Sunday 2 October 2011

शरीर एवं चेतनाः एक अनुशीलन (ब्रह्माकुमारी अध्यात्म- विज्ञान तथा आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में)


सुरेश्वर मेहेर
शोध छात्र, विशिष्ट संस्कृत अध्ययन केन्द्र,
जे.एन.यू., नई दिल्ली

शरीर एवं चेतना से सन्दर्भित प्राच्य एवं पाश्चात्य की विभिन्न दार्शनिक चिन्तनधारा परिलक्षित होती आई है। पुनश्च वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी इस विषय के ऊपर अनेकविध मन्तव्य प्रकट किये गये है। प्रस्तुत लेख में आधुनिक शरीर क्रिया विज्ञान एवं व्यावहारिक ज्ञान के पुट को संयोजित करते हुए ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन  की ओर से एक विशेष अनुशीलन है, जिसमें भौतिक तत्व शरीर एवं चैतन्य शक्ति आत्मा के क्रियान्वयन के अन्तर को स्पष्ट तथा विवेचित किया गया है।

जीवित शरीर एवं चेतन्य आत्मा
ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान प्रतिपादन करता है- शरीर के अतिरिक्त एक ऐसी सत्ता है जिसकी तात्विक प्रकृति है- ‘चेतना’। यह अन्तर्विवेकशील सत्ता अपने ‘जीवित’ शरीर का उपयोग प्रत्यक्षण तथा क्रियाओं के उपकरणों के संयोजन के रूप में करती है। वह एक ‘जीवित’ शरीर के माध्यम से सुख तथा पीड़ा का अनुभव करती है एवं उसे ही ‘आत्मा’ संज्ञा दी जाती है। शरीर ‘जीवित’ रहता है और मृत्यु को प्राप्त करता है, किन्तु आत्मा सदैव जीवित रहती है। मनुष्य स्वयं  एक चैतन्य आत्मा है एवं उसका शरीर अभिव्यक्ति का एक अöुद माध्यम है।1
इस प्रसंग में वैज्ञानिकों द्वारा यह उद्घोषित किया गया है कि किसी जीवित प्राणी के मुख्य तीन गुणधर्म होते हैं- उपापचयन (डमजंइवसपेउ), संवृद्धि (ळतवूजी) एवं बहुुगुणन (डनसजपचसपबंजपवद)। प्राणी पर्यावरण से अणु संग्रहण करती है, स्वयं के पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक सामग्रियाँ प्रतिधारण करती है तथा उच्छिष्ट पदार्थाें का त्याग कर निरस्त कर देती है। वह अन्दर से वर्धित होती है तथा एक से दो होती हैं, इस प्रकार बहुगुणित होती रहती है। क्योंकि डी.एन.ए.2 (क्मवगल त्पइव.छनबसमपब ।बपक) अणुओं तथा जीनों (ळमदमे) के पास संवृद्धि का कूट (ब्वकम) या संवृद्धि की आयोजना होती है, वे प्रतिआकृतिकरण का द्विरूपकरण में सक्षम होते हैं इसलिए उसे ‘जीवन का अणु’ समझा जाता है। परन्तु डी.एन.ए एन्जाइमों (।द्रलउमे) अर्थात् डी.ए.एन. बहुकारक (च्वसलउमतमंेम) के बिना अकेले ही स्वयं का द्विरूपकरण नहीं कर सकता। स्व-द्विरूपकरण संपूर्ण अविकल कोशिका का एक गुणधर्म है; डी.एन.ए. अणु स्वयं ही परख-नली में जनन नहीं करते। इसके अतिरिक्त डी.एन.ए. स्वयं अपने एन्जाइमों का द्विरूपकरण नहीं कर सकता। इसलिए, डी.एन.ए जीवन के सामान्यतः लक्षणों को पूरा नहीं करता। डी.एन.ए. जीवित कोशिका के बाहर कार्य नहीं करता, बल्कि जीवित कोशिका के भीतर कार्य करता है।3
