बसन्ती चोला’’ जैसे देश गीतों को सुनकर हर भारतीय के दिल में आजादी की जंग का जज्बा जाग जाता थ भले ही वो किसी भी धर्म का हो।
सूफी इनायत खाँ के अनुसार- ‘‘संगीत कलाओं में सूक्ष्मतम् होने के कारण आत्मा को सभी मतभेदों से ऊपर उठाने में सहायक होता है यह आत्मा को जोड़ता है वहाँ शब्दों की आवश्यकता नहीं यह शब्दों से परे है।’’ इस दृष्टांत से प्रतीत होता है कि समाज में आपस में बढ़ता बैरभाव, आत्मा को इन्सानियत से जोड़कर दूर किया जा सकता है और संगीत इसमें अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। डाॅ0 अरुण कुमार सेन के अनुसार ‘‘प्रसिद्ध संगीतज्ञ श्री नरहरि ने कई प्रसिद्ध हिन्दू मुसलमान उस्तादों से ध्रुवपद सीखे थे।5 भारत में संगीत द्वारा साम्प्रदायिक सद्भाव वृद्धि को इतिहास के स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा। मथुरा के प्रसिद्ध संगीतज्ञ ‘‘उस्ताद बुलाकी खाँ साहब’’ के सम्बंघ में वर्णन करते हुए डाॅ0 सुशील चैबे लिखते हैं ‘‘बृजभाषा क्षेत्र के प्रतिभा सम्पन्न मुसलमान गायक आम जनता के लोकप्रिय गायक बन जाते थे; मंदिरों के महंत हर दूसरे तीसरे दिन सुना करते थे। इस प्रकार मन्दिरों में मुसलमान गायक द्वारा संगीतबद्ध भक्ति गान करना साम्प्रदायिक सद्भाव की अनूठी मिसाल कहा जा सकता है। मुस्लिम गायक फैयाज खाँ ने भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन अपनी रचनाओं में किया जैसे-कि राग सुघराई की रचना ‘‘नैनन सो देख एक झलक मोहन की, अजहुँ न आये श्याम’’ आदि।
सिख सम्प्रदाय के प्रथम गुरु ‘‘गुरु नानक देव जी’’ कीर्तनकार ‘‘सहयोगी’’ के रूप में ‘‘भाई मरदाना’’ का नाम अमर है जो कि इस्लाम के अनुयायी थे। डाॅ0 गीता पैन्टल के अनुसार ‘‘भाई मरदाना को अपने प्रथम कीर्तन सहयोगी के रूप में चुनकर गुरु नानक देव जी ने अपने चित्त की उदारता, सहिष्णुता और मानव मात्र में उसी एक ईश्वर को देखने की भावना का प्रत्यक्ष प्रमाण दिया, मुसलमानों में हीन समझी जाने वाली जाति के एक सदस्य को गले लगाकर उन्होंने संगीत को और संगीत व्यवसाय करने वालों दोनों को ही सम्मान दिया।6
अन्ततः निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि आज से नहीं वरन् बहुत पहले से ही संगीत ने पूरे समाज व देश को एकसूत्र में बाँधने का कार्य किया है। संगीत से मानवीय गुणों का विकास हुआ है व पाश्विक प्रवृत्तियों का नाश हुआ है। इतिहास साक्षी है कि रक्तपात उन्हीं शासकों और राजाओं द्वारा अधिक हुआ जो संगीत विरोधी और कलाओं से दूर रहने वाले थे। समुद्रगुप्त के शासनकाल में सिक्के पर भी वीणावादन के चित्र मिलते हैं, इसलिए वह स्वर्णयुग था।7
सम्पूर्ण मानवता के हित में जो ग्राह्य हो उन तत्त्वों के आधार पर आज के युग की सबसे बड़ी माँग बहुजन हिताय कृतियों की है ताकि वसुधैव कुटुम्बकम की कल्पना सार्थक हो सके, ऐसी स्थिति में विश्व संगीत की कल्पना एवं भावी संगीत पीढ़ीयों के लिए ऐसे संगीत के सृजन की दिशा जो देश काल एवं सीमित मनोवृत्तियों से परे हो, आज के संगीतज्ञों का कत्र्तव्य है।
संदर्भ ग्रन्थ
1. शुक्ल, रामचन्द्र - कला की आधुनिक प्रवृत्तियाँ, पृ0-4
2. वर्मा, केशवचन्द्र - हिन्दुस्तानी संगीत के रत्न, पृ0-93
3. संगीत (मासिक), मार्च, 1993, पृ0-4
4. संगीत (मासिक), अगस्त, 1993, पृ0-36
5. सेन, डाॅ0 अरुण कुमार- भारतीय तालों का शास्त्रीय विवेचन, पृ0-205, म0प्र0 हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल-1993
6. जोशी, उमेश- भा0 संगीत का इतिहास, पृ0-40, मानसरोवर प्रकाशन प्रतिष्ठान फिरोजाबाद, आगरा-1984
7. पैन्टल, डाॅ0 गीता- पंजाब की संगीत परम्परा, पृ0-37

Sunday 30 March 2008

संप्रभुता का स्वरूप एवं प्राचीन भारतीय राज्य


अतुल कुमार मिश्र
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
इलाहाबाद



आधुनिक राज्य के बारे में जो बात नहीं बदली वह संप्रभुता से जुड़ी है। अंतर्राष्ट्रीय कानून का विकास लगभग राष्ट्र-राज्य की विकास यात्रा के साथ-साथ हुआ है। इसकी स्थापना के अनुसार सभी संप्रभु राज्य अंतराष्ट्रीय जगत में एक समान हैसियत रखते हैं और उन्हें संप्रभुता की दृष्टि से समान समझा जाना चाहिए। 
मध्य युग मेें यूरोपीय गणराज्य, राज्य न हो कर चर्च का एक विभाग मात्र बनकर रह गये थे। चैदहवीं शताब्दी में चले कान्सीलियर आन्दोलन, पुनर्जागरण और धर्म सुधार आन्दोलन के फलस्वरूप मध्ययुगीन पोपषाही का पटाक्षेप हुआ और धर्म निरपेक्ष एवं मानवतावाद की नई किरण प्रस्फुटित हुई। विज्ञान की उन्नति ने जागरूकता पैदा की। इसके अतिरिक्त औद्योगिक विकास ने सामंतों के स्थान पर एक नए वर्ग को जन्म दिया। यही वह समय था जब यूरोप के देश विशेषकर इंग्लैण्ड और फ्रांस के शासकों ने पोपषाही का नियंत्रण अस्वीकार कर दिया। फलस्वरूप राज्य के साथ प्रभुसत्ता एक अनिवार्य तत्व के रूप में जुड़ गया। यूरोप के लोग अब अपने आप को सबसे पहले फ्रंासीसी या अंग्रेज के रूप में मानने लगे, ईसाई के रूप मंे पहचान गौण हो गयी। इस प्रकार राष्ट्रवाद के नये तत्त्व का उदय हुआ एवं संप्रभुता जिसकी अनिवार्य अंग बन गयी। 
आधुनिक राज्य प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य हैं। यही वह तत्व है जो राज्य को अन्य मानवीय समुदायों जैसे परिवार, चर्च, विद्यालय आदि से अलग करता है। इसका स्थान राज्य की सर्वोच्च सत्ता में निहित है। जे0 डब्ल्यू गार्नर इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘‘प्रत्येक पूर्णतया स्वतंत्र राज्य में कोई व्यक्ति, सभा अथवा समूह (जैसे निर्वाचक मण्डल) होता है, जिसके पास कानूनी संदर्भ में अपनी इच्छा को व्यक्त करने तथा उस सामूहिक इच्छा को लागू करने अर्थात् आदेश देने और अपनी सत्ता के प्रति आज्ञा पालन को सुनिश्चित करने की शक्ति होती है। अन्य संघों की भी सामूहिक इच्छा होती है और वे अपने मतों का निर्माण भी कर सकते हैं, परन्तु राज्य की यह विषेषता है कि संघर्ष की स्थिति में अन्य सभी इच्छाओं के ऊपर, चाहे वे व्यक्तियों की हों अथवा संघों की, केवल इसी की इच्छा चलती है अर्थात् प्रधान होती है। शेष सभी इच्छायंे प्रबल रूप से इसके अधीन हैं। एक बार व्यक्त होने पर, राज्य की इच्छा जिसके बारे में इसने निर्णय लिया है, उसके संदर्भ में अंतिम आदेश का प्रतिनिधित्व करती है।़  इस प्रकार संप्रभुता एक ऐसी सर्वोच्च शक्ति मानी जाती है जो सभी व्यक्तियों, समुदायों, वर्गों, वस्तुओं, वर्ग हितों, समूहों और संस्थाओं को नियंत्रित एवं नियमित करती है। आधुनिक समाजों में राज्य इस शक्ति का धारक माना जाता है। 
शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से सम्प्रभुता का अर्थ है -‘सर्वोच्च शक्ति’। सर फ्रेडरिक पोलाक ने सम्प्रभुता की परिभाषा देते हुए बताया है कि ‘‘सम्प्रभुता वह शक्ति है, जो न तो अस्थायी होती है और जो न किन्ही ऐेसे नियमों के अन्तर्गत आती है, जिन्हंे वह स्वयं न बदल सके।’’  बिलोबी के शब्दों में ‘‘सम्प्रभुता राज्य की वह शक्ति है जो हमेषा क्रियाशील रहकर कानून बनाती है और उनका पालन कराती है, सम्प्रभुता कहलाती है।’’  बोदाँ के अनुसार ‘‘सम्प्रभुता राज्य की अपनी प्रजा और नागरिकों के ऊपर वह उच्चतम सत्ता है जिस पर किसी कानून का प्रतिबंध नहीं है।’’  जेलिनेक स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ‘‘सम्प्रभुता राज्य की वह विषेषता है जिसके कारण इसे अपनी इच्छा के अतिरिक्त किसी अन्य शक्ति द्वारा वैधानिक रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता अथवा उसे स्वयं के अतिरिक्त किसी अन्य शक्ति द्वारा सीमित नहीं किया जा सकता।’’  कार्रे डि मैलबर्ग सम्प्रभुता को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘‘सम्प्रभुता शक्ति नहीं, अपेक्षाकृत एक विषेषता है, यह शक्ति की सर्वोच्च विषेषता है- इस अर्थ में सर्वोच्च है कि यह अन्य किसी शक्ति के अधीन नहीं है और कोई शक्ति इसके साथ प्रतियोगिता नहीं कर सकती।’’  
सम्प्रभुता राज्य को प्राप्त वह सर्वोच्च सत्ता है जिसके माध्यम से वह अपने अन्तर्गत निवास करने वाले समस्त शक्ति तथा समुदायों पर सर्वोच्च अधिकार रखती है। उनसे अपने उद्देश्यों का पालन करवाती है और ऐसा न करने पर दण्ड देेने की शक्ति रखती है। इसी सम्प्रभुुता के आधार पर राज्य अपने ही समान दूसरे राज्य के साथ स्वविवेकानुसार, बिना किसी दबाव के संबंध स्थापित करता है। अर्थात् सम्प्रभु राज्य के भीतर एवं बाहर किसी भी तरह की बाध्यकारी शक्ति से बंधा नहीं होता है। जाॅन आॅस्टिन इन्हीं बातों को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि-‘‘यदि किसी समाज में अधिकांश व्यक्ति किसी निश्चित उच्चतर व्यक्ति की आज्ञा का पालन आदतन करते हैं और जो स्वयं अपने ही जैसा किसी दूसरे उच्चतर व्यक्ति की आज्ञा का पालन न करता हो, वह निश्चित उच्चतर व्यक्ति उस समाज का सम्प्रभु है और इसके (सम्प्रभु) साथ वह समाज स्वतंत्र और राजनीतिक समाज होता है।’’ 
एक निश्चित भूमि पर सर्वाेच्च सत्ता के रूप में सम्प्रभुता की धारणा भले ही राष्ट्र-राज्य की अवधारणा के साथ जुड़ी हो अथवा एक आधुनिक धारणा के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित हो किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि प्राचीन एवं मध्ययुगीन राज्यों में सम्प्रभुता नाम की कोई चीज नहीं थी। प्राचीन भारतीय राज्यों के बारे में जो विवरण हमें कौटिल्य के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’, मनुस्मृति, महाभारत, शुक्रनीति, आदि ग्रंथो से प्राप्त होते हैं, उनसे सम्प्रभु राज्य की सभी विशेषताएं भारतीय राज्यांे में परिलक्षित होती है। प्राचीन भारतीय राज्यों को न सिर्फ अन्य समस्त सामाजिक संस्थाओं से सर्वोच्चता प्राप्त थी बल्कि वह अपने ही समान किसी अन्य राज्य की सामान्यतः आज्ञा पालन भी नहीं करता था। राज्य सर्वोच्च था जिसकी समस्त कार्यकारी श्ािक्तयां राजा में निवास करती थी। मनु के अनुसार जब राज्य (राजा) के अभाव में सम्पूर्ण विश्व में भय व व्याकुलता फैल गयी, तब सबकी रक्षा हेतु प्रभु ने राजा की उत्पत्ति की। मनुस्मृति में कहा गया है - 
अराजके हि लोकेऽस्मिन्सर्वंतो विद्रुते भयात्।
रक्षार्थमस्य सर्वस्य राजानामसृजत्प्रभुः।। 
अर्थात् मनु कहते हैं कि इस जगत में राजा के अभाव में सर्वत्र हाहाकार होने लगा तब लोक रक्षा के लिए ईश्वर ने राजा को बनाया। इस प्रकार राजा की उत्पत्ति प्रजा पालनार्थ होती है। वह सर्वगुण सम्पन्न, सर्वशक्तिशाली होते हुए भी स्वच्छन्द एवं निरंकुश नहीं है, बल्कि वह दण्ड (कानून) से बंधा हुआ है, जैसा कि मनुस्मृति में कहा गया है - 
तस्यार्थे सर्वभूतानां गोप्तारं धर्मात्मजम्।
ब्रह्मतेजोमयं दण्डमसृजत्पूर्वमीश्वरः।।  
अर्थात् उस राजा का कार्य बनाने के लिए ईश्वर ने सब जीवों के रक्षा हेतु, ब्रह्म तेज से युक्त धर्मरूप दण्ड को पहले बनाया।
इसी अध्याय के पन्द्रहवें श्लोक में कहा गया है कि - 
तस्य सर्वाणि भूतानि स्थावराणि चराणि च।
भयाद्भोगाय कल्पन्ते स्वधर्मान्चलन्ति च ।।
अर्थात् उस दण्ड के भय से सब चराचर जीव सुख प्राप्त करते हैं और स्वधर्म से विचलित नहीं होते। मनुस्मृति में दण्ड की सर्वोच्चता स्थापित करते हुए सम्पूर्ण विश्व को दण्ड के अधीन बताया गया है। अध्याय 7 का श्लोक 23 कहता है- 
देवदानवगन्धर्वा रक्षासि पतगोरगाः।
तेऽपि भोगाय कल्पते दण्डेनैव निपीडिताः।।
अर्थात् देव, दानव, गन्धर्व, राक्षस, पक्षी और नाग ये सब दण्डभय से त्रस्त होकर ही नियम में रहते हैं। इसी क्रम में चैबीसवें श्लोक में कहा गया है कि -

