Thursday 1 January 2015

मुहम्मद बिन तुग़लक़ की गृह नीति


रश्मि शर्मा

      मुहम्मद बिन तुग़लक़ अथवा मुहम्मद तुग़लक़, तुग़लक़ वंश के संस्थापक गाजी मलिक अथवा गयासुद्दीन तुगलक का जयेष्ठ पुत्र था। उसका प्रारंभिक नाम फखरूद्दीन मुहम्मद जूना खाँ था। उसका पिता गाजी मलिक खिलजी शासकों के अधीन सीमांत क्षेत्र का शासक था। कालांतर में सत्ता परिवर्तन के बाद गयासुद्दीन सुल्तान बना। गयासुद्दीन के शासनकाल में जूना खाँ का प्रभाव और शक्ति और अधिक बढ़ गई। उसे उलूग खाँ की उपाधि से विभूषित किया गया। सुल्तान ने उसे युवराज और अपने उत्तराधिकारी के रूप में भी प्रतिष्ठित किया। जब गयासुद्दीन तिरहुत की विजय के बाद वापस लौट रहा था, जूना खाँ ने दिल्ली के बाहर एक लकड़ी का महल अपने पिता के स्वागत के लिए बनवाया, किंतु अचानक वह गिर गया। इसी में दबकर गयासुद्दीन की मृत्यु हो गई। और जूना खाँ (उलुग खाँ) निर्विरोध मुहम्मत तुगलक के नाम से मार्च 1325 ई0 में दिल्ली का सुल्तान बना ।
      मुहम्मद तुगलक का राज्यारोहण सुखद परिस्थितियों में हुआ। उसके गद्दी पर बैठने का किसी ने सशक्त विरोध नहीं किया। उसके नियंत्रण में एक विशाल साम्राज्य था जिसमें कश्मीर और बलूचिस्तान के अतिरिक्त लगभग सारा भारतवर्ष सम्मिलित था। दक्षिणी भारत में सल्तनत की शक्ति एवं सत्ता स्थापित हो चुकी थी। प्रशासनिक व्यवस्था सुदृढ़ थी।

मुहम्मत तुगलक की व्यक्तिगत मान्यताएँ- मुहम्मद तुगलक नवीन विचारों एवं प्रयोगों में गहरी दिलचस्पी रखता था। उसका राजनीतिक उद्देश्य राज्य को विघटनकारी तत्वों से बचाना, राजनीतिक एवं प्रशासनिक एकता स्थापित करना, सुल्तान की शक्ति में वृद्धि करना एवं प्रजा के कल्याण के लिए कार्य करना था। वह साम्राज्य विस्तार की भी आकांक्षा रखता था। वह उदार धार्मिक दृष्टिकोण का समर्थक था। वह उलेमा की कट्टरवादी नीति और सूफियों के विरक्तिवादी दृष्टिकोण से असहमत था। वह जातिगत और वंशगत आधार पर अपनी प्रजा में विभेद करना नहीं चाहता था। वह विदेशों से घनिष्ठ राजनीतिक एवं आर्थिक संपर्क स्थापित करना चाहता था। वह राजकीय सेवाएँ योग्यता के आधार पर न कि कुलीनता के आधार पर देना चाहता था। वह प्रशासन को विस्तृत आधार देकर इसे सुद्ढ़ करना चाहता था। अपने आदर्शो के अनुकूल ही नये सुल्तान ने अपनी नीतियॉं निर्धारित की।1
सुल्तान की दृढ़-शक्ति- गद्दी पर बैठते ही अन्य सुल्तानों की तरह मुहम्मद तुगलक ने भी अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से अनेक नई नियुक्तियॉ की। इसका प्रमुख उद्देश्य स्थिति सुदृढ़ करना था।
मुहम्मद तुगलक का राज्यारोहण सुखद परिस्थितियों में हुआ। उसके गद्दी पर बैठने का किसी ने सशक्त विरोध नहीं किया। गयासुद्दीन अपने बेटे के लिए एक विस्तृत साम्राज्य भी छोड़ गया था जिसमें कश्मीर, राजपूताना था कुछ समुद्रतटीय प्रदेश को छोड़कर प्रायः समस्त भारत सम्मिलित था। दक्षिणी भारत में सल्तनत की शक्ति एवं सत्ता स्थापित हो चुकी थी। इस विशाल राज्य की सीमाएँ भी पहले की अपेक्षा कही अधिक सुरक्षित थी। मंगोलों के आक्रमण अथवा राजपूतों के विद्रोह का भय नही ंके बराबर था। देश के भीतर विद्रोह एवं अशंति के भी कोई कारण दिखाई नहीं पड़ते थे।2 इस प्रकार मुहम्मद तुगलक के सामने अपने पूर्व के सुल्तानों की तरह राजनीतिक प्रशासनिक तथा आर्थिक समस्याएं नहीं के बराबर थी। ऐसी सुदृढ़ परिस्थितियां विशेषताएँ और सुविधाएं अभी तक दिल्ली के किसी भी सुल्तान को प्राप्त नहीं हुई थी।3
