Sunday 30 March 2008

नई सामाजिक चुनौतियाँ एवं संगीत


डाॅ0 जया मिश्र

अपने उद्भव काल से ही संगीत को प्रकृति का सहयोग मिला; क्योंकि मनोरम प्राकृतिक दृश्यों को देखकर अपनी प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिए मनुष्य ने प्रकृति का ही सहारा लिया। जब व्यक्ति ने अपने भावों को स्वर, लय, आदि के द्वारा व्यक्त किया तभी संगीत का जन्म हुआ। वैसे भी भारतभूमि को प्रकृति ने सदैव समृद्धिशाली बनाया है। यहाँ पर विभिन्न ऋतुएँ, नदियाँ, वन, पर्वत आदि सभी प्राकृतिक रूप से सुख-समृद्धि देने वाले हैं। इसी कारण प्राचीन काल से ही भारतीय जीवन अपने जीवन यापन करने के क्षेत्र में अधिक चिन्तित न रहा। प्रकृति की इस उदारता के कारण यहाँ सुख तथा निश्चिन्ता रही। ऐसी स्थिति में उच्च कलाओं का सृजन, संरक्षण तथा आस्वादन होना स्वाभाविक ही था। इसी परिवेश मे संगीत कला अपने विकास के मार्ग पर अग्रसर होती हुई अपनी उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँची। क्योंकि अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए संघर्षरत समाज कभी किसी कला का आनन्द नहीं उठा सकता। भारत भूमि के लोग इस संर्घष से सुरक्षित रहे और उन्होंने कलाओं का पूरा आनन्द उठाया। जिस प्रकार सामाजिक विकास का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है उसी प्रकार संगीत का क्षेत्र भी अपनी अभिव्यंजना शक्ति के प्रभाव के कारण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना प्रभाव डालता है।

सामाजिक संरचना का कंेन्द्र बिन्दु नई पीढ़ी होती है। प्रारम्भ से ही परिवार या समाज का प्रथम दायित्व बच्चों का समुचित विकास बताया जाता है। किसी भी दीर्घ कालिक सामाजिक परिवर्तन के लिए नई पीढ़ी उत्तरदायी होती है। सूचनाओं के विस्फोट, व्यस्त होती जीवनचर्या पारिवारिक विघटन और विशेषकर मीडिया के प्रभाव से बच्चों का समुचित विकास नहीं हो पा रहा और प्रत्येक समाज का स्वाभाविक विकास बाधित हो रहा है।

आज के दौर में उपभोक्तावाद पूरे समाज पर हावी है और जिसके फलस्वरूप अधिक से अधिक धनोपार्जन एवं भौतिक सुखों की लालसा में वृद्धि हुई है बच्चों के लिए परिवास के पास समय नहीं रह गया। इस स्थिति में बच्चों का ज्यादा समय टेलीविजन के साथ ही बीतता है जिससे उनकी सृजनात्मक क्षमता घटी है। टी0 वी0 के माध्यम से हिंसा और सेक्स से भरे कार्यक्रम सीधे बच्चों तक पहुँचते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के मनोवैज्ञानिकों की एक सर्वे रिपोर्ट से इसकी भयानकता का अनुमान लगाया जा सकता है जिसके अनुसार 16 वर्ष आयु तक पहुँचते-पहुँचते एक किशोर औसतन 40 हजार हत्याएँ टी0 वी0 पर देख चुका होता है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के प्रोे0 सेटरूबल ने अपने विस्तृत अध्ययन में यह अनुमान लगाया है कि यदि बच्चों पर टी0वी0 का विकृत असर न होता तो 90 प्रतिशत बलात्कार या हिंसक अपराध कम होते।

इस सन्दर्भ में विशेषज्ञों का मानना है कि छोटे बच्चे तथ्य और कल्पना में कई बार भेद नहीं कर पाते हैं। विशेषकर तब जब बच्चे अकेले टेलीविजन देखते हैं। कल्पना को तथ्य मानकर बच्चा विकृत मानसिकता में जीने लगता है। टेलीविजन में वल्र्ड रेस्लिंग फेडरेशन की कुश्तियाँ हो या फिर हिंसक कार्यक्रम इन सभी के प्रभावों से बच्चों में दूसरे को चोट पहुँचाकर सुख प्राप्त करने की लालसा बढ़ती है। इस तरह के विकृत सुखों को पाने की लालसा अपराध को जन्म देती है। साथ ही बच्चे अनेक जटिल समस्याओं का निदान हिंसक कार्यवाही ही मान लेते हैं।

बच्चों के सामान्य व्यवहार में भाव का माधुर्य भी बदला है। वे ‘दबोच डालो’, ‘मारो’, ‘सड़े हुए अण्डे’, ‘फन्टूश’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। बच्चे में टेलीविजन पर आने वाले विज्ञापनों के कारण अधिक से अधिक वस्तुओं के संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ी है। और नई विज्ञापन नीति के तहत बच्चों को ही निशाना बनाकर विज्ञापन तैयार किए जा रहे हैं।

