Thursday 1 January 2015

उत्तराखण्ड राज्य का आर्थिक परिदृश्य : एक अध्ययन

सरोज वर्मा

हिमालय युग-युग से आकर्षण का केन्द्र बिन्दु, शिव स्वरूप का प्रतीक, प्राचीन काल से निवास करने वाली प्रजातियॉं- कोल-किरात, खस, कुलिन्द, शक, यौधेय, नाग, पौरब, कत्यूरी तथा पंवार राजवंशों के काल के राजनीतिक, सांस्कृतिक, विकास का इतिहास महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ हरीतिमा-सम्पन्न इस पार्वत्य प्रदेश की मनमोहक लेकिन कठिनतम घाटियों में अपने जीवन को संघर्ष के साथ सुरक्षित रखते हुये सामाजिक चरित्र निर्माण, वैभव सम्पन्न, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि एवं इतिहास को मुखरित किया।

उत्तराखण्ड में विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न प्रजातियों-जातियों के आगमन-राज्यकाल ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक संस्थाओं के निर्माण के साथ-साथ परिवर्तनशीलता विकासक्रम में अनवरत रूप से परिवर्तित तथा परिवर्धित होता रहा है। यह सत्य है कि किसी भी क्षेत्र की आर्थिक समृद्धि-जीवन उस स्थान/क्षेत्र विशेष की सम्पन्नता अभिदर्शित करती है, साथ ही उद्योग धन्धे, कृषि, बागवानी, व्यापार, कुटीर उद्योग तथा आय-व्यय से संबंधित अर्थ व्यवस्था उस क्षेत्र का आर्थिक जीवन दर्शित करता है। कदाचित् पार्वत्य क्षेत्र का आर्थिक जीवन निश्चितया औद्योगिक क्षेत्र से भिन्नता/भिन्न होगा क्योंकि भौगोलिक स्थिति-सड़क, नदी-पर्वत सभी काल तथा परिस्थितियों के अनुरूप बदलता रहता/रहा है।
प्राचीन काल से वर्तमान तक विभिन्न समयों/कालों में आर्थिक जीवन में अनेकों भिन्नतायें दर्शित होती है। ‘वेदकालीन’ आर्थिक व्यवस्था-पृथ्वी को अनेकानेक सम्पत्ति की निधि मानी जाने के कारण ‘वसुन्धरा’ नाम से तथा ‘ऋग्वेद’ में ‘गाय’ को एक प्रकार की सम्पत्ति व ‘गोपालन’ के विकास को महत्व दिया गया है। व्यापारिक व्यवस्था हेतु ‘वणिक’ शब्द का प्रयोग भी वैदिक काल में किया जाता था। तत्समय वस्तु-विनिमय प्रणाली भी प्रचलित थी। ऋग्वेद काल में धंधों-पेशों की विस्तृत तालिका- खेत बोने वाले, मछुवे, धोबी, मणिकार, बैंत का कार्य करने वाले, रथकार, धनुषकार लुहार, सुनार, कुम्हार, वनों की देखभाल करने वाले, गोपालक, भिषक आदि वर्णित है। भिषक (चिकित्सक) मुख्य व्यवसाय माना जाता था। आर्यों की धातु संबंधी जानकारी जिससे ज्ञात होता है कि उस समय का आर्थिक जीवन में उन्नत तथा सम्पन्नता युक्त था।
‘रामायण काल’ तक व्यवसाय/वाणिज्य शिल्प का विकास हो चुका था। उस समय कृषि मुख्य थी। जौं, गेहॅू, चना, ईख, तिल, मूॅंग मुख्य उपजें थी। आर्य जीवन का पशुपालन मुख्य धंधा था। वस्त्र उद्योग-लोहा, तॉंबा, पीतल, चॉंदी, सोना आर्थिक आय के स्रोत थे। ‘महाभारत काल’ में सामाजिक रूप में कृषि, जीवी, व्यापार, विदेश तथा देश दोनें में होता था। इस समय मणि, मॅूंग, सोना-चॉंदी, रत्नों तथा धातुओं की प्रचुरता  का पता चलता है।
