डाॅ0 इन्दु प्रकाश सिंह
प्रवक्ता/ विभाग प्रभारी
राजकी रजा स्नातकोत्तर महाविद्यालय
रामपुर उत्तर प्रदेश
‘भूमण्डलीयकरण’ का निहतार्थ है सम्पूर्ण भूमण्डल अर्थत संसार का एकीकरण। यह विज्ञान के विकास का परिणाम है। इसके अंतर्गत सम्पूर्ण विश्व परस्पर सम्बद्ध है। चाहे व्यापर को लें, बौद्धिक संपदा को, या मनोरंजन, भाषा, व्यवहार आदि सभी का एकीकरण इसमें सन्निहित है। इसमें भैगोलिक सीमा का अतिक्रमण करके विश्व के भौतिक एकता की बात की जाती है। ‘राष्ट्रवाद’ एवं ‘सांस्कृतिक संरक्षण’ हेतु इसमें कोई स्थान नहीं है। भैतिक जीवन की सुख-सुविधाओं एवं आर्थिक संसाधनों का उपभोग सभी राष्ट्र एक दूसरे के साथ मिल-बांटकर करते हैं। विश्व के एक कोने पर बैठा व्यक्ति दूसरे कोने पर बैठे व्यक्ति से सम्बद्ध है। दो राष्ट्रों के बीच भैगोलिक दूरी अवश्य है; किन्तु इण्टरनेट, वीडियों कान्फ्रेन्सिंग, एवं विज्ञान के अन्य साधनों एवं उपकरणों से वे आपस में एक दम आस-पास है। एक का प्रभाव दूसरे पर प्रत्यक्ष पड़ रहा है। एक देश में उत्पादित सामग्री दूसरे देश को भेजी जा रही है। अस्तु, सम्पूर्ण विश्व के लोगों को भैतिक एवं भावनात्मक आधार पर जोड़ने के लिए रची गयी एक नवीन अवधारणा है।
पुनश्च, भूमण्डलीकरण में मात्र भौतिक संसाधनों एवं उनके आयात-निर्यात सम्बन्धी एकता को ही व्यवहारतः मूर्त रूप दिया जा रहा है। यथार्थ तो यह है कि ‘भूमण्डलीकरण’, विश्व अर्थव्यवस्था के बाजारवाद की उपज है। विश्व को एक बाजार के रूप में तथा सम्पूर्ण विश्व के लोगों को एक ही बाजार के खरीदार एवं विक्रेता स्वीकार किया जाता है। विकसित राष्ट्रों में अपने बाजारवाद को न्यायोचित ठहराने के लिए यह नया संप्रत्यय गढ़ा गया है। इसमें भूमण्डल की एकता को प्रचारित किया जाता है; किन्तु यह एकता मात्र वस्तुओं एवं उत्पादों को बेचने एवं उन उत्पादों के प्रति अपनत्व बढ़ाने के लिए किया जाता है। भूमण्डलीकरण के नारे के पूर्व विकसित राष्ट्रों को एक समस्या से जूझना पढ़ता था कि - बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं उनके उत्पादों के प्रति बहुत से राष्ट्रों के लोग विदेशी वस्तु कहकर स्वदेशी आंदोलन एवं स्वदेशी प्रयोग का नारा देकर उन वस्तुओं के प्रति घृणा का भाव रखते थे। इस समस्या के समाधान का एक ही रास्ता था कि बाजारवाद के परिप्रेक्ष्य में वैश्विक एकता या भाईचारे को बढ़ावा दिया जाय, तथा आधार के रूप में विज्ञान के आविष्कारों-इण्टरनेट आदि को माध्यम बनाया जाय।
सुनियोजित ढंग से विकसित राष्ट्रों ने ‘भूमण्डलीकरणवाद’ को जनसमर्थित बना दिया। आलम यह है कि आज ग्लोबलाइजेशन के विरूद्ध एक भी शब्द निकालने वाले को पिछड़ा एवं दकियानूस कह कर समाज के तथाकथित बौद्धिक वर्ग के मुख्य धारा से हासिये पर डाल दिया जाता है। ‘ग्लोबल फैमिली’ एवं ‘ग्लोबल विलेज’ के द्वारा भूमण्डलीकरण ने पूरी दुनिया को एक ही चश्में से देखना आरंभ कर दिया है कि - हम सभी एक ही बाजार में खड़े एक ही बाजार के क्रेता एवं विक्रेता हैं, अतः हम सभी एक हैं। एक की उन्नति से दूसरे की उन्नति जुड़ी हुयी है।