दुष्येषुः सर्ववर्णाश्च भिद्यरन्सर्वसेतवः।
सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्य विभ्रमात्।।
अर्थात् दण्ड के उचित प्रयोग न होने से सभी वर्ण दूषित हो जाए, धर्म से सब बंधन टूट जाएं और सब में विद्रोह उत्पन्न हो जाए अर्थात् राज्य व्यवस्थाविहीन हो जाए।
इस प्रकार प्राचीन भारतीय राज्यों में संकल्पना के रूप में प्रभुसत्ता भले ही विद्यमान न रही हो किन्तु राज्यों की सर्वोच्चता स्थापित थी। यह सर्वोच्चता केवल आन्तरिक क्षेत्र में ही न होकर, बाह्य दृष्टि से भी स्थापित थी। अर्थात् वे किसी दूसरे राज्य के समक्ष समर्पण नहीं करते थे। राज्य द्वारा निर्मित कानून सर्वोच्च थे। उनका पालन न किए जाने पर दण्ड का प्रावधान था अर्थात् आॅस्टिन की कानूनी सम्प्रभुता तत्कालीन भारतीय राज्यों में विद्यमान थी। इसके साथ ही यदि शासक या कुछ संदर्भों में सम्प्रभु शक्ति सीमित थी तो वह थी प्रजा का कल्याण। इस हेतु राजा के कुछ कत्र्तव्य निर्धारित थे जिनसे वह बंधा था। इस प्रकार प्राचीन भारतीय राज्य सम्प्रभु राज्य थे। दूसरे शब्दों में सम्प्रभु राज्य की सारी विशेषताएं तत्कालीन राज्यों में पायी जाती थीं। 

सन्दर्भ ग्रन्थ

1. जे0 डब्ल्यू गार्नर: पोलिटिकल साइंस एण्ड गवर्नमेंट  पृ0- 156
2. आशीर्वादम्: पोलिटिकल थ्योरी,  पृ0- 296
3. डब्ल्यू0डब्ल्यू0 बिलोबी - द नेचर आफ द स्टेट, पृ0- 383
4. मैकसी -पोलिटिकल फिलासफी, पेज 164 बर्गेस: पालिटिकल साइंस एण्ड कान्सीट्यूशनल लाॅ,   पृ0 -  53
5. वी0 आर0 पुरोहित, राजनीति शास्त्र के मुल सिद्धांत, पृ0 -116-117।
6. वी0 आर0 पुरोहित, राजनीति शास्त्र के मुल सिद्धांत, पृ0 -118
7. डनिंगः पोलिटिकल थ्योरीज फ्राम रूसो टू स्पेन्सर, पृ0 202
8. मनुस्मृति: अध्याय सात, श्लोक क्रमशः 3,4,5,
9. वहीं: अध्यय 7, श्लेाक 14

कौटिल्य युगीन न्याय व्यवस्था: एक समीक्षात्मक विश्लेषण


आलोक कुमार 
(शोध छात्र)
प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग
काशी हिन्दी विश्वविद्यालय, वाराणसी।


भारतीय जनमानस प्राचीनकाल से ही न्यायप्रिय रहा है। प्राचीन चिंतकों एवं आचार्यों ने राजाओं को निरंतर यही निर्देश दिया कि वे अपने राज्य में न्याय व्यवस्था की समुचित स्थापना करते रहें।

कौटिल्य के युग तक सामाजिक स्थिति में बड़ा परिवर्तन हो चुका था और राजशक्ति का विकास केन्द्रीय शक्ति के रूप में हो रहा था। समाज का ढाँचा सरकार पर निर्भर होने लगा और चारों वर्णाश्रम अपने संयमन के लिए राजा की सहायता की अपेक्षा करने लगें।1 इतना ही नहीं सर्वधर्मों के नाश हो जाने पर राजा धर्म प्रवर्तक भी बन गया।2

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजतंत्रात्मक व्यवस्था का समर्थन किया गया है। इस व्यवस्था में ‘राजा’ संविधान की धुरी एवं राजनीतिक जीवन का केन्द्रस्थल था।3 वस्तुतः राजपद में ही संप्रभुता निहित थी।4 वह शासन रूपी यंत्र को संचालित करने वाली कुंजी थी।5 अर्थशास्त्र में सर्वोच्च विधायिनी संस्था का कोई वर्णन नहीं मिलता है फलतः आदेश जारी करना और कानून निर्माण करना राजा का ही कत्र्तव्य था जिसका एक मात्र उद्देश्य जनसुरक्षा की स्थापना करना था।6

कौटिल्य के पूर्व उपनिषदों से होती हुयी धर्मसूत्रोत्तर काल तक भारतीय न्यायपालिका का आधार यथार्थवादी के साथ दार्शनिक हो चुका था। इस काल तक समाज की भौतिक आवश्यकताओं के अधिक स्पष्ट होने, विदेशी आक्रमण से राष्ट्रभाव के विकास, अखण्ड राष्ट्र एवं राज्य की स्थापना वाह्य जातियों से संपर्क, बौद्ध जैन एवं भौतिकवादी संप्रदायों के आंदोलन आदि से समाज एवं व्यक्ति के सम्बन्धों में महत्वपूर्ण विकास हुआ, फलतः कौटिल्य ने ‘विधि’ का स्पष्ट लौकिक रूप संहिताबद्ध किया। इसमें कौटिल्य उदारवादी थे और उन्होंने परम्परागत उन्मुक्तियों एवं सुविधाओं में संशोधन प्रस्तुत किया। अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने ‘विधि’ एवं ‘धर्म’ में परम्परावादी अंश और उसका राज्य के साथ सम्बन्ध स्थापना में क्रँातिकारी परिवर्तन नहीं किया। ‘धर्म’ से व्यावहारिक विधि के साथ कत्र्तव्य विधि का रूप मानते हुये उसे शाश्वत रूप में ही स्वीकार किया। लेकिन व्यावहारिक विधि का आधार मानव व्यवहार एवं समाज स्वीकार करने से विधि के शाश्वत होने तथा उसके देवत्व के स्थान पर लौकिक सर्वोच्चता का रूप सामने आया।

विधि के कार्यान्वयन की राज्यशक्ति अर्थात राज्य-संप्रभुता उस समय पराकाष्ठा पर आ गयी और राज्य का कार्यक्षेत्र व्यापक हो गया। यहाँ विधि सामाजिक आवश्यकताओं से प्रभावित होकर नये रूप में आती है किन्तु समाज विधि को प्रभावित करने के साथ उसकी सर्वोच्चता स्वीकार करता है। इस सर्वोच्चता का कार्यान्वयन राज्य से होता है और राज्य का आधर जनस्वीकृति, जनकल्याण एवं विधि की सर्वोच्चता रहता है। राजा एवं राज्य के अन्य घटक लोक विधि से, जिसे धार्मिक एवं वैधानिक शक्ति प्राप्त है, शक्ति प्राप्त करते हैं एवं वह राज्य के आधार व शक्ति के रूप में अभिव्यक्त होती है। यही व्यवहार विधि, धर्म के संस्कार, अंधविश्वास, कर्मकाण्ड एवं इनके आधार पर स्थिर परम्परा से उच्च मानी गई है। इसके प्रयोग में विवेक, हेतु एवं तर्क का प्रयोग आवश्यक माना गया।7 यही कौटिल्य का विवेकवादी विधि का स्वरूप है।

कौटिल्य के अनुसार कानून के चार स्रोत थे- धर्म, व्यवहार, चरित्र और शासन- जिनमें पूर्व की अपेक्षा बाद वाले स्रोतों का उच्च स्थान था।8 इन चारांे स्रोतों का वर्णन करते हुये उन्हेंने लिखा है कि सत्य में धर्म, प्रमाण में व्यवहार, सामाजिक जीवन में चरित्र और राजाज्ञा में शासन स्थित रहता है।9 अर्थशास्त्र में राजाज्ञा को कानून के अन्य स्रोतों में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। कौटिल्य के अनुसार परम्परा और धर्मशास्त्र दोनों की सहायता से विवादों का निर्णय करना चाहिए किन्तु मतभेद की स्थिति में धर्मशास्त्रों को ही प्रमाण मानना चाहिए।10 इसी प्रकार यदि राजा के धर्मानुकूल शासन का धर्मशास्त्र से विरोध हो जाये तो ऐसी स्थिति में राजशासन को ही प्रमाण मानना चाहिए।11 श्री यू0एन0 घोषाल का मानना है कि राजा को ही राज्य की समृद्धि हेतु कृषि, व्यापार, उद्योग, सैनिक और वैदेशिक आदि विषयांे से संबंधित नियम निर्माण एवं उन्हें कार्यान्वित करने का अधिकार प्राप्त था। इस रूप में वह अर्धविधायिनी शक्ति से युक्त था।12 अतः स्पष्ट हो जाता है कि अर्थशास्त्र की राज्य व्यवस्था में विधायिका के अभाव में ‘राजा’ को विधि निर्माण संबंधी विस्तृत शक्तियाँ प्राप्त थी।

राजा न्याय कार्य का संपादन स्वयं तथा न्यायाधीशों की सहायता से करता था। धर्मोपधा रीति से परीक्षित आमात्यों को राजा ही धर्मस्थीय (दीवानी) एवं कंटकशोधन (फौजदारी) न्यायालयांे में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करता था।13 राजा के नीचे धर्मस्थीय (दीवानी) एवं कंटकशोधन (फौजदारी) न्यायालय थे। धर्मस्थ्ीय न्यायालय जनपदांे की संधि पर, दस गाँवों के केन्द्र संग्रहण में, चार सौ गाँवों के केन्द्र द्रोणमुख में और आठसौगाँवों के केन्द्र स्थानीय में स्थापित थे। जिनमें तीन धर्मस्थ एवं तीन अमात्य एक साथ दीवानी संबंधी विवादों का निर्णय करते थे।14 इसी प्रकार तीन प्रदेष्टा और तीन आमात्यों द्वारा कंटकशोधन संबंधी विवादों का निपटारा किया जाता था।15

कौटिल्य ने लौकिक न्यायिक विभाग का नाम धर्मस्थीय रखा जिसके कार्यक्षेत्र से स्पष्ट होता है कि धर्मशास्त्र.ों के विधि संबंधी विषय उसमें आ जाते हैं। न्यायालय में धर्मस्थों के साथ आमात्यों को रखने का प्रयोग जनजीवन एवं न्यायिक प्रशासन के शासकीय रूप दोनों में वास्तविक समन्वय स्थापित करना था। धर्मस्थों को लोक विधि, जाति विधि आदि से सम्बद्ध करने से स्थिति अत्यंत स्पष्ट हो जाती है।

इसी प्रकार कंटकशोधन में भी सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक एकात्मकता स्थापित की गई। इसके माध्यम से भी समाज और न्यायालय दोनों निकट लाये गये और समाजकंटकों एवं राष्ट्रकंटकों के उन्मूलन का प्रयास किया गया। सामाजिक एवं राष्ट्रीय हित की अवहेलना कर अपने स्वार्थ की पूर्ति करने वालों को ‘कंटक’ कहा गया, उनसे समाज एवं राष्ट्र की रक्षा करना इस न्यायालय का कार्य था, इसीलिए इसे कंटकशोधन कहा गया।

इसके अतिरिक्त ग्रामसभाओं के माध्यम से निर्णय होता था। ग्राम सभाओं में राज्य की ओर से न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं होती थी। गाँव के किसान, गोपालक, वृद्ध एवं अन्य अनुभवी पुरूष- एक या एकाधिक निर्णय करते थे।16 इन सभाओं के कार्यक्षेत्र में घर, बाग, खेत, सीमाविवाद, तालाब और बाँध सम्बंधी अपराध थे। क्षेत्र की सीमा का विवाद ग्राम वृद्धों की सभा करती थी। यदि उनमें मतभेद हो जाये तो धार्मिक एवं पवित्र व्यक्ति जिन्हें प्रजा स्वीकार करती हो, वे निर्णय कर सकते थे। इनके विकल्प में पंचनिर्णय की व्यवस्था थी।17 इनसे निर्णय न होने पर राज्य हस्तक्षेप कर सम्पत्ति अपने अधिकार में ले लेता था।18 ग्रामों एवं अन्य सभाओं के साथ परिषदें भी न्याय करती थी। इनके कार्यक्षेत्र में जातीय विवाद आते थे।19

अर्थशास्त्र में देरी से न्याय को अच्छा नहीं कहा गया। कौटिल्य कहते हैं कि आवश्यक कार्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए क्योंकि अवधि बीत जाने पर वे ही कार्य कष्ट साध्य अथवा असाध्य बन जाते हैं।20 अर्थशास्त्र युगीन न्याय व्यवस्था में न्याय सबकों सुलभ था। यदि कोई न्यायाधीश प्रार्थी के साथ उचित न्याय नहीं करता तो उसे भी दण्ड दिया जाता था।21 इसके साथ ही यदि वे अपने कार्य में आलस्य करें या कत्र्तव्यच्युत  हो जायें तो वे दण्ड के भागी होते थे।22 यहाँ तक अनुचित दण्ड देने वाले न्यायाधीश भी दण्डित हो सकते थे।23

कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में न्यायिक व्यवस्था के संबंध में यथार्थवादी न्यायपालिका के विकास, राजा के न्यायिक उद्देश्य, न्यायालयों के संगठन विधि के स्रोत, स्थानीय संगठनों के विधि संबंधी अधिकार आदि का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने दण्ड के प्रावधानों के साथ दाण्डिक विमुक्तियों का भी उल्लेख किया है। वहाँ ‘विधि की संप्रभुता’ पूर्णरूपेण स्पष्ट है। समाज की विधि में सभी समाजों को उनकी विधि के कार्यान्वयन का समान अधिकार है। वस्तुतः समस्त नागरिकों को उनकी ही विधि के अनुसार जो अधिकार ‘अर्थशास्त्र’ में दिया गया है वैसा आज विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली अमेरिकी न्यायपलिका भी नहीं दे पायी है क्योंकि उस पर समाज का प्रभाव तो है पर समाज उसका स्रोत नहीं है।

संदर्भ ग्रन्थ

1. अर्थशास्त्र  1/4119
2. वही 3/1150
3. बंद्योपाध्याय,एन0सी: कौटिल्य, पृष्ठ- 90
4. सैलोटोर, भास्कर: एंशियेण्ट इंडियन पाॅलिटीकल थाॅट एण्ड इन्स्टीट्यूशन्स, पृष्ठ- 299
5. घोषल, यू0 एन0: ए हिस्ट्री आंडियन पाॅलिटीकल आइडियाज
6. बंद्योपाध्याय, एन0 सी0: कौटिल्य, पृष्ठ 78
7. अर्थशास्त्र: पृष्ठ 110, 117, 170 आदि।
8. अर्थशास्त्र 3/1/51
9. अर्थशास्त्र 3/1/52
10. वही 3/1/56
11. वही 3/1/57
12. घोषाल, य0 एन0 - पूर्वोक्त पृष्ठ- 114
13. आर्थशास्त्र 1/10/20
14. आर्थशास्त्र 3/1/1
15. आर्थशास्त्र 4/1/1
16. आर्थशास्त्र 3/9/12
17. आर्थशास्त्र 3/9/17-18
18. आर्थशास्त्र 3/9/19
19. आर्थशास्त्र 3/9/19
20. कैम्ब्रिज हिस्ट्री आॅफ इंडिया - वोल्यूम 1 पृष्ठ 485
21. अर्थशास्त्र 4/9/35
22. आर्थशास्त्र 4/9/36-41
23. आर्थशास्त्र 4/9/42-47


