Thursday 1 January 2015

न्याय-वैशेषिकप्रस्थान का उदात्त ग्रन्थ; तर्कभाषा


पवन कुमार

न्याय-वैशिषक दर्शनों को सांख्य-योग दर्शनों की तरह समान तन्त्र माना जाता है। इन्हें आन्वीक्षिकी विद्या के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। नित्य आत्मा की सिद्धि के उद्देश्य से प्रमाणों (विशेष रूप से अनुमान) का सूक्ष्म विश्लेषण न्याय-वैशेषिक दर्शनों के आचार्यों ने किया है। कणाद, गौतम, वात्स्यायन, उद्योतकर, प्रशस्तपाद, वाचस्पति, उदयन, श्रीधर, गङ्गेश, वर्धमान, शङ्कर मिश्र, वासुदेव सार्वभौम, रघुनाथ शिरोमणि, मथुरानाथ, जगदीश, विश्वनाथ, गदाधर, धर्मराजाध्वरीण, केशव मिश्र, अन्नम्भट्ट, गोवर्धन प्रभृति ग्रन्थकारों ने प्राचीनन्याय, नव्यन्याय, न्यायवैशेषिक आदि प्रस्थान प्रभेदों में विभाजित आन्वीक्षिकी विद्या को पर्याप्त परिष्कृत एवं यौक्तिक स्वरूप प्रदान करने के साथ इसकी श्रौतनिष्ठा को अक्षुण्ण बना रखा है।

तर्कभाषा-प्रकरणग्रन्थ1 के रचयिता विद्यासमृद्ध वंश में लब्धजन्मा मैथिल विद्वान् केशव मिश्र ने वैशेषिकसम्मत सप्तपदार्थप्राधान्य को अङ्गीकार कर न्याय-वैशेषिक-प्रस्थान की औदयन परिकल्पना को अत्यन्त सरलता किन्तु दृढ़ता के साथ प्रतिपादित करते हुए पूर्णता के साथ साकार किया है।
तर्कभाषा न्यायप्रधान न्यायवैशेषिकप्रस्थानात्मा प्रकरण ग्रन्थ है। क्योंकि यह न्यायसम्मत षोडश पदार्थों के निरूपण क्रम में प्रमेय के अङ्ग अर्थ के अन्तर्गत आत्मपदार्थ की विवेचना प्रस्तुत करता है तथा समन्वित प्रस्थान को पुष्ट करता है। तर्कसंग्रह, न्यायसिद्धान्तमुक्तावली प्रभृति ग्रन्थ भी यद्यपि समन्वयात्मा प्रकरण ग्रन्थ ही हैं किन्तु उनमें वैशेषिकसम्मत द्रव्यादि पदार्थों के वर्णन को पुरस्कृत कर गुण पदार्थ में बुद्धि शीर्षक के अन्तर्गत न्यायसम्मत प्रमाण को विश्लेषित किया गया है। अतः इन्हें वैशेषिकप्रधान समन्वयप्रस्थान की संज्ञा से विभूषित किया जाता है।
अस्तु, आचार्य केशव मिश्र ने ‘‘प्रमाणप्रमेय..तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः’’ इस न्यायसूत्र2 को पुरस्कृत कर भाष्यकार द्वारा निर्दिष्ट त्रिविध शास्त्रप्रवृत्ति का अवलम्बन किया है- त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिरुद्देशो लक्षणं परीक्षाचेति।3
न्यायकन्दलीकार आचार्य श्रीधर ने त्रिविध प्रवृत्ति को सम्यक्तया परिभाषित किया है- नामधेयेन पदार्थानामभिधानमुद्देशः।
उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्तको धर्मो लक्षणम्।
लक्षितस्य यथालक्षणं विचारः परीक्षा।4
तर्कभाषाकार ने सूत्रोक्तक्रम का आदर करते हुए प्रमाण की विवेचना लक्षणादि के उपस्थापन द्वारा आरम्भ करते हुए भाष्योक्त समाख्यानिर्वचनसामर्थ्य को पुरस्कृत किया है- प्रमाकरणं प्रमाणमिति।5
