Sunday 30 March 2008

निराला: स्वाधीनता के कवि

विकास चन्द्र वर्मा
  शोधार्थी
                                                      इलाहाबाद विश्वविद्यालय
  इलाहाबाद

स्वाधीनता एक भावनात्मक तत्त्व है, जिसकी प्राप्ति एवं अनुभूति मनुष्य के सम्पूर्ण प्रयत्नों का अन्तिम ध्येय होता है। मनुष्य की आत्मचेतना के विकास के लिए स्वाधीनता अनिवार्य है।

किसी व्यक्ति के लिए स्वाधीनता का अर्थ है जो अपने ‘स्व’ के अधीन हो, जिस पर किसी दूसरे का नियंत्रण न हो, जिस पर किसी दूसरे का अधिकार न हा।े जब व्यक्ति पर किसी दूसरे का वश, अधिकार या नियंत्रण नहीं होगा तब व्यक्ति स्वंय की आत्मा बुद्धिऔर चेतना से संचालित होगा, वही सत्य होगा, वही उदात्त होगा, वही यथार्थ होगा।

स्वाधीन चेतना का एक अर्थ और भी है कि वह कहीं न कहीं बंधा भी रहे, आत्मनियंत्रित रहे। अनियंत्रित स्वाधीनता मानवीय मूल्यों को नष्ट कर समाज और देश का विनाश कर सकती है।

स्वाधीनता में अधिकारों का होना आवश्यक है। बिना अधिकारों के स्वाधीनता केवल नाममात्र की स्वाधीनता रह जायेगी और इसका कोई महत्त्व नहीं होगा। अतएव प्रत्येक राज्य का, शासन व्यवस्था का यह कत्र्तव्य हो जाता है कि वह अपने नागरिकों को उन सुविधाओं और अधिकारों को प्रदान करे, जो कि आज सभ्य तथा सुसंस्कृत जीवन के लिए परमावश्यक है। स्वाधीनता से तात्पर्य वर्तमान युग में केवल राजनीतिक स्वतंत्रता ही नहीं वरन् सांस्कृतिक; धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्वाधीनता भी है। बिना सांस्कृतिक स्वाधीनता के मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं है। बिना मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास संभव नहीं है। परन्तु राजनैतिक तथा सांस्कृतिक है कि प्रत्येक व्यक्ति को आर्थिक स्वाधीनता भी प्राप्त हो। जिस व्यक्ति को हर समय अपने उदर-पूर्ति की ही चिन्ता रहेगी, जो अपने परिवार का उचित रूप से भरण-पोषण नहीं कर सकता है, उसके लिए राजनैतिक तथा सांस्कृतिक स्वाधीनता अर्थहीन है। व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक स्वाधीनता भी आवश्यक है।

निराला मुक्तिकामी चेतना के क्रान्तिकारी कवि हैं और उनकी क्रान्तिधर्मिता का लक्ष्य भारत को विदेशी पराधीनता से मुक्त करना ही नहीं बल्कि भारतीय जनमानस के सामाजिक जीवन में मौलिक परिवर्तन करना भी है।

निराला ने स्वदेशी आन्दोलन के वातावरण में होश संभाला था। पराधीनता की पीड़ा, स्वाधीनता की आकांक्षा, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध आक्रोश और स्वाधीनता के लिए संघर्ष के प्रति गहरी सहानुभूति उनकी आरम्भिक रचनाओं में मिलने लगती है। उनकी पहली प्रकाशित कविता है जन्म भूमि (1920)-

पंचसिन्धु ब्रह्ममपुत्र रवितनया गंगा।
विन्ध्य विपित राजे ध-धेरि युग जंघा।।
बधिर विश्व चकित गीत सुन भैरव वाणी।
जन्मभूमि मेरी है जगन्महारनी।।

