Thursday 1 January 2015

तबला वादन और सामान्य जीवन


भानु कुमारी

आगरा ताज महोत्सव फरवरी 2015 की श्रंखला में दिनॉक 20 फरवरी 2015 को सदर में आयोजित ताज महोत्सव में विभिन्न कार्यक्रमों के मध्य तबला वादन के एक अनूठे कार्यक्रम का हिस्सा बनने का मौका मुझको मिला। अपने देश और प्रदेश के नवयुवक तबला वादक श्री अनूप बनर्जी को अत्यन्त करीब से देखने, सुनने और समझने का यह अवसर मेरे जीवन में पहली बार आया, तबला वादन का यह कार्यक्र्रम लगभग 30 से 35 मिनट और पूरे कार्यक्रम के दौरान श्री बनर्जी के द्वारा प्रस्तुत किये गये तबले की विभिन्न बंदिषों को मनुष्य के जीवन और प्रकृति से जोड़ते हुये प्रस्तुत किया गया।

तबला वाद का प्रारम्भ करते हुये श्री बनर्जी ने कहा कि ‘जिस प्रकार मनुष्य के षरीर में प्राण का महत्व होता है उसी प्रकार संगीत में लय का भी महत्व होता है’। मनुष्य के जीवन में जब तक प्राण रहता है और नाड़ियों में रक्त प्रवाह एक निष्चित गति में विराजमान रहती है, तभी तक प्राण भी गतिमान बना रहता है नाड़ियों में प्रवाहित रक्त प्रवाह की गति असन्तुलित पाये जाने पर डॉक्टरों द्वारा भी मनुष्य को घर से बाहर का रास्ता दिखाते है, कहने का आषय यह है कि ‘रक्त प्रवाह की गति असन्तुलित होने पर उन्हें नियन्त्रित करने हेतु चिकित्सकों की अथवा चिकित्सालय में षरण लेने की आवष्यकता होती है और प्राणों में रक्त प्रवाह की गति रुक जाने से निष्प्राण षरीर का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मनुष्य शरीर हेतु रक्त प्रवाह का एक निष्चित गति में चलना अति आवष्यक है और संगीत में इस निष्चित गति को लय के नाम से संबोधित किया जाता है। लय का माध्यम वाद्य है और तबला वादन से विभिन्न लयों का निष्पादन किया जा सकता है।

