Thursday 1 January 2015

Year-7, Vollume-1, Part-26 January - March, 2015













महाकवि कालिदास के काव्य में वाणी की महनीयता


पी0 के0 पण्डा

महाकवि कालिदास के उपास्य देवता शिव हैं जिनके समस्त रूपों का गान उन्होंने अपने ग्रन्थों में किया है। वे अपने काव्यों एवं नाटकों में शिवस्तुति करते हैं तथा शिव में ही समस्त विश्व को समाहित देखते हैं। कालिदास अद्वयवादी थे। उनका अद्वयवाद उनके समस्त कवि कर्म में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने रघुवंश में जगत् के माता-पिता पार्वती-परमेश्वर को प्रमाण करते हुए लिखा है कि-
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ।।1
अर्थात् वाणी और अर्थ जैसे पृथक् रूप होते हुए भी एक ही हैं उसी प्रकार पार्वती और शिव कथन मात्र से भिन्न-भिन्न होते हुए भी वस्तुतः एक ही हैं। वाणी और अर्थ सदैव एक दूसरे से सम्पृक्त रहते हैं। वाणी और अर्थ के समान शिव और पार्वती भी अभिन्न हैं। अर्थ शम्भु रूप है तो वाणी शिवा ‘रूपार्थ शम्भुः शिवा वाणी’। वाक् और अर्थ दोनों ही पार्वती परमेश्वर रूप में नित्य और एक रूप हैं। एक विचित्र चित्रकर्मा जगत् चित्र के निर्माता हैं तो वाक् और अर्थ एक दूसरे के आश्रित होकर काव्यचित्र का निर्माण करते हैं।
वाक् और अर्थ काव्य की अन्तर्निहित भाव-वस्तु एवं उनके अभिव्य×जक शब्द का परस्पर नित्य सम्बन्ध हैं। जैसे विश्व सृष्टि के आदि माता-पिता पार्वती और परमेश्वर नित्य सम्बन्ध युक्त हैं। यहाँ शिव निराकार, विशुद्ध चिन्मय, भगवान, भावमात्र तनु वाले हैं। इस भावतनु को भवतनु में प्रकट करती है त्रिगुणात्मिका शक्ति। भव रूप महेश्वर की समस्त रूप लीला, शक्तिरूपिणी, प्रकाशरूपिणी पार्वती के माध्यम से ही चलती है। शिव एवं शक्ति कोई भी परस्पर निरपेक्ष स्वतन्त्र नहीं हैं। शिवाश्रय के बिना शक्ति की लीला नहीं हो सकती है और शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है, वह शक्ति के बिना शवमात्र होते हैं। साहित्यिक पृष्ठभूमि में भी अर्थ का भावरूप महेश्वर और शब्द भवरि×जनी पार्वती दोनों एक दूसरे के आश्रित हैं। उपयुक्त अभिव्यंजना के बिना अर्थ सत्ता रहित है। अर्थ के घनिष्ठ योग से रहित अभिव्यंजना शब्दाडम्बर मात्र है, साहित्य शब्द की मौलिकता पार्वती परमेश्वर के नित्य सम्बन्ध से युक्त शब्दार्थ के साहित्य में ही है जिसको कालिदास ने पुष्ट किया है। शब्दार्थ के अद्वययोग में ही कालिदास की समस्त कला का मूल रहस्य है।
शब्द के शक्ति रूप चिन्तन की अवधरणा विविध रूपों में अत्यन्त गहरी दिखाई पड़ती है। शब्द मूलतः नाद तत्त्व है और अर्थ बिन्दु तत्त्व है। शक्ति ही नाद है और शिव ही बिन्दु है। उपनिषदों में ब्रह्म के दो रूपों को बताया गया है मूर्त्त एवं अमूर्त्त। मूर्त्त ब्रह्म ही शब्दब्रह्म है। और अमूर्त्त ब्रह्म ही शब्द रहित ब्रह्म है। शब्दब्रह्म ही नाद है और अशब्द ब्रह्म ही बिन्दु है। भारतीय स्फोटवाद के अनुसार शब्द की चार अवस्थाएँ हैं। परा, मध्यमा, वैखरी, पश्यन्ति। वाग्यत्रा की सहायता के उत्थित वायु स्पन्द रूप में जो कान में पड़ता है वह शब्द का एकान्त ब्रह्म रूप वैखरी है-
ताल्वोष्ठव्यापृतिव्यर्घैंचा परबोधप्रकाशिनी।
मनुष्यमात्रसुलभा बाह्या वाग्वैखरी मता।।2
मध्यमा इससे शब्द का सूक्ष्मतर रूप है। मध्यमा का कोई ब्रह्म रूप नहीं है। वह अन्तःसन्निवेशिनी है। उसका उपादान एक मात्र बुद्धि ही है- बुद्धि मात्रोपादाना बुद्धि व्यापार में ही उसका अस्तित्त्व है। वह सूक्ष्म और प्राण की अनुगता है। बुद्धि व्यापार रूपी समस्त प्रकाश क्रम उसमें संहत है तथापि समस्त प्रकाश क्रम की सम्भावना भी उसके भीतर निहित है। उपयुक्त समय में वह क्रम परम्परा द्वारा आत्मप्रकाश करती है- मध्यमाबुद्धचुपादाना कृतवर्णपरिग्रहा।
अन्तःस×जल्परूपा सा न श्रोतमुपसर्पति।।3
पश्यन्ती की अवस्था और भी सूक्ष्म है, यह ज्ञान और ज्ञेय की एकीभूत अवस्था है। इसमें वर्णों के उच्चारण स्थान एवं प्रयत्नां से आने वाले विभाग नहीं होते। यह अविभागा है। इसमें कोई क्रम नहीं होता है। यह न तो व्यक्त होती है और न ही अव्यक्त। जैसे बीज के अन्दर रहने वाला अव्यक्त छिपा भी नहीं रहता और व्यक्त भी नहीं रहता है। अपितु छिपा होता हुआ भी बाहर निकलने के लिए उन्मुख होता है। यह तटस्थ भावरूप से परा और मध्यमा का दर्शन करती है-
अविभागेन वर्णानां सर्वतः संहृतक्रमा।
प्राणाश्रया तु पश्यन्ती मयूराण्डरसोपमा।।4
शब्दब्रह्म की उससे अपृथग्भूता शक्ति का नाम पराशक्ति है जो भावी चराचर बीज रूपिणी है, जिससे विश्व सृष्टि उत्सारित होती है। यह नाद रूपिणी है तथा यही वाक् है अर्थात् वाग्देवी है। यह सम्पूर्ण वांगमय की अध्ष्ठित्री तथा कवियों एवं विद्वानों की परमाराध्या है। यह निरुपाधिक शब्दब्रह्म स्वरूप है। इसे ‘स्वरूपज्योतिरेवान्तः परावागनपायिनी’5 कहा गया है। विमर्शिनीकार जयरथ ने पदार्थों के सार को परावाक् माना है- येयं विमर्श रूपैव परमार्थचमत्कृतिः।
सैव सारं पदार्थानां परावागभिधीयते।।6
परावाक् त्रिविध विग्रहा होती है। निरुपाधिक परावाक् मन, वाणी और श्रोत्र सबसे परे है। उपाधि दशा में उसके तीन विग्रह पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी हैं। यह पराशक्ति ही कामेश्वरी है। ज्ञानमात्र तनु शिव को सकल अभीष्ट पूर्ति द्वारा उसकी सकल कामना पूर्णकर उसको सदानन्द में निमग्न रखने के कारण ही वह कामेश्वरी है।7 आचार्य कुन्तक ने भी साहित्य के द्वित्य धर्म के दोनों पक्षों पर समान दृष्टि रखी है- जगत्वित्रतयवैचित्रकर्मविधयिनम्।
शिवं शक्तिपरिस्पन्दमात्रोपकरणं नुमः।।8
अर्थात् शक्ति के परिस्पन्द मात्र उपकरण वाले तीनों लोकों के वैचि×य रूप चित्रकर्म के निर्माता शिव को नमस्कार है। काव्यजगत् के निर्माण के वाक् शक्ति का ही परिस्पन्द प्राप्त होता है। कुन्तक के तत्त्व और निर्मिति कालिदास के अर्थ और शब्द हैं, और वे ही पार्वती और महेश्वर हैं। कुमारसंभव में कालिदास ने पार्वती के प्रदान करने के सन्दर्भ में महर्षि अंगिरा के मुख से कहलवाया है, ‘तमर्थमिव भारत्या सुतया योक्तुमर्हसि’9 अर्थात् भारती या शब्द के साथ जैसे अर्थ का मिलन कराया जाता है तुम्हारी कन्या के साथ वैसे ही महादेव का मिलन कराना उचित है।
कालिदास की वाणी में सदैव शब्दगुण और अर्थगुण पूर्णतया प्राप्त हैं। उनके शब्दार्थ का विन्यास साहित्य सर्जना का मानदण्ड है। ‘स्थित पृथिव्या इव मानदण्डः’ उक्ति से यह ध्वनित होता है कि कुमारसंभव के कर्त्ता कालिदास भी जगत् में स्थित समस्त कविगणों के मानदण्ड समान हैं। मल्लिनाथ ने कालिदास की वाणी की प्रशंसा करते हुए कहा है- कालिदासगिरां सारं कालिदाससरस्वती।
चतुर्मुखोऽथवा ब्रह्मा विदुर्नान्ये तु मादृशः।।
अर्थात् कालिदास की वाणी की प्रयोगात्मकता को केवल तीन व्यक्तियों ने समझा है। एक तो विधाता ब्रह्म ने, दूसरी वाग्देवी सरस्वती और तीसरे स्वयं कालिदास ने। जब मल्लिनाथ जैसे विद्वान् कालिदास की रचनाओं को ठीक रूप में समझ पाने में सर्वंथा असमर्थ रहे तब कालिदास की विद्वत्ता के विषय में पाठक स्वयं अनुमान लगा सकते हैं। उनके ग्रन्थ गूढ़ता पूर्ण होते हुए भी इतने सरल तथा मधुर हैं कि सामान्य सहृदय सामाजिकों के लिए ग्रहणीय होते हैं। अतः उनकी रचनाओं के विषय में महाकवि भवभूति की उक्ति चरितार्थ है- वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि को न विज्ञातुमर्हति।।
संस्कृत साहित्य का सौष्ठव तथा सौरभ कालिदास की रचनाओं पर निर्भर है। कालिदास के बिना संस्कृत साहित्य प्राणहीन है। कालिदास की वाणी ही उनके हृदय का प्रतिबिम्ब है। उन्होंने अपनी वाणी से व्याकरणसिद्ध वैकल्पिक रूपों का प्रयोग करके उसका बोध कराने का प्रयत्न किया है। रघुवंश में कवि ने स्वयं ही माना है कि विष्णु भगवान् सबसे पुराने कवि हैं। जब उनके मुख के भीतर कण्ठ, तालु, दान्त, ओष्ठ आदि उच्चारण-स्थानों से भली भाँति वाणी निकली तब मानों सरस्वती ने अपने जन्म लेने के समस्त फल को प्राप्त कर लिया है। यथा-
पुराणस्य कवेस्तस्य वर्ण स्थान समीरिता।
बभूव कृतसंस्कारा चरितार्थैव भारती।।
व्याकरण की दृष्टि से ‘निरंकुशाः कवयः’ उक्ति ही उनकी वाणी की प्रयोगात्मकता के लिए ही यथार्थ है जो उनकी बहुदर्शिता का परिचय देती है जो आज के सन्दर्भ में कवि की वाणी सर्वदा महाकवि कालिदास की सुमधुर भाषा-शैली तथा गेयात्मक छन्दोबद्धता सहृदयों का हृदय झंकृत कर देती है। अनुष्टुप, स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित आदि समस्त छन्दों में महाकवि कालिदास ने उपमा के प्रयोग द्वारा विश्व की समग्र सामग्री को सरल भाषा समन्वय के योग से प्रस्तुत किया है जो बालबुद्धि द्वारा भी ग्राह्य है। अतः महाकवि कालिदास की वाणी की महनीयता सर्वथा सिद्ध एवं प्रेरणादायी है।
सन्दर्भ -
1. रघुवंश, 1/1 श्लोक
2. अलंकारसर्वस्व
3. वही
4. वही
5. अलंकारसर्वस्व
6. वही
7. उपमाकालिदासस्य पृ. 15, शशिभूषणदास गुप्ता
8. वक्रोक्तिजीवितम् 1/1 कारिका
9. कुमारसंभव 6/79 श्लोक
डॉ0 पी0 के0 पण्डा
एसोसिएट प्रोफेसर, रामजस कॉलेज,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110007.