समानतन्त्रसिद्धान्त के रूप में श्री मिश्र ने ‘यथार्थानुभवः प्रमा’ निर्वचन द्वारा अयथार्थस्वरूप संशय, विपर्यय एवं तर्कज्ञानों का वारण किया है। विपर्ययात्मा की अयथार्थता ‘तदभाववति तत्प्रकारकं ज्ञानमप्रमा’ निर्वचन से सुस्पष्ट है। संशयात्मा की अयथार्थता भी उसके अनिश्चयात्मक होने से विदित होती है। तर्कात्मा की अयथार्थता को न्यायसूत्र में संकेतित किया गया है- अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः।6 तर्कज्ञान द्वारा एक पक्ष का समर्थन मात्र पुरस्कृत होता है विनिश्चायन नहीं अतएव यह भी अयथार्थात्मा ही है। इसे भाष्यकार ने सुविवेचित किया है- कथं पुनरयं तत्त्वज्ञानार्थः, न तत्त्वज्ञानमेवेति। अनवधारणात्। अनुजानात्ययमेकतरं धर्मं कारणोपपत्त्या न त्ववधारयति, न व्यवस्यति, न निश्चिनोति एवमेवेदमिति।7
प्रमा के द्वैविध्य स्मृति एवम् अनुभव को प्रतिपादित कर प्रमाकरण की व्याख्या के प्रसङ्ग में श्री मिश्र ने पाणिनिसूत्र का अवलम्ब किया है- साधकतमं करणम्।8
कारणप्रकर्ष की सुबोध व्याख्या हेतु कारणलक्षण प्रतिपादित किया गया है। तद्यथा- ‘यस्य कार्यात् पूर्वभावो नियतोऽनन्यथासिद्धश्च तत्कारणम्।9
समीक्षा पुरःसर कारणत्रैविध्य का सोदाहरण लक्षण प्रस्तुत करने के क्रम में श्री मिश्र ने न्यायकुसुम्ा०जलि की आचार्योक्ति को उपजीव्य बनाया है-
पूर्वभावोहि हेतुत्वं मीयते येन केनचित्।
व्यापकस्यापि नित्यस्य धर्मिधीरन्यथा नहि।।10
समवायिकारण के निरूपण-प्रसङ्ग में श्री मिश्र ने अयुतसिद्धों के समवाय को व्याख्यायित एवं प्रतिष्ठापित किया है- तत्रायुतसिद्धयोः सम्बन्धः समवायः।
....ययोर्मध्ये एकमविनश्यद- पराश्रितमेवावतिष्ठते तावयुतसिद्धौ।11
तदनन्तर श्री मिश्र ने अवसर प्राप्त धारावाहिकज्ञान को पूर्वाचार्योक्ति के अवलम्बन से निरूपित करने के क्रम में वादि सिद्धान्तों की समीक्षा भी की है। तद्यथा- अनधिगतार्थगन्तृत्वं च धारावाहिकविज्ञानानाम्......नाद्रियामहे।
........ कथं पूर्वमेव प्रमाणं नोत्तराण्यपि।12
यत्तु अनधिगतार्थगन्तृप्रमाणमिति लक्षणम्, तन्न, एकस्मिन्नेव घटे..... धारावाहिकज्ञानानां गृहीतग्राहिणामप्रमाण्यप्रसङ्गात्। .....ततश्चोत्तरदेश- संयोगोत्पत्तिरिति।13
श्री मिश्र न्यायसूत्र14 का अनुसरण करते हुए क्रमशः प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द प्रमाणों का सप्रभेद लक्षण विवेचित करते हैं। उन्होंने षोढासन्निकर्ष एवम् अलौकिक सन्निकर्ष के साथ निर्विकल्प एवं सविकल्प प्रत्यक्षों की परीक्षा की है। क्रमशः साङ्गोपाङ्ग अनुमानप्रमाण, उपमाननिरूपण, शब्दनिरूपण, अर्थापत्ति समीक्षण के साथ अभाव (अनुपलब्धि) प्रमाण की समीक्षा के अनन्तर श्री मिश्र ने प्रामाण्यवाद की दार्शनिक अवधारणा की समीक्षा अत्यन्त सुबोध रीति से उपस्थित की है। तद्यथा-