वैज्ञानिक जेम्स वाट्सन (श्रंउमे ॅंजेवद) अपनी पुस्तक4 में वर्णन करते हैं- ‘‘जीवन एक समन्वित रासायनिक क्रिया है।’’ किन्तु यह तथ्य बना रहता है कि समन्वित क्रिया तथा स्थितियों के माध्यम से जीवन निर्मित नहीं किया जा सकता है, बल्कि वह सामग्री निर्मित की जा सकती है जो जैव सामग्री के सदृश हो जिसे कोशिका-मुक्त तंत्र (ब्मसस.तिमम ेलेजमउ) कहते हैं। ए.टी.पी.5 (।कमदवेपदम ज्तपचीवेचींजम) के बाहर सक्रिय कारक एन्जाइमों, बहुकारकों तथा एटीपी को परख-नली में पाया जा सकता है एवं प्रोटीन संश्लेषण को देखा जा सकता है; किन्तु ये संरचनाये उपापचयन का कार्य कर सकती हैं, बढ़ सकती हैं तथा बहुगुणित हो सकती हैं तथापि ये स्वयं में जीवित रूप नहीं हैं।
वैज्ञानिकों द्वारा (सिडन्ी फाँक्स द्वारा प्रोटीनाॅएडों का संश्लेषण, अमीबा का संश्लेषण करने का प्रयत्न आदि) प्रयोग किये गये परीक्षणों से स्पष्ट होता है कि प्रोटीनों, डी.एन.ए. आदि जैसे अनेक महत्वपूर्ण संघटकों या घटकों को प्रयोगशाला में संश्लेषण किया जा सकता है तथा किसी ‘जीवित शरीर’ जैसी या सदृश किसी चीज को संश्लेषित किया जा सकता है, यद्यपि किसी परख-नली में जीवन के समरूप कोई चीज उत्पन्न नहीं की जा सकती है। नोबेल प्राइज विजेता रसायनज्ञ जेन्ट ग्योर्जी (ै्रमउज ळलवतपहप) ने स्पष्ट अभिहित किया हैः ‘‘जीवन के रहस्य की मेरी खोज में मुझे एटम और इलेक्ट्राॅन मिले, तथापि उनमें कदापि जीवन नहीं है। कहीं इस दिशा में जीवन मेरी अंगुलियों से निकल गया है। इसलिए अपनी वृद्धावस्था में मैं अपने कदमों को फिर से खोज रहा हूँ।’’6 इससे स्पष्टतः प्रकट होता है कि शरीर भौतिक संघटकों से निर्मित होता है। किन्तु वैज्ञानिक जो कुछ भी संश्लेषित कर सकते हैं उसमेें चेतना का अभाव है जो किसी जीवित प्राणी का आवश्यक लक्षण है। प्रोटोनाॅएडों या डी.एन.ए में सोचने, अनुभव करने या संवेगों तथा मनोभावों को अभिव्यक्त करने की योग्यता नहीं होती।7 ब्र.कु. जगदीश मत व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि अतः संक्षेप में यही कहा जा सकता है- पदार्थ दो प्रकार का होता है- 1. मृत पदार्थ (अजीव) तथा 2. जीवित पदार्थ (जीव)। जब पदार्थ किसी रासायनिक या जैव रचना की होती है तब वह उपापचय का कार्य करता है, बढ़ सकता है तथा बहुगुणित हो सकता है एवं वह पदार्थ चेतना के लिए अभिव्यक्त होने या कार्य करने का एक उपयुक्त माध्यम बन जाता है। उक्त पदार्थ की क्रियाशील मानव-कोशिका जीवद्रव्य (च्तवजवचसंेउ), केन्द्रक (छनबसमन), कोशिका सार (ब्लजवचसंेउ), गुणसूत्र (ब्ीतवउवेवउमे), डी.