न्याय-वैशेषिकप्रस्थान का उदात्त ग्रन्थ; तर्कभाषा


पवन कुमार

न्याय-वैशिषक दर्शनों को सांख्य-योग दर्शनों की तरह समान तन्त्र माना जाता है। इन्हें आन्वीक्षिकी विद्या के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। नित्य आत्मा की सिद्धि के उद्देश्य से प्रमाणों (विशेष रूप से अनुमान) का सूक्ष्म विश्लेषण न्याय-वैशेषिक दर्शनों के आचार्यों ने किया है। कणाद, गौतम, वात्स्यायन, उद्योतकर, प्रशस्तपाद, वाचस्पति, उदयन, श्रीधर, गङ्गेश, वर्धमान, शङ्कर मिश्र, वासुदेव सार्वभौम, रघुनाथ शिरोमणि, मथुरानाथ, जगदीश, विश्वनाथ, गदाधर, धर्मराजाध्वरीण, केशव मिश्र, अन्नम्भट्ट, गोवर्धन प्रभृति ग्रन्थकारों ने प्राचीनन्याय, नव्यन्याय, न्यायवैशेषिक आदि प्रस्थान प्रभेदों में विभाजित आन्वीक्षिकी विद्या को पर्याप्त परिष्कृत एवं यौक्तिक स्वरूप प्रदान करने के साथ इसकी श्रौतनिष्ठा को अक्षुण्ण बना रखा है।