चत्वार्येव प्रमाणानि युक्तिलेशोक्तिपूर्वकम्।
केशवो बालबोधाय यथाशास्त्रमवर्णयत्।।15
तदनन्तर प्रमेयनिरूपण के प्रसङ्ग में तर्कभाषाकार ने निम्नाङ्कित सूत्र को आधार बनाया है- आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्याभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम्।16
प्रमेयनिरूपणप्रसङ्ग में द्रव्यादि पदार्थों की विवेचना वादिमत समीक्षा के साथ तर्कभाषा में विवेचित की गई है। पीलुपाक एवं पिठरपाक की पृथग् अवधारण भी यहाँ सुविवेचित हुई है। तद्यथा- द्विविधायाः पृथिव्या रूपरसगन्धस्पर्शा अनित्याः पाकजाश्च।17
परमाणुसिद्धि को अत्यन्त संक्षिप्त युक्ति से श्री मिश्र ने उपस्थापित किया है- यदिदं जाले सूर्यमरीचिस्थं......सएव परमाणुः। सचाऽनारब्ध एव।18
तदनन्तर संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा एवं सप्रभेद हेत्वाभास की मनोज्ञ विशद विवेचना तर्कभाषा की उपादेयता को संवर्धित करती है। तदनन्तर छल, जाति एवं निग्रहस्थान की निरूपणा के साथ तर्कभाषा की पूर्ति की गई है।
स्वयं ग्रन्थकार मुख्य उपादेयतम पदार्थ की विवेचना वैषद्येन करते हैं। अनपेक्षित पदार्थ को परिभाषित भी करना आवश्यक नहीं समझते-
इहात्यन्तमुपयुक्तानां स्वरूपभेदेन भूयोभूयः प्रतिपादनम्।
यदनति-प्रयोजनं तदलक्षणमदोषाय। एतावतैव बालव्युत्पत्तिसिद्धेः।19
1275 ई0 समकालस्थितिक तर्कभाषाकार श्री केशव मिश्र मिथिलाभिजन हैं। तर्कभाषाटीका ‘प्रकाश’ के रचयिता गोवर्धन मिश्र तर्कभाषाकार श्री केशव मिश्र को अपना गुरु बताते हैं। बलभद्र मिश्र के पुत्र केशव मिश्र के दो अग्रज प्रौढ़ विद्वान् थे-  1. विश्वनाथ एवं 2. पद्मनाभ। पद्मनाभ अग्रज जिनके द्वारा किरणावलीप्रकाश टीका लिखी गई उनसे न्यायशास्त्र का विधिवत् अध्ययन कर तर्कभाषा की रचना श्री केशव मिश्र ने की थी। तद्यथा- विजयश्रीतनूजन्मा गोवर्धन इति श्रुतः।
तर्कानुभाषां तनुते विविच्य गुरुनिर्मिताम्।।
श्रीविश्वनाथानुज-पद्मनाभानुजो गरीयान् बलभद्रजन्मा।
तनोति तर्कानधिगत्य सर्वाञ् श्रीपद्मनाभाद् विदुषो विनोदम्।।20
उपदिष्टा गुरुचरणैरस्पृष्टा वर्धमानेन। किरणवल्यामर्थास्तन्यन्ते पद्मनाभेन।।21
तर्कभाषा के अधीती न्याय-वैशेषिक के पदार्थों से सुपरिचित होकर समग्र भारतीय दर्शनों में प्रवेशाधिकार प्राप्त कर लेते हैं। 700 वर्षों में लगातार स्पृहणीय से स्पृहणीयतर एवम् स्पृहणीयतम बनती हुई तर्कभाषा प्रसिद्ध चौदह संस्कृत टीकाओं एवम् अनेक हिन्दी टीकाओं से अलंकृत होकर पर्याप्त माहात्म्य-मण्डित है। हम उनके सत्यसंकल्प को पौनःपुन्येन स्मरण करते हैं-
बालोऽपि यो न्यायनये प्रवेशमल्पेन वा्×छत्यलसः श्रुतेन।
संक्षिप्तयुक्त्यन्विततर्कभाषा प्रकाश्यते तस्य कृते मयैषा।।22
पाद-टिप्पणी