श्री बनर्जी ने तबले में कुछ कायदों की प्रस्तुति से पूर्व अपने संबोधन में कहा कि जिस प्रकार से बच्चों को घर में षिक्षा देते समय प्रत्येक कार्य को कायदे से किये जाने की हिदायत दी जाती है ठीक उसी प्रकार तबले में कुछ विषेष नियमों के तहत बनाये गयी बंदिषों को ‘कायदा’ कह कर प्रस्तुत किया गया।
इसके पष्चात् श्री बनर्जी ने जीवन में नषे के महत्व को भी एक सही दिषा में उद्धृत करते हुए कहा कि बिना नषे के कोई भी व्यक्ति अपने जीवन का आनन्द नहीं प्राप्त कर सकता। कुछ व्यक्ति अपने कार्य के नषे में अत्यन्त मषगूल होकर कार्यों का भली भांति सम्पादन करके आनन्द प्राप्त करते हैं, जबकि कुछ लोग पीने का नषा करके आनन्द प्राप्त करते हैं, यह प्रत्येक व्यकित की इच्छा षक्ति पर निर्भर करता है कि वह कौन सा नषा किस प्रकार से करता है। श्री बनर्जी ने कहा कि आज वह तबले का नषा करके ही ताज महोत्सव के इस प्रतिष्ठित मंच पर उपस्थित हो सके हैं, यदि कार्य का नषा नहीं किया जाता तो किसी भी कार्य को एक अच्छा स्वरूप नहीं प्रदान किया जा सकता।
प्रत्येक मनुष्य के जीवन में बचपन के बाद जवानी के दिनों में किसी भी कार्य को अत्यन्त गति प्रदान करते हुए षीघ्र सम्पन्न करने की असीम क्षमता होती है इसी तरह तबले में भी एक अत्यन्त गतियुक्त बंदिष के रूप में उन्होने ‘धिर धिर किटतक’ बोल समूह की एक बंदिष अठगुन लय में बजाकर सुनाई, इस बंदिष को सुनने से लगा कि उन्होंने अपने पूरे जोष और तैयारी के प्रदर्षन का माध्यम ही इस बंदिष को बनाया था, वास्तव में किसी भी मनुष्य में जोष, स्फूर्ति यदि न हो तो वह जीवन बड़ा निराषपूर्ण हो जाता है। श्री बनर्जी के द्वारा अपने पूरे जोष और स्फूर्ती के साथ बजाए गए ‘धिर धिर किटतक’ के बंदिष की अठगुन लयकारी अत्यन्त आकर्षक थी। इसके पष्चात् तीनताल को द्रुतलय में कायम करते हुए उसमें कुछ छोटी-2 बंदिषों को प्रदर्षित करने से पूर्व यह सम्बोधित किया गया कि मनुष्य के जीवन में ‘बिस्किट, चौकलेट, पोपकोर्न आदि का भी सेवन किया जाता है ठीक उसी प्रकार तबले में कुछ टुकड़े और परनों की प्रस्तुति की गई, एक टुकडे़ की प्रस्तुति करते हुए यह बताया कि जैसे दो विभिन्न देषों के मित्र मिलकर बात करते हैं ठीक उसी प्रकार टुकडे़ की बंदिष में भी बोलों का प्रयोग किया गया है। एक परन की प्रस्तुति करते हुए उन्होंने जंगल में षिकार करने वाले एक शेर की गति को प्रदर्षित किया, एक ‘बेदम’ टुकडे़ की प्रस्तुति करते हुए उन्होंने व्यक्त किया कि ‘दम’ जिसे योगासन के माध्यम से नियन्त्रित किये जाने हेतु आज लगभग पूरे विष्व के लोग प्रयासरत हैं उसी के अनुरूप तबले के बंदिषों की रचना भी किया गया है। इस बंदिष को एक ही सांस में उनके द्वारा पढ़कर भी सुनाया गया। तीन ताल के दो आवर्तनों की यह बंदिष सभी के मन को छू गई। एक रेला बजाते हुये श्री बनर्जी ने कहा कि जैसे कुम्भ मेले में या अन्य अवसरों पर व्यक्तियों का एक अपार समूह कहीं एकत्रित होकर जब एक दिषा में चलता है तो बहुधा हम अकस्मात् ही कह उठते हैं कि यह लोगों का रेला जा रहा है और उस दिषा में किसी भी अन्य वाहनों को जाने की अनुमति प्रषासन द्वारा नहीं दिया जाता है सम्भवतः ‘रेला’ षब्द की इन्हीं अनुभूतियों के साथ श्री बनर्जी द्वारा ‘तिर किट’ बोलों से युक्त एक रेला दुगुन, चौगुन, अठगुन की लयकारियों में बजाकर लोगों को मन्त्रमुग्ध किया गया। अपने वादन की समाप्ति श्री अनूप बनर्जी के द्वारा कुछ चक्करदार बंदिषों से की गई, इन बंदिषों के प्रस्तुति से पूर्व श्री बनर्जी ने यह कहा कि ‘संसार का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी चक्कर में फंसा रहता है’। चक्करों के अर्थ से सामान्य जनता को रूबरू करते हुए उन्होंने यह भी कहा किया हमारे वेदों में भी किसी मंदिर का दर्षन करने के पष्चात् उसका चक्कर लगाने अर्थात मंदिर की परिक्रमा लगाने पर ही पूर्ण दर्षन लाभ की प्राप्ति का उल्लेख मिलता है। इसीलिए तबला वादन की समाप्ति से पूर्व चक्करदार बंदिषों की प्रस्तुति को अत्यन्त महत्वपूर्ण बताकर दो तीन फरमाइषी चक्करदार बंदिषें उस ताल का चक्कर लगाती है और ये ताल ही उन बंदिषों के लिए उनके अभीष्ट देवता के समान है।
इस प्रकार, ताज महोत्सव के इस प्रतिष्ठित मंच पर जहांॅ विभिन्न लोक धुनों पर नृत्य की प्रस्तुति और विभिन्न प्रकार के गीत व गज़लों के कार्यक्रम के मध्य, तबला वादन जैसे षास्त्रीय संगीत पर आधरित कार्यक्रम का किया जाना, जो कि एक नजर में व्यवहारिकता से थोड़ा हट कर दिखाई पड़ रहा था। उसमें श्री बनर्जी ने अपने संवादों के साथ तबला वादन की प्रस्तुति से सामान्य जनता को भी अत्यन्त आकर्षित किया। निष्चित रूप से श्री बनर्जी द्वारा व्यक्त किये गये संवाद, सामान्य जनता को षास्त्रीय संगीत से जोड़ने में एक सेतु का कार्य करते हैं। हमारे सभी षास्त्रीय संगीत साधकों से ऐसी अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे भागदौड़ और व्यस्तता के इस माहौल में भी जन सामान्य को षास्त्रीय संगीत से जोड़ने हेतु ऐसे कुछ उपाय करें, जिससे कि सामान्य जनता भी षास्त्रीय संगीत का आनन्द ले सकें और उसे उबाऊ या बोझिल समझकर उससे दूर न भागें।
लेखिका एक शोध छात्रा है और उसे इस कार्यक्रम में तानपूरे पर संगति का अवसर मिलने के कारण वह पूरे कार्यक्रम की स्वयं साक्षी है।
भानु कुमारी
शोध छात्रा, प्रदर्शन, कला एवं संगीत विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।