भूमण्डलीयकरण का लक्ष्य लोकसंग्रह क्यों और कैसे


डाॅ0 इन्दु प्रकाश सिंह 
प्रवक्ता/ विभाग प्रभारी
राजकी रजा स्नातकोत्तर महाविद्यालय
रामपुर उत्तर प्रदेश



‘भूमण्डलीयकरण’ का निहतार्थ है सम्पूर्ण भूमण्डल अर्थत संसार का एकीकरण। यह विज्ञान के विकास का परिणाम है। इसके अंतर्गत सम्पूर्ण विश्व परस्पर सम्बद्ध है। चाहे व्यापर को लें, बौद्धिक संपदा को, या मनोरंजन, भाषा, व्यवहार आदि सभी का एकीकरण इसमें सन्निहित है। इसमें भैगोलिक सीमा का अतिक्रमण करके विश्व के भौतिक एकता की बात की जाती है। ‘राष्ट्रवाद’ एवं ‘सांस्कृतिक संरक्षण’ हेतु इसमें कोई स्थान नहीं है। भैतिक जीवन की सुख-सुविधाओं एवं आर्थिक संसाधनों का उपभोग सभी राष्ट्र एक दूसरे के साथ मिल-बांटकर करते हैं। विश्व के एक कोने पर बैठा व्यक्ति दूसरे कोने पर बैठे व्यक्ति से सम्बद्ध है। दो राष्ट्रों के बीच भैगोलिक दूरी अवश्य है; किन्तु इण्टरनेट, वीडियों कान्फ्रेन्सिंग, एवं विज्ञान के अन्य साधनों एवं उपकरणों से वे आपस में एक दम आस-पास है। एक का प्रभाव दूसरे पर प्रत्यक्ष पड़ रहा है। एक देश में उत्पादित सामग्री दूसरे देश को भेजी जा रही है। अस्तु, सम्पूर्ण विश्व के लोगों को भैतिक एवं भावनात्मक आधार पर जोड़ने के लिए रची गयी एक नवीन अवधारणा है।

पुनश्च, भूमण्डलीकरण में मात्र भौतिक संसाधनों एवं उनके आयात-निर्यात सम्बन्धी एकता को ही व्यवहारतः मूर्त रूप दिया जा रहा है। यथार्थ तो यह है कि ‘भूमण्डलीकरण’, विश्व अर्थव्यवस्था के बाजारवाद की उपज है। विश्व को एक बाजार के रूप में तथा सम्पूर्ण विश्व के लोगों को एक ही बाजार के खरीदार एवं विक्रेता स्वीकार किया जाता है। विकसित राष्ट्रों में अपने बाजारवाद को न्यायोचित ठहराने के लिए यह नया संप्रत्यय गढ़ा गया है। इसमें भूमण्डल की एकता को प्रचारित किया जाता है; किन्तु यह एकता मात्र वस्तुओं एवं उत्पादों को बेचने एवं उन उत्पादों के प्रति अपनत्व बढ़ाने के लिए किया जाता है। भूमण्डलीकरण के नारे के पूर्व विकसित राष्ट्रों को एक समस्या से जूझना पढ़ता था कि - बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं उनके उत्पादों के प्रति बहुत से राष्ट्रों के लोग विदेशी वस्तु कहकर स्वदेशी आंदोलन एवं स्वदेशी प्रयोग का नारा देकर उन वस्तुओं के प्रति घृणा का भाव रखते थे। इस समस्या के समाधान का एक ही रास्ता था कि बाजारवाद के परिप्रेक्ष्य में वैश्विक एकता या भाईचारे को बढ़ावा दिया जाय, तथा आधार के रूप में विज्ञान के आविष्कारों-इण्टरनेट आदि को माध्यम बनाया जाय।

सुनियोजित ढंग से विकसित राष्ट्रों ने ‘भूमण्डलीकरणवाद’ को जनसमर्थित बना दिया। आलम यह है कि आज ग्लोबलाइजेशन के विरूद्ध एक भी शब्द निकालने वाले को पिछड़ा एवं दकियानूस कह कर समाज के तथाकथित बौद्धिक वर्ग के मुख्य धारा से हासिये पर डाल दिया जाता है। ‘ग्लोबल फैमिली’ एवं ‘ग्लोबल विलेज’ के द्वारा भूमण्डलीकरण ने पूरी दुनिया को एक ही चश्में से देखना आरंभ कर दिया है कि - हम सभी एक ही बाजार में खड़े एक ही बाजार के क्रेता एवं विक्रेता हैं, अतः हम सभी एक हैं। एक की उन्नति से दूसरे की उन्नति जुड़ी हुयी है।

एक दूसरे की, खुशहाली को हम बांट सकते हैं। एक देश की समस्या हम सब की समस्या है। भैगोलिक दूरी का कोई अर्थ नहीं है; इण्टरनेट; वीडियो कान्फ्रेन्सिंग, सेटेलाइट, हवाई जहाज के माध्यम से हम सभी इतने करीब हैं कि एक ही ‘ग्लोबल विलेज’ के निवासी हैं। जैसे एक गाँव में कोई समस्या आने पर दूसरे लोग तुरन्त पहँुज जाते हैं, तथा गाँव की किसी भी समस्या से पूरा गाँव प्रभावित होता है, इसलिए वे सदैव एक परिवार के सदृश्य जुड़े रहते हैं, उसी प्रकार एक देश दूसरे देश से पूर्णतः परिवार के रूप में या ग्लोबल ग्राम के रूप में जुड़ गया है।

परन्तु भूमण्डलीकरण को चाहे जितना महिमामंडित किया जाय एवं इसे वैश्विक उन्नति के लिए अपरिहार्य सिद्ध किया जाय; किन्तु यथार्थ इससे भिन्न है। भूमण्डलीकरण का लाभ एक पक्षीय है और यह विकसित राष्ट्रों की ओर ही है। वस्तुस्थिति यह है कि भूमण्डलीकरण के नाम पर पिछले करीब डेढ़ दशक से विश्व में काफी उथल-पुथल मची है। इसे एक नये तरह के उपनिवेशवाद के रूप में विकासशील देशों के सामने भयावह संकट के रूप में देखा जा रहा है।1 भूमण्डलीकरण ने पूरे विश्व को एक छोटे दायरे में समेट दिया है, और विकसित देश अपने लिए विकासशील देशों में न केवल बाजार खोज रहे हैं, बल्कि अपने बेकार हो चुके या फालतू सामान को खपाने के लिए ‘भूमण्डलीकरण’ के नाम पर उन्हें इस्तेमाल करने पर आमादा हैं।

प्रख्यात अर्थशास्त्री कमलनयन काबरा ने अपनी पुस्तक ‘भूमण्डलीकरण के भंवर में भारत’ में 15 वर्षों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। काबरा ने भूमण्डलीकरण के नाम पर वैश्विक स्तर पर किये जा रहे क्रमिक शोषण-चक्र के रहस्यों का उद्घाटन किया है। काबरा ने अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है कि, ‘‘भूमण्डलीकरण की स्थिति एवं प्रक्रिया दोनों असमानतापूर्ण है। परन्तु कटु यथार्थ से समझौता करने, उसे सिर नवा कर स्वीकार करने में ही भलाई समझने वाले अतियथार्थवादी ‘यथार्थ’ समझने में कोई विरोधाभास नहीं देख पाते हैं। वैसे भी भूमण्डलीकरण इतना प्रचलित शब्द हो गया है कि उसके अनेक अर्थों, फलितार्थों और प्रक्रियाओं के बारे में अब कोई सवाल उठाना अनेक लोगों को खास कर सशक्त और शासक तबकों को निरर्थक लगने लगा है।2

काबरा ने इस सच्चाई को उजागर किया है कि ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ के 191 देशों में से यह भूमण्डलीकरण कोई दो-ढाई दर्जन देशों को छोड़कर सबको निर्धन से निर्धनतम बनाता जा रहा है।’’3

आर्थिक उदारीकरण की नीति के बाद भारत में संगठित क्षेत्रों में रोजगार में निरन्तर गिराबट आ रही है, किसान उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं। किसानों को ट्रैक्टर खरीदने के लिए बैक आसन कर्ज नहीं देते, लेकिन वही बैंक अरबों रूपये का कर्ज आसान ब्याज दरों पर देने के बाद उसे वसूल नहीं कर पाते, असमानता की इससे भौड़ी तस्वीर और क्या हो सकती है।

भूमण्डलीकरण की नीतियों का खामियाजा आखिर आम आदमी को ही भोगना पड़ता है। क्या बेरोजगारी, मँहगाई और असमानता को घटाने और मिटाने के प्रयास के बिना वैश्विक विकास संभाव है, तथा भूमण्डलीकरण का वास्तविक उद्देश्य पूरा हो सकता है। वैश्वीकरण के नाम पर उपनिवेशीकरण का छद्म प्रयास विश्व को एकता के सूत्र में कैसे बाँध सकता है?

स्पष्ट है कि भूमण्डलीकरण, मात्र भैतिक विकास के संदर्भ में वैश्विक एकीकरण को स्थापित करने की परिकल्पना है। विज्ञान के प्रगति के स्तम्भों पर प्रतिष्ठित भूमण्डलीकरण की अवधारणा ने सम्पूर्ण प्रगति को आर्थिक - प्रगति के सीमित दायरे में बाँधकर उत्पादनोन्मुख बनाकर आधुनिक विश्व समाज के वास्तविक उद्देश्यों को भुला दिया है। वस्तुतः किसी भी प्रगति के पीछे निहित प्रेरक शक्ति मानव कल्याण या लोकसंग्रह की भावना होनी चाहिए। जिस विज्ञान के चमत्कारिक आविष्कारों के आधार पर हम वैश्विक एकीकरण की बात करते हैं, वही विज्ञान विनाश की ओर उन्मुख है और ऐसे-ऐसे रासायनिक, जैविक एवं आणविक हथियार बना रहा है कि प्राणिमात्र के अस्तित्व हेतु प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है। उक्त परिप्रेक्ष्य में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि- ‘‘विज्ञान ने सारे जगत को सिकोड़कर एक पड़ोस का रूप दे दिया है; परन्तु मनुष्य ने ऐसी सभ्यता का निर्माण किया है कि पड़ोसी भी अजनबी बन गये हैं।’’4
वस्तुतः शब्दिक दृष्टि से भूमण्लीकरण एक आदर्शात्मक स्वरूप को प्रस्तुत करता है। प्रथम दृष्टतया ऐसा लगता है कि ‘ग्लोबल फैमिली’ - ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सदृश्य है; किन्तु तात्विक विवेचन के अनन्तर ज्ञात होता है कि ‘ग्लोबल फैमिली’ के नाम पर विकसित राष्ट्र इस कुटिल वाक्य को चरितार्थ कर रहे हैं कि - ‘‘तेरा सो मेरा, और मेरा तो मेरा है ही।’’ अतः भूमण्डलीकरण की अवधारणा अपने आप में बुरी नहीं है, यह तो व्यापक उद्देश्य को लिए हुए है; किन्तु इस धारणा के व्यावहारिक प्रचलन में दोष है, जिसके कारण इसमें अनेक कमियां आ गयी हैं। इन कमियों का परिहार करके इसे लोकसंग्रह के अनुकूल बनाया जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि ‘लोकसंग्रह’ में भी लोक के एकीकरण को परिकल्पित किया गया है; अर्थात् जगत् का एकता रूपी संघटना;5 किन्तु लोकसंग्रह के एकीकरण में भौतिक संसाधनों के उपभोग हेतु एकीकरण नहीं स्वीकार किया गया है; अपितु सम्पूर्ण लोक के सर्वतोमुखी उन्नति एवं सुस्थिति को स्वीकार किया गया है। सम्पूर्ण लोक की व्यवस्था बनी रहे इसलिए सम्पूर्ण लोक के मनुष्यों के लिए एक ही आचरण के नियम एवं आदर्श प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें विकसित एवं विकासशील के आधार पर भेदकारी दृष्टि नहीं है, सभी मनुष्य चाहे भारत के हों या अमेरिका के उत्तरी ध्रुव के हों या दक्षिणी ध्रुव के (आर्कटिक हों या अन्टार्कटिक) जिसको जो कत्र्तव्य दिये गये हैं, उनका वे निष्काम भाव से फलास से रहित होकर अपने कर्माें को करते चले, इसी से सम्पूर्ण विश्व का उत्कर्ष होगा तथा सभी का जो इस रीति से आचरण करते हैं; आत्मोद्धार भी हो जायेगा - ‘स्वेस्वे कर्मझयभिरतः संसिद्धिं लभते नरः’।6 अतः लोकसंग्रह भी एक प्रकार का ग्लोबलाइजेशन ही है; किन्तु इस ग्लोबलाइजेशन की प्रकृति आत्मिक एवं आध्यात्मिक है। लोकसंग्रह में भी ग्लोबलाइजेशन की भाँति वैश्विक एकीकरण को स्वीकार किया जाता है; किन्तु लोकसंग्रह का आधार इसकी तुलना में अधिक व्यापक एवं गहन है। जिस प्रकार ‘ग्लोबलाइजेशन’ में सम्पूर्ण विश्व को भैतिक आधार पर एक गाँव के रूप में कल्पित करते हैं, उसी प्रकार ‘लोकसंग्रह’ में उससे आगे एवं व्यापकतम स्वरूप में आध्यात्मिक आधार पर सम्पूर्ण लोक के एकीकरण को अर्थात् आत्मिक एकता के आधार पर जड़-चेतन, भूतो-देवलोक-पितृलोक, सबके कल्याण एवं सुस्थिति हेतु सबको एक माना जाता है।

वस्तुतः ‘ग्लोबलाइजेशन’ विश्व के भौतिक एकता की धारणा है तो ‘लोकसंग्रह’ आध्यात्मिक एकता का नाम है। आधुनिक शब्दों में कहें तो लोकसंग्रह-आत्मिक या आध्यात्मिक ग्लोबलाइजेशन है। जिसमें सम्पूर्ण लोक का एक साथ हित चिंतन किया जाता है; किन्तु इस एकता का आधार गीता की आत्मौपम्य दृष्टि है। अतः भैतिक विकास के साथ आत्मिक विकास को व्यवहार में लाये बिना सच्चे भूमण्डलीकरण की बात सोचना भी व्यर्थ है। असली भूमण्डलीकरण तो समता, भ्रातृत्व, स्वतंत्रता, सौहार्द, त्याग आदि मूल्यों में निहित है। जो राष्ट्र अपनी सुविधाओं को अपने बहुसंख्यक पीडि़तों के हित में त्याग नहीं कर सकता, अपने भैतिक संसाधनों का उपयोग गरीब राष्ट्रों के विकास में नहीं लगाता, वह छद्म भूमण्डलीकरणवादी वास्तव में घोर स्वार्थी है। जय प्रकाश नारायण ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि- ‘‘औद्योगिक एवं आर्थिक दृष्टि से उन्नत राष्ट्रों को इस कत्र्तव्य का बोध कराया जाना चाहिए कि वे अपेक्षाकृत पिछड़े राष्ट्रों की सहायता करें। जागतिक विकास-समुच्चय द्वारा पिछड़े देशों का स्तर उठाने में उन्हें सहयोग की भावना रखनी चाहिए।’’7 अस्तु, भूमण्डलीकरण की नींव त्याग, बलिदान, निःस्वार्थ सेवाभाव आदि सद्गुणों से बल प्राप्त करती है। इसके अभाव में तथाकथित भूमण्डलीकरणवादियों का झुण्ड (समूह) भूमण्डलीकरण की झूठी व्याख्या करके अपनी इसी व्याख्या के अनुरूप मिथ्याचार में लग जाता है; और इस दृष्टि से यह भूमण्डलीकरण का मार्ग न होकर स्वार्थवाद एवं उपनिवेशवाद का मार्ग बन जाता है।

