Sunday, 30 March 2008

‘मृच्छकटिकम्’ की सार्वभैमिकता


प्रमा मिश्रा
कनिष्ठ शोध अध्येता
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
संस्कृत विभाग



मृच्छकटिककार शूद्रक एक सफल नाटककार होने के साथ ही कुशल कवि भी हैं। उन्होंने प्रयत्न किया है कि सभी नाटकीय गुण मृच्छकटिक में समाविष्ट हों, साथ ही कवित्व की भी सुन्दर झाँकी मिले। उनकी प्रसादगुणयुक्त पद-रचना नाटक में सजीवता और शक्तिमत्ता ला देती है। जिससे अभिभूत होकर कपिलदेव द्विवेदी आचार्य कहते हैं-

काव्यसौन्दर्यसश्रीको नाट्योऽप्यप्रतिमप्रभः।
शूद्रको भासते नित्यं सन्मृच्छकटिकाकरः।।1

‘मृच्छकटिकम्’ भासरचित नाटक ‘चारूदत्तं’ पर आधारित है। किन्तु मृच्छकटिक के केवल एक भाग (चारूदत्त और वसन्तसेना का प्रेम) पर ही यह प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, जबकि इसके दूसरे भाग में वर्णित राजनीतिक क्रिया-कलाप कवि की आपनी सम्पत्ति है। मृच्छकटिक में सात प्रकार की प्राकृत का प्रयोग होने से और कालिदास द्वारा उल्लिखित नाटककारों में शूद्रक का नाम न होने से यह स्पष्ट होता है कि मृच्छकटिक की रचना कालिदास और भास के बहुत काल पश्चात् हुई।

‘मृच्छकटिकम्’ में जिन परिस्थितियों का चित्रण हुआ है, भारत में वे स्थितियां सम्भवतः तब उत्पन्न हुईं थीं, जब उज्जयिनी में गुप्त साम्राज्य का अस्तित्व समाप्तप्राय था और हूणों के आक्रमण से तथा छोटे-छोटे राज्यों में पारस्परिक द्वेष भावना बढ़ जाने के कारण देश में आतंक, अव्यवस्था, अराजकता एवं स्वच्छन्दता जैसी राष्ट्र विरोधी प्रवृत्तियों की तेजी से वृद्धि हो रही थी।2 मृच्छकटिक का यह वर्णन दण्डी के ‘दशकुमारचरितम्’ से मेल खाता हुआ लगता है।

उपर्युक्त वण्र्य विषयों का प्रस्तुतीकरण मृच्छकटिक में इस प्रकार हुआ है कि, संस्कृत नाटकों में केवल मृच्छकटिक को ही सार्वभौमिक कहलाने के श्रेय मिल सका। विश्व में सर्वत्र इसके पात्र, तत्सम परिस्थितियां और समस्याएं तथा कार्य-व्यापार सार्वकालिक रूप से व्याप्त हैं। इसमें किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह का पूर्णतया अभाव है। दैनन्दिन व्यवहार में घटित होने वाली घटनाओं का वास्तविक चित्रण है, अतएव यह नाटक सार्वभौम एवं लोकप्रिय हुआ है।

मृच्छकटिक की सार्वभौमिकता का सर्वप्रमुख कारण यह है कि, प्रायः संस्कृत नाटककार उच्च श्रेणी के पात्रों के चित्रण में अपनी भारती को चरितार्थ मानते रहे हैं, परन्तु शूद्रक ने इस परम्परा का परित्याग कर एक नवीन पंथ का ही आविष्कार किया है। उनके पात्र सामान्य जन की भाँति सड़कों और गलियों में चलने-फिरने वाले मनुष्य हैं, जिनके कार्य-व्यापार को समझने के लिए कल्पना की उड़ान नहीं भरनी पड़ती है। जैसा कि डाॅ0 बलदेव उपाध्याय कहते हैं- ‘‘मृच्छकटिक की शास्त्रीय संज्ञा ‘संकीर्ण प्रकरण’ की है क्योंकि इसमें लुच्चे-लबारों, चोर-जुआरों, वेश्या-विटों का आकर्षक वायुमण्डल है, जहाँ धौल-धुपाड़ों की चैकड़ी सदा अपना रंग दिखाया करती है।’’3

‘मृच्छकटिकम्’ में मद, मूर्खता तथा अभिमान की प्रतिमा, धृष्टता का आगार, अस्तव्यस्तभाषी, राजा पालक का साला शकार मानवीय बुद्धि में कितना कुशाग्र है, यह तो उसके इस कथन से ही स्पष्ट हो जाता है-

