Sunday, 30 March 2008

भारतीय नाट्य-परम्परा और भास के नाटक

प्रतिभा मिश्रा
शोच्छात्रा (संस्कृत)
वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय,
जौनपुर



नाटक ऐसी विधा है जिसमें गायन, वादन, नर्तन, अभिनय आदि तत्त्वों का एक ही स्थल पर समावेश होता है। दृश्य होने के कारण वह लोकानुरंजक भी होता है। अतः नाटक को कला का उत्कृष्टतम् रूप माना जाता है। 

उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर महाकवि भास संस्कृत के आद्यनाटककार माने जाते हैं। किन्तु भारत में गायन, वादन, नर्तन आदि की परम्परा बहुत पुरानी है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा स्थलों की खुदाई से नर्तकी की मूर्ति मिली है, मिट्टी के ठप्पों पर वीणा के चित्र मिले हैं। इससे स्पष्ट है कि भारत में ये कलाएँ हड़प्पा सभ्यता के बहुत पहले समुन्नत हो चुकी थी।1 चूँकि प्राचीन भारत में सभी प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन श्रुति-परम्परा के माध्यम से होता था अतः लिखित प्रमाण का होना आवश्यक नहीं है। नाट्य परम्परा के सम्बन्ध में उपलब्ध सर्वप्राचीन ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ के विषय में भी यह कहना गलत नहीं होगा कि नाट्यशास्त्र की शिक्षा भी श्रुति-परम्परा से आगे बढ़ी और बाद में इसका लिखित रूप प्रकाशित हुआ। जब हम भारतीय नाट्यकला अथवा नाटककार के सम्बन्ध में विचार करते हैं तब स्वाभाविक रूप से वह नाट्यशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में ही होता है, क्योंकि मुनि भरत प्रणीत यह महान् ग्रन्थ भारतीय नाट्यपरम्परा के प्रत्येक पक्ष को परिभाषित करता है। इस अकेले ग्रन्थ में नाट्यविषयक विवरण जितनी समग्रता से प्रस्तुत किया गया है उतना अन्यत्र नहीं मिलता। यही कारण है कि इस ग्रन्थ ने भारत की रंगमंचीय-कला को शताब्दियों से प्रभावित किया हुआ है। 

संस्कृत के उपलब्ध नाट्यग्रन्थों में भास के नाटकों के विषय में विशेष रूप से यह कहा जाता है कि वे अभिनेय हैं अर्थात् वे रंगमंच पर सफलतापूर्वक प्रस्तुतीकरण के योग्य हैं। नाट्यशास्त्र में अभिनय के तीन प्रमुख तत्त्व बताये गये हैं- नृत्त, नृत्य तथा नाट्य। प्रदर्शन के समय पात्र नृत्त द्वारा दर्शकों के मन में आह्लाद उत्पन्न करता है। नृत्य में गीत सम्मिलित करके चित्तानुरंजन करता है। नाट्य का प्रयोग वह रस की अभिव्यक्ति के लिये करता है जो मुख्यतः मुखज अभिनय के द्वारा की जाती है। भास के नाटकों में इन तीनों तत्त्वों का सम्यक् रीति से समावेश हुआ है। विद्याधर एवं विद्याधरी के द्वारा पृथ्वी पर अवतरण एवं आकाशगमन के अवसर पर ‘विद्युद्भ्रान्ता’ एवं ‘आकाशिकी चारियों’ के प्रदर्शन में नृत्त का सुन्दर प्रयोग है।2 दामोदर द्वारा कालिय नाग के ऊपर ‘हल्लीसक नृत्त’ का विधान है साथ ही गोपकुमारों एवं गोपिकाओं द्वारा प्रस्तुत ‘हल्लीसक नृत्य’ में गीत भी शामिल है।3 इसके अतिरिक्त अन्य नाटकों यथा ‘स्वप्नवासवदत्तम्’ में भी प्रयोग के समय नृत्त एवं नृत्य की योजना की जा सकती है। इसकी अभिव्यक्ति नाट्य अर्थात् अभिनय के द्वारा होती है। नाट्यशास्त्रकार ने अभिनय के चार भेद बताये हैं- आंगिक, वाचिक, सात्त्विक और आहार्य। यद्यपि रसनिष्पत्ति मुख्यतः मुखज अभिनय के माध्यम से होती है किन्तु आंगिक क्रियाओं, वाचिक चेष्टाओं, मनोगत भावों के प्रदर्शन और उचित नेपथ्य संविधानों से युक्त होकर ही नाट्य पूर्णता को प्राप्त करता है और प्रयोग सफल होता है।4 भास के नाटकों में इन चारों प्रकार के अभिनय का सुखद समावेश है। उदाहरण के लिये- ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायण’ के निम्नलिखित पद्य में आंगिक अभिनय का उत्कृष्ट समावेश है। 