एक दूसरे की, खुशहाली को हम बांट सकते हैं। एक देश की समस्या हम सब की समस्या है। भैगोलिक दूरी का कोई अर्थ नहीं है; इण्टरनेट; वीडियो कान्फ्रेन्सिंग, सेटेलाइट, हवाई जहाज के माध्यम से हम सभी इतने करीब हैं कि एक ही ‘ग्लोबल विलेज’ के निवासी हैं। जैसे एक गाँव में कोई समस्या आने पर दूसरे लोग तुरन्त पहँुज जाते हैं, तथा गाँव की किसी भी समस्या से पूरा गाँव प्रभावित होता है, इसलिए वे सदैव एक परिवार के सदृश्य जुड़े रहते हैं, उसी प्रकार एक देश दूसरे देश से पूर्णतः परिवार के रूप में या ग्लोबल ग्राम के रूप में जुड़ गया है।
परन्तु भूमण्डलीकरण को चाहे जितना महिमामंडित किया जाय एवं इसे वैश्विक उन्नति के लिए अपरिहार्य सिद्ध किया जाय; किन्तु यथार्थ इससे भिन्न है। भूमण्डलीकरण का लाभ एक पक्षीय है और यह विकसित राष्ट्रों की ओर ही है। वस्तुस्थिति यह है कि भूमण्डलीकरण के नाम पर पिछले करीब डेढ़ दशक से विश्व में काफी उथल-पुथल मची है। इसे एक नये तरह के उपनिवेशवाद के रूप में विकासशील देशों के सामने भयावह संकट के रूप में देखा जा रहा है।1 भूमण्डलीकरण ने पूरे विश्व को एक छोटे दायरे में समेट दिया है, और विकसित देश अपने लिए विकासशील देशों में न केवल बाजार खोज रहे हैं, बल्कि अपने बेकार हो चुके या फालतू सामान को खपाने के लिए ‘भूमण्डलीकरण’ के नाम पर उन्हें इस्तेमाल करने पर आमादा हैं।
प्रख्यात अर्थशास्त्री कमलनयन काबरा ने अपनी पुस्तक ‘भूमण्डलीकरण के भंवर में भारत’ में 15 वर्षों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। काबरा ने भूमण्डलीकरण के नाम पर वैश्विक स्तर पर किये जा रहे क्रमिक शोषण-चक्र के रहस्यों का उद्घाटन किया है। काबरा ने अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है कि, ‘‘भूमण्डलीकरण की स्थिति एवं प्रक्रिया दोनों असमानतापूर्ण है। परन्तु कटु यथार्थ से समझौता करने, उसे सिर नवा कर स्वीकार करने में ही भलाई समझने वाले अतियथार्थवादी ‘यथार्थ’ समझने में कोई विरोधाभास नहीं देख पाते हैं। वैसे भी भूमण्डलीकरण इतना प्रचलित शब्द हो गया है कि उसके अनेक अर्थों, फलितार्थों और प्रक्रियाओं के बारे में अब कोई सवाल उठाना अनेक लोगों को खास कर सशक्त और शासक तबकों को निरर्थक लगने लगा है।2
काबरा ने इस सच्चाई को उजागर किया है कि ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ के 191 देशों में से यह भूमण्डलीकरण कोई दो-ढाई दर्जन देशों को छोड़कर सबको निर्धन से निर्धनतम बनाता जा रहा है।’’3
आर्थिक उदारीकरण की नीति के बाद भारत में संगठित क्षेत्रों में रोजगार में निरन्तर गिराबट आ रही है, किसान उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं। किसानों को ट्रैक्टर खरीदने के लिए बैक आसन कर्ज नहीं देते, लेकिन वही बैंक अरबों रूपये का कर्ज आसान ब्याज दरों पर देने के बाद उसे वसूल नहीं कर पाते, असमानता की इससे भौड़ी तस्वीर और क्या हो सकती है।
भूमण्डलीकरण की नीतियों का खामियाजा आखिर आम आदमी को ही भोगना पड़ता है। क्या बेरोजगारी, मँहगाई और असमानता को घटाने और मिटाने के प्रयास के बिना वैश्विक विकास संभाव है, तथा भूमण्डलीकरण का वास्तविक उद्देश्य पूरा हो सकता है। वैश्वीकरण के नाम पर उपनिवेशीकरण का छद्म प्रयास विश्व को एकता के सूत्र में कैसे बाँध सकता है?