तर्कभाषा-प्रकरणग्रन्थ1 के रचयिता विद्यासमृद्ध वंश में लब्धजन्मा मैथिल विद्वान् केशव मिश्र ने वैशेषिकसम्मत सप्तपदार्थप्राधान्य को अङ्गीकार कर न्याय-वैशेषिक-प्रस्थान की औदयन परिकल्पना को अत्यन्त सरलता किन्तु दृढ़ता के साथ प्रतिपादित करते हुए पूर्णता के साथ साकार किया है।
तर्कभाषा न्यायप्रधान न्यायवैशेषिकप्रस्थानात्मा प्रकरण ग्रन्थ है। क्योंकि यह न्यायसम्मत षोडश पदार्थों के निरूपण क्रम में प्रमेय के अङ्ग अर्थ के अन्तर्गत आत्मपदार्थ की विवेचना प्रस्तुत करता है तथा समन्वित प्रस्थान को पुष्ट करता है। तर्कसंग्रह, न्यायसिद्धान्तमुक्तावली प्रभृति ग्रन्थ भी यद्यपि समन्वयात्मा प्रकरण ग्रन्थ ही हैं किन्तु उनमें वैशेषिकसम्मत द्रव्यादि पदार्थों के वर्णन को पुरस्कृत कर गुण पदार्थ में बुद्धि शीर्षक के अन्तर्गत न्यायसम्मत प्रमाण को विश्लेषित किया गया है। अतः इन्हें वैशेषिकप्रधान समन्वयप्रस्थान की संज्ञा से विभूषित किया जाता है।
अस्तु, आचार्य केशव मिश्र ने ‘‘प्रमाणप्रमेय..तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः’’ इस न्यायसूत्र2 को पुरस्कृत कर भाष्यकार द्वारा निर्दिष्ट त्रिविध शास्त्रप्रवृत्ति का अवलम्बन किया है- त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिरुद्देशो लक्षणं परीक्षाचेति।3
न्यायकन्दलीकार आचार्य श्रीधर ने त्रिविध प्रवृत्ति को सम्यक्तया परिभाषित किया है- नामधेयेन पदार्थानामभिधानमुद्देशः।
उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्तको धर्मो लक्षणम्।
लक्षितस्य यथालक्षणं विचारः परीक्षा।4
तर्कभाषाकार ने सूत्रोक्तक्रम का आदर करते हुए प्रमाण की विवेचना लक्षणादि के उपस्थापन द्वारा आरम्भ करते हुए भाष्योक्त समाख्यानिर्वचनसामर्थ्य को पुरस्कृत किया है- प्रमाकरणं प्रमाणमिति।5
समानतन्त्रसिद्धान्त के रूप में श्री मिश्र ने ‘यथार्थानुभवः प्रमा’ निर्वचन द्वारा अयथार्थस्वरूप संशय, विपर्यय एवं तर्कज्ञानों का वारण किया है। विपर्ययात्मा की अयथार्थता ‘तदभाववति तत्प्रकारकं ज्ञानमप्रमा’ निर्वचन से सुस्पष्ट है। संशयात्मा की अयथार्थता भी उसके अनिश्चयात्मक होने से विदित होती है। तर्कात्मा की अयथार्थता को न्यायसूत्र में संकेतित किया गया है- अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः।6 तर्कज्ञान द्वारा एक पक्ष का समर्थन मात्र पुरस्कृत होता है विनिश्चायन नहीं अतएव यह भी अयथार्थात्मा ही है। इसे भाष्यकार ने सुविवेचित किया है- कथं पुनरयं तत्त्वज्ञानार्थः, न तत्त्वज्ञानमेवेति। अनवधारणात्। अनुजानात्ययमेकतरं धर्मं कारणोपपत्त्या न त्ववधारयति, न व्यवस्यति, न निश्चिनोति एवमेवेदमिति।7
प्रमा के द्वैविध्य स्मृति एवम् अनुभव को प्रतिपादित कर प्रमाकरण की व्याख्या के प्रसङ्ग में श्री मिश्र ने पाणिनिसूत्र का अवलम्ब किया है- साधकतमं करणम्।8
कारणप्रकर्ष की सुबोध व्याख्या हेतु कारणलक्षण प्रतिपादित किया गया है। तद्यथा- ‘यस्य कार्यात् पूर्वभावो नियतोऽनन्यथासिद्धश्च तत्कारणम्।9
समीक्षा पुरःसर कारणत्रैविध्य का सोदाहरण लक्षण प्रस्तुत करने के क्रम में श्री मिश्र ने न्यायकुसुम्ा०जलि की आचार्योक्ति को उपजीव्य बनाया है-
पूर्वभावोहि हेतुत्वं मीयते येन केनचित्।
व्यापकस्यापि नित्यस्य धर्मिधीरन्यथा नहि।।10
समवायिकारण के निरूपण-प्रसङ्ग में श्री मिश्र ने अयुतसिद्धों के समवाय को व्याख्यायित एवं प्रतिष्ठापित किया है- तत्रायुतसिद्धयोः सम्बन्धः समवायः।
....ययोर्मध्ये एकमविनश्यद- पराश्रितमेवावतिष्ठते तावयुतसिद्धौ।11
तदनन्तर श्री मिश्र ने अवसर प्राप्त धारावाहिकज्ञान को पूर्वाचार्योक्ति के अवलम्बन से निरूपित करने के क्रम में वादि सिद्धान्तों की समीक्षा भी की है। तद्यथा- अनधिगतार्थगन्तृत्वं च धारावाहिकविज्ञानानाम्......नाद्रियामहे।
........ कथं पूर्वमेव प्रमाणं नोत्तराण्यपि।12
यत्तु अनधिगतार्थगन्तृप्रमाणमिति लक्षणम्, तन्न, एकस्मिन्नेव घटे..... धारावाहिकज्ञानानां गृहीतग्राहिणामप्रमाण्यप्रसङ्गात्। .....ततश्चोत्तरदेश- संयोगोत्पत्तिरिति।13
श्री मिश्र न्यायसूत्र14 का अनुसरण करते हुए क्रमशः प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द प्रमाणों का सप्रभेद लक्षण विवेचित करते हैं। उन्होंने षोढासन्निकर्ष एवम् अलौकिक सन्निकर्ष के साथ निर्विकल्प एवं सविकल्प प्रत्यक्षों की परीक्षा की है। क्रमशः साङ्गोपाङ्ग अनुमानप्रमाण, उपमाननिरूपण, शब्दनिरूपण, अर्थापत्ति समीक्षण के साथ अभाव (अनुपलब्धि) प्रमाण की समीक्षा के अनन्तर श्री मिश्र ने प्रामाण्यवाद की दार्शनिक अवधारणा की समीक्षा अत्यन्त सुबोध रीति से उपस्थित की है। तद्यथा-
चत्वार्येव प्रमाणानि युक्तिलेशोक्तिपूर्वकम्।
केशवो बालबोधाय यथाशास्त्रमवर्णयत्।।15
तदनन्तर प्रमेयनिरूपण के प्रसङ्ग में तर्कभाषाकार ने निम्नाङ्कित सूत्र को आधार बनाया है- आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्याभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम्।16
प्रमेयनिरूपणप्रसङ्ग में द्रव्यादि पदार्थों की विवेचना वादिमत समीक्षा के साथ तर्कभाषा में विवेचित की गई है। पीलुपाक एवं पिठरपाक की पृथग् अवधारण भी यहाँ सुविवेचित हुई है। तद्यथा- द्विविधायाः पृथिव्या रूपरसगन्धस्पर्शा अनित्याः पाकजाश्च।17
परमाणुसिद्धि को अत्यन्त संक्षिप्त युक्ति से श्री मिश्र ने उपस्थापित किया है- यदिदं जाले सूर्यमरीचिस्थं......सएव परमाणुः। सचाऽनारब्ध एव।18
तदनन्तर संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा एवं सप्रभेद हेत्वाभास की मनोज्ञ विशद विवेचना तर्कभाषा की उपादेयता को संवर्धित करती है। तदनन्तर छल, जाति एवं निग्रहस्थान की निरूपणा के साथ तर्कभाषा की पूर्ति की गई है।
स्वयं ग्रन्थकार मुख्य उपादेयतम पदार्थ की विवेचना वैषद्येन करते हैं। अनपेक्षित पदार्थ को परिभाषित भी करना आवश्यक नहीं समझते-
इहात्यन्तमुपयुक्तानां स्वरूपभेदेन भूयोभूयः प्रतिपादनम्।
यदनति-प्रयोजनं तदलक्षणमदोषाय। एतावतैव बालव्युत्पत्तिसिद्धेः।19
1275 ई0 समकालस्थितिक तर्कभाषाकार श्री केशव मिश्र मिथिलाभिजन हैं। तर्कभाषाटीका ‘प्रकाश’ के रचयिता गोवर्धन मिश्र तर्कभाषाकार श्री केशव मिश्र को अपना गुरु बताते हैं। बलभद्र मिश्र के पुत्र केशव मिश्र के दो अग्रज प्रौढ़ विद्वान् थे-  1. विश्वनाथ एवं 2. पद्मनाभ। पद्मनाभ अग्रज जिनके द्वारा किरणावलीप्रकाश टीका लिखी गई उनसे न्यायशास्त्र का विधिवत् अध्ययन कर तर्कभाषा की रचना श्री केशव मिश्र ने की थी। तद्यथा- विजयश्रीतनूजन्मा गोवर्धन इति श्रुतः।
तर्कानुभाषां तनुते विविच्य गुरुनिर्मिताम्।।
श्रीविश्वनाथानुज-पद्मनाभानुजो गरीयान् बलभद्रजन्मा।
तनोति तर्कानधिगत्य सर्वाञ् श्रीपद्मनाभाद् विदुषो विनोदम्।।20
उपदिष्टा गुरुचरणैरस्पृष्टा वर्धमानेन। किरणवल्यामर्थास्तन्यन्ते पद्मनाभेन।।21
तर्कभाषा के अधीती न्याय-वैशेषिक के पदार्थों से सुपरिचित होकर समग्र भारतीय दर्शनों में प्रवेशाधिकार प्राप्त कर लेते हैं। 700 वर्षों में लगातार स्पृहणीय से स्पृहणीयतर एवम् स्पृहणीयतम बनती हुई तर्कभाषा प्रसिद्ध चौदह संस्कृत टीकाओं एवम् अनेक हिन्दी टीकाओं से अलंकृत होकर पर्याप्त माहात्म्य-मण्डित है। हम उनके सत्यसंकल्प को पौनःपुन्येन स्मरण करते हैं-
बालोऽपि यो न्यायनये प्रवेशमल्पेन वा्×छत्यलसः श्रुतेन।
संक्षिप्तयुक्त्यन्विततर्कभाषा प्रकाश्यते तस्य कृते मयैषा।।22
पाद-टिप्पणी
1. शास्त्रैकदेशसम्बद्धं शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम्। आहुः प्रकरणं नाम शास्त्रभेदविचक्षणाः। सूत्रभाष्यादिभिः शास्त्रं साक्षाद् वेदनसाधनम्।। -पाराशर उपपुराण, 18/21-22, सरस्वती भवन अध्ययनमाला-40,पृ.91
2प्रमाण-प्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छल- जातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः।। - गौतमीय न्याय सूत्र 1.1.1., बौद्ध भारती ग्रन्थमाला-11, पृ. 5
3. त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिः - उद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति।
- न्यायसूत्र 1.1.3 पर वात्स्यायन न्याय भाष्य, सुधी ग्रंथमाला-10, पृ. 17
4. योऽपि हि त्रिविधां शास्त्रस्य प्रवृत्तिमिच्छति, तस्यापि प्रयोजनादीनां नास्ति परीक्षा, तत् कस्य हेतोः? लक्षणमात्रादेव ते प्रतीयन्त इति। एवञ्चेदर्थप्रतीत्यनुरोधाच्छास्त्रस्य प्रवृत्तिर्न त्रिधैव। नामधेयेन
पदार्थानामभिधानमुद्देशः। उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्तको धर्म्मो लक्षणम्। लक्षितस्य यथालक्षणं विचारः परीक्षा।-प्रशस्तपादभाष्य (पदार्थधर्म्मसङ्ग्रह) पर न्यायकन्दली टीका,गङ्गानाथ झा ग्रन्थमाला-1,पृ0 69
तुलनीय- त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिः- उद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति, तत्र नामधेयेन पदार्थमात्रस्याभिधानम् उद्देशः तत्रोद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम्, लक्षितस्य यथालक्षणमुपपद्यते न वेति प्रमाणैरवधारणं परीक्षा। -न्यायसूत्र 1.1.3 पर वात्स्यायन न्यायभाष्य, सुधी ग्रन्थमाला-10, पृ. 17 ।
5. ;पद्ध उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानीति समाख्यानिर्वचनसामर्थ्याद् बोद्धव्यम् - प्रमीयतेऽनेनेति करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्दः। तद्विशेषसमाख्याया अपि तथैव व्याख्यानम्।
- न्यायसूत्र 1.1.3 पर वात्स्यायन न्याय भाष्य, सुधी ग्रन्थ माला-10, पृ. 18 ।
;पपद्धप्रमाणानामुलब्धिसाधनत्वं पदार्थप्रतीतिकारणत्वमुक्तरीत्या समाख्यानिर्वचनसामर्थ्यात् प्रत्यक्षादिशब्दव्युत्त्पत्तिसामर्थ्याद् बोद्धव्यं यथा ‘अक्षस्याक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः प्रत्यक्षम्’ इत्यादि। प्रमाणपदव्युत्पत्तिमाह-प्रमीयते इति, प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणमिति प्रमाणशब्दः करणार्थाभिधानः प्रमितिकरणत्वबोधकः करणत्वबोधकल्युट्प्रत्ययघटितत्वात्। तद्विवशेषसमाख्यायाः प्रमाणविशेषवाचकप्रत्यक्षादिशब्दस्यापि तथैव करणव्युत्त्पत्त्या व्याख्यानं कर्त्तव्यं यथा प्रत्यक्ष्यतेऽनेनेति प्रत्यक्षम् किं वा ‘अक्षमक्षं प्रतीति प्रत्यक्षम्’ इति। -वात्स्यायन न्यायभाष्य 1.1.3 पर प्रसन्नपदाटीका, सुधी संस्कृत ग्रन्थमाला-10, पृ. 18 ।
6. न्यायसूत्र 1.1.50, बौद्ध भारती ग्रन्थमाला- 11, पृ. 54
7. न्यायसूत्र 1.1.40 पर वात्स्यायन न्यायभाष्य, सुधी संस्कृत ग्रन्थमाला-11, पृ. 65 ।
8. अष्टाध्यायी, 1.4.42
9. तर्कभाषा, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला-155, पृ. 19 ।
10. न्यायकुसुमा्×जलि, 1/19, मिथिलाविद्यापीठप्राचीनग्रन्थवली-23, पृ. 210 ।
11. तत्रायुतसिद्धयोः सम्बन्धः समवायः। अन्ययोस्तु संयोग एव। कौ पुनरयुतसिद्धौ? ययोर्मध्ये एकमविनश्यदपराश्रितमेवावतिष्ठते तावयुतसिद्धौ। -तर्कभाषा, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला-155,पृ. 26
12.अनधिगतार्थगन्तृत्वं च धारावाहिकविज्ञानानामधिगतार्थगोचराणां लोकसिद्धप्रमाणभावानां प्रामाण्यं वहन्तीति नाद्रियामहे। न च कालभेदेनानधिगतगोचरत्वं धारावाहिकानामिति युक्तम्। परमसूक्ष्माणां कालकलादिभेदानां पिशितलोचनरस्मादृशैरनाकलनात्। न चाद्येनैव विज्ञानेनोपदर्शितत्वादर्थस्य प्रवर्तितत्वात्पुरुषस्य प्रापितत्त्वाच्चोत्तरेषामप्रामाण्यमेव ज्ञानानामिति वाच्यम्। न हि विज्ञानस्यार्थप्रापणं प्रवर्तनादन्यद्, न च प्रवर्तनमर्थप्रदर्शनादन्यत्। तस्मादर्थप्रदर्शनमात्रव्यापारमेव ज्ञानं प्रवर्तकं प्रापकं च। प्रदर्शनं च पूर्ववदुत्तरेषामपि विज्ञानानामभिन्नमिति कथं पूर्वमेव प्रमाणं नोत्तराण्यपि।-न्यायवार्तिकतात्त्पर्यटीका,काशीसंस्कृतग्रन्थमाला24,पृ 21
13. यत्तु अनधिगतार्थगन्तृप्रमाणमिति लक्षणम्, तन्न, एकस्मिनेव घटे घटोऽयं घटोऽयमिति धारावाहिकज्ञानानां गृहीतग्राहिणामप्रामाण्यप्रसङ्गात्। न चान्यायलक्षणविशिष्टविषयीकरणादनधिगतार्थगन्तृता। प्रत्यक्षेण सूक्ष्मकालभेदानाकलनात्। कालभेदग्रहे हि क्रियादिसंयोगान्तानां चतुर्णां यौगपद्याभिमानो न स्यात्। क्रिया, क्रियातो विभागो, विभागात् पूर्वसंयोगनाशः, ततश्चोत्तरदेशसंयोगोत्पत्तिरिति। -तर्कभाषा, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला-155, पृ.39-40.
14. प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि। -न्यायसूत्र 1.1.3, बौद्धभारती ग्रन्थमाला-11, पृ. 15
15. तर्कभाषा, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला-155, पृ. 144
16. न्यायसूत्र 1.1.9, बौद्धभारती ग्रन्थमाला-11, पृ. 25 ।
17. द्विविधायाः पृथिव्या रूपरसगन्धस्पर्शा अनित्याः पाकजाश्च। तेजः संयोगः, तेन पृथिव्याः पूर्वरूपादयो नश्यन्त्यन्ये जन्यन्त इति पाकजाः।-तर्कभाषा, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला 155, पृ.172.
18. तदेव, पृ. 183
19. तदेव, पृ. 264
20. तर्कभाषाप्रकाशिका से उद्धृत, तदेव, पृ. 60-61
21. किरणावलीप्रकाश से उद्धृत, तदेव, पृ. 61
22. तर्क-भाषा-आरम्भमङ्गलपद्य ।
सन्दर्भ-सूची
1.तर्कभाषा, केशवमिश्र, काशीसंस्कृतग्रन्थावली 155, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, संस्करण, 2006.
2.तर्कभाषा, केशवमिश्र, चौखम्भा सुरभारती ग्रन्थमाला 74, वाराणसी, पुनर्मुद्रित संस्करण, 2009.
3.गौतमीय न्यायसूत्र, ‘न्यायदर्शनम्’ शीर्षक से वात्स्यायन भाष्य सहित प्रकाशित, सं.द्वारिकादास शास्त्री, बौद्धभारती ग्रन्थमाला 11, बौद्धभारती, वाराणसी, 1984.
4.न्यायभाष्य, वात्स्यायन मुनि, सं. द्वारिकादास शास्त्री, सुधी ग्रन्थमाला 10, सुधी प्रकाशन, वाराणसी, 1986
5.अष्टाध्यायी सूत्रपाठ, पाणिनि, सं. शंकरराम शास्त्री, शारदा पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1937
6.पाराशरोपपुराण, सं. कपिलदेव त्रिपाठी, सरस्वती भवन अध्ययनमाला 40, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, 1990
7.न्यायकुसुमा्×जलि, उदयनाचार्य, सं. महाप्रभुलाल गोस्वामी, मिथिला विद्यापीठ प्राचीन ग्रन्थावली-23, मिथिला रिसर्च इंस्टीट्यूट, दरभङ्गा, 1972
8.आमोद (न्यायकुसुमाञ्जलि टीका), शंकर मिश्र, सं. महाप्रभुलाल गोस्वामी, मिथिला विद्यापीठ प्राचीन ग्रन्थावली-23, मिथिला रिसर्च इंस्टीट्यूट, दरभङ्गा, 1972
9.विवेक (न्यायकुसुमाञ्जलि टीका), गुणानन्द विद्यावागीश, सं. महाप्रभुलाल गोस्वामी, मिथिला विद्यापीठ प्राचीन ग्रन्थावली-23, मिथिला रिसर्च इंस्टीट्यूट, दरभङ्गा, 1972
10.परिमल (न्यायकुसुमाञ्जलि टीका), हरिहरकृपालु द्विवेदी, सं. महाप्रभुलाल गोस्वामी, मिथिला विद्यापीठ प्राचीन ग्रन्थावली-23, मिथिला रिसर्च इंस्टीट्यूट, दरभङ्गा, 1972
11.तात्पर्यवार्त्तिक टीका, वाचस्पति मिश्र, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला-24, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, 1990.
12.प्रशस्तपादभाष्य (पदार्थधर्मसङ्ग्रह), प्रशस्तपाद, सं. पं. दुर्गाधर झा, गङ्गानाथ झा ग्रन्थमाला 1, सम्पूर्णानन्द संस्कृत वि. वि. वाराणसी, 1972.
13.न्यायकन्दली (प्रशस्तपादभाष्य टीका), श्रीधर भट्ट, सं. पं. दुर्गाधर झा, गङ्गानाथ झा ग्रन्थमाला 1, सम्पूर्णानन्द संस्कृत वि. वि. वाराणसी, 1972
14.श्रीधराचार्य और वैशेषिकदर्शन, सत्यनारायण मिश्र, साहित्य निकेतन, कानपुर, 1987
15.वैशेषिकदर्शन (वैशेषिक सूत्र), कणाद, सं.अनन्तलाल ठक्कुर, मिथिला रिसर्च इंस्टीट्यूट, दरभङ्गा,1988.
16.न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, वाचस्पति मिश्र, सं. अनन्तलाल ठक्कुर, न्यायचतुर्ग्रन्थिका- तृतीय भाग, भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद, नई दिल्ली, 1996
17.तर्कसङ्ग्रह, अन्नम्भट्ट, सं. सत्कारि शर्मा बंगीय, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला 187, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, पुनर्मुद्रण 2011.
18.तर्कसङ्ग्रह, अन्नम्भट्ट, बाम्बे संस्कृत एण्ड प्राकृत सिरीज, भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूने, द्वितीय संस्करण, 1918
पवन कुमार
असिस्टैण्ट प्रोफेसर,
राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, लखनऊ-परिसर।