निराला की रचनात्मक ऊर्जा का विकास जिन वर्षाें में हुआ वह मुख्यतः काँग्रेस और ब्रिटिश राज के बीच घोर संघर्ष का समय है। निराला आरम्भ से ही आजादी के विचार से भावनात्मक स्तर पर बहुत उद्वेलित दिखाई पड़ते है।ं। इस उद्वेन में कभी उनकी अनुभूतियां उच्छल मातृ-वन्दना का रूप लेती हैं तो कभी राम, तुलसी, और शिवाजी के माध्यम से गुलामी से मुक्ति का स्वप्न देखते हुए सम्पूर्ण भारतीय जन-मानस को जगाने और उठ खड़े होने के लिए ललकारती हैं। डाॅ0 राम विलास शर्मा निराला की साहित्य साधना में लिखा कि ‘‘ निराला ने लड़कपन में बंग-भांग विरोधी स्वदेशी आन्दोलन देखा, उन्होंने उन वीर युवकों की कहानियाँ पढ़ी एवं सुनी जिन्होंने सशस्त्र क्राँति के द्वारा भारत को मुक्त कराने के प्रयास में अपने प्राण त्याग दिये, उन्होंने सन् 1920 और 1930 में स्वाधीनता आन्दोलन के नये उभर देखे जिनमें भारतीय जनता ने व्यापक रूप से भाग लिया। उन्होंने स्वंय अपने जिले के किसानों को संगठित करने में योगदान दिया और उनके संघर्षों का नेतृत्व किया। निराला भारतीय और विश्वराजनीति के बारे में जो सामग्री मिलती थी उसे ध्यान से पढ़ते थे, जो देखते-सुनते थे उसे पढ़ी हुई सामग्री से तुलना करते थे, फिर अंग्रेजी राज और भारत के बारे में अपने निष्कर्ष निकालते थे। तब स्वाधीनता-प्रेम उनके साहित्य की प्रेरणा हो तो आश्चर्य नहीं।’’ निराला छायावादी कवि होते हुए प्रगतिशील रचनाकार भी हैं। निराला किसी राजनीतिक दल से जुड़े नहीं थे, वे प्रगतिशील मानवतावादी विचारधारा के समर्थक जरूर थे। वे साम्राज्यवाद, पूँजीवाद एवं सामन्तवाद के प्रबल विरोधी थे। भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक गुलाम देश था। निराला देश की स्वाधीनता संग्राम में कूदने के लिए नौजवानो को प्रोत्साहित करते हैं ‘जागो फिर एक बार’ कविता में वे देशवासियों का आह्वान करते हैं-

जागों फिर एक बार
समर अमर कर प्राण
गान गये महासिन्धु से
सिन्धु-नद तीरवासी।

निराला ऐतिहासिकता का सहारा लेते हुए देशवासियों में राष्ट्र-गौरव का मान बढ़ाते हैं, स्वाधीनता संघर्ष की प्रेरणा देते हैं। ‘‘महाराज शिवाजी का पत्र’ जैसी रचना में ऐतिहासिक संदर्भ होते हुए भी आधुनिक देश-दशा का स्पष्ट आकलन है। निराला ने अपने ओजस्वी कण्ठ से असंख्य श्रोताओं में राष्ट्र दर्प और वीर रस का संचार किया। प्रोत्साहन देकर और प्रश्न भरे शब्दों में जन-मन को उद्वेलित करते हुए वे कहते हैं-

सोंचो तुम!
उठती है जब नग्न तलवार स्वतंत्रता की
$ $ $ $ $ $ $
कौन वह सुमेरू रेणु-रेणु जो न हो जाय?
इसीलिए दुर्जय हे हमारी शक्ति!

सामाजिक स्तर से लेकर पूरे राष्ट्र में परस्पर मतभेद के कारण पराधीनता का अस्तित्व हर जगह विद्यमान हैं अपने युग की पराधीनता के कारण की ओर संकेत करते हैं-
व्यक्तिगत भेद ने
छीन ली हमारी शक्ति

निराला की राष्ट्रीयता भारत की इस मिट्टी में उगती, पनपती है, परन्तु इसमें प्रफुल्लित और पल्लवित होती हुई बहुत दूर जाकर वह समस्त मानवता में अपने को समेट लेती है, इसलिए उनकी राष्ट्रीय कविता का धरातल बड़ा विस्तृत और बहुरंगी है।

