Sunday, 2 October 2011

आर्य साहित्य के महाकवि रमाकान्त उपाध्याय का व्यक्तित्व एवं कृतित्व


सुरेन्द्र कुमार शर्मा
शोध छात्र, सस्कृत विभाग,
उ0 प्र0 रा0 ट0 मु0 विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

      आचार्य रमाकान्त शास्त्री जी का कलकत्ता के आर्य समाज से घ्निष्ठ सम्बन्ध था। उनका चिन्तन, क्रियाकलाप, आचार-व्यवहार सब कुछ स्वाभाविक रीति से समाज के हित के लिए था। आचार्य जी आर्य विद्यालय में पढाते थे। उनका जीवन त्यागमय, तपोमय सेवामय था। उन्होंने 20 सर्ग का एक महाकाव्य लिखा जिसका नाम ‘श्री दयानन्द चरित महाकाव्यम’ है। इस महाकवि का सम्पूर्ण जीवन मनुष्य निर्माण, आर्य समाज के प्रचार में व्यतीत हुआ। जिसके जीवन की संक्षिप्त झांकी तथा उनके कर्तृत्व का वर्णन अधोलिखित है।
व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व -
सरयूपारीण ब्राह्मणों की आदि भूमि गोरखपरु में ‘‘खोरिया’’ नामक उपाध्यायों का ग्राम है।1 वहाँ के उपाध्याय ‘खोरिया-उपाध्याय’ कहलाते हंै। पं. रमाकान्त जी का गोत्र भारद्वाज था। ये शुक्ल यजुर्वेदाध्यायी, धनुरूपवेदी माध्यन्दिन शाखा के ब्राह्मण कहे जाते हैं।2 इनके पूर्वज सुल्तानपुर से 7 मील पूर्व गोमती नदी के दक्षिणी तट पर नदी से एक मील दूर झौवारा गाँव में आकर बस गये। आचार्य रमाकान्त के पिता का नाम श्री अच्युतानन्द माता श्रीमती दिलराजी थी।
इनका जन्म आश्विन शुक्ला संवत विक्रमीय (1915ई.) को हुआ था। प्राथमिक कक्षा की पढ़ाई के बाद यजमानिका वाले ब्राह्मण पुरोहित पुत्र को सत्यनारायण की कथा, दुर्गाशप्तशती, मूहूर्त चिन्तामणि आदि ग्रन्थ घर पर ही पढ़ाये गये। संस्कृत पाठशाला में संस्कृत व्याकरण लघुकौमुदी पढ़ने जाने लगे। लघु कौमुदी के बाद सिद्धान्त कौमुदी का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। मध्यमा उत्तीर्ण करने के बाद शास्त्री कक्षा का अध्ययन सुल्तानपुर स्थित मदनचन्द्र संस्कृत पाठशाला में हुआ।
महाकवि आचार्य श्री रमाकान्त जी बड़ी-बड़ी मुश्किलों का सामना करते हुए 19-20 वर्ष की अवस्था में कलकत्ता महानगर में आ गये।3 वहा स्थापित चैबे सेठों को जब आचार्य रमाकान्त जी के विद्वान् होने तथा पुरोहित पुत्र होने का समाचार पता चला तो उनको इस युवक से आत्मीयता हो गयी और उन्हें पूजा-पाठ करने के लिए उन्हें नियुक्त कर लिया।
इसी समय आर्य समाज का स्वर्ण जयन्ती महोत्सव कलकत्ता के प्रसिद्ध गिरीश पार्क में मनाया गया था। इस महोत्सव में आचार्य जी भी शामिल हुए। श्री सुख लाल जी का प्रारम्भिक भजन हुआ। ये रीझ गये, इसी समय सभा संचालक श्री हरगोविन्द जी गुप्त की ओर से सूचना दी गयी कि श्री पं. विद्यानन्द जी (बनारस) मूर्ति पूजा पर व्याख्यान देगें। अब आचार्य जी पर भारी धर्म संकट था। बैठकर मूर्तिपूजा का खण्डन सुनने को तैयार न थे- पाप हो जाता भीड़ इतनी थी बाहर निकलना कठिन था। इधर पं. विद्यानन्द जी उठ खड़े हुए पं. विद्यानन्द जी उच्च स्वर में वेद मन्त्र पाठ करने लगे। आचार्य जी के मन में आया कि पण्डित हैं, विद्वान् है अच्छा! सुनें तो कि ये मूर्ति पूजा का खण्डन किस प्रकार करते हैं।