स्पष्ट है कि भूमण्डलीकरण, मात्र भैतिक विकास के संदर्भ में वैश्विक एकीकरण को स्थापित करने की परिकल्पना है। विज्ञान के प्रगति के स्तम्भों पर प्रतिष्ठित भूमण्डलीकरण की अवधारणा ने सम्पूर्ण प्रगति को आर्थिक - प्रगति के सीमित दायरे में बाँधकर उत्पादनोन्मुख बनाकर आधुनिक विश्व समाज के वास्तविक उद्देश्यों को भुला दिया है। वस्तुतः किसी भी प्रगति के पीछे निहित प्रेरक शक्ति मानव कल्याण या लोकसंग्रह की भावना होनी चाहिए। जिस विज्ञान के चमत्कारिक आविष्कारों के आधार पर हम वैश्विक एकीकरण की बात करते हैं, वही विज्ञान विनाश की ओर उन्मुख है और ऐसे-ऐसे रासायनिक, जैविक एवं आणविक हथियार बना रहा है कि प्राणिमात्र के अस्तित्व हेतु प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है। उक्त परिप्रेक्ष्य में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि- ‘‘विज्ञान ने सारे जगत को सिकोड़कर एक पड़ोस का रूप दे दिया है; परन्तु मनुष्य ने ऐसी सभ्यता का निर्माण किया है कि पड़ोसी भी अजनबी बन गये हैं।’’4
वस्तुतः शब्दिक दृष्टि से भूमण्लीकरण एक आदर्शात्मक स्वरूप को प्रस्तुत करता है। प्रथम दृष्टतया ऐसा लगता है कि ‘ग्लोबल फैमिली’ - ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सदृश्य है; किन्तु तात्विक विवेचन के अनन्तर ज्ञात होता है कि ‘ग्लोबल फैमिली’ के नाम पर विकसित राष्ट्र इस कुटिल वाक्य को चरितार्थ कर रहे हैं कि - ‘‘तेरा सो मेरा, और मेरा तो मेरा है ही।’’ अतः भूमण्डलीकरण की अवधारणा अपने आप में बुरी नहीं है, यह तो व्यापक उद्देश्य को लिए हुए है; किन्तु इस धारणा के व्यावहारिक प्रचलन में दोष है, जिसके कारण इसमें अनेक कमियां आ गयी हैं। इन कमियों का परिहार करके इसे लोकसंग्रह के अनुकूल बनाया जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि ‘लोकसंग्रह’ में भी लोक के एकीकरण को परिकल्पित किया गया है; अर्थात् जगत् का एकता रूपी संघटना;5 किन्तु लोकसंग्रह के एकीकरण में भौतिक संसाधनों के उपभोग हेतु एकीकरण नहीं स्वीकार किया गया है; अपितु सम्पूर्ण लोक के सर्वतोमुखी उन्नति एवं सुस्थिति को स्वीकार किया गया है। सम्पूर्ण लोक की व्यवस्था बनी रहे इसलिए सम्पूर्ण लोक के मनुष्यों के लिए एक ही आचरण के नियम एवं आदर्श प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें विकसित एवं विकासशील के आधार पर भेदकारी दृष्टि नहीं है, सभी मनुष्य चाहे भारत के हों या अमेरिका के उत्तरी ध्रुव के हों या दक्षिणी ध्रुव के (आर्कटिक हों या अन्टार्कटिक) जिसको जो कत्र्तव्य दिये गये हैं, उनका वे निष्काम भाव से फलास से रहित होकर अपने कर्माें को करते चले, इसी से सम्पूर्ण विश्व का उत्कर्ष होगा तथा सभी का जो इस रीति से आचरण करते हैं; आत्मोद्धार भी हो जायेगा - ‘स्वेस्वे कर्मझयभिरतः संसिद्धिं लभते नरः’।