प्रियंका सिंह
शोध छात्रा, संगीत एवं प्रदर्शन कला विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद |
संगीत विश्व की भाषा है। विश्व बंधुत्व एवं मानव कल्याण के लिए यह एक प्रभावशाली माध्यम है। गाँधी जी ने अपनी ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाणे रे’ गाकर अपने करोड़ों भक्तों तक सद्भावना का संदेश पहुँचाया। उन्होंने ईश्वर, अल्लाह तेरो नाम, गाकर देश में साम्प्रदायिक द्वेष को कम करने का सेदेश प्रसारित किया।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानव-मानव में पारस्परिक प्रेम और सहयोग की भावना को जागृत करने में संगीत का विशेष योगदान है। भ्रतृभाव के उन्नयन हेतु भारत आरम्भ से ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की कल्पना करता रहा है। पश्चिमी देश आज जिस वैश्वीकरण पर जोर दे रहे हैं वह भारत की मूल भावना से अभिप्रेरित है। इस अन्तर्राष्ट्रवाद की मूल भावना यह है कि व्यक्ति केवल अपने राज्य का ही सदस्य नहीं वरन् विश्व का सदस्य है। संगीत इस भावना के विकास में सहायक सिद्ध हो रही है।
वर्तमान समय में कई टेलीविजन कार्यक्रम अपने संगीत के जादू से देश विदेश में अपनी कलात्मक पहचान व लोकप्रियता पा चुके हैं। ऐसे कार्यक्रमों में जी0टी0वी0 पर प्रसारित होने वाले सारेगामा कार्यक्रम का नाम उल्लेखनीय है। ऐसे कार्यक्रम विदेशों में रहने वाले अनिवासी भारतीयों को ही नहीं आकर्षित करते अपितु ये दूसरे देशों की संस्कृति को भी प्रभावित करते हैं। फिल्म संगीत से जुड़े अनेक संगीतज्ञों और पाश्र्व-गायकों ने विदेशों में अपनी संगीत कला के प्रदर्शन से दूसरे देशों के संगीत पे्रमियों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
भारत और पाकिस्तान के मध्य राजनीतिक स्तर पर भले ही कितनी भी कटुता भरी हो किन्तु पाकिस्तान के लोकप्रिय गायकों को यहाँ बड़े आदर के साथ आमंत्रित किया जाता है। स्व0 नुसरत फतेह अली खाँ के कार्यक्रमों का आयोजन हो अथवा गज़ल गायक गुलाम अली की बज़्म हो लोग इन्हें सुनने के लिए खिंचे चले आते हैं। संगीत का सम्मोहन सारे सीमा सम्बन्धी विवादों और पाकिस्तानी आतंकवाद की कटुताओं को भुला देती है। जब पाकिस्तान के लोग स्वर साम्राज्ञी, स्व0 नूरजहाँ को पाकिस्तान की ‘लता मंगेशकर’ का सम्मान देकर गौरवान्वित करते हैं, तब उनके मन में किसी प्रकार के क्षुद्र राष्ट्रवाद की भावना शेष न रह जाती। कहा जा सकता है संगीत धर्म, जाति एवं सम्प्रदाय जैसी तुच्छ बातों को लेकर लड़ने वाले लोगों का मार्गदर्शन करने की जड़ीबूटी है। उमेश जोशी महोदय, मुगल काल में संगीत द्वारा साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ाने की भूमिका को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि मुसलमान व हिन्दू दोनों वर्गों को संगीत ने एक स्तर पर मिला दिया था, वास्तव में संगीत ने दोनों को मिलाने में बड़ा कार्य किया। जन-जन के संकीर्ण मस्तिष्क को प्रशस्त किया। समाज में संगीत सीखने के लिए हिन्दुओं ने मुस्लिम संगीतज्ञों को गुरु बनाया तथा मुसलमानों द्वारा हिन्दू संगीतज्ञों को गुरु बनाये जाने के सैकड़ों दृष्टांत संगीत जगत् में प्राप्त होते हैं। भारतीय संस्कृति के अनुसार गुरु शिष्य परम्परा को पिता-पुत्र की भाँति दोनों धर्मों के अनुयायियों ने निभाया। जिससे दोनों वर्गों में आपसी प्रेम, भाइचारा तथा सद्भाव की भावना में वृद्धि हुई।