‘बौद्ध काल’ में आर्थिक क्षेत्र में हुये परिवर्तनों ने समाज में नये वर्गो को जन्म दिया जिसने सामाजिक संबंधों को भी प्रकाशित किया। भूस्वामियों द्वारा कृषिकर्म स्वयं न करने की प्रवृत्ति अथवा न कर सकने की स्थिति ने श्रम जीवी वर्ग को जन्म दिया। उत्तराखण्ड में ‘थोकदारी प्रथा’ इसी का एक रूप था, जो अंग्रेजों के समय में बहुतायत से चर्चित थी। वर्तमान में भी थोकदार के नाम से पुकारे जाते हैं। ‘मेगस्थनीज’ ने सोना, चॉंदी, तॉंबा, लोहा धातुओं की चर्चा की तथा सोना खोदकर निकालने की बात अपने ग्रन्थ में लिखी है। ‘जैन साहित्य’ भी अनुचरों-दास-दासियों का वर्णन देता है। चारण, भाट अपनी कला से मनोरंजन करके जीविका चलाते थे।
‘सातवाहन युग’ में विदेशी-वाणिज्य तथा व्यापार समृद्ध था। पाश्चात्य देशों से नौकायें लाल सागर होती हुई अरब के समुद्र तट पर आती थीं। स्थल मार्ग खैबरदर्रे से होकर हिंदुकुश पारकर बल्ख पहुॅंचता था। इस समय रेशम, मलमल, सुगन्ध, मोती आदि रोम साम्राज्य जाती तथा रोम की महिलायें भारती की मलमल पहनना अच्छा समझती थीं जिसके प्रतिरूप प्रतिवर्ष छह लाख स्वर्ण मुद्रायें भारत आती थीं।
‘गुप्तकालीन’ आर्थिक जीवन कृषि प्रधान था। रेशम आयात, ईरान तथा यूनान से घोड़े लाये जाते एवं शीशा, सुरा, टिन, सिंदूर, चॉंदी के बरतन विदेशों से भारत आते थे। तत्पश्चात् बर्धन, राजपूत, आंक्राताओं काल क्रम में सल्तनत, मुगल, अंग्रेज इत्यादि सभी के कालों में भारतीय आर्थिक जीवन तमाम परिस्थितियों के अनुरूप चलता रहा। अस्तु मध्य हिमालय-उत्तराखण्ड की भौगोलिक स्थिति के अन्तर्गत निश्चित नियोजन के अभाव में यथोचित रोजगार के अवसरों को प्राप्त न कर सका। जो आज भी शोचनीय व वैचारिक प्रश्न बना है।
उत्तराखण्ड का 87.6 प्रतिशत क्षेत्र पर्वतीय छोटी-छोटी पर्वत मालायें, उच्च पर्वत, तराई क्षेत्र को छोड़कर अधिकांश क्षेत्र उबड़-खाबड़, पथरीली तथा कम उपजाऊ है। वनों का निरंतर कटान, भूमि कटान के कारण पर्वतीय क्षेत्र में भू-क्षरण एक महान/विकट समस्या होने लगी है। जिसके लिये प्रबुद्ध वर्ग शासन-सामाजिक वर्ग द्वारा भी सोचना होगा। अन्यथा वन कटानों की स्थिति से पार्वत्य क्षेत्र पूर्णतः विरान हो जायेगा। जिस हेतु एक सार्थक पहल आवश्यक होगी।
अर्थ-व्यवस्था की वैशिष्टता- अपनी भौगोलिक समस्या के कारण आर्थिक एवं औद्योगिक क्षेत्र में उत्तराखण्ड अन्य राज्यों से पिछड़ा हुआ है यथा-
कृषि उत्पादन कम तथा कुछ कृषि क्षेत्र सिंचित, कार्यशील जनसंख्या का लगभग 80٪ कृषि में कार्यरत, कृषि मानसून पर आधारित होने से अन्न उत्पादन न्यून होता है।
यहॉ 50٪ आय का साधन वाह्य स्थानों में सेवा करने वाली जनसंख्या से प्राप्त धनादेश है।
बेरोजगारी में निश्चित औद्योगिक संस्था का न होना भी प्रमुख कारण है।
लघु उद्योगों में परम्परागत तकनीकी का प्रयोग समय-शक्ति-धन पर अपव्यय भी एक कारण है। लघु उद्योग को भी बढ़ावा देना सरकार का पहला कदम होना चाहिये।
उद्योगों के लिये प्राविधिक शिक्षा का अभाव, तकनीकी ज्ञान की कमी भी कुशल श्रमिक नहीं दे सकती जो एक वास्तव में महान समस्या बन रही है।
कुछ क्षेत्र यथा- उधमसिंह नगर, देहरादून के अलावा किसी भी क्षेत्र में उद्योग नहीं हैं।