वैदिक साहित्य में धर्मार्थ विवेचन


नकुल पाण्डेय

पुरुषार्थ चतुष्टय में धर्म को प्रथम स्थान प्राप्त है। श्रुति द्वारा जो कर्म समाज के कल्याण के लिए विहित हैं, वे धर्म कहे गये हैं। धृ´् धारणे धातु से निष्पन्न धर्म का मूल अर्थ है- धारण करना। महाभारत में भी धारणात् धर्म इत्याहुः कहकर धर्म का एक विशिष्ट अर्थ स्वीकार किया गया है। किन्तु कालान्तर में इसका अर्थ विस्तार हो गया और अब यह शब्द व्यापक रूप में विभिन्न सम्प्रदायों के लिए प्रयुक्त होने लगा है। जैसे- बौद्ध धर्म, जैन धर्म, इसाई धर्म आदि। इस प्रकार वैदिक और अवैदिक दोनों सम्प्रदायों में धर्म के भिन्न-भिन्न अर्थ किये गये हैं। किन्तु वेदों में यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः अर्थात् जिसके द्वारा अभ्युदय एवं निःश्रेयस की सिद्धि हो, उसे धर्म कहते हैं, इस उक्ति को स्वीकार किया गया। अर्थ संग्रह के व्याख्याकार डॉ0 कामेश्वर मिश्र के शब्दों में- ‘‘अर्थ संग्रहकार ने यागादि को ही धर्म माना है, अन्य को नहीं। ‘एव’ पद को रखकर उन्होंने ‘यागादि’ के अतिरिक्त किसी भी अन्य कर्म को धर्म नहीं स्वीकार किया है। कुछ विद्वानों के अनुसार ‘एव’ पद से अवैदिक बौद्ध आदि सम्प्रदायों में स्वीकृत ‘चैत्य वन्दन’ आदि का निराकरण किया गया है, क्योंकि इनको वेदों में धर्म नहीं माना गया है।1 कुछ विद्वानों के अनुसार ‘एव’ शब्द से वैशेषिक सम्प्रदाय तथा वेदान्त सम्प्रदाय द्वारा मान्य अदृष्ट धर्म जो अन्तःकरण या आत्मा में रहता है, का निराकरण किया गया है। मीमांसकों के मत में यागादि को ही धर्म इसलिए माना गया क्योंकि वे निःश्रेयस के साधन हैं। उनकी निःश्रेयस साधनता केवल वेदों से ही ज्ञात होती है। किसी अन्य उपाय से नहीं। यदि वेदों का समर्थन न होता तो यागदि के महत्त्व का ज्ञान न होता। वेदों से ही ज्ञात होता है कि किस याग को करने से कौन सी श्रेयस्कर वस्तु प्राप्त होगी और कौन उसे करने का अधिकारी है। जहाँ तक यागादि में आदि शब्द का प्रश्न है तो यहां आदि से इज्या अर्थात् यज्ञ देवनिमित्त द्रव्य का त्याग प्रधान रूप है इसके अतिरिक्त आचार, दान, अहिंसा और स्वाध्याय आदि का ग्रहण होगा। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि एक ओर जहाँ बौद्धादि सम्मत चैत्य स्तूप आदि का वन्दन धर्म नहीं है, वहीं मीमांसा से भिन्न न्याय वैशेषिक, वेदान्त आदि आस्तिक सम्प्रदायों को मान्य यागादि से भिन्न रूप वाला धर्म (मीमांसकों को) स्वीकार नहीं है। निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि धर्म चाहे वैदिक या अवैदिक किसी भी सम्प्रदाय में मान्य हो, यदि वह यागादि नहीं है तो मीमांसकों की दृष्टि में धर्म नहीं है। यद्यपि वर्तमान समय में विभिन्न सम्प्रदाय और समाज के द्वारा धर्म का व्यापक रूप स्वीकार कर लिया गया है तथापि मेरा विवेचन वैदिक साहित्य पर केन्द्रित होने के कारण वेदानुकूल ही होगा।
वैदिक साहित्य में धर्म के दो रूप दृष्टिगोचर होते हैं- प्रथम भक्ति या श्रद्धा और द्वितीय- यज्ञ। ऋग्वेद में देवताओं की जो स्तुति की गई है, उसमें भक्ति या श्रद्धा की भावना ही लक्षित होती है। अग्नि, इन्द्र, सविता, वरूण आदि देवताओं की स्तुतियों में अगाध श्रद्धा एवं भक्ति की भावना भरी हुई है। देवताओं के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति ही धार्मिक जीवन की मुख्य विशेषता रही है। ऋग्वैदिक देवताओं के तीन वर्ग हैं- (1) द्युस्थानीय, (2) अन्तरिक्ष स्थानीय, (3) पृथ्वी स्थानीय। प्रत्येक वर्ग में 11 देवता हैं, इस प्रकार तीनों वर्गों को मिलाकर देवताओं की कुल संख्या 33 है।
(1) द्युस्थानीय - सूर्य, वरूण, मित्र और विष्णु आदि।
़(2) अन्तरिक्ष स्थानीय - इन्द्र, रूद्र, मरूत्, आपः आदि।
(3) पृथ्वी स्थानीय - अग्नि, सोम, पृथ्वी आदि।
ऋग्वैदिक धर्म का दूसरा रूप यज्ञ है। ऋग्वैदिक काल यज्ञ को धर्म का एक विशेष अंग माना जाता था। समस्त वैदिक वाङ्मय के अधिकांश मंत्र यज्ञ से ही सम्बधित हैं और चारों वेदों का मूल उद्देश्य सफलता पूर्वक यज्ञों का सम्पादन कराना है। ऋग्वेद में तो यज्ञ को ही प्रथम और मुख्य धर्म माना गया है- तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।2 शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ को ईश्वर रूप माना गया है- विष्णुर्वैयज्ञः3 इस प्रकार वेदों में यज्ञ को ईश्वर एवं धर्म का साक्षात् प्रतीक कहा गया है। उस यज्ञरूप धर्म का ऋग्वेद में महत्त्वपूर्ण वर्णन है। यज्ञों में अग्नि का विशिष्ट महत्व और स्थान है। अग्निमीले पुरोहितम्4 ऋग्वेद में अग्नि को यज्ञ का पुरोहित कहा गया है। कहीं पर उसे देवताओं का मुख तो कहीं पर दूत भी कहा गया है। यज्ञों में सर्वप्रथम अग्नि का ही आधान और आह्वान होता है, उसके बिना यज्ञ प्रारम्भ नहीं हो सकता है। अग्नि ही भक्तों द्वारा दी हुई आहुति को विभिन्न देवताओं तक पहुँचाती है। ऋग्वेद में अग्नि से सम्बन्धित लगभग दो सौ सूक्त हैं, जिनमें अग्नि के साथ यज्ञ के महत्व का प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि ऋग्वैदिक काल में भक्ति और यज्ञ ये दोनों रूप एक दूसरे के पूरक थे।
धर्म और उसके रूपों पर प्रकाश डालने के बाद अब अर्थ का विवेचन आवश्यक है। चार पुरुषार्थोंर् में अर्थ को दूसरे स्थान पर रखा गया है, किन्तु वैदिक साहित्य में धर्म से कम महत्व नहीं दिया गया है। क्योंकि यज्ञादि कर्म अर्थ पर ही आश्रित थे। अतएव वेदों के विभिन्न सूक्तों में अर्थ का महत्व विशेष रूप से प्रतिपादित है। वैदिक काल में आर्यलोग धर्म का पालन करने के साथ अर्थोपार्जन करते थे। ऋग्वेदकालीन समाज का आर्थिक जीवन कृषि, पशुपालन, व्यापार एवं उद्योग-धंधों पर निर्भर था। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर कृषि एवं कृषि सम्बधी वस्तुओं का उल्लेख मिलता है। उस समय पशुपालन प्रमुख व्यवसाय था और अर्थोपार्जन का प्रधान साधन था। पशुओं में सबसे मूल्यवान गौ थी। गौ को तीन बार दुहा जाता था। गाय के दूध से दही, मक्खन तथा घी बनाने की कला से आर्य लोग परिचित थे। तत्कालीन समाज में गौ को विशेष आदर और सुरक्षा प्राप्त थी। ऋग्वेद में आये हुए दुहिता तथा अध्नया शब्दों से इस बात का पता चलता है। गाय का प्रयोग मुद्रा के रूप में भी अन्य वस्तुओं के क्रय-विक्रय के लिए होता था। गौ के अतिरिक्त अन्य पशुओं में भेड़, बकरी और अश्व का उल्लेख मिलता है। भेड़पालक को अविपाल और बकरी पालक के अजपाल कहा जाता था।
ऋग्वेदकाल में अनाज, दूध, घी, वस्त्र, आदि दैनिक जीवन के उपयोग की वस्तुओं का व्यापार प्रमुखता से किया जाता था। आर्यों का व्यापार सिर्फ अपने देश तक सीमित नहीं था, वे विदेश में जाकर भी व्यापार करते थे। ऋग्वेद में समुद्र में चलने वाली नावों का वर्णन मिलता है। ऋग्वेदकाल में सूत कातना तथा कपड़ा बुनना प्रमुख उद्योग था। इसके अतिरिक्त रथ, आभूषण, हथियार आदि बनाने का काम भी होता था। धातु गलाने, मिट्टी के बर्तन बनाने, चमड़े से विभिन्न वस्तुएँ बनाने तथा रस्सी बनाने का उद्योग प्रचलित था। स्वर्णकार सोने को गलाकर विभिन्न प्रकार के आभूषण तैयार करते थे। ऋग्वेद में वय, तक्ष्मन (बढ़ई) हिरण्यकार, चर्मकार, कारू (शिल्पी), भिषक् (वैद्य) आदि व्यवसायियों का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि आर्य लोग विभिन्न व्यवसय को अपनाकर अर्थोपार्जन करते थे। तत्कालीन समाज में धर्म का प्राबल्य था। लोगों के मन में देवी-देवताओं के प्रति विशेष श्रद्धा थी। अधर्म, अत्याचार, अनाचार, दुराचार से लोग दूर रहते थे। यागादि कर्म में लोगों की विशेष रुचि थी। ऋग्वेद में प्राप्त विभिन्न सूक्तों से इन बातों का पता चलता है। अग्नि सूक्त के एक मंत्र ऊँ अग्निमीले पुरोहितम् यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्।।5 में ऋषि अग्नि की स्तुति करते हुए कहता है कि मैं उस अग्नि का स्तवन करता हूँ जो यज्ञ का पुरोहित, देवताओं का आह्वान करने वाला तथा सम्पत्ति का सर्वश्रेष्ठ दाता है। इसी प्रकार अग्नि सूक्त के ही एक दूसरे मंत्र अग्निनारयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे यशसं वीरवत्तमम्।।6 में ऋषि की कामना है कि अग्नि द्वारा यजमान प्रतिदिन यशस्वी तथा अधिकतम वीरों वाले धन समृद्धि को प्राप्त करे। अग्नि सूक्त के उपर्युक्त मंत्रों में अग्नि को धन प्रदान करने वाले देवताओं में सर्वश्रेष्ठ माना गया है और उससे सम्पत्ति तथा समृद्धि की कामना की गई है। अग्नि सूक्त के ही एक अन्य मंत्र ‘‘यतस्त्वामग्ने इनधते यतस्त्रुक् त्रिस्ते अन्नं कृणवत्सस्मिन्नहन्।’’
स सु द्युम्नैरभ्यस्तु प्रसक्षत्तव क्रत्वा जातवेदश्चिकित्वान्।।7 में ऋषि अग्नि से प्रार्थना करता है कि हे अग्नि, जो प्रतिदिन तुमको प्रज्ज्वलित कर दिन में तीन बार हवि प्रदान करे, वह धनों से तथा तुम्हारे पराक्रम से शत्रुओं को अच्छी प्रकार से अभिभूत करे। कुछ इसी प्रकार की कामना इसी सूक्त के एक और मंत्र में की गई है- इध्मं यस्ते जभरच्छश्रमाणों, महो अग्ने अनीकमा सपर्यन्।
‘‘स इधानः प्रति दोषामुषासं पुष्यनरयिं सचते धनन्नमित्रान्।।8
अर्थात् हे अग्नि, परिश्रम करता हुआ जो व्यक्ति तुम्हारे शक्तिशाली तेज का सम्मान करता हुआ तुम्हारे लिए इन्धन लाता है, वह प्रत्येक रात्रि तथ प्रातः काल तुमको प्रज्ज्वलित करता हुआ, स्वयं समृद्ध होता है तथा शत्रुओं को मारता हुआ धन को प्राप्त करता है। उपर्युक्त मंत्रों में ऋषि इतनी समृद्धि की कामना करता है जिससे वह शत्रुओं को परास्त कर सके। अग्नि के बाद इन्द्र सूक्त में भी इन्द्र से धन समृद्धि की कामना की गई है। यो रघ्रस्य चोदिता यःकृशस्य यो ब्रह्मणो नाधमानस्य कीरेः।
युक्तग्राव्णों योऽविता सुशिप्रः सुतसोमस्य स जनास इन्द्रः।9
इन्द्र सूक्त के उपर्युक्त मंत्र में इन्द्र को धनिक, निर्धन, याचक तथा ब्राह्मण स्तोता के धन की वृद्धि करने वाला बताया गया है। इसी सूक्त के एक अन्य मंत्र में इन्द्र के सम्बन्ध में कहा गया है कि उसके लिए जो व्यक्ति सोम रस को निकालता तथा पकाता है, उसे वह दूसरों द्वारा लूटे हुए धन को लाकर देता है।
यः सुन्वते पचते दुध्र आ चिद्वाजं दर्दर्षि स किलासि सत्यः।
वयं त इन्द्र विश्वह प्रियासः सुवीरासो विदवथमा वदेम।।’’10
उपर्युक्त मंत्रों में कहा गया है कि अनैतिक तरीके से प्राप्त धन को इन्द्र बल पूर्वक लेकर परिश्रमी, धार्मिक निर्धन को दे देता है। इस प्रकार अधर्म पूर्वक धन प्राप्त करने का निषेध किया गया है। पूषन् सूक्त के एक मंत्र में ऋषि पूषन् से प्रार्थना करता है कि मुझे उस जानकार (विद्वान्) व्यक्ति के पास ले चलो जो मुझे सीधे मार्ग से नष्ट द्रव्यों की प्राप्ति का उपाय बतावे। सं पूषन् विदुषा नय यो अ´्जसानुशासति। य एवेदमिति ब्रवत्।।11 अगले मंत्र में कहा गया है कि जो पूषा के लिए हवि प्रदान करता है, उसको पूषा कभी नहीं भूलता, वह सर्वप्रथम धन प्राप्त करता है। यो अस्मै हविषाविधन्न तं पूषापि मृष्यते। प्रथमो विन्दते वसु।।12 इसी सूक्त के एक अन्य मंत्र में पूषा को धन का स्वामी तथा कभी नष्ट न होनेवाली सम्पत्ति का दाता बताया गया है- श्रृण्वन्तं पूषणं वयमिर्यमनष्टवेदसम्। ईशानं राय ईमहे।।13 वहीं एक अन्य मंत्र में पूषा से नष्ट पशुरूपी धन को पुनः हाँक लाने की प्रार्थना की गई है- परि पूषा परस्ताद हस्तदधातु दक्षिणम्। पुनर्नो नष्टमाजतु।।14 इसी प्रकार मरूत् सूक्त आदि में भी वैभव प्राप्ति की कामना की गई है। मरूत् सूक्त के इस मंत्र में उत्साही व्यक्तियों से वैभव प्रदान करने की कामना और प्रार्थना की गई है।
इस प्रकार ऋग्वेद में प्राप्त विभिन्न सूक्तों से पता चलता है कि ऋग्वेदकाल में धर्माचरण पूर्वक अर्थोपार्जन प्रशंसनीय था और अनैतिक तरीके से अर्जित धन निन्द्य। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि आर्य लोग भिन्न-भिन्न व्यवसाय अपनाकर अर्थोपार्जन करते थे तथा उसके लिए समुद्र तक की यात्रा करते थे। विभिन्न देवताओं की स्तुति कर तथा हवि प्रदानकर उनसे धर्म और अर्थ दोनों के लिए समानरूप से उत्सुक और प्रयासरत थे।
संदर्भ ग्रंथ-
1. यागादिरेवेत्येवकारेण चैत्यवन्दनादि धर्मत्वं वारयति। न चैत्यवन्दनादि धर्मस्तत्र प्रमाणाभावात् इत्यर्थः। जीवानन्द पृ0 8) अर्थसंग्रह, पष्ठ संस्करण, सन् 2000, पृ0 सं0 14
2. ऋग्वेद- 1/139/11, 1/139/119, 8/28/1
3. ऋग्वेद- पुरुष सूक्त 10/90/16
4. ऋग्वेद- 1/1/1
5. ऋग्भाष्य संग्रह, अग्नि सूक्त-1, पृष्ठ सं0 1
6. वही, अग्नि सूक्त-3, पृष्ठ सं0 5
7. न्यू वैदिक सेलेक्सन, अग्नि सूक्त-1, पृष्ठ सं0 133
8. वही, अग्नि सूक्त-2, पृष्ठ सं0 134
9. न्यू वैदिक सेलेक्सन, इन्द्र सूक्त-6, पृष्ठ सं0 96
10. ‘‘ ‘‘ ‘‘ 15 109
11. ‘‘ पूषन सूक्त-01 142
12. ‘‘ ‘‘ ‘‘ 04 145
13. ‘‘ ‘‘ ‘‘ 08 148
14. ‘‘ ‘‘ ‘‘ 10 149
सहायक ग्रंथ-
1. उपाध्याय, आचार्य बलदेव, वैदिक साहित्य का इतिहास।
2. उपाध्याय, आचार्य बलदेव, भारतीय धर्म और दर्शन।
3. ओल्डेनबेर्ग, एच0, प्राचीन भारतीय भाषा और धर्म।
डॉ0 नकुल पाण्डेय
प्राध्यापक, संस्कृत विभाग,
संत कोलम्बा महाविद्यालय, हजारीबाग (झारखण्ड)

