डाॅ0 चन्द्रभूषण दुबे
सहायक प्रोफेसर- वाणिज्य विभाग,
नेहरू ग्राम भारती विश्वविद्यालय कोटवा- जमुनीपुर, इलाहाबाद (उ0प्र0)
इक्कीसवीं सदीं में भारत को अधिक एकीकृत, प्रतिस्पर्धी और व्यापारिक अवसरों के सन्दर्भ में ठोस रूप में रूपान्तरित विश्व अर्थव्यवस्था का सामना करना है। विभिन्न राष्ट्रों के बीच विद्यमान अधिकांश व्यापारिक अवरोध घट रही हैं, पूॅजी, श्रम और प्रौद्योगिकी की आवाजाही बढ़ रही है। इस बदलते अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में भारत को किस तरह से तैयार होना है, यह भारत के व्यावसायिक प्रबन्धकों और साथ ही साथ भारत के नीति- निर्धारकों के सामने केन्द्रीय महत्व के विषय हैं, जिन पर इस लेख मे विचार किया गया है है।
प्रबन्ध के सम्मुख चुनौतियाॅ
यह स्पष्ट है कि वैश्विक बाजार का विस्तार होने तथा व्यापार व वाणिज्य पर लगे संरक्षाणात्मक अवरोधों के हटने से, भारतीय अर्थव्यवस्था के भावी विकास पर अत्यधिक असर पड़ रहा है। हालांकि इनसे व्यापारिक अवसरों मे वृद्धि होगी, किन्तु भारतीय उद्योगों को मिल रहे संरक्षणात्मक लाभों में कमी आयेगी, जिनका कि इनके विकास में महत्वपूर्ण योगदान हैं। घरेलू और विश्व बाजार दोनों जगहों पर भारत की योग्यता इस बात पर निर्भर करेगी कि अन्य देशों की तुलना में यहाँ कितनी प्रतिस्पर्धात्मक सबलता है।
21वीं सदी मंे राष्ट्रों की प्रतिस्पर्धात्मक सबलता के स्रोत व इसकी प्रकृति वही नहीं रहेंगी जो 19वीं सदी में और 20वी सदी के प्रारम्भ मे रहे हैं। पहले वे राष्ट्र व्यवसाय के क्षेत्र में अग्रणी हुआ करते थे जो प्रमुख वैज्ञानिक अविष्कारों के कारण प्रतिस्पर्धा में आगे रहते थे, क्योंकि तब वैज्ञानिक आविष्कारों के फैलाव की गति धीमी हुआ करती थी। नई सदी मे वैज्ञानिक आविष्कार अकेले पूँजी पर आधारित नहीं होंगे और न ही ये कुछ देशों तक सीमित रहेंगे। आज प्रौद्योगिकी का रूप बदल गया है। यह हार्डवेयर के रूप में न होकर बन्धन- मुक्तावस्था वाले प्रौद्योगिकी ;कपेमउइवकपमक जमबीदवसवहलद्ध है। जो राष्ट्रों की सीमा पार कर त्वरित चलायमान होते हैं और प्रौद्योगिकी अंतराल को मिटाते हैं। आज के समय में और आने वाले वर्षो में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे नेतृत्वकारी स्थिति के अतिरिक्त, फर्मो के व्यूहरचनात्मक व्यवहार, वैश्विक वातावरणीय परिवर्तनों के अनुरूप स्वयं को ढालने और विभिन्न केन्द्रिय क्षेत्रों में अपनी सक्षमता को उन्नत बनाने की योग्यता पर राष्ट्रों की प्रतिस्पर्धात्मक सबलता निर्धारित होगी।
पिछडे़ रहने वाले देशों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा मंे टिके रहने के लिए अपनी बचत और निवेश को बढ़ाना होगा। भारत के सम्मुख यह केन्द्रीय मुद्दा है। प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए निवेश पर बल देने के साथ-साथ उत्पादकता पर भी ध्यान देना होगा। उत्पादकता को बढ़ाये बिना दीर्घकालीन विकास को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। प्रौद्योगिकीय प्रगति, नवाचार और मानवीय कौशल- विकास में कुछ प्रभुत्वमूलक ताकतें हंै जो किसी अर्थव्यवस्था के दीर्घकालीन विकास तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में बने रहने में सहायक होते हंै।