यह क्षेत्र आवश्यकता की सभी वस्तुयें अन्य/मैदान से आयात करता है, जो यहॉं की भौगोलिक स्थिति के कारण ही है।
उत्तराखण्ड फसल-कृषि व्यवसाय- यहॉं दो प्रमुख फसलें- रबी सितम्बर-नवम्बर में बोई तथा अप्रैल मई में कटाई- मुख्य फसल गेहॅू और जौ है। खरीफ में यहॉं धान, मडुवा, आलू, सेम, मक्का, तिल, सब्जियॉं व तथा जायद में लौकी, तुरई, करेला, मूली, ककड़ी आदि एवं सिंचित क्षेत्रों और दून तराई में गन्ना तिलहन आदि बोई जाती है।
पशु- व्यक्ति के सामाजिक, धार्मिक जीवन में पशु का हमेशा से महत्वपूर्ण स्थान रहा है, पशुपालन उसके जीविकोपार्जन-लघु-बड़े उद्योग हेतु लाभान्वित व्यवसाय है। गाय, भैंस, बकरी दुग्ध व्यवसाय है। ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी समितियॉं स्थापित कर डेरी उद्योग वृहत रूप में चलने से महिलायें लाभान्वित तथा परिवार की दशा अच्छी हो रही है। मत्स्य पालन भी एक बड़े उद्योग के रूप में चलाया जाना चाहिये।
वानस्पतिक सम्पदा- उत्तराखण्ड का अधिकांश जीवन स्तर वनों से सम्बद्ध है। सन्तुलन की दृष्टि से (पर्यावरणीय) दो तिहाई 66٪ भाग में वन तथा 20.25٪ निचले क्षेत्रों में वनाच्छादित है। यह भी सत्य है कि सामान्य जीवन यापन हेतु जनता संसाधन संरक्षण तथा विकास के प्रति जागरूक नहीं है जिसका लाभ तस्कर तथा चोरी कर कतिपय लोग उठाते हैं। जिसके लिये भी सार्थक कदम उठाना होगा।
वन जंगलों से कच्चे माल की पूर्ति होती है यथा-कुटीर-लघु उद्योग में रिंगाल, बुरांश, चीड़, पांगर, साल, शीशम, बांज, तुन, चीड़-ढेकी, टोकरी, चटाई (जौलजीवी-थल मेलों में सामान्यतया लोग अधिक मात्रा में क्रय-विक्रय करते हैं) बनती हैं। भवन निर्माण हेतु देवदार, साल, शीशम, अखरोट-लीसा-कागज उद्योग हेतु उपयोग में लाई जाती है। जिसे सुंसगठित कार्ययोजना बनाकर उत्तराखण्ड की जनता को अधिक से अधिक रोजगार परक बनाया जा सकता है।
वन-भूमि संरक्षण-भूमि कटान रोकने में मुख्य सहायक है। जिनके विस्तार हेतु वन विभाग प्रशासनिक विभाग व अन्य विभागों के मिलकर वृक्षारोपण करना चाहिए।
वनों में प्राचीन समय में तपस्वी-कन्दमूल, फल-फूल का प्रयोग (गीठी, हिसालू, काफल, घिंघारू, किल्मोड़ा, अखरोट) इत्यादि करते थे जो अब भी पर्याप्त मात्रा में वनों में स्वतः पैदा होती है का प्रयोग लाभकारी है जिसे बढ़ावा देना चाहिए।
मध्य हिमालयी क्षेत्र जड़ी-बूटी का पर्याप्त भण्डार है। जिसमें तमाम स्वास्थ परक जड़ी-बूटी भी है। जिन्हें संरक्षित करते हुए संबर्द्धन भी करना होगा।
पर्यटन स्थल-वन उपवन फूलों की घाटी, रूपकुण्ड, पिंडारी, मिलम, छोटा कैलाश, नारायण आश्रम के साथ कस्तूरी मृगविहार, जिम कार्बेट पार्क इसी उत्तराखण्ड में है। जिनकी देखभाल करना भी आवश्यक होगा, जो एक ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर भी है।
यह निश्चित है कि वनों से आय की मुख्य संरचना मानी जा सकती है। यहॉं प्रतिवर्ष लगभग 80 करोड़ रू0, इसके अतिरिक्त वन उपजों से सामान्य जनता लाभान्वित होती है।
