Sunday 2 October 2011

न्याय- वैशेषिक एवं अद्वैत-वेदान्त दर्शन में ‘मोक्ष’ संकल्पना


शकुन्तला मीना
पी-एच.डी. शोध-छात्रा,
संस्कृत विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।

इस लेख में विशेष रूप से वेदान्त दर्शन के अनुसार तथा सामान्य रूप से न्याय-वैशेषिक दर्शन के अनुसार मोक्ष के लक्षण व स्वरूप सम्बन्धी विवेचन किया जायेगा। वेदान्त में ब्रह्म के स्वरूप की अनुमति को मोक्ष; वैशेषिक में ‘निःश्रेयस’ को ही ‘अपवर्ग’ अथवा मोक्ष; एवं न्याय में मुक्ति के स्थान पर ‘अपवर्ग’ का प्रयोग कर दुःख से प्रयत्न अर्थात् पुनरावृत्ति रहित विमुक्ति को मोक्ष रूप में स्वीकार किया है। इसी प्रकार तीनों दर्शनों के मोक्ष सम्बन्धी विचारों का तुलनात्मक विधि से विमर्श करने का प्रयास किया जायेगा।

भूमिका
मोक्ष को चरम लक्ष्य के रूप में प्रायः सभी दर्शन पद्धतियों में स्वीकार किया गया है। इस संसार में जन्म लेते ही जीव-मात्र को किसी न किसी दुःख से अवश्य गुजरना पड़ता है। इस दुःख को दूर करने में हम कभी सफल होते हैं तो कभी असफल। कभी हम एक दुःख से बच भी जाते हैं तो पुनः कुछ समय पश्चात् दूसरा दुःख हमें घेर लेता है। अतएव हमें इस दुःख को दूर करने के लिए कोई न कोई उपाय भी ढूंढना होगा जिससे कि हम सदा के लिए दुःख से बच सके। इस दुःख की समस्या से बचने के लिए ही मोेक्ष विषयक विचार को आधार बनाया जा रहा है।
वेदान्त दर्शन में मोक्ष मीमांसा
शंकराचार्य के मोक्ष संबंधी विचार ब्रह्मसूत्र भाष्य 1/1/4 में मिलते हैं। शंकराचार्य के अनुसार मोक्ष आत्मा या ब्रह्म के स्वरूप की अनुभूति होना है। आत्मा या ब्रह्म नित्य शुद्ध चैतन्य एवं अखण्ड आनन्दस्वरूप है। आत्मा ज्ञान स्वरूप है और इसके विपरीत मोक्ष को आत्मा का स्वरूप ज्ञान माना गया है। ब्रह्म व मोक्ष की एकरूपता को बताते हुए आचार्य शंकर का कहना है कि जिस प्रकार भगवान् बुद्ध के अनुसार अद्वैत परमतत्व और निर्वाण को एक ही माना गया है, उसी प्रकार ब्रह्म और मोक्ष को भी एक ही माना गया है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि जो व्यक्ति ब्रह्म को जानता है वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है।1 आचार्य शंकर के मत में ज्ञान, मोक्ष और ब्रह्म पर्यायवाची शब्द हैं और ये सभी एक ही परमतत्व को द्योतित करते हैं। ज्ञान का तात्पर्य है अज्ञान का नाश तथा ब्रह्म से अभिन्न होने की अनुभूति। यह ज्ञान ही मोक्ष है और यही ब्रह्म भी है। भाष्य में कहा गया है कि अविद्या-निवृत्ति और ब्रह्मभाव या मोक्ष में कार्यान्तर नहीं है।2 आत्मज्ञान मोक्ष को कार्य के रूप में भी उत्पन्न नहीं करता, अपितु मोक्ष- प्रतिबन्धरूप अविद्या की निवृत्तिमात्र ही आत्मज्ञान का फल माना गया है।3 ज्ञान का फल अज्ञान की निवृत्तिमात्र है जो कि ज्ञान के प्रकाश द्वारा होती है, जिस प्रकार प्रकाश द्वारा अंधकार की निवृत्ति होती है। मोक्ष की प्राप्ति के ज्ञान को भी भी अविद्याजन्य बताया गया है और कहा गया है कि मोक्ष किस अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति नहीं है; मोक्ष आत्मभाव है जो सदा प्राप्त है। शंकराचार्य ने मोक्ष के तीन लक्षण बताये हैं-
1. मोक्ष अविद्या-निवृत्ति है (अविद्यानिवृत्तिरेव मोक्षः)
2. मोक्ष ब्रह्मभाव या ब्रह्मसाक्षात्कार है (ब्रह्मभावश्च मोक्षः)
3. मोक्ष नित्य अशरीत्व है। (नित्यशरीरत्वं मोक्षाख्याम्)
    इनमें पहले दोनों लक्षणों को एक बताते हुए इनका निरूपण किया जा चुका है। तीसरे लक्षण के अनुसार मोक्ष स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीनों प्रकार के शरीरों के सम्बन्ध में अत्यन्त रहित नित्य आत्मस्वरूप का अनुभव है। प्रस्तुत लक्षण में अशरीर का अर्थ शरीर रहित नहीं है, अपितु शरीर-सम्बंध रहित है। इस आधार पर कह सकते हंै कि शंकराचार्य जीवन्मुक्ति का आग्रहपूर्वक प्रतिपादन करते हैं।
आचार्य शंकर ने मोक्ष के स्वरूप का अत्यन्त सुन्दर निरूपण इस प्रकार किया है-
यह पारमार्थिक सत् कूटस्थनित्य है, आकाश के समान सर्वव्यापी है, सब प्रकार के विचारों से रहित है, नित्यतृप्त है, निरवयव है, स्वयंज्योतिःस्वभाव है, यह सुखःदुःखरूपी कार्यों सहित धर्म और अधर्म नामक शुभाशुभ कर्मों से अस्पृष्ट है, यह कालत्रयातीत है, यह अशरीतत्व मोक्ष कहलाता है।4
आचार्य शंकर के इस मोक्ष-निरूपण की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-
मोक्ष पारमार्थिक सत् है। बन्धन और मोक्ष अविद्याकृत होने से सापेक्ष और मिथ्या हैं, किन्तु परब्रह्म या परमात्मत्व के रूप में मोक्ष पारमार्थिक सत् है। यहाँ आचार्य शंकर को बन्धन सापेक्ष मोक्ष अभिप्रेत नहीं है। आचार्य के अनुसार ब्रह्म ही मोक्ष अर्थात् नित्य मुक्त परमार्थ है। यह कूटस्थ- नित्य है क्योंकि इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन, परिणाम या विकार सम्भव नहीं है, यह मोक्ष परिणामि-नित्य नहीं है क्योंकि किसी भी प्रकार का परिणाम इसकी नैसर्गिक शुद्धता को नष्ट कर सकता है। यह अनन्त और सर्वव्यापी भूतवस्तु है। यह कार्यकारणभाव के परे है क्योंकि यह सब प्रकार के विकारों से रहित है। यह नित्यतृप्त है अर्थात् आप्तकाम है तथा नित्य अखण्डानन्द है। यह ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान अथवा वेदक-वेद्य-वेदना की त्रिपुटी के पार है, अतः इसका ज्ञान और आनन्द स्वसम्वेद्य नही है। यह स्वयं शुद्ध चैतन्य और आनन्दस्वरूप है। यह अद्वैत निरवयव और अखण्ड है। यह स्वयं ज्योति या स्वप्रकाश है। यह स्वतः सिद्ध है। यह दिक्कालातीत है। यह अविद्या धर्म व अधर्म रूपी कर्म, सुख दुःखरूपी फल, और शरीरेन्द्रिविषयादि के सर्वथा अस्पृष्ट है। यह लौकिक सुख-दुःखातीत है। इसका आनन्द लौकिक सुख नहीं है।
मोक्ष कार्य का उत्पाद्य नहीं है। मोक्ष को किसी कारण विशेष द्वारा उत्पन्न कार्य भी नहीं माना जा सकता। मोक्ष न तो कर्म का फल है और न ही उपासना का फल है। मोक्ष को कार्य या उत्पाद्य मानने पर वह निश्चित रूप से अनित्य होगा। मोक्ष में विश्वास रखने वाले सभी व्यक्ति मोक्ष को नित्य मानते हैं।5 मोक्ष नित्य आनन्द है और लौकिक (सांसारिक) तथा पारलौकिक (स्वर्गिक) सुखों से भिन्न एवं अत्यन्त उत्कृष्ट है। इस प्रकार अद्वैत वेदान्त दर्शन में मोक्ष के लिए सुख शब्द का प्रयोग न करके शंकराचार्य ने आनन्द शब्द का प्रयोग किया है।
अब न्याय के समकक्ष कहे जाने वाले वैशेषिक दर्शन में मोक्ष के स्वरूप की सामान्य रूप से विवेचना प्रस्तुत की जा रही है-
वैशेषिक दर्शन के मोक्ष का स्वरूप
वैशेषिक सूत्र में महर्षि मोक्ष के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि सभी प्रकार के कर्मों (अदृष्ट) के अन्त हो जाने पर आत्मा का शरीर से सम्बन्ध- विच्छेद हो जाता है।6 तत्फलस्वरूप जीवन-मरण के चक्र का अन्त हो जाता है, और सभी सुख अनन्तकाल के लिए समाप्त हो जाते हैं।7 अन्य परिभाषा भी मोक्ष हेतु वैशेषिकसूत्र में दी गई है जिसके अनुसार निःश्रेयस (निश्चित कल्याण) ही अपवर्ग अथवा मोक्ष है।8
वैशेषिकों की मोक्ष प्रक्रिया के अनुसार ज्ञानपूर्वक किये गये, फल की कामना से रहित कर्म के सम्पादन से विशुद्ध कुल में जन्म होता है, इससे दुःखों का विनाश होता है। तद्नुसार जिज्ञासु साधक आचार्य के समीप जाकर छह पदार्थो का तत्वज्ञान प्राप्त करता है। उस तत्वज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर साधक विरक्त हो जाता है तथा उसमें राग-द्वेष का अभाव हो जाता है। राग द्वेष का अभाव होने पर तज्जन्य धर्माधर्म की उत्पत्ति नहीं होती तथा पूर्वसंचित धर्म तथा अधर्म का भोग द्वारा नाश हो जाता है।9 इस प्रकार की स्थिति में केवल निवृत्ति रूप धर्म शेष रह जाता है। जो ज्ञानपूर्वक किये गये निष्काम कर्म से उत्पन्न होता है। निवृत्तिरूप धर्म भी सन्तोष सुख तथा शरीरादि का सम्यक् ज्ञान कराकर एवं तत्वज्ञान से उत्पन्न होने वाले आनन्द का अनुभव कराकर समाप्त हो जाता है।10
इस प्रकार वैशेषिक में धर्म के दो स्वरूप माने गए हैं एक प्रवृत्तिरूप तथा दूसरा निवृत्तिरूप। प्रवृत्तिरूप धर्म ही संसार भावना का निमित्त बनता है। इसके विपरीत निवृत्तिरूप धर्म द्वारा जन्म-मरण रूप, संसार रूप, संसारचक्र की निवृत्ति हो जाती है। इसी निवृत्तिरूप धर्म के द्वारा परमार्थदर्शन से उत्पन्न सुख की प्राप्ति होती है। इस परमार्थ दर्शन से प्राप्त सुख की स्थिति को जीवनमुक्ति की स्थिति कहा गया है। कर्मभोगों के समाप्त हो जाने पर जब जीव का पुनर्जन्म नहीं होता, तो यह शरीर का अनुत्पाद ही वैशेषिक के अनुसार विदेहमुक्ति की स्थिति है। अब मोक्ष की स्थिति को बताते है, उसी प्रकार धर्माधर्म रूप बीज से आत्मा के रहित होने पर शरीरादि की निवृत्ति हो जाती है यही उपशम अर्थात् मोक्ष की स्थिति है।11 वस्तुतः इसी तथ्य को भासर्वज्ञ ने ‘न्यायसार’ में वैशेषिकमत को पूर्वपक्ष के रूप में स्थापित किया है- जिसके अनुसार मोक्ष एक ऐसी अवस्था है; जिसमें आत्मा के समस्त विशेष गुणों का नाश हो जाने पर प्रलय काल में आकाश की स्थिति की भांति आत्मा सर्वदा के लिए अपने स्वरूपमात्र में स्थित हो जाती है।12 अब न्यायदर्शन में प्रतिपादित मोक्षमीमांसा के स्वरूप का निरूपण इस प्रकार करते हैं-
न्याय दर्शन में मोक्ष सम्बन्धी विचार- सामान्यतः दुःखनिवृत्ति एवं तत्फलस्वरूप सुख-शान्ति की प्राप्ति ही मोक्ष है। परन्तु विशेष रूप से विचार करने पर सभी दर्शनों में मोक्ष के स्वरूप के विषय में यत् किंचिद् भेद मिलता है। न्याय दर्शन में प्रथम सूत्र में न्याय शास्त्र के प्रयोजन के रूप में ‘‘निःश्रेयस’’ शब्द आया है। इस निःश्रेयस शब्द का अर्थ ‘मुक्ति’ ही प्रसिद्ध है। परन्तु कल्याण व अभीष्ट अर्थ भी इसके द्वारा जाना जा सकता है। महाभारत में कल्याण अर्थ में निःश्रेयस शब्द का प्रयोग हुआ है।13
महर्षि गौतम ने न्यादर्शन के द्वितीय सूत्र में तथा अन्यान्य सूत्रों में मुक्ति के स्थान पर ‘अपवर्ग’ शब्द का प्रयोग किया है। न्यायसूत्र (1.1.22) में मोक्ष का लक्षण ‘तदत्यनतविमोक्षोऽपवर्गः’ (उस जन्म रूप दुःख से प्रत्यन्त अर्थात् पुनरावृत्ति रहित विमुक्ति मोक्ष है) इस प्रकार किया है। मोक्ष की स्थिति का निरूपण करते हुए, भाष्यकार वात्स्यायन का कथन है कि मोक्ष की स्थिति को प्राप्त कर लेने पर उपात्त-जन्म का त्याग हो जाता है तथा दूसरा जन्म ग्रहण नहीं करना पड़ता। यह मोक्षावस्था अविनाशी अपवर्ग स्वरूप है। यह अवस्था सर्वथा भयरहित, जरारहित, शाश्वत ब्रह्मस्वरूप एवं क्षेम (नित्यसुख) स्वरूप है।14