व्याख्यान का यथेष्ट प्रभाव रहा। आचार्य जी को मूर्ति पूजा की निस्सारता जँचती गयी, और व्याख्यान हुए। रंग और भी गहरा होता गया। 11-12 बजे रात को जब आचार्य जी जाने लगे तो साथी आर्य समाजियों ने सहानुभूति से बात आरम्भ की। बासे पर जाकर सत्यार्थ-प्रकाश पुस्तक माँगकर रात को 1-2 बजे तक पढ़ते रहे। महर्षि के प्रमाण, तर्क, सब अद्भुत लगते थे, मन में एक विश्वास जागने लगा-नाऽन्यः पन्थाः।
आर्य समाज के सम्पर्क में आने पर विद्याध्ययन की ओर रुचि का परिवर्तन हुआ। श्री विशुद्धानन्द संस्कृत महाविद्यलाय में व्याकरण और दर्शन का अध्ययन आरम्भ हुआ। ऋषि दयानन्द जी और अन्य विद्वानों के गं्रथों का अध्ययन चलने लगा। इसी समय अध्यापन प्रसंग से जसवन्त गढ़ के प्रसिद्ध तापडि़या परिवार से संबन्ध हुआ। श्री सोहन लाल तापडि़या को आचार्य जी संस्कृत पढ़ाते थे। सोहन लाल तापडि़या का सम्पूर्ण परिवार आचार्य जी का बड़ा आदर करते थे। सोहन लाल का परिवार आचार्य जी को संरक्षण प्रदान करता था। आचार्य रमाकान्त जी का सम्पर्क जब पं. अयोध्या प्रसाद जी से हुआ तब आचार्य जी की आर्य समाज के प्रति कट्टरता और बढ़ गयी। आचार्य जी थोड़ी ही अवस्था में बड़ी निर्भीकता से क्राान्ति की ओर अग्रसर हुए। अछूतोद्धार करनें, अब्राह्मणों के यहाँ भी चावल-रोटी खानें के कारण इनकी बड़ी निन्दा होती थी। एक बार कई लोगों के समूह में आचार्य जी की निन्दा हो रही थी। वार्तालाप का प्रसंग अभी बदला न था कि आचार्य जी वहाँ पर पहुँच गये। एक ब्राह्मण बाबा बोले,‘‘रमाकान्त तुम सब के यहाँ चावल-दाल खाने लगे। आचार्य जी कुछ उत्तर दे इससे पूर्व एक क्षत्रिय बोल उठे, महाराज! आप हमारे कुल पण्डित हैं, आप सबके यहाँ खातेे हैं तो हमारा अपमान होता है।’’
आचार्य जी का निर्भीक उत्तर था, आपका चरित्र ठीक नही है, ठाकुर जी मांसाहारी हैं, मांसाहारी राक्षस होेते हैं। मैं जिनके यहाँ खाता हूँ वे कुर्मी किसान हो पर सदाचारी हैं। उनके यहाँ खा सकता हूँ पर आप के यहाँ नहीं।
आचार्य जी कट्टर आर्य प्रचारक थे, साथ ही स्वदेश भक्त भी। वे गाँव-गाँव, बाजारों में, मेलों में, आर्य समाज का प्रचार करते। जिस प्रकार पौराणिक भागवत की कथा करते हैं, उसी प्रकार आचार्य जी सत्यार्थ-प्रकाश की कथा करते। सभाओं में स्वदेशी और स्वराज्य की भी चर्चा चलती।