  उत्तराखण्ड में वनों के विकास-संरक्षण हेतु भूमि की परिस्थिति, उस स्थान पर होने वाला वृक्ष/पौधा, वन पंचायतों में सदस्यों द्वारा सुचारू व्यवस्था, पुराने वृक्षों के बीच में नया रोपण, सुरक्षा, दोहन पर विशेष ध्यान से ही वन, जल जीवन दोनों प्राप्त होगा तथा जिससे वन उद्योग/सम्पदा संरक्षण की भी बात सामने आती है।
दोनों मण्डलों गढ़वाल/कुमाऊॅं में तॉंबे की खानें-सोर-गंगोली में थी, व्यवस्था ठीक न होने से पर्याप्त लाभ स्थानीय जनता को नहीं के बराबर मिला है। चूना पत्थर-मसूरी-देहरादून, सहस्त्रधारा, धनौल्टी (गढ़वाल) खुरपाताल, कालाढॅूंगी, नैनीताल में रासायनिक ग्रेड का चूना, पत्थर, तॉंबा, शीशा, गैरसैंण, पोखरी, दानपुर, बागेश्वर, बिलोनसेरा में भी मिलता है। जिसकी सुचारु व्यवस्था सरकार प्रशासन तथा स्थानीय जन को करनी होगी ताकि यह प्रक्रिया सामान्य जन को लाभ दे सके।
टाल्क-बिजली के स्विच बोर्ड बनाने हेतु अल्मोड़ा-दोफाड़, सरयूघाटी-कनालीछीना में मैग्नासाइड-मिश्रित धातु-रसायनों के निर्माण हेतु झिरौली, पुंगरघाटी-पिथौरागढ़ के मध्यभाग में रामगंगा-सोन नदी से सोना, कच्चे हीरे आदि उपलब्ध होते हैं। यह निश्चित है कि खनिज खनन से चौदह करोड़ की आय लगभग हो रही है जो एक अद्भुत चुनौती भी है।
उद्योगों की बात में- चीनी मिल- 4 नैनीताल, 01 देहरादून व तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग का मुख्यालय, कागज बनाने का नैनीताल, प्लाइवुड कोटद्वार में उद्योग है। जिससे स्थानीय जन लाभान्वित हो रहा है।
परम्परागत व्यवसाय कालीन बुलाई-ऊन, जड़ी-बूटी भी उद्योग के रूप में आ सकती है परन्तु भौगोलिक स्थिति के कारण दूरस्थ क्षेत्र धारचूला-मुनस्यारी के व्यवसायी अधिक लाभ नहीं उठा पाते हैं। जिस हेतु सहकारी समितियों का गठन कर माल की पूर्ति व वितरण की व्यवस्था की जा सकती है।
जल शक्ति की असीमित उपलब्धता उत्तराखण्ड में है। किन्तु संसाधनों की व्यवस्था न होने के कारण पर्याप्त लाभ नहीं होता। अनेकानेक नदी- रामगंगा, यमुना, अलकनंदा, भागीरथी से जल विद्युत उत्पादन हो रहा है। उत्तराखण्ड के जल बाहुल्य क्षेत्र पर लंबी चर्चा हो सकती है। नैनीताल में शतप्रतिशत, अल्मोड़ा-81٪, देहरादून-87٪, गांवों में विद्युत पूर्ति हो चुकी है परन्तु पिथौरागढ़-67٪, पौड़ी गढ़वाल-63٪ ही जल विद्युत है। जिसकी पूर्ति हेतु सकारात्मक कदम उठाना होगी।
पलायन-रोजगार- यह सत्य है कि पलायन ने उत्तराखण्ड की आर्थिक-सामाजिक संरचना को प्रभावित किया है। रोजगार परक शिक्षा का न होना, बेरोजगारी, उपयुक्त उद्योग का अभाव, कच्चा माल न मिलना, वैज्ञानिकता का अभाव, कुटीर-लघु उद्योगों के प्रोत्साहन से एक सीमा तक लोगों को रोका जा सकता है। साथ ही इसने हमारी सांस्कृतिक नैतिक मूल्यों को भी प्रभावित किया है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इसके बहुरूपों को यथा उत्तराखण्ड देवभूमि हर हर क्षेत्र/हर दृष्टि से संसाधन सम्पन्न राज्य है। जिसके उत्तरोत्तर उन्नयन हेतु वैचारिक तथ्यों के साथ-साथ उसकी उपयोगी क्षमता तीर्थ स्थान, पवित्र सदानीरा, गंगा-यमुना, वन क्षेत्र, कैलाश पथ, भारत-तिब्बत सीमा, भारत-नेपाल (रोटी बेटी सम्बन्ध), उत्तरप्रदेश, हिमांचल, भूटान इत्यादि से लगा राज्य अपने अद्भुत मानव जीवन हेतु एक आदर्श रूप में अवस्थित है। जिसको संरक्षित कर अभिवृद्धि से पलायन जैसी विकट समस्या हल की जा सकेगी।