एन.ए. आदि सभी तत्वों के साथ-साथ ‘जीवित कोशिका (स्पइपदह ब्मसस) से समन्वित होती है। यद्यपि स्वयं उस पदार्थ अथवा कोशिका में चेतना का गुण नहीं होता है तथापि चेतना के प्रभाव के अंतर्गत आने से प्रतीत होता है उनमें चेतना का गुण है।8 क्यांेकि वस्तुतः चेतना का स्रोत जिसे ‘आत्मा’ कहा जाता है, पूर्णतः एक भिन्न अभौतिक व अपदार्थिक सत्ता है एवं उस अभौतिक सत्ता ‘आत्मा’ के संपर्क में रहने से वह पदार्थ (जीवित शरीर) चैतन्यमथ आभासित होता है।
इस प्रकाश में चिन्तन करने पर ‘जीवन’ भौतिक अस्तित्व की उस अवस्था को दिया गया नाम है जब किसी भौतिक तंत्र में आत्मा होती है और उसकी चेतना कार्यशील रहती है; भले ही वह निम्न मात्रा में क्रियाशील हो। अन्य शब्दों, में क्रियाशील शरीर की अवस्था या अवस्थाओं को ‘जीवन’ विशेषतः तब कहा जाता है जब उसमें कोई आत्मा निवास करती है, जबकि आत्मा एक अभौतिक सत्ता है और स्थूल शरीर को छोड़ देने के बाद भी उसका अस्तित्व हो सकता है या अस्तित्व की अवस्था या अवस्थायें हो सकती हैं।9
‘चेतना’ आत्मा के आवश्यक विशेषणों में से एक विशेषण है जिससे आत्मा के अस्तित्व की सूचना निर्विवाद रूप से प्राप्त होती है। चेतना अभिव्यक्त हो सकती है या सुप्त हो सकती है। इस अर्थ में यद्यपि जीवन तथा चेतना किसी भौतिक तंत्र में घनिष्ठता से सम्बद्ध हो सकते हैं तथापि उनके दो भिन्न अर्थ हैं। कोई शरीर कुछ समय के लिए जीवित शरीर10 में तब भी बना रह सकता है जब आत्मा ने उसे छोड़ दिया हो और वह वातावरण में विचरण कर रही हो। इस अवस्था में शरीर में चेतना नहीं होगी, फिर भी उसमें 3 स्वीकृत लक्षण हो सकते हैं। तथापि उसे पुनर्जीवित करने की किसी प्रक्रिया से सामान्य अवस्था में लाया जा सकता है और आत्मा भी पुनः लौट सकती है या उस माध्यम के जरिए स्वयं को अभिव्यक्त कर सकती है। यह समय इस पर निर्भर है कि कितनी देर तक कोई जीव (व्तहंपदपेउ) अपनी तीव्र स्वीकृत विशेषताओं या 3 क्रियाओं को कायम रख सकता है।11
पुनश्च ब्रह्माकुमार जगदीश अभिधान करते हैं कि इस सत्य को न जानने के कारण मुनष्य स्वयं को एक जीवित शरीर समझता है। वह इस सत्य को सहजता से  नजरअंदाज करता है कि वह एक ‘आत्मा’ है जिसके पास अनुभव करने, स्मरण करने तथा परखने की योग्यतायें हैं। किन्तु वह इन योग्यताओं को मन से सम्बद्ध करता है या उनका श्रेय मन को देता है, जिसके बारे में उनके पास कोई स्पष्ट विचार नहीं है या जिसे अज्ञानता के कारण एक सूक्ष्म भौतिक सत्ता या मस्तिष्क का एक कार्य मानता है। वस्तुतः ‘चेतना’ या ‘मन’ जिसकी अभिव्यक्ति, विचार, भावना, निर्णय आदि के रूप में होती है, शाश्वत है तथा शरीर से भिन्न है और मन या आत्मा अभौतिक सत्ता है जो मस्तिष्क में उपस्थित रहकर कार्य संपादित करती है।12
