Sunday, 30 March 2008

भारत में राजनीतिक आतंकवाद

डा0 प्रत्यूष पाण्डेय 
प्रवक्ता
राजनीतिशास्त्र विभाग
आई0 सी0 सी0 एण्ड सी0 ई0
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
इलाहाबाद


भारत अनेक संस्कृतियों, धर्मों और भाषाओं का देश है। यही कारण हैं कि हमारी भारतीय संस्कृति भारत की भौगोलिक एवं राजनीतिक सीमाओं को लाँघकर सुदूर पूर्व में भी पल्लवित पुष्पित हुयी और पूर्ण रूप से छा गयी। भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक चेतना की संस्कृति है, जो इसकी जीवन्तता का मूलाधार है।1

भारत में यही विभिन्नताएँ सामाजिक गतिशीलता की प्रेरक है। परन्तु साथ ही यह आतंकवादी हिंसा और क्षेत्रीय विषमता भी पैदा करती है। आतंकवाद के सन्दर्भ हमारे ऋषियों द्वारा प्रणीत उपनिषद् आदि ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। कौटिल्य द्वारा प्रणीत अर्थशास्त्र में कहा गया है कि राज्य को आतंकवादी गतिविधियों से बचाने के लिए मंडल सिद्धान्त एवं षड्गुण्य नीति में बताये गये गुणों का पालन करना चाहिये।2 सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य आदि मूल्यों का क्षरण हो रहा है। अब हम पाश्चात्य भैतिक संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं। इसलिए अशान्ति, अनुशासनहीनता, लोभ एवं अराजकता एवं आतंकवाद का साम्राज्य बढ़ रहा है।

विश्व में आतंकवाद की कोई निश्चित परिभाषा स्वीकार नहीं की गयी है। आतंकवाद की अनेक परिभाषाएँ है, जिनमें से प्रमुख परिभाषाओं पर विचार करना मैं प्रासंगिक एवं समीचीन समझता हूँ।

लीग आफ नेशन्स ‘कन्वेशन आफ प्रिवेन्शन एण्ड पनिशमेन्ट’ 1937 द्वारा आतंकवाद को परिभाषित करते हुए लिखा गया है कि अनुच्छेद-1 के अनुसार ‘‘आतंकवाद का अभिप्राय उन अपराधिक कृत्यों से है जो किसी राज्य के विरूद्ध उन्मुख हो और जिसका उद्देश्य कुछ खास लोगों या जन-मानस के मन में भय या आतंक पैदा करना है।’’ 3

न्यू कालिन्स डिकशनरी और थेजर्स (1990) और इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका (1990) के अनुसार ‘‘ किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए क्रमबद्ध तरीके से हिंसात्मक और भयात्मक तरीकों का व्यवहार करना है।’’ द आक्सफोर्ड डिक्शनरी (1990) में परिभाषित किया गया है ‘‘मुख्यतः राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हिंसात्मक तरीकों का व्यवहार करना या इसकी धमकी देना है।’’ वाल्टर लैक्वेयर के अनुसार’’ टैरोरिज्म इज ऐन अटैम्प्ट टू डिस्टेब्लाईज डेमोक्रेटिक सोसायटीज एण्ड टू शे दैट दीज गर्वनमेन्ट्स आर इम्पोटेन्ट।’’ 4

सामान्यतः आतंकवाद की उत्पत्ति के विभिन्न कारण हैं जैसे- उपनिवेशवाद, साम्प्रदायिकता, जनजातिवाद, राजनीतिक उत्पीड़न, मानवाधिकारों का उल्लंघन, आर्थिक शोषण, बेरोजगारी, अपहरण, समाज का नैतिक पतन आदि।5