अतः आवश्यकता है भूमण्डलीकरण के आदर्श को भौतिकता एवं भौतिक विकास के संकीर्ण परिवेश से निकालकर उसे सर्वतोकल्याणोन्मुख बनाने की तथा उसके आध्यात्मीकरण करने की; और यह कार्य ‘लोकसंग्रह’ के आदर्श के परिप्रेक्ष्य में भूमण्डलीकरण की व्याख्यायित करके किया जा सकता है। ‘लोकसंग्रह’ के परिप्रक्ष्य में भूमण्डलीकरण को परिभाषित करने से भूमण्डलीकरण के सभी दोषों का स्वतः परिहार हो जायेगा; क्योंकि लोकसंग्रह द्वारा विकसित राष्ट्रों को अपरिग्रह, दान, यज्ञार्थ कर्म, सर्वभूतहित, आत्मौपम्य, स्वधर्म एवं लोकरक्षा के व्यापक आदर्शों का ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। भूमण्डलीकरण के नाम पर विकसति राष्ट्रों द्वारा बाजारवाद को बढ़ाकर जो विकासशाील राष्ट्रों का शोषण किया जा रहा है, वह अज्ञानता के कारण ही है। यदि उन्हें यह ज्ञात करा दिया जाय कि सम्पूर्ण प्राणियों में तात्विक एकता है तो फिर किसका शोषण, किससे घृणा और किस के लिए संग्रह। जैसे - ईशावास्योपनिषद् उद्घोष करता है कि-
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानु पश्यति।8
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।।
एवं यस्मिन सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः।।9

अस्तु, आवश्यकता है एक बार पुनः श्रीकृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसामसीह, विवेकानन्द आदि की जो सम्पूर्ण विश्व को लोकसंग्रह का पाठ पढ़ाकर उन्हें सद्मार्ग पर ला सकें, अन्यथा सम्पूर्ण मानवता भौतिकता के चकाचैंध से अन्ध कुएं में गिरती जा रही है जिससे निकलने का कोई रास्ता फिलहाल उसके पास नहीं है। डाॅ0 सम्पूर्णनन्द ने अपनी पुस्तक में मार्मिक उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है कि,- ‘‘आज हम विश्व संस्कृति और विश्वसभ्यता की ओर बढ़ रहे हैं। इसलिए ऐसे सभी महापुरूषों का ऋण स्वीकार करना चाहिए। इस ऋण का परिशोध इतना ही है कि जो दीपक उन लोगों ने जलाया था, वह बुझने न पाये। उन्होंने मनुष्य को पशुओं से ऊपर उठाया ऐसा न हो कि हम उसे फिर पशुओं में गिरा दें। हमारा कत्र्तव्य है कि मनुष्य में भ्रातृत्व, ऐक्य, संस्कृति एवं सभ्यता का विस्तार करें।’’10

संदर्भ ग्रन्थ
1. योजना मासिक पत्रिका, मार्च 2006
प्रकाशकन विभाग सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, पृष्ठ 75
2. उपरोक्त उदृधृत पृष्ठ 75
3. उपरोक्त उदृधृत पृष्ठ 76
4. जय प्रकाश नारायण- ‘समाजवाद, सर्वोदय एवं लोकतंत्र’
अनु0 सच्चिदानंद, बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, 1973 पृष्ठ 183
5. डाॅ0 एस0 राधाकृष्णन, भारतीय दर्शन, हिन्दी संस्करण, भाग-1
राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरी गेट, दिल्ली, 1995, पृष्ठ 464
6. भगतद्गीता अध्याय-18, श्लोक-45, गीताप्रेस, गोरखपुर
7. जयप्रकाशनारायण- समाजवाद सर्वोदय एवं लोकतंत्र उपरोक्त ग्रन्थ पृष्ठ 132
8. ईशावास्योपनिषद्, मंत्र सं0 6, गीताप्रेस, गोरखपुर,
9. ईशावास्योपनिषद्, मंत्र सं0 7, गीताप्रेस, गोरखपुर,
10. डाॅ0 सम्पूर्णनन्द - चिद्विलास, ज्ञानमंडल लिमिटेड वाराणसी,
तृतीय संस्करण सं0 2016 पृष्ठ 229

‘मृच्छकटिकम्’ की सार्वभैमिकता


प्रमा मिश्रा
कनिष्ठ शोध अध्येता
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
संस्कृत विभाग



मृच्छकटिककार शूद्रक एक सफल नाटककार होने के साथ ही कुशल कवि भी हैं। उन्होंने प्रयत्न किया है कि सभी नाटकीय गुण मृच्छकटिक में समाविष्ट हों, साथ ही कवित्व की भी सुन्दर झाँकी मिले। उनकी प्रसादगुणयुक्त पद-रचना नाटक में सजीवता और शक्तिमत्ता ला देती है। जिससे अभिभूत होकर कपिलदेव द्विवेदी आचार्य कहते हैं-

काव्यसौन्दर्यसश्रीको नाट्योऽप्यप्रतिमप्रभः।
शूद्रको भासते नित्यं सन्मृच्छकटिकाकरः।।1

‘मृच्छकटिकम्’ भासरचित नाटक ‘चारूदत्तं’ पर आधारित है। किन्तु मृच्छकटिक के केवल एक भाग (चारूदत्त और वसन्तसेना का प्रेम) पर ही यह प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, जबकि इसके दूसरे भाग में वर्णित राजनीतिक क्रिया-कलाप कवि की आपनी सम्पत्ति है। मृच्छकटिक में सात प्रकार की प्राकृत का प्रयोग होने से और कालिदास द्वारा उल्लिखित नाटककारों में शूद्रक का नाम न होने से यह स्पष्ट होता है कि मृच्छकटिक की रचना कालिदास और भास के बहुत काल पश्चात् हुई।

‘मृच्छकटिकम्’ में जिन परिस्थितियों का चित्रण हुआ है, भारत में वे स्थितियां सम्भवतः तब उत्पन्न हुईं थीं, जब उज्जयिनी में गुप्त साम्राज्य का अस्तित्व समाप्तप्राय था और हूणों के आक्रमण से तथा छोटे-छोटे राज्यों में पारस्परिक द्वेष भावना बढ़ जाने के कारण देश में आतंक, अव्यवस्था, अराजकता एवं स्वच्छन्दता जैसी राष्ट्र विरोधी प्रवृत्तियों की तेजी से वृद्धि हो रही थी।2 मृच्छकटिक का यह वर्णन दण्डी के ‘दशकुमारचरितम्’ से मेल खाता हुआ लगता है।

उपर्युक्त वण्र्य विषयों का प्रस्तुतीकरण मृच्छकटिक में इस प्रकार हुआ है कि, संस्कृत नाटकों में केवल मृच्छकटिक को ही सार्वभौमिक कहलाने के श्रेय मिल सका। विश्व में सर्वत्र इसके पात्र, तत्सम परिस्थितियां और समस्याएं तथा कार्य-व्यापार सार्वकालिक रूप से व्याप्त हैं। इसमें किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह का पूर्णतया अभाव है। दैनन्दिन व्यवहार में घटित होने वाली घटनाओं का वास्तविक चित्रण है, अतएव यह नाटक सार्वभौम एवं लोकप्रिय हुआ है।

मृच्छकटिक की सार्वभौमिकता का सर्वप्रमुख कारण यह है कि, प्रायः संस्कृत नाटककार उच्च श्रेणी के पात्रों के चित्रण में अपनी भारती को चरितार्थ मानते रहे हैं, परन्तु शूद्रक ने इस परम्परा का परित्याग कर एक नवीन पंथ का ही आविष्कार किया है। उनके पात्र सामान्य जन की भाँति सड़कों और गलियों में चलने-फिरने वाले मनुष्य हैं, जिनके कार्य-व्यापार को समझने के लिए कल्पना की उड़ान नहीं भरनी पड़ती है। जैसा कि डाॅ0 बलदेव उपाध्याय कहते हैं- ‘‘मृच्छकटिक की शास्त्रीय संज्ञा ‘संकीर्ण प्रकरण’ की है क्योंकि इसमें लुच्चे-लबारों, चोर-जुआरों, वेश्या-विटों का आकर्षक वायुमण्डल है, जहाँ धौल-धुपाड़ों की चैकड़ी सदा अपना रंग दिखाया करती है।’’3

‘मृच्छकटिकम्’ में मद, मूर्खता तथा अभिमान की प्रतिमा, धृष्टता का आगार, अस्तव्यस्तभाषी, राजा पालक का साला शकार मानवीय बुद्धि में कितना कुशाग्र है, यह तो उसके इस कथन से ही स्पष्ट हो जाता है-

चाणक्येन यथा सीता मारिता भारते युगे।
एवं त्वां मोटयिष्यामि जटायुरिव द्रौपदीम्।।4

तब भी जब न्यायाधीश उसका व्यवहार (मुकदमा) सुनना अस्वीकार कर देते हैं तो वह अपने बहनोई राजा पालक से कहकर उसे निकलवा देने की धमकी देता है। वह वसन्तसेना से जबरन प्रणय-सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है और असफल होने पर उसका गला घोंट देता है, जिसका आरोप विट, चेट तथा अन्ततः चारूदत्त पर लगा देता है। वस्तुतः ऐसे हठी और कुकर्मी व्यक्ति सदैव विद्यमान रहेते हैं जो घृणित से घृणित कार्य करने में भी पीछे नहीं हटते हैंै।

शर्विलक जैसा नवयुवक अपनी जीविका चलाने के लिए नौकरी करने के स्थान पर चैर्यकर्म को श्रेष्ठ मानता है- ‘स्वाधीना वचनीयतापि हि वरं बद्धो न सेवांजलिः।’5 लगभग ऐसी ही भावना होती है अनुचित कृत्य करने वाले उच्च-कुलीन पथभ्रष्ट युवकों की।

द्यूतक्रीडा समाज के लिए सदैव अभिशाप रही है, जिसमें व्यक्ति एक बार फंसता है तो फंसता ही चला जाता है। जैसे संवाहक ‘मालिश करने की कला’ छोड़कर जुआ खेलने में आसक्त हो जाता है। उसके पास कौड़ी मात्र नहीं रहती और वह जुए में दस स्वर्णमुद्राएं हार जाता है और द्यूतगृह से भाग निकलता है, द्यूताध्यक्ष उसका पीछा करता है, मारता है और अपने प्राणों की रक्षा के लिए उसे एक वेश्या का कृपापात्र बनना पड़ता है।

उपर्युक्त मध्यम और अधम पात्रों के चित्रण के साथ ही मृच्छकटिक में इस परम्परा का परित्याग किया गया है कि, केवल राजा, ब्राह्मण या उच्चकुल से सम्बद्ध व्यक्ति ही नायक-नायिका हो सकते हैं। इसका नायक चारूदत्त निर्धन है और नायिका वसन्तसेना गणिका है।6 अर्थात् मनुष्य का महत्त्व उसके कर्म के आधार पर आँका गया है, न कि जन्म के आधार पर। चारूदत्त स्वयं ब्राह्मणकुलोत्पन्न है, परन्तु उसका पैतृक व्यवसाय वणिक् का है। शर्विलक चतुर्वेदी ब्राह्मण का पुत्र है किन्तु चैर्यशास्त्र में निष्णात हो उसी को अपनी आजीविका बना लेता है। वसन्तसेना गणिका है किन्तु उसे उसके सुसंस्कृत आचरण के कारण महनीय माना गया है।

मृच्छकटिक एक प्रगतिवादी एवं समाजवादी नाटक है। इसमें शोषित, दलित एवं उपेक्षित वर्ग का सहानुभूतिपूर्ण चित्रण है। उन्हें राजा तथा अन्य पदों पर प्रतिष्ठित दिखाया गया है। गोपबालक आर्यक राजा पालक को मारकर राजा बनता है। शूद्र वीरक (नायिक) और चन्दनक (चर्मकार) सेनापति है। इसके साथ ही इसमें गणिका का कुलवधू बनना, गणिकाओं का ब्राह्मणों से विवाह इत्यादि भी मान्य है। अतएव समाजवादी एवं साम्यवादी विचारों में भी सफल होकर इस नाटक ने अपनी सार्वभौमिकता की पुष्टि की है।

यह नाटक इस दृष्टि से भी सार्वभौमिक है कि इसमें पात्रों की अति आदर्शवादिता के स्थान पर प्रत्येक पात्र के गुण और दोष का नीर-क्षीर-विवेचन किया गया है। चारूदत्त विवाहिता पत्नी के होते हुए भी वसन्तसेना पर आसक्त है, वह न्यायालय में असत्य भी बोलता है। वसन्तसेना की वेश्यावृत्ति पर घोर कटाक्ष के साथ ही उसकी उदारता की प्रशंसा भी की गई है। शर्विलक चैर्यकर्म करता है किन्तु जब उसे पता चलता है कि उसका मित्र संकट में है तो वह तुरन्त उसकी सहायता करने के लिए जाता है।7

‘मृच्छकटिकम्’ में इस सार्वकालिक सत्य का भी निरूपण किया गया है कि- ‘सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते’। चारूदत्त जैसे आचारवान् और धीर पुरूष पर शकार जैसा कुत्सित व्यक्ति भी अभियोग लगाने में इसलिए सफल हो जाता है क्योंकि चारूदत्त निर्धन है। संवाहक, धन का अभाव होने के कारण प्राणों की रक्षा के लिए भी जगह-जगह भटकता है। चारूदत्त का पुत्र रोहसेन उन्मुक्त होकर बालसुलभ क्रीडा नहीं कर पाता है क्योंकि उसके पास खेलने के लिए सोने की गाड़ी नहीं है।

आख्यान तथा वातावरण की इस यथार्थवादिता और नैसर्गिकता के कारण ही मृच्छकटिक पाश्चात्य आलोचकों की विपुल प्रशंसा का भाजन बन सका है। ‘मृच्छकटिकम्’ के अमेरिकन भाषान्तरकार डा0 राइडर ने ठीक ही कहा है कि, ‘‘इस नाटक के पात्र सार्वभौम (काॅस्मोपाॅलिटन) हैं, अर्थात् इस विश्व के किसी भी देश या प्रान्त में उनके समान पात्र आज भी चलते-फिरते नजर आते हैं। इसके सार्वभौम आकर्षण का यही रहस्य है।’’8 इसी कारण पाश्चात्य देशों में भी इस नाटक का मंचन सदा सफल हो पाया है। इसमें पौरस्त्य चाकचिक्य की झाँकी का अभाव कभी भी इन्हें दूरदेशस्थ पात्रों का आभास भी नहीं प्रदान करता। डा0 कीथ भले ही इन्हें पूरे ‘भारतीय’ होने की राय दें, परन्तु पात्रों के चरित्र में कुछ ऐसा जादू है कि वह दर्शकों के सिर चढ़कर बोलने लगता है। आज भी माथुरक जैसे सभिक् तथा उसके सहयोगियों का दर्शन कलकत्ता तथा बम्बई की गलियों में ही नहीं होता प्रत्युत लण्डन के ‘ईस्ट एण्ड’ में भी वे घूमते-घामते, धौल-धप्पड़ जमाते नजर आते हैं, जहाँ जुआरियों का अड्डा (गैम्बलिंग डेन) आज भी पुलिस की नजर बचाकर दिन-दहाड़े चला करता है।

