Thursday 1 January 2015

महात्मा गाँधी की बुनियादी शिक्षा की अवधारणा


मनोज कुमार सिंह

भारतीय परम्परा में शिक्षा को मनुष्य के सर्वतोमुखी विकास का एक माध्यम माना जाता है। शिक्षा के इसी अर्थ से प्रेरित गाँधी जी का कहना है कि शिक्षा का उद्देश्य सम्पूर्ण मानव का निर्माण करना है, जिससे उसका समग्र व्यक्तित्व विकसित हो सके। इसीलिए सच्ची शिक्षा समग्र या सम्पूर्ण शिक्षण को ही कहना चाहिए, जिसके माध्यम से मानव-व्यक्तित्व के अन्तर्निहित आध्यात्मिक, बौद्धिक और भौतिक सभी गुणों का विकास हो सके।1 इसके विपरीत प्रचलित महाविद्यालयी या विश्वविद्यालयी शिक्षा पद्धतियाँ निस्तेज, जड़ तथा कुण्ठित होती हैं जिसमें मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता है। यह वस्तुतः बेरोजगारों की फौज पैदा करती है तथा अन्तिम रूप से राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक दासता को उत्पन्न करती है और समाज की प्रगति में बाधा उत्पन्न करती है। इसलिए गाँधी जी ने अपने इस अनुभव के आधार पर प्रचलित शिक्षा में परिवर्तन का मत प्रतिस्थापित करते हैं ताकि परिवर्तित या नई शिक्षा-पद्धति से अहिंसक सर्वोदयी समाज की स्थापना की जा सके। वह नई शिक्षा-पद्धति बुनियादी शिक्षा या नई-तालीम है।

गाँधी जी की बुनियादी शिक्षा या नई-तालीम वस्तुतः अंग्रेजी शिक्षा के विरोध का फल है। वे अपनी पुस्तक हिन्द-स्वराज में अंग्रेजी पुस्तकों के आधार पर मिलने वाली सांकेतिक शिक्षा की कटु आलोचना करते हैं। उनका मत है कि, करोड़ों आदमियों को अंग्रेजी शिक्षा देना तो उन्हें गुलामी में फंसाने के बराबर है। मैकाले ने जिस शिक्षा की नींव डाली वह वास्तविक रूप से देखने पर गुलामी की नींव थी। मेरा कहने का आशय यह नहीं कि उन्होंने जान बुझकर ऐसा किया। पर उनके काम का यही फल हुआ। हम स्वराज्य की बात परायी भाषा में करते हैं, यह कितनी दीन-दशा है? जो शिक्षा अंग्रेजों ने उतार फेंकी है वही अपना श्रृंगार बनती है। उसे ही लेकर हम खुश होते हैं। यह ध्यान रखने की बात है।2 वे लिखते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा ने हमारी संस्कृति को योजनापूर्वक धीरे-धीरे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा देकर हमारी कमर ही तोड़ दी है। ऐसी शिक्षा प्राप्त एक वर्ग ऐसा खड़ा हुआ, जो अपनी जड़ों से उखड़ गया, हमारी अपनी सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक विचारधारा को पिछड़ी हुई और पुरानी मानने लगा तथा पूरा का पूरा पश्चिम के रंग में रंगता गया। आज अंग्रेजों की गुलामी भले गयी, पर यह मानसिक और वैयक्तिक गुलामी अभी कायम है।3 इस प्रकार उनकी दृष्टि में अंग्रेजी शिक्षा बच्चों को अपनी पारम्परिक संस्कृति से अलग कर स्वदेशी तथा राष्ट्र प्रेम की भावना का समापन कर देती है। इसलिए गाँधी जी ने स्पष्ट किया कि अंग्रेजी शिक्षा के स्थान पर नवीन शिक्षा-व्यवस्था की स्थापना की जाए जिसमें अपनी सभ्यता और संस्कृति के साथ देशीय वातावरण की वस्तुओं द्वारा ज्ञान की प्राप्ति हो।
वास्तव में गाँधी जी इस बुनियादी शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रीय शिक्षा को विकसित करना चाहते थे जिसके द्वारा राष्ट्रीयता के अन्दर जो सुन्दर से सुन्दर तत्त्व हैं, उनके प्रति तथा राष्ट्रीय सम्भावनाओं के प्रति बच्चों में प्रेम और विश्वास पैदा हो सके। इसके बिना कोई भी व्यक्ति या राष्ट्र उपर उठ नहीं सकता किन्तु इसके साथ ही शिक्षा का उद्देश्य भी यह होना चाहिए कि व्यक्ति और राष्ट्र अपनी संभावनाओं और शक्ति का इस प्रकार विकास करें कि सम्पूर्ण मानव की एकता एवं अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव पैदा हो सके।4 वे कहते हैं कि, ‘‘कोई भी संस्कृति बिल्कुल पृथक रहकर जी नहीं सकती। इसलिए मैं चाहता हूँ कि हमारे सभी ओर के दरवाजे और खिड़कियाँ खुली रहें ताकि सभी जगहों की संस्कृतियों की सुगन्ध हमारे घर में भी निर्बाध रूप से आ सके। किन्तु यह भी सही है कि मैं अपना आधार नहीं छोड़ना चाहता।5