आज की खुली विश्व-अर्थव्यवस्था के वातवारण में आर्थिक क्षेत्र मंे टिके रहने और आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि शासन या सरकार द्वारा उन सार्वजनिक नीतियों को अपनाया जाये जिससे कि फर्मो की प्रतिस्पर्धात्मक कुशलता बढ़े और निवेशकों में विश्वास पैदा हो। जैसे-जैसे विश्व बाजार एकीकृत होता जा रहा है वैस-वैसे बंद वित्तीय प्रणाली की तुलना मंे अब इन सार्वजनिक नीतियों की निष्क्रियता घातक बन सकती है।
परिवर्तन के मझधार मंे भारत-
भारत शुरू से ही न सिर्फ स्वतन्त्र व्यापार मंे शामिल रहा है बल्कि उसे अनेक वस्तुओं के विश्व-व्यापार मंे प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त भी हासिल थी। उपनिवेशकाल में भी भारत की प्रतिस्पर्धात्मक सबलता बनी रही, लेकिन यहाॅँ पर आधुनिक प्रौद्योगिकी और सुसंगठित बाजार का अभाव रहा है। उन्नीसवीं सदी के अधिकांश दशकों तक तथा बीसवंीं सदी के प्रारम्भ तक भारत ने निर्यात-आधिक्य बनाये रखा। ऐसा तब था जबकि औद्योगिक शैक्षणिक व प्रशासनिक ढाँचा धीमी गति से स्थानान्तरित हो रहीं थी। स्वतंन्त्रता के बाद इसमें गति आयी। हाल के वर्षों में प्रबंध की चुनौतियाँ स्वतंत्रता के पा्ररम्भ के वर्षाें से भिन्न प्रकार की है, औद्यागिक लाइसेंस व नियन्त्रण प्रणाली के विघटित होने, विदेशी निवेश व प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण में उदारीकरण होने, वित्तीय क्षेत्र का विनियमन होने तथा प्रशुल्क घटाये जाने से घरेलू संरक्षण में कमी होने के साथ अर्थव्यवस्था में बाजार की ताकतों की भूमिका लगातार बढ़ रही है। औद्योगिक क्षेत्र को आन्तरिक व वाह्य दोनों प्रकार की प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा हे। परिणामस्वरूप फर्मो में पुनर्संरचनात्मक की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी, और इसके लिए फर्म की मूलभूत सक्षमता व दीर्घकालीन सबलता, व्यूहरचनात्मक साझेदारी, बाजार- व्यूह- रचना तथा शोध का विकास को ध्यान मंे रखा जा रहा है। यह परिवर्तन निजी व सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों में देखा जा सकता है। उद्योगों मंे प्रौद्योगिकी, तकनीकी कौशल, तथा लागत प्रतिस्पर्धत्मकता की दृष्टि से बढ़त बनाने के प्रति जागरूकता बढ़ी है। उद्यमी और प्रबन्धकों के दृष्टिकोण मंे बदलाव आया है। अब वे उपभोक्ताओं की पसंदगी, अग्रगामी नियोजन और बाजार-अंश को बढ़ाने में सहायकशील व्यूहरचनाओं केा महत्व लगे हैं।
आर्थिक उदारीकरण के समय में उपभोक्ता केन्द्रित प्रबन्ध-संस्कृति फल-फूल रही है। इसलिए अब फर्मो को उन्नत बनाने के लिए ‘चुनाव’ और ‘वैयक्तिक पहल’ मूलमंत्र है। इस दृष्टि से सरकार की भूमिका बदली है। भारत ने अपने आर्थिक प्रबन्ध के दीर्घ इतिहास में कई क्षेत्रों में सबलता अर्जित की है। इनमें सुदृढ़ व वैविध्यपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र का अविर्भाव, खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता, उच्च