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में बहुत विविधता पाई जाती है। यहां अभी भी ऐसी प्रजातियाँ (जनजातीय समुदाय) हैं जो खाद्य संग्रह एवं शिकारी जीवन की अवस्था में है और जिनकी संख्या अधिक नहीं है। इनका खान-पान, कृषि, वर्ग, रहन-सहन, सामाजिक स्थिति, धार्मिक अनुष्ठान दूसरों से अलग महत्व दर्शाता है। इनके आचार-विचार के प्रभाव ने भारत की सभ्यता को प्रभावित किया है। 6

प्रसिद्ध समाज शास्त्री एम0 एन0 श्रीनिवास ने कहा है कि देश में होने वाले पुनर्जागरण और बौद्धिक पुनरूत्थान ने इन जातियों को उच्च जातियों के आचार-विचार तथा रहन-सहन को अपनाने के लिए प्रेरित किया और उन्होंने परम्परावादी व्यवसाय को बदलकर ऐसे व्यवसायों को अपनाना प्रारम्भ किया जो उच्च जातियों के लिए नियत थे। परिणाम यह हुआ कि निम्न जातियों का रहन-सहन उच्च जातियों के रहन-सहन से इतना समरूप हो गया कि उनके बीच अन्तर करना कठिन हो गया। यहाँ तक कि कुछ निम्न जातियों ने सम्मान पूर्ण स्थिति प्राप्त करने के लिए अपना जाति-चिन्ह तक परिवर्तित कर दिया।7

यहाँ पर जातिगत या वर्ग भेद के आधार पर राजनीति को देखें तो पता चलता है कि अनेक भारतीय जनजातियों ने अंग्रेजी शासन-काल में कई कारणों की वजह से आन्दोलनात्मक दृष्टिकोण अपनाया था। यह आन्दोलन या तो सरकार के अथवा देशी रियासतों के शासकों के विरूद्ध था। जैसे- मुण्डा, बिरसा, भूमिजों तथा नागाओं एवं संथालों द्वारा किये गये आन्दोलन ज्वलन्त उदाहरण के रूप में हैं।

सम्पर्क के परिणाम स्वरूप राजनीतिक चेतना में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई। देश की स्वतंत्रता ने जनजातियों में भी नवचेतना का संचार किया। उड़ीसा तथा छोटा नागपुर की जनजाति के लोगों ने पृथक राज्य की माँग की। इसी प्रकार सीमान्त क्षेत्रों में रहने वाले जनजाति ने अलगाव आन्दोलन चलाये जिसमें नागा तथा मिजों लोगो द्वारा किया गया आन्दोलन उल्लेखनीय है।

नागा लोगों ने स्वतंत्रता से पूर्व ब्रिटिश सरकार तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् केन्द्रीय सरकार के विरूद्ध आन्दोलनात्मक रूख अपनाया। उन्होंने बाहरी प्रशासकों को सदैव सन्देह की दृष्टि से देखा। पृथक राज्य की स्थापना, जो कि इनके आन्दोलन के ही परिणाम के रूप में माना जा सकता है; के पश्चात् भी ये लोग असहयोग का रूख बनाये हुए हैं।

इसी प्रकार झारखण्ड आन्दोलन जनजातियों के एक प्रमुख आन्दोलन के रूप में है। उराँव, मुण्डा तथा ‘हो’ जनजाति के लोग सम्मिलित रूप से पृथक राज्य (झारखण्ड) की माँग करते हैं। इनकी यह धारण रही है कि गैर-जनजाति के लोग इनका सदैव शोषण करते आये हैं। अतः पृथक राज्य होने से इनकी समस्याओं का समाधान हो सकता है।

इसी प्रकार दक्षिण गुजरात के आदिवासियों ने पृथक राज्य की माँग रखी। इसमें गुजरात के चार जिले भड़ौंच, सूरत, बलसार तथा डाँग सम्मिलित है। लेकिन जिस प्रकार झारखण्ड के आदिवासियों ने पृथक राजनीतिक दल नहीं बनाया। यद्यपि कतिपय राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त कर सकने में वे अवश्य सफल हुए।