निराला साम्राज्यवाद के प्रबल विरोधी थे क्योंकि वे जानते थे कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद भारत को राजनीतिक और आर्थिक रूप से गुलाम बनाकर इसके साधनों का अपने (ब्रिटेन) हित में प्रयोग कर रही है। निराला कहते हैं कि साम्राज्यवाद इंग्लैण्ड की राजनीति का मूल है। पूँजी के द्वारा वणिक शक्ति की वृद्धि के इतिहास के साथ-साथ साम्राज्यवाद का इतिहास इंग्लैण्ड के साथ-साथ गुँथा हुआ है। पूँजी की तरह यह हृदयहीन है। अंग्रेजों की शक्ति का समस्त संसार पर प्रभाव है। साथ-साथ अपनी वृत्ति या जातीय साम्राज्यवाद के कारण इंग्लैण्ड संसार भर में बदनाम है। इतिहास के जानकार जानते हैं कि इंग्लैण्ड की सरकार पूँजीपतियों की सरकार है और साम्राज्यवाद की जीवन शक्ति, का मूल आधार है। निराला निरन्तर अपनी कविताओं में साम्राज्यवादी तथा सामन्ती और पूँजीवादी शक्तियों की साँठ-गाँठ को चिन्हित करते रहे हैं, और इन शक्तियों की पहचान कर उन पर लगातार व्यंग्य-प्रहार किया। निराला ने ‘कुकुरमुत्ता’ के जरिये देश और समाज की तत्कालीन आर्थिक तथा राजनीतिक स्थितियों पर गहरा व्यंग्य किया था। पूँजीवादी सत्ता और व्यवस्था पर चोट करती उनकी पँक्तियाँ-

अबे सुन बे गुलाब।
भूल मत जो पायी खुशबू रंगो आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतराता है कैपीटलीस्ट।

इन पँक्तियों में गुलाब को पूँजीवादी शक्तियों का प्रतीक मानकर जो बातें कही गयी हैं ये सभी तत्कालीन ही नहीं, वरन् किसी भी समय की जन-विरोधी शोषक सत्ता और व्यवस्था के वर्गीय चरित्र को उजागर करती हैं।

निराला ने राष्ट्रीय चेतना के निर्माण में युगान्तकारी भूमिका भी एक साहित्यिक के रूप में निभाई। राष्ट्रीय आन्दोलन कुछ लोगों के लिए अंग्रेजों को हटाने भर का अन्दोलन था, किन्तु निराला का विचार इससे भिन्न था। उनकी समझ में एक व्यापक सामाजिक क्राँन्ति न केवल इसलिए आवश्यक थी कि पुरानी व्यवस्था सदियों पहले जर्जर हो चुकी है, वरन् इसलिए भी किये कि बिना देश का राजनीतिक आन्दोलन शक्तिशाली नहीं हो सकता था। इस राजनीतिक आन्दोलन का लक्ष्य क्या हो, से शक्तिशाली कैसे बनाया जाये, शिक्षित युवक सामाजिक क्राँति के लिए कैसे कदम उठायें- इन सब समस्याओं को लेकर निराला ने जो कुछ लिखा था, वह राजनीतिज्ञों के दाँव-पेंच से बहुत आगे की बात थी।

निराला समझौता परस्त राजनीतिज्ञों को फटकारते हैं और ब्रिटिश साम्राज्यवाद को ध्वस्तकरने के लिए प्रेरित करते हैं-

चूम चरण मत चोरों के तू
गले लिपट मत गोरों के तू।

निराला की राष्ट्रीय चेतना के विकास की पराकाष्ठा भारत छोड़ो आन्दोलन (1942) के आस- पास दिखाई देती है। जब किसान संघर्षों, मजदूर आन्दोलनों का प्रसार पूरे देश में था। निराला का स्वप्न इस सम्पूर्ण आन्दोनल को एक सूत्र में पिरोकर एक जनक्रान्ति करना था पर राजनीतिज्ञों की सत्ता प्राप्ति की उत्कट अभिलाष के कारण देश की जनता को खण्डित और अधूरी आजादी से सन्तोष करना पड़ा। भारत स्वाधीन तो हुआ किन्तु जिस स्वाधीन भारत का स्वप्न निराला देख रहे थे, वह साकार न हुआ।