6 अतः लोकसंग्रह भी एक प्रकार का ग्लोबलाइजेशन ही है; किन्तु इस ग्लोबलाइजेशन की प्रकृति आत्मिक एवं आध्यात्मिक है। लोकसंग्रह में भी ग्लोबलाइजेशन की भाँति वैश्विक एकीकरण को स्वीकार किया जाता है; किन्तु लोकसंग्रह का आधार इसकी तुलना में अधिक व्यापक एवं गहन है। जिस प्रकार ‘ग्लोबलाइजेशन’ में सम्पूर्ण विश्व को भैतिक आधार पर एक गाँव के रूप में कल्पित करते हैं, उसी प्रकार ‘लोकसंग्रह’ में उससे आगे एवं व्यापकतम स्वरूप में आध्यात्मिक आधार पर सम्पूर्ण लोक के एकीकरण को अर्थात् आत्मिक एकता के आधार पर जड़-चेतन, भूतो-देवलोक-पितृलोक, सबके कल्याण एवं सुस्थिति हेतु सबको एक माना जाता है।
वस्तुतः ‘ग्लोबलाइजेशन’ विश्व के भौतिक एकता की धारणा है तो ‘लोकसंग्रह’ आध्यात्मिक एकता का नाम है। आधुनिक शब्दों में कहें तो लोकसंग्रह-आत्मिक या आध्यात्मिक ग्लोबलाइजेशन है। जिसमें सम्पूर्ण लोक का एक साथ हित चिंतन किया जाता है; किन्तु इस एकता का आधार गीता की आत्मौपम्य दृष्टि है। अतः भैतिक विकास के साथ आत्मिक विकास को व्यवहार में लाये बिना सच्चे भूमण्डलीकरण की बात सोचना भी व्यर्थ है। असली भूमण्डलीकरण तो समता, भ्रातृत्व, स्वतंत्रता, सौहार्द, त्याग आदि मूल्यों में निहित है। जो राष्ट्र अपनी सुविधाओं को अपने बहुसंख्यक पीडि़तों के हित में त्याग नहीं कर सकता, अपने भैतिक संसाधनों का उपयोग गरीब राष्ट्रों के विकास में नहीं लगाता, वह छद्म भूमण्डलीकरणवादी वास्तव में घोर स्वार्थी है। जय प्रकाश नारायण ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि- ‘‘औद्योगिक एवं आर्थिक दृष्टि से उन्नत राष्ट्रों को इस कत्र्तव्य का बोध कराया जाना चाहिए कि वे अपेक्षाकृत पिछड़े राष्ट्रों की सहायता करें। जागतिक विकास-समुच्चय द्वारा पिछड़े देशों का स्तर उठाने में उन्हें सहयोग की भावना रखनी चाहिए।’’7 अस्तु, भूमण्डलीकरण की नींव त्याग, बलिदान, निःस्वार्थ सेवाभाव आदि सद्गुणों से बल प्राप्त करती है। इसके अभाव में तथाकथित भूमण्डलीकरणवादियों का झुण्ड (समूह) भूमण्डलीकरण की झूठी व्याख्या करके अपनी इसी व्याख्या के अनुरूप मिथ्याचार में लग जाता है; और इस दृष्टि से यह भूमण्डलीकरण का मार्ग न होकर स्वार्थवाद एवं उपनिवेशवाद का मार्ग बन जाता है।
अतः आवश्यकता है भूमण्डलीकरण के आदर्श को भौतिकता एवं भौतिक विकास के संकीर्ण परिवेश से निकालकर उसे सर्वतोकल्याणोन्मुख बनाने की तथा उसके आध्यात्मीकरण करने की; और यह कार्य ‘लोकसंग्रह’ के आदर्श के परिप्रेक्ष्य में भूमण्डलीकरण की व्याख्यायित करके किया जा सकता है। ‘लोकसंग्रह’ के परिप्रक्ष्य में भूमण्डलीकरण को परिभाषित करने से भूमण्डलीकरण के सभी दोषों का स्वतः परिहार हो जायेगा; क्योंकि