राजेश मिश्र
शोध छात्र, इतिहास विभाग,
नेहरु ग्राम भारती विष्वविद्यालय इलाहाबाद।
इलाहाबाद परिक्षेत्र में इलाहाबाद जनपद के अतिरिक्त फतेहपुर, कौशाम्बी एवं प्रतापगढ़ के क्षेत्र सम्मिलत हैं। प्राचीन समय में यह क्षेत्र वत्स तथा कोशल जनपद के अधीन थे। इस परिक्षेत्र के दक्षिणी भाग में विंध्य पर्वत की गुफाओं नें प्रारम्भिक मानव के क्रिया कलापों को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, दूसरी ओर गांगेय क्षेत्र के उर्वर मैदान के कारण नगरो का विकास तीव्र गति से हुआ। फलतः राजनैतिक एवं आर्थिक गतिविधियों के साथ-साथ कलापरक गतिविधियाँ भी विकसित हुईं। समुचित एवं क्रमबद्ध अन्वेषण के अभाव में अभी भी ऐसी असंख्य प्राचीन कलाकृतियाँ इस क्षेत्र में बिखरी पडी हैं, जो आज भी अस्पृष्ट एवं अप्रकाशित हैं। प्रस्तुत लेख में विष्णु के शेषशायी स्वरूप की ऐसी ही कतिपय प्रतिमांओं की विवेचना की गई है।
विष्णु का शेषशायी स्वरूप प्राचीन भारत में अत्यन्त लोकप्रिय था। इनके जलशायी स्वरूप का संकेत सर्वप्रथम ऋग्वेद में प्राप्त होता है। जिसमें कहा गया है-
परोदिवा पर एना पृथिव्या, परोदेवेभिरसुरैयदास्ति।
कं स्विद्वर्थे प्रथम दध्र, आर्पो यत्र देवा समपश्यन्त विश्व।।
तमिद्वर्भ प्रथमं दध्र आपो यत्र देवा, समगच्छन्त विश्वे।
अजस्य नाभवध्येयकमर्पित, यस्मिन विश्वानि भुवनानि तस्थुः।।1
धीरे- धीरे इस कल्पना का विकास गीता2, मनुस्मृति3 एवं महाभारत4 इत्यादि में देखा जा सकता है। प्रतिमाशाष्त्रीय दृष्टि से कालिदास का वर्णन विशेष महत्त्वपूर्ण है जो इस प्रकार है-‘‘रावण के अत्याचार से व्याकुल देवता उसी प्रकार भगवान विष्णु की शरण में गये जिस प्रकार धूप से व्याकुल पथिक छायादार वृक्ष के पास जाते हैं। जैसे ही देवता भगवान विष्णु के पास पहँुचे, वैसे ही भगवान विष्णु योगनिद्रा से जाग गये। देवताओं ने शेषनाग के फणों की मणियों से और अधिक प्रभावान शरीर वाले भगवान विष्णु को शेष शैय्या पर लेटे हुए देखा। उन्ही के पास कमल पर रेशमी वस्त्र धारण किये लक्ष्मी बैठी थीं जो विष्णु के चरण गोद में लेकर संवाहन कर रही थीं। विष्णु के विशाल वक्ष स्थल पर कौस्तुभ मणि चमक रही थी, भृगु के प्रहार से अंकित श्रीवत्स चिन्ह भी सुशोभित था। उनकी विशाल भुजाएं वृ़क्ष की शाखाओं जैसी थीं। उनके गदा, चक्र आदि आयुद्ध सजीव एवं मूर्तिमन्त होकर ‘‘जय’’ शब्द का उच्चारण कर रहे थे। गरुड़ भी विनम्रता से हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े थे।5 कालिदास ने अन्यत्र6 विष्णु की नाभि से निकले कमल पर चर्तुमुख ब्रह्मा के विद्यमान होने का उल्लेख किया है। उनका यह विवरण कलाकारों के लिए उपजीव्य बना। गुप्त काल के अन्त तक भारत वर्ष के अधिकाँश क्षेत्रों में शेषशायी स्वरूप का निर्माण होने लगा था, इलाहाबाद भी इसका अपवाद नही है।