सामाजिक संरचना के सन्दर्भ में भी स्वाधीनता गहरा मूल्य रखती है। वर्ण-व्यवस्था आधारित सामाजिक संरचना में जाति-पाँति का भेदभाव और ऊँच-नीच का भेदभाव किसी भी राष्ट्र की उन्नति मे बाधक है। निराला इस बात को समझते थे कि देश की गुलामी का एक कारण आपसी भेद-भाव है। सच बात तो यह है कि इसी भेद-भाव ने स्वाधीनता आन्दोलन को कमजोर किया है। वर्ण-व्यवस्था के विरूद्ध निराला का एक प्रिय तर्क यह था कि पराधीन देश के नागरिकों में न ब्राह्मण होते हैं न क्षत्रिय, दास होने के कारण सब समान रूप से शूद्र हो जाते हैं। पराधीन शासन में सभी भारतीयों का केवल एक धर्म है कि वह अपने-अपने क्षमता के अनुसार देश की आजादी के लिए संघर्ष करे। इस स्थिति में न कोई ब्राह्मण है और न कोई शूद्र, यदि कुछ है तो देश के निर्माता का एक स्वाधीनता सेनानी। निराला जाति-प्रथा का विनाश और समानता के आधार पर समाज का पुनर्गठन चाहते थे क्योंकि समानता के बिना भारत में राष्ट्रीयता का विकास संभव ही नहीं था।

निराला के संवेदनशील मन को अछूतों की शोचनीय व दर्दनाक स्थिति ने कम्पित कर दिया। वे केवल साहित्य की रचना करके ही अस्पृश्यों का साथ नहीं देते बल्कि अपने जीवन में उतारते भी हैं। निराला की विशेषता यह है कि वे जीवन भर शूद्रांे और सवर्णों के बीच की खाई पाटते रहे। निराला ने अपनी कविता ‘‘ दलित जनों पर करो करूणा’’ में मानव समाज के उन्नयन के लिए ईश्वर से प्रार्थना की है।

दलित जनों पर करो करूणा
दीनता पर उतर आये
प्रभु तुम्हारी शक्ति अरूणा।

निराला के लिए स्त्री स्वाधीनता का प्रश्न राष्ट्रीय स्वाधीनता के प्रश्न में समाहित था। निराला ने लिखा, ‘‘ प्राचीन शीर्णता ने नवीन भारत की शक्ति को मृत्यु की तरह घेरे रखा है। घर की छोटी-सी सीमा में बँधी हुई स्त्रियाँ आज अपने अधिकार, अपना गौरव, देश और समाज के प्रति अपना कत्र्तव्य सब कुछ भूली हुई हैं। समाज की मेरूदण्ड नारी है जब तक स्त्रियों में नवीन जीवन की स्फूर्ति नहीं आयेगी, तब तक गुलामी की बेड़ी नहीं तोड़ी जा सकती। निराला घर-घर की पार्वती को कारा से बाहर निकालकर सत्यं-शिवं-सुन्दरम् की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं-

तोड़ो, तोड़ो तोड़ो कारा
पत्थर, की निकालो फिर
       गंगा जलधारा।

धर्म के क्षेत्र में भी निराला स्वाधीन चिन्तन के पक्षपाती थे। उनका विचार था कि धार्मिक सहिष्णुता भारतीय समाज की रीढ़ है। स्वतंत्रता संघर्ष के समय में धार्मिक सहिष्णुता को बनाए रखने की बहुत आवश्यकता है। ब्रिटिश सरकार और स्वार्थी नेता भारतीय समाज के दो प्रमुख धर्मों के अनुयायियों को आपस में लड़ाकर धार्मिक सौहार्द को नष्ट करना चाहते हैं और इसी के आधार पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं। धार्मिक सहिष्णुता के अभाव में राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त करना असंभव है। क्योंकि धर्म के आधार पर बंटा हुआ समाज किसी लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है। इसीलिए निराला जी ने स्वाधीनता संघर्ष में मानवीय मूल्यों को साधन बनाने पर जोर दिया। उनका विश्वास है कि यदि स्वाधीनता संघर्ष में धार्मिक उदारता का समावेश नहीं होगा तो समाज में धार्मिक कट्टरता का विकास होगा जो किसी भी व्यक्ति-समाज या राष्ट्र के लिए हितकर नहीं है।