न्यायभाष्य में मोक्ष के लिए पांच विशेषणों का प्रयोग किया गया है- अभयम् (भयरहित), अजरम् (परिवर्तन रहित), अमृत्युपदम् (मृत्यु-रहित), ब्रह्म तथा क्षेम-प्राप्तिः (कल्याण-प्राप्ति)। इन पाँचों विशेषणों की वाचस्पतिमिश्र ने तात्प्र्यटीका में अत्यन्त सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की है। वाचस्पतिमिश्र के अनुसार ‘अभयम्’ के द्वारा यह द्योतित किया गया है कि मोक्ष की अवस्था में पुनर्जन्म का भय नहीं रहता, ‘अजरम्’ का प्रयोग यह दिखाने के लिए किया गया है कि मोक्ष उस ब्रह्म की अवस्था से भिन्न है जिसको कुछ लोग नाम-रूप के रूप में परिणत होता हुआ मानते हैं, तथा ‘अमृत्युपदम्’ का प्रयोग बौद्धो से भेद दिखलाने के लिए किया गया है क्योंकि निर्वाण में विज्ञानसंतति का विरोध हो जाता है। अंतिम दो विशेषणों ‘ब्रह्म’ तथा ‘क्षेमप्राप्तिः’ की व्याख्या नहीं की गई है। ‘ब्रह्म’ शब्द का प्रयोग मोक्ष के लिए संभवतः परम्परागत है किन्तु इसे वेदान्त की ब्रह्मरूपता से भिन्न मानना चाहिए। ‘क्षेमप्राप्तिः’ का तात्पर्य संभवतः दुःख निवृत्ति है।15
मोक्ष का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि यह दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति है। अर्थात् यह दुःखों का ऐसा नाश है कि भविष्य दुःखों का अनन्तकाल के लिए नाश है। न्यायसूत्र 1/1/2 पर भाष्य करते हुए वात्स्यायन कहते हैं कि जब तत्वज्ञान द्वारा मिथ्याज्ञान का नाश हो जाता है तो उसके फलस्वरूप सभी दोष समाप्त हो जाते हैं। दोषों के समाप्त होने से कर्म करने की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है। प्रवृत्ति के समाप्त हो जाने पर जन्म का बन्धन छूट जाता है। जन्म-मरण के चक्र के रुक जाने पर दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है। इसी स्थिति को ‘मोक्ष’ ‘अपवर्ग’ या ‘निःश्रेयस’ कहा गया है। यह दुःखनिवृत्ति अनात्यन्तिक और आत्यन्तिक भेद से दो प्रकार की होती है। अनात्यन्तिकी दुःखनिवृत्ति के समय सभी दुःख एक साथ निवृत्त नहीं होते। इन दुःखों का औषधि, पानादि उपचार करने पर भी पुनरावृत्ति हो जाती है जैसे कि दवा के सेवन से ज्वर उतर जाता है, परन्तु फिर से आने की आशंका बनी रहती है।
आत्यन्तिकी दुःखनिवृत्ति का अर्थ है इक्कीस16 प्रकार के दुःखों का सदा-सदा के लिए ध्वंस हो जाना। इन दुःखों से सर्वदा के लिए आत्मा का मुक्त हो जाना ही अपवर्ग हैं तदत्यन्तविमोऽक्षोपवर्गः’’ (1.1.22) इस सूत्र में ‘अत्यन्त’ पद का अर्थ है दुःख के कारण शरीरादि का पुनः उत्पन्न न होना, एवं शरीर का आत्मा के साथ संसर्ग न होना।
अपवर्ग में आत्मा का स्वरूप
‘अपवर्ग’ की अवस्था में आत्मा का शरीर, इन्द्रिय, विषय आदि से सम्बन्ध नहीं रहता। मोक्ष की दशा में आत्मा के बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग और विभाग इन 24गुणों का उच्छेद हो जाता है। कारण यह है कि यदि मोक्ष की अवस्था में आनन्द, सुखादि की उत्पत्ति मानी जाए तो ये गुण अनित्य हैं। इनकी उत्पत्ति मानने से युक्ति अनित्य मानी जाएगी। अतः मोक्ष को नित्य मानने से, मोक्ष की अवस्था में सभी आगन्तुक गुणों का उच्छेद मानना समीचीन प्रतीत होता है। मुक्त आत्मा में जिस प्रकार दुःख का अभाव होता है, उसी प्रकार आनन्द सुखादि का भी अभाव रहता है। मोक्ष की दशा में केवल आत्मा का शेष रह जाना है। मुक्ति की अवस्था में जो गुण आत्मा में नहीं रहते वे गुण आत्मा का स्वभाव नहीं हो सकते। सुखदुःखादि आत्मा के गुण हैं व गुण गुणी से भिन्न होते हैं। इसी कारण भिन्न वस्तु किसी तत्व का स्वभाव नहीं होती।
न्यायदर्शन में प्राचीनकाल से ही मोक्ष के विषय में दो धारायें चली आ रही हैं- (प) दुःखाभावरूप मोक्ष व (पप) नित्यसुखाभिव्यक्तिरूप मोक्ष।
दुःखाभावरूप मोक्ष
दुःखाभावरूप मोक्ष को मानने वाले आचार्यों ने ‘तदत्यन्तविमोक्षाऽपवर्ग’ (न्यायसूत्र 1/1/22) इस सूत्र के शब्दों का अर्थ केवल दुःखाभावमात्र स्वीकार किया। अर्थात् मोक्ष को एक अभाव पदार्थ के रूप में स्वीकार किया। इनके अनुसार मोक्ष केवल दुःखांे की निवृत्तिमात्र है। इस प्रकार ‘‘सुखमपि दुःखानुषड़्गाद् दुःखम्’’17 इस मत में विश्वास करने वाले आचार्यों ने मोक्ष की अवस्था में आत्मा के सुखादि समस्त धर्मों की सत्ता को अस्वीकार किया। इसके विपरीत जयन्तभट्ट का मानना है कि मोक्ष की स्थिति में न केवल दुःख का नाश आवश्यक है, अपितु आत्मा के अन्य समस्त विशेष गुणों ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष प्रयत्न, धर्म, अधर्म तथा संस्कार- इन सभी का नष्ट होना भी आवश्यक है, क्योंकि इनके नाश के बिना दुःखों का पूरी तरह नाश नहीं हो सकता।18
नित्यसुखभिव्यक्तिरूप मोक्ष
नित्य सुखाभिव्यक्तिरूप मोक्ष के मानने वाले आचार्यो ने मोक्ष को न केवल दुःखाभावमात्र स्वीकार किया् वरन् मोक्ष की अवस्था में नित्य सुख की अभिव्यक्ति को  भी स्वीकार किया। अर्थात् इन आचार्यो ने मोक्ष की भावरूपता पर भी निश्चयपूर्वक बल दिया। न्यायादर्शन के अनुसार मोक्ष के सम्बन्ध में यह विशेष रूप से देखा गया है कि वेदान्त के समान न्याय में मोक्ष की स्थिति सच्चिदानन्द की स्थिति हैः अपितु वह दुःखाभाव की स्थिति है। जो कि स्वभावतः सुख की स्थिति ही मानी जा सकती है। इस प्रकार न्याय-वैशेषिक दर्शन में मोक्ष की स्थिति को बताया गया हैं।
अब दोनों दर्शनों के उपरोक्त मोक्ष सम्बन्धी विचार का अध्ययन करने पर जो तथ्य समाने आते हैं। उनको प्रस्तुत कर रहे हैं।
1. वेदान्त-ब्रह्मात्मा, आनन्द व मोक्ष इन तीनों को एक ही मानता है, जबकि न्यायमत में‘ आत्मा’ धर्मी में ‘सुख’ धर्म की की नित्यसमवेतत्व माना गया है।
2. शंकराचार्य ने अद्वैत वदेान्त दर्शन में मोक्ष के लिए सुख शब्द का प्रयोग न करके शब्द का प्रयोग किया है।
3. मुक्ति की अवस्था में आत्मा में नित्य आनन्द की अभिव्यक्ति होती है, ऐसा कहने वाले वेदान्तियों की मुक्ति का उपहास करते हुए। नैयायिक कहते हैं कि जिस मोक्ष में कोई पदार्थ नहीं रहता, कोई विशेष गुण नहीं रहता है, उसमें नित्य आनन्द का अनुभव होता है यदि ऐसा माना जाए, तो इसकी अपेक्षा तो वृंदावन के हरे-भरें जंगलो में गीदड़ बनकर रहना ही अच्छा होगा। पर जिस मुक्ति में बिना ही किसी गुण या पदार्थ के आनन्द मिले व सुख की अनुभूति हो ऐसी वेदान्तियों की मुक्ति पर विश्वास नहीं किया जा सकता है19 इसी प्रसंग में भासर्वज्ञ ने भी न्यायभूषण में एक प्राचीन पद्य उद्धत किया है। जिसमें केाई वैष्णव-भक्त कहता है कि गौतम को भी अभावरूप मोक्ष अभिप्रेत नहीं था।
निष्कर्ष
भारतीय दर्शन का मोक्ष-चिन्तन एैसी विशेषता है जो उसे पाश्चात्य दर्शन से पृथक् करती है। त्रिविध दुःखों से सन्तप्त मानव जाति के लिए दुःखों से एकान्तिक व आत्यन्तिक निवृत्ति हेतु मोक्ष की सड्कल्पना प्रायः भारतीय दर्शन की समस्त विधाओं में किसी न किसी रूप मंे स्वीकार की गई है। जैसा कि बताया जा चुका है न्यायदर्शन में दुःखाभावरूप तथा नित्य सुखाभिव्यक्तिरूप मोक्ष। वैशेषिक तथा न्याय की मुख्य धारा में प्रचलित मोक्ष की अभावरूपता का जिस रीति से निराश किया गया है, वह भी रोचक सिद्ध होती है।
संदर्भ
1 ‘‘ब्रह्ा वेद ब्रह्मैव भक्ति’’- मुण्डकोपनिषद्, 3/2/9
2 ‘‘श्रुतयों मध्ये कार्यान्तरं वारयन्ति’’- शा0भाष्य0, 1/1/4
3 ‘‘मोक्षप्रतिबन्धनिवृत्तिमात्रमेव आत्माज्ञानस्य फलम्’’ -शा0भाष्य, 1/1/4
4 ‘‘इदं तु पारमार्थिकं, कूटस्थनित्यं, व्योमवत्, सर्वव्यापी, सर्वविक्रियारहितं, नित्यतृप्तं, निरवयवं, स्वयंज्योतिः स्वभावम्, यत्र कार्येण, कालत्रयं, नोपावर्तेत, तदेतत् अशरीरत्वं मोक्षाख्याम्।’’
-शा0भाष्य, 1/1/4
5 ‘‘नित्यश्च मोक्षः सर्वमोक्षवादिभिरुपगम्यते।’’ शा0भाष्य, 1/1/4
6 ‘‘तदा स्वकार्यकरणात् कर्मसमुच्छेदे तत्कार्यस्य शरीरस्य निवृत्तिः।’’
प्रशस्तपाद्भाष्य पर न्यायकन्दली, पृ0- 688
7 ‘‘तदभावे संयोगोभावोऽप्रादुर्भावश्य मोक्षः।’’ वैशेषिक सूत्र, 5/2/18
8 ‘‘यतोऽभ्युदयनिःश्रेयस सिद्विः स धर्मः।’’ वैशेषिक सूत्र, 1/1/2
9 ‘‘ज्ञानपूर्वकान्तु कृताद्सड़्कल्पितफलाद् विशुद्धे कुले जातस्य दुःखविगमोपायजिज्ञासोरा- चार्यमुपसड़्गम्योत्पन्नषट्पदार्थतत्वज्ञानस्याज्ञानिवृत्तौ विरक्तस्य रागद्वेषाद्यभावात् तज्जयो-धर्माधर्मयोरनुत्पत्तौ पूवसंचितयोश्चोपभोगान्निरोधे।’’ प्र0प्रा0भा0, पृ0- 682
10 ‘‘सन्तोषसुखं शरीरपरिच्छेदं चोत्पाद्य, रागादिनिवृत्तौ, केवलो धर्मः परमार्थदर्शनजं सुखं कृत्वा निवर्तते।’’- प्र0पा0भा0 पृ0- 211
11 ‘‘तदा निर्बीजस्यात्मनः शरीरादिनिवृत्तिः। पुनः शरीराद्यनुत्पत्तौ दग्धेन्धनानलवद् उपशमो मोक्ष।’’ प्र0पा0भा0, पृ0-211
12 ‘‘एके तावद् वर्णयन्तिसमस्यात्मविशेषगुणोच्छेदे संहारावस्थायामाकाशवदात्म-
नोऽत्यन्तावस्थानं मोक्ष इति।’’- न्यायभूषण, पृ0 594
13 ‘‘कच्चित् सहस्त्रैमूर्खाणामेकं क्रीणासि पण्डितम्।
पडितो ह्यर्थकृच्छ्रेषु कुर्यान्निः श्रेयसं परम्।।’’ महाभारत, सभापर्व, 5/35
14 ‘‘उपात्तस्य जन्मनों हानम्, अन्यस्य चानुपादानम्। एतामवस्थापर्यनतामपवर्गं मन्यन्तेऽपवर्गविदः। तद्भयम्, अजरम्, अमृत्युपदम् ब्रह्य, क्षेमप्राप्तिः।’’ न्यायभाष्य, 1/1/22
15 भारतीय दर्शन की प्रमुख समस्याएँ, पृ0 111
16 ‘‘स चैकविंशतिप्रभेदभिन्नस्य दुःखस्यात्मिन्तिकी निवृत्तिः।’’- तर्कभाषा, पृ0 330
17 न्यायवार्तिक, पृ0 6
18 ‘‘यावदात्मगुणाः पृ0 6
19 ‘‘यावदात्मगुणाः सर्वे नोच्छिन्न वासनादयः। तावदात्यन्तिकी दुःखव्यावृत्तिर्नावकल्यते।’’-
न्यायमंजरी, नवमाह्निक, अपवर्गपरीक्षा।
20 ‘‘नित्यानन्दानुभूतिः स्यान्मोक्षे तु विषयादृते।
वरं वृन्दावने रम्ये श्रृगालखं वृणोम्याहम्।।’’ - भारतीय दर्शन और मुक्ति मीमांसा, पृ0 197
21 ‘‘वरं वृन्दावने रम्ये श्रृगालत्वं वृणोम्यहम्।
न तु निर्विषयं मोक्षं गौतमों गन्तुमिच्छति।।’’- न्यायभूषण, पृ0 594
ग्रन्थसूची
1 केशव मिश्र, तर्कभाषा, संपा, गजानन शास्त्री मुसलगाँवकर, चैखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1992
2 गौतम, न्यायदर्शन, भाष्य-वात्र्तिक सहित, संपा, तारानाथ, न्यायतर्कतीर्थ एवं अमरेन्द्रमोहन न्यायतर्कतीर्थ, मंुशीराम मनोहर लाल पब्लिशर्स, दिल्ली, 1985, द्वितीय संस्करण।
3 वैशेषिक सूत्र- प्रशस्तपादभाष्य, श्रीधरकृत न्यायकन्दली सहित, संपा, दुर्गाधर, झा शर्मा, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, 1997, द्वितीय संस्करण।
4 भासर्वज्ञ, न्यायभूषण, संपा, स्वामी योगीन्द्रानन्द, षड्दर्शन प्रकाशन प्रतिष्ठान, वाराणसी, 1968।
5 जयन्तभट्ट, न्यायमंजरी, संपा, गौरीनाथ शास्त्री, संपूर्णानन्द, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, 1982।
6 उद्योतकर, न्यायवात्र्तिक, संपा, विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी, चैखम्भा प्रकाशन, वाराणसी, 1915
7 वादरायण, ब्रह्मसूत्र शारीरिक भाष्य सहित, संपा. स्वामी सत्यानन्द सरस्वती, वाराणसी, 1984।
8 वेदव्यास, महाभारत, सभापर्व, संपा, दामोदर सातवलेकर, स्वाध्याय मण्डल, पारडी, 1968
9 किशोरदास स्वामी, भारतीय दर्शन और मुक्ति मीमांसा, स्वामी रामतीर्थ मिशन, देहरादून, 1998
10 चन्द्रधर शर्मा, भारतीय दर्शनः आलोचना एवं अनुशीलन, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1995,
11 ईशादि नौ उपनिषद्, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2000