उसके राज्याभिषेक के समय राजकोष धन से परिपूर्ण था। इब्नबतूता लिखता है कि सुल्तान तुगलक शाह ने तुगलकाबाद में स्वर्ण जड़ित ईटों से एक महल बनवाया था और उसके अंदर एक कुंड बनाकर गलाये हुए सोने से उसे भर दिया था। यह सम्पूर्ण संपत्ति मुहम्मद तुगलक को विरासत में मिली थी। मुहम्मद तुगलक इच्छानुसार इस धन का उपयोग करता था। अफ्रीकी यात्री का कथन अतिश्योक्ति पूर्ण भी हो सकता है लेकिन इतना निश्चित है कि मुहम्मद तुगलक को राज्यारोहण के समय धन की कमी नहीं थी। इसीलिये अफगानपुर से दिल्ली प्रवेश करते समय उसने खुले हाथों जनता पर सोने चाँदी के सिक्कों की बौछार की।4
पदों एवं उपाधियों का वितरण- गद्दी पर बैठते ही अन्य सुल्तानों की तरह मुहम्मद तुगलक ने भी अपने समर्थकां की संख्या तथा अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के उद्देश्य से अनेक नियुक्तियाँ की तथा अमीरों और सरदारों को विभिन्न उपाधियों से विभूषित किया। इसका प्रमुख उद्देश्य अपनी स्थिति सुदृढ़ करना था। बंगाल के तातार खाँ को बहराम खाँ की उपाधि तथा एक करोड़ तक उपहारस्वरूप प्रदान कियें। मलिक मकबूल को इमाद-उल-मुल्क की पदवी तथा वजीर-ए-मुमालिक का पद प्रदान किया। परंतु कुछ समय बाद उसे गुजरात का हाकिम बनाकर भेज दिया गया और खान-ए-जहाँ की उपाधि प्रदान करके मलिक मकबूल के स्थान पर वजीर का पद दिया गया। सुल्तान ने अपने अध्यापक मौलाना कवामुद्दीन को कुतलुग खाँ की पदवी तथा वकील-ए-दर का पद प्रदान किया।4 सुल्तान ने अपने चचेरे भाई मलिक फिरोज को नायब बारबक के पद पर बहाल किया ।
इसके अतिरिक्त सुल्तान ने साधु संतो, कवियों, विद्वानों आदि को वार्षिक पेंशन, जागीरें, तथा ईनाम दिये। इस प्रकार उपाधियों, पदों, पुरस्कारों, उपहारों, दान आदि के वितरण से मुहम्मद तुगलक ने जल्द ही लोकप्रियता प्राप्त कर ली और सल्तनत में उसकी शक्ति सुदृढ़ हो गयी।
प्रशासकीय पदों पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति- मुहम्मद तुगलक ने प्रशासकीय पदों पर नियुक्ति करते समय व्यक्तिगत गुणों को प्रश्रय दिया, जाति, जन्म या धर्म को नहीं। उसने सभी प्रजा की समानता को स्वीकार करते हुए वर्ग-विशेष के विशेषाधिकारों का अंत कर दिया और सरकारी नौकरी जन्म के आधार पर न देकर योग्यता के अनुसार देना आरंभ किया।5 प्रशासन को सुदृढ़ एवं अधिकारियों को वफादार बनाने के लिए अनेक पुराने अमीरों एवं पदाधिकारियों, को जिन पर उपद्रव फैलाने या किसी विद्रोह में भाग लेने का आरोप था, बर्खास्त कर दिया गया। उनके स्थान पर निम्नवर्गीय व्यक्तियों एवं विदेशियों को भी राज्य की सेवा का अवसर दिया गया। उदाहरण के लिए, जहाँ सुल्तान ने अपने चचेरे भाई मलिक फीरोज को नायब बारबक एवं अफ्रीकी यात्री इब्नेबतूता को दिल्ली का काजी नियुक्त किया, वहीं अजीज खुम्मार, फीरोज हज्जाम, मनका बावर्ची, लधा माली तथा मकबूल गायक जैसे साधारण लोगों को भी उच्च प्रशासनिक पद सौपे। इतिहासकार