Thursday 1 January 2015

वैदिक साहित्य में धर्मार्थ विवेचन


नकुल पाण्डेय

पुरुषार्थ चतुष्टय में धर्म को प्रथम स्थान प्राप्त है। श्रुति द्वारा जो कर्म समाज के कल्याण के लिए विहित हैं, वे धर्म कहे गये हैं। धृ´् धारणे धातु से निष्पन्न धर्म का मूल अर्थ है- धारण करना। महाभारत में भी धारणात् धर्म इत्याहुः कहकर धर्म का एक विशिष्ट अर्थ स्वीकार किया गया है। किन्तु कालान्तर में इसका अर्थ विस्तार हो गया और अब यह शब्द व्यापक रूप में विभिन्न सम्प्रदायों के लिए प्रयुक्त होने लगा है। जैसे- बौद्ध धर्म, जैन धर्म, इसाई धर्म आदि। इस प्रकार वैदिक और अवैदिक दोनों सम्प्रदायों में धर्म के भिन्न-भिन्न अर्थ किये गये हैं। किन्तु वेदों में यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः अर्थात् जिसके द्वारा अभ्युदय एवं निःश्रेयस की सिद्धि हो, उसे धर्म कहते हैं, इस उक्ति को स्वीकार किया गया। अर्थ संग्रह के व्याख्याकार डॉ0 कामेश्वर मिश्र के शब्दों में- ‘‘अर्थ संग्रहकार ने यागादि को ही धर्म माना है, अन्य को नहीं। ‘एव’ पद को रखकर उन्होंने ‘यागादि’ के अतिरिक्त किसी भी अन्य कर्म को धर्म नहीं स्वीकार किया है। कुछ विद्वानों के अनुसार ‘एव’ पद से अवैदिक बौद्ध आदि सम्प्रदायों में स्वीकृत ‘चैत्य वन्दन’ आदि का निराकरण किया गया है, क्योंकि इनको वेदों में धर्म नहीं माना गया है।1 कुछ विद्वानों के अनुसार ‘एव’ शब्द से वैशेषिक सम्प्रदाय तथा वेदान्त सम्प्रदाय द्वारा मान्य अदृष्ट धर्म जो अन्तःकरण या आत्मा में रहता है, का निराकरण किया गया है। मीमांसकों के मत में यागादि को ही धर्म इसलिए माना गया क्योंकि वे निःश्रेयस के साधन हैं। उनकी निःश्रेयस साधनता केवल वेदों से ही ज्ञात होती है। किसी अन्य उपाय से नहीं। यदि वेदों का समर्थन न होता तो यागदि के महत्त्व का ज्ञान न होता। वेदों से ही ज्ञात होता है कि किस याग को करने से कौन सी श्रेयस्कर वस्तु प्राप्त होगी और कौन उसे करने का अधिकारी है। जहाँ तक यागादि में आदि शब्द का प्रश्न है तो यहां आदि से इज्या अर्थात् यज्ञ देवनिमित्त द्रव्य का त्याग प्रधान रूप है इसके अतिरिक्त आचार, दान, अहिंसा और स्वाध्याय आदि का ग्रहण होगा। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि एक ओर जहाँ बौद्धादि सम्मत चैत्य स्तूप आदि का वन्दन धर्म नहीं है, वहीं मीमांसा से भिन्न न्याय वैशेषिक, वेदान्त आदि आस्तिक सम्प्रदायों को मान्य यागादि से भिन्न रूप वाला धर्म (मीमांसकों को) स्वीकार नहीं है। निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि धर्म चाहे वैदिक या अवैदिक किसी भी सम्प्रदाय में मान्य हो, यदि वह यागादि नहीं है तो मीमांसकों की दृष्टि में धर्म नहीं है। यद्यपि वर्तमान समय में विभिन्न सम्प्रदाय और समाज के द्वारा धर्म का व्यापक रूप स्वीकार कर लिया गया है तथापि मेरा विवेचन वैदिक साहित्य पर केन्द्रित होने के कारण वेदानुकूल ही होगा।