चैनलों के कार्टून चरित्रों ने बच्चों की चैकड़ी को खत्म करके अकेला कर दिया है। विशेषज्ञों की सलाह है कि बच्चों को धारावाहिक पात्रों की दुनिया से बाहर निकाल कर स्वरचित गीत संगीत में व्यस्त करें जिसमें बच्चा अपने समूह में गीत संगीत के माध्यम से अपनी सृजनात्मक शक्ति का विकास कर सके।
‘‘आई रेल आई रेल, छुक छुक करती आई रेल’’
या

‘‘नन्हा मुन्ना रही हूँ, देश का सिपाही हूँ,
बोलो मेरे संग जय हिन्द’’

जैसे गीतो को गाती हुई बच्चों की टोली स्वाभाविक विकास के साथ- साथ स्वस्थ समाज के विकास में सहायक होती है इस दृष्टि से शैशवावस्था से ही लोरियों, बालगीतों या खेल गीतों के माध्यम से संगीत से जुड़कर बच्चें एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकते हैं

आज की व्यस्त एवं असुरक्षित भविष्य की चिन्ता ने मनुष्य के स्वाभाविक जीवन को प्रभावित किया है जिसके फलस्वरूप मनुष्य का व्यक्तित्व विघटित हुआ है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आज के समाज में तेजी से मनोविकारों का प्रकोप बढ़ा है, समाज में मनोचिकित्सकों की माँग इसका ज्वलंत प्रमाण है। इसके अनेक कारण रोजगार की असुरक्षा, उपभोक्तावाद, हिंसा, परिवार का विघटन आदि गिनाए जा सकते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दिनोदिन ऐसे विचित्र मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है जो विखण्डित व्यक्तित्व के हैं ऐसे रोगियों के दिमाग व कार्यकलापों के बीच समन्वय खत्म हो जाता है जिससे वे गम्भीर रूप से मतिभ्रम का शिकार भी रहते हैं।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आधुनिक समाज की बड़ी समस्या तनाव है आधुनिक शोधों से पता चलता है कि करीब 75 प्रतिशत रोगों का कारण यही है। यहाँ तक कि हृदय रोग एवं कैंसर जैसे जानलेवा रोग भी तनाव के कारण होते हैं। मनुष्य की इच्छाएँ, महत्वाकांक्षाएँ एवं अपेक्षाएँ अत्यधिक बढ़ी हैं, जिनको पूरा करने में मनुष्य अपने स्वाभाविक जीवन शैली को तनाव रहित होकर जीने में असमर्थ पा रहा है। आज के मनुष्य की बिगड़ती हुई जीवन शैली व आदतों ने अनेक मानसिक रोगों के लिए मार्ग खोल दिया है।

वस्तुतः तेजी से बढ़ता औद्योगिकरण, प्रतियोगिता की भावना एवं आर्थिक चुनौतियों आदि ने मनुष्य को अन्तर द्वन्द्व में जकड़ लिया है व्यक्ति अत्यधिक तनाव या कुण्ठा में जी रहा है। व्यक्ति इससे मुक्ति प्राप्त करने लिए दोस्तों अथवा नजदीकी लोगों से भावनात्मक समर्थन की उम्मीद करता है क्योंकि मानसिक स्वास्थ्य का गहरा सम्बन्ध मन की भावनाओं से है। मानव स्वभाव से ही अपने भावों को अभिव्यक्त करना चाहता है।

स्पष्ट हे संगीत का मन के नियंत्रण से सीधा सम्बन्ध है और स्वस्थ व्यक्तित्व के लिए संगीत अनिवार्य है। इसलिए मानवीय क्षमता के सर्वांगीण विकास में संगीत की सम्भावना बढ़ रही है। समाज के विकास के लिए निर्विवाद रूप से ‘सर्वेसन्तु निरामयाः’ का आदर्श सर्वोच्च रहा है। प्रत्येक समाज स्वस्थ रहने के लिए प्रयासरत रहता है।

इक्कीसवीं सदी में मनुष्य के आरोग्य हेतु एलोपैथिक, होम्योपैथिक एवं आयुर्वेद सहित अनेक पद्धतियाँ इस समय प्रचलन में हैं। किन्तु अब चिकित्सकों ने संगीत को भी एक चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार करना आरम्भ कर दिया है। यह परिवर्तन थोड़ा अलग इस सन्दर्भ में है कि अभी तक संगीत का प्रयोग यदा-कदा सुनने को मिलता था किन्तु एक व्यवस्थित, चिकित्सा पद्धति के रूप में संगीत को स्वीकार किया जाना इसके महत्व को दर्शाता है। चिकित्सक डिप्रेशन, न्यूरोसिस, तनाव, जैसी मानसिक बीमारियों का इलाज संगीत के माध्यम से कर रहे हैं।