ढलते गुप्त काल की एक प्रतिमा इलाहाबाद जनपद के शिवपुर हथिगहाँ9 से प्राप्त हुई है, जो सम्प्रति वहीं रस्तोगी इण्टर कालेज के परिसर में बने मन्दिर परिसर में रखी हुई है। खुले आकाश के नीचे रहने तथा निरन्तर जल चढ़ने के कारण इसका स्वरूप नष्ट होता जा रहा है। शेष पर्यंक पर शयन मुद्रा में अकिंत विष्णु दक्षिण उध्र्व हस्त से शीर्ष का अवलम्बन किये हैं, अन्य दक्षिण एवं वाम सभी हस्त भग्न हो चुके हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने हाथों में किसी वस्तु को धारित नही किया था। क्यांेकि किसी भी वस्तु के चिन्ह दृष्टिगोचर नही होते। शेषनाग के सातों फण छत्रवत हैं। नाभि से उत्पन्न कमल पर ब्रह्मा आसीन हैं। उनकी आकृति पूर्णतः विनष्ट है केवल प्रभामण्डल के अवशेष देखे जा सकते हैं। प्रभामण्डल के दोनों ओर उडते हुए मालाधारी विद्याधरों का अंकन है। प्रतिमा के उपरी दाहिने उपान्त पर नवग्रहों का अंकन किया गया था। तथा बांयी ओर बीणाधर शिव और संभवतः सप्तमातृकाओं का अंकन था। विष्णु का वाम पाद जानुभाग से किंचित अर्द्ध प्रसारित अवस्था में प्रदर्शित है। उसी के समीप लक्ष्मी का अंकन है। शीर्ष के पास भी एक स्त्री आकृति प्रदर्शित की गई है जो सम्भवतः भूदेवी हो सकती है। विष्णु के वाम पैर के पास ऊपरी भाग में दो युग्म आपस में वार्तालाप मुद्रा में प्रदर्शित हैं। उनके पृष्ठ भाग में क्रमशः पुरुष, गदा स्त्री, पद्य पुरुष और चक्र पुरुष अंकित हैं। चक्र पुरुष विस्मय की मुद्रा में विष्णु को देख रहा है। प्रतिमा के निम्न उपान्त में अनेक आकृतियाँ उत्कीर्ण थीं। परन्तु नष्ट होने के कारण उनका अभिज्ञान संभव नही है।
इलाहाबाद परिक्षेत्र के फतेहपुर जनपद में स्थित कीर्तिखेडा10 नाम स्थान पर नवनिर्मित विष्णु मन्दिर के परिसर में एक महत्त्वपूर्ण शेषशायी प्रतिमा रखी हुई है। लगभग 110 सेमी. लम्बे तथा 68 सेमी. चैडे पाषाण फलक पर निर्मित यह प्रतिमा भारतीय कला का अनुपम उदाहरण है। इसमें विष्णु दाहिने हाथ से शीर्ष को अवलम्बित किये हुए तथा दूसरे दाहिने हाथ में गदा को धारण किये हुए हैं। गदा पैर के समानान्तर है। बायें हाथ में चक्र है, दूसरा बांया हाथ भग्न है। नीचे की पट्टिका में दशावतार, भृगु, मार्केण्डय, अश्व एवं निधि के रुप में दो घडे निर्मित हैं। शेषनाग के फन टूट गये हैं। फतेहपुर जनपद के लदगवाँ11 नामक स्थान से एक ऐसी ही शेषशायी प्रतिमा