वैदिक साहित्य में धर्म के दो रूप दृष्टिगोचर होते हैं- प्रथम भक्ति या श्रद्धा और द्वितीय- यज्ञ। ऋग्वेद में देवताओं की जो स्तुति की गई है, उसमें भक्ति या श्रद्धा की भावना ही लक्षित होती है। अग्नि, इन्द्र, सविता, वरूण आदि देवताओं की स्तुतियों में अगाध श्रद्धा एवं भक्ति की भावना भरी हुई है। देवताओं के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति ही धार्मिक जीवन की मुख्य विशेषता रही है। ऋग्वैदिक देवताओं के तीन वर्ग हैं- (1) द्युस्थानीय, (2) अन्तरिक्ष स्थानीय, (3) पृथ्वी स्थानीय। प्रत्येक वर्ग में 11 देवता हैं, इस प्रकार तीनों वर्गों को मिलाकर देवताओं की कुल संख्या 33 है।
(1) द्युस्थानीय - सूर्य, वरूण, मित्र और विष्णु आदि।
़(2) अन्तरिक्ष स्थानीय - इन्द्र, रूद्र, मरूत्, आपः आदि।
(3) पृथ्वी स्थानीय - अग्नि, सोम, पृथ्वी आदि।
ऋग्वैदिक धर्म का दूसरा रूप यज्ञ है। ऋग्वैदिक काल यज्ञ को धर्म का एक विशेष अंग माना जाता था। समस्त वैदिक वाङ्मय के अधिकांश मंत्र यज्ञ से ही सम्बधित हैं और चारों वेदों का मूल उद्देश्य सफलता पूर्वक यज्ञों का सम्पादन कराना है। ऋग्वेद में तो यज्ञ को ही प्रथम और मुख्य धर्म माना गया है- तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।2 शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ को ईश्वर रूप माना गया है- विष्णुर्वैयज्ञः3 इस प्रकार वेदों में यज्ञ को ईश्वर एवं धर्म का साक्षात् प्रतीक कहा गया है। उस यज्ञरूप धर्म का ऋग्वेद में महत्त्वपूर्ण वर्णन है। यज्ञों में अग्नि का विशिष्ट महत्व और स्थान है। अग्निमीले पुरोहितम्4 ऋग्वेद में अग्नि को यज्ञ का पुरोहित कहा गया है। कहीं पर उसे देवताओं का मुख तो कहीं पर दूत भी कहा गया है। यज्ञों में सर्वप्रथम अग्नि का ही आधान और आह्वान होता है, उसके बिना यज्ञ प्रारम्भ नहीं हो सकता है। अग्नि ही भक्तों द्वारा दी हुई आहुति को विभिन्न देवताओं तक पहुँचाती है। ऋग्वेद में अग्नि से सम्बन्धित लगभग दो सौ सूक्त हैं, जिनमें अग्नि के साथ यज्ञ के महत्व का प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि ऋग्वैदिक काल में भक्ति और यज्ञ ये दोनों रूप एक दूसरे के पूरक थे।
धर्म और उसके रूपों पर प्रकाश डालने के बाद अब अर्थ का विवेचन आवश्यक है। चार पुरुषार्थोंर् में अर्थ को दूसरे स्थान पर रखा गया है, किन्तु वैदिक साहित्य में धर्म से कम महत्व नहीं दिया गया है। क्योंकि यज्ञादि कर्म अर्थ पर ही आश्रित थे। अतएव वेदों के विभिन्न सूक्तों में अर्थ का महत्व विशेष रूप से प्रतिपादित है। वैदिक काल में आर्यलोग धर्म का पालन करने के साथ अर्थोपार्जन करते थे। ऋग्वेदकालीन समाज का आर्थिक जीवन कृषि, पशुपालन, व्यापार एवं उद्योग-धंधों पर निर्भर था। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर कृषि एवं कृषि सम्बधी वस्तुओं का उल्लेख मिलता है। उस समय पशुपालन प्रमुख व्यवसाय था और अर्थोपार्जन का प्रधान साधन था। पशुओं में सबसे मूल्यवान गौ थी। गौ को तीन बार दुहा जाता था। गाय के दूध से दही, मक्खन तथा घी बनाने की कला से आर्य लोग परिचित थे। तत्कालीन समाज में गौ को विशेष आदर और सुरक्षा प्राप्त थी। ऋग्वेद में आये हुए दुहिता तथा अध्नया शब्दों से इस बात का पता चलता है। गाय का प्रयोग मुद्रा के रूप में भी अन्य वस्तुओं के क्रय-विक्रय के लिए होता था। गौ के अतिरिक्त अन्य पशुओं में भेड़, बकरी और अश्व का उल्लेख मिलता है। भेड़पालक को अविपाल और बकरी पालक के अजपाल कहा जाता था।