देसाई महोदय ने गुजरात के आदिवासियों का अध्ययन किया है। उनका कहना है कि आदिवासी स्वायत्तशासी राज्य के नारे के पीछे राजनीतिक अर्थ है। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य स्वायत्तशासी राज्य की स्थपना करना नहीं है, वास्तव में राजनीतिक संघर्ष में यह एक दांव-पेंच के रूप में है तथा विभिन्न राजनीतिक दल इसका प्रयोग इसी अर्थ में कर रहें हैं। देसाई के अनुसार इनका राजनीतिक आन्दोलन इस बात की अभिव्यक्ति है कि ये समूह विशाल भारतीय समाज की गतिविधियों में भगीदार बनना चाहते हैं तथा हमें उनकी इस राजनीतिक वैधता को मान्यता देनी चाहिये। 8

इसी प्रकार पंजाब में हिन्दुओं और सिक्खों के बीच जो टकराव है, उससे सिक्ख साम्प्रदायिकता अपने उग्र रूप में सामने आई है। असम में भी विदिशियों के विरूद्ध जो राजनीतिक आन्दोलन हुआ, उसका आधार यह था कि यदि बड़ी संख्या में असम से बाहर के लोगों को असम में रहने की सुविधा उपलब्ध रही तो कुछ ही दिनों के बाद असमवासी अल्पसंख्यक हो जायेंगे। इस स्थिति से उत्तेजित होकर असम में ‘‘आल आसामीज स्टूडेन्टस यूनियन’’ और ‘‘असमगण संग्राम परिषद’’ ने कुछ इस प्रकार के नारे दिए- ‘‘ भारत माता को भूल जाओ, असम माता को प्यार करो। यदि तुम एक साँप और एक बंगाली को देखो तो साँप को मारने के बजाए पहले बंगाली को मार दो।’’

इसी तरह उत्तर-पूर्व भारत विशेषकर नागालैण्ड में ईसाइयों द्वारा बड़ी संख्या में हिन्दुओं को ईसाई बनाने का अभियान गत दो दशकों में बहुत तेजी पर रहा। ईसाई मिशनरियों को इस प्रकार की गतिविधियों का हिन्दुओं की ओर से घोर विरोध किया गया।9

विहार को व्यापक आर्थिक और सामाजिक असमानता के चलते गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। भूमि सुधार कार्यक्रम यहाँ आजादी के बाद ही घोषित कर दिया गया था, लेकिन उस पर ईमानदारी से अमल आज तक नहीं हुआ। नतीजतन शोषित गरीबों के बीच नक्सलवादी आन्दोलन को जड़ जमाने के लिए उर्वरक परिस्थितियाँ मिल गई।

आज बिहार के करीब दो दर्जन जिलों में अलग-अलग नामों वाले नक्सली संगठन सक्रिय है। गरीब और साधन हीन जनता को ये संगठन खतरनाक नहीं, बल्कि रक्षक जैसे नजर आते हैं। यूं सामंतवादी व्यवस्था ने इनका मुकाबला करने के लिए पुलिस और प्रशासन का सहारा लेने के साथ- साथ, रणबीर सेना जैसे समानांतर संगठन भी पैदा कर डाले हैं। नक्सलियों और रणवीर सेना जैसे संगठनों के बीच खूनी टकराव कभी ठंडा नहीं पड़ता।