पर्वतारोहण-पर्यटन- उत्तराखण्ड प्राचीन काल से ही पर्यटन स्थलीय, देवभूमि, देवदर्शन के लिये जानी जाती है। पर्यटन स्थलों का विकास, सुविधायें, पुरातत्व-ऐतिहासिक स्थलों की देखरेख, स्थलों का विकास आदि से भी पर्यटन नीति बनाकर रोजगार परक बनाया जा सकता है। सम्पूर्ण उत्तराखण्ड अध्यात्म की दृष्टि से भी सम्पूर्ण विश्व में जाना जाता है। ऐतिहासिक रूप से भी प्राचीन समय से आदि गुरू शंकराचार्य भी भ्रमण स्थली सम्राट अशोक का बौद्ध धर्म प्रचार मार्ग, शुंग शासकों का स्तूप निर्माण (काशीपुर-सेनापानी वन मार्ग) समुद्रगुप्त का कृर्तपुर, ह्वेनसांग का यात्रा पथ, मुम्महद बिन तुगलग का कराजल पर्वत तक आना, मुगल शासकों द्वारा इस भू-भाग को अपने राज्य में सम्मिलित करना भी तो एक मर्म स्पर्शी प्रकरण कहा जा सकता है। तदुपरांत यहॉं पर चंद, कत्यूरी, पॅवार, गोरखों द्वारा भी अपने-अपने निर्माण कार्यो से तथा अन्य गतिविधियों से इसके विकास-स्थापत्य, वास्तुकला, मंदिर निर्माण की अद्भुत संरचना भारतीय इतिहास में प्रदर्शित कर एक अमिट छाप रखी गई, जिसका परिमार्जन, संरक्षण हमारे लिए एक चुनौती भी है। इसके लिये सामाजिक संस्थाओं की भी अपनी एक अक्षुण्य भूमिका कही जा सकेगी क्योंकि उनके द्वारा हर क्षेत्र में सामाजिक पहल-महिला-बच्चे-स्वास्थ्य जागरूकता हेतु कदाचित ऐसे कार्यो को किया जाकर एक नई सोच-दिशा सामने रखने का सफलतम प्रयास किया है।
आवागमन- प्राचीन समय से यह क्षेत्र पैदल मार्गो से यात्रियों को अपने गन्तव्य स्थान तक ले जाने में एक सक्षम भूमिका में रहा है क्योंकि आवागमन-यातायात सुगम सुलभ होने से पूर्णतया कार्य किये जा सकते है। सभी स्थानों का सड़कों से जोड़ने पर ही आने-जाने की सुगम व्यवस्था का लाभ यातायात साधनों से स्थानीय जनता ले सकेगी। जो उद्योग कच्चा माल, पर्यटन, यातायात, स्वास्थ्य सभी क्षेत्रों में लाभकारी रहेंगी। जिस हेतु राज्य सरकार को औचित्य पूर्ण कार्य करना होगा और न वन भूमि में अनावश्यक पेड़ों को काटा जाकर सड़क बनाई जाय ताकि वन भूमि की क्षेत्र/औसत क्षमता बनी रहे।
सहायक ग्रन्थ-
1. वल्दिया, खड़क सिंह, उत्तराखण्ड आज, अल्मोड़ा बुकडिपो।
2. रतूड़ी, हरिकृष्ण, गढ़वाल का इतिहास, गढ़वाली प्रेस, देहरादून, 1920.
3. भारत का गजेटियर, प्रकाशन विभाग भारत सरकार, नई दिल्ली, 1973.
4. नौटियाल, डॉ0 शिवानंद, स्कन्दपुराण, साहित्य सम्मेलन (केदारखण्ड), प्रयाग 1996.
5. महाभारत, गीता प्रेस, गोरखपुर।
6. गैंरोला, वाचस्पति, वैदिक साहित्य व संस्कृति, चौखम्बा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, 1977.
7. पाण्डेय, राजेन्द्र, उत्तर भारत का सांस्कृतिक इतिहास, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान, लखनऊ, 1976.
8. पाठक, शेखर, पहाड़, परिक्रमा-तल्लीताल।
9. वसु एस0सी0, अष्टाध्यायी, इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद, 1891.
डॉ0 सरोज वर्मा
अस्सिटैंट प्रोफेसर,
एल0एस0एम0पी0जी0 कॉलेज पिथौरागढ़।