नए प्रयोगों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कब्ज, डायबिटीज जैसे रोगों के आलावा कैंसर, हृदय रोग आदि का प्रमुख कारण तनाव है और तनाव का कारगर इलाज संगीत से सम्भव है अतः प्रकारान्तर में संगीत तनाव को खत्म करने के साथ-साथ गम्भीर रोगों के इलाज में भी सहायक होता है।

विगत एक दशक से समाज तेजी से हिंसक हो रहा है साथ ही सामाजिकता का हृास भी देखने को मिल रहा है समाज में मनोरंजन के साधन उत्तरोत्तर ऐसे बनते जा रहे हैं जिनमें समूहिक आनन्द का स्थान एकाकी सुख ले रहा है। इस एकाकीपन के बीच सामूहिक मनोरंजन संतुलन की भूमिका निभा सकता था किन्तु सैटलाइट चैनलों के आधर पर हो रहा मनोरंजन व्यक्ति को और भी एकाकी कर रहा है। टेलीविजन या इन्टरनेट में हर दर्शक अकेला एक निर्जीव मशीन पर आँखे चिपकाए अपने तत्कालीन परिवेश से कटा बैठा रहता है। यह पूरी तरह से एक तरफा व्यापार है जिसमें दर्शकों की अभिव्यक्ति की कोई सम्भावना नहीं बनती।

संगीत शिक्षा व्यक्ति को समाजिक उद्देश्यों के प्रति सचेत करती है जिसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार से सामाजिक जीवन यापन करने की क्षमता एक दूसरे के प्रति सहयोग पारिवारिक आदर्श आदि विकसित होते हैं इस लिए सामाजिकता के बढ़ावे में संगीत की सम्भावना बन जाती है।

वर्तमान परिवेश में उपभोक्तावाद ने सामाजिक विकास को बाधित किया है। उपभोक्तावाद वस्तुओं को शुद्ध व्यावसायिकता के कारण योजनाबद्ध रूप में लोगों पर आरोपित कर रहा है। जिसके फलस्वरूप मनुष्य भौतिक मूल्यों पर ही केन्द्रित हो गया है। अत्यधिक भौतिक मूल्यों पर केन्द्रित होने से मनुष्य की संवेदनशीलता एवं सृजनशीलता नष्ट होती जा रही है। व्यक्ति का जीवन यांत्रिक होता जा रहा है। इसके अलावा सृजनात्मकता के अभाव में व्यक्ति का अस्मिता बोध भी खत्म हो रहा है। इसके प्रभाव से लोगों का आपसी विभाजन गहरा हो रहा है। सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण में प्रारम्भ से ही संगीत का सर्वाधिक योगदान रहा है। इसलिए नए सामाजिक परिवर्तन में संगीत की भूमिका अपरिहार्य हो जाती है। सांस्कृतिक विकास में संगीत को स्वभाविक भूमिका सदैव महत्त्वपूर्ण रही है।

भारतीय चिन्तन में समाज की व्यापक परिकल्पना में मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं एवं वनस्पतियों को भी सम्मिलित किया जाता है। मानव और प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं वस्तुतः मनुष्य, पशु, पक्षी एवं वनस्पतियाँ एक दूसरे पर निर्भर एवं पूरक है इसलिए हमारे चारों तरफ जीवित एवं अजीवित वस्तुओं से मिलकर पर्यावरण का निर्माण होता है। धूप, वायु, जल, जंगल, जमीन और उन पर रहने वाले जीवित प्राणी एक दूसरे पर निर्भरता का ऐसा संतुलित ताना बाना बुनते हैं जो सदियों से पृथ्वी पर जीवन को विकसित किये हुए हैं।

समाज को नई दिशा देने के सन्दर्भ में संगीत व जीवन का शाश्वत सम्बन्ध है। संगीत का जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश है- इसलिए विश्व में उभर रही नई चुनौतियों में भी संगीत अपनी भूमिका निभाने में सक्षम है। व्यक्तिगत साधना या मनोरंजन से ऊपर उठकर अब संगीत नई सामाजिक विसंगतियों में प्रभावी भूमिका निभा सकता है जिस पर अभी भी व्यापक चिंतन एवं शोध अपेक्षित है।


सन्दर्भ ग्रन्थ

1. कला का दर्शन- राम चन्द्र शुक्ल, काॅरोना आर्ट पब्लिशर्स, मेरठ, प्रथम संस्करण- 1964
2. कला में संगीत , साहित्य और उदात्त के तत्व- डाॅ हरद्वारी लाल शर्मा, मानसी  प्रकाशन, मेरठ, 1994
3. ललित कलाएं और मनुष्य- डरविन एडमैन; अनुवाद-डाॅ0 विश्वनाथ मिश्र
4. हमारा आधुनिक संगीत- सुनील कुमार चैबे

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