शरीर एवं चेतनाः एक अनुशीलन (ब्रह्माकुमारी अध्यात्म- विज्ञान तथा आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में)


सुरेश्वर मेहेर
शोध छात्र, विशिष्ट संस्कृत अध्ययन केन्द्र,
जे.एन.यू., नई दिल्ली

शरीर एवं चेतना से सन्दर्भित प्राच्य एवं पाश्चात्य की विभिन्न दार्शनिक चिन्तनधारा परिलक्षित होती आई है। पुनश्च वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी इस विषय के ऊपर अनेकविध मन्तव्य प्रकट किये गये है। प्रस्तुत लेख में आधुनिक शरीर क्रिया विज्ञान एवं व्यावहारिक ज्ञान के पुट को संयोजित करते हुए ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन  की ओर से एक विशेष अनुशीलन है, जिसमें भौतिक तत्व शरीर एवं चैतन्य शक्ति आत्मा के क्रियान्वयन के अन्तर को स्पष्ट तथा विवेचित किया गया है।

जीवित शरीर एवं चेतन्य आत्मा
ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान प्रतिपादन करता है- शरीर के अतिरिक्त एक ऐसी सत्ता है जिसकी तात्विक प्रकृति है- ‘चेतना’। यह अन्तर्विवेकशील सत्ता अपने ‘जीवित’ शरीर का उपयोग प्रत्यक्षण तथा क्रियाओं के उपकरणों के संयोजन के रूप में करती है। वह एक ‘जीवित’ शरीर के माध्यम से सुख तथा पीड़ा का अनुभव करती है एवं उसे ही ‘आत्मा’ संज्ञा दी जाती है। शरीर ‘जीवित’ रहता है और मृत्यु को प्राप्त करता है, किन्तु आत्मा सदैव जीवित रहती है। मनुष्य स्वयं  एक चैतन्य आत्मा है एवं उसका शरीर अभिव्यक्ति का एक अöुद माध्यम है।1
इस प्रसंग में वैज्ञानिकों द्वारा यह उद्घोषित किया गया है कि किसी जीवित प्राणी के मुख्य तीन गुणधर्म होते हैं- उपापचयन (डमजंइवसपेउ), संवृद्धि (ळतवूजी) एवं बहुुगुणन (डनसजपचसपबंजपवद)। प्राणी पर्यावरण से अणु संग्रहण करती है, स्वयं के पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक सामग्रियाँ प्रतिधारण करती है तथा उच्छिष्ट पदार्थाें का त्याग कर निरस्त कर देती है। वह अन्दर से वर्धित होती है तथा एक से दो होती हैं, इस प्रकार बहुगुणित होती रहती है। क्योंकि डी.एन.ए.2 (क्मवगल त्पइव.छनबसमपब ।बपक) अणुओं तथा जीनों (ळमदमे) के पास संवृद्धि का कूट (ब्वकम) या संवृद्धि की आयोजना होती है, वे प्रतिआकृतिकरण का द्विरूपकरण में सक्षम होते हैं इसलिए उसे ‘जीवन का अणु’ समझा जाता है। परन्तु डी.एन.ए एन्जाइमों (।द्रलउमे) अर्थात् डी.ए.एन. बहुकारक (च्वसलउमतमंेम) के बिना अकेले ही स्वयं का द्विरूपकरण नहीं कर सकता। स्व-द्विरूपकरण संपूर्ण अविकल कोशिका का एक गुणधर्म है; डी.एन.ए. अणु स्वयं ही परख-नली में जनन नहीं करते। इसके अतिरिक्त डी.एन.ए. स्वयं अपने एन्जाइमों का द्विरूपकरण नहीं कर सकता। इसलिए, डी.एन.ए जीवन के सामान्यतः लक्षणों को पूरा नहीं करता। डी.एन.ए. जीवित कोशिका के बाहर कार्य नहीं करता, बल्कि जीवित कोशिका के भीतर कार्य करता है।3
वैज्ञानिक जेम्स वाट्सन (श्रंउमे ॅंजेवद) अपनी पुस्तक4 में वर्णन करते हैं- ‘‘जीवन एक समन्वित रासायनिक क्रिया है।’’ किन्तु यह तथ्य बना रहता है कि समन्वित क्रिया तथा स्थितियों के माध्यम से जीवन निर्मित नहीं किया जा सकता है, बल्कि वह सामग्री निर्मित की जा सकती है जो जैव सामग्री के सदृश हो जिसे कोशिका-मुक्त तंत्र (ब्मसस.तिमम ेलेजमउ) कहते हैं। ए.टी.पी.5 (।कमदवेपदम ज्तपचीवेचींजम) के बाहर सक्रिय कारक एन्जाइमों, बहुकारकों तथा एटीपी को परख-नली में पाया जा सकता है एवं प्रोटीन संश्लेषण को देखा जा सकता है; किन्तु ये संरचनाये उपापचयन का कार्य कर सकती हैं, बढ़ सकती हैं तथा बहुगुणित हो सकती हैं तथापि ये स्वयं में जीवित रूप नहीं हैं।
वैज्ञानिकों द्वारा (सिडन्ी फाँक्स द्वारा प्रोटीनाॅएडों का संश्लेषण, अमीबा का संश्लेषण करने का प्रयत्न आदि) प्रयोग किये गये परीक्षणों से स्पष्ट होता है कि प्रोटीनों, डी.एन.ए. आदि जैसे अनेक महत्वपूर्ण संघटकों या घटकों को प्रयोगशाला में संश्लेषण किया जा सकता है तथा किसी ‘जीवित शरीर’ जैसी या सदृश किसी चीज को संश्लेषित किया जा सकता है, यद्यपि किसी परख-नली में जीवन के समरूप कोई चीज उत्पन्न नहीं की जा सकती है। नोबेल प्राइज विजेता रसायनज्ञ जेन्ट ग्योर्जी (ै्रमउज ळलवतपहप) ने स्पष्ट अभिहित किया हैः ‘‘जीवन के रहस्य की मेरी खोज में मुझे एटम और इलेक्ट्राॅन मिले, तथापि उनमें कदापि जीवन नहीं है। कहीं इस दिशा में जीवन मेरी अंगुलियों से निकल गया है। इसलिए अपनी वृद्धावस्था में मैं अपने कदमों को फिर से खोज रहा हूँ।’’6 इससे स्पष्टतः प्रकट होता है कि शरीर भौतिक संघटकों से निर्मित होता है। किन्तु वैज्ञानिक जो कुछ भी संश्लेषित कर सकते हैं उसमेें चेतना का अभाव है जो किसी जीवित प्राणी का आवश्यक लक्षण है। प्रोटोनाॅएडों या डी.एन.ए में सोचने, अनुभव करने या संवेगों तथा मनोभावों को अभिव्यक्त करने की योग्यता नहीं होती।7 ब्र.कु. जगदीश मत व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि अतः संक्षेप में यही कहा जा सकता है- पदार्थ दो प्रकार का होता है- 1. मृत पदार्थ (अजीव) तथा 2. जीवित पदार्थ (जीव)। जब पदार्थ किसी रासायनिक या जैव रचना की होती है तब वह उपापचय का कार्य करता है, बढ़ सकता है तथा बहुगुणित हो सकता है एवं वह पदार्थ चेतना के लिए अभिव्यक्त होने या कार्य करने का एक उपयुक्त माध्यम बन जाता है। उक्त पदार्थ की क्रियाशील मानव-कोशिका जीवद्रव्य (च्तवजवचसंेउ), केन्द्रक (छनबसमन), कोशिका सार (ब्लजवचसंेउ), गुणसूत्र (ब्ीतवउवेवउमे), डी.एन.ए. आदि सभी तत्वों के साथ-साथ ‘जीवित कोशिका (स्पइपदह ब्मसस) से समन्वित होती है। यद्यपि स्वयं उस पदार्थ अथवा कोशिका में चेतना का गुण नहीं होता है तथापि चेतना के प्रभाव के अंतर्गत आने से प्रतीत होता है उनमें चेतना का गुण है।8 क्यांेकि वस्तुतः चेतना का स्रोत जिसे ‘आत्मा’ कहा जाता है, पूर्णतः एक भिन्न अभौतिक व अपदार्थिक सत्ता है एवं उस अभौतिक सत्ता ‘आत्मा’ के संपर्क में रहने से वह पदार्थ (जीवित शरीर) चैतन्यमथ आभासित होता है।
इस प्रकाश में चिन्तन करने पर ‘जीवन’ भौतिक अस्तित्व की उस अवस्था को दिया गया नाम है जब किसी भौतिक तंत्र में आत्मा होती है और उसकी चेतना कार्यशील रहती है; भले ही वह निम्न मात्रा में क्रियाशील हो। अन्य शब्दों, में क्रियाशील शरीर की अवस्था या अवस्थाओं को ‘जीवन’ विशेषतः तब कहा जाता है जब उसमें कोई आत्मा निवास करती है, जबकि आत्मा एक अभौतिक सत्ता है और स्थूल शरीर को छोड़ देने के बाद भी उसका अस्तित्व हो सकता है या अस्तित्व की अवस्था या अवस्थायें हो सकती हैं।9
‘चेतना’ आत्मा के आवश्यक विशेषणों में से एक विशेषण है जिससे आत्मा के अस्तित्व की सूचना निर्विवाद रूप से प्राप्त होती है। चेतना अभिव्यक्त हो सकती है या सुप्त हो सकती है। इस अर्थ में यद्यपि जीवन तथा चेतना किसी भौतिक तंत्र में घनिष्ठता से सम्बद्ध हो सकते हैं तथापि उनके दो भिन्न अर्थ हैं। कोई शरीर कुछ समय के लिए जीवित शरीर10 में तब भी बना रह सकता है जब आत्मा ने उसे छोड़ दिया हो और वह वातावरण में विचरण कर रही हो। इस अवस्था में शरीर में चेतना नहीं होगी, फिर भी उसमें 3 स्वीकृत लक्षण हो सकते हैं। तथापि उसे पुनर्जीवित करने की किसी प्रक्रिया से सामान्य अवस्था में लाया जा सकता है और आत्मा भी पुनः लौट सकती है या उस माध्यम के जरिए स्वयं को अभिव्यक्त कर सकती है। यह समय इस पर निर्भर है कि कितनी देर तक कोई जीव (व्तहंपदपेउ) अपनी तीव्र स्वीकृत विशेषताओं या 3 क्रियाओं को कायम रख सकता है।11
पुनश्च ब्रह्माकुमार जगदीश अभिधान करते हैं कि इस सत्य को न जानने के कारण मुनष्य स्वयं को एक जीवित शरीर समझता है। वह इस सत्य को सहजता से  नजरअंदाज करता है कि वह एक ‘आत्मा’ है जिसके पास अनुभव करने, स्मरण करने तथा परखने की योग्यतायें हैं। किन्तु वह इन योग्यताओं को मन से सम्बद्ध करता है या उनका श्रेय मन को देता है, जिसके बारे में उनके पास कोई स्पष्ट विचार नहीं है या जिसे अज्ञानता के कारण एक सूक्ष्म भौतिक सत्ता या मस्तिष्क का एक कार्य मानता है। वस्तुतः ‘चेतना’ या ‘मन’ जिसकी अभिव्यक्ति, विचार, भावना, निर्णय आदि के रूप में होती है, शाश्वत है तथा शरीर से भिन्न है और मन या आत्मा अभौतिक सत्ता है जो मस्तिष्क में उपस्थित रहकर कार्य संपादित करती है।12