1. शास्त्रैकदेशसम्बद्धं शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम्। आहुः प्रकरणं नाम शास्त्रभेदविचक्षणाः। सूत्रभाष्यादिभिः शास्त्रं साक्षाद् वेदनसाधनम्।। -पाराशर उपपुराण, 18/21-22, सरस्वती भवन अध्ययनमाला-40,पृ.91
2प्रमाण-प्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छल- जातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः।। - गौतमीय न्याय सूत्र 1.1.1., बौद्ध भारती ग्रन्थमाला-11, पृ. 5
3. त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिः - उद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति।
- न्यायसूत्र 1.1.3 पर वात्स्यायन न्याय भाष्य, सुधी ग्रंथमाला-10, पृ. 17
4. योऽपि हि त्रिविधां शास्त्रस्य प्रवृत्तिमिच्छति, तस्यापि प्रयोजनादीनां नास्ति परीक्षा, तत् कस्य हेतोः? लक्षणमात्रादेव ते प्रतीयन्त इति। एवञ्चेदर्थप्रतीत्यनुरोधाच्छास्त्रस्य प्रवृत्तिर्न त्रिधैव। नामधेयेन
पदार्थानामभिधानमुद्देशः। उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्तको धर्म्मो लक्षणम्। लक्षितस्य यथालक्षणं विचारः परीक्षा।-प्रशस्तपादभाष्य (पदार्थधर्म्मसङ्ग्रह) पर न्यायकन्दली टीका,गङ्गानाथ झा ग्रन्थमाला-1,पृ0 69
तुलनीय- त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिः- उद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति, तत्र नामधेयेन पदार्थमात्रस्याभिधानम् उद्देशः तत्रोद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम्, लक्षितस्य यथालक्षणमुपपद्यते न वेति प्रमाणैरवधारणं परीक्षा। -न्यायसूत्र 1.1.3 पर वात्स्यायन न्यायभाष्य, सुधी ग्रन्थमाला-10, पृ. 17 ।
5. ;पद्ध उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानीति समाख्यानिर्वचनसामर्थ्याद् बोद्धव्यम् - प्रमीयतेऽनेनेति करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्दः। तद्विशेषसमाख्याया अपि तथैव व्याख्यानम्।
- न्यायसूत्र 1.1.3 पर वात्स्यायन न्याय भाष्य, सुधी ग्रन्थ माला-10, पृ. 18 ।
;पपद्धप्रमाणानामुलब्धिसाधनत्वं पदार्थप्रतीतिकारणत्वमुक्तरीत्या समाख्यानिर्वचनसामर्थ्यात् प्रत्यक्षादिशब्दव्युत्त्पत्तिसामर्थ्याद् बोद्धव्यं यथा ‘अक्षस्याक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः प्रत्यक्षम्’ इत्यादि। प्रमाणपदव्युत्पत्तिमाह-प्रमीयते इति, प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणमिति प्रमाणशब्दः करणार्थाभिधानः प्रमितिकरणत्वबोधकः करणत्वबोधकल्युट्प्रत्ययघटितत्वात्। तद्विवशेषसमाख्यायाः प्रमाणविशेषवाचकप्रत्यक्षादिशब्दस्यापि तथैव करणव्युत्त्पत्त्या व्याख्यानं कर्त्तव्यं यथा प्रत्यक्ष्यतेऽनेनेति प्रत्यक्षम् किं वा ‘अक्षमक्षं प्रतीति प्रत्यक्षम्’ इति। -वात्स्यायन न्यायभाष्य 1.1.3 पर प्रसन्नपदाटीका, सुधी संस्कृत ग्रन्थमाला-10, पृ. 18 ।
6. न्यायसूत्र 1.1.50, बौद्ध भारती ग्रन्थमाला- 11, पृ. 54