ऋग्वेदकाल में अनाज, दूध, घी, वस्त्र, आदि दैनिक जीवन के उपयोग की वस्तुओं का व्यापार प्रमुखता से किया जाता था। आर्यों का व्यापार सिर्फ अपने देश तक सीमित नहीं था, वे विदेश में जाकर भी व्यापार करते थे। ऋग्वेद में समुद्र में चलने वाली नावों का वर्णन मिलता है। ऋग्वेदकाल में सूत कातना तथा कपड़ा बुनना प्रमुख उद्योग था। इसके अतिरिक्त रथ, आभूषण, हथियार आदि बनाने का काम भी होता था। धातु गलाने, मिट्टी के बर्तन बनाने, चमड़े से विभिन्न वस्तुएँ बनाने तथा रस्सी बनाने का उद्योग प्रचलित था। स्वर्णकार सोने को गलाकर विभिन्न प्रकार के आभूषण तैयार करते थे। ऋग्वेद में वय, तक्ष्मन (बढ़ई) हिरण्यकार, चर्मकार, कारू (शिल्पी), भिषक् (वैद्य) आदि व्यवसायियों का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि आर्य लोग विभिन्न व्यवसय को अपनाकर अर्थोपार्जन करते थे। तत्कालीन समाज में धर्म का प्राबल्य था। लोगों के मन में देवी-देवताओं के प्रति विशेष श्रद्धा थी। अधर्म, अत्याचार, अनाचार, दुराचार से लोग दूर रहते थे। यागादि कर्म में लोगों की विशेष रुचि थी। ऋग्वेद में प्राप्त विभिन्न सूक्तों से इन बातों का पता चलता है। अग्नि सूक्त के एक मंत्र ऊँ अग्निमीले पुरोहितम् यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्।।5 में ऋषि अग्नि की स्तुति करते हुए कहता है कि मैं उस अग्नि का स्तवन करता हूँ जो यज्ञ का पुरोहित, देवताओं का आह्वान करने वाला तथा सम्पत्ति का सर्वश्रेष्ठ दाता है। इसी प्रकार अग्नि सूक्त के ही एक दूसरे मंत्र अग्निनारयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे यशसं वीरवत्तमम्।।6 में ऋषि की कामना है कि अग्नि द्वारा यजमान प्रतिदिन यशस्वी तथा अधिकतम वीरों वाले धन समृद्धि को प्राप्त करे। अग्नि सूक्त के उपर्युक्त मंत्रों में अग्नि को धन प्रदान करने वाले देवताओं में सर्वश्रेष्ठ माना गया है और उससे सम्पत्ति तथा समृद्धि की कामना की गई है। अग्नि सूक्त के ही एक अन्य मंत्र ‘‘यतस्त्वामग्ने इनधते यतस्त्रुक् त्रिस्ते अन्नं कृणवत्सस्मिन्नहन्।’’
स सु द्युम्नैरभ्यस्तु प्रसक्षत्तव क्रत्वा जातवेदश्चिकित्वान्।।7 में ऋषि अग्नि से प्रार्थना करता है कि हे अग्नि, जो प्रतिदिन तुमको प्रज्ज्वलित कर दिन में तीन बार हवि प्रदान करे, वह धनों से तथा तुम्हारे पराक्रम से शत्रुओं को अच्छी प्रकार से अभिभूत करे। कुछ इसी प्रकार की कामना इसी सूक्त के एक और मंत्र में की गई है- इध्मं यस्ते जभरच्छश्रमाणों, महो अग्ने अनीकमा सपर्यन्।
‘‘स इधानः प्रति दोषामुषासं पुष्यनरयिं सचते धनन्नमित्रान्।।8
अर्थात् हे अग्नि, परिश्रम करता हुआ जो व्यक्ति तुम्हारे शक्तिशाली तेज का सम्मान करता हुआ तुम्हारे लिए इन्धन लाता है, वह प्रत्येक रात्रि तथ प्रातः काल तुमको प्रज्ज्वलित करता हुआ, स्वयं समृद्ध होता है तथा शत्रुओं को मारता हुआ धन को प्राप्त करता है। उपर्युक्त मंत्रों में ऋषि इतनी समृद्धि की कामना करता है जिससे वह शत्रुओं को परास्त कर सके। अग्नि के बाद इन्द्र सूक्त में भी इन्द्र से धन समृद्धि की कामना की गई है। यो रघ्रस्य चोदिता यःकृशस्य यो ब्रह्मणो नाधमानस्य कीरेः।
युक्तग्राव्णों योऽविता सुशिप्रः सुतसोमस्य स जनास इन्द्रः।9