संगीत का प्रयोजन केवल मनोरंजन करना ही नहीं है, वह जीवन प्रेरणा भी है। पूज्य महर्षि महेश योगी जी द्वारा संगीत कला को उच्चतम कला स्वीकार किया गया है। उन्होंने संगीत द्वारा विश्व शान्ति के लिए प्रयास किया है। सन् 1987 में महर्षि गान्धर्ववेद संस्थान द्वारा सम्पूर्ण विश्व में ‘‘म्यूजिक फेस्टिवल फाॅर वल्र्ड पीस’’ का आयोजन किया गया जिसमें देश के विभिन्न कलाकारों के द्वारा बहुत से देशों में भारतीय संगीत के कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये। महर्षि जी का यह प्रयोग विश्व बंधुत्व व साम्प्रदायिक सद्भाव की वृद्धि करने में अत्यंत सफल रहा।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- ‘‘कला का कार्य व्यक्ति और समाज को परस्पर समीप लाना है, इस कार्य के लिए भाषाओं की उत्पत्ति हुई जिसमें से कला भी एक है।’’1 कला की अपनी भाषा होती है उसमें भी संगीत का तो कहना ही क्या? यदि कोई व्यक्ति परदे के पीछे बैठकर गाये या बजाये तो हम सिर्फ उसका संगीत सुनकर उसकी तारीफ करते हैं, उसके आनन्द में खो जाते हैं, भाव विभोर हो जाते हैं। वहाँ जाति धर्म सम्प्रदाय के सारे द्वेष समाप्त हो जाते हैं। वहाँ यह जानने की जरूरत नहीं कि गाने या बजाने वाला व्यक्ति किस धर्म जाति व सम्प्रदाय का है।
प्रसिद्ध संगीतज्ञ ‘‘पं0 भीमसेन जोशी’’ संगीत को राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण मानते हैं। ‘‘उस्ताद अलाउछ्दीन खाँ सहब’’ ने अमीर-गरीब, जाति-पाॅति का भेदभाव मिटाकर सबको प्रेम से गले लगाया तथा सभी धार्मों के मानने वालों को अपना शिष्य बनाकर निस्वार्थ भाव से संगीत की शिक्षा दी। खाँ साहब के सम्बंध में केशव चन्द्र वर्मा कहते हैं-‘संगीत साधना की इस पद्धति ने इन्हें धर्म निरपेक्ष आस्थावान संत बना दिया जिसके सिरहाने कुरान शरीफ है तो भागवत् भी, दीवार पर ‘‘अल्लाहो अकबर’’ है तो माता शारदेश्वरी का चित्र भी, रामकृष्ण परमहंस है तो बीथोवेन भी।2
संगीत से सद्भाव व समन्वय के प्रभाव की व्याख्या विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से की है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति (स्व0) डा0 राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार ‘‘मेरी धारणा यह है कि संगीत द्वारा मानव अपने आप को ऊँचा उठा सकता है।3 बाहर की परिस्थितियाँचाहे जैसी भी हो उनमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन के बिना मानव संगीत के द्वारा एक विशेष प्रकार के समन्वय अथवा सामन्जस्य की भावना अनुभव कर परिस्थितियों से ऊपर उठ सकता है।
सन् 1921 के काँग्रेस अधिवेशन में जन समूह, गाँधी जी के आगमन की प्रतिक्षा कर रहा था, गाँधी जी के आते ही उनके दर्शनार्थ भीड़ उमड़ पड़ी जिससे गाँधी जी का सभा मंडप में पहुँच पाना कठिन हो गया। तभी पलुष्कर जी ने ‘‘रघुपति रघव राजा राम’’ कीर्तन का गान करने लगे जिससे जनता मंत्रमुग्ध हो गयी। उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘गाँधी जी को अन्दर जाने दें तो वे और भी मधुर भजन सुनायेंगे। प्रस्तुत दृष्टांत से हम देखते हैं कि अनेक जाति धर्म व सम्प्रदाय के लोगों की भीड़ या समुदाय किस प्रकार पलुष्कर जी के गायन से प्रभावित हुआ, यह संगीत का ही प्रभाव है। भारतीय दूरदर्शन पर राष्ट्रीय एकता से सम्बंधित गीत ‘‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’’ के गायक पं0 भीमसेन जोशी अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं ‘‘भिन्नता के इस वातावरण में अभिन्नता का सुर भरने के लिए हमारी सरकार ने संगीत जैसी सर्वजनीन भाषा के माध्यम से इस गीत के प्रसारण का कार्यक्रम बनाया है क्योंकि संगीत ही अब एक ऐसा सशक्त और सार्वभौमिक साधन है जो लोगों को एकसूत्र में पिरो सके।4 वास्तव में हम दैनिक जीवन में यह अनुभव करते हैं, कि जब सभी धर्म सम्प्रदाय के लोग एक साथ मिल बैठकर गायन वादन करते हैं या सुनते हैं तो उनमें कोई विरोधाभास दिखाई नहीं पड़ता, सब एक ही रंग में रंगे प्रतीत होते हैं।