7. न्यायसूत्र 1.1.40 पर वात्स्यायन न्यायभाष्य, सुधी संस्कृत ग्रन्थमाला-11, पृ. 65 ।
8. अष्टाध्यायी, 1.4.42
9. तर्कभाषा, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला-155, पृ. 19 ।
10. न्यायकुसुमा्×जलि, 1/19, मिथिलाविद्यापीठप्राचीनग्रन्थवली-23, पृ. 210 ।
11. तत्रायुतसिद्धयोः सम्बन्धः समवायः। अन्ययोस्तु संयोग एव। कौ पुनरयुतसिद्धौ? ययोर्मध्ये एकमविनश्यदपराश्रितमेवावतिष्ठते तावयुतसिद्धौ। -तर्कभाषा, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला-155,पृ. 26
12.अनधिगतार्थगन्तृत्वं च धारावाहिकविज्ञानानामधिगतार्थगोचराणां लोकसिद्धप्रमाणभावानां प्रामाण्यं वहन्तीति नाद्रियामहे। न च कालभेदेनानधिगतगोचरत्वं धारावाहिकानामिति युक्तम्। परमसूक्ष्माणां कालकलादिभेदानां पिशितलोचनरस्मादृशैरनाकलनात्। न चाद्येनैव विज्ञानेनोपदर्शितत्वादर्थस्य प्रवर्तितत्वात्पुरुषस्य प्रापितत्त्वाच्चोत्तरेषामप्रामाण्यमेव ज्ञानानामिति वाच्यम्। न हि विज्ञानस्यार्थप्रापणं प्रवर्तनादन्यद्, न च प्रवर्तनमर्थप्रदर्शनादन्यत्। तस्मादर्थप्रदर्शनमात्रव्यापारमेव ज्ञानं प्रवर्तकं प्रापकं च। प्रदर्शनं च पूर्ववदुत्तरेषामपि विज्ञानानामभिन्नमिति कथं पूर्वमेव प्रमाणं नोत्तराण्यपि।-न्यायवार्तिकतात्त्पर्यटीका,काशीसंस्कृतग्रन्थमाला24,पृ 21
13. यत्तु अनधिगतार्थगन्तृप्रमाणमिति लक्षणम्, तन्न, एकस्मिनेव घटे घटोऽयं घटोऽयमिति धारावाहिकज्ञानानां गृहीतग्राहिणामप्रामाण्यप्रसङ्गात्। न चान्यायलक्षणविशिष्टविषयीकरणादनधिगतार्थगन्तृता। प्रत्यक्षेण सूक्ष्मकालभेदानाकलनात्। कालभेदग्रहे हि क्रियादिसंयोगान्तानां चतुर्णां यौगपद्याभिमानो न स्यात्। क्रिया, क्रियातो विभागो, विभागात् पूर्वसंयोगनाशः, ततश्चोत्तरदेशसंयोगोत्पत्तिरिति। -तर्कभाषा, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला-155, पृ.39-40.
14. प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि। -न्यायसूत्र 1.1.3, बौद्धभारती ग्रन्थमाला-11, पृ. 15
15. तर्कभाषा, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला-155, पृ. 144
16. न्यायसूत्र 1.1.9, बौद्धभारती ग्रन्थमाला-11, पृ. 25 ।
17. द्विविधायाः पृथिव्या रूपरसगन्धस्पर्शा अनित्याः पाकजाश्च। तेजः संयोगः, तेन पृथिव्याः पूर्वरूपादयो नश्यन्त्यन्ये जन्यन्त इति पाकजाः।-तर्कभाषा, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला 155, पृ.172.
18. तदेव, पृ. 183
19. तदेव, पृ. 264
20. तर्कभाषाप्रकाशिका से उद्धृत, तदेव, पृ. 60-61
21. किरणावलीप्रकाश से उद्धृत, तदेव, पृ. 61
22. तर्क-भाषा-आरम्भमङ्गलपद्य ।
सन्दर्भ-सूची
1.तर्कभाषा, केशवमिश्र, काशीसंस्कृतग्रन्थावली 155, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, संस्करण, 2006.