साठोत्तर युगीन काव्य में अभिव्यंजित ग्राम्य जीवन

अरूणेन्दु कुमार सिंह एवं दुर्गा प्रसाद ओझा

साठोत्तर युग में हिन्दी काव्य की सर्वाधिक प्रभावशाली काव्य धारा समकालीन कविता-धारा है। इसमें ग्राम्य जीवन का प्रभूत चित्रांकन हुआ है जिसका समग्र विवेचन विश्लेषण निबन्ध के संक्षिप्त कलेवर में सम्भव नही है। यहाँ बानगी के रूप में समकालीन कविता के दो प्रमुख रचनाकारों- धूमिल एवं सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं का ग्राम्य जीवन के चित्रण की दृष्टि से अनुशीलन तथा मूल्यांकन करने का यत्किंचित प्रयास किया जा रहा है।

धूमिल
धूमिल समकालीन कविता के सशक्त, बेजोड़ कवि है। उनके तीन काव्य संग्रह- संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे और सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र प्रकाशित है। इन काव्य संग्रहों की कविताओं में कवि ने साठोत्तर भारत की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक विसंगतियों तथा Ðासशील कारुणिक स्थितियों का यथार्थ एवं जीवन्त चित्रांकन किया है।
धूमिल मूलतः ग्रामीण संस्कारों के कवि है। उनका जन्म वाराणसी नगर से लगभग 12 किलो मीटर पश्चिम में स्थित बज्र देहाती गाँव खेवली में हुआ था वहाँ की सोंधी माटी तथा चन्दनवर्णी धूल में उनका बचपन, किशोर एवं युवा जीवन व्यतीत हुआ। परिणामतः उन्हें ग्राम्य जीवन की सुख-दुःख, भाव-अभाव, शान्ति-अशान्ति, सन्धि-विग्रह का गहरा एवं सच्चा अनुभव रहा है। गॉव की व्यथा-वेदना, शोषण-उत्पीड़न इत्यादि को उन्होंने नजदीक से देखा, परखा एवं भोगा है और इन सब स्थितियों, विसंगतियों का उन्होंने बड़ा यथार्थ एवं सजीव वर्णन सशक्त शब्दों में किया है। डॉ0 सन्तोष कुमार मिश्र के अनुसार- गाँव से उन किसान कवि का आत्मीय सम्बन्ध था यही कारण है कि उसमें किसानों और ग्रामीण चरित्र को चरितार्थ किया है। डॉ0 दुर्गा प्रसाद ओझा के अनुसर- धूमिल के व्यक्तित्व में खेवली की मिट्टी की करुणा का छन्द समाहित है, यही करुणा आगे चलकर उनकी कविताओं में इस देश की करुणा का छंद बन जाती है।  जब वह अपने गांव खेवली के सत्य को उजागर करता है, तब वह भारत वर्ष के सभी गांवों के सत्य का उद्घाटन करता है। तब ‘खेवली’ का यही सत्य पूरे देश का सत्य बन जाता है।1
सोच में डूबे हुए चेहरों और / वहाँ दरकी हुई जमीन में कोई फर्क नही है।
मेरे गांव में
वही आलस, वही ऊब, हर जगह हर रोज / और मैं कुछ नही कर सकता।
चेहरा-चेहरा डर लगता है, घर बाहर अवसाद है।
लगता है यह गांव नरक का, भोजपुरी अनुवाद है।।2
मेरा गाँव शीर्षक कविता में धूमिल ने अपने गाँव का रेखांकन बिम्बात्मक शैली में इस प्रकार किया है- तारों-भरा आसमान/और मरियल खौरहा कुत्ता
सीवान में पड़ी लोथ का, सन्नाटा सूँघता है।
अंधेरे में ऊघतें है घर, जैसे घुमटी मारे हुए मुसहर / ऊंघते हैं।।3
इस बिम्ब में गांव की दो बातों की व्य×जना है। प्रथम तो यह है कि गाँव के रूप में अँधकार एवं सन्नाटा है जो गांव के अविकसित होने का प्रतीक है। वहाँ आजादी के पूर्व की स्थिति बनी हुई है। द्वितीय यह है कि गाँव में गरीबी व्याप्त है, वहाँ का जीवन स्तर निम्न स्तरीय है। मरियल खौरहा कुत्ता इसकी व्य×जना करता है।
इसी कविता में कवि ने गांव की भुखमरी को व्यंग्यात्मक शैली में प्रदर्शित किया है। जो अधोलिखित पंक्तियों में दृष्टव्य है- भूख कभी गाली नही होती और पेट का नंगापन नंगई नही है।।4 कवि के अनुसार स्वतन्त्रता प्राप्ति के बीसों वर्ष पश्चात आज भी ग्राम संसद की कार्यवाही से बाहर निकाले गये/ वाक्य की तरह तिरस्कृत है।
गांवों में ‘कीर्तन’ शीर्षक कविता में कवि ने रात में होने वाले कीर्तन का चित्रण किया है। जिसमें ग्रामीण लोग उत्साह एवं उमंग के साथ सहभागिता करते हैं। तथापि इससे दुराचार तथा आलस्य जैसी अनेक बुराइयों का जन्म होता है। इस कविता में कवि की दृष्टि गांवों की अशिक्षा की ओर भी गई है। कवि का मन्तव्य है कि गांव में शिक्षा का एक अपरिहार्य कारण अभिभावकों की शिक्षा के प्रति उदासीनता का भाव है। यथा- एक रूवांसा लड़का / मदरसे से वापस आता है
चारपाई पर दांई करवट लेता हुआ बाप
बेटे की कमीज पर गिरी हुई श्याही देखकर
उसकी पढ़ाई के बारे में निशि्ंचत्य हो जाता है।।5
‘आज मैं लड़ रहा हूँ’ शीर्षक कविता में धूमिल ने परिवारों की दयनीय दशा का उद्घाटन इस प्रकार किया है- बच्चे भूखे है माँ के चेहरे पत्थरे,
पिता जैसे काठ अपनी ही आग में।6
गांवों में मुकदमों की बुरी लत में पड़कर ग्रामीणजन अपने परिवार को बर्बादी के गर्त में ढकेल देते हैं, जैसा कि अधोलिखित पंक्तियों से स्पष्ट है-
गांव की सरहद, पार करते हुए/ कुछ लोग/ बगल में बस्ता दबाकर/ कचेहरी जाते हैं/
और न्याय के नाम पर/ पूरे परिवार की/ बर्बादी उठा लाते है।।7
धूमिल ने कविता को गांव से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। हिन्दी के सुविख्यात कथाकार तथा धूमिल के अन्तरंग मित्र डॉ0 काशीनाथ सिंह के विचारों से धूमिल कविता को सीधे अपने गांव में ले गये, ‘खेवली में जहाँ गरीब है, किसान है, खेत है, खलिहान है, उनकी आपस की लाग-डाट है। जब वह अपने कविता को गांव में ले गये यानी अपनी कविता को अपने गाँव में स्थान दिया, विषय बनाया तो ढेर सारे भदेश शब्द उनकी कविता में आये, ये शब्द ही नही आये बल्कि गांव की जिन्दगी भी आई। 8
धूमिल गांव का गैर रूमानी चित्रण करने वाले हिन्दी के प्रथम कवि है। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध समीक्षक विष्णु खरे की बातों का उद्धृरण समीचीन- गांव का गैर रूमानी चित्रण भी शायद धूमिल ने ही पहली बार इतनी निर्मम सूक्ष्मता से किया है.... वहाँ न जंगल है न जन तन्त्र.... वहाँ कोई सपना नही है....। वहॉ वक्त के फालतू हिस्सों मेंं, खेतों में भद्दे इशारे गूंजते है.... पानी की जगह आदमी का खून रिसता है।
धूमिल की यह भावुकता दृष्टि उनकी कविता की एक वृहत्तर शक्ति है। यही उन्हें हिन्दी का पहला दुस्साहसी क्रान्ति धर्मा युवा कवि बनाती है। धूमिल की भाषा धारदार, सशक्त एवं प्रहारात्मक है। वह व्यंग्यात्मक है। उसमें ग्रामीण शब्दावली का बेहिचक कलात्मक प्रयोग है। उनकी काव्यशैली प्रायः संवादात्मक है। नवीन मौलिक एवं ताजे बिम्बों एवं प्रतीकां से उनकी कविता सम्पन्न है।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