शरीर और चेतना: दो भिन्न वास्तविकतायें- ब्रह्माकुमारी दर्शन के अनुसार शरीर पदार्थ के तत्वों से रचित है। ‘चेतना’ न तो इन तत्वों का गुण है और न ही उनमें से किन्हीं भी तत्वों के संयोजन का गुण है। ‘चेतना’ अभौतिक या आध्यात्मिक सत्ता आत्मा की अन्तर्निहित एक शक्ति है। आधुनिक विज्ञान के प्रकाश में शरीर-क्रिया विज्ञान से यह ज्ञात होता है कि शरीर कोशिकाओं से निर्मित होते है एवं कोशिकायें अणुओं से निर्मित होती हैं। पुनश्च शरीर की कोशिकायें निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं और प्रायः सात वर्षो की अवधि में पुरानी कोशिकाओं में इतना अधिक परिवर्तन होता है कि उस अवधि में अन्त तक नई कोशिकाओं द्वारा उन कोशिकाओं को ‘प्रतिस्थापित’ कर दिया जाता है। इस प्रकार शरीर में वह एक भी कोशिका नहीं होती जो सात वर्ष पहले थी।13 इस प्रकार शरीर वही नहीं रहता जैसा कि वह 7, 14 या 21 वर्ष पहले था। बाल्यकाल में किया गया किसी व्यक्ति का अनुभव अथवा अन्य सभी घटनाओं के स्मरण से (जो हर वर्ष के पूर्व का पश्चात् में होता रहता है) स्पष्टतः सूचित होता है- सचेतन सत्ता ‘चेतना’ तथा ‘शरीर’ दो भिन्न सत्तायें है। यद्यपि शरीर आयु के साथ परिवर्तित होता है तथापि आत्मा अपनी अनन्यता व निरन्तरता कायम रखती है। इसके विपरीत किसी व्यक्ति को मात्र एक शरीर (मस्तिष्क सहित) समझा जाय तो उसकी निरन्तर अनन्यता तथा निरन्तर व चेतना के तथ्य की व्याख्या नहीं की जा सकती है क्योंकि उसके शरीर तथा मस्तिष्क की कोशिकाओं में सात वर्षो के पश्चात् बहुत अधिक परिवर्तन हो चुका होता है।14
इसके अतिरिक्त, ‘शरीर’ तथा ‘चेतना’ दोनों की पूर्णतः भिन्न-भिन्न वास्तविकता के स्वरूपों को प्रकटित करने के लिए सामान्य ज्ञान (जो स्पष्ट रूप से दैनन्दिन जीवन में अनुभूत होता रहता है) का आधार लेकर ब्र.कु. जगदीश चन्द्र उल्लिखित करते हैं- शरीर थक जाता है किन्तु चेतना थकती नहीं है, तथापि चेतना केवल ऊब सकती है। शरीर की भौतिक ऊर्जा निःशेष हो सकती है, किन्तु चेतना मानसिक, तात्विक या आध्यात्मिक ऊर्जा की अनिःशेषता का अनुभव कर सकती है और वस्तुतः वह ऊर्जा वर्षों के साथ बढ़ती है। शरीर वर्षों के बीतने से बूढ़ा हो जाता है, किन्तु मन केवल अधिक प्रज्ञावान तथा अधिक अनुभवी हो जाता है। हृदय जो शरीर का एक भाग है, आयु के बढ़ने के साथ कमजोर हो सकता है, किन्तु चेतना या मन की घृणा करने की या प्रेम करने की शक्ति बढ़ सकती है। इस प्रकार ये दो भिन्न सत्तायें हैं- शरीर, कोशिकीय तथा आणविक होने के कारण भौतिक है; किन्तु मन, चेतना या आत्मा- मानसिक, आध्यात्मिक, अतिभौतिक, आधिभौतिक, अभौतिक अथवा पराभौतिक सत्ता है।15
चेतना- मस्तिष्क से पृथक् सत्ता- जगदीश चन्द्र अपनी पुस्तक के ‘‘शरीर से बाहर का अनुभव’’ अनुभाग में दो अलौकिक विषयों (प्रजापिता ब्रह्माकुमारी संस्था के संस्थापक प्रजापति ब्रह्माबाबा16 और सर आॅकलैन्ड गेड्डे के जीवन से सम्बन्धित वृत्तान्त) का दृष्टान्त प्रदर्शित कर निष्कर्ष रूप में अतीन्द्रिय चेतना तथा मस्तिष्क सम्बन्धी मन्तव्य प्रकटित करते हैं- ‘चेतना’ आत्मा का ही अन्तर्निहित गुण है। आत्मा चेतना के माध्यम से ही कार्य करती है, किन्तु मस्तिष्क उस चेतना को परिसीमित कर देता है। मस्तिष्क उसे केवल त्रि-आयामीय वस्तुओं का अनुभव करने योग्य बना देता है, परन्तु शरीर के बहिर्भूत आत्मा बहु-आयामीय अनुभव अथवा अतीन्द्रिय दर्शन कर सकती है।
‘चेतना’ मस्तिष्क से पूर्णतः पृथक् है तथा अभिज्ञता की उच्चतर अवस्थाओं के साथ अशरीरी रूप में रह सकती है। वह अभिव्यक्त हो सकती है अथवा सुप्त भी रह सकती है। ‘चेतना’ कोई अनुघटन नहीं है, न ही कोई जैव-रासायनिक उत्पाद है और न ही मस्तिष्क के कार्य का परिणाम है। मनुष्य न केवल शरीर के बहिर्भूत सोच सकता है और अनुभव कर सकता है बल्कि देख भी सकता है और सुन भी सकता है। इसलिए विचार, प्रत्यक्षण, संकल्प, स्मृति आदि अमस्तिष्कीय कार्य हैं। सोचने तथा इच्छा करने का कार्य मस्तिष्क द्वारा नही किया जाता। संकल्प या इच्छा उस सत्ता से सम्बन्धित हैं जो शरीर के बाहर अस्तित्वमान रह सकती है तथा अन्तर्विवेकशील है। आत्मा अपने साथ अपने विचारों, अपनी भावनाओं तथा अपने कार्यों के संस्कार ले जाती है जो कि सुषुप्त हो सकते हैं या अभिव्यक्त हो सकते हैं।17
निष्कर्ष- इस प्रकार एक नवीन दृष्टिकोण के साथ अतीन्द्रिय आध्यात्मिक चेतना तथा जड़ देह के अंदर का विवेचन स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर मनुष्य को अपने लक्ष्य की ओर प्रगतिशील होने की प्रेरणा प्रदान किया है। यद्यपि मनुष्य अपने अनुभवात्मक ज्ञान का प्रयोग समयानुसार करता रहता है परन्तु ‘स्वयं’ का सत्य स्वरूप क्या है?- इस संदर्भ में अपने को सामान्य मानव-मात्र समझकर वह कार्य करने में अग्रसर होता रहता है जिससे उसकी स्थिति सदाकाल के लिए एकरस व सन्तुष्टता की नहीं रहती है। वास्तव में मनुष्य स्वयं एक अन्तर्विवेकशील चैतन्य सत्ता है जो कि देह का उपयोग कर अपने कार्यों का निष्पादन करता है। इस यथार्थ ज्ञान के अवबोध से ही उसका मानसिक दृष्टिकोण पूर्णतया परिवर्तित होकर एक श्रेष्ठ, मूल्यनिष्ठ समाज या संसार के नवनिर्माण में वह एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकता है।
सन्दर्भ
1ण् अवि.ना. भाग-1, पृष्ठ.-1
2ण् जीवित तथा निर्जीव पदार्थ के बीच यह डी.एन.ए., अणु एवं आर.एन.ए. (त्पइव.छनबसमपब ।बपक) सीमा रेखा निर्धारण करने के घटक तत्व है। डी.एन.ए. जीन से सम्बन्धित है जो वंशानुक्रमता का निर्धारण है जिससे शारीरिक व मानसिक लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाते हैं।
3ण् अवि. ना. भाग-1, पृष्ठ- 11-12
4ण् डवसमबनसंत ठपवसवहल व िजीम ळमदमए चचण् 282.292
5ण् ऊर्जा-संरक्षक व ऊर्जा-वाहक अणु जो विखण्डित होकर शरीर को शक्ति या ऊर्जा प्रदान करता है।
6ण् ठपवसवहल ज्वकंलए च्ण् गगपअ
7ण् अवि. ना. भाग-1, पृष्ठ 14
8ण् ‘जीवित सत्य’ एवं ‘जीवित शरीर’ दोनों भिन्न है। ‘जीवित सत्व’ का अर्थ है किसी क्रियाशील शरीर में एक आत्मा का अस्तित्व, जबकि ‘जीवित शरीर’ एक ऐसा शरीर है जो अपनी तीन विशेषताओं उपापचय, संवृद्धि तथा प्रजनन के साथ अस्तित्व में रहता है।
9ण् अवि. ना. भाग-1, पृष्ठ- 15-16
10ण् च्ेलबीवसवहलए चचण् 230.232
11ण् अवि. ना. भाग-1 पृष्ठ- 55-56
12ण् एक अ˜ुत जीवन कहानी, पृष्ठ- 24
13ण् अवि. ना. भाग-1, पृष्ठ- 40-45
14ण् श्रुण्वन्तु सर्वे अमृतस्य पुत्राः 1 ऋग्वेद
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1 प्रकृति, पुरूष तथा परमात्मा का अविनाशी नाटक, भाग-1 ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2003, तृतीय संस्करण
2 एक अ˜ुत जीवन कहानी, भाग-1 संपा, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र
3 भारतीय दर्शन में चेतना का स्वरूप, एस.के. सक्सेना, चैखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, 1969
4 ैबपमदबम ंदक ैचपतजनंसपजलए ठण्ज्ञण् श्रंहपेी ब्ींदकतंए ठतंीउंानउंतपे ॅवतसक ैचपतजपनजंस न्दअपमतेपजलए च्ंदकंअ ठींूंदए डवनदज ।इनए 1988ण्
5 च्ंतंससमसे इमजूममद ैबपमदबम ंदक त्मसपहवपद ंदक च्ीपसवेवचील ंदक ैबपमदबम. । ब्तपजपबंस त्मअपमूए ठण्ज्ञण् श्रंहकपेी ब्ींदकमतए डवनदज ।इनए त्ंरंेजींदए 1994ए 1ेजए मकपजपवदण्
6 क्व लवन ादवू लवनत त्मंस ैमसएि ठण्ज्ञण् श्रंहकपेी ब्ींदकमतए  डवनदज ।इनए त्ंरंेजींदए 1994
7 ज्ीम छमू टमकपब ैमसमबजपवदए ठण् ठण् ब्ींनइमलए ठींतजपलं टपकलं च्तंांेींदए टंतंदंेपए 1972ण्
8 च्ेलबीवसवहलए ।ददपम ठमेंदजए ज्ीमवेवचीपबंस च्नइसपेीपदह भ्वनेमएब्ंसपवितदपंए 1919ए
9 डलेजमतपमे व िजीम न्दपअमतेमए ठण्ज्ञण् छपजलंदंदक छंपतए च् ठ ज्ञ प् ट टए डवनदज ।इनए 2008ण्
10 स्सपमि ठमलवदक क्मंजीए ैूंउप ।इीमकंदंदकए त्ंउं ज्ञतपेीदं टमकंदजं डंजीए ब्ंसबनजजंए 1971ण्