चाणक्येन यथा सीता मारिता भारते युगे।
एवं त्वां मोटयिष्यामि जटायुरिव द्रौपदीम्।।4

तब भी जब न्यायाधीश उसका व्यवहार (मुकदमा) सुनना अस्वीकार कर देते हैं तो वह अपने बहनोई राजा पालक से कहकर उसे निकलवा देने की धमकी देता है। वह वसन्तसेना से जबरन प्रणय-सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है और असफल होने पर उसका गला घोंट देता है, जिसका आरोप विट, चेट तथा अन्ततः चारूदत्त पर लगा देता है। वस्तुतः ऐसे हठी और कुकर्मी व्यक्ति सदैव विद्यमान रहेते हैं जो घृणित से घृणित कार्य करने में भी पीछे नहीं हटते हैंै।

शर्विलक जैसा नवयुवक अपनी जीविका चलाने के लिए नौकरी करने के स्थान पर चैर्यकर्म को श्रेष्ठ मानता है- ‘स्वाधीना वचनीयतापि हि वरं बद्धो न सेवांजलिः।’5 लगभग ऐसी ही भावना होती है अनुचित कृत्य करने वाले उच्च-कुलीन पथभ्रष्ट युवकों की।

द्यूतक्रीडा समाज के लिए सदैव अभिशाप रही है, जिसमें व्यक्ति एक बार फंसता है तो फंसता ही चला जाता है। जैसे संवाहक ‘मालिश करने की कला’ छोड़कर जुआ खेलने में आसक्त हो जाता है। उसके पास कौड़ी मात्र नहीं रहती और वह जुए में दस स्वर्णमुद्राएं हार जाता है और द्यूतगृह से भाग निकलता है, द्यूताध्यक्ष उसका पीछा करता है, मारता है और अपने प्राणों की रक्षा के लिए उसे एक वेश्या का कृपापात्र बनना पड़ता है।

उपर्युक्त मध्यम और अधम पात्रों के चित्रण के साथ ही मृच्छकटिक में इस परम्परा का परित्याग किया गया है कि, केवल राजा, ब्राह्मण या उच्चकुल से सम्बद्ध व्यक्ति ही नायक-नायिका हो सकते हैं। इसका नायक चारूदत्त निर्धन है और नायिका वसन्तसेना गणिका है।6 अर्थात् मनुष्य का महत्त्व उसके कर्म के आधार पर आँका गया है, न कि जन्म के आधार पर। चारूदत्त स्वयं ब्राह्मणकुलोत्पन्न है, परन्तु उसका पैतृक व्यवसाय वणिक् का है। शर्विलक चतुर्वेदी ब्राह्मण का पुत्र है किन्तु चैर्यशास्त्र में निष्णात हो उसी को अपनी आजीविका बना लेता है। वसन्तसेना गणिका है किन्तु उसे उसके सुसंस्कृत आचरण के कारण महनीय माना गया है।

मृच्छकटिक एक प्रगतिवादी एवं समाजवादी नाटक है। इसमें शोषित, दलित एवं उपेक्षित वर्ग का सहानुभूतिपूर्ण चित्रण है। उन्हें राजा तथा अन्य पदों पर प्रतिष्ठित दिखाया गया है। गोपबालक आर्यक राजा पालक को मारकर राजा बनता है। शूद्र वीरक (नायिक) और चन्दनक (चर्मकार) सेनापति है। इसके साथ ही इसमें गणिका का कुलवधू बनना, गणिकाओं का ब्राह्मणों से विवाह इत्यादि भी मान्य है। अतएव समाजवादी एवं साम्यवादी विचारों में भी सफल होकर इस नाटक ने अपनी सार्वभौमिकता की पुष्टि की है।

यह नाटक इस दृष्टि से भी सार्वभौमिक है कि इसमें पात्रों की अति आदर्शवादिता के स्थान पर प्रत्येक पात्र के गुण और दोष का नीर-क्षीर-विवेचन किया गया है। चारूदत्त विवाहिता पत्नी के होते हुए भी वसन्तसेना पर आसक्त है, वह न्यायालय में असत्य भी बोलता है। वसन्तसेना की वेश्यावृत्ति पर घोर कटाक्ष के साथ ही उसकी उदारता की प्रशंसा भी की गई है। शर्विलक चैर्यकर्म करता है किन्तु जब उसे पता चलता है कि उसका मित्र संकट में है तो वह तुरन्त उसकी सहायता करने के लिए जाता है।7