शरीर और चेतना: दो भिन्न वास्तविकतायें- ब्रह्माकुमारी दर्शन के अनुसार शरीर पदार्थ के तत्वों से रचित है। ‘चेतना’ न तो इन तत्वों का गुण है और न ही उनमें से किन्हीं भी तत्वों के संयोजन का गुण है। ‘चेतना’ अभौतिक या आध्यात्मिक सत्ता आत्मा की अन्तर्निहित एक शक्ति है। आधुनिक विज्ञान के प्रकाश में शरीर-क्रिया विज्ञान से यह ज्ञात होता है कि शरीर कोशिकाओं से निर्मित होते है एवं कोशिकायें अणुओं से निर्मित होती हैं। पुनश्च शरीर की कोशिकायें निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं और प्रायः सात वर्षो की अवधि में पुरानी कोशिकाओं में इतना अधिक परिवर्तन होता है कि उस अवधि में अन्त तक नई कोशिकाओं द्वारा उन कोशिकाओं को ‘प्रतिस्थापित’ कर दिया जाता है। इस प्रकार शरीर में वह एक भी कोशिका नहीं होती जो सात वर्ष पहले थी।13 इस प्रकार शरीर वही नहीं रहता जैसा कि वह 7, 14 या 21 वर्ष पहले था। बाल्यकाल में किया गया किसी व्यक्ति का अनुभव अथवा अन्य सभी घटनाओं के स्मरण से (जो हर वर्ष के पूर्व का पश्चात् में होता रहता है) स्पष्टतः सूचित होता है- सचेतन सत्ता ‘चेतना’ तथा ‘शरीर’ दो भिन्न सत्तायें है। यद्यपि शरीर आयु के साथ परिवर्तित होता है तथापि आत्मा अपनी अनन्यता व निरन्तरता कायम रखती है। इसके विपरीत किसी व्यक्ति को मात्र एक शरीर (मस्तिष्क सहित) समझा जाय तो उसकी निरन्तर अनन्यता तथा निरन्तर व चेतना के तथ्य की व्याख्या नहीं की जा सकती है क्योंकि उसके शरीर तथा मस्तिष्क की कोशिकाओं में सात वर्षो के पश्चात् बहुत अधिक परिवर्तन हो चुका होता है।14
इसके अतिरिक्त, ‘शरीर’ तथा ‘चेतना’ दोनों की पूर्णतः भिन्न-भिन्न वास्तविकता के स्वरूपों को प्रकटित करने के लिए सामान्य ज्ञान (जो स्पष्ट रूप से दैनन्दिन जीवन में अनुभूत होता रहता है) का आधार लेकर ब्र.कु. जगदीश चन्द्र उल्लिखित करते हैं- शरीर थक जाता है किन्तु चेतना थकती नहीं है, तथापि चेतना केवल ऊब सकती है। शरीर की भौतिक ऊर्जा निःशेष हो सकती है, किन्तु चेतना मानसिक, तात्विक या आध्यात्मिक ऊर्जा की अनिःशेषता का अनुभव कर सकती है और वस्तुतः वह ऊर्जा वर्षों के साथ बढ़ती है। शरीर वर्षों के बीतने से बूढ़ा हो जाता है, किन्तु मन केवल अधिक प्रज्ञावान तथा अधिक अनुभवी हो जाता है। हृदय जो शरीर का एक भाग है, आयु के बढ़ने के साथ कमजोर हो सकता है, किन्तु चेतना या मन की घृणा करने की या प्रेम करने की शक्ति बढ़ सकती है। इस प्रकार ये दो भिन्न सत्तायें हैं- शरीर, कोशिकीय तथा आणविक होने के कारण भौतिक है; किन्तु मन, चेतना या आत्मा- मानसिक, आध्यात्मिक, अतिभौतिक, आधिभौतिक, अभौतिक अथवा पराभौतिक सत्ता है।15