पाश्चाŸय समीक्षकों की दृष्टि में महाकवि कालिदास


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        ,d vU; vk[;ku Hkh miyC/k gksrk gS] ftlds vuqlkj dkfynkl czkºe.k oa'k esa mRiUu gq, FksA 'kS'kokoLFkk esa gh vukFk gks tkus ls vkB o"kksZa rd ,d Xokys us mudk ikyu&iks"k.k fd;k] ijUrq ifjfLFkfro'k os fdlh Hkh izdkj dh dksbZ f'k{kk u izkIr dj ldsA ftl uxjh esa os jgrs Fks] ogkW ds jktk us viuh fonq"kh iq=h ds fookg&;ksX; oj dh [kkst esa vius vekR; dks fu;qDr dj j[kk FkkA ftlus jktdqekjh ds izfr izfrdkj dh Hkkouk ls mldk fookg ew[kZ oj ls djkus dk fopkj fd;kA la;ksxo'k xksi&ckydksa ds lkFk b/kj&m/kj ?kwers gq, mldh ew[kZ czkºe.kiq= ij mldh n`f"V iM+hA og mls lqUnj oL=kHkw"k.kksa ls vyad`r djds vusd uo;qod if.Mrksa ds lkFk jktnjckj esa ys vk;k] vkSj mls dk'kh ls vk;k gqvk egkif.Mr crkdj oSnq";ijh{k.k gsrq fuosnu fd;kA jktk dh vkKk ds vuqlkj vusd lHkk&if.Mr 'kkL=kFkZ&gsrq rS;kj gq,] fdUrq os lHkh mlds f'k";ksa }kjk ijkLr gks x,A rRi'pkr~ ml czkºe.k dqekj ds cqf)&ijh{k.k dk fopkj u djds jktdU;k ls mldk fookg lEiUu dj fn;k x;kA fdUrq dkykUrj esa mldh ew[kZrk ns[kdj jktdU;k cgqr la{kqC/k gqbZ] vkSj mlus mls dkyhnsoh dh mikluk ds fy;s izsfjr fd;kA mlus iRuh ds funsZ'kkuqlkj cM+h rUe;rk ls nsoh dh vkjk/kuk dh] vkSj nsoh dh d`ik ls fnO;&eU=k{kj izkIr djds leLr fo|kvksa esa ikjaxr gks x;kA blds ckn mUgksaus ml jktdU;k dks iRuh ds :i esa u ekudj ekrk ,oa xq: ds leku iwT; ekukA ftlls mlds Øq) gksdj L=h ds gh gkFk ls e`R;q gksus dk 'kki fn;kA23 mudk vf/kdka'k le; os';kvksa dh laxfr esa chrus yxkA ,d ckj jktk Hkkst us ,d 'yksd dk izkjfEHkd ikn cukdj ,d os';k ds ?kj dh nhokj ij fy[k fn;k24] vkSj mldh iwfrZ djus okys dks iqjLdkj nsus dh ?kks"k.kk dhA mlh os';k ds ;gkW dkfynkl us ;g ?kks"k.kk lqudj bl 'yksd dh ikniwfrZ djds mlh nhokj ij vkxs fy[k fn;kA fdUrq os';k us iqjLdkj ds yksHko'k mudh gR;k dj nhA25
        egkdfo dkfynkl ds izkjfEHkd thou] tUedqy ekrk&firk] L=h oa'kijEijk vkfn ds fo"k; esa fuf'pr izek.k ds vHkko esa i'pkr~ erksa esa dqN dg ikuk vlEHko gSA fdUrq dkfynkl dh jpukvksa dk losZ{k.k djus ij ;g Li"V dgk tk ldrk gS fd czkºe.k&laLd`fr ds mUuk;d ,ao iks"kd gksus ds dkj.k os Lo;a Hkh tUeuk czkºe.k rFkk f'koksikyd FksA Mk0 fejk'kh us mudh d`fr;ksa esa miyC/k oSfnd dYiukvksa ,ao ekU;rkvksa ds vk/kkj ij mUgsa czkºe.k tkfr dk crk;k gSA25 egkegksik/;k; gjizlkn 'kkL=h us mUgsa eUnlkSj&oklh dgrs gq, eUnlkSjk czkºe.k dgk gS] fdUrq 'kkL=h th dk ;g fopkj vf/kd lehphu ugha izrhr gksrk] D;ksafd eUnlkSj dh vis{kk mTtSu ds lkFk mudk vf/kd lEcU/k izrhr gksrk gSA26
        dkfynkl dh jpukvksa easa mfYyf[kr vkJe&O;oLFkk] xq:dqy fu;e] v/;;u Øe27] pkSng fo/kkvksa ds v/;;u&v/;kiu dk izfriknu]28  oSfnd Loj&foU;k; ;tqosZnh; &v'oes?kkfn ;fK; deZ rFkk czkºe.k&xzUFkksa ds vk/kkj ij dh xbZ vfody &dYiuk,W mudk osnfo|k esa ikjaxr gksuk iznf'kZr djrh gS29
4&    dkO;dyk %&
egkdfo dkfynkl dh dkO;dyk ds lEcU/k esa esDMksusy lkgc dk dFku gS fd ^^muds Hkko&lketaL; esa dgha Hkh fojks/kh Hkkouk,W ugha vkus ik;hA muds izR;sd vkosx esa dkseyrk gSA muds izse dk vkos'k dHkh Hkh lhekvkas dk mYya?ku ugh djrkA mUgksusa izseh dks lnk gh la;r] bZ";kZjfgr] ,ao ?k`.kk fo;qDr :i es afpf=r fd;k gSA dkfynkl dh dfork esa Hkkjrh; izfrHkk dk mRd`"V :i lekfo"V gSA muds dkO; esa ,slk lkeatL; gS] tks vU;= ns[kus dks ugh feyrkA30
5&    jpuk;sa %&
vkQzsDV egksn; viuh ^o`gRlaLd`r xzUFk lwph esa dkfynkl ds uke ls izpfyr yxHkx rhl&iSrhal xzUFkksa dh la[;k dk funsZ'k djrs gSA31 buesa ls dqN xzUFk rks dkfynkl ds uke ij x<+s gq, gS vkSj dqN lEHkor% ijorhZdkyhu dkfynkl uke/kkjh dfo;ksa }kjk  iz.khr gksaxsaA ^^vkj0Mh0 deZdj^^ us vk/kqfud [kkstksa ds vk/kkj ij dkfynkl dh d`fr;ksa dh ukekoyh vkSj mldk Øe bl izdkj fd;k gS ^^_rqlagkj] dqekj laHko ¼vkfn Hkkx½] ekyfodkfXufe=] dqekjlaHko ¼vfUre Hkkx½ foØeksoZ'khZ;] es?knwr] j?kqoa'k vkSjvfHkKku 'kdqUrye~32 fdUrq MkW mekjkuh f=ikBh us vius 'kks/k izcU/k esa dkfynkl ds jpukvksa dk Øe dqN bl izdkj fl) fd;k gS& _rqlagkj] dqekj lEHko es?knwr] j?kqoa'k ekyfodkfXufe=] foØeksoZ'kh;] vfHkKku 'kkdqUryA33
        bl izdkj 'ksDlih;j dgs tkus okys egkdfo dkfynkl] dks bl 'kks/ki= ds ek/;e ls izks0 eSDlewyj] QxqZlu] gkuZys] duZy foYQksMZ] tSdksch] esduj ch0,0 fLeFk] ,0ch0 dhFk] eSDMksusy] foUVjfuRl ,ao ih-oh- dk;ksZa tSls vusd ik'pkR; leh{kdksa ds ererkUrjksa ds vk/kkj ij egkdfo dkfynkl ds oS;fDrd thou ,oa mudh jpukvksa dk lekdyu fd;k x;kA
lUnHkZ xzUFk lwph
1-   gkuZys rFkk QxqZlu dk er& Dykfldy laLd`r fyVªspj ,e0 d`".kekpkjh i`0 106] 107
3-     Mk0 dsuZ rFkk Hk.Mkjdj dk er&Dykfldy laLd`r fyVªspj &,e0 d`".kkpkjh i`0 109
4-     izks0 ih0lh0 lsuxqIrk dk er& fejk'khd`r dkfynkl] i`0 27
5-     ih0oh0 dk.ks dk er& Dykfldy laLd`r fyVªspj & ,e0 d`".kekpkjh  i`0 108
6-     ih0oh0 dkos dk er& Dykfldy laLd`r fyVªspj i`0 89] 90
7-     ukosy rFkk ihVjlu dk er&7oha 'krh bZ0 nz"VO; dkfynkl n'kZu] f'koizlkn Hkkj}kt]Hkkx1 i`0 36
8-     egkdfo dkfynkl dh nk'kZfudrk & mekjkuh f=ikBh i`0 12
9-     fejk'khd`r dkfynkl i`0 20
10-    nz0& izks0 yslka dk er& Dykfldy laLd`r fyVªspj &,e d`".kekpkjh i`0 100
11-    nz0 & izks fejk'kh d`r dkfynkl i`0 31&38
12-    vfHkKku 'kkdqUrye~ MkW fu:i.k fo|kyadkj i`0 17
13-    izks0 dhFk ds "A History of Sanskrit Literature" dk fgUnh Hkk"kkUrj  MkW eaxynso 'kkL=h 1960
14-    vfHkKku 'kkdqUrye~ & MkW0& fu:i.k fo|kyadkj i`0 21
15-    nz0 fxjk'khd`r dkfynkl i`0 53&57
16-    izks0 y{eh/kj dYyk fn oFkZ Iysl vkWQ dkfynkl
17-    F.G. Peterson- A Note on Kalidasa - Journal of Royal Assiatic Society-1927   P. 726
18-    According to Majumdar "Home to Kalidasa' Indian Antiquary XLVII 264,
19-     Hari  Prasad Sastri Kalidash, his home says his birth Place was Dasapura in Malwa.
20   foUVjfuRl &Hkkjrh; lkfgR; dk bfrgkl Hkkx&3 1 i`0 60-
21-    vYQzsUM fgysczk.V&dkfynkl rFkk fVIi.kh ua& 2 M.T. Marsinhienger-Indian Antiquary Vol. 39. P236
22-    deys deyksRifUr% Jw;rs u rq n`';rsA
23-    ckys ro eq[kkEHkksts dFkfeUnhoj}e~AAA
24-     R.V. Tullu-Traditionary Account of Kalidash -Indian Antiquary Vol. 7, 1879 P. 115
25-    Mk0 fejk'kh d`r dkfynkl&i`0 69
26-    Mk0 fejk'kh d`r dkfynkl i`0 69
27-    j/kqoa'k&1@35&95
28-    j/kqoa'k&5@21
29-    vYQzsM fgysczk.V&dkfynkl bUVªksMD'ku] i`0 5]6-
30-    ,0,0 eSDMksuy & , fgLVªh vkWQ laLd`r fyVjspj i`0 353
31-    Mk0 fejk'kh d`r dkfynkl i`0 087
32-    vkj0Mh0 deZdj fn Øksuksykftdy vkMZj vkWQ dkfynklkt oDlZ] izkslhfMaXl vkWQ lsdsM vksfj,.Vy dkUÝsUl i`0 238
33-    egkdfo dkfynkl dh nk'kZfudrk& mekjkuh f=ikVh i`0 35