2.तर्कभाषा, केशवमिश्र, चौखम्भा सुरभारती ग्रन्थमाला 74, वाराणसी, पुनर्मुद्रित संस्करण, 2009.
3.गौतमीय न्यायसूत्र, ‘न्यायदर्शनम्’ शीर्षक से वात्स्यायन भाष्य सहित प्रकाशित, सं.द्वारिकादास शास्त्री, बौद्धभारती ग्रन्थमाला 11, बौद्धभारती, वाराणसी, 1984.
4.न्यायभाष्य, वात्स्यायन मुनि, सं. द्वारिकादास शास्त्री, सुधी ग्रन्थमाला 10, सुधी प्रकाशन, वाराणसी, 1986
5.अष्टाध्यायी सूत्रपाठ, पाणिनि, सं. शंकरराम शास्त्री, शारदा पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1937
6.पाराशरोपपुराण, सं. कपिलदेव त्रिपाठी, सरस्वती भवन अध्ययनमाला 40, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, 1990
7.न्यायकुसुमा्×जलि, उदयनाचार्य, सं. महाप्रभुलाल गोस्वामी, मिथिला विद्यापीठ प्राचीन ग्रन्थावली-23, मिथिला रिसर्च इंस्टीट्यूट, दरभङ्गा, 1972
8.आमोद (न्यायकुसुमाञ्जलि टीका), शंकर मिश्र, सं. महाप्रभुलाल गोस्वामी, मिथिला विद्यापीठ प्राचीन ग्रन्थावली-23, मिथिला रिसर्च इंस्टीट्यूट, दरभङ्गा, 1972
9.विवेक (न्यायकुसुमाञ्जलि टीका), गुणानन्द विद्यावागीश, सं. महाप्रभुलाल गोस्वामी, मिथिला विद्यापीठ प्राचीन ग्रन्थावली-23, मिथिला रिसर्च इंस्टीट्यूट, दरभङ्गा, 1972
10.परिमल (न्यायकुसुमाञ्जलि टीका), हरिहरकृपालु द्विवेदी, सं. महाप्रभुलाल गोस्वामी, मिथिला विद्यापीठ प्राचीन ग्रन्थावली-23, मिथिला रिसर्च इंस्टीट्यूट, दरभङ्गा, 1972
11.तात्पर्यवार्त्तिक टीका, वाचस्पति मिश्र, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला-24, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, 1990.
12.प्रशस्तपादभाष्य (पदार्थधर्मसङ्ग्रह), प्रशस्तपाद, सं. पं. दुर्गाधर झा, गङ्गानाथ झा ग्रन्थमाला 1, सम्पूर्णानन्द संस्कृत वि. वि. वाराणसी, 1972.
13.न्यायकन्दली (प्रशस्तपादभाष्य टीका), श्रीधर भट्ट, सं. पं. दुर्गाधर झा, गङ्गानाथ झा ग्रन्थमाला 1, सम्पूर्णानन्द संस्कृत वि. वि. वाराणसी, 1972
14.श्रीधराचार्य और वैशेषिकदर्शन, सत्यनारायण मिश्र, साहित्य निकेतन, कानपुर, 1987
15.वैशेषिकदर्शन (वैशेषिक सूत्र), कणाद, सं.अनन्तलाल ठक्कुर, मिथिला रिसर्च इंस्टीट्यूट, दरभङ्गा,1988.
16.न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, वाचस्पति मिश्र, सं. अनन्तलाल ठक्कुर, न्यायचतुर्ग्रन्थिका- तृतीय भाग, भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद, नई दिल्ली, 1996
17.तर्कसङ्ग्रह, अन्नम्भट्ट, सं. सत्कारि शर्मा बंगीय, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला 187, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, पुनर्मुद्रण 2011.
18.तर्कसङ्ग्रह, अन्नम्भट्ट, बाम्बे संस्कृत एण्ड प्राकृत सिरीज, भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूने, द्वितीय संस्करण, 1918
पवन कुमार
असिस्टैण्ट प्रोफेसर,
राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, लखनऊ-परिसर।