इस प्रकार डाॅ0 भोलाशंकर व्यास के शब्दों में, यह स्पष्ट हो जाता है कि, ‘‘मृच्छकटिक अपने ढंग का अकेला नाटक है, जिसमें एक साथ प्रणयकथात्मक प्रकरण, धूर्तसंकुल भाण तथा राजनीतिक नाटक का वातावरण दिखाई देता है। यही अकेला ऐसा नाटक है जो उस काल के मध्यम वर्ग की सामाजिक स्थिति को पूर्णतः प्रतिबिम्बित करता है।’’9 वर्तमान वातावरण में भी चारों ओर दृष्टिपात् करने पर हमें मृच्छकटिक सदृश पात्र और परिस्थितियां दृष्टिगोचर होती हैं, जिससे अन्ततः ‘मृच्छकटिकम्’ की सार्वभौमिकता सिद्ध होती है।

सन्दर्भ ग्रन्थ

1. संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, डाॅ0 कपिलदेव द्विवेदी, रामनारायण लाल विजय कुमार, इलाहाबाद, 2004 पृ0 सं0- 326
2. संस्कृत नाटकालोचन, चुन्नीलाल शुक्ल, साहित्य भण्डार, मेरठ, 1972, पृ0 सं0- 184
3. संस्कृत साहित्य का इतिहास, डा0ॅ बलदेव उपाध्याय, शारदा निकेतन, वाराणसी, 1978, पृ0 सं0 - 522
4. मृच्छकटिकम्, तारिणीश झा, रामनारायणलाल बेनी प्रसाद, इलाहाबाद 1975, पृ0 सं0 - 591, श्लोक संख्या-8/35
5. -----------वही---------पृ0 सं0 - 227, श्लोक संख्या- 3/11
6. -----------वही---------पृ0 सं0 -  13, श्लोक संख्या- 1/6
7. -----------वही---------पृ0 सं0 -  60, श्लोक संख्या- 1/23
8. संस्कृत साहित्य का इतिहास, बलदेव उपाध्याय, पृ0 सं0 -523
9. संस्कृत कथा दर्पण, डाॅ0 भालोशंकर व्यास, पृ0 सं0- 272 (संस्कृत नाटकालोचन, पृ0 सं0 - 195 से उद्धृत)



भारतीय नाट्य-परम्परा और भास के नाटक

प्रतिभा मिश्रा
शोच्छात्रा (संस्कृत)
वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय,
जौनपुर



नाटक ऐसी विधा है जिसमें गायन, वादन, नर्तन, अभिनय आदि तत्त्वों का एक ही स्थल पर समावेश होता है। दृश्य होने के कारण वह लोकानुरंजक भी होता है। अतः नाटक को कला का उत्कृष्टतम् रूप माना जाता है। 

उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर महाकवि भास संस्कृत के आद्यनाटककार माने जाते हैं। किन्तु भारत में गायन, वादन, नर्तन आदि की परम्परा बहुत पुरानी है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा स्थलों की खुदाई से नर्तकी की मूर्ति मिली है, मिट्टी के ठप्पों पर वीणा के चित्र मिले हैं। इससे स्पष्ट है कि भारत में ये कलाएँ हड़प्पा सभ्यता के बहुत पहले समुन्नत हो चुकी थी।1 चूँकि प्राचीन भारत में सभी प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन श्रुति-परम्परा के माध्यम से होता था अतः लिखित प्रमाण का होना आवश्यक नहीं है। नाट्य परम्परा के सम्बन्ध में उपलब्ध सर्वप्राचीन ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ के विषय में भी यह कहना गलत नहीं होगा कि नाट्यशास्त्र की शिक्षा भी श्रुति-परम्परा से आगे बढ़ी और बाद में इसका लिखित रूप प्रकाशित हुआ। जब हम भारतीय नाट्यकला अथवा नाटककार के सम्बन्ध में विचार करते हैं तब स्वाभाविक रूप से वह नाट्यशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में ही होता है, क्योंकि मुनि भरत प्रणीत यह महान् ग्रन्थ भारतीय नाट्यपरम्परा के प्रत्येक पक्ष को परिभाषित करता है। इस अकेले ग्रन्थ में नाट्यविषयक विवरण जितनी समग्रता से प्रस्तुत किया गया है उतना अन्यत्र नहीं मिलता। यही कारण है कि इस ग्रन्थ ने भारत की रंगमंचीय-कला को शताब्दियों से प्रभावित किया हुआ है। 

संस्कृत के उपलब्ध नाट्यग्रन्थों में भास के नाटकों के विषय में विशेष रूप से यह कहा जाता है कि वे अभिनेय हैं अर्थात् वे रंगमंच पर सफलतापूर्वक प्रस्तुतीकरण के योग्य हैं। नाट्यशास्त्र में अभिनय के तीन प्रमुख तत्त्व बताये गये हैं- नृत्त, नृत्य तथा नाट्य। प्रदर्शन के समय पात्र नृत्त द्वारा दर्शकों के मन में आह्लाद उत्पन्न करता है। नृत्य में गीत सम्मिलित करके चित्तानुरंजन करता है। नाट्य का प्रयोग वह रस की अभिव्यक्ति के लिये करता है जो मुख्यतः मुखज अभिनय के द्वारा की जाती है। भास के नाटकों में इन तीनों तत्त्वों का सम्यक् रीति से समावेश हुआ है। विद्याधर एवं विद्याधरी के द्वारा पृथ्वी पर अवतरण एवं आकाशगमन के अवसर पर ‘विद्युद्भ्रान्ता’ एवं ‘आकाशिकी चारियों’ के प्रदर्शन में नृत्त का सुन्दर प्रयोग है।2 दामोदर द्वारा कालिय नाग के ऊपर ‘हल्लीसक नृत्त’ का विधान है साथ ही गोपकुमारों एवं गोपिकाओं द्वारा प्रस्तुत ‘हल्लीसक नृत्य’ में गीत भी शामिल है।3 इसके अतिरिक्त अन्य नाटकों यथा ‘स्वप्नवासवदत्तम्’ में भी प्रयोग के समय नृत्त एवं नृत्य की योजना की जा सकती है। इसकी अभिव्यक्ति नाट्य अर्थात् अभिनय के द्वारा होती है। नाट्यशास्त्रकार ने अभिनय के चार भेद बताये हैं- आंगिक, वाचिक, सात्त्विक और आहार्य। यद्यपि रसनिष्पत्ति मुख्यतः मुखज अभिनय के माध्यम से होती है किन्तु आंगिक क्रियाओं, वाचिक चेष्टाओं, मनोगत भावों के प्रदर्शन और उचित नेपथ्य संविधानों से युक्त होकर ही नाट्य पूर्णता को प्राप्त करता है और प्रयोग सफल होता है।4 भास के नाटकों में इन चारों प्रकार के अभिनय का सुखद समावेश है। उदाहरण के लिये- ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायण’ के निम्नलिखित पद्य में आंगिक अभिनय का उत्कृष्ट समावेश है। 

‘सुभद्रामिव गाण्डीवी नागः पद्दमलतामिव। 
यदि तां न हरेद् राजा नास्मि यौगन्धरायणः।।5 
एवं वाचिक अभिनय का उदाहरण निम्नलिखित है--
यदि तां चैव तं चैव तां चैवाथत लोचनाम्। 
नाहरामि नृपं चैव नास्मि यौन्धरायणः।।6
इसी प्रकार ‘दूतघटोत्कचम्’ के निम्नलिखित उद्धरण में सात्त्विक अभिनय का प्रकाशन हुआ है--
धृतराष्ट्रः- एहयेहि पुत्र!
न ते प्रियं दुःखमिदं ममापि 
यद् भ्रातृनाशाद् व्यथितस्तवात्मा। 
इत्थंच ते नानुगतोऽयमर्थो
मत्पुत्रदोषात् कृपणीकृतोऽस्मि।।7
अभिनय के आंगिक, वाचिक और सात्त्विक प्रकार पात्र की क्रियाओं से सम्बन्धित हैं जबकि आहार्य अभिनय का सम्बन्ध रंगमंच एवं पात्रों की साजसज्जा से हैं। नाट्यशास्त्रकार ने भी आहार्य अभिनय को नेपथ्य विधान कहा है। इसके अन्तर्गत भवन, सभामण्डप, मुकुट, अलंकार, मुखौटे आदि की कृत्रिम रचना की जाती है। भास के नाटकों में भी सभामण्डप, शिविर, पात्रानुसार मुकुट, आसन, अलंकार मुखौटों आदि का प्रयोग किया गया है और जहाँ पदार्थों (प्रकृति, सूर्य, ऋतु आदि तथा रथ आदि) की स्थापना सम्भव नहीं है वहाँ चित्राभिनय का आश्रय लिया गया है। इस प्रकार भास के नाटक भारतीय नाट्य-परम्परा के अनुरूप ही व्यवस्थित हैं। नाट्यशास्त्र के अनुरूप ही उनमें भाव, हाव और हेला का विकास दिखायी पड़ता है। किन्तु कहीं-कहीं वे परम्परा का अतिक्रमण भी करते हैं- जैसे ‘अभिषेक’ एवं ‘उरूभंग’ में मंच पर मृत्यु दिखलाना शास्त्रीय परम्परा के अनुकूल नहीं है। पुनश्च उन्होंने नाटकों का आरम्भ सूत्रधार से करवाया है जबकि शास्त्र के अनुसार यह कार्य स्थापक करता है।8 किन्तु इससे भास का महत्त्व कम नहीं हो जाता। वस्तुतः नाटक का चरम लक्ष्य रस की स्थापना कर प्रेक्षक को ब्रह्मानन्द की प्राप्ति कराना है। भास के नाटक सरल भाषा, छोटे संवादों एवं चित्राधिक्य से रहित होने के कारण प्रेक्षकों के मर्म को छू लेने में सर्वथा समर्थ हैं। उनका हास्यबोध और उचित स्थान पर उसकी अभिव्यंजना प्रेक्षक को ऊबने नहीं देती और नाटकों को सही मायने मे सर्वरंजक बना देती हैं उदाहरण के लिये-

मन्ये सुरैरित्रदिवरक्षण जातशंके-
रत्रासान्निमीलितमुखोऽत्रभवान् हि सृष्टः।।9

भारतीय चिन्तन आशावादी है। अतएव यहाँ काव्य, नाटक कथाओं आदि का अन्त सुखात्मक रखा जाता है। भास भी इससे अछूते नहीं हैं। उनके नाटक भी सुखान्त होने के साथ ही आशावाद के पोषक हैं। 

इस प्रकार भास के नाटक भारतीय नाट्््््््््य - परम्परा की एक मजबूत कड़ी तो हैं ही अपनी विशेषताओं के कारण वे परवर्ती नाटककारों के लिये आदर्श भी रहे हैं। ‘कालिदास’ हो अथवा ‘भवभूति’ सभी पर भास के नाटकों का प्रभाव परिलक्षित होता है। शूद्रककृत ‘मृच्छकटिकम्’ जहाँ भास के चारूदत्तम् का विस्तृत कलेवर है वहीं हर्ष की ‘रत्नावली’ और ‘प्रियदर्शिका’ भासकृत् ‘स्वप्नवासवदत्ता’ की अनुवर्तिनी हैं। 

वर्तमान समय मे जबकि संस्कृत साहित्य में लोगों की रूचि कम हो रही है, भास के नाटकों को मंच पर पुनर्जीवित कर दर्शकों को जोड़ना एक सराहनीय प्रयास हो सकता है। यह कार्य सिनेमा, टी0वी0 आदि माध्यमों से भी हो सकता है। पुनः भास के नाटक सरल व अभिनेय है। अतएव सुधीजन उनका अध्ययन करके संस्कृत के अन्य नाटकों का भी सरलीकरण कर सकते हैं। संस्कृत-साहित्य में उपलब्ध अन्य कथाओं एवं काव्यग्रन्थों का भी इसी प्रकार नाट्यरूपान्तरण करके तथा उन्हें प्रस्तुति-योग्य बनाकर लोगों तक पहुँचाया जा सकता है। इस प्रकार भास के नाटक संस्कृत वांगमय के पुनर्विकास में भी सहायक हो सकेंगे। 


सन्दर्भ ग्रन्थ

1. भरत और उनका नाट्यशास्त्र, डा0 ब्रजबल्लभ मिश्र, उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, इलाहाबाद (प्रथम संस्करण), पृष्ठ संख्या- 58

2. अविमारकम्, गंगासागर राय, चैखम्भा संस्कृत प्रकाशन, वाराणसी, संवत् 2045, श्लोक सं0- 4/11,12, पृ0 सं0- 107

3. बालचरितम्, गंगासागर राय, चैखम्भा संस्कृत प्रकाशन, वाराणसी, संवत् 2046, पृ0 सं- 61,62,77


4. दशरूपकम्, श्रीनिवास शास्त्री, साहित्य भण्डार, मेरठ, 2000 (ग्यारहवां संस्करण), पृ0 सं0- 183

5. महाकवि भासः एक अध्ययन, डाॅ0 बलदेव उपाध्याय, चैखम्भा विद्यामाला, 1964, प्रतिज्ञायौगन्धरायण, पृ0 सं0- 91

6. ------------वही--------पृ0 सं0 - 103

7. ------------वही-------ः दूतघटोत्कचम्’- श्लोक सं0- 1/36, पृ सं0- 31

8. नाट्यशास्त्र (प्प्प्) , डा0 बाबूलाल शुक्ल शास्त्री, चैखम्भा संस्कृत प्रकाशन, वाराणसी, 1983 (तृतीय सं0), पृष्ठ संख्या- 90,91

9. महाकवि भास: एक अध्ययन, ‘दूतघटोत्कचकम्’- श्लोक संख्या- 1/35 पृ0 संख्या- 30


नई सामाजिक चुनौतियाँ एवं संगीत


डाॅ0 जया मिश्र

अपने उद्भव काल से ही संगीत को प्रकृति का सहयोग मिला; क्योंकि मनोरम प्राकृतिक दृश्यों को देखकर अपनी प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिए मनुष्य ने प्रकृति का ही सहारा लिया। जब व्यक्ति ने अपने भावों को स्वर, लय, आदि के द्वारा व्यक्त किया तभी संगीत का जन्म हुआ। वैसे भी भारतभूमि को प्रकृति ने सदैव समृद्धिशाली बनाया है। यहाँ पर विभिन्न ऋतुएँ, नदियाँ, वन, पर्वत आदि सभी प्राकृतिक रूप से सुख-समृद्धि देने वाले हैं। इसी कारण प्राचीन काल से ही भारतीय जीवन अपने जीवन यापन करने के क्षेत्र में अधिक चिन्तित न रहा। प्रकृति की इस उदारता के कारण यहाँ सुख तथा निश्चिन्ता रही। ऐसी स्थिति में उच्च कलाओं का सृजन, संरक्षण तथा आस्वादन होना स्वाभाविक ही था। इसी परिवेश मे संगीत कला अपने विकास के मार्ग पर अग्रसर होती हुई अपनी उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँची। क्योंकि अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए संघर्षरत समाज कभी किसी कला का आनन्द नहीं उठा सकता। भारत भूमि के लोग इस संर्घष से सुरक्षित रहे और उन्होंने कलाओं का पूरा आनन्द उठाया। जिस प्रकार सामाजिक विकास का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है उसी प्रकार संगीत का क्षेत्र भी अपनी अभिव्यंजना शक्ति के प्रभाव के कारण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना प्रभाव डालता है।

