Sunday, 2 October 2011

इलाहाबाद शहर की कतिपय अप्रकाशित प्रतिमाएं


आषुतोष सिंह
शोध छात्र, इतिहास विभाग,
नेहरु ग्राम भारती विष्वविद्यालय, इलाहाबाद।


इलाहाबाद के विभिन्न स्थलों का सर्वेक्षण उत्खनन समय-समय पर भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, उत्तर प्रदेश के राज्य पुरातत्त्व संगठन एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा किया गया है। जिसके कारण प्रभूत मात्रा में पुरावशेषों की उपलब्धि हो सकी है परन्तु अभी भी बहुत कुछ ऐसा है जो अपृष्ठ एवं अप्रकाशित है। प्रस्तुत शोध लेख में इलाहाबाद शहर के अन्तर्गत विभिन्न स्थानों पर बिखरी हुई कतिपय अप्रकाशित अथवा अल्पज्ञात प्रतिमाओं की विवेचना की गई है।

इलाहाबाद शहर के बैरहना चैराहे के दक्षिण पूर्वी कोण में नवनिर्मित एक मन्दिर में उमामाहेश्वर अंकन से युक्त एक प्रस्तर खण्ड रखा हुआ है, यह प्रस्तर खण्ड लगभग दसवीं ग्यारहवीें शताब्दी में विद्यमान किसी मन्दिर का अवशेष प्रतीत होता है। उमामाहेश्वर का अंकन रथिका के अन्तर्गत किया गया है। शिव और उमा के दोनों शीर्ष भाग टूट गयें हैं परन्तु अवशिष्ट भाग से यह स्पष्ट है कि दोनों एक दूसरे को देख रहंे हैं, पार्वती शिव के बाई ओर प्रदर्शित हैं जिनका दाहिना पैर मुडा हुआ है और बायां पैर लटक रहा है अर्थात ललितासन में बैठी हुई हैं। शिव दाहिनी ओर निर्मित किये गये हैं, शिव का बायाँ हाथ उमा के स्कन्ध के पृष्ठ भाग से होता हुआ उनके वक्ष तक प्रदर्शित किया गया है, शिव भी ललितासन में हैं। अत्यधिक क्षतिग्रस्त होने के कारण यह स्पष्ट नही है की शिव दुमुखी अथवा चर्तुमुखी हैं। शिव के पैर के नीचे नन्दी और ऊमा के पैर के नीचे सिंह अंकन की परम्परा उमामाहेश्वर प्रतिमाओं में प्राप्त होती है।1 प्रस्तुत प्रतिमा विष्णुधर्मोत्तर पुराण के लक्षणों से अधिक सादृश्य लगती है। उल्लेखनीय है की उमामाहेश्वर प्रतिमा इलाहाबाद और उसके समीपवर्ती प्रदेशों में अधिक लोकप्रिय थीं। अरैल,4 मनहियाडीह5 से स्वतंत्र उमामाहेश्वर प्रतिमांए प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त वस्तुखण्डों के ऊपर अंकन अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं।
इलाहाबाद शहर के अल्पज्ञात प्रतिमाओं में भारद्वाज आश्रम में रखी हुई वराह प्रतिमा का उल्लेख किया जा सकता है लगभग साढे तीन फिट ऊँची इस वराह प्रतिमा के चारों ओर तराश कर सर्वतोभद्र रुप में निर्मित किया गया है। प्रतिमा के आकार और सर्वतोभद्र अंकन से यह स्पष्ट है कि इसका निर्माण स्वतंत्र उपासनार्थ किया गया था। वराह वीरासन में प्रदर्शित हैं और अपने मुख से पृथ्वी का बायाँ हाथ पकडकर समुद्र से निकालकर उसका उद्धार कर रहे हैं। पृथ्वी को स्त्री के रुप में प्रदर्शित किया गया है। पैर के नीचे सात फणों से युक्त नाग को प्रदर्शित किया गया है। अलंकरणों में बाजूबन्द, उदरबन्द इत्यादि का अकंन है6। प्रतिमाशात्रीय ग्रन्थों में वराह के दोनों स्वरुपों का विशेषरुप से वर्णन मिलता है। मत्स्य पुराण7 में यह उल्लखित है कि वराह के हाथों में गदा और पद्म का अकंन