कालिदास की दृष्टि मंे अष्टमूर्ति शिव का स्वरूप


MkW0 nso ukjk;.k ikBd                            MkW0 lquhy dkUr frokjh
izoDrk] laLd`r foHkkx                                 izoDrk] xzke fodkl dWkyst]

usg: xzke Hkkjrh fo'ofo|ky;] bykgkckn                    [kqVgu] tkSuiqj

        laLd`r lkfgR;kdk'k dh T;ksfreZ;h ijEijk dks vejRo iznku djus okys] dforkdkfeuhdkUr] dfodqydeyfnokdj] Hkkjrh; laLd`fr ds vuo| xk;d dkfynkl ds dkO; esa ,ds'ojokn dk fl)kUr v"VewfrZf'ko dh ifjdYiuk esa izfrQfyr gq;s gSaA v"VewfrZ f'ko ls dY;k.k dkeuk djrs gq;s dfo dgrs gSa fd&
;k l`f"V% Lkz"Vqjk|k ogfr fof/kgqra ;k gfo;kZ p gks=h]
;s }s dkya fo/kRr% Jqfrfo"k;xq.kk ;k fLFkrk O;kI; fo'oe~A
;kekgq% loZchtizd`frfjfr ;;k izkf.ku% izk.koUr%]
izR;{kkfHk% izi=LruqfHkjorq oLrkfHkj"VkfHkjh'k%AA1
        vFkkZr~ tks fo/kkrk dh izFkek l`f"V vFkkZr~ tye;h ewfrZ gS] tks fof/kiwoZd gou dh xbZ lkexzh dks ogu djus okyh vFkkZr~ vfXu:ik ewfrZ gS] tks gou djus okyh vFkkZr~ ;teku:ik ewfrZ gS] tks nks dkyksa dk fo/kku djus okyh vFkkZr~ lw;Z ,oa pUnz :ik ewfrZ gS] Jo.ksfUnz; dk fo"k; vFkkZr~ 'kCn gh gS xq.k ftldk] ,slh tks lalkj dks O;kIr djds fLFkr gS vFkkZr~ vkdk'k :ik ewfrZ] ftls lEiw.kZ chtksa dh izd`fr dgk x;k gS vFkkZr~ i`Foh :ik ewfrZ rFkk ftlls lHkh izk.kh izk.kksa ls ;qDr gksrs gSa vFkkZr~ ok;q:ik ewfrZ&bu izR;{k :i ls n`f"Vxr gksus okyh ewfrZ;ksa ls ;qDr ^f'ko* vki bu vkBksa ewfrZ;ksa dks /kkj.k djus okys f'ko ,d gSa vkSj f'ko ds bl Lo:i dk lcls egRoiw.kZ rRo ;g gS fd budk izR;sd :i izR;{k dk fo"k; gSA ge tks dqN ns[k ldrs gSa] tks dqN tku ldrs gSa og lc f'koLo:i gh gSa ;gkW ge ek= ladsr dj nsuk pkgrs gSa fd dkfynkl dk dkO; dk'ehj 'kSo n'kZu ds fopkjksa ls vuqizkf.kr gSA bl v};oknh n'kZu ds vuqlkj ,d ek= f'ko dh gh lRrk gS] f'ko ls O;frfjDr dqN Hkh ughaA ;g lEiw.kZ l`f"V f'ko dk gh vkReizlkj gS] u mlls jfgr vkSj u mlls brjA f'ko gh ,d ek= vk/kkj gS] ftldk LiUnu leLr izkdj ds Hksnksa dk dkj.k gSA og gh izekrk vkSj izes;] Kkrk vkSj Ks; vkfn :iksa es voHkkflr gks jgk gS&
rsu 'kCnkFkZfpUrklq u lkoLFkk u ;% f'ko%A HkksDrSo HkksX;Hkkosu lnk loZ= lafLFkr%AA2
        ,d gh rRo dk vusd :iksa esa voHkklu mldk ijekFkZ gS] ogh Lo;a dks czkg~ek.M ds :i esa izdV djrk gS rFkk fofHkUu voLFkkvksa dks /kkj.k djus ij Hkh vius ;FkkFkZ Lo:i ls P;qr ugha gksrk gSA ;gkW ij Hkh bl v"VewfrZ dh vo/kkj.kk esa ;g ckr Li"V gS fd gekjk lEiw.kZ i;kZoj.k f'koe; gSA i`Foh] ty] vfXu] ok;q] vkdk'k&;s iapegkHkwr] lw;Z vkSj pUnz rFkk ;KdrkZ&;s vkB f'ko ds :i gSA
       ty:ik ewfrZ&lz"Vk dh loZizFke jpuk bls ekuk x;k gSA l`f"V dh vfHkyk"kk ls ;qDr gks fo/kkrk us ty dh jpuk dj mlesa cht dk fu{ksi fd;k] ftlls LFkkoj vkSj taxe leLr l`f"V dk vfoHkkZo gqvkA euqLe`fr esa Hkh dgk x;k gS& ^vi ,o lltkZ··nkS rklq chteokl`tr~A3 dqekjlEHko esa Hkh dfo us loZizFke ty:ik l`f"V ds jps tkus dh ckr dgh gS&
;neks?keikeUr:Ira chtet Ro;kA vr'pjkpja fo'oa izHkoLrL; xh;lsAA4
        bl izdkj ty leLr thou dk] leLr txr~ dk vk/kkj gSA thou ds vk/kkjHkwr rRo esa :i esa ty ds egRo dks fl) djus dh vko';drk ugha vkt vko';drk bl ckr dh gS fd f'ko dh ;g izFkeewfrZ&vf'ko] veaxydkjh iznw"k.k ls ;qDr u gksA D;ksafd f'ko ;fn thou dk vk/kkj gS rks vf'ko thou dk vi?kkrd vkSj bl vf'ko dkjd rRo ls txr~ esa is; ty] lajf{kr Hkwfexr ty vkSj of/kZ";ek.k o`f"Vdkjd ty lHkh esa ladV dh fLFkfr vuqHkwfrxE; gSA
       vfXu:ik ewfrZ&vfXu dks nsorkvska dk eq[k dgk x;k gS&^vfXueq[kk oS nsok%* D;ksafd nsorkvksa rd gO; dks igq¡pkus dk ek/;e vfXu gh gSA _Xosn esa ;Kh; vfXu dks ;teku dk vk'kqnwr dgk x;k x;k gS tks ;K esa fu;ekuqlkj iznku dh x;h gO; lkexzh dks ¼4]12]1½ nsorkvksa rd igq¡pkrk gS ¼1]1]4½A ;gh vfXu dh gO;okgd uke dh lkFkZdrk gSA vfXu fof/kiwoZd gsrq lkexzh dk gh ogu djrh gSA vfXu ds fcuk l`f"V :i ;K vlEHko gSA vfXu ÅtkZ dk izrhd gSA tBjkfXu ¼'kkjhfjd ÅtkZ½ cMokfXu ¼tyh; ÅtkZ½ vkSj nkokfXu :i lkekU; vfXu dh vis{kk ;Kh; vfXu esa f'koRo dh LFkkiuk dk vk'k;&bl ÅtkZ ds leqfpr laj{k.k ,oa mi;ksx ds fy;s iz;Ru'khy jguk gSA
        vfXu dh gO;ogdrk ds dkj.k _Xosn esa es?k dks Hkwfe dks r`Ir djus okyk rFkk vfXu dks |wyksd dks r`Ir djus okyk dgk x;k gS& Hkwfea itZU; ftUofUr fnoaftUoUR;Xu;%AA5 dkfynkl us Hkh j?kqoa'k esa fof/kiwoZd fd;s x;s gou ls tyo`f"V dh ckr dgh gS&
gfojkoftZra gksrLRo;k fof/konfXu"kqA o`f"VHkZofr lL;kukeoxxzgfo'ksf"k.kke~AA6
        _XoSfnd dkyhu nsorkvksa dks fuoklLFkku ds vk/kkj ij rhu dksfV;ksa esa j[k x;k gS |q%LFkkuh;] vUrfj{k LFkkuh; vkSj i`Foh LFkkuh;A buesa i`Foh LFkkuh; rst :i nsork vfXu gSA
       gksr`:ik ewfrZ&dkfynkl us ekuo dks l`f"V ;K ds ^;teku* in ij izfrf"Br fd;k gSA euq"; dk gkssr`Ro i;kZoj.kh; n`f"V ls vR;Ur egRoiw.kZ gSA vkt ds i;kZoj.kh; leLr vlarqyu vkSj rn~ tU; ladV ds ewy esa ekuo dk gksr`Ro ls Hkksä`Ro esa i;Zolku gSA ;|fi ;g lR; gS fd ;K ds Qy dk Hkksäk ;k vf/kdkjh Hkh ;teku gh gksrk gS fdUrq bl Hkksä`Ro ds iwoZ mls ;K esa R;kx vkSj fu%LokFkZ leiZ.k ds lkFk lfØ; ;ksxnku nsuk gksrk gSA euq"; dk gksr`Ro mldh deZfu"Bk esa fufgr gSA
        dkfynkl ds bl v"VewfrZ Lo:i esa lE;d~ voyksdu ls ;g Li"V gS fd euq"; Hkh bu vkBewfrZ;ksa esa ,d gS( ,slk ugha fd og bu lcesa loksZifj gS] vfirq lHkh leku gSaA euq"; ds gkFk ls yksd eaxy dk fo/kku rHkh gks ldsxk tc og bl lekurk dks g`n; ls vaxhdkj dj ysA l`f"V ds d.k&d.k esa f'ko dk okl eku ysus ij equ"; vkRe'yk?kk dh pdkpkS/k ls fudy ldsxkA ifj.kker% izd`fr ds izfr lkgp;Z ,oa lg&vfLrRo ds Hkko dk fodkl ljyrk ls gks ldsxkA bl vU;kU;ksfJrRo dks vkRelkr~ dj ysus ij ekuo loZ LokfeRo ds feF;kfHkeku ls foeq[k gksdj i;kZoj.k ds izfr vius nkf;Ro dk fuokZg dj ldsxkA HkksxsPNk dk lEcU/k jtksxq.k ls gS] tSlk fd xhrk esa dgk x;k gS&
yksHk% izo`fÙkjkjEHk% deZ.kke'ke% Li`gkA jtL;srkfu tk;Urs foo`)s Hkjr"kZHkAA9
 blhfy;s dkfynkl v"VewfrZ f'ko ls izkFkZuk djrs gSa fd&
v"VkfHk;ZL; d`RLua txnfi ruqfHkfcZHkzrksa ukfHkeku%]
lUekxkZyksduk; O;iu;rq l oLrkelha o`fRreh'k%AA
        loZekaxY; ¼f'ko½ dh Hkkouk gh relksUeq[kh ekuoh o`fRr ij fu;a=.k dj ldrh gSA ,slk gksus ij izd`fr HkksX;k ugha jg tkrh] ifj.kker% fpRr dk fodkj] fpRr ds foLrkj esa :ikUrfjr gks tkrk gSA ;K djrs gq;s fnyhi10 rFkk n'kjFk11 dks dkfynkl us v"VewfrZ f'ko ds ,dka'k ds :i esa of.kZr fd;k gSA
       lw;Z ,oa pUnz:ik ewfrZ&HkkSfrd RkRoksa ls cuh izd`fr ns'k dh jpuk djrh gS vkSj v[k.M dky dks vgksjk= ds :i esa foHkkftr djus okyh lw;Z ,oa pUnz:ik ewfrZ gSA i`Fohry ij fnol dk fo/kk;d] _rqfoi;Z; dk dkjd ] ÅtkZ] m"ek rFkk izdk'k dk ewylzksr lw;Z gS] ftlls i;kZoj.k ds fofo/k rRo& rkieku] izdk'k] ÅtkZ] tyok;q] ouLifr] izkf.koxZ vkfn lHkh izHkkfor gksrs gSaA
       vkdk'k:ik ewfrZ&vkdk'k ls rkRi;Z 'kwU; LFkku ls gSA vkdk'k dh lRrk dk Kku mlds xq.k 'kCn ds }kjk gksrk gS&^'kCnxq.kdekdk'ke~A rPpSda foHkq fuR;a pA13 vkdk'k fuR; gS] lEiw.kZ fo'o dks O;kIr djds fLFkr gS] bldk izR;{k Jo.ksfUnz; ds }kjk gksrk gSA dkfynkl us iUpegkHkwrksa esa vU;ksa dk ifjp; muds xq.k ds ek/;e ls ugha fn;k gS fdUrq vkdk'k dks mlds xq.k ds ek/;e ls vfHkO;Dr djus ds ewy esa LkEHkor% ;g Hkko fufgr gS fd vU; rRoksa dk nw"k.k rks mUgsa rRoksa dks fod`fr dj nsrk gS ;Fkk tyiznw"k.k] ok;qiznw"k.k vkfn fdUrq 'kwU; vkdk'k esa mRiUu gqvk fodkj mlds xq.k&'kCn dk nw"k.k djrk gSA 'kCn ;k /ofu dk nw"k.k vkt i;kZoj.kh; xEHkhj leL;k ds :i esa ns[kk tk jgk gSA vkdk'k ds f'koRo dh vfHkj{kk ds fy;s vkdk'k dks /ofu iznw"k.k fofueqZDr djuk gksxkA
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रघुवंश महाकाव्य में दिलीपस्य गोसेवा प्रसंग