संगीत की भूमिका आजादी की लड़ाई में राष्ट्रीयता की भावना से भरे गीतों में देखने को मिलती है ‘‘वन्दे मातरम्’’ ‘‘मेरा रंग दे बसन्ती चोला’’ जैसे देश गीतों को सुनकर हर भारतीय के दिल में आजादी की जंग का जज्बा जाग जाता थ भले ही वो किसी भी धर्म का हो।
सूफी इनायत खाँ के अनुसार- ‘‘संगीत कलाओं में सूक्ष्मतम् होने के कारण आत्मा को सभी मतभेदों से ऊपर उठाने में सहायक होता है यह आत्मा को जोड़ता है वहाँ शब्दों की आवश्यकता नहीं यह शब्दों से परे है।’’ इस दृष्टांत से प्रतीत होता है कि समाज में आपस में बढ़ता बैरभाव, आत्मा को इन्सानियत से जोड़कर दूर किया जा सकता है और संगीत इसमें अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। डाॅ0 अरुण कुमार सेन के अनुसार ‘‘प्रसिद्ध संगीतज्ञ श्री नरहरि ने कई प्रसिद्ध हिन्दू मुसलमान उस्तादों से ध्रुवपद सीखे थे।5 भारत में संगीत द्वारा साम्प्रदायिक सद्भाव वृद्धि को इतिहास के स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा। मथुरा के प्रसिद्ध संगीतज्ञ ‘‘उस्ताद बुलाकी खाँ साहब’’ के सम्बंघ में वर्णन करते हुए डाॅ0 सुशील चैबे लिखते हैं ‘‘बृजभाषा क्षेत्र के प्रतिभा सम्पन्न मुसलमान गायक आम जनता के लोकप्रिय गायक बन जाते थे; मंदिरों के महंत हर दूसरे तीसरे दिन सुना करते थे। इस प्रकार मन्दिरों में मुसलमान गायक द्वारा संगीतबद्ध भक्ति गान करना साम्प्रदायिक सद्भाव की अनूठी मिसाल कहा जा सकता है। मुस्लिम गायक फैयाज खाँ ने भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन अपनी रचनाओं में किया जैसे-कि राग सुघराई की रचना ‘‘नैनन सो देख एक झलक मोहन की, अजहुँ न आये श्याम’’ आदि।
सिख सम्प्रदाय के प्रथम गुरु ‘‘गुरु नानक देव जी’’ कीर्तनकार ‘‘सहयोगी’’ के रूप में ‘‘भाई मरदाना’’ का नाम अमर है जो कि इस्लाम के अनुयायी थे। डाॅ0 गीता पैन्टल के अनुसार ‘‘भाई मरदाना को अपने प्रथम कीर्तन सहयोगी के रूप में चुनकर गुरु नानक देव जी ने अपने चित्त की उदारता, सहिष्णुता और मानव मात्र में उसी एक ईश्वर को देखने की भावना का प्रत्यक्ष प्रमाण दिया, मुसलमानों में हीन समझी जाने वाली जाति के एक सदस्य को गले लगाकर उन्होंने संगीत को और संगीत व्यवसाय करने वालों दोनों को ही सम्मान दिया।6
अन्ततः निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि आज से नहीं वरन् बहुत पहले से ही संगीत ने पूरे समाज व देश को एकसूत्र में बाँधने का कार्य किया है। संगीत से मानवीय गुणों का विकास हुआ है व पाश्विक प्रवृत्तियों का नाश हुआ है। इतिहास साक्षी है कि रक्तपात उन्हीं शासकों और राजाओं द्वारा अधिक हुआ जो संगीत विरोधी और कलाओं से दूर रहने वाले थे। समुद्रगुप्त के शासनकाल में सिक्के पर भी वीणावादन के चित्र मिलते हैं, इसलिए वह स्वर्णयुग था।7
सम्पूर्ण मानवता के हित में जो ग्राह्य हो उन तत्त्वों के आधार पर आज के युग की सबसे बड़ी माँग बहुजन हिताय कृतियों की है ताकि वसुधैव कुटुम्बकम की कल्पना सार्थक हो सके, ऐसी स्थिति में विश्व संगीत की कल्पना एवं भावी संगीत पीढ़ीयों के लिए ऐसे संगीत के सृजन की दिशा जो देश काल एवं सीमित मनोवृत्तियों से परे हो, आज के संगीतज्ञों का कत्र्तव्य है।
संदर्भ ग्रन्थ
1. शुक्ल, रामचन्द्र - कला की आधुनिक प्रवृत्तियाँ, पृ0-4
2. वर्मा, केशवचन्द्र - हिन्दुस्तानी संगीत के रत्न, पृ0-93
3. संगीत (मासिक), मार्च, 1993, पृ0-4
4. संगीत (मासिक), अगस्त, 1993, पृ0-36
5. सेन, डाॅ0 अरुण कुमार- भारतीय तालों का शास्त्रीय विवेचन, पृ0-205, म0प्र0 हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल-1993
6. जोशी, उमेश- भा0 संगीत का इतिहास, पृ0-40, मानसरोवर प्रकाशन प्रतिष्ठान फिरोजाबाद, आगरा-1984
7. पैन्टल, डाॅ0 गीता- पंजाब की संगीत परम्परा, पृ0-37
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