सरहिंदी के अनुसार सुल्तान के अमीर और अधिकारी अनेक वर्गो से आते थे। इनमें प्रमुख है पुराना अमीर वर्ग, नए धर्म परिवर्तित मुसलमान, विदेशी, उलेमा वर्ग, पठान, अमीर-ए सादा और हिंदू अधिकारी। यह अफसरशाही सुल्तान के लिए शक्ति और कमजोरी दोनों का कारण बनी। सुल्तान के इस कार्य से जहाँ राज्य को योग्य व्यक्तियों की सेवाएँ प्राप्त हुई, वही अनेक अयोग्य व्यक्ति भी सुल्तान की उदारता का लाभ उठाकर महत्वपूर्ण पदों पर जा बैठे। ऐसे ही अयोग्य अधिकारियां के कारण सुल्तान की अनेक योजनाएँ विफल हो गई। बरनी के अनुसार, मुहम्मद की विफलता का एक प्रमुख कारण ‘सुल्तान द्वारा राज्य के ऊँचे पदों पर नीच लोगों की नियुक्ति थी।’6
राजनीति से उलेमा का प्रभाव समाप्त करना- अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए सुल्तान ने दूसरा कार्य यह किया कि उसने राजनीति से उलेमा-वर्ग के प्रभाव को दूर करने का प्रयास किया। उसने धार्मिक एवं न्यायिक मामलों से उलेमा का वर्चस्व समाप्त कर एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की। उसके इस कार्य से उलेमा उसके कट्टर दुश्मन बन गए। यद्यपि मुहम्मद ने उलेमा का प्रभाव समाप्त कर दिया, तथापि जब उनका प्रतिरोध बढ़ने लगा, तब उसने अब्बासी खलीफा का समर्थन प्राप्त कर अपनी सत्ता सुदृढ़ करने का प्रयास किया। इसमें वह सफल भी हुआ। 1340-41 ई0 में उसने मिश्र के अब्बासी खलीफा के पास तुगलकों के शासन की वैधानिक मान्यता के लिए प्रार्थना की। उसने खलीफा के एक वंशज को दिल्ली में यथोचित सम्मान दिया। उसके इस कार्य से प्रसन्न होकर खलीफा ने उसे 1342 ई0 में मानपत्र प्रदान किया। अब वह खलीफा के नाम पर शासन करने लगा, सिक्कों एवं राजाज्ञा पर खलीफा का नाम रहने लगा, परंतु इससे भी उलेमा-वर्ग का विरोध समाप्त नहीं हुआ।7
खलीफा से सम्बंध- यद्यपि सुल्तान ने अपने राज्य में उलेमा वर्ग का दमन किया, किंतु इस्लाम के खलीफा के साथ उसके संबंध अत्यंत मधुर थे। इल्तुतमिश के बाद मुहम्मद तुगलक दूसरा सुल्तान है जिसके विषय में उल्लेख है कि तत्कालीन मिस्रवासी अब्बासी खलीफा ने प्रमाण-पत्र दिये तथा अपनी शुभकानाएँ व्यक्त की। इससे भारत तथा विदेशों में सुल्तान की प्रतिष्ठा एवं सम्मान में अभिवृद्धि हुई।8
हिंदुओं एवं अन्य धर्मो के प्रति नीति- हिंदुओं के प्रति उसने सम्मानजनक एवं उदार नीति अपनाई। उन पर किसी प्रकार के प्रतिबंध नहीं लगाए गए। प्रशासनिक पदों पर हिन्दुओं की भी नियुक्ति की गई। उन्हें धर्म-परिवर्तन के लिए बाध्य नहीं किया गया। उनके मंदिरों को न तो नष्ट किया गया और न ही उन्हें लूटा गया। हिंदू विद्वानों एवं कवियों को भी संरक्षण प्रदान किया गया। वह िंहंदुओं के धार्मिक समारोहों एवं उत्सवों में भी भाग लेता था। फुतुहस्सलातीन के अनुसार वह दिल्ली का पहला सुल्तान था जो होली में भाग लेता था। उसके समय में योगी स्वंतत्रता पूर्वक भ्रमण करते थे । उसने शत्रुंजय तथा गिरनार के मंदिरों की यात्रा की। उसने साधुओं के ठहरने के लिए धर्मशाला तथा गोशाला के निर्माण के लिए आदेश एवं अनुदान दिया। उसके दरबार में धार्मिक वाद-विवाद में गैर-मुस्लिम विद्वान जन भी भाग लेते थे। वह योगियों से व्यक्तिगत वाद-विवाद करता था। जैन विद्वानों से भी सुल्तान का घनिष्ठ संबंध था। उसने जैन विद्वान जिनप्रभा सूरी का अपने महल में स्वागत किया तथा उसे एक हजार गाएँ प्रदान की। जैन विद्वान राजशेखर को भी उसने संरक्षण दिया। इस प्रकार मुहम्मद तुगलक ने उदार धार्मिक नीति अपनाई।10