शिक्षा में निरन्तर उन्न्ति शामिल है। देश में वित्तीय, कानूनी और निगमित शासन की दृष्टि से समुचित रूप में संस्थानात्मक आधारभूत ढाॅचे का विकास हुआ है। कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था की संवृद्धि को अच्छा कहा जा सकता है। घरेलू बचत और निवेश की दरें ऊँची है। हाल के वर्षो में उत्पादकता में भी सुधार आया है, हालांकि अभी इसमे दीर्घकालीन सुदृढ़ता के संकेत नहीं है।
प्रबन्ध की चुनौतियाँ-
वैश्विक चुनौतियों के सन्दर्भ में ‘पेशेवरशीलता’ को राष्ट्रीय मानदण्ड के रूप में अनदेखी नहीं की जा सकती है। प्रतिस्पर्धा की प्रकृति ऐसी होती है कि यह दुर्बल को सबल से अलग करती है। खुली विश्व-अर्थव्यवस्था में इस बात का महत्व अत्यधिक है। पश्चिमी राष्ट्रों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में सर्वाधिक बढ़त पेशेवर मानदण्ड के क्षेत्र में प्राप्त है- चाहे ग्राहकों या दावेदारो से व्यवहार करने का मामला हो अथवा गुणवत्ता प्रमापों व व्यावसायिक प्रभावशीलता का मामला हो। वे इसमें बहुत आगे हैं। पेशेवरशीलता का निर्माण दो तत्वों से होता हैः व्यक्तिवादी लक्ष्यों जैसे मूल्यों के प्रति आदर तथा परस्पर भरोसा और एक समूह या फर्म की संगठनात्मक प्रभावशीलता, जो इन वैयक्तिक विशेषताओं का सामूहिक रूप से उपयोग करती है।
पेशेवरशीलता और संगठनात्मक प्रभावशीलता को उन्नत बनाने की बात निजी व सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों पर समान रूप से लागू होती है। इस दृष्टि से भावी प्रतिस्पर्धात्मक को आकार देने में सामाजिक मूल्यों की भूमिका हो सकती हेै। भारतीय व्यावसायिक प्रबन्धों के सम्मुख एक और चुनौती यह है कि उन्हें संरक्षणात्मक छाते से बाहर निकलकर खुले व्यापार के लिए तैयार होना है। वैश्विक व्यापार समझौते के अन्तर्गत प्रशुल्क दरों को और घटाया जाना है और इसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लाया जाना है। इसके लिए भारतीय उद्योग को लोचशीलता दिखानी होगी। अपने परिचालनों मंे विवधता लानी होगी ताकि वे प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त प्राप्त कर सकें। महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए फर्मो को अपनी आन्तरिक सबलता का निर्माण करना है। इसके लिए उन्हें नियोजन में दीर्घकालीन दृष्टि को समावेशित करना तथा बाजार में अपनी अनूठी सुदृढ़ता का विकास करना होगा। खुली विश्व अर्थव्यवस्था मंे प्रतिस्पर्धात्मकता और कुशलता को प्रोत्साहित करने वाली सार्वजनिक नीतियों को प्राथमिकता देनी होगी। यहाॅ पर सरकार की भूमिका विश्वास उत्पन्न करने वाले एजेन्सी के रूप में उभरती है। एक तो उन नीतियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जो निवेशकों एवं बचतकर्ताओ की अनिश्चितताओं व जोखिम को घटाती हो। इस दृष्टि से वित्तीय क्षेत्र की सुरक्षा के लिए अर्थव्यवस्था में आन्तरिक व बाहा्र स्थायित्व को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था को समष्टिगत अर्थशास्त्रीय आधार सुदृढ़ है। यह निम्न मुद्रास्फीति दर, भुगतान- सन्तुलन के चालू खाते मे कम होते घाटे की स्थिति, वित्तीय क्षेत्र में विश्वसनीय मानदण्डों को होना आदि तथ्यों में प्रदर्शित होती है। इन मूलाधारों का अधिक एकीकृत हो रही विश्व अर्थव्यवस्था में अत्यधिक महत्व है।