‘मृच्छकटिकम्’ में इस सार्वकालिक सत्य का भी निरूपण किया गया है कि- ‘सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते’। चारूदत्त जैसे आचारवान् और धीर पुरूष पर शकार जैसा कुत्सित व्यक्ति भी अभियोग लगाने में इसलिए सफल हो जाता है क्योंकि चारूदत्त निर्धन है। संवाहक, धन का अभाव होने के कारण प्राणों की रक्षा के लिए भी जगह-जगह भटकता है। चारूदत्त का पुत्र रोहसेन उन्मुक्त होकर बालसुलभ क्रीडा नहीं कर पाता है क्योंकि उसके पास खेलने के लिए सोने की गाड़ी नहीं है।

आख्यान तथा वातावरण की इस यथार्थवादिता और नैसर्गिकता के कारण ही मृच्छकटिक पाश्चात्य आलोचकों की विपुल प्रशंसा का भाजन बन सका है। ‘मृच्छकटिकम्’ के अमेरिकन भाषान्तरकार डा0 राइडर ने ठीक ही कहा है कि, ‘‘इस नाटक के पात्र सार्वभौम (काॅस्मोपाॅलिटन) हैं, अर्थात् इस विश्व के किसी भी देश या प्रान्त में उनके समान पात्र आज भी चलते-फिरते नजर आते हैं। इसके सार्वभौम आकर्षण का यही रहस्य है।’’8 इसी कारण पाश्चात्य देशों में भी इस नाटक का मंचन सदा सफल हो पाया है। इसमें पौरस्त्य चाकचिक्य की झाँकी का अभाव कभी भी इन्हें दूरदेशस्थ पात्रों का आभास भी नहीं प्रदान करता। डा0 कीथ भले ही इन्हें पूरे ‘भारतीय’ होने की राय दें, परन्तु पात्रों के चरित्र में कुछ ऐसा जादू है कि वह दर्शकों के सिर चढ़कर बोलने लगता है। आज भी माथुरक जैसे सभिक् तथा उसके सहयोगियों का दर्शन कलकत्ता तथा बम्बई की गलियों में ही नहीं होता प्रत्युत लण्डन के ‘ईस्ट एण्ड’ में भी वे घूमते-घामते, धौल-धप्पड़ जमाते नजर आते हैं, जहाँ जुआरियों का अड्डा (गैम्बलिंग डेन) आज भी पुलिस की नजर बचाकर दिन-दहाड़े चला करता है।

इस प्रकार डाॅ0 भोलाशंकर व्यास के शब्दों में, यह स्पष्ट हो जाता है कि, ‘‘मृच्छकटिक अपने ढंग का अकेला नाटक है, जिसमें एक साथ प्रणयकथात्मक प्रकरण, धूर्तसंकुल भाण तथा राजनीतिक नाटक का वातावरण दिखाई देता है। यही अकेला ऐसा नाटक है जो उस काल के मध्यम वर्ग की सामाजिक स्थिति को पूर्णतः प्रतिबिम्बित करता है।’’9 वर्तमान वातावरण में भी चारों ओर दृष्टिपात् करने पर हमें मृच्छकटिक सदृश पात्र और परिस्थितियां दृष्टिगोचर होती हैं, जिससे अन्ततः ‘मृच्छकटिकम्’ की सार्वभौमिकता सिद्ध होती है।

सन्दर्भ ग्रन्थ

1. संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, डाॅ0 कपिलदेव द्विवेदी, रामनारायण लाल विजय कुमार, इलाहाबाद, 2004 पृ0 सं0- 326
2. संस्कृत नाटकालोचन, चुन्नीलाल शुक्ल, साहित्य भण्डार, मेरठ, 1972, पृ0 सं0- 184
3. संस्कृत साहित्य का इतिहास, डा0ॅ बलदेव उपाध्याय, शारदा निकेतन, वाराणसी, 1978, पृ0 सं0 - 522
4. मृच्छकटिकम्, तारिणीश झा, रामनारायणलाल बेनी प्रसाद, इलाहाबाद 1975, पृ0 सं0 - 591, श्लोक संख्या-8/35
5. -----------वही---------पृ0 सं0 - 227, श्लोक संख्या- 3/11
6. -----------वही---------पृ0 सं0 -  13, श्लोक संख्या- 1/6
7. -----------वही---------पृ0 सं0 -  60, श्लोक संख्या- 1/23
8. संस्कृत साहित्य का इतिहास, बलदेव उपाध्याय, पृ0 सं0 -523
9. संस्कृत कथा दर्पण, डाॅ0 भालोशंकर व्यास, पृ0 सं0- 272 (संस्कृत नाटकालोचन, पृ0 सं0 - 195 से उद्धृत)



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