Sunday 2 October 2011

रघुवंश महाकाव्य में दिलीपस्य गोसेवा प्रसंग



ऋषि देव त्रिपाठी
(उप प्रधानाचार्य)
ईश्वर शरण कालेज इलाहाबाद (उ.प्र.)


महाकवि कालिदास संस्कृत-साहित्य के पुरुष है। कालिदास की नैसर्गिक वाणी में भावतत्व एवं शिल्प तत्व दोनों की अद्वितीय मुखरता हे। रघुवंश महाकवि का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। इस काव्य में कवि की परिपलव प्रज्ञा तथा प्रौढ़ प्रतिभा का अद्भुत साम×जस्य है। प्रस्तुत काव्य के कई प्रसंड्. हृदयावर्जक है। जैसे रघु की दिग्विजय-यात्रा, इन्दुमती स्वयंवर, अज-विलाप, दशरथ की मृगया, लंका विजय के बाद भगवान् राम का अयोध्यागमन इत्यादि। किन्तु राजा दिलीप की गोसेवा प्रसंग उपर्युक्त प्रसंग से कहीं अधिक रमणीय एवं भावोद्वेलक है। यह प्रसंग रघुवंश के द्वितीय सर्ग में प्राप्त होता है।
संतानहीनता से दुःखी राजा दिलीप वशिष्ठ ऋषि की आज्ञानुसार सपरनीक कामधेनु की पुत्री नन्दिनी गाय की सेवा में प्रवृत्त होते है। प्रातः काल होते ही रानी सुदक्षिणा ने नंदिनी को चंदन का टीका, पुष्पों की माला आदि से पूजित किया। तत्पश्चात् राजा उसे जंगल में चरने के लिए छोड़ देते है। पतिव्रताओं में अग्रणी रानी सुद्रक्षिणा नन्दिनी के खुरों के रखने से पवित्र धूलि वाले मार्ग का उसी प्रकार अनुसरण करती है, जैसे मन्यादि स्मृतियां वेदार्थो का अनुसरण करती है। जंगल के मार्ग से राजा ने अपनी पत्नी और अनुचरों को वापस कर दिया और स्वयं नंदिनी की सेवा में तत्पर हो गये।
राजा नंदिनी को कोमल-कोमल स्वादिष्ट घास उखाड़कर खिलाते हैं, उसके शरीर को खुजलाते हैं-सहलाते हैं, बिना किसी रुकावट के उसे स्वच्छन्द घूमने फिरने देते हैं। उसके रुक जाने पर स्वयं रुक जाते हैं,  जल पीने पर जल पीते हैं। इस प्रकार वे छाया की तरह उसका अनुसरण करते हैं-
‘‘आस्वादवद्भिः कवलैस्तृणानां कण्डूयनैः दंशनिवारवैश्च ।
अव्याहतैः स्वैरगतैः स तस्याः सम्राट् समाराधनतत्परोऽभूत् ।।
स्थितः स्थितामुच्चलितः प्रयातां निषंदुषीमासन बन्धधीरः ।
ज्लाभिलाषी जलमाददानां छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत् ।।’’2
यहा सेवा भाव का सुन्दर निदर्भव हैँ, भारतीय संस्कृति की उदान्त भावना साकार हो उठी है। वस्तुतः यहाँ कथ्य का सरल वर्णन है, कल्पना का स्पर्श तक नहीं, किन्तु कवि की इसी वर्णना के चमत्कार ने उसे कवि कुलगुरू बना दिया।
दिनभर बन मे नन्दिनी की सेवा करने के बाद जब राजा आश्रम लौटते हैं, तो वहां का दृश्य देखते ही बनता है। उपमा सम्राट् कवि ने क्या खूब रंग-रेखाओं से चित्रांकन किया है। देखें-
पुरस्कृता वत्र्मनि पार्थिवेन प्रत्युद्गता पार्थिवधर्मवस्या।
तदन्तरे सा विरराज धेनुः दिनक्षपामध्यगतेव सन्ध्या ।3
गौर वर्ग के राजा दिलीप कपिशवर्गा नंदिनी को आगे किये हुए हैं, सांवली सुदक्षिणा गाय की अगवानी कर रही हैं। ऐसे में वह गाय दिन और रात के बीच जिस प्रकार संध्याकाल की शोभा होती है, उसी प्रकार सुशोभित हो रही है।
इस प्रकार राजा दिलीप और उनकी पत्नी दोनों नित्य नन्दिनी की सेवा में लगे रहे। 21 दिन बाद दिलीप की दृढ़भक्ति जानने के लिए नन्दिनी स्वयं हिमालय की एक गुफा में पहुुंच जाती है, जहां एक सिंह नन्दिनी को दबोच लेता है। राजा दिलीप उस सिंह को मारने के लिए तरकश से बाण निकालना चाहते है, किन्तु उनका हाथ वहीं बंध जाता है। ऐसे में किन्तु उनका हाथ वहीं बंध जाता है। ऐसे में वह सिंह राजा को आश्चर्य में डालते हुए मनुष्य वाणी में कहता है-
‘‘अलं महीपाल! तव श्रमेण प्रयुक्तमप्यस्त्रमितो वृथा स्यात्।
         न पादपोन्मूलनशक्तिरंहः शिलोच्च्यते मूच्र्छति मारूतस्था।।’’
अर्थात हे राजन्! आपका श्रम व्यर्थ है। अतः रहने दीजिए, क्योंकि मेरे ऊपर चलाया हुआ अस्त्र भी वैसे ही व्यर्थ होगा, जैसे पेड़ो को उखाड़ने की शक्ति रखने वाले वायु का वेग पर्वत के विषय में व्यर्थ होता है।
सिंह यह बताता है कि वह शिवजी के एक गण का मित्र कुपभोदर है, जिसको शिवजी ने पार्वती के पुत्रभाव से पाले गये एक देवदास बृक्ष की रक्षा के लिए इस गुफा में नियुक्त किया है। तदन्तर सिंह और राजा संवाद चलता है। राजा अपने शरी से सिंह की तृप्ति का प्रस्ताव रखता है। तथा नन्दिनी को छोड़ने की बात करता हे। सिंह राजा के जीवन का लोभ करता है। सिंह राजा को लोभ दिखाता है। वह कहता है कि एक गाय के लिए तुम इतने सुन्दर शरीर का त्याग क्यों कर रहे हो? किन्तु राजा अपनी बात पर दृढ़ रहता है, वह अपने शरीर को सिंह के सामने समर्पित कर देता है। तत्पश्चात् राजा दिलीप के ऊपर विद्याधरों द्वारा फूलों की वर्षा होने लगती है। तथा नन्दिनी द्वारा राजा को यह बताया जाता है कि वह माया उत्पन्न कर उसकी परीक्षा ले रही थी । नंदिनी ने राजा की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दे दिया।
सन्दर्भ संड्.केतः
1. ‘‘अथ प्रजानामधियः प्रभाते जायाप्रति ग्राहितगन्धमाल्याम्।
बनाय पीतप्रतिबद्ववत्सां यशोधने धेनुमृषेर्मुमोच ।।
तस्याः खुरन्यास पवित्र पांसुमपंसुलानां धुरि कीर्तनीया।
मागें मनुष्यनेश्वरधर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थं स्मुतिरन्रवगच्छत् ।।’’
‘रघुवंश’, 1.1-2, कालिदास, चैखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, वि.सं. 2051, पृष्ठ - 35-36
2. वही, 2.5-6, पृष्ठ 37-38
3. वही, 2.20, पृष्ठ 43
4. वही, 2ण्34, पृष्ठ 47