चेतना- मस्तिष्क से पृथक् सत्ता- जगदीश चन्द्र अपनी पुस्तक के ‘‘शरीर से बाहर का अनुभव’’ अनुभाग में दो अलौकिक विषयों (प्रजापिता ब्रह्माकुमारी संस्था के संस्थापक प्रजापति ब्रह्माबाबा16 और सर आॅकलैन्ड गेड्डे के जीवन से सम्बन्धित वृत्तान्त) का दृष्टान्त प्रदर्शित कर निष्कर्ष रूप में अतीन्द्रिय चेतना तथा मस्तिष्क सम्बन्धी मन्तव्य प्रकटित करते हैं- ‘चेतना’ आत्मा का ही अन्तर्निहित गुण है। आत्मा चेतना के माध्यम से ही कार्य करती है, किन्तु मस्तिष्क उस चेतना को परिसीमित कर देता है। मस्तिष्क उसे केवल त्रि-आयामीय वस्तुओं का अनुभव करने योग्य बना देता है, परन्तु शरीर के बहिर्भूत आत्मा बहु-आयामीय अनुभव अथवा अतीन्द्रिय दर्शन कर सकती है।
‘चेतना’ मस्तिष्क से पूर्णतः पृथक् है तथा अभिज्ञता की उच्चतर अवस्थाओं के साथ अशरीरी रूप में रह सकती है। वह अभिव्यक्त हो सकती है अथवा सुप्त भी रह सकती है। ‘चेतना’ कोई अनुघटन नहीं है, न ही कोई जैव-रासायनिक उत्पाद है और न ही मस्तिष्क के कार्य का परिणाम है। मनुष्य न केवल शरीर के बहिर्भूत सोच सकता है और अनुभव कर सकता है बल्कि देख भी सकता है और सुन भी सकता है। इसलिए विचार, प्रत्यक्षण, संकल्प, स्मृति आदि अमस्तिष्कीय कार्य हैं। सोचने तथा इच्छा करने का कार्य मस्तिष्क द्वारा नही किया जाता। संकल्प या इच्छा उस सत्ता से सम्बन्धित हैं जो शरीर के बाहर अस्तित्वमान रह सकती है तथा अन्तर्विवेकशील है। आत्मा अपने साथ अपने विचारों, अपनी भावनाओं तथा अपने कार्यों के संस्कार ले जाती है जो कि सुषुप्त हो सकते हैं या अभिव्यक्त हो सकते हैं।17
निष्कर्ष- इस प्रकार एक नवीन दृष्टिकोण के साथ अतीन्द्रिय आध्यात्मिक चेतना तथा जड़ देह के अंदर का विवेचन स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर मनुष्य को अपने लक्ष्य की ओर प्रगतिशील होने की प्रेरणा प्रदान किया है। यद्यपि मनुष्य अपने अनुभवात्मक ज्ञान का प्रयोग समयानुसार करता रहता है परन्तु ‘स्वयं’ का सत्य स्वरूप क्या है?- इस संदर्भ में अपने को सामान्य मानव-मात्र समझकर वह कार्य करने में अग्रसर होता रहता है जिससे उसकी स्थिति सदाकाल के लिए एकरस व सन्तुष्टता की नहीं रहती है। वास्तव में मनुष्य स्वयं एक अन्तर्विवेकशील चैतन्य सत्ता है जो कि देह का उपयोग कर अपने कार्यों का निष्पादन करता है। इस यथार्थ ज्ञान के अवबोध से ही उसका मानसिक दृष्टिकोण पूर्णतया परिवर्तित होकर एक श्रेष्ठ, मूल्यनिष्ठ समाज या संसार के नवनिर्माण में वह एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकता है।