साठोत्तर काल के अन्तर्गत सर्वेश्वर के चार काव्य संग्रह- बाँस का पुल (1963), एक सूनी नाव (1966), गर्म हवायें (1969), और कुआनों नदी (1973) प्रकाशित हुए, जिसमें कुआनों नदी काव्य संग्रह की कुआनों नदी ‘‘भुजेनिया का पोखरा’ बाँस गाँव, साड़े रो मँहगुआ तथा ‘गरीबी हटाओं’ इत्यादि कविताओं में ग्राम्य जीवन के विविध पक्षों का चित्रांकन हुआ है। वही दूसरी ओर ‘एक सूनी नांव’ में संचित अनेक कविताओं जैसे- ‘एक शहर में’ तथा ‘पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ’ में कवि का नगरों के प्रति कटु अनुभव अंकित हुआ है। यह कवितायें प्रमाण है कि सर्वेश्वर को ग्राम और नगर दोनों के गहरे अनुभव प्राप्त हैं।
सर्वेश्वर ने साठोत्तर भारतीय ग्राम्य जीवन के विभिन्न परिपार्श्वो का यथार्थ चित्रांकन किया है। उनका ग्राम्य वर्णन स्वयं भुक्त अनुभव पर आधारित है। कवि को गांव की धरती आकाश तथा वहाँ के परिवेश से बड़ा ममत्व है। कवि को अपने गाँव की नदी, पुल, बाँध, वृक्ष, खेल, सड़क, बैलगाड़ी, एक्के आदि के प्रति प्रबल सहज आकर्षण है। हृदय में इनकी मधुर स्मृति है। गाँव की निकट की सड़क का वर्णन कवि ने अत्यन्त जीवन्तता से किया है- तट से लगा हुआ एक बांध है
जिस पर ऊँचे-ऊँचे छायादार वृक्ष है
जिनके नीचे से सड़क जाती है, कई तीखें घुमाव लेती है
सड़क पर अनेक बैलगाड़ियाँ चलती है, कभी-कभी कोई इक्का भी
परदा बाँधे, औरतें - बच्चें को बैठाये जगमगाता।।’’9
सर्वेश्वर की दृष्टि युगीन भारत के ग्रामों की गरीबी की ओर सर्वाधिक गई है। उनका अपना गांव बांस गांव है। जिसकी गरीबी का व्यंग्यात्मक वर्णन कवि इस प्रकार करता है- बांस गांव एक पत्थर है, दानवीर सेठ लोकतंत्र का
जो बन्द प्याऊ पर लगा है
जिससे पीठ टिकाये इस जलती धूप में / आज भी खड़ी है मेरे साथ हॉफती गरीबी।।10
यहाँ भारत के लोकतंत्र के प्रति व्यंग्य है, जिसमें आज तक गाँव की गरीबी का अन्त नही हुआ। हॉफती गरीबी का मानवीकरण प्रभावशाली है। ‘कुआनों नदी’ शीर्षक कविता में भी कवि ने कई स्थलों पर ग्राम की दरिद्रता का जीवन्त चित्र खीचा है। कुछ पंक्तियां उदाहरणार्थ देखिए - एक ओर कुत्ते हॉफते बैठे रहते है
और दूसरे ओर उनके बच्चे
जिनकी आँखे अन्धेरे में जलती / मिट्टी के तेल की ढिबरियों-सी / दिखई देती है
ढिबरियाँ जो शाम को केवल घण्टे भर के लिये जलती है।।11
भारतीय ग्रामों मे प्रायः अकाल व बाढ़ आदि की विनाश लीला का करुण दृश्य देखने का मिलता है। कवि का गॉव नदी के तट पर स्थित है। उसने इस नदी की बाढ़ में अपने गांव के कारुणिक दृश्य को सम्भवत् कई बार सजल नेत्रों से देखा है। वह नगर में रहता हुआ बाढ़ के प्रति चिन्तित है। कवि सोचता है-
फिर बाढ़ आ गई होगी उस नदी में / पास का फुटहिया बाजार बह गया होगा
पेड़ की शाखों में बंधे खटोले पर / बैठे होंगे बच्चे किसी काछी के
और नीचे कीचड़ में खड़े होंगे चौपाये।।12
बाढ़ में गांव के गांव बह जाते है और ग्रामीणों के समक्ष रोटी, घर और वस्त्र की समस्यायें अधिकाधिक विकराल रूप धारण करके खड़ी हो जाती है। सर्वेश्वर की काव्य-रचनाओं में ग्राम के विविध व्यवसायों के वर्णन मिलते हैं। वहाँ के कृषकों व श्रमिकों के अतिरिक्त कवि की दृष्टि धोबियों, लोहारों, बढ़इयों, खटिकों, अहीरों तथा लकड़हारों इत्यादि की ओर गयी है। उसने नंगे-धड़ेगे पानी में घुसे सिंघाड़े तोड़ते खटिकों, धौंकनी के सामने घोड़े सा मुंह लटकाये खुरपी, कुदाल और नाल बनाते लोहारों, ऐनक का शीशा सूत से कान में बाँधे बँसरवट के पाये गढ़ते बढ़इयों, भूतनी सी भुजैनियों को तथा दही के मटके ले जाते हुए अहीरों को खुली आंखों से देखा है और उनका यथार्थ वर्णन किया है।
इन तमाम कमियों के बावजूद कवि को ग्राम्य जीवन के प्रति सहज आकर्षण है। वह ग्रामों की प्रगति का अकांक्षी है जो क्रान्ति के माध्यम से सम्भव है। ‘कुआनों नदी’ की अन्तिम पंक्तियों में कवि ने क्रान्ति का आह्वान इस प्रकार किया है-
कुआनों नदी। संकरी, नीली, शांत / जाने कब होगी। अक्षितिज, लाल, उद्दाम।।13
सर्वेश्वर की कतिपय कविताओं में ग्राम्य एवं नगर के वैषम्य पर प्रकाश डाला गया है। नगर-जीवन के प्रति कवि का बड़ा कटु अनुभव है। नगरों से उसे चिढ़ और अरुचि है। वहाँ के कोलाहल पूर्ण जीवन में कवि को अकेलेपन का अनुभव होता है। ‘इस मृत नगर में’ शीर्षक कविता में कवि यहाँ तक कहना चाहता है-
हर सम्बन्ध की सीढ़ी से उतरने के बाद मैं।
और अकेला छूट जाता हूँ इस मृत नगर में ।।14
इस प्रकार हम देखते है कि सर्वेश्वर ने साठोत्तर ग्राम्य जीवन विविध पक्षो को संस्पर्श करने का प्रयास किया है। उनकी ग्राम्य  जीवन सम्बन्धी कविताओं में कला की अपेक्षा कथ्य भाव को प्राथमिकता दी गई है। भाषा सरल, व्यवहारिक, तथा अनलंकृत है। अभिव्यक्ति अधिकाशतः व्यंग्यात्मक है। प्रारम्भिक रूमानियत शब्द कौतिक एवं अति भावुकता बहुत पीछे छूट गई है। अपनी जीवन से जुड़ी हुई सर्वेश्वर की आधुनिकता अधिक प्रमाणिक है, स्थाई है, प्रभावशाली है।
सन्दर्भ सूची -
1. सिंह, डॉ0 राम अजोर एवं ओझा डॉ0 दुर्गा प्रसाद (सम्पा0), चालीसोत्तर हिन्दी कविता, पृष्ठ 194-195.
2. धूमिल, सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र, पृष्ठ- 63 से 64.
3. धूमिल, कल सुनना मुझे - गांव में कीर्तन, पृष्ठ- 104.
4. धूमिल, कल सुनना मुझे - आज मैं लड़ रहा हूँ, पृष्ठ- 98.
5. धूमिल, कल सुनना मुझे - गांव में कीर्तन, पृष्ठ - 105.
6. धूमिल : 2005 काशी प्रतिमान, पृष्ठ- 17.
7. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कुआनों नदी- पृष्ठ
8. कुआनों नदी में बांस गांव नदी शीर्षक-
9. कविता, पृष्ठ- 59.
10. कुआनों नदी, पृष्ठ- 11
11. कुआनों नदी, पृष्ठ- 17-18.
12. एक सूनी नांव- इस मृत नगर में, पृष्ठ 36.
अरूणेन्दु कुमार सिंह, शोध छात्र
डॉ0 दुर्गा प्रसाद ओझा, रीडर
हिन्दी विभाग,
हेमवतीनन्दन बहुगुणा पी0जी0 कालेज,
लालगंज, अझारा, प्रतापगढ़ (उ0प्र0)

नासिरा शर्मा के कथा साहित्य में स्त्री चेतना

राजेश कुमार गर्ग एवं शालिनी सिंह

स्वातं×त्रयोतर भारत में पिछले 67 वर्षों में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक परिस्थितियों में बदलाव होते रहे हैं पर महत्वपूर्ण बदलाव महिलाओं की दशा में दृष्टिगत हुआ है। महिला-सशक्तिकरण के द्वारा महिलाओं की स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है। हिन्दी साहित्य के समकालीन लेखकों में महिला रचनाकारों की रचनाएं स्त्री-चेतना से अछूती नहीं रही। इन महिला रचनाकारों के बहुतायत उपन्यास महिला-प्रधान रहे या उनकी परिस्थितियों से रूबरू होते रहे। मन्नू भण्डारी का ‘महाभोज’ उपन्यास राजनैतिक सन्दर्भो को उजागिर करता है तो वही प्रभा खेतान के ‘छिन्नमस्ता’ और ‘पीली ऑधी’ उपन्यास कुमारिका जीवन की विसंगतियों को दर्शाते हैं। साथ ही ममता कालिया का ‘बेघर’ ‘नरक दर नरक’ स्त्री जीवन की बिडम्बना को दर्शाता है। इन्हीं समकालीन रचनाकारों में एक शक्सियत हैं- नासिरा शर्मा। नासिरा शर्मा ने अपने कथा साहित्य में न केवल स्त्री समस्याओं का उल्लेख किया है, अपितु समाधान भी प्रस्तुत किया है। कुमार पंकज के शब्दों में- ”नासिरा शर्मा उन रचनाकारों में हैं जिन्होंने महिला मुद्दों को अपनी कलम का निशाना बनाया है यह सच है कि महिला के दर्द को महिला से बेहतर भला कौन जान सकता है।’’1 इनकी कहानियाँ मध्यम वर्ग की उस नारी की है जो नारी-त्रासदी एवं विकृत मनोवृतियां व मानसिकताओं के बीच जीती है। इनके कथा साहित्य में स्त्री की भावनाओं और संवेदनाओं का इतना मार्मिक चित्रण है कि पाठक वर्ग कहानियां के पात्रों में स्वयं की झलक देखता है।