लोकसंग्रह द्वारा विकसित राष्ट्रों को अपरिग्रह, दान, यज्ञार्थ कर्म, सर्वभूतहित, आत्मौपम्य, स्वधर्म एवं लोकरक्षा के व्यापक आदर्शों का ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। भूमण्डलीकरण के नाम पर विकसति राष्ट्रों द्वारा बाजारवाद को बढ़ाकर जो विकासशाील राष्ट्रों का शोषण किया जा रहा है, वह अज्ञानता के कारण ही है। यदि उन्हें यह ज्ञात करा दिया जाय कि सम्पूर्ण प्राणियों में तात्विक एकता है तो फिर किसका शोषण, किससे घृणा और किस के लिए संग्रह। जैसे - ईशावास्योपनिषद् उद्घोष करता है कि-
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानु पश्यति।8
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।।
एवं यस्मिन सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः।।9
अस्तु, आवश्यकता है एक बार पुनः श्रीकृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसामसीह, विवेकानन्द आदि की जो सम्पूर्ण विश्व को लोकसंग्रह का पाठ पढ़ाकर उन्हें सद्मार्ग पर ला सकें, अन्यथा सम्पूर्ण मानवता भौतिकता के चकाचैंध से अन्ध कुएं में गिरती जा रही है जिससे निकलने का कोई रास्ता फिलहाल उसके पास नहीं है। डाॅ0 सम्पूर्णनन्द ने अपनी पुस्तक में मार्मिक उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है कि,- ‘‘आज हम विश्व संस्कृति और विश्वसभ्यता की ओर बढ़ रहे हैं। इसलिए ऐसे सभी महापुरूषों का ऋण स्वीकार करना चाहिए। इस ऋण का परिशोध इतना ही है कि जो दीपक उन लोगों ने जलाया था, वह बुझने न पाये। उन्होंने मनुष्य को पशुओं से ऊपर उठाया ऐसा न हो कि हम उसे फिर पशुओं में गिरा दें। हमारा कत्र्तव्य है कि मनुष्य में भ्रातृत्व, ऐक्य, संस्कृति एवं सभ्यता का विस्तार करें।’’10
संदर्भ ग्रन्थ
1. योजना मासिक पत्रिका, मार्च 2006
प्रकाशकन विभाग सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, पृष्ठ 75
2. उपरोक्त उदृधृत पृष्ठ 75
3. उपरोक्त उदृधृत पृष्ठ 76
4. जय प्रकाश नारायण- ‘समाजवाद, सर्वोदय एवं लोकतंत्र’
अनु0 सच्चिदानंद, बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, 1973 पृष्ठ 183
5. डाॅ0 एस0 राधाकृष्णन, भारतीय दर्शन, हिन्दी संस्करण, भाग-1
राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरी गेट, दिल्ली, 1995, पृष्ठ 464
6. भगतद्गीता अध्याय-18, श्लोक-45, गीताप्रेस, गोरखपुर
7. जयप्रकाशनारायण- समाजवाद सर्वोदय एवं लोकतंत्र उपरोक्त ग्रन्थ पृष्ठ 132
8. ईशावास्योपनिषद्, मंत्र सं0 6, गीताप्रेस, गोरखपुर,
9. ईशावास्योपनिषद्, मंत्र सं0 7, गीताप्रेस, गोरखपुर,
10. डाॅ0 सम्पूर्णनन्द - चिद्विलास, ज्ञानमंडल लिमिटेड वाराणसी,
तृतीय संस्करण सं0 2016 पृष्ठ 229
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.