‘सुभद्रामिव गाण्डीवी नागः पद्दमलतामिव। 
यदि तां न हरेद् राजा नास्मि यौगन्धरायणः।।5 
एवं वाचिक अभिनय का उदाहरण निम्नलिखित है--
यदि तां चैव तं चैव तां चैवाथत लोचनाम्। 
नाहरामि नृपं चैव नास्मि यौन्धरायणः।।6
इसी प्रकार ‘दूतघटोत्कचम्’ के निम्नलिखित उद्धरण में सात्त्विक अभिनय का प्रकाशन हुआ है--
धृतराष्ट्रः- एहयेहि पुत्र!
न ते प्रियं दुःखमिदं ममापि 
यद् भ्रातृनाशाद् व्यथितस्तवात्मा। 
इत्थंच ते नानुगतोऽयमर्थो
मत्पुत्रदोषात् कृपणीकृतोऽस्मि।।7
अभिनय के आंगिक, वाचिक और सात्त्विक प्रकार पात्र की क्रियाओं से सम्बन्धित हैं जबकि आहार्य अभिनय का सम्बन्ध रंगमंच एवं पात्रों की साजसज्जा से हैं। नाट्यशास्त्रकार ने भी आहार्य अभिनय को नेपथ्य विधान कहा है। इसके अन्तर्गत भवन, सभामण्डप, मुकुट, अलंकार, मुखौटे आदि की कृत्रिम रचना की जाती है। भास के नाटकों में भी सभामण्डप, शिविर, पात्रानुसार मुकुट, आसन, अलंकार मुखौटों आदि का प्रयोग किया गया है और जहाँ पदार्थों (प्रकृति, सूर्य, ऋतु आदि तथा रथ आदि) की स्थापना सम्भव नहीं है वहाँ चित्राभिनय का आश्रय लिया गया है। इस प्रकार भास के नाटक भारतीय नाट्य-परम्परा के अनुरूप ही व्यवस्थित हैं। नाट्यशास्त्र के अनुरूप ही उनमें भाव, हाव और हेला का विकास दिखायी पड़ता है। किन्तु कहीं-कहीं वे परम्परा का अतिक्रमण भी करते हैं- जैसे ‘अभिषेक’ एवं ‘उरूभंग’ में मंच पर मृत्यु दिखलाना शास्त्रीय परम्परा के अनुकूल नहीं है। पुनश्च उन्होंने नाटकों का आरम्भ सूत्रधार से करवाया है जबकि शास्त्र के अनुसार यह कार्य स्थापक करता है।8 किन्तु इससे भास का महत्त्व कम नहीं हो जाता। वस्तुतः नाटक का चरम लक्ष्य रस की स्थापना कर प्रेक्षक को ब्रह्मानन्द की प्राप्ति कराना है। भास के नाटक सरल भाषा, छोटे संवादों एवं चित्राधिक्य से रहित होने के कारण प्रेक्षकों के मर्म को छू लेने में सर्वथा समर्थ हैं। उनका हास्यबोध और उचित स्थान पर उसकी अभिव्यंजना प्रेक्षक को ऊबने नहीं देती और नाटकों को सही मायने मे सर्वरंजक बना देती हैं उदाहरण के लिये-

