Thursday 1 January 2015

भूमण्डलीकरण के दौर में प्रेस की स्वतंत्रता


राघवेन्द्र प्रताप सिंह

भूमण्डलीकरण के दौर में ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ से लोकतंत्रीय व्यवस्था की जाँच परख संभव है। इजारेदार पूँजी के प्रत्यागमन से या अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के दबाव में पूरी दुनिया की लोकतांत्रिक संस्थायें आज बहुत ही खतरनाक मोड़ पर खड़ी हो गयी है। एकाधिकारवादी कारपोरेट पूँजी ने न केवल लोकतांत्रिक संस्थाओं का अवमूल्यन किया वरन उसने दूसरी शासन व्यवस्थाओं को भी अपने प्रभामंडल से आच्छादित कर लिया है। आज ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ इसी आभामंडल से अभिमंडित हो चली है और अपनी स्वायत्ता खो दी है।

नोमचोमस्की ने कहा है कि ‘अगर लोकतंत्र को बचाना है और मीडिया को समाज में सकारात्मक भूमिका निभानी है तो उसका लोकतंत्रीकरण होना चाहिए। उसके एकाधिकार प्रवृत्ति को रोका जाना बहुत जरूरी है।’ भूमण्डलीकरण के गर्भ से ही एकाधिकारवाद का जन्म हुआ लगता है। दुनिया में ‘सूचना और संचार प्रौद्योगिकी’ के माध्यम से पूँजी का संकेन्द्रण बढ़ा है। विशाल बहुराष्ट्रीय निगम और देशी कारपोरेट घरानों ने ‘सूचना प्रौद्योगिकी’ के सहारे अकूत पूँजी पर एकाधिकार कायम कर लिया है। विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और वैश्विक आर्थिक संस्थायें इस एकाधिकारवादी पूँजी की सहयोगिनी हैं। पूँजी की इसी एकाधिकारवादी प्रवृत्ति ने दुनिया की तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं की लोकतंत्रीयता खत्म कर दी है और उन्हें एकाधिकार की काली छाया से आभूषित कर दिया है। उदाहरण के लिए भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में कारपोरेट पूँजी यह तय कर रही है कि किसे सांसद या विधायक बनना है तथा किसे मंत्री बनना है। कारपोरेट लाबिस्ट पत्रकार नीरा राडिया के प्रकरण से तो यही लगता है कि अब लोकतांत्रित संस्थाओं के दिन लद गये हैं और व्यवस्था में कारपोरेट पूँजी प्रभावी हो गयी है। आज चुनावों में पानी की तरह पैसे बहाये जा रहे हैं और पूँजी के अलम्बरदार चुनकर सत्ता में भागीदारी करने जा रहे हैं।
जैसे-जैसे आधुनिक प्रौद्योगिकी ने संचार को आसान बनाया है और दुनिया को एक गाँव में बदल दिया है, जनमत को नियंत्रित करने और उसे मनचाही दिशा में मोड़ने की होड़ तेज हो गयी है। दर्शक मूलतः एक सजग नागरिक या रसिक की जगह देखते ही देखते विवेकहीन उपभोक्ता में बदल गया है और उसे नियंत्रित करने की ताकत के कारण मीडिया पूँजीवाद के सबसे प्रभावशाली साथी के अलावा स्वयं में शुद्ध उद्योग बन गया है। इसके साथ ही दुनिया भर में बड़े पैमाने पर एक ऐसे मध्यवर्ग का विस्तार हुआ है, जो अपनी दैनिक जरूरतों से लेकर निजी और राजनीतिक हर तरह की समझ, दृष्टि और महत्वाकाँक्षाओं तक के लिए मीडिया पर निर्भर हो गया हैं इसी तरह, अन्य क्षेत्रों में भी पूँजी की प्रभाविता बढ़ गयी है। यह पूँजी का पराक्रम ही है कि देश के स्थानीय अखबार धीरे-धीरे बंद हो चले हैं या बड़े अखबारों ने उन्हें खरीद लिया है। साथ ही साथ उन बड़े अखबारों ने अपने स्थानीय संस्करण भी निकालने शुरू कर दिये हैं। अखबारों की स्वतंत्रता को बचाये रखने के लिए तथा उनके अस्तित्व की रक्षा के लिए सरकारी स्तर पर कुछ नियम बनाये गये थे। उदाहरण के लिए पृष्ठ संख्या के आधार पर अखबारों की कीमत तय करना, पठनीय सामग्री और विज्ञापन के बीच 60 और 40 प्रतिशत का संतुलन बनाना। विदेशी निवेश और प्रकाशनों पर पूरी तरह पाबंदी आदि। हालाँकि सरकार भी इन नियमों को पूरी तरह लागू नहीं कर पायी। आज भारत में अखबारों की जो स्थिति है- एकाधिकार, पत्रकारीय स्तर में गिरावट, संपादकीय संस्था का पतन, बहुसंस्करणों की भरमार, क्रास मीडिया निवेश, पत्रकारों और कर्मचारियों का शोषण आदि। आज छोटे अखबारों की अकाल मौत हो रही है। बड़े मीडिया संगठनों द्वारा उनका अधिग्रहण जारी है। उदाहरण के लिए- ‘दैनिक भास्कर समूह’ द्वारा ‘सौराष्ट्र समाचार’ नामक स्थानीय दैनिक का और बैनेट कोलमैन द्वारा कन्नड़ दैनिक का अधिग्रहण। इस तरह आज स्थानीय समाचार-पत्र संकट की स्थिति में है। इसके अलावा, जो सबसे बड़ा आघात पत्रकारिता जगत को लगा है, वह है- संपादकीय संस्था का पतन। आज संपादक की जगह ‘ब्रांड मैनेजर’ ने ले लिया है। इससे अखबारों की बौद्धिकता घटी है। इसके अलावा, पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों का वेतन बहुत न्यून है। आज उन्हें उचित पारिश्रमिकी भी नहीं मिल रही है, उनका शोषण जारी है, इससे पत्रकारिता का स्तर गिर रहा है। विदेशी पूँजी निवेश के चलते ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ बाधित हो रही है। व्यावसायिक लाभ से प्रेस की स्वतंत्रता को संरक्षित नहीं किया जा सकता, इसके लिए प्रेस का लोकतंत्रीकरण बहुत जरूरी है।
संदर्भ ग्रंथ-
1. समयांतर- ‘मीडिया बाजार और लोकतंत्र’ फरवरी-2011.
2. कौल, जवाहर लाल हिन्दी पत्रकारिता का बाजार भाव, पृष्ठ संख्या- 52-33
3. मोहन, अरविन्द, मीडिया, शासन और बाजार, पृष्ठ संख्या- 42-43 44-45- 46-47 109-119
4. जोशी, रामशरण, मीडिया और बाजारवाद, पृष्ठ संख्या- 15 से 21 तक, 42 से 44 तक।
राघवेन्द्र प्रताप सिंह
शोध छात्र, पत्रकारिता एवं जनसंचार,
उ0प्र0 राजर्षि टण्डन मुक्त, वि0वि0, इलाहाबाद।