सामाजिक संरचना का कंेन्द्र बिन्दु नई पीढ़ी होती है। प्रारम्भ से ही परिवार या समाज का प्रथम दायित्व बच्चों का समुचित विकास बताया जाता है। किसी भी दीर्घ कालिक सामाजिक परिवर्तन के लिए नई पीढ़ी उत्तरदायी होती है। सूचनाओं के विस्फोट, व्यस्त होती जीवनचर्या पारिवारिक विघटन और विशेषकर मीडिया के प्रभाव से बच्चों का समुचित विकास नहीं हो पा रहा और प्रत्येक समाज का स्वाभाविक विकास बाधित हो रहा है।

आज के दौर में उपभोक्तावाद पूरे समाज पर हावी है और जिसके फलस्वरूप अधिक से अधिक धनोपार्जन एवं भौतिक सुखों की लालसा में वृद्धि हुई है बच्चों के लिए परिवास के पास समय नहीं रह गया। इस स्थिति में बच्चों का ज्यादा समय टेलीविजन के साथ ही बीतता है जिससे उनकी सृजनात्मक क्षमता घटी है। टी0 वी0 के माध्यम से हिंसा और सेक्स से भरे कार्यक्रम सीधे बच्चों तक पहुँचते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के मनोवैज्ञानिकों की एक सर्वे रिपोर्ट से इसकी भयानकता का अनुमान लगाया जा सकता है जिसके अनुसार 16 वर्ष आयु तक पहुँचते-पहुँचते एक किशोर औसतन 40 हजार हत्याएँ टी0 वी0 पर देख चुका होता है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के प्रोे0 सेटरूबल ने अपने विस्तृत अध्ययन में यह अनुमान लगाया है कि यदि बच्चों पर टी0वी0 का विकृत असर न होता तो 90 प्रतिशत बलात्कार या हिंसक अपराध कम होते।

इस सन्दर्भ में विशेषज्ञों का मानना है कि छोटे बच्चे तथ्य और कल्पना में कई बार भेद नहीं कर पाते हैं। विशेषकर तब जब बच्चे अकेले टेलीविजन देखते हैं। कल्पना को तथ्य मानकर बच्चा विकृत मानसिकता में जीने लगता है। टेलीविजन में वल्र्ड रेस्लिंग फेडरेशन की कुश्तियाँ हो या फिर हिंसक कार्यक्रम इन सभी के प्रभावों से बच्चों में दूसरे को चोट पहुँचाकर सुख प्राप्त करने की लालसा बढ़ती है। इस तरह के विकृत सुखों को पाने की लालसा अपराध को जन्म देती है। साथ ही बच्चे अनेक जटिल समस्याओं का निदान हिंसक कार्यवाही ही मान लेते हैं।

बच्चों के सामान्य व्यवहार में भाव का माधुर्य भी बदला है। वे ‘दबोच डालो’, ‘मारो’, ‘सड़े हुए अण्डे’, ‘फन्टूश’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। बच्चे में टेलीविजन पर आने वाले विज्ञापनों के कारण अधिक से अधिक वस्तुओं के संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ी है। और नई विज्ञापन नीति के तहत बच्चों को ही निशाना बनाकर विज्ञापन तैयार किए जा रहे हैं।

चैनलों के कार्टून चरित्रों ने बच्चों की चैकड़ी को खत्म करके अकेला कर दिया है। विशेषज्ञों की सलाह है कि बच्चों को धारावाहिक पात्रों की दुनिया से बाहर निकाल कर स्वरचित गीत संगीत में व्यस्त करें जिसमें बच्चा अपने समूह में गीत संगीत के माध्यम से अपनी सृजनात्मक शक्ति का विकास कर सके।
‘‘आई रेल आई रेल, छुक छुक करती आई रेल’’
या

‘‘नन्हा मुन्ना रही हूँ, देश का सिपाही हूँ,
बोलो मेरे संग जय हिन्द’’

जैसे गीतो को गाती हुई बच्चों की टोली स्वाभाविक विकास के साथ- साथ स्वस्थ समाज के विकास में सहायक होती है इस दृष्टि से शैशवावस्था से ही लोरियों, बालगीतों या खेल गीतों के माध्यम से संगीत से जुड़कर बच्चें एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकते हैं

आज की व्यस्त एवं असुरक्षित भविष्य की चिन्ता ने मनुष्य के स्वाभाविक जीवन को प्रभावित किया है जिसके फलस्वरूप मनुष्य का व्यक्तित्व विघटित हुआ है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आज के समाज में तेजी से मनोविकारों का प्रकोप बढ़ा है, समाज में मनोचिकित्सकों की माँग इसका ज्वलंत प्रमाण है। इसके अनेक कारण रोजगार की असुरक्षा, उपभोक्तावाद, हिंसा, परिवार का विघटन आदि गिनाए जा सकते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दिनोदिन ऐसे विचित्र मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है जो विखण्डित व्यक्तित्व के हैं ऐसे रोगियों के दिमाग व कार्यकलापों के बीच समन्वय खत्म हो जाता है जिससे वे गम्भीर रूप से मतिभ्रम का शिकार भी रहते हैं।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आधुनिक समाज की बड़ी समस्या तनाव है आधुनिक शोधों से पता चलता है कि करीब 75 प्रतिशत रोगों का कारण यही है। यहाँ तक कि हृदय रोग एवं कैंसर जैसे जानलेवा रोग भी तनाव के कारण होते हैं। मनुष्य की इच्छाएँ, महत्वाकांक्षाएँ एवं अपेक्षाएँ अत्यधिक बढ़ी हैं, जिनको पूरा करने में मनुष्य अपने स्वाभाविक जीवन शैली को तनाव रहित होकर जीने में असमर्थ पा रहा है। आज के मनुष्य की बिगड़ती हुई जीवन शैली व आदतों ने अनेक मानसिक रोगों के लिए मार्ग खोल दिया है।

वस्तुतः तेजी से बढ़ता औद्योगिकरण, प्रतियोगिता की भावना एवं आर्थिक चुनौतियों आदि ने मनुष्य को अन्तर द्वन्द्व में जकड़ लिया है व्यक्ति अत्यधिक तनाव या कुण्ठा में जी रहा है। व्यक्ति इससे मुक्ति प्राप्त करने लिए दोस्तों अथवा नजदीकी लोगों से भावनात्मक समर्थन की उम्मीद करता है क्योंकि मानसिक स्वास्थ्य का गहरा सम्बन्ध मन की भावनाओं से है। मानव स्वभाव से ही अपने भावों को अभिव्यक्त करना चाहता है।

स्पष्ट हे संगीत का मन के नियंत्रण से सीधा सम्बन्ध है और स्वस्थ व्यक्तित्व के लिए संगीत अनिवार्य है। इसलिए मानवीय क्षमता के सर्वांगीण विकास में संगीत की सम्भावना बढ़ रही है। समाज के विकास के लिए निर्विवाद रूप से ‘सर्वेसन्तु निरामयाः’ का आदर्श सर्वोच्च रहा है। प्रत्येक समाज स्वस्थ रहने के लिए प्रयासरत रहता है।

इक्कीसवीं सदी में मनुष्य के आरोग्य हेतु एलोपैथिक, होम्योपैथिक एवं आयुर्वेद सहित अनेक पद्धतियाँ इस समय प्रचलन में हैं। किन्तु अब चिकित्सकों ने संगीत को भी एक चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार करना आरम्भ कर दिया है। यह परिवर्तन थोड़ा अलग इस सन्दर्भ में है कि अभी तक संगीत का प्रयोग यदा-कदा सुनने को मिलता था किन्तु एक व्यवस्थित, चिकित्सा पद्धति के रूप में संगीत को स्वीकार किया जाना इसके महत्व को दर्शाता है। चिकित्सक डिप्रेशन, न्यूरोसिस, तनाव, जैसी मानसिक बीमारियों का इलाज संगीत के माध्यम से कर रहे हैं।

नए प्रयोगों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कब्ज, डायबिटीज जैसे रोगों के आलावा कैंसर, हृदय रोग आदि का प्रमुख कारण तनाव है और तनाव का कारगर इलाज संगीत से सम्भव है अतः प्रकारान्तर में संगीत तनाव को खत्म करने के साथ-साथ गम्भीर रोगों के इलाज में भी सहायक होता है।

विगत एक दशक से समाज तेजी से हिंसक हो रहा है साथ ही सामाजिकता का हृास भी देखने को मिल रहा है समाज में मनोरंजन के साधन उत्तरोत्तर ऐसे बनते जा रहे हैं जिनमें समूहिक आनन्द का स्थान एकाकी सुख ले रहा है। इस एकाकीपन के बीच सामूहिक मनोरंजन संतुलन की भूमिका निभा सकता था किन्तु सैटलाइट चैनलों के आधर पर हो रहा मनोरंजन व्यक्ति को और भी एकाकी कर रहा है। टेलीविजन या इन्टरनेट में हर दर्शक अकेला एक निर्जीव मशीन पर आँखे चिपकाए अपने तत्कालीन परिवेश से कटा बैठा रहता है। यह पूरी तरह से एक तरफा व्यापार है जिसमें दर्शकों की अभिव्यक्ति की कोई सम्भावना नहीं बनती।

संगीत शिक्षा व्यक्ति को समाजिक उद्देश्यों के प्रति सचेत करती है जिसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार से सामाजिक जीवन यापन करने की क्षमता एक दूसरे के प्रति सहयोग पारिवारिक आदर्श आदि विकसित होते हैं इस लिए सामाजिकता के बढ़ावे में संगीत की सम्भावना बन जाती है।

वर्तमान परिवेश में उपभोक्तावाद ने सामाजिक विकास को बाधित किया है। उपभोक्तावाद वस्तुओं को शुद्ध व्यावसायिकता के कारण योजनाबद्ध रूप में लोगों पर आरोपित कर रहा है। जिसके फलस्वरूप मनुष्य भौतिक मूल्यों पर ही केन्द्रित हो गया है। अत्यधिक भौतिक मूल्यों पर केन्द्रित होने से मनुष्य की संवेदनशीलता एवं सृजनशीलता नष्ट होती जा रही है। व्यक्ति का जीवन यांत्रिक होता जा रहा है। इसके अलावा सृजनात्मकता के अभाव में व्यक्ति का अस्मिता बोध भी खत्म हो रहा है। इसके प्रभाव से लोगों का आपसी विभाजन गहरा हो रहा है। सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण में प्रारम्भ से ही संगीत का सर्वाधिक योगदान रहा है। इसलिए नए सामाजिक परिवर्तन में संगीत की भूमिका अपरिहार्य हो जाती है। सांस्कृतिक विकास में संगीत को स्वभाविक भूमिका सदैव महत्त्वपूर्ण रही है।

भारतीय चिन्तन में समाज की व्यापक परिकल्पना में मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं एवं वनस्पतियों को भी सम्मिलित किया जाता है। मानव और प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं वस्तुतः मनुष्य, पशु, पक्षी एवं वनस्पतियाँ एक दूसरे पर निर्भर एवं पूरक है इसलिए हमारे चारों तरफ जीवित एवं अजीवित वस्तुओं से मिलकर पर्यावरण का निर्माण होता है। धूप, वायु, जल, जंगल, जमीन और उन पर रहने वाले जीवित प्राणी एक दूसरे पर निर्भरता का ऐसा संतुलित ताना बाना बुनते हैं जो सदियों से पृथ्वी पर जीवन को विकसित किये हुए हैं।

समाज को नई दिशा देने के सन्दर्भ में संगीत व जीवन का शाश्वत सम्बन्ध है। संगीत का जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश है- इसलिए विश्व में उभर रही नई चुनौतियों में भी संगीत अपनी भूमिका निभाने में सक्षम है। व्यक्तिगत साधना या मनोरंजन से ऊपर उठकर अब संगीत नई सामाजिक विसंगतियों में प्रभावी भूमिका निभा सकता है जिस पर अभी भी व्यापक चिंतन एवं शोध अपेक्षित है।


सन्दर्भ ग्रन्थ

1. कला का दर्शन- राम चन्द्र शुक्ल, काॅरोना आर्ट पब्लिशर्स, मेरठ, प्रथम संस्करण- 1964
2. कला में संगीत , साहित्य और उदात्त के तत्व- डाॅ हरद्वारी लाल शर्मा, मानसी  प्रकाशन, मेरठ, 1994
3. ललित कलाएं और मनुष्य- डरविन एडमैन; अनुवाद-डाॅ0 विश्वनाथ मिश्र
4. हमारा आधुनिक संगीत- सुनील कुमार चैबे

19वीं शताब्दी के सामाजिक एवं धार्मिक पुनर्जागरण की दशा एवं दिशा

रमेश चन्द्र पाण्डेय
(यू0 जी0 सी0 / नेट)


भारत में 1857 के विद्रोह के उपरान्तएक सशक्त राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रार्दुभाव हुआ और 1857 के कुछ ही वर्षों के बाद भारत में राष्ट्रीयता का प्रवाह दिखायी देने लगा। जिन कारणों से भारत में राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय जागृति की भावना को जन्म दिया, उनमें सबसे महत्वपूर्ण एवं अग्रगण्य कारक सामाजिक एवं धार्मिक पुनर्जागरण था।

19वीं सदी में समाज सुधार हेतु अनेक आन्दोलन हुए। महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज और केरल में श्री नारायण धर्म परिपालन सभा ने सुधार का काम शुरू किया। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखण्ड आदि राज्यों में सुधार हेतु उच्च स्तर पर आन्दोलन हुए। इसके साथ कोल, भील मुण्डा संथाल आदि जनजातीय आन्दोलन, सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना का उत्कृष्ट निदर्शन है। अहमदिया और अलीगढ़ आन्दोलन, सिंह सभा और रहनुमाई मजदेयासान सभा क्रमशः मुसलमानों, सिखों व पारसियों के बीच उभरी सुधारवादी शक्तियाँ रहीं हैं। हाँलांकि ये सभी संगठन और आन्दोलन सिर्फ अपने-अपने धर्म से ही जुड़े थे और क्षेत्र-विशेष तक ही सीमित रहे, लेकिन इन सबमें एक विशेष समानता यह रही कि ये सभी आन्दोलन सामान्य चेतना की धार्मिक अभिव्यक्ति थे।