मन्ये सुरैरित्रदिवरक्षण जातशंके-
रत्रासान्निमीलितमुखोऽत्रभवान् हि सृष्टः।।9

भारतीय चिन्तन आशावादी है। अतएव यहाँ काव्य, नाटक कथाओं आदि का अन्त सुखात्मक रखा जाता है। भास भी इससे अछूते नहीं हैं। उनके नाटक भी सुखान्त होने के साथ ही आशावाद के पोषक हैं। 

इस प्रकार भास के नाटक भारतीय नाट्््््््््य - परम्परा की एक मजबूत कड़ी तो हैं ही अपनी विशेषताओं के कारण वे परवर्ती नाटककारों के लिये आदर्श भी रहे हैं। ‘कालिदास’ हो अथवा ‘भवभूति’ सभी पर भास के नाटकों का प्रभाव परिलक्षित होता है। शूद्रककृत ‘मृच्छकटिकम्’ जहाँ भास के चारूदत्तम् का विस्तृत कलेवर है वहीं हर्ष की ‘रत्नावली’ और ‘प्रियदर्शिका’ भासकृत् ‘स्वप्नवासवदत्ता’ की अनुवर्तिनी हैं। 

वर्तमान समय मे जबकि संस्कृत साहित्य में लोगों की रूचि कम हो रही है, भास के नाटकों को मंच पर पुनर्जीवित कर दर्शकों को जोड़ना एक सराहनीय प्रयास हो सकता है। यह कार्य सिनेमा, टी0वी0 आदि माध्यमों से भी हो सकता है। पुनः भास के नाटक सरल व अभिनेय है। अतएव सुधीजन उनका अध्ययन करके संस्कृत के अन्य नाटकों का भी सरलीकरण कर सकते हैं। संस्कृत-साहित्य में उपलब्ध अन्य कथाओं एवं काव्यग्रन्थों का भी इसी प्रकार नाट्यरूपान्तरण करके तथा उन्हें प्रस्तुति-योग्य बनाकर लोगों तक पहुँचाया जा सकता है। इस प्रकार भास के नाटक संस्कृत वांगमय के पुनर्विकास में भी सहायक हो सकेंगे। 


सन्दर्भ ग्रन्थ

1. भरत और उनका नाट्यशास्त्र, डा0 ब्रजबल्लभ मिश्र, उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, इलाहाबाद (प्रथम संस्करण), पृष्ठ संख्या- 58

2. अविमारकम्, गंगासागर राय, चैखम्भा संस्कृत प्रकाशन, वाराणसी, संवत् 2045, श्लोक सं0- 4/11,12, पृ0 सं0- 107

3. बालचरितम्, गंगासागर राय, चैखम्भा संस्कृत प्रकाशन, वाराणसी, संवत् 2046, पृ0 सं- 61,62,77


4. दशरूपकम्, श्रीनिवास शास्त्री, साहित्य भण्डार, मेरठ, 2000 (ग्यारहवां संस्करण), पृ0 सं0- 183

5. महाकवि भासः एक अध्ययन, डाॅ0 बलदेव उपाध्याय, चैखम्भा विद्यामाला, 1964, प्रतिज्ञायौगन्धरायण, पृ0 सं0- 91

6. ------------वही--------पृ0 सं0 - 103

7. ------------वही-------ः दूतघटोत्कचम्’- श्लोक सं0- 1/36, पृ सं0- 31

8. नाट्यशास्त्र (प्प्प्) , डा0 बाबूलाल शुक्ल शास्त्री, चैखम्भा संस्कृत प्रकाशन, वाराणसी, 1983 (तृतीय सं0), पृष्ठ संख्या- 90,91

9. महाकवि भास: एक अध्ययन, ‘दूतघटोत्कचकम्’- श्लोक संख्या- 1/35 पृ0 संख्या- 30


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