शासन ताजा घटना से तो परेशासन है, किन्तु भविष्य की आशंका भी उसे खाए जा रही है। आज देश के लगभग एक सौ पचास जिले नक्सलवादियों के प्रभाव में है। इन सभी नक्सलवादियों को आतंकवादी करार देना भी समझदारी नहीं कही जायेगी। उनसे ठीक से निपटने के लिए दमन की बजाए सामाजिक व आर्थिक कमियों को पाटना अधिक आवश्यक है।
नक्सली समस्या से निपटने के लिए राज्य और केन्द्र सरकार वर्षों से योजनाएँ बना रही है। पर इन योजनाओं और नीतियों में एकरूपता का अभाव है। आन्ध्र प्रदेश का उदाहरण सामने है, जहाँ सरकार ने इसे बातचीत के जरिये सुलझाने की पहल की थी। लेकिन अब वहाँ दोनों ओर से तलवारें पुनः खिंच चुकी हैं। अच्छा होगा केन्द्र सरकार देशव्यापी नक्सलवादी समस्या के गहन अध्ययन के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन करे। 10

यदि जम्मू एवं कश्मीर के सन्दर्भ में देंखे तो कश्मीर में सबसे अधिक मुसलमान और कम संख्या में हिन्दू हैं, इन दोनों धर्मों के बीच विभिन्न मुद्दों को लेकर अक्सर तनाव देखा जाता है जैसे- शिक्षा, बेरोजगारी, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, भौगोलिक आदि विषयों पर बराबर आक्रामक स्थिति बनी रहती है। इसी वजह से अनेक सम्प्रदाय के सदस्य मुसलमानों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं और उन पर ‘राज्यक्षेत्रातीत निष्ठा’ (एक्स्ट्रा-टेरीटोरियल लायलिटी) का आरोप लगाते हैं। हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठनों ने साम्प्रदायिक दंगों को बढ़ावा दिया, जिससे राजनीतिक संघर्ष आज तक जारी है।

यदि इसे भारत और पकिस्तान के संदर्भ में देखा जाय तो करीब छह दशक पुराने कश्मीर विवाद पर भी लागू होती है। ‘लोकतात्रिक भावनाएँ’ व ‘आतंकवाद’ दो ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें कश्मीर की मूल समस्या कहा जा सकता है। कश्मीर को ‘स्वशासन’ देने की बात पाकिस्तान द्वारा बार-बार दोहराई जाती है। लेकिन उस स्वशासन का स्वरूप क्या होगा पाकिस्तान के पास इस सवाल का जवाब नहीं है, क्योंकि जो पाकिस्तान के लिए लोकतंत्र है, उसे भारत व पश्चिमी जगत तानाशाही के नाम से जानता है।

कश्मीरियों की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि वहाँ काँग्रेस की गलत नीतियों के फलस्वरूप उपजे अलगाव को पाकिस्तान ने आतंकवाद में बदल दिया। बाद में इसका रूख जेहादी आतंकवाद की ओर मुड़ने से कश्मीर विवाद का समाधान और जटिल हो गया।

क्या नियंत्रण रेखा को अप्रसांगिक बनाकर ऐसे आतंकवाद को भी अप्रासंगिक बनाया जा सकता है, जिसका स्वरूप क्षेत्रीय न रहकर वैश्विक हो चुका है? यहाँ सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश श्री आर0 सी0 लाहोटी द्वारा 31 अक्टूबर को दी गई चेतावनी का उल्लेख जरूरी होगा। उन्होंने कहा कि -भारत में आतंकवाद से लड़ने की पर्याप्त राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं है। क्या कारण है कि अमेरिका मेें 9/11 सितम्बर के बाद एक भी आतंकी हादसा नहीं हुआ, जबकि भारत में ऐसे हमले रोजमर्रा का हिस्सा बन गए है?’11

कश्मीर समस्या के किसी भी समाधान पर पहुँचने से पहले यह जरूरी है कि जहाँ पाकिस्तान आतंकवाद के खतरे के प्रति सचेत हो, वहीं भारत भी आतंकवाद से लड़ने की पर्याप्त इच्छा शक्ति विकसित करे। दुर्भाग्यवश यदि ऐसा नहीं होता, तो लश्कर जैसे संगठन बेगुनाह लोगों का खून बहाते रहेंगे।