सरकारी नीति- प्राथमिकता की दृष्टि से दूसरा क्षेत्र भौतिक आधारभूत संरचना मे निवेश को बढ़ाने की बात है। शक्ति, परिवहन और संचार को उन्नत बनाये बिना दीर्घकालीन प्रतिस्पर्धात्मक सबलता प्राप्त करने की बात सोचना अर्थहीन है। इसके लिए निजी और सार्वजनिक दोनों प्रकार के निवेश की आवश्यकता है। समूचे विश्व में आधारभूत संरचना के देशों में इसमे सार्वजनिक क्षेत्र से अधिक निजी क्षेत्र को शामिल करना अब समय की माॅग है।
नई सदी की चुनौतियों का सामना करने हेतु नीति- निर्धारण का एक तीसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र सामाजिक आधारभूत ढाॅचे का निर्माण करना है। वैश्विक के प्रतिस्पर्धात्मक दबावों का मुकाबलों करने की हमारी क्षमता इस बात पर निर्भर है कि मानवीय पूँजी की उत्पादक कुशलता को कहाँ तक बढ़ा पाते है। स्थायी आर्थिक संवृद्धि का सम्बन्ध श्रम-शक्ति की उत्पादक कुशलता से जुड़ा है। श्रम-शक्ति, उत्पादक-कुशलता पर्याप्त पोषाहार स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल-निर्माण व अन्य मूलभूत मानवीय आवश्यकताओ से प्रभावित होती है। दुनिया की कई सफल कहानियों में भौतिक व मानवीय पॅूजी में उच्च निवेश किये जाने की बात प्रदर्शित होती हे। पिछले अनेक वर्षो के विकास प्रयासों के दौरान भारत में जीवन की सामान्य गुणवत्ता उन्नत हुई है। लेकिन यदि हम वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिके रहना चाहते है तो इस ओर और अधिक ध्यान देने की जरूरत है।
निष्कर्ष- भारत ने सैकड़ों वर्षो के इतिहास को पार कर इतिहास के विभिन्न चरणों पर अनेक कठिन चुनौतियों का मुकाबला किया है और अनेक उपलब्धियाँ भी प्राप्त की है। भारत मंे सुदृढ़ औद्योगिक आधार, उच्च शिक्षित व तकनीकी-कौशल कर्मी, उन्नत प्रौद्योगिकीय सक्षमता, उद्यमी कौशल तथा कानून के शासन सहित परिपक्व लोकतन्त्र विद्यमान है। नई सदी में प्रबंध की चुनौतियाँ प्रौद्योगिकी, संगठनात्मक पुनर्संरचना, कौशल विकास और सार्वजनिक नीति के क्षेत्र में है। हांलाकि, भारत की इन क्षेत्रों में वर्तमान स्थिति आकर्षक है, किन्तु इस सदी की चुनौतियों का विश्वासपूर्वक सामना करने हेतु इन्हें और सुदृढ़ करने की जरूरत है। खुली विश्व अर्थवव्यवस्था मंे प्रतिस्पर्धात्मक सबलता का सापेक्षिक महत्व होेता है। भारत के पास कौशल है और यह प्रौद्योगिकी, उद्योग व सेवा के क्षेत्र मे नये अवसरों का अधिकतम लाभ उठा सकता है।
संदर्भ ग्रन्थ
1. डाॅ0 रमन कुमार दबे-‘वैश्वीकरण और भारतीय अदर्थव्यवस्था-2005’ आर0बी0एस0 पब्लिसर्स, जयपुर
2. हीरा सिंह वर्मा-‘प्रबंध सकल्पनाएँ-2009’, राज पब्लिसिंग हाउस, जयपुर
3. डाॅ0 एस0के0 सिंह-‘प्रबंध के सिद्धान्त 2006’ प्रयाग पुसतक भवन, इलाहाबाद
4. त्ण्।ण् ैींतउं.श्ैजतंजमहपब डंदंहमउमदज प्द प्दकपंद बवउचंदपमेश्ए क्ममच च्नइण् क्मसीप
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