नारी की भावनाओं की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति से नासिरा जी ने समाज में नारी के अस्तित्व को अस्मिता प्रदान की। नारी जीवन की तमाम जटिलताओं ने उनकी लेखनी को संस्कार प्रदान किया। इनके कथा साहित्य में स्त्रियां के अनेक मुद्दों पर खुली चर्चा हुई है। वे आधुनिकता के नाम पर स्त्री स्वच्छंदता की पक्षधर नहीं हैं। इसलिये उनकी नारी मात्र आधुनिक होकर भी उच्छृंखल नहीं हैं।
पत्थरगली नासिरा जी का पंसदीदा कहानी संग्रह है। इन्हांने इस कहानी संग्रह के सम्बन्ध में लिखा है- ”यह कहानियाँ धरती पर बसे किसी भी इंसान की हो सकती है, क्योंकि दर्द सर्वव्यापी है फिर भी इन कहानियों की अभिव्यक्ति का स्रोत एक विशेष परिवेश हैं।’’2 पत्थरगली कहानी की मुख्य पात्र ‘फरीदा’ है। लेकिन पत्थरगली कहानी ‘फरीदा’ की नहीं बल्कि उस समाज की है जो रंग-बिरंगे होते हुये भी एक जैसी समस्या से जूझ रहा है। उसकी सारी सहेलियों के घर की यही कहानी है जिनके भाई कुछ नहीं करते हैं, जिनके बाप नहीं हैं, उनको अपनी जीविका के लिये दूसरों के सामने हथियार डालने पड़ते हैं पत्थरगली में ‘फरीदा’ और बडे़ भाई की टकराहट पुरानी व नई सोच के साथ आपसी अहं की टकराहट थी। ”रूढ़ियां के घटाटोप में ढका हुआ समाज विशेष का, नारी जाति की घुटन बेबसी और मुक्ति की छटपटाहट का, जैसा चित्रण इस कहानी में हुआ है अन्यत्र दुर्लभ है।’’3 इस संग्रह के विषय में नासिरा जी का कहना है- ”मेरी ये कहानियाँ दुःख और मुजरां के सुख का मोहभंग करती हुई एक ऐसी गली की सैर कराती हैं जो पत्थर की गली है। इस पत्थर की गली में रहने वाले अपने निकास के लिये छटपटाते पत्थर से टकराकर लहूलुहान हो उठते है।’’4
संगसार कहानी संग्रह में कई कहानियाँ ऐसी है जो स्त्री की बुनियादी अस्मिता की दास्तान है। है। संगसार कहानी की ‘आसिया’ प्रेम की पवित्रता का सच्चा नमूना है। पति के साथ बेवफाई के बावजूद उसके विवाहेत्तर प्रेम-सम्बन्ध में जुदाई है। उसे कोर्ट द्वारा संगसार करने के सजा सुनायी भी गयी है। ”उस रात औरतों ने चूल्हें नहीं जलाए, मर्दो ने खाना नहीं खाया, सब एक दूसरे से आँख चुराते है। यदि आसिया गुनाहगार है तो उसके संगसार होने पर यह दर्द, यह कसक उनके दिलों कों क्यों मथ रही थी।’’5 गूंगा आसमान कहानी की ‘मेहरअंगीज’ अपने लंपट लेकिन सत्तापोश पति के चंगुल से तीन जवान स्त्रियों को छुटकारा दिलवाती है। यहाँ एक स्त्री के चारित्रिक बहादुरी का सहज चित्रण हैं। दरवाज-ए-कजविन की ‘मरियम’ ऐसी औरत है जो समाज की सड़ी-गली रस्मों का शिकार है। मरियम की नियति यही हैं। वह पूछती है- ”क्या बदलाव इसलिये चाहते थे ? हमारा गुनाह क्या था? क्या इस बदलाव के बावजूद स्त्री की स्थिति जस की तस है कि उसका शोषण मानसिक और शारीरिक स्तर पर लगातार होता रहे? उसकी हालत कमतर बनी रहे। ये कहानी औरत की मजबूरी की त्रासद दास्तान है।’’6 नमक का घर कहानी की ‘शहरबानां’ अपने खोए घर और गुमशुदा परिवार की त्रासदी झेलती औरत खुदा की वापसी संग्रह की कई कहानियों में दःुखियारी नायिकाएं विभिन्न कारणों से पति को छोड़कर भाई, माँ, पिता, के घर आश्रय लेने के लिये मजबूर हो जाती हैं।
नासिरा जी ने अपने आस-पड़ोस में इस माहौल को महसूस किया और इसे अपनी लेखनी से कहानियों में उकेरा है। इस संग्रह की अधिकांश कहानियॉ विभिन्न वर्गो की स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती है। मेरा घर कहाँ में लाली धोबन की बेटी ‘सोना’ हो या नई हुकूमत की ‘हजारा’ या बचाव की नायिका ‘रेहाना’ हर कहानी में नारी-संघर्ष और उत्पीड़न का जीता-जागता उदाहरण मौजूद है। चार बहनें शीशमहल की में शरीफ के घर में लड़की का पैदा होना अपशगुन माना जाता है बाहर दुकान पर चूड़ी पहनाते हुये लड़की के जख्मी हाथ देख शरीफ का दिल भी जख्मी हो जाता है। जिन औरतों व लड़कियों की बदौलत उसकी जिंदगी की गाड़ी चल रही है, रोटी नसीब़ हो रही है। उसी के घर में लड़की का पैदा होना मनहूसियत की बात हैं। बुतखाना कहानी संग्रह की कहानी अपनी कोख भू्रण परीक्षण पर लिखी गयी कहानी है। स्त्री की स्वायत्ता, उसके वजू़द व आत्मनिर्भरता की कहानी है। इसकी नायिका ‘साधना’ विवाह के उपरान्त दो बच्चियों की मॉं बन जाती है। तीसरी बार उससे अपेक्षा की जाती है कि भू्रण परीक्षण में यदि इस बार भी पुत्री हो तो गर्भपात करा लें। गर्भ में पुत्र होने पर भी वह यह सोचकर वह गर्भपात करा देती है, कि पुत्र होने पर उसकी पुत्रियों के साथ भेदभाव बढ़ जाएगा। ये कहानी एक अनकहा सत्य है। शाल्मली उपन्यास में स्त्री का शोषण, भेदभाव, अत्याचार, पत्नी की सफलता के कारण पति में कुंठा भाव, वैवाहिक औपचारिकता की अभिव्यक्ति है। ‘इसमें पंरपरागत नायिका नहीं है, बल्कि वह अपनी मौजूदगी से यह अहसास जगाती है कि परिस्थितियों के साथ व्यक्ति का सरोकार चाहे जितना गहरा हो, पर उसे तोड़ दिए जाने के प्रति मौन स्वीकार नहीं होना चाहिए।’’7 ठीकरे की मंगनी उपन्यास की नायिका ‘महरूख’ शाल्मली की तरह धीर, गम्भीर एवं आत्म-निर्भर नारी है। वह समाज के बन्धनों के कारण घुटन भरा जीवन व्यतीत करती हुई, आत्मसमर्पण नहीं करती अपितु विपरीत दिशा में उसका सामना भी करती हैं।
नासिरा शर्मा का ‘ईरान की खूनी क्रान्ति’ पर लिखा, बहुचर्चित उपन्यास सात नदियॉ एक समन्दर सात महिलाओं को केन्द्र में रखकर लिखा गया उपन्यास उनके साझे दर्द को बयान करता है। फैज ने कहा है- बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल गरीब सही। तुम्हारे नाम पर आयेंगे गम-गुसार चले।। यहीं से दर्द फैलता है पूरी कायनात पर छा जाता है। ‘ईरानी क्रान्ति’ में जनता पर होने वाले अत्याचारों का संवेदनशील चित्रण सात महिलाओं के साथ किया। नासिरा जी ने इस उपन्यास के लिए लिखा- ‘मेरे इस उपन्यास में इन्सान की आरजू, तमन्ना और इच्छा से भरे अधूरे सपनों का बयान है। जो किसी भी व्यक्ति की निजी धरोहर हो सकता है।’8
कोई भी युद्ध हो, क्रान्ति हो, उससे सबसे ज्यादा प्रभावित स्त्रियाँ ही होती हैं, सबसे अधिक पीड़ा, यंत्रणा स्त्री को ही झेलनी पड़ती है। उपन्यास, कहानी संग्रह के अलावा इनका 2003 में लेख-संग्रह औरत के लिए औरत प्रकाशित हुआ। जिसमें आपने पूरी संवेदनशीलता और आत्मीयता के साथ ना केवल देश वरन विदेश तक की औरतों की समस्याओं को दिशाबद्ध करने का प्रयास किया है। इन्होंने जाग्रत होती स्त्री चेतना में आंधियाँ ही नहीं भरी बल्कि बुद्धिमत्ता से नए रास्ते बनाने का जोश भी भरा। इनकी खुली मानसिकता, सन्तुलित दृष्टि बार-बार स्पष्ट करती हैं, कि मनोमस्तिष्क चेतना और शक्ति में औरत कमतर नहीं है। अपनी पुस्तक के हर लेख में इन्हांने स्वस्थ सम्बन्धों पर जोर दिया है। ‘समाज सिर्फ मर्दो द्वारा नहीं बना, बल्कि इसके ताने-बाने में मर्द तथा औरत दोनों का वजूद है, .........मर्द और औरत एक चने की दो दाल हैं, अर्थात दोनों इंसान का रूप हैं।’’9 नासिरा जी ने औरतों की जिंदगी की एक-एक बारीकियों को उनके परिवार के सदस्य की तरह देखा, उनके भरोसे को जीता है। त्रासद पीड़ा झेलती बेबस स्त्रियाँ ममत्व भाव व आत्मीयता में जीती है, और उनसे मुक्त होने का साहस भी नहीं कर पातीं। नासिरा जी लिखती हैं- ‘‘जिन कुरीतियों एवं परंपरा से भारत मुक्त था, वही आज की मुख्य समस्या बन चुकी हैं, जैसे बंधुऑ मजदूरी, इत्यादि लाख कानून बने मगर उसका पालन अभी पूरी तरह नहीं हो रहा है। उसी तरह महिलाओं के प्रति बने कानून, फाइलों की शोभा अवश्य बन चुके हैं। मगर समाज का दृष्टिकोण अधिक पुरातनपंथी बन गया।’’10
नासिरा शर्मा का कहानी संसार मुख्यतः नारी के प्रति असमानताओं एवं उसके अस्तित्व की रक्षा के लिये लड़ा जा रहा अनवरत युद्व है। इनकी कहानियॉ अपने घर की तहजीब व समाज के अंधेरे को दूर करती वे शमाएँ हैं जिसकी रोशनी इतिहास के पन्नों तक फैली हुई है। ये कहानियाँ केवल कहने सुनने तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि अतीत व वर्तमान के तारीखी दस्तावेज़ हैं जिनकों पढ़ा व समझा जा सके। इनकी कहानियाँ में ‘नारी’ की जिंदगी का महाकाव्य है। नासिरा शर्मा स्त्री विमर्श की प्रमुख कथाकार हैं।
स्त्री विमर्श इसलिए प्रासंगिक है कि इन्होंने महिलाओं के हितों की चर्चा करते हुए, स्त्री के बहाने मानवीय सवालों से रूबरू कराया। इनकी कहानियों में नैतिकता, ईमानदारी और तहजीब की महीन बुनावट है। इन्होंने अपनी रचनाओं में नारी मन को जबरदस्त तरीके से उकेरा है। नासिरा जी इस्लाम धर्म के आधार पर नारी सशक्तीकरण के साथ-साथ भारतीय मुस्लिम परिवारों की त्रासदी की कहानियों को रेखांकित करती हैं। साथ ही मुस्लिम स्त्री अधिकार के प्रत्येक पक्ष का उद्घाटन भी करती हैं। इनकी कहानी की नायिका रोती नहीं, अकेले में भी नहीं।
वहीं प्रभा ख़ेतान की नायिका ‘आओ पेपे घरे चलें’ में कहती हैं- ‘‘औरत कब रोती और कहाँ नहीं रोती। जितना वह रोती है, और उतनी ही औरत होती जाती है।’’ दोनों की नायिकाओं में इतना फर्क है कि समाज एक अकेली किंकर्तव्यविमूढ़ औरत को रोते देखना चाहता है। इसलिए वह उसे तरह-तरह से रुलाता हैं। रोते चले जाने का संस्कार देता है। वहीं एक शिक्षित परिपक्व स्त्री स्वाभिमान की मनोदशा में किसी का कंधा नहीं तलाशती। समता एवं स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर अपने पैरों पर खड़ी होने का साहस करती है। उसे अपनी अस्मिता का बोध है, जिसकी रक्षा करने में वह सक्षम है। यश मालवीय के शब्दों में ‘‘नासिरा शर्मा के कथासाहित्य में औरत आँचल में दूध और आँखों में पानी वाली औरत नहीं है। वह पितृसत्तात्मक समाज के सामने सीना तानकर खड़ी हो जाती है, प्रतिरोध के स्वर मुखरित करने लगती है। इन कहानियों को पढ़कर नींद नहीं आती बल्कि आई हुई नींद कई-कई रातों के लिए उड़ जाती है।’’
सन्दर्भ ग्रन्थ-
1. कुमार पंकज, जिन्दगी के असली चेहरे, आजकल पत्रिका।
2. शर्मा नासिरा, मेरे जीवन पर किसी के हस्ताक्षर नहीं।
3. शर्मा डा0 नीलम, मुस्लिम कथाकारों का हिन्दी योगदान।
4. शर्मा नासिरा, पत्थरगली, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण- 2011.
5. शर्मा नासिरा, संगसार, वाणी प्रकाशन, दिल्ली संस्करण- 2009.
6. शर्मा नासिरा, संगसार, वाणी प्रकाशन, दिल्ली संस्करण- 2009.
7. शर्मा नासिरा, शाल्मली, किताबघर, प्रकाशन, नई दिल्ली, सं0-2013.
8. शर्मा नासिरा, सात नदियॉ एक समन्दर।
9. शर्मा नासिरा, औरत के लिए औरत, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, सं0-2002.
10. शर्मा नासिरा, किताब के बहाने, सं0 2001.
डॉ0 राजेश कुमार गर्ग
असिस्टैन्ट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
ई0सी0सी0, इलाहाबाद (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
शालिनी िंसंह
 शोधच्छात्रा, हिन्दी विभाग,
महात्मा गॉधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय,
 चित्रकूट सतना (मध्य प्रदेश)