आचार्य रमाकान्त जी पहली बार तीन वर्ष के बाद घर लौटे। अब यह आर्य समाज में दीक्षित हो गये थे। गाँव के लोगों ने कहा! वह आर्या हो गया। अब वह खान-पान का भेद-भाव नहीं करता, धर्म-कर्म नहीं मानता, कथा नही बांचते, पूजा पाठ नहीं करते, ख्रिस्तान हो गये। परन्तु आचार्य जी की दिनचर्या नियमित हो गयी थी। 3-4 बजे उठ जाना, स्नान आदि से निवृत्त होकर सूर्योदय से पूर्व ही गाँव से बाहर दूर लोगों में व्यायाम-प्राणयाम करना और फिर प्रातः लौटकर यज्ञ स्वाध्याय करना, भोजन में तेल, लाल मिर्च, अचार, सिरका आदि सब का बहिष्कार था। यह देखकर इनके माता-पिता को सन्तोष हुआ। आचार्य जी मातृदेवोभव, पितृदेवोभव के सक्रिय क्रियात्मक उपासक थे।
आचार्य श्री रमाकान्त जी दंगली शास्त्रार्थी थे। शास्त्रार्थ प्रिय था। शास्त्रार्थ मे ऐसी सूझ-बूझ से काम लेते कि उनकी प्रत्युत्पन्न मति देखकर आश्चर्य हो जाता था।  बानगी देख लीजिए- शास्त्रार्थ संस्कृत में होने वाला था। आचार्य जी की ओर से जो बोलने लगे वे व्याकरणाचार्य थे। उन्होंने आरम्भ में ही कह दिया ‘‘तत्र भवन्तः श्रीमन्तः श्रूयन्ताम्’’ इसमें कर्तृवाच्य का कर्ता और कर्मवाच्य की क्रिया सुनकर पक्ष के लोग चकरा उठे। विरोधियों ने बगले झांकना शुरुकर दिया। भाई जी तुरन्त बोल उठे, ‘’काऽत्र त्रुटि? तत्र भवन्तः श्रीमन्तः इतिसम्बुद्धपदं श्रूयन्ताम् भविष्यन्तः प्रश्नाः श्रीम˜िः। समाधान सुन्दर था, शुद्ध था।’’ लोगों ने लोहा मान लिया।
आचार्य जी ने बहुत से शास्त्रार्थ किये। जिस समय आचार्य जी मनोवेग में संस्कृत बोलते थे, उनकी भाषा सन्धि, समास निष्ठ, साधारण विद्वानों की गति से बहुत ऊपर हो जाती थी। उनका हिन्दी, संस्कृत पर समान अधिकार था। उच्चारण, भाषा, व्याकरण मुहावरा किसी प्रकार की अशुद्धि उन्हें सह्य नहीं थी। व्याकरण और दर्शन उन्हें प्रिय था।
दयानन्द चरितम्- यह महाकाव्य 20 सर्गो का है। यह महाकाव्य पूर्ण है। लेकिन आचार्य जी इसका हिन्दी अनुवाद अपने निरीक्षण में कराना चाहते, वह न हो सका। हम सबके लिए तो यह महाकाव्य श्रेष्ठ महाकवि के यश की धरोहर है बल्कि आर्य जनता, ऋषिभक्त जनता की न्यस्त थाती भी है। अन्तिम सर्ग का 107वाँ अन्तिम श्लोक है -
‘‘कवी रमाकान्त इमां निजा कृति, समर्पयन्नार्यसमाज सेवकः
विशेषतो विश्वहिताय हे विभो! क्रियाः प्रियं मा विदुषां पुनः प्रभो’’।।
अर्थातः आर्य समाज का सेवक कवि रमाकान्त अपनी इस कृति को विश्वहित के लिए समर्पित कर रहा है। हे विभो प्रभो! मुझे विद्वानों का प्रिय बनाइए।
    आचार्य जी को 10 मई दिन रविवार से ही रूग्णता के कारण अस्पताल में भर्ती कर दिया गया था। चिरंजीव उनके पुत्र डा. वाचस्पति उपाध्याय उनकी सेवा में लगे रहे। होश में आने और बेहोश होने का क्रम चलता रहा। अन्ततः 8 जुलाई को रात सवा 11 बजे इस गौरवपूर्ण गरिमामय चरित्र का अन्त हो गया। आचार्य जी का निधन सन् 1970ई0 में हुआ था।