लगभग ग्यारहवीं शती ई. की प्राप्त हुई है। यह प्रतिमा वाम पाश्र्व में शयितावस्था में प्रदर्शित है। विष्णु का एक पैर लक्ष्मी के उत्संग में है, दूसरा पैर जानु प्रसारित अवस्था में शेषनाग के शरीर पर अवस्थित है। इस प्रतिमा के ऊपरी बायें हाथ में चक्र और अद्यः बायें हाथ में धारित वस्तु स्पष्ट नही है। संभवतः यह संतान मंजरी हो जिसका उल्लेख विष्णुधर्मात्तर पुराण12 में किया गया है। दक्षिण उध्र्व हस्त से शीर्ष को अवलम्बित किये हैं। और दक्षिण अद्यः हस्त में गदा को पकडे हुए विष्णु अकिंत किये गये हैं। और यह गदा पैर के समानान्तर न होकर नीचे का ओर लटकी है। शंख, चक्र, पù पुरुष रूप में तथा गदा स्त्री रूप में अंकित है। नाभि से उदभूत कमल पर ब्रह्मा और उनके पास में दशावतारों का अकंन था जिसमें केवल मत्स्य और कूर्म का ही अंकन शेष है। इस मूर्ती के समीप ही द्वार चैखट के भी अवशेष पडे हुए हैं। दोनो द्वार स्तम्भों पर नीचे की ओर मकर वाहन के साथ गंगा और कूर्म वाहन के साथ यमुना का अंकन है। दोनो ही नदी देवियां त्रिभंग मुद्रा में है। छठीं शताब्दी ई के पश्चात द्वार स्तम्भों के साथ-साथ सिरदल या ललाट स्तम्भों में भी त्रिभंगाकृति स्त्री आकृतियों का अंकन सामान्य परम्परा हो गई थी। इन स्तम्भों से यह स्पष्ट है कि इस स्थल पर ग्यारहवीं शती ई. में शेषशायी का एक मन्दिर विद्यमान था। इसकी पुष्टि वहाँ से प्राप्त एक अभिलेख13 से भी होती है। जिसमें पृथ्वी को धारण करने वाले सम्भवतः शेषनाग और पृथ्वी के उर्द्धता विष्णु का उल्लेख है। बहुआ के प्राचीन मन्दिर में काकोरा बाबा के नाम से एक ऐसी ही प्रतिमा स्थापित थी जो चोरी चली गई, इसलिए इसके सन्दर्भ में विस्तृत विवरण सम्भव नही है।
फतेहपुर में ही खेंसहन14 नामक गांव में शेषनाग मंदिर में शेषशायी प्रतिमा रखी हुई है। जिसमें भगवान विष्णु अर्द्ध जानु प्रसारित अवस्था में प्रदर्शित किये गये हैं। इसमें विष्णु सात फन वाले शेषनाग पर प्रदर्शित हैं। सिर पर किरीट मुकुट का अंकन है। चतुर्भुजी प्रतिमा के ऊपरी दाहिने हाथ में चक्र है, दूसरा दाहिना हाथ घुटने के ऊपर रखा हुआ है। बांये हाथ में शंख का अंकन है। तथा दूसरा बांया हाथ टूटा हुआ है। नाभि से निकले कमल पर ध्यान की मुद्रा में ब्रह्मा बैठे हैं। नीचे दो पुरुष आकृतियाँ सम्भवतः भृगु और मार्कण्डेय हैं जो हाथ जोडे हुए प्रदर्शित हैं। इस प्रतिमा का समय बारहवीं शती ई. अनुमानित किया जा सकता है।