इन आन्दोलनों का प्रबल समर्थन धार्मिक सुधारों की तरफ ही था, फिर भी इनमें से किसी भी आन्दोलन का चरित्र पूरी तरह धार्मिक नहीं थां इनकी अंतः प्रेरणा मानववाद थी। 19 वीं शताब्दी के सुधारकों के मत में मानववाद स्पष्टतः परिलक्षित होता है। यथा- अक्षय कुमार और विद्यासागर ने इस तरह के प्रश्नों पर किसी किस्म की चर्चा से साफ इनकार कर दिया था। ईश्वर है या नहीं, यह पूछे जाने पर विद्यासागर का जवाब था कि ‘‘ईश्वर के बारे में सोचने के लिए मेरे पास वक्त नहीं है क्योंकि अभी तो इस धरती पर ही बहुत काम किया जाना है।’’ बंकिमचन्द्र और विवेकानन्द ने इहलौकिक उद्देश्यों के लिए धर्म के प्रयोग पर जोर दिया और कहा कि धर्म को मनुष्य की भौतिक समस्याओं का समाधान करना चाहिए। विवेकानन्द ने एक बार कहा था, ‘तुम्हारी भक्ति और मुक्ति की परवाह किसे है, कौन इसकी परवाह करता है कि तुम्हारे धर्म ग्रन्थ क्या कहते हैं? मैं बड़ी खुशी से एक हजार बार नरक जाने को तैयार हूँ, अगर इससे मैं अपने देशवासियों को ऊँचा उठा सकूँ।’’

19वीं सदी का भारतीय समाज धार्मिक अंधविश्वासों के जाल में जकड़ा हुआ था। इसके चलते सामाजिक सुधार का कार्य बहुत कठिन था। मैक्स वेबर ने लिखा है कि हिन्दू धर्म दरअसल ‘‘ जादू, अंधविश्वास और अध्यात्मवाद की खिचड़ी’’ बनकर रह गया था। ईश्वर की पूजा की जगह पशु-बलि और शारीरिक यातना जैसी जघन्य प्रथाओं का सिलसिला शुरू हो गया था। जनमानस पर पुजारियों और धर्माचार्यों का जबरदस्त असर था। मूर्तिपूजा और बहु-देवोपासना ने पुजारियों और धर्माचार्यों के इस वर्चस्व को कायम रखने में और भी मदद की। सारे आध्यात्मिक ज्ञान का वीणा उन्होंने ही ले लिया था और धार्मिक रिवाजों व नियमों की वे मनमानें ढंग से व्याख्या करते थे।

प्रख्यात समाज सुधारक राममोहन राय के अनुसार, इन पुजारियों ने धर्म को धोखाधड़ी और पाखण्ड के तन्त्र में बदल दिया था, धर्मभीरू लोग ‘अदृश्य और सर्वशक्तिमान ईश्वर को तो सर्वोपरि मानते ही थे, इन पुजारियों की इच्छा, आज्ञा और मर्जी को भी ईश्वरीय आदेश की तरह ही सिर झुकाकर स्वीकार करते थे। ऐसा कोई भी कार्य नहीं था, जिसे धर्म का नाम लेकर लोगों से कराया न जा सके। वस्तुस्थिति यह थी कि पुजारियों, धार्माचार्यों की यौन तुष्टि के लिए महिलाएं खुद अपने आपको समर्पित कर देती थीं।

उस समय रूढि़ग्रस्त हो चुके धर्म का मौसेरा भाई जाति प्रथा भी कई तरह के सामाजिक-आर्थिक शोषण का हथियार बनी हुई थी। संस्कार और कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था समाज को उच्च और निम्न वर्गों में विभाजित करने और लोगों के अलग-अलग सामाजिक स्थिति को यथावत रखने के लिए पोषित की जा रही थी। इसने समाज को इतने खण्डों में बाँट रखा था कि उसमें गतिशीलता ही नहीं रह गई थी, समाज जैसे जड़ हो गया था। इसकी सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात थी, छुआछूत, जिसके चलते ‘शूद्र’ को व्यक्ति की स्थिति प्राप्त नहीं थी। इसके अतिरिक्त अन्य कई प्रकार के सामाजिक नियन्त्रण, अंधविश्वास, धार्मिक कट्टरता, अंध-भाग्यवाद और अधिकार जैसे कारक भी थे, जिन्होने समाज को कई स्तरों पर विभाजित कर रखा था और जड़ बना रखा था।

सुधारवादी आन्दोलनों ने इन विषयों को पतनोन्मुख समाज के लक्षण की संज्ञा दी और इनका विरोध शुरू किया। इन आंदोलनों ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया शुरू करने के लिए प्रथमतः सामाजिक वातावरण तैयार करने का कार्य हाथ में लिया। इसके लिए सुधारवादियों ने लोगों के समक्ष सुनहरे अतीत का निदर्शन प्रस्तुत किया।

19वीं सदी में भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में सुधारों का प्रशस्त मार्ग राजा राम मोहन राय द्वारा ब्रह्म समाज की स्थापना के साथ प्रारम्भ हुआ इस श्रृंखला को केशव चन्द्र सेन, हेनरी विवियन डेरोजियो, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, शिवनाथ शास्त्री, सैय्यद अहमद खाँ, एनी बेसेन्ट, मुहम्मद इकबाल, शिवदयाल साहब, अरविन्द घोष, बाबा साहेब अम्बेडकर, गाँधी, लोहिया,  जे0पी0 नारायण आदि सुधारकों ने अपने चिन्तन और व्यक्तिगत प्रयास से आगे बढ़ाया और समाज में कुछ मूलभूत परिवर्तनों की शुरूआत की। देशी भाषा एवं देशी साधनों के माध्यम से भारत में आधुनिकीकरण की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया।

इन आन्दोलनों का वास्तविक स्वरूप मध्यमवर्गीय था, जिससे सामान्य व्यक्ति तक इनकी पहुँच सुनिश्चित नहीं की जा सकी। बौद्धिक वर्ग की वैचारिक सूक्ष्मता भी इसका एक कारण बना।

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि ये आन्दोलन धर्म से ऊपर नहीं उठ सके। धार्मिक विश्वासों व प्रतीकों का इन्होनें सहारा लिया। परिणाम यह हुआ कि इनके कार्यक्षेत्र विभाजित होते गए। फिर इनके द्वारा विषय भी अलग-अलग उठाए जाते थे। इस तरह इनमें आन्तरिक द्वन्द्व व अन्र्तविरोध व्याप्त था। सबसे बड़ी बात तो यह कि कई सुधारक स्वयं ही रूढि़मुक्त नहीं हो पाए थे। केशवचन्द्र सेन का उदाहरण इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है जिन्होंने सामाजिक तौर पर बाल-विवाह विरोधी होते हुए भी अपनी अल्पवयस्क पुत्री का विवाह कूच, विहार के महाराज से कर दिया। सैयद अहमद खाँ तथा इकबाल के प्रारम्भिक राष्ट्रवादी विचारों तथा बाद के पृथकतावादी विचारों में भी यह अन्र्तविरोध और धार्मिक कट्टरता स्पष्ट परिलक्षित होती है।

सुधारकों द्वारा अतीत से प्रेरणा ग्रहण करना आन्दोलन की एक अन्य कमी थी जो गैर-वैज्ञानिक होने के साथ-साथ गैर-ऐतिहासिक भी थी। स्वामी दयानन्द द्वारा वेदों की ओर लौटने के उद्घोष का निहितार्थ यह था कि वेदोत्तर गत तीन हजार वर्षों की भारतीय सभ्यता की उपलब्धियाँ शून्य थी। वैदिक काल के उस स्वर्ण युग में चूँकि निम्न वर्ग के लोगों की भूमिका नगण्य अथवा अस्पष्ट थी, इसलिए अतीत के गौरवगान में यह वर्ग शामिल नहीं था। इससे वर्गीय भेदभाव का विस्तार हुआ। मध्य युग की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ इसमें शामिल न होने के कारण मुसलमान भी इससे विरत रहे और अपनी जाति के अन्तर्गत ही सुधारों की प्रक्रिया शुरू की, जिसका क्षेत्र भी संकीर्ण रहा। यही संकीर्णता व कट्टरता आगे चलकर साम्प्रदायिकता के उभार की एक वजह बनी। हिन्दुओं की बात करें तो उनका धार्मिक अनुभव वैदिक धर्म को काफी पीछे छोड़ चुका था।

इस आन्दोलन में जो कठिनाई थी वह तत्कालीन परिस्थितियों का परिणाम थी। औपनिवेशिक पृष्ठभूमि की अपनी सीमाएँ थी।, जिसका आन्दोलन के स्वरूप और कार्य प्रणाली पर नकारात्मक प्रभाव अनिवार्यतः पड़ना ही था। राजनीतिक व आर्थिक दासता की बेडि़यों में जकड़े रहकर सामाजिक सुधार की बात प्रवंचना पूर्ण थी। ऐसे में यदि गुंजाइश थी भी तो केवल सीमित उदारवादी सुधारों की। सामाजिक या सांस्कृतिक क्रान्ति की नहीं।

आन्दोलन के उदारवादी चरित्र के कारण ही पश्चिम के उदारवादी तत्व इनसे समुचित सामंजस्य स्थापित किये और अंग्रेजों द्वारा इनका अपने हित में उपयोग किया जाना सम्भव हो सका। इन सबसे एक ऐसा वातावरण उत्पन्न हुआ जिसने ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध की भावना को अभिव्यक्त होने से रोके रखा। सम्मोहन के इस वातावरण में देश की वास्तविक सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं को ठीक से समझ पाना कठिन हो गया।

किन्तु इन समस्त बातों का यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि उक्त समाज सुधार आन्दोलनों की कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि थी ही नहीं, निःसन्देह पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान व विचारों के सम्पर्क से भारतीयों की सोच व दृष्टिकोण में मूलभूत परिवर्तन दिखाई दिए।

इस सम्पर्क के प्रति भारतीयों की बहुमुखी प्रतिक्रिया ने सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर अनेक दूरगामी परिणाम उत्पन्न किए। समाज की तत्कालीन जड़ता खत्म हुई और प्रगति का संदेश वहाँ पहुँचा। धार्मिक व सामाजिक बुराइयों का अन्त कर समानता, स्वतन्त्रता एवं मानवतावादी मूल्यों को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न शुरू हुआ। विशेषकर अछूतोद्धार, नारियों की स्थिति में सुधार एवं शिक्षा के प्रसार की दिशा में सराहनीय कार्य किया गया।

आन्दोलन की वजह से शेष विश्व के साथ भारत का अलगाव खत्म हुआ। धार्मिक व सामाजिक सुधारों के आपसी जुड़ाव से राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता दीर्घकालीन समय से महसूस की जाने लगी। इसके परिणामस्वरूप आगामी राष्ट्रीयता का उभरकर सामने आयी।

सबसे बड़ी उपलब्धि इस आन्दोलन की यह रही कि समानता, स्वतन्त्रता एवं जागरण का संदेश इसने एक ऐसे समय पर दिया जब सम्पूर्ण देश परतन्त्रता की बेडि़यों में आबद्ध था और जनता अंधविश्वास, रूढि़वादिता व अज्ञान के अन्धकार में भटक रही थी।

वैसे भी उपनिवेशों में राष्ट्रीय जागरण का उभार सामान्य रूप से विदेशी शासन के विरूद्ध प्रतिक्रिया के रूप में ही देखा जाता रहा है। भारत भी इसका अपवाद नहीं था। समाज सुधार आन्दोलन एवं सांस्कृतिक जागरण ने इस प्रतिक्रिया को एक सशक्त बौद्धिक आधार और मनोवैज्ञानिक प्रेरणा प्रदान की। देश को पराधीनता की बेडि़यों से छुटकारा दिलाने में इन्होंने सहायक की भूमिका अवश्य निभाई है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. सुरेन्द्र नाथ सेन, एटिन फिफ्टी सेवन, नई दिल्ली, 1957
2. ए0एम0 जैदी और ए0 जी0 जैदी, इनसाइक्लोपीडिया आॅफ द इंडियन नेशनल काँग्रेस, खण्ड-8, नई दिल्ली, एस0 चन्द एण्ड कम्पनी, 1980, पृ0 - 607
3. फड़के सोर्स-मैटेरियल्स फाॅर ए हिस्ट्री आॅफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया खण्ड-1
4. रूडोल्फ कृत मार्डनिटी आॅफ टेªडिशन, शिकागो, 1967
5. रजनी कोठारी, कास्ट इन इंडियन पाॅलिटिक्स, नई दिल्ली, 1970

भारत में राजनीतिक आतंकवाद

डा0 प्रत्यूष पाण्डेय 
प्रवक्ता
राजनीतिशास्त्र विभाग
आई0 सी0 सी0 एण्ड सी0 ई0
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
इलाहाबाद


भारत अनेक संस्कृतियों, धर्मों और भाषाओं का देश है। यही कारण हैं कि हमारी भारतीय संस्कृति भारत की भौगोलिक एवं राजनीतिक सीमाओं को लाँघकर सुदूर पूर्व में भी पल्लवित पुष्पित हुयी और पूर्ण रूप से छा गयी। भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक चेतना की संस्कृति है, जो इसकी जीवन्तता का मूलाधार है।1

भारत में यही विभिन्नताएँ सामाजिक गतिशीलता की प्रेरक है। परन्तु साथ ही यह आतंकवादी हिंसा और क्षेत्रीय विषमता भी पैदा करती है। आतंकवाद के सन्दर्भ हमारे ऋषियों द्वारा प्रणीत उपनिषद् आदि ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। कौटिल्य द्वारा प्रणीत अर्थशास्त्र में कहा गया है कि राज्य को आतंकवादी गतिविधियों से बचाने के लिए मंडल सिद्धान्त एवं षड्गुण्य नीति में बताये गये गुणों का पालन करना चाहिये।2 सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य आदि मूल्यों का क्षरण हो रहा है। अब हम पाश्चात्य भैतिक संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं। इसलिए अशान्ति, अनुशासनहीनता, लोभ एवं अराजकता एवं आतंकवाद का साम्राज्य बढ़ रहा है।

विश्व में आतंकवाद की कोई निश्चित परिभाषा स्वीकार नहीं की गयी है। आतंकवाद की अनेक परिभाषाएँ है, जिनमें से प्रमुख परिभाषाओं पर विचार करना मैं प्रासंगिक एवं समीचीन समझता हूँ।

लीग आफ नेशन्स ‘कन्वेशन आफ प्रिवेन्शन एण्ड पनिशमेन्ट’ 1937 द्वारा आतंकवाद को परिभाषित करते हुए लिखा गया है कि अनुच्छेद-1 के अनुसार ‘‘आतंकवाद का अभिप्राय उन अपराधिक कृत्यों से है जो किसी राज्य के विरूद्ध उन्मुख हो और जिसका उद्देश्य कुछ खास लोगों या जन-मानस के मन में भय या आतंक पैदा करना है।’’ 3

न्यू कालिन्स डिकशनरी और थेजर्स (1990) और इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका (1990) के अनुसार ‘‘ किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए क्रमबद्ध तरीके से हिंसात्मक और भयात्मक तरीकों का व्यवहार करना है।’’ द आक्सफोर्ड डिक्शनरी (1990) में परिभाषित किया गया है ‘‘मुख्यतः राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हिंसात्मक तरीकों का व्यवहार करना या इसकी धमकी देना है।’’ वाल्टर लैक्वेयर के अनुसार’’ टैरोरिज्म इज ऐन अटैम्प्ट टू डिस्टेब्लाईज डेमोक्रेटिक सोसायटीज एण्ड टू शे दैट दीज गर्वनमेन्ट्स आर इम्पोटेन्ट।’’ 4

सामान्यतः आतंकवाद की उत्पत्ति के विभिन्न कारण हैं जैसे- उपनिवेशवाद, साम्प्रदायिकता, जनजातिवाद, राजनीतिक उत्पीड़न, मानवाधिकारों का उल्लंघन, आर्थिक शोषण, बेरोजगारी, अपहरण, समाज का नैतिक पतन आदि।5