इन्द्र सूक्त के उपर्युक्त मंत्र में इन्द्र को धनिक, निर्धन, याचक तथा ब्राह्मण स्तोता के धन की वृद्धि करने वाला बताया गया है। इसी सूक्त के एक अन्य मंत्र में इन्द्र के सम्बन्ध में कहा गया है कि उसके लिए जो व्यक्ति सोम रस को निकालता तथा पकाता है, उसे वह दूसरों द्वारा लूटे हुए धन को लाकर देता है।
यः सुन्वते पचते दुध्र आ चिद्वाजं दर्दर्षि स किलासि सत्यः।
वयं त इन्द्र विश्वह प्रियासः सुवीरासो विदवथमा वदेम।।’’10
उपर्युक्त मंत्रों में कहा गया है कि अनैतिक तरीके से प्राप्त धन को इन्द्र बल पूर्वक लेकर परिश्रमी, धार्मिक निर्धन को दे देता है। इस प्रकार अधर्म पूर्वक धन प्राप्त करने का निषेध किया गया है। पूषन् सूक्त के एक मंत्र में ऋषि पूषन् से प्रार्थना करता है कि मुझे उस जानकार (विद्वान्) व्यक्ति के पास ले चलो जो मुझे सीधे मार्ग से नष्ट द्रव्यों की प्राप्ति का उपाय बतावे। सं पूषन् विदुषा नय यो अ´्जसानुशासति। य एवेदमिति ब्रवत्।।11 अगले मंत्र में कहा गया है कि जो पूषा के लिए हवि प्रदान करता है, उसको पूषा कभी नहीं भूलता, वह सर्वप्रथम धन प्राप्त करता है। यो अस्मै हविषाविधन्न तं पूषापि मृष्यते। प्रथमो विन्दते वसु।।12 इसी सूक्त के एक अन्य मंत्र में पूषा को धन का स्वामी तथा कभी नष्ट न होनेवाली सम्पत्ति का दाता बताया गया है- श्रृण्वन्तं पूषणं वयमिर्यमनष्टवेदसम्। ईशानं राय ईमहे।।13 वहीं एक अन्य मंत्र में पूषा से नष्ट पशुरूपी धन को पुनः हाँक लाने की प्रार्थना की गई है- परि पूषा परस्ताद हस्तदधातु दक्षिणम्। पुनर्नो नष्टमाजतु।।14 इसी प्रकार मरूत् सूक्त आदि में भी वैभव प्राप्ति की कामना की गई है। मरूत् सूक्त के इस मंत्र में उत्साही व्यक्तियों से वैभव प्रदान करने की कामना और प्रार्थना की गई है।
इस प्रकार ऋग्वेद में प्राप्त विभिन्न सूक्तों से पता चलता है कि ऋग्वेदकाल में धर्माचरण पूर्वक अर्थोपार्जन प्रशंसनीय था और अनैतिक तरीके से अर्जित धन निन्द्य। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि आर्य लोग भिन्न-भिन्न व्यवसाय अपनाकर अर्थोपार्जन करते थे तथा उसके लिए समुद्र तक की यात्रा करते थे। विभिन्न देवताओं की स्तुति कर तथा हवि प्रदानकर उनसे धर्म और अर्थ दोनों के लिए समानरूप से उत्सुक और प्रयासरत थे।
संदर्भ ग्रंथ-
1. यागादिरेवेत्येवकारेण चैत्यवन्दनादि धर्मत्वं वारयति। न चैत्यवन्दनादि धर्मस्तत्र प्रमाणाभावात् इत्यर्थः। जीवानन्द पृ0 8) अर्थसंग्रह, पष्ठ संस्करण, सन् 2000, पृ0 सं0 14
2. ऋग्वेद- 1/139/11, 1/139/119, 8/28/1
3. ऋग्वेद- पुरुष सूक्त 10/90/16
4. ऋग्वेद- 1/1/1
5. ऋग्भाष्य संग्रह, अग्नि सूक्त-1, पृष्ठ सं0 1
6. वही, अग्नि सूक्त-3, पृष्ठ सं0 5
7. न्यू वैदिक सेलेक्सन, अग्नि सूक्त-1, पृष्ठ सं0 133
8. वही, अग्नि सूक्त-2, पृष्ठ सं0 134
9. न्यू वैदिक सेलेक्सन, इन्द्र सूक्त-6, पृष्ठ सं0 96
10. ‘‘ ‘‘ ‘‘ 15 109
11. ‘‘ पूषन सूक्त-01 142
12. ‘‘ ‘‘ ‘‘ 04 145
13. ‘‘ ‘‘ ‘‘ 08 148
14. ‘‘ ‘‘ ‘‘ 10 149
सहायक ग्रंथ-
1. उपाध्याय, आचार्य बलदेव, वैदिक साहित्य का इतिहास।
2. उपाध्याय, आचार्य बलदेव, भारतीय धर्म और दर्शन।
3. ओल्डेनबेर्ग, एच0, प्राचीन भारतीय भाषा और धर्म।
डॉ0 नकुल पाण्डेय
प्राध्यापक, संस्कृत विभाग,
संत कोलम्बा महाविद्यालय, हजारीबाग (झारखण्ड)