किया जाना चाहिए उनका एक चरण कूर्म पर तथा दूसरा चरण शेष पर होना चाहिए पृथ्वी को उनके दाढ़ के अग्रभाग पर अथवा बायें भाग पर प्रदर्शित किया जाना चाहिए। विष्णुधर्माेत्तरपुराण8 में यह उल्लेख है कि वराह के जिस हाथ में पृथ्वी हो उसी में शेष का अकंन किया जाना चाहिए तथा अन्य हाथ में पद्म, गदा तथा चक्र का अकंन किया जाना चाहिए। वराह अवतार की प्रतिमाओं का निर्माण कुषाण काल में संभवतः प्रारम्भ हो चुका था। मथुरा से इस काल की एक वराह प्रतिमा का उल्लेख नीलकंठ पुरुषोत्तम जोशी ने किया है। व्यापक स्तर में गुप्त काल में ही वराह के दोनों स्वरूपों का अंकन किया जाने लगा। मध्य प्रदेश में विदिषा के समीप उदयगिरि की गुफा में निर्मित वराह की प्रतिमा तथा एरण से प्राप्त विष्णु प्रतिमा विश्वविख्यात हैं। इलाहाबाद के समीपवर्ती क्षेत्रों से भी विष्णु के वराह रूप की प्रतिमांए प्राप्त हुई हैं। शिवराजपुर के समीप गढवा नामक स्थान पर विष्णु के दशावतार सम्बन्धित स्वतंत्र प्रतिमांए निर्मित की गईं थीं जिसमें वराह की भी विशालकाय  प्रतिमा है। कुटारी से भी वराह प्रतिमा की अधार पीठिका प्राप्त हुई है। फाफामऊ से प्राप्त वराह प्रतिमा का चर्तुभुजी रुप में प्रदर्शित किया गया है। इसमें वीरासन मुद्रा बहुत ही प्रभावशाली है। इसी प्रकार सोराँव तहसील में ऊँचडीह से द्विमुखी वराह की चार फुट ऊँची प्रतिमा प्राप्त हुई है,9 इन प्रतिमाओं से स्पष्ट है की इलाहाबाद के समीप वराह की पूजा प्रचलित थी। ऊँचडीह रेलवे स्टेशन के समीप ऊँचडीह में वराहदेवी का मेला प्रतिवर्ष लगता है।
इन प्रतिमाओं के अतिरिक्त अनेक छोटी प्रतिमांए शहर के प्रिती नर्सिंग होम में दीवालों में जडी हुई हैं, उन सभी प्रतिमाओं को गहरे लाल रंग से इस प्रकार लेपित कर दिया गया है कि उनकी स्वतंत्र पहचान दुष्कर है। आसीन मुद्रा में बैठे हुए गणेश का अंकन निश्चित रूप से अपने मूल रूप में भव्य रहा होगा। इस चतुर्भुजी प्रतिमा में गणेश सूँड को दक्षिणावर्ती रुप में प्रदर्शित किया गया है लम्बोदर अत्यन्त विशिष्ट रूप में दिखलाया गया है। उनके एक हाथ में मोदक पात्र तथा ऊपरी हाथ में अंकुश बाम भाग के दोनों हाथों में कुश धारण कर रखा है, गहरे रंग से रंगे होने के कारण वस्तुओं की पहचान संभव नही है। गणपति प्रतिमाविधान का विवरण वाराहमीहिर के वृहत संहिता में प्राप्त होता है। जिसके अनुसार हाथी के एकदन्त वाले गणेश का लम्बोदर रुप में एक हाथ में परुष तथा दूसरे हाथ में शूली धारण किये हुए प्रदर्शित करना चाहिए। विष्णुधर्मोत्तर10 पुराण में उनके हाथों त्रिशूल, परुष तथा मोदक धारण करने का उल्लेख किया गया है।