स्वाधीनता का एक और सन्दर्भ निराला आर्थिक स्वतन्त्रता से लेते हैं। आर्थिक स्वाधीनता का आशय व्यक्ति की ऐसी स्थिति से है जिसमें वह अपने आर्थिक प्रयत्नों का लाभ स्वंय प्राप्त करें। उसके श्रम का दूसरे के द्वारा शोषण न किया जा सके। निराला की आर्थिक स्वाधीनता की संरचना के तीन आधार हैं- एक- शासक वर्ग, दूसरा- जमींदारों एवं पूँजीपतियों का वर्ग, और तीसरा- किसान एवं मजदूर का वर्ग। निराला किसानों एवं मजदूरों के जबरजस्त पक्षधर हैं क्योंकि पराधीनता के समय में जो सबसे अधिक शोषित या प्रताडि़त है, वे किसान एवं मजदूर ही हैं।

निराला इनके समस्याओं के प्रति बेहद संवेदनशील थे। किसानों को जमींदारों के शोषण से मुक्त कराने के लिए उन्होंने व्यक्तिगत रूप से आन्दोलन में भाग लिया था। निराला के लिए क्राँति की सार्थकता किसानों की मुक्ति में है। अंग्रेजी राज और जमीदारी शासन के दोहरे उत्पीड़न से जो किसानों को मुक्त करे, वही सच्चा क्राँतिकारी है। ‘बादल राग’ कृषक मुक्ति की विचारधारा की कविता है-

जीर्ण बाहु है शीर्ण शरीर
तुझे बुलाता कृषक अधीर
ऐ विप्लव के वीर।

निराला पूँजीपतियों एवं मिल मालिकों की शोषण वृत्ति को गहराई से समझते हैं। इसीलिए वे ‘भेद कुल खुल जाए’ कविता में मिलों में लगी हई पूँजीपतियों की पूँजी के राष्ट्रीयकरण की बात करते हैं-

भेद कुल खुल जाए वह
सूरत हमारे दिल में हैं।
देश को मिल जाय जो
पूँजी तुम्हारी मिल में है।

समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि निराला जी वास्तव में भारतीय स्वाधीनता के कवि हैं वे अपनी रचनाओं के माध्यम से ही नहीं वरन् व्यक्तिगत प्रयासों से भी जनमानस में स्वाधीनता के प्रति जागरूक करते हैं। देश को स्वतंत्रता मिले 61 वर्ष बीत गये, संघर्ष की एक मंजिल पार हुई, अंग्रेज यहाँ से चले गये लेकिन देश के करोड़ो पीडि़तों शोषितों और आज के शासन व्यवस्था के पैरों से कुचले जाने वाले करोड़ों लोगों की मुक्ति का सपना अभी अधूरा है। अब जिम्मेदारी निराला के मानस-पुत्रों की है कि वे निराला के सपनों का भारत बनाए।


सन्दर्भ ग्रन्थ

1 राग-विराग, सम्पादक राम विलास शर्मा, लोकभारती प्रकाशक इलाहाबाद संस्करण 1998
2 हिन्दी साहित्य का संवेदना और विकास, राम स्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 1999, पृष्ट- 122-130
3 हिन्दी साहित्य का इतिहास, विश्वनाथ त्रिपाठी, एन0सी0ई0आर0टी0, 1993, पृष्ठ 115
4 हिन्दी साहित्य का इतिहास, डा0 नगेन्द्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा, 1992, प्ष्ठ- 547
5 हिन्दी साहित्यः युग और प्रवृत्तियां, डा0 शिव कुमार शर्मा, अशोक प्रकाशन , दिल्ली, 1995, पृष्ठ- 463



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