इस प्रकार के राजनीतिक संघर्ष एवं आतंकवादी गतिविधियों ने भारत की राजनीतिक व्यवस्था में कई तरह की समस्या उत्पन्न कर दी है जैसे परस्पर विरोधी हितों के बीच समन्वय स्थापित करना। समस्या केवल बहुमत और अल्पसंख्यकों के बीच सामंजस्य स्थापित करने तक सीमित नहीं हैं; समस्या जातिवाद, साम्प्रदायिकता, राजनीतिक उत्पीड़न, आतंकवाद, मानवाधिकारों का उल्लंघन, आर्थिक शोषण, बेरोजगारी, राष्ट्रीय एकता आदि पहलुओं पर विचार करने का है। इन तत्वों का प्रभाव भारत ही नहीं अपितु विश्व की राजनीति पर पड़ा है।
वस्तुतः राजनीतिक संघर्ष एवं आतंकवाद को रोकने के लिए देश की सामाजिक राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक संरचनाओं को मजबूत करना होगा। भारत की एकता को बनाये रखने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर धर्म, जाति, भाषा, राजनीतिक शक्ति, अधिकार एवं स्वतंत्रता की सुरक्षा करना होगा। एकीकरण के लिए आवश्यकता है बलिदान के भावना की, मानवतावादी भावना की और राष्ट्र के प्रति दृढ़ निष्ठा की।

अतः विभिन्नताओं पर ध्यान दिए बिना हमें देश और राष्ट्र के हितांे को प्राथमिकता देनी चाहिए। प्रो0 मदन शर्मा (शिमला) की पंक्तियाँ यहाँ समीचीन है।
कुदरत के रंगीन खेल न भगवान से खतरा।
है आज तो  इंसान को  इंसान से खतरा।।
मन  में  बसी  लालच  दुश्मन  से दोस्ती।
है आज  मेजबान को  मेहमान से खतरा।।

सन्दर्भ ग्रन्थ

1. भारतीय परम्परा और उनके मूल स्वर, प्रो0 गोविन्द चन्द्र पाण्डे, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 23, दरियागंज, नई दिल्ली, 1989
2. अर्थशास्त्र, आचार्य कौटिल्य
3. ब्वदअमदजपवद ंकवचजमकए ब्ींतजमतख् स्मंहनम व िछंजपवदेए 16 क्मबमउइमतए 1937
4. त्मसिमबजपवदे वद ज्मततवतपेउए ॅंसजमत स्ंुनमनतए थ्वतमहपद ।ििंपतेए छमू ल्वता टवसण् 65ए थ्ंसस 1986ए च्च् 88.89
5. ैजंजमउमदजे ंइवनज जमततवतपेउए डण्श्रमदापदे ठतंपदए च्.11
6. म्जीदपब ब्नपेपदमरू ज्ीम ैपहदपपिबंदज ष्व्जीमतष् म्गजतंबजमक तिवउ जीम ज्ञमलदवजम ंककतमेे ंज ं बवदतिमदबम वद विवक वतहंदप्रमक इल त्ंबीमस क्ूलमत ंज जीम ैबीववस व िवतपमदजंस ैजनकपमेए ।ेीपे छंदकलए न्दपअमतेपजल व िस्वदकवदए 22 छवअण् 2002
7. सोशल चेंज इन माईन इंडिया, एम0 एन0 श्रीनिवास, एलायड पब्लिशर्स, दिल्ली, 1966 पृ0-146
8. उच्च सामाजिक मानव विज्ञान, शम्भु दयाल देसाई, विकास पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1978 पृष्ठ- 213 और 214
9. भारतीय राजनीतिक व्यवस्था, प्रो0 एस0 एम0 सईद, सुलभ प्रकाशन, लखनऊ, 2001
10. भारत-पाक, विनय कौड़ा (सामरिक मामलों के विश्लेषक )
11. सम्पादकीय पृष्ठ (अमर उजाला) दिन-गुरूवार, 17 नवम्बर, 2005