मत्स्य पुराण,11 विष्णुधर्मोत्तर पुराण12 दोनो में उन्हें सर्पयज्ञोपवीती कहा गया है। इस प्रतिमा में सर्पयज्ञोपवीती का अंकन नही है। इसके अतिरिक्त त्रिभंग मुद्रा में जल पात्र लिए हुए पार्वती के अंकन का फलक भी प्रीति नर्सिंग होम में रखा हुआ है। त्रिभंग मुद्रा में ही एक शाल भंजिका का फलक सुरक्षित है इसके अतिरिक्त इसी प्रतिमा के शीर्ष भाग का टूटा हुआ फलक भी विद्यमान है जिसमें एक स्त्री आकृति के अंकन अवशिष्ट हैं। इस परिसर में द्विभुजी महिषासुरमर्दिनी का अंकन रखा हुआ है। जिसमें वे दाहिने हाथ में धारित त्रिशूल से महिषासुर का वध तथा बायें हाथ से महिष के पूँछ को पकडे हुए हैं। प्रारम्भिक स्तर पर महिषासुर मर्दिनी को द्विभुजी रूप में प्रदर्शित किया जाता था। इस स्वरूप की प्रतिमांए कुषाण काल से मिलने लगती हैं।13 इस काल में दुर्गा को द्विभुजी तथा चर्तुभुजी दोनो रुपों में प्रदर्शित किया गया है। प्रतिमा शाष्त्रीय ग्रन्थों में दुर्गा के विकसित स्वरूप का विवरण मिलता है। जिसके अनुसार वे चतुर्भुजी तथा अष्टभुजी दोनों रूपों में प्रदर्शित की जा सकती हैं। उनके हाथ के आयुधों में खडग, त्रिशूल, धनुष-वाण, पाश, ढाल इत्यादि धारण करने का विवरण प्राप्त होता है14। महिषासुरमर्दिनी का प्राचीनतम दर्शन राजास्थान के करकोट नगर से प्राप्त मृणमूर्ती में देखा जा सकता है। जिसका समय इतिहासविदों ने प्रथम शताब्दी माना है। कुषाण काल की अनेक प्रतिमांए मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित हैं। भीटा से प्राप्त महिषासुरमर्दिनी को द्विभुजी रूप में प्रदर्शित किया गया है।
 इस प्रकार प्रस्तुत शोध लेख के माध्यम से इलाहाबाद शहर के अन्तर्गत बिखरे हुए पुरावशेषों आदि की महत्ता के ऊपर प्रकाश डालने का लघु प्रयास किया गया है। कहा जा सकता है कि इलाहाबाद जनपद में शाक्त धर्म निश्चित रूप से अत्यधिक लोकप्रिय था। देवी से सम्बन्धित प्रतिमाए विभिन्न आँचलों से आज भी प्राप्त होती हैं।
सन्दर्भ संकेत:-
1. यह अंकन कलात्मक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है परन्तु आभी तक यह अप्रकाशित है।
2. कालिदास- कुमारसंभव, अष्टम सर्ग श्लोक-8।
3. कलिदास- वही अष्टम सर्ग श्लोक-8-11 तथा नवम् सर्ग श्लोक-34।
4. वी. सी. शुक्ल- (सम्पदित) कल्चरल हेरिटेज आफ इलाहाबाद  रीजन (इलाहाबाद 2003) में प्रकाशित ए. एल. श्रीवास्तव का लेख- उमा-महेश्वर स्कल्पर्चस एण्ड इट्स रिप्रेजेनटेशन इन एराउण्ड इलाहाबाद, पृष्ठ-104।
5. वी. सी. शुक्ल- पुरानुसंधान (इलाहाबाद 2007) पृष्ठ-47।
6. वी. सी. शुक्ल- भारतीय कला के  विविध आयाम (इलाहाबाद 1997) पृष्ठ- 85-86।
7. वराह के विविध स्वरुपों के अंकन के शाष्त्रीय विधान विभिन्न मध्यकालीन ग्रन्थों में प्राप्त होते हंै। विस्तृत विवरण हेतु दृष्टव्य- मारुति नंदन तिवारी एवं कमल गिरि-मध्यकालीन भारतीय प्रतिमा लक्षण (वराणसी 1997) पृष्ठ 83-84।
8. विष्णुधर्मोत्तर पुराण- अध्याय-119 श्लोक 28-58।
9. इलाहाबाद संग्रहालय में रखी हुई वराह प्रतिमाओं के विवरण हेतु दृष्ट्व्य प्रमोद चन्द्र- स्टोन स्कल्पचर्स इन इलाहाबाद म्युजियम (मुम्बई 1971) पृष्ठ संख्या- 102 तथा 152।
10. विष्णुधर्मोत्तर पुराण- तृतीय काण्ड अध्याय-71 श्लोक 11-13।
11. मत्स्य पुराण- अध्याय 258 श्लोक 11-12।
12. विष्णुधर्मोत्तर पुराण- तृतीय काण्ड अध्याय-71 श्लोक 11-13।
13. नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी- प्राचीन भारतीय मूर्ती विज्ञान (पटना 1977) पृष्ठ 135।
14. ललित कला भाग 1-2 (1955-56) पृष्ठ 72-74।