इलाहाबाद परिक्षेत्र की उपलब्ध प्रतिमाओं से यह ज्ञात होता है कि शेषशायी प्रतिमाओं के निर्माण के अनेक विकास क्रम थे। शिवपुर हथिगहा से प्राप्त प्रतिमा में स्त्री पुरुषों का विस्मय मुद्रा में अंकन उस अवस्था विशेष का परिचायक है जब देवता गण मधु-कैटभ को मारने के लिए योगनिद्रा में लीन विष्णु का स्तुति कर रहे हों और यह निश्चत नही है कि विष्णु कब सोकर उठेंगे। इसके विपरीत कीर्तिखेडा के नवनिर्मित विष्णु मंदिर परिसर में रखी हुई प्रतिमा उस अवस्था विशेष का सन्दर्भ प्रस्तुत करती है। जब विष्णु योगनिद्रा से उठ गये हैं और मधु कैटभ को मारने के लिए तत्त्पर हो गये हैं। प्रारम्भिक प्रतिमाओं में भृगु मार्कण्डेय ऋषियों का अंकन नही प्राप्त होता है। किन्तु बाद की प्रतिमायें अत्यधिक संकुल हो गई हैं। जिनमें भृगु मार्कण्डेय के अलावां अनेक आकृतियां अंकित की गई हैं। इन सन्दर्भों नें विष्णु की शेषशायी प्रतिमा के अंकन में नवीन प्रसंग प्रस्तुत किये।
सामान्यतयः यह मत प्रतिपादित किया गया है16 कि उत्तर भारत में शेषशायी प्रतिमायें प्रस्तर फलक पर रथिकाओं में अकिंत हैं और वे प्राचीन वास्तु के अंग के रुप में स्वीकार की जा सकती हैं। उपासना के लिए स्वतंत्र प्रतिमायें अत्यन्त अल्प रुप में निर्मित की गई थीं। किन्तु यह मत उचित नही प्रतीत होता है। इलाहाबाद परिक्षेत्र की शिवपुर, हथिगहा, कीर्तिखेडा, खेंसहन तथा लदगवां की प्रतिमा स्वतंत्र रूप से उपासना के लिए निर्मित की गई थीं।
सन्दर्भ संकेतः-
1. ऋग्वेद - दशम मण्डल सूक्त 82 ऋचा 5-6।
2. गीता - अध्याय 14 श्लोक 3-4।
3. मनु- अध्याय 4 श्लोक 43।
4. महाभारत- अनुशाषन पर्व अध्याय 124 श्लोक 6।
5. रघुवंश- सर्ग 10 श्लोक 7-13।
6. वही- सर्ग 13 श्लोक 6।
7. कनिंघम-आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया रिपोर्ट भाग10 भगवान सिंह-गुप्तकालीन हिन्दु देवप्रतिमांए पृ.54
8. जे. एन. बनर्जी- डेवलपमेण्ट आफ हिन्दु आइकनोग्राफी पृष्ठ 407 तथा टी. ए. गोपिनाथ राव, एलीमेन्ट्स आफ हिन्दु आइकनोग्राफी भाग एक पृष्ठ 110।
9. डा. विमल चन्द्र शुक्ल- भारतीय कला नये सन्दर्भ नये विमर्श (इलाहाबाद 2008) पृष्ठ-142।
10. डा. विमल चन्द्र शुक्ल- भारतीय कला नये सन्दर्भ नये विमर्श, पृष्ठ-144।
11. डा. विमल चन्द्र शुक्ल- पुरानुसंधान (इलाहाबाद 2007) पृष्ठ-33-35।
12. विष्णुधर्माेत्तर पुराण- 3/81/1-37।
13. डा. विमल चन्द्र शुक्ल- पुरानुसंधान, पृष्ठ-37-38।
14. डा. विमल चन्द्र शुक्ल- भारतीय कला नये सन्दर्भ नये विमर्श, पृष्ठ-145।
15. ऋग्वेद - दशम मण्डल सूक्त 82 ऋचा 5-6।
16. अमिता रे एवं अन्य- (संपादित) इंण्डियन स्टडीज (निहार रंजन रे स्मृति ग्रन्थ) में रतिन परिम् का लेख, स्कल्पचर्स आफ शेषशायी विष्णु-सम आइकनोलाजिकल प्राब्लेम्स।