ऋषि देव त्रिपाठी
(उप प्रधानाचार्य)
ईश्वर शरण कालेज इलाहाबाद (उ.प्र.)


महाकवि कालिदास संस्कृत-साहित्य के पुरुष है। कालिदास की नैसर्गिक वाणी में भावतत्व एवं शिल्प तत्व दोनों की अद्वितीय मुखरता हे। रघुवंश महाकवि का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। इस काव्य में कवि की परिपलव प्रज्ञा तथा प्रौढ़ प्रतिभा का अद्भुत साम×जस्य है। प्रस्तुत काव्य के कई प्रसंड्. हृदयावर्जक है। जैसे रघु की दिग्विजय-यात्रा, इन्दुमती स्वयंवर, अज-विलाप, दशरथ की मृगया, लंका विजय के बाद भगवान् राम का अयोध्यागमन इत्यादि। किन्तु राजा दिलीप की गोसेवा प्रसंग उपर्युक्त प्रसंग से कहीं अधिक रमणीय एवं भावोद्वेलक है। यह प्रसंग रघुवंश के द्वितीय सर्ग में प्राप्त होता है।
संतानहीनता से दुःखी राजा दिलीप वशिष्ठ ऋषि की आज्ञानुसार सपरनीक कामधेनु की पुत्री नन्दिनी गाय की सेवा में प्रवृत्त होते है। प्रातः काल होते ही रानी सुदक्षिणा ने नंदिनी को चंदन का टीका, पुष्पों की माला आदि से पूजित किया। तत्पश्चात् राजा उसे जंगल में चरने के लिए छोड़ देते है। पतिव्रताओं में अग्रणी रानी सुद्रक्षिणा नन्दिनी के खुरों के रखने से पवित्र धूलि वाले मार्ग का उसी प्रकार अनुसरण करती है, जैसे मन्यादि स्मृतियां वेदार्थो का अनुसरण करती है। जंगल के मार्ग से राजा ने अपनी पत्नी और अनुचरों को वापस कर दिया और स्वयं नंदिनी की सेवा में तत्पर हो गये।
राजा नंदिनी को कोमल-कोमल स्वादिष्ट घास उखाड़कर खिलाते हैं, उसके शरीर को खुजलाते हैं-सहलाते हैं, बिना किसी रुकावट के उसे स्वच्छन्द घूमने फिरने देते हैं। उसके रुक जाने पर स्वयं रुक जाते हैं,  जल पीने पर जल पीते हैं। इस प्रकार वे छाया की तरह उसका अनुसरण करते हैं-
‘‘आस्वादवद्भिः कवलैस्तृणानां कण्डूयनैः दंशनिवारवैश्च ।
अव्याहतैः स्वैरगतैः स तस्याः सम्राट् समाराधनतत्परोऽभूत् ।।
स्थितः स्थितामुच्चलितः प्रयातां निषंदुषीमासन बन्धधीरः ।
ज्लाभिलाषी जलमाददानां छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत् ।।’’2
यहा सेवा भाव का सुन्दर निदर्भव हैँ, भारतीय संस्कृति की उदान्त भावना साकार हो उठी है। वस्तुतः यहाँ कथ्य का सरल वर्णन है, कल्पना का स्पर्श तक नहीं, किन्तु कवि की इसी वर्णना के चमत्कार ने उसे कवि कुलगुरू बना दिया।
दिनभर बन मे नन्दिनी की सेवा करने के बाद जब राजा आश्रम लौटते हैं, तो वहां का दृश्य देखते ही बनता है। उपमा सम्राट् कवि ने क्या खूब रंग-रेखाओं से चित्रांकन किया है। देखें-
पुरस्कृता वत्र्मनि पार्थिवेन प्रत्युद्गता पार्थिवधर्मवस्या।
तदन्तरे सा विरराज धेनुः दिनक्षपामध्यगतेव सन्ध्या ।3
गौर वर्ग के राजा दिलीप कपिशवर्गा नंदिनी को आगे किये हुए हैं, सांवली सुदक्षिणा गाय की अगवानी कर रही हैं। ऐसे में वह गाय दिन और रात के बीच जिस प्रकार संध्याकाल की शोभा होती है, उसी प्रकार सुशोभित हो रही है।
इस प्रकार राजा दिलीप और उनकी पत्नी दोनों नित्य नन्दिनी की सेवा में लगे रहे। 21 दिन बाद दिलीप की दृढ़भक्ति जानने के लिए नन्दिनी स्वयं हिमालय की एक गुफा में पहुुंच जाती है, जहां एक सिंह नन्दिनी को दबोच लेता है। राजा दिलीप उस सिंह को मारने के लिए तरकश से बाण निकालना चाहते है, किन्तु उनका हाथ वहीं बंध जाता है। ऐसे में किन्तु उनका हाथ वहीं बंध जाता है। ऐसे में वह सिंह राजा को आश्चर्य में डालते हुए मनुष्य वाणी में कहता है-
‘‘अलं महीपाल! तव श्रमेण प्रयुक्तमप्यस्त्रमितो वृथा स्यात्।
         न पादपोन्मूलनशक्तिरंहः शिलोच्च्यते मूच्र्छति मारूतस्था।।’’
अर्थात हे राजन्! आपका श्रम व्यर्थ है। अतः रहने दीजिए, क्योंकि मेरे ऊपर चलाया हुआ अस्त्र भी वैसे ही व्यर्थ होगा, जैसे पेड़ो को उखाड़ने की शक्ति रखने वाले वायु का वेग पर्वत के विषय में व्यर्थ होता है।
सिंह यह बताता है कि वह शिवजी के एक गण का मित्र कुपभोदर है, जिसको शिवजी ने पार्वती के पुत्रभाव से पाले गये एक देवदास बृक्ष की रक्षा के लिए इस गुफा में नियुक्त किया है। तदन्तर सिंह और राजा संवाद चलता है। राजा अपने शरी से सिंह की तृप्ति का प्रस्ताव रखता है। तथा नन्दिनी को छोड़ने की बात करता हे। सिंह राजा के जीवन का लोभ करता है। सिंह राजा को लोभ दिखाता है। वह कहता है कि एक गाय के लिए तुम इतने सुन्दर शरीर का त्याग क्यों कर रहे हो? किन्तु राजा अपनी बात पर दृढ़ रहता है, वह अपने शरीर को सिंह के सामने समर्पित कर देता है। तत्पश्चात् राजा दिलीप के ऊपर विद्याधरों द्वारा फूलों की वर्षा होने लगती है। तथा नन्दिनी द्वारा राजा को यह बताया जाता है कि वह माया उत्पन्न कर उसकी परीक्षा ले रही थी । नंदिनी ने राजा की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दे दिया।
सन्दर्भ संड्.केतः
1. ‘‘अथ प्रजानामधियः प्रभाते जायाप्रति ग्राहितगन्धमाल्याम्।
बनाय पीतप्रतिबद्ववत्सां यशोधने धेनुमृषेर्मुमोच ।।
तस्याः खुरन्यास पवित्र पांसुमपंसुलानां धुरि कीर्तनीया।
मागें मनुष्यनेश्वरधर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थं स्मुतिरन्रवगच्छत् ।।’’
‘रघुवंश’, 1.1-2, कालिदास, चैखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, वि.सं. 2051, पृष्ठ - 35-36
2. वही, 2.5-6, पृष्ठ 37-38
3. वही, 2.20, पृष्ठ 43
4. वही, 2ण्34, पृष्ठ 47