यहाँ उल्लेखनीय है कि गाँधी जी की दृष्टि में शिक्षा मात्र साक्षरता नहीं है। साक्षरता न तो शिक्षा का आरम्भ है और न अन्त। इसके प्रशिक्षण से नैतिक ऊँचाई में एक इंच की भी वृद्धि नहीं होती है। चरित्र-निर्माण साक्षरता से बिल्कुल स्वतन्त्र वस्तु हैं। अंग्रेजी शिक्षा भारत जैसे कृषि-प्रधान देश के नागरिकों को केवल अक्षर ज्ञान देकर शरीर-श्रम की न्यूनता बतलाकर उन्हें भावी जीवन में बेकार बना देती है।6 उनके अनुसार इस प्रकार की शिक्षा से मनुष्य भौतिकवादी, परतन्त्र तथा कायर के रूप में परिवर्तित हो जाता है जिससे वह कार्यालय के किरानी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बन पाता है। अतः शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसके द्वारा एक स्वावलम्बी व्यक्ति उत्पन्न हो तथा वे भविष्य की आजीविका के लिए किसी पर निर्भर न हों। इसके लिए वे अपनी बुनियादी शिक्षा के अन्तर्गत प्रारम्भ से ही किसी कौशल विकास शिक्षा पर बल देते हैं। उन्होंने शिक्षा की इस पद्धति की खोज गाँवों को दृष्टि में रखकर की थी। वे चाहते थे कि ग्राम-समाज के लड़के कोई-कोई हुनर (कौशल) सीख जायें। इस प्रकार गाँवांं की प्रगति होगी और शहरी प्रवास की समस्या का भी समाधान हो जायेगा। वे कहते हैं कि, बालकों को किसी न किसी जीविका के लिए अवश्य प्रशिक्षित करना चाहिए। उसी को ध्यान में रखकर उसके शरीर, मस्तिष्क, हृदय आदि शक्तियों का भी विकास करना चाहिए। इस प्रकार वह अपने व्यवसाय में दक्षता प्राप्त कर लेगा।7 स्पष्ट है कि गाँधी जी के अनुसार शिक्षा कोई बुद्धि विकास का ही माध्यम नहीं है अपितु इसके द्वारा बुद्धि विकास के साथ-साथ भावानुभूति और सौन्दर्यानुभव के लिए उचित स्थान होना चाहिए। अंग्रेजी शिक्षा में व्यक्तित्व के भाव और क्रिया पक्ष के लिए समुचित स्थान नहीं होता है। भाव पक्ष के विकास के लिए पुस्तक से अधिक चरित्रवान तथा आस्थावान शिक्षकों की आवश्यकता होगी।8 वस्तुतः ऐसे शिक्षकों से बच्चों में राष्ट्र प्रेम की भावना का विकास होगा तथा उनका हृदय परिवर्तन करना सम्भव होगा। इसके विपरीत अंग्रेजी शिक्षण पद्धति से प्रशिक्षित शिक्षक से छात्रों में उक्त विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है।
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा मात्र यान्त्रिक प्रक्रिया नहीं है। वे कहते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा से रटने तथा अनुकरण की प्रवृत्ति का विकास होता है। इससे मस्तिष्क पर अनावश्यक रूप से तनाव पड़ता है तथा व्यक्ति की स्वतन्त्र चिन्तन-शक्ति अवरुद्ध हो जाती है। इस प्रकार की शिक्षा का उपयोग न तो व्यक्तिगत जीवन में हो पाता है और न सामाजिक जीवन में ही है। यह अपनी ही भूमि पर बच्चों को विदेशी बना देती हैं। इससे मातृभाषा का विकास अवरुद्ध हो जाता है।9 गाँधी जी इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि अंग्रेजी शिक्षा भारतीयों के लिए अनुपयोगी है क्योंकि वे अंग्रेजी शिक्षा को भारतीयों को भारतीयता से काटने का एक माध्यम या षडयन्त्र मानते हैं।
बुनियादी-शिक्षा के मूलतत्त्व