सुल्तान की इस नीति से हिंदू एवं जैन भी सुल्तान के समर्थक बन बैठे। सुल्तान ने उदारतापूर्वक बिना किसी भेदभाव के, अपने दान-विभाग से असहायों, निर्बलों एवं दीन-दुखियों की सहायता की। इसी विभाग द्वारा विद्वानां को संरक्षण एवं प्रोत्साहन भी दिया गया। इन कार्यो द्वारा सुल्तान एक उदार एवं सहिष्णु शासक के रूप में विख्यात हो गया। सुल्तान की उदार धार्मिक नीति की प्रतिक्रिया भी हुई। उलेमा वर्ग उसका आलोचक बन बैठा। इस वर्ग ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सुल्तान के विरुद्ध होने वाले विद्रोहों को समर्थन दिया। फलतः सुल्ल्तान के जीवनकाल में ही साम्राज्य का विघटन आरंभ हो गया।11
मुहम्मद तुगलक की राजनीतिक धारणाएं- मुहम्मद तुगलक परम्परागत एवं रूढ़िगत धारणाओं से सर्वथा मुक्त था। राजनीतिक दृष्टि से वह भारत की राजनीतिक एवं प्रशासनिक एकता प्राप्त करने का इच्छुक था। ‘सम्भवतः अशोक के बाद शायद ही किसी शासक ने भारत की राजनीतिक तथा प्रशासनिक एकता के रूप में मुहम्मद तुगलक जैसी कल्पना की हो।’ उसके दक्षिणी प्रयोग ने वहाँ का सांस्कृतिक रूपांतर तेजी से किया। पुनः सुल्तान ने मध्य एशिया के राजनीतिक जीवन की शून्यता की पूर्ति करने का निश्चय किया। इस प्रकार उसने सही अर्थ में ‘महान साम्राज्य के युग’ का उद्घाटन किया। उसकी राजनीतिक दृष्टि सल्तनत की सीमाओं से बहुत दूर तक फैली थी तथा उसमें एक ओर मिस्र तक के देश और दूसरी ओर चीन एवं खुरासान सम्मिलित थे। सचमुच ही उसके उत्थान के साथ भारत का विश्व के अन्य देशों के राजनयिक संबंधों के इतिहास में एक नया अध्याय शुरू हुआ। उसके दरबार में ईराक, चीन, ख्वारिज्म, सीरिया, ईरान आदि एशियाई देशों के श्ष्टिमंडलों का आगमन तथा स्वयं सुल्तान द्वारा अनेक देशों में भेजे गये प्रतिनिधिमंडल इसके प्रमाण है। इस सम्पर्क का सुल्तान के जीवन, उसकी नीतियों तथा प्रयोगों पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
संदर्भ गं्रथ
1. प्रसाद, डॉ0 कामेश्वर, भारत का इतिहास, 1993, पृष्ठ-69.
2. वर्मा, हरिश्चन्द्र, मध्यकालीन भारत, पृष्ठ-138.
3. सिन्हा डॉ0 विपिन बिहारी, मध्यकालीन भारत, 2010 पृष्ठ-160.
4. हसन एवं निजामी, दिल्ली सुल्तनत, भाग-प् 1978, पृष्ठ-445.
5. वर्मा, हरिश्चन्द्र, मध्यकालीन भारत, पृष्ठ-15.
6. प्रसाद, डॉ0 कामेश्वर, भारत का इतिहास, 1993, पृष्ठ-69.
7. प्रसाद, डॉ0 कामेश्वर प्रसाद, भारत का इतिहास, 1993, पृष्ठ-69-70.
8. सिन्हा, डॉ विपिन बिहारी, मध्यकालीन भारत, 2010 पृष्ठ-166.
9. प्रसाद, डॉ0 कामेश्वर, भारत का इतिहास, 1993, पृष्ठ-70.
10. सिन्हा, डॉ विपिन बिहारी, मध्यकालीन भारत, 2010 पृष्ठ-160.
11. प्रसाद, डॉ0 कामेश्वर प्रसाद, भारत का इतिहास, 1993, पृष्ठ-69.
कु0 रश्मि शर्मा
शोध छात्रा, इतिहास विभाग
एम0बी0पी0जी0कालेज, हल्द्वानी (नैनीताल)
कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल, उत्तराखण्ड।