सामाजिक सन्दर्भ और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबन्ध


निवेदिता श्रीवास्तव

‘‘मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को पर दुःख कातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।1’’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य सृजन के मूल में उनकी यही सामाजिक दृष्टि थी। मुख्य रूप से इनके समस्त निबंधों की रचना सृष्टि इसी दृष्टि की पारिचायक रही है।

दृष्टि ही सृष्टि का निर्धारक तत्त्व है। प्रत्येक वस्तु को देखने की दृष्टि वैयक्तिक होती है। गहन अध्ययन एवं चिन्तन के उपरान्त हर मनीषी की संसार को देखने की अपनी एक दृष्टि बन जाती है। यह उसकी विशिष्ट क्षमता से अभिव्यक्त होती है। ‘मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना’ की धारणा सत्य है, क्योंकि अपनी दृष्टि विशेष ही रचनाकार की मौलिकता की पहचान होती है।
आचार्य द्विवेदी की दृष्टि व्यापक थी। रचनाकार चाहे जिस युग का हो उसके कालजयी होने का आधार उसकी सार्वभौमिक और सार्वकालिक दृष्टि ही होती है। अपने विस्तृत अध्ययन, चिन्तन एवं मनन से आचार्य द्विवेदी ने अनुभव किया कि समाज को सचेतन बनाना चाहिए- ‘‘शताब्दियों का दीर्घ अनुभव यह बताता है कि उत्तम साहित्य की सृष्टि करना ही सबसे बड़ी बात नहीं है। सम्पूर्ण समाज को इस प्रकार सचेतन बना देना परमावश्यक है जो उस उत्तम रचना को अपने जीवन में उतार सके।2’’
आचार्य द्विवेदी का साहित्य विषयक चिन्तन, समष्टि व्यापक दृष्टि और समग्र भारतवर्ष को उसकी अतीत की परम्परा से जोड़ते हुए एकता और अखण्डता के सूत्र में बांधने की कामना ही उन्हें ‘आम’ से ‘खास’ बनाती है। इनका मानना था कि समाज के एक बड़े भाग में हीन भावना ग्रन्थि बनकर छा गयी है। यही ग्रंथि सामाजिक संरचना को उसकी अजस्त्र धारा में प्रवाहित होने से रोक रही है। सदियों से दबी, कुचली, मर्माहत जनता के विषय में हमारा समाज भिज्ञ नहीं हो पाया है। इस सम्बन्ध में कार्य-कारण सम्बन्धों की एकरूपता के बिना सामाजिक समस्या का समाधान असम्भव है। ‘‘यह अत्यन्त खेद का विषय है कि भारतीय जन समूह और उसकी सामाजिक परिस्थिति का वैज्ञानिक अध्ययन अभी तक ढंग से नहीं हुआ है। कुछ विदेशी विद्वानों ने इस प्रकार के अध्ययन का प्रयत्न किया है पर उनकी अपनी त्रुटियों के कारण यह अध्ययन सब समय ऐसा नहीं हुआ है। जिसका हम भावी भारतवर्ष के निर्माण में यथेष्ट उपयोग कर सके।3’’
मध्यकालीन कवियों की सामाजिक चेतना ही भक्तिकाल को स्वर्णयुग बनाने में प्रेरक रही है। संत साहित्य का पूरा आधार ही निम्न जातियों का उच्च भाव तक पहुँचने की घोषणा है, अपनी एतद्दृष्टि के माध्यम से ही संत कवियों ने बहुत हद तक सामाजिक कुरीतियों को दूर किया था। ‘कबीर’ इनके प्रतिनिधि कवि थे। पूरा हिन्दी साहित्य इन्हें ‘ज्ञानी’ से अधिक ‘समाज सुधारक’ के रूप में ही जानता है। आचार्य द्विवेदी की ‘कबीर’ को आलोच्य विषय बनाने के पीछे यही मंशा थी। इन्होंने कबीर की ही भॉति समाज के बड़े वर्ग को उसकी मानसिक ग्रन्थि में बंधा देखा था, इन्होंने उस मानसिक ग्रन्थि का वैज्ञानिक विश्लेषण किया था, सुधारात्मक पहलुओं पर गौर किया था तब निष्कर्ष रूप में जान सके कि वे जातियाँ जिन्हें अस्पृश्य कहा जाता है वहीं भारतवर्ष की आत्मा है इन्हीं की प्रतीकात्मक संघमूर्ति का नाम ‘भारतमाता’ है। इस सच्चाई को उन्होंने अपने ‘प्रायश्चित की घड़ी’ नामक निबंध में स्वीकार किया था। ‘देवदारु’ और ‘कुटज’ जैसे वृक्ष अनायास ही इनके वर्ण्य विषय नहीं बन सके है, बल्कि यह उपेक्षित वृक्ष उपेक्षित पात्रों के लिए दिये गये संदेशों और उपदेशों के प्रतीक बन गये हैं। इन्होंने संघर्ष को ही समाजिक शक्ति का आधार माना है।4
समष्टि में व्यष्टि की स्थापना उनके निज का प्रयास है, किन्तु समाज की खुशियाँ देना ही मानव मात्र का ‘धर्म’ भी है, जो सभी के लिए अनिवार्यतः आवश्यक है- मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए निःशेष भाव से दे देने में है।5 यदि मनुष्य मानापमान, हानि, लाभ की चिन्ता से ग्रसित रहेगा तो निश्चित ही कर्तव्यच्युत होता जायेगा। इसलिए उसे इस भाव को नकारना है- तो क्या हुआ? यह मनुष्य की आत्मकेन्द्रित दृष्टि का प्रसाद है। देवदारु को इससे क्या लेना देना है। वह तो जैसा है वैसा बना हुआ है। तुम उसे वनस्पति कहो या देवता का काठ कहो।6’’
भय, अपमान और दुर्दशा से ग्रसित समाज का एक बड़ा वर्ग निष्क्रिय होता जा रहा है। साधन विहीन होने से उसकी प्रगति बाधित है। वह समाज में अपनी स्थिति नहीं बना पा रहा है और हतभागी सा नियति का क्रूर प्रहार सहने पर विवश हो जाता है। किन्तु उनके कुटज जैसा ‘अदनावृक्ष’ भी कालिदास जैसे श्रेष्ठ कवि की रचना में अपना स्थान बनाता है। छोटा या बड़ा होना और मानना केवल अपनी दृष्टि का फेर है। ‘देवदारु’ और ‘कुटज’ की उर्ध्वगामी शाखाएँ ‘द्युलोक’ को भी भेदने के लिए लालायित है। सीधी तनी हुई बिना किसी समझौते के किन्तु यह वृक्ष अपनी जड़ों को नहीं भूले है इनकी जड़े पाताल की छाती फोड़ कर अपना जीवन रस ग्रहण कररही हैं। उर्ध्वगामी होने के लिए जड़ों से जुड़ना परम् आवश्यक है क्योंकि जड़े ही शाखाओं-प्रशाखाओं की पोषक होती है। व्यक्ति भी यदि उर्ध्वगामी चेतना रखता है तो बुरा क्या है किन्तु ध्यान रखना है कि ‘जड़ों’ (परिवार, समाज, अतीत) से कटकर मनुष्य विकास नहीं कर पायेगा। यही कारण है कि आचार्य द्विवेदी ने भारतीय संस्कृति की समाजिकता पर दृष्टि डाली और संस्कृति की परम्परा में नूतन गति के संचार का आह्वान किया।7
युगद्रष्टा रचनाकार अपनी प्रासंगिकता बनाये रखता है। युग धर्म यदि रचनाकार की पहचान है तो प्रासंगिकता उसकी दूरदर्शिता। शाश्वत मूल्य कभी परिवर्तित नहीं होते। आचार्य द्विवेदी की दृष्टि इसीलिए आज भी प्रासंगिक है। आज के निष्क्रिय होते जा रहे निराशा से भरे समाज के लिए उनके संदेश संजीवनी का काम करते है। ‘डिप्रेशन’ जैसी मनोवैज्ञानिक बीमारी ने आज जब 100 में से 90 को घेर लिया है और ध्यान, योग आदि के द्वारा उनका उपचार किया जा रहा है। इनके निबंध रेचक का काम करते है- ‘जन्म-मरण, हानि-लाभ, यश-अपयश विधि हाथ’ को मानने वाले को कैसा शोक, कैसा क्लेश, कैसी निराशा, कैसा तनाव। जो कुछ भी हो रहा है इतिहास विधाता की निष्ठुर योजना से हो रहा है। क्या लेकर आये थे जिसे खोकर तुम्हें दुःख हो रहा है।8 इन विचारों को मानने वाला सबसे सुखी रह सकता है और रक्तचाप, मधुमेह जैसी भयानक व्याधियों, जिनके जड़ में तनाव है से मुक्ति पा सकता है। आचार्य द्विवेदी इसीलिए आज भी स्मरणीय है, प्रासंगिक है।
संदर्भ ग्रंथ-
1. ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’, अशोक के फूल संग्रह से पृ0सं0-166.
2. ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’, अशोक के फूल संग्रह से पृ0सं0-167.
3. ‘प्रायश्चित की घड़ी’, अशोक के फूल संग्रह से पृ0सं0-21.
4. ‘अशोक के फूल’, अशोक के फूल संग्रह से पृ0सं0-13.
5. ‘नाखून क्यों बढ़ते है’, पृ0सं0-33.
6. ‘देवदारु’, पृ0सं0-67.
7. ‘कुटज’, प्रतिनिधि हिन्दी निबंध से पृ0सं0-46.
8. ‘कुटज’, प्रतिनिधि हिन्दी निबंध से पृ0सं0-49.
डॉ0 निवेदिता श्रीवास्तव
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
गुलाब देवी महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलिया (उ0प्र0)