1. समन्वय की विधि- गाँधी जी के बुनियादी-शिक्षा की मूलभूत विशेषता है समन्वयकारी पद्धति। इसमें शिक्षा को तथा सामान्य जीवन की प्रक्रिया को पृथक-पृथक न मानकर एक अखण्ड प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया जाता है। यह पद्धति वस्तुतः बालकों को प्रारम्भ से ही अपृथक जीवन जीने की कला सिखाती है। उन्होंने यह अनुभव किया कि वह शिक्षा-पद्धति बेकार है जिसका जीवन के समस्त पक्षों से अनुबन्ध न हो। इसीलिए उन्होंने बुनियादी-शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को प्रकृति, पड़ोसी तथा सबसे बढ़कर परमात्मा के साथ सम्बद्ध करने का प्रयास किया। इस प्रकार की शिक्षा-पद्धति में व्यक्ति को साक्षात् सम्पर्क उसके जीवन के समस्त पक्षों के साथ होता है। इस रूप में शिक्षा समग्र मानव जीवन का सार बन जाती है। इसी कारण गाँधी जी कहते हैं कि मानव व्यक्तित्व शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का सामंजस्यपूर्ण संगठन है।10 उनके अनुसार मानव व्यक्तित्व के अनुकूल ही शिक्षा-पद्धति होनी चाहिए जिसमें ऐसे शिक्षक हों जिनमें आचार, हस्तकर्म और वैज्ञानिकता का समन्वय विद्यमान हो। उनकी यह शिक्षण-पद्धति मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अनुकूल है। कार्यों के माध्यम से शिक्षा देने से बच्चों के लिए एक प्रकार के खेल का आनन्द देता है तथा उनके संवेगों व्यवहारों तथा प्रवृत्तियों को तुष्ट करता है।11 शिक्षा की इस समन्वयकारी पद्धति का समर्थन जैन दर्शन में भी किया गया है।12
2. स्वावलम्बी-शिक्षा- गाँधी जी के शब्दों में आत्मनिर्भरता या स्वावलम्बन बुनियादी शिक्षा की सच्ची कसौटी है।13 इसके बिना शोषण मुक्त अहिंसक समाज की स्थापना को मूर्त रूप नहीं दिया जा सकता। क्रियात्मक शिक्षण या कौशल विकास शिक्षण से न केवल आत्मनिर्भरता तथा आजीविका की प्राप्ति होती है अपितु इससे बच्चों में आत्मसम्मान का विकास होता है और बेरोजगारी की समस्या का भी बहुत हद समाधान हो जाता है, किन्तु वे बुनियादी-शिक्षा के द्वारा मात्र आर्थिक-निर्भरता की ही बात नहीं करते अपितु इसे सामाजिक परिवर्तन का माध्यम मानते हैं जहाँ श्रम-आधारित समतामूलक समाज की स्थापना के आदर्श की संकल्पना की गई है। इस सन्दर्भ में आचार्य जे.बी. कृपलानी का ठीक ही कहना है कि, प्रस्तावित नई तालीम का लक्ष्य विद्यार्थियों में हस्तकर्म के द्वारा यान्त्रिक तरीके से आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करना नहीं है। यहाँ जो प्रस्तावित किया गया है वह इससे भिन्न तथा क्रान्तिकारी है।14 वस्तुतः गाँधी जी सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति को परिवर्तित कर नवीनता लाना चाहते थे जिसमें सम्पूर्णता हो।
3. बुनियादी-शिक्षा और समाज- गाँधी जी ने वस्तुतः इसका विधान ही नवीन अहिंसक शोषण मुक्त समाज को प्रतिस्थापित करने के लिए किया था। उद्योग या श्रम आधारित शिक्षा देने से समाज से ऊँच-नीच का भेद समाप्त हो जाता है। समाज की इस रूढ़ भावना का लोप हो जाता है कि ‘बौद्धिक कार्य श्रेष्ठ है और शारीरिक श्रम निम्नतर है’।15 उनके अनुसार जब श्रम और बौद्धिकता आपस में संयुक्त हो जाते हैं तो सम्मान और सुविधा की दृष्टि से बराबर हो जाते हैं ऐसे समाज में वस्तुतः शोषण के लिए कोई स्थान नहीं होता है।16 यही गाँधी जी के आदर्श सर्वोदय का लक्ष्य है।
4. सांस्कृतिक विकास- बुनियादी शिक्षा का मूल उद्देश्य है मानव के मूल मानवीय संस्कृति को उद्घाटित करना है। गाँधी जी की दृष्टि में संस्कृति वह आत्मिक तत्त्व है जो मानव के समस्त व्यवहारों में व्याप्त रहती है।17 उनके अनुसार शिक्षा का अर्थ है- मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में उत्तम तत्त्वों का विकास करना है।18 उन्होंने बताया है कि इस महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति में साहस, शक्ति, सद्गुण का विकास हो।19