सन्दर्भ
1ण् अवि.ना. भाग-1, पृष्ठ.-1
2ण् जीवित तथा निर्जीव पदार्थ के बीच यह डी.एन.ए., अणु एवं आर.एन.ए. (त्पइव.छनबसमपब ।बपक) सीमा रेखा निर्धारण करने के घटक तत्व है। डी.एन.ए. जीन से सम्बन्धित है जो वंशानुक्रमता का निर्धारण है जिससे शारीरिक व मानसिक लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाते हैं।
3ण् अवि. ना. भाग-1, पृष्ठ- 11-12
4ण् डवसमबनसंत ठपवसवहल व िजीम ळमदमए चचण् 282.292
5ण् ऊर्जा-संरक्षक व ऊर्जा-वाहक अणु जो विखण्डित होकर शरीर को शक्ति या ऊर्जा प्रदान करता है।
6ण् ठपवसवहल ज्वकंलए च्ण् गगपअ
7ण् अवि. ना. भाग-1, पृष्ठ 14
8ण् ‘जीवित सत्य’ एवं ‘जीवित शरीर’ दोनों भिन्न है। ‘जीवित सत्व’ का अर्थ है किसी क्रियाशील शरीर में एक आत्मा का अस्तित्व, जबकि ‘जीवित शरीर’ एक ऐसा शरीर है जो अपनी तीन विशेषताओं उपापचय, संवृद्धि तथा प्रजनन के साथ अस्तित्व में रहता है।
9ण् अवि. ना. भाग-1, पृष्ठ- 15-16
10ण् च्ेलबीवसवहलए चचण् 230.232
11ण् अवि. ना. भाग-1 पृष्ठ- 55-56
12ण् एक अ˜ुत जीवन कहानी, पृष्ठ- 24
13ण् अवि. ना. भाग-1, पृष्ठ- 40-45
14ण् श्रुण्वन्तु सर्वे अमृतस्य पुत्राः 1 ऋग्वेद
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1 प्रकृति, पुरूष तथा परमात्मा का अविनाशी नाटक, भाग-1 ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2003, तृतीय संस्करण
2 एक अ˜ुत जीवन कहानी, भाग-1 संपा, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र
3 भारतीय दर्शन में चेतना का स्वरूप, एस.के. सक्सेना, चैखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, 1969
4 ैबपमदबम ंदक ैचपतजनंसपजलए ठण्ज्ञण् श्रंहपेी ब्ींदकतंए ठतंीउंानउंतपे ॅवतसक ैचपतजपनजंस न्दअपमतेपजलए च्ंदकंअ ठींूंदए डवनदज ।इनए 1988ण्
5 च्ंतंससमसे इमजूममद ैबपमदबम ंदक त्मसपहवपद ंदक च्ीपसवेवचील ंदक ैबपमदबम. । ब्तपजपबंस त्मअपमूए ठण्ज्ञण् श्रंहकपेी ब्ींदकमतए डवनदज ।इनए त्ंरंेजींदए 1994ए 1ेजए मकपजपवदण्
6 क्व लवन ादवू लवनत त्मंस ैमसएि ठण्ज्ञण् श्रंहकपेी ब्ींदकमतए  डवनदज ।इनए त्ंरंेजींदए 1994
7 ज्ीम छमू टमकपब ैमसमबजपवदए ठण् ठण् ब्ींनइमलए ठींतजपलं टपकलं च्तंांेींदए टंतंदंेपए 1972ण्
8 च्ेलबीवसवहलए ।ददपम ठमेंदजए ज्ीमवेवचीपबंस च्नइसपेीपदह भ्वनेमएब्ंसपवितदपंए 1919ए
9 डलेजमतपमे व िजीम न्दपअमतेमए ठण्ज्ञण् छपजलंदंदक छंपतए च् ठ ज्ञ प् ट टए डवनदज ।इनए 2008ण्
10 स्सपमि ठमलवदक क्मंजीए ैूंउप ।इीमकंदंदकए त्ंउं ज्ञतपेीदं टमकंदजं डंजीए ब्ंसबनजजंए 1971ण्