उपेन्द्रनाथ ‘अष्क’ के नाट्य साहित्य में अभिनय, रंगमंच और रस


डा0 (श्रीमती) शषि वर्मा
प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
वी0वी0इ0 कालिज, शामली जिला- मुजफ्फरनगर

उपेन्द्रनाथ अष्क के नाटकों में चारों प्रकार के अभिनय की आयोजना की गयी हैं। ‘जय-पराजय’ से लेकर भॅंवर तक की नाट्य यात्रा में अभिनय के विविध रूप परिलक्षित होते हैं। उपेन्द्रनाथ ‘अष्क’ के नाटक पठनीय भी हैं और रंगमंच पर अभिनीत भी। अष्क के नाटकों में भी विभिन्न मानवीय भावनाओं के माध्यम से रस निष्पत्ति की गयी हैं। शान्त, करुण, वीर रस की छटा उनके नाटको में परिलक्षित होती हैं। यहाॅं संक्षेप में अष्क जी के नाटकों में रस योजना और रस निष्पत्ति का अध्ययन करेंगे -

          ‘जय-पराजय’ नाटक ऐतिहासिक कथानक को लेकर लिखा गया नाटकीय, आख्यान हैं, जिसका अंगीरस हैं- ‘वीर रस’ राणा लक्षसिंह का नारियल स्वीकृति का निर्णय, चण्ड का संघर्ष और फल प्राप्ति का उद्देष्य- ऐसे घटनात्मक प्रतिफल हैं, जिसमें नाटक की रस योजना का सम्पूर्ण रूप निखर उठता हैं।  राणा लक्षसिंह का निम्न कथन उनकी वीरत्व भावना का पोषक हैं-‘‘मैं विचारक सुधारक अथवा प्रबन्धक कुछ भी नही। मैं तो केवल सिपाही हॅूं, तलवार पर भरोसा रखने वाला, बात पर कट मरने वाला, राजपूत सिपाही हॅूं।’’1 निश्चय ही प्रस्तुत नाटक का ताना-बाना सुनियोजित ढंग से बनाया गया हैं, जिसमें शान्त, श्रृंगार और वीर रस की छटा प्रतिबिम्बित होती हैं। राघव और भारमली के प्रेम में श्रृंगार तो हंसाबाई और चण्ड के प्रसंग में जुगुप्सा का भाव निहित हैं। इसप्रकार नाटकीय रस चेतना की दृष्टि से यह एक सफल नाटक हैं।2
‘पैंतरे’ नाटक सामान्य जीवन की चतुराई और उद्देष्य प्राप्ति की सफलता पर आधारित नाटक हैं, जिसमें शान्त रस की सुन्दर आयोजना हुई हैं। नाटक के सभी पात्र फिल्म में काम पाने के उद्देष्य से निदेषक की मनुहार करते हैं, सेवा चाकरी करते हैं, आधुनिक अकर्मण्य पुरुष समाज की सोच, समझ, मनुहार करने की प्रवृत्ति और सुविधाओं से सम्पन्न अभिजात वर्गीय जीवन जीने की लालसा का सुन्दर चित्रण इस नाटक में किया गया हैं।3
‘बड़े खिलाड़ी’ नाटक में सुजला की शादी की समस्या मूल प्रष्न हैं, जो केवल की दहेज लोलुपता के कारण पूर्ण होने से पहले टूट जाती हैं। बड़े खिलाड़ी का प्रारम्भ जीवन के नैराष्य से प्रारम्भ होता हैं- ‘‘मैं क्या कहॅूं डैडी से, जिन्होंने मुझसे पूछा तक नही और बात चला दी।’’4 सुजला की पीड़ा का अन्त तब होता हैं, जब पं0 पाराषर जी केवल से सुजला की शादी का प्रस्ताव रद्द कर देते हैं। प्रस्तुत नाटक में जीवन की सहजात गतिविधियों का निरूपण हैं। जिसमें निराषा, अवसाद, पीड़ा, कष्ट, सहिष्णुता, विवषता के साथ जीवन के इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति का हर्ष भी हैं। इस नाटक में करुण रस के साथ शांत रस की सुन्दर आयोजना हैं।
‘अंजो-दीदी’ नाटक का श्री गणेष जीवन की स्वर्णिम कल्पना के साथ-साथ होता हैं। अंजो अपने आदर्ष और व्यवस्था के अनुरूप अपने परिवार को चलाने में असमर्थ रहती हैं। फलतः असमय संसार से विदा हो जाती हैं। उनका आदर्ष उनके पति वकील साहब को अन्त तक सालता रहता हैं। अंजो के पति वकील इन्द्रनारायण का कथन हैं- ‘‘नही भाई, अंजो की मौत के बाद मैने कसम खा ली थी, कि अब मैं न पियॅूंगा। न मैं चोरी से पीने लगता, और न वह मरती।’’5 संघर्ष, व्यथा, वेदना और असफल जीवन की दारुण स्थिति का अवसाद नाटक में शोकमय वातावरण की सृष्टि करता हैं। इस नाटक का अंगीरस हैं-करुण।
‘कैद’ नाटक में अप्पी की आत्मा जीवन पर्यन्त छटपटाती रहती हैं। प्राणनाथ का समर्पण और स्नेह उसके मन को जीतने में असमर्थ ही रहता हैं। वह दिलीप को आजीवन भूल नही पाती। नाटक का प्रारम्भ भी अप्पी के वेदनापूर्ण कथन से होता हैं- ‘‘आजादी की आग में जलकर कुंदन बन गये तुम और न टूटने वाली बेडि़याॅं मेरे पाॅंव में बॅंधती चली गयी।’’6 प्रस्तुत नाटक में छटपटाहट, बैचेनी और अप्राप्ति का भटकाव हैं। अप्पी आजीवन इस दर्द से छटपटाती रहती हैं।7
          ‘उड़ान’ नाटक में मदन माया का इच्छित पुरुष हैं जो साहसी और पुरुषार्थी हैं। शंकर क्रूर और निर्दयी है। लेकिन रमेष भावुक कवि-हृदय कल्पना लोक का पुरुष हैं। माया के जीवन की विडम्बना हैं कि वह किसका वरण करे। नाटक का प्रारम्भ करुणा-जनित हैं और अन्त में माया मदन की वास्तविकता को जानकर अत्यन्त दुःखी होती हैं और स्वयं अपने अस्तित्व की रक्षा करती हैं। माया का कथन- ‘‘मतलब तुम मुझसे प्रेम नही करते जाओ! तुम अपने रास्ते चले जाओ इस बर्बर षिकारी से मैं स्वयं निपट लूॅंगी।’’8 नाटक का अन्त भी अत्यन्त करूणाप्रद हैं। इसलिये इस नाटक का अंगीरस भी करुण रस हैं।
‘भॅंवर’ नाटक की प्रतिभा प्रोफेसर नीलाभ के व्यक्तित्व से प्रभावित हैं। अन्य पात्रों में ज्ञान, जगन, हरदत्त, निर्मल और नीहार के व्यक्तित्व में उसे नीलाभ का प्रतिबिम्ब परिलक्षित नही होता हैं। वह इसी पीड़ा से त्रस्त आजीवन कुमारिका ही बनी रहती हैं- उसकी पीड़ा- ‘‘हरेक आदमी अपने खोल के अन्दर महज एक बच्चा हैं।’’9 प्रतिभा अन्त में स्वयं अपनी सोयी हुई व्यथा से पीडि़त और दुखी दिखाई देती हैं और सोचती हैं- ‘‘अपनी खोल के भीतर क्या मैं भी सिर्फ एक बच्ची हॅूं, बच्ची जो चाॅंद को चाहती हैं और खिलौने से जिसकी तसल्ली नही होती।’’10 प्रस्तुत कथन में प्रतिभा की आन्तरिक पीड़ा का निदर्षन हुआ हैं। इसप्रकार प्रस्तुत नाटक शोकपूर्ण भावो की पुष्टि करने वाला करुण रस से आप्लावित हैं।
‘अलग-अलग रास्ते’ नाटक में रानी का जीवन चित्र करुण रस से परिपूर्ण हैं। वहीं उसकी बहन राज अनेक कष्ट सहकर भी अपने पति के घर जाने के लिये सहर्ष तैयार हो जाती हैं- ‘‘मैं आपके पाॅंव पड़ती हॅूं, पिताजी मुझे इसी घड़ी भेज दीजिए। मेरे देवतातुल्य ससुर को और अपमानित मत कीजिए।’’13 राज के इस निर्णय में जीवन की अपरिमित शांति निहित हैं। निष्चय ही ‘‘अलग-अलग रास्ते’’ नाटक में करुण और शान्त रस की अभिव्यक्ति हुई हैं।
‘‘स्वर्ग की झलक’’ शांत रस प्रधान नाटक हैं। इसमें मध्यवर्गीय परिवार के जीवन की परिस्थितियों और घटनाओं का विवरण हैं। रघु के सामने समस्या हैं कि वह षिक्षित लड़की से विवाह करे या अषिक्षित से इस जटिल प्रष्न को सुलझाने में ही उसे जीवन में कुछ कटु और सरस जीवन सन्दर्भों का अनुभव होता हैं। जिसका निदान एक कम पढ़ी लिखी, संस्कारित लड़की से पाणिग्रहण करने में होता हैं। ‘छठा बेटा’ नाटकीय कौषल से परिपूर्ण अद्वितीय नाटक हैं। यह नाटक पं0 बसंतलाल के परिवार के विभिन्न व्यक्तियों की भावनाओं, जीवन स्थितियों और घटनाओं का निरूपण करते हुए जीवन की सहज प्राणधारा का निरूपण करता हैं। इसमें हास्य, व्यंग्य और विनोद के अनेक स्थल हैं। पारस्परिक संघर्ष एंव उनके पुत्रों की समस्या हैं। व्यंग का एक चित्र ‘‘डा0 लुम्बा...‘‘आपरेषन जो वह करता हैं, उनमें से 75 प्रतिषत सीधे स्वर्ग के पासपोर्ट सिद्ध होते हैं।’’13
इस प्रकार अष्क जी के नाट्य षिल्प की सबसे बड़ी विषेषता यह हैं कि वे पात्रों के मनोविज्ञान को समझकर उसी जीवन स्थिति को कुषल पात्रों के माध्यम से रंगमंच पर प्रस्तुत करने में पूर्ण समर्थ हैं। सम्प्रेषण की यह क्षमता ही नाटक में रस की सृष्टि करती हैं। अतः ये नाटक पठनीय ही नही, मनुष्य की व्यथा और वेदना से जोड़ने वाले सम्प्रेषणीय नाटक भी हैं।
1. जय-पराजय, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1986 पृ0सं0 54
2. जय-पराजय, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1986 पृ0सं0 121
3. पैंतरे, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1967 पृ0सं0 59
4. बड़े खिलाडी, भार्गव प्रकाषन इलाहाबाद सन् 1969 पृ0सं0 61
5. अंजो-दीदी, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1995-1996 पृ0सं0 111
6. कैद, लोक भारती प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1972 पृ0सं0 65
7. कैद, लोक भारती  इलाहाबाद-1 सन् 1972 पृ0सं0 74
8. उड़ान, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1972 पृ0सं0 151
9. भॅवर, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1961, पृ0सं0 111
10. अलग-अलग रास्ते, राका प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1963 पृ0सं0 89
11. अलग-अलग रास्ते, राका प्रकाषन इलाहाबाद-1सन् 1963 पृ0सं0 124
12. अलग-अलग रास्ते, राका प्रकाषन इलाहाबाद-1सन् 1963 पृ0सं0 118
13. छठा बेटा, नीलाभ प्रकाषन इलाहाबाद-1 सन् 1971 पृ0सं0 91