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में बहुत विविधता पाई जाती है। यहां अभी भी ऐसी प्रजातियाँ (जनजातीय समुदाय) हैं जो खाद्य संग्रह एवं शिकारी जीवन की अवस्था में है और जिनकी संख्या अधिक नहीं है। इनका खान-पान, कृषि, वर्ग, रहन-सहन, सामाजिक स्थिति, धार्मिक अनुष्ठान दूसरों से अलग महत्व दर्शाता है। इनके आचार-विचार के प्रभाव ने भारत की सभ्यता को प्रभावित किया है। 6

प्रसिद्ध समाज शास्त्री एम0 एन0 श्रीनिवास ने कहा है कि देश में होने वाले पुनर्जागरण और बौद्धिक पुनरूत्थान ने इन जातियों को उच्च जातियों के आचार-विचार तथा रहन-सहन को अपनाने के लिए प्रेरित किया और उन्होंने परम्परावादी व्यवसाय को बदलकर ऐसे व्यवसायों को अपनाना प्रारम्भ किया जो उच्च जातियों के लिए नियत थे। परिणाम यह हुआ कि निम्न जातियों का रहन-सहन उच्च जातियों के रहन-सहन से इतना समरूप हो गया कि उनके बीच अन्तर करना कठिन हो गया। यहाँ तक कि कुछ निम्न जातियों ने सम्मान पूर्ण स्थिति प्राप्त करने के लिए अपना जाति-चिन्ह तक परिवर्तित कर दिया।7

यहाँ पर जातिगत या वर्ग भेद के आधार पर राजनीति को देखें तो पता चलता है कि अनेक भारतीय जनजातियों ने अंग्रेजी शासन-काल में कई कारणों की वजह से आन्दोलनात्मक दृष्टिकोण अपनाया था। यह आन्दोलन या तो सरकार के अथवा देशी रियासतों के शासकों के विरूद्ध था। जैसे- मुण्डा, बिरसा, भूमिजों तथा नागाओं एवं संथालों द्वारा किये गये आन्दोलन ज्वलन्त उदाहरण के रूप में हैं।

सम्पर्क के परिणाम स्वरूप राजनीतिक चेतना में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई। देश की स्वतंत्रता ने जनजातियों में भी नवचेतना का संचार किया। उड़ीसा तथा छोटा नागपुर की जनजाति के लोगों ने पृथक राज्य की माँग की। इसी प्रकार सीमान्त क्षेत्रों में रहने वाले जनजाति ने अलगाव आन्दोलन चलाये जिसमें नागा तथा मिजों लोगो द्वारा किया गया आन्दोलन उल्लेखनीय है।

नागा लोगों ने स्वतंत्रता से पूर्व ब्रिटिश सरकार तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् केन्द्रीय सरकार के विरूद्ध आन्दोलनात्मक रूख अपनाया। उन्होंने बाहरी प्रशासकों को सदैव सन्देह की दृष्टि से देखा। पृथक राज्य की स्थापना, जो कि इनके आन्दोलन के ही परिणाम के रूप में माना जा सकता है; के पश्चात् भी ये लोग असहयोग का रूख बनाये हुए हैं।

इसी प्रकार झारखण्ड आन्दोलन जनजातियों के एक प्रमुख आन्दोलन के रूप में है। उराँव, मुण्डा तथा ‘हो’ जनजाति के लोग सम्मिलित रूप से पृथक राज्य (झारखण्ड) की माँग करते हैं। इनकी यह धारण रही है कि गैर-जनजाति के लोग इनका सदैव शोषण करते आये हैं। अतः पृथक राज्य होने से इनकी समस्याओं का समाधान हो सकता है।

इसी प्रकार दक्षिण गुजरात के आदिवासियों ने पृथक राज्य की माँग रखी। इसमें गुजरात के चार जिले भड़ौंच, सूरत, बलसार तथा डाँग सम्मिलित है। लेकिन जिस प्रकार झारखण्ड के आदिवासियों ने पृथक राजनीतिक दल नहीं बनाया। यद्यपि कतिपय राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त कर सकने में वे अवश्य सफल हुए।

देसाई महोदय ने गुजरात के आदिवासियों का अध्ययन किया है। उनका कहना है कि आदिवासी स्वायत्तशासी राज्य के नारे के पीछे राजनीतिक अर्थ है। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य स्वायत्तशासी राज्य की स्थपना करना नहीं है, वास्तव में राजनीतिक संघर्ष में यह एक दांव-पेंच के रूप में है तथा विभिन्न राजनीतिक दल इसका प्रयोग इसी अर्थ में कर रहें हैं। देसाई के अनुसार इनका राजनीतिक आन्दोलन इस बात की अभिव्यक्ति है कि ये समूह विशाल भारतीय समाज की गतिविधियों में भगीदार बनना चाहते हैं तथा हमें उनकी इस राजनीतिक वैधता को मान्यता देनी चाहिये। 8

इसी प्रकार पंजाब में हिन्दुओं और सिक्खों के बीच जो टकराव है, उससे सिक्ख साम्प्रदायिकता अपने उग्र रूप में सामने आई है। असम में भी विदिशियों के विरूद्ध जो राजनीतिक आन्दोलन हुआ, उसका आधार यह था कि यदि बड़ी संख्या में असम से बाहर के लोगों को असम में रहने की सुविधा उपलब्ध रही तो कुछ ही दिनों के बाद असमवासी अल्पसंख्यक हो जायेंगे। इस स्थिति से उत्तेजित होकर असम में ‘‘आल आसामीज स्टूडेन्टस यूनियन’’ और ‘‘असमगण संग्राम परिषद’’ ने कुछ इस प्रकार के नारे दिए- ‘‘ भारत माता को भूल जाओ, असम माता को प्यार करो। यदि तुम एक साँप और एक बंगाली को देखो तो साँप को मारने के बजाए पहले बंगाली को मार दो।’’

इसी तरह उत्तर-पूर्व भारत विशेषकर नागालैण्ड में ईसाइयों द्वारा बड़ी संख्या में हिन्दुओं को ईसाई बनाने का अभियान गत दो दशकों में बहुत तेजी पर रहा। ईसाई मिशनरियों को इस प्रकार की गतिविधियों का हिन्दुओं की ओर से घोर विरोध किया गया।9

विहार को व्यापक आर्थिक और सामाजिक असमानता के चलते गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। भूमि सुधार कार्यक्रम यहाँ आजादी के बाद ही घोषित कर दिया गया था, लेकिन उस पर ईमानदारी से अमल आज तक नहीं हुआ। नतीजतन शोषित गरीबों के बीच नक्सलवादी आन्दोलन को जड़ जमाने के लिए उर्वरक परिस्थितियाँ मिल गई।

आज बिहार के करीब दो दर्जन जिलों में अलग-अलग नामों वाले नक्सली संगठन सक्रिय है। गरीब और साधन हीन जनता को ये संगठन खतरनाक नहीं, बल्कि रक्षक जैसे नजर आते हैं। यूं सामंतवादी व्यवस्था ने इनका मुकाबला करने के लिए पुलिस और प्रशासन का सहारा लेने के साथ- साथ, रणबीर सेना जैसे समानांतर संगठन भी पैदा कर डाले हैं। नक्सलियों और रणवीर सेना जैसे संगठनों के बीच खूनी टकराव कभी ठंडा नहीं पड़ता।

शासन ताजा घटना से तो परेशासन है, किन्तु भविष्य की आशंका भी उसे खाए जा रही है। आज देश के लगभग एक सौ पचास जिले नक्सलवादियों के प्रभाव में है। इन सभी नक्सलवादियों को आतंकवादी करार देना भी समझदारी नहीं कही जायेगी। उनसे ठीक से निपटने के लिए दमन की बजाए सामाजिक व आर्थिक कमियों को पाटना अधिक आवश्यक है।
नक्सली समस्या से निपटने के लिए राज्य और केन्द्र सरकार वर्षों से योजनाएँ बना रही है। पर इन योजनाओं और नीतियों में एकरूपता का अभाव है। आन्ध्र प्रदेश का उदाहरण सामने है, जहाँ सरकार ने इसे बातचीत के जरिये सुलझाने की पहल की थी। लेकिन अब वहाँ दोनों ओर से तलवारें पुनः खिंच चुकी हैं। अच्छा होगा केन्द्र सरकार देशव्यापी नक्सलवादी समस्या के गहन अध्ययन के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन करे। 10

यदि जम्मू एवं कश्मीर के सन्दर्भ में देंखे तो कश्मीर में सबसे अधिक मुसलमान और कम संख्या में हिन्दू हैं, इन दोनों धर्मों के बीच विभिन्न मुद्दों को लेकर अक्सर तनाव देखा जाता है जैसे- शिक्षा, बेरोजगारी, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, भौगोलिक आदि विषयों पर बराबर आक्रामक स्थिति बनी रहती है। इसी वजह से अनेक सम्प्रदाय के सदस्य मुसलमानों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं और उन पर ‘राज्यक्षेत्रातीत निष्ठा’ (एक्स्ट्रा-टेरीटोरियल लायलिटी) का आरोप लगाते हैं। हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठनों ने साम्प्रदायिक दंगों को बढ़ावा दिया, जिससे राजनीतिक संघर्ष आज तक जारी है।

यदि इसे भारत और पकिस्तान के संदर्भ में देखा जाय तो करीब छह दशक पुराने कश्मीर विवाद पर भी लागू होती है। ‘लोकतात्रिक भावनाएँ’ व ‘आतंकवाद’ दो ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें कश्मीर की मूल समस्या कहा जा सकता है। कश्मीर को ‘स्वशासन’ देने की बात पाकिस्तान द्वारा बार-बार दोहराई जाती है। लेकिन उस स्वशासन का स्वरूप क्या होगा पाकिस्तान के पास इस सवाल का जवाब नहीं है, क्योंकि जो पाकिस्तान के लिए लोकतंत्र है, उसे भारत व पश्चिमी जगत तानाशाही के नाम से जानता है।

कश्मीरियों की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि वहाँ काँग्रेस की गलत नीतियों के फलस्वरूप उपजे अलगाव को पाकिस्तान ने आतंकवाद में बदल दिया। बाद में इसका रूख जेहादी आतंकवाद की ओर मुड़ने से कश्मीर विवाद का समाधान और जटिल हो गया।

क्या नियंत्रण रेखा को अप्रसांगिक बनाकर ऐसे आतंकवाद को भी अप्रासंगिक बनाया जा सकता है, जिसका स्वरूप क्षेत्रीय न रहकर वैश्विक हो चुका है? यहाँ सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश श्री आर0 सी0 लाहोटी द्वारा 31 अक्टूबर को दी गई चेतावनी का उल्लेख जरूरी होगा। उन्होंने कहा कि -भारत में आतंकवाद से लड़ने की पर्याप्त राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं है। क्या कारण है कि अमेरिका मेें 9/11 सितम्बर के बाद एक भी आतंकी हादसा नहीं हुआ, जबकि भारत में ऐसे हमले रोजमर्रा का हिस्सा बन गए है?’11

कश्मीर समस्या के किसी भी समाधान पर पहुँचने से पहले यह जरूरी है कि जहाँ पाकिस्तान आतंकवाद के खतरे के प्रति सचेत हो, वहीं भारत भी आतंकवाद से लड़ने की पर्याप्त इच्छा शक्ति विकसित करे। दुर्भाग्यवश यदि ऐसा नहीं होता, तो लश्कर जैसे संगठन बेगुनाह लोगों का खून बहाते रहेंगे।

इस प्रकार के राजनीतिक संघर्ष एवं आतंकवादी गतिविधियों ने भारत की राजनीतिक व्यवस्था में कई तरह की समस्या उत्पन्न कर दी है जैसे परस्पर विरोधी हितों के बीच समन्वय स्थापित करना। समस्या केवल बहुमत और अल्पसंख्यकों के बीच सामंजस्य स्थापित करने तक सीमित नहीं हैं; समस्या जातिवाद, साम्प्रदायिकता, राजनीतिक उत्पीड़न, आतंकवाद, मानवाधिकारों का उल्लंघन, आर्थिक शोषण, बेरोजगारी, राष्ट्रीय एकता आदि पहलुओं पर विचार करने का है। इन तत्वों का प्रभाव भारत ही नहीं अपितु विश्व की राजनीति पर पड़ा है।
वस्तुतः राजनीतिक संघर्ष एवं आतंकवाद को रोकने के लिए देश की सामाजिक राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक संरचनाओं को मजबूत करना होगा। भारत की एकता को बनाये रखने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर धर्म, जाति, भाषा, राजनीतिक शक्ति, अधिकार एवं स्वतंत्रता की सुरक्षा करना होगा। एकीकरण के लिए आवश्यकता है बलिदान के भावना की, मानवतावादी भावना की और राष्ट्र के प्रति दृढ़ निष्ठा की।

अतः विभिन्नताओं पर ध्यान दिए बिना हमें देश और राष्ट्र के हितांे को प्राथमिकता देनी चाहिए। प्रो0 मदन शर्मा (शिमला) की पंक्तियाँ यहाँ समीचीन है।
कुदरत के रंगीन खेल न भगवान से खतरा।
है आज तो  इंसान को  इंसान से खतरा।।
मन  में  बसी  लालच  दुश्मन  से दोस्ती।
है आज  मेजबान को  मेहमान से खतरा।।

सन्दर्भ ग्रन्थ

1. भारतीय परम्परा और उनके मूल स्वर, प्रो0 गोविन्द चन्द्र पाण्डे, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 23, दरियागंज, नई दिल्ली, 1989
2. अर्थशास्त्र, आचार्य कौटिल्य
3. ब्वदअमदजपवद ंकवचजमकए ब्ींतजमतख् स्मंहनम व िछंजपवदेए 16 क्मबमउइमतए 1937
4. त्मसिमबजपवदे वद ज्मततवतपेउए ॅंसजमत स्ंुनमनतए थ्वतमहपद ।ििंपतेए छमू ल्वता टवसण् 65ए थ्ंसस 1986ए च्च् 88.89
5. ैजंजमउमदजे ंइवनज जमततवतपेउए डण्श्रमदापदे ठतंपदए च्.11
6. म्जीदपब ब्नपेपदमरू ज्ीम ैपहदपपिबंदज ष्व्जीमतष् म्गजतंबजमक तिवउ जीम ज्ञमलदवजम ंककतमेे ंज ं बवदतिमदबम वद विवक वतहंदप्रमक इल त्ंबीमस क्ूलमत ंज जीम ैबीववस व िवतपमदजंस ैजनकपमेए ।ेीपे छंदकलए न्दपअमतेपजल व िस्वदकवदए 22 छवअण् 2002
7. सोशल चेंज इन माईन इंडिया, एम0 एन0 श्रीनिवास, एलायड पब्लिशर्स, दिल्ली, 1966 पृ0-146
8. उच्च सामाजिक मानव विज्ञान, शम्भु दयाल देसाई, विकास पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1978 पृष्ठ- 213 और 214
9. भारतीय राजनीतिक व्यवस्था, प्रो0 एस0 एम0 सईद, सुलभ प्रकाशन, लखनऊ, 2001
10. भारत-पाक, विनय कौड़ा (सामरिक मामलों के विश्लेषक )
11. सम्पादकीय पृष्ठ (अमर उजाला) दिन-गुरूवार, 17 नवम्बर, 2005