गाँधी जी व्यक्ति के सांस्कृतिक विकास के अन्तर्गत शिक्षा के मूल उद्देश्य में चारित्रिक निर्माण को भी समाहित करते हैं। उनके मत में चारित्रिक निर्माण होने पर समाज में किसी के बीच आपस में विरोध नहीं रह जाता, किसी सामाजिक संगठन की आवश्यकता नहीं पड़ती, राज्यमुक्त समाज की स्थिति आ जाती है। चारित्रिक निर्माण का एक मात्र उपाय शिक्षक की आध्यात्मिक शक्ति है जो उनके जीवन और चरित्र के माध्यम से अभिव्यक्त होती है।20 आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत शिक्षक मीलों दूर रहकर भी शिष्यों के हृदय हो जगा सकते हैं तथा उनकी जीवन-पद्धति को बदल सकते हैं।21 परन्तु उनके अनुसार शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य चरित्र निर्माण, शारीरिक एवं मानसिक विकास नहीं है। बल्कि अन्तिम उद्देश्य तो जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति करना है- सा विद्या या विमुक्तये। अतः आत्मोपलब्धि तथा ईश्वर-साक्षात्कार ही अन्तिम लक्ष्य है जिसका सर्वोत्तम साधन दीन-दुःखियों की सेवा है।22
इस प्रकार उक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि गाँधी जी के लिए शिक्षा बौद्धिक विकास का मात्र माध्यम न था अपितु यह मनुष्य के सर्वांगीण विकास की एक युक्ति है। इसीलिए उन्होंने बुनियादी-शिक्षा के रूप में एक नई योजना प्रस्तुत की। यह योजना ही उनके सर्वोच्च लक्ष्य अहिंसक समाज की स्थापना में सहायक हो सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ-
1. हरिजन, 11.07.1937।
2. गाँधी, महात्मा, हिन्द स्वराज, पिलग्रिम्स पब्लिशिंग, 1977 (2006), पृ. 90, 91.
3. कान्तिशाह, हिन्द स्वराजः एक अध्ययन, सर्व सेवा संघ-प्रकाशन,राजघाट,2009, पृ.170, 171.
4. दत्त,डॉ0धीरेन्द्र मोहन, महात्मा गाँधी का दर्शन, बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी,पटना,1985,पृ 88.
5. यंग इण्डिया, 01.07.1921, पृ. 89.
6. वही, 01.09.1921, पृ. 276.
7. हरिजन, 18.09.1937, पृ. 87.
8. यंग इण्डिया, 01.09.1921, पृ. 276.
9. वही, 01.09.1921, पृ. 276.
10. ळंदकीपए डण्ज्ञय ज्वूंतके छमू म्कनबंजपवदए चण् 52ण्
11. ज्ीम म्कनबंजपवद च्ीपसवेवचील वि डींंजंउं ळंदकीपए च्ंजमसण् डैए छंअंरपअंद च्नइसपेपदह भ्वनेमए 1958ए चण् 177ण्
12. ‘‘हयं नाणं क्रियाहीनं, हया अन्नाणाओं क्रिया। पासंतो पंगुली दड्ढ़ो धाव मानो य अँधओं’’- उद्धृत, विनोबा, जैन धर्मसार, सर्व-सेवा-संघ प्रकाशन, वाराणसी 1973, पृ. 19.
13. मजुमदार, धीरेन्द्र, बुनियादी शिक्षा पद्धति, सर्व-सेवा-संघ प्रकाशन, 1962, पृ. 63.
14. ज्ञतपचसंदंपए श्रण्ठय ज्ीम स्ंजमेज थ्ंकरू ठेंपब म्कनबंजपवदए ैमअंहतंउ भ्पदकनेजंदप ज्ंसपउप ैंदहींए 1954ए 3तक मकण् चण् 14ण्
15. ज्ीम म्कनबंजपवद च्ीपसवेवचील वि डींंजंउं ळंदकीपए च्ंजमसण् डण्ैए चण् 24ण्
16. सिंह, डॉ0दशरथ, गाँधीवाद को विनोबा की देन; बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, 2000, पृ. 574.
17. च्ंजमसण्डण्ैय ज्ीम म्कनबंजपवद च्ीपसवेवचील वि डींंजंउं ळंदकीपए छंअरपअंद च्नइसपेपदह भ्वनेमए ।ीउमकंइंकए 1958ए चण् 31ण्
18. हरिजन, 31.07.1937, पृ. 197।
19. ठवेमए छण्ज्ञए ैमसमबजपवदे तिवउ ळंदकीपए चण् 287ण्
20. ळंदकीप डण्ज्ञण्ए ज्वूंतके छमू म्कनबंजपवदए चण् 22ण्
21. प्इपकए चण् 22ण्
22. प्इपकए चण् 39ण्
डॉ0 मनोज कुमार सिंह
असिस्टेन्ट प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र विभाग,
बसन्त कन्या महाविद्यालय, कमच्छा, वाराणसी।