Sunday, 30 March 2008

संप्रभुता का स्वरूप एवं प्राचीन भारतीय राज्य


अतुल कुमार मिश्र
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
इलाहाबाद



आधुनिक राज्य के बारे में जो बात नहीं बदली वह संप्रभुता से जुड़ी है। अंतर्राष्ट्रीय कानून का विकास लगभग राष्ट्र-राज्य की विकास यात्रा के साथ-साथ हुआ है। इसकी स्थापना के अनुसार सभी संप्रभु राज्य अंतराष्ट्रीय जगत में एक समान हैसियत रखते हैं और उन्हें संप्रभुता की दृष्टि से समान समझा जाना चाहिए। 
मध्य युग मेें यूरोपीय गणराज्य, राज्य न हो कर चर्च का एक विभाग मात्र बनकर रह गये थे। चैदहवीं शताब्दी में चले कान्सीलियर आन्दोलन, पुनर्जागरण और धर्म सुधार आन्दोलन के फलस्वरूप मध्ययुगीन पोपषाही का पटाक्षेप हुआ और धर्म निरपेक्ष एवं मानवतावाद की नई किरण प्रस्फुटित हुई। विज्ञान की उन्नति ने जागरूकता पैदा की। इसके अतिरिक्त औद्योगिक विकास ने सामंतों के स्थान पर एक नए वर्ग को जन्म दिया। यही वह समय था जब यूरोप के देश विशेषकर इंग्लैण्ड और फ्रांस के शासकों ने पोपषाही का नियंत्रण अस्वीकार कर दिया। फलस्वरूप राज्य के साथ प्रभुसत्ता एक अनिवार्य तत्व के रूप में जुड़ गया। यूरोप के लोग अब अपने आप को सबसे पहले फ्रंासीसी या अंग्रेज के रूप में मानने लगे, ईसाई के रूप मंे पहचान गौण हो गयी। इस प्रकार राष्ट्रवाद के नये तत्त्व का उदय हुआ एवं संप्रभुता जिसकी अनिवार्य अंग बन गयी। 
आधुनिक राज्य प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य हैं। यही वह तत्व है जो राज्य को अन्य मानवीय समुदायों जैसे परिवार, चर्च, विद्यालय आदि से अलग करता है। इसका स्थान राज्य की सर्वोच्च सत्ता में निहित है। जे0 डब्ल्यू गार्नर इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘‘प्रत्येक पूर्णतया स्वतंत्र राज्य में कोई व्यक्ति, सभा अथवा समूह (जैसे निर्वाचक मण्डल) होता है, जिसके पास कानूनी संदर्भ में अपनी इच्छा को व्यक्त करने तथा उस सामूहिक इच्छा को लागू करने अर्थात् आदेश देने और अपनी सत्ता के प्रति आज्ञा पालन को सुनिश्चित करने की शक्ति होती है। अन्य संघों की भी सामूहिक इच्छा होती है और वे अपने मतों का निर्माण भी कर सकते हैं, परन्तु राज्य की यह विषेषता है कि संघर्ष की स्थिति में अन्य सभी इच्छाओं के ऊपर, चाहे वे व्यक्तियों की हों अथवा संघों की, केवल इसी की इच्छा चलती है अर्थात् प्रधान होती है। शेष सभी इच्छायंे प्रबल रूप से इसके अधीन हैं। एक बार व्यक्त होने पर, राज्य की इच्छा जिसके बारे में इसने निर्णय लिया है, उसके संदर्भ में अंतिम आदेश का प्रतिनिधित्व करती है।़  इस प्रकार संप्रभुता एक ऐसी सर्वोच्च शक्ति मानी जाती है जो सभी व्यक्तियों, समुदायों, वर्गों, वस्तुओं, वर्ग हितों, समूहों और संस्थाओं को नियंत्रित एवं नियमित करती है। आधुनिक समाजों में राज्य इस शक्ति का धारक माना जाता है। 
शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से सम्प्रभुता का अर्थ है -‘सर्वोच्च शक्ति’। सर फ्रेडरिक पोलाक ने सम्प्रभुता की परिभाषा देते हुए बताया है कि ‘‘सम्प्रभुता वह शक्ति है, जो न तो अस्थायी होती है और जो न किन्ही ऐेसे नियमों के अन्तर्गत आती है, जिन्हंे वह स्वयं न बदल सके।’’  बिलोबी के शब्दों में ‘‘सम्प्रभुता राज्य की वह शक्ति है जो हमेषा क्रियाशील रहकर कानून बनाती है और उनका पालन कराती है, सम्प्रभुता कहलाती है।’’  बोदाँ के अनुसार ‘‘सम्प्रभुता राज्य की अपनी प्रजा और नागरिकों के ऊपर वह उच्चतम सत्ता है जिस पर किसी कानून का प्रतिबंध नहीं है।’’  जेलिनेक स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ‘‘सम्प्रभुता राज्य की वह विषेषता है जिसके कारण इसे अपनी इच्छा के अतिरिक्त किसी अन्य शक्ति द्वारा वैधानिक रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता अथवा उसे स्वयं के अतिरिक्त किसी अन्य शक्ति द्वारा सीमित नहीं किया जा सकता।’’  कार्रे डि मैलबर्ग सम्प्रभुता को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘‘सम्प्रभुता शक्ति नहीं, अपेक्षाकृत एक विषेषता है, यह शक्ति की सर्वोच्च विषेषता है- इस अर्थ में सर्वोच्च है कि यह अन्य किसी शक्ति के अधीन नहीं है और कोई शक्ति इसके साथ प्रतियोगिता नहीं कर सकती।’’  
सम्प्रभुता राज्य को प्राप्त वह सर्वोच्च सत्ता है जिसके माध्यम से वह अपने अन्तर्गत निवास करने वाले समस्त शक्ति तथा समुदायों पर सर्वोच्च अधिकार रखती है। उनसे अपने उद्देश्यों का पालन करवाती है और ऐसा न करने पर दण्ड देेने की शक्ति रखती है। इसी सम्प्रभुुता के आधार पर राज्य अपने ही समान दूसरे राज्य के साथ स्वविवेकानुसार, बिना किसी दबाव के संबंध स्थापित करता है। अर्थात् सम्प्रभु राज्य के भीतर एवं बाहर किसी भी तरह की बाध्यकारी शक्ति से बंधा नहीं होता है। जाॅन आॅस्टिन इन्हीं बातों को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि-‘‘यदि किसी समाज में अधिकांश व्यक्ति किसी निश्चित उच्चतर व्यक्ति की आज्ञा का पालन आदतन करते हैं और जो स्वयं अपने ही जैसा किसी दूसरे उच्चतर व्यक्ति की आज्ञा का पालन न करता हो, वह निश्चित उच्चतर व्यक्ति उस समाज का सम्प्रभु है और इसके (सम्प्रभु) साथ वह समाज स्वतंत्र और राजनीतिक समाज होता है।’’ 
एक निश्चित भूमि पर सर्वाेच्च सत्ता के रूप में सम्प्रभुता की धारणा भले ही राष्ट्र-राज्य की अवधारणा के साथ जुड़ी हो अथवा एक आधुनिक धारणा के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित हो किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि प्राचीन एवं मध्ययुगीन राज्यों में सम्प्रभुता नाम की कोई चीज नहीं थी। प्राचीन भारतीय राज्यों के बारे में जो विवरण हमें कौटिल्य के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’, मनुस्मृति, महाभारत, शुक्रनीति, आदि ग्रंथो से प्राप्त होते हैं, उनसे सम्प्रभु राज्य की सभी विशेषताएं भारतीय राज्यांे में परिलक्षित होती है। प्राचीन भारतीय राज्यों को न सिर्फ अन्य समस्त सामाजिक संस्थाओं से सर्वोच्चता प्राप्त थी बल्कि वह अपने ही समान किसी अन्य राज्य की सामान्यतः आज्ञा पालन भी नहीं करता था। राज्य सर्वोच्च था जिसकी समस्त कार्यकारी श्ािक्तयां राजा में निवास करती थी। मनु के अनुसार जब राज्य (राजा) के अभाव में सम्पूर्ण विश्व में भय व व्याकुलता फैल गयी, तब सबकी रक्षा हेतु प्रभु ने राजा की उत्पत्ति की। मनुस्मृति में कहा गया है - 
अराजके हि लोकेऽस्मिन्सर्वंतो विद्रुते भयात्।
रक्षार्थमस्य सर्वस्य राजानामसृजत्प्रभुः।। 
अर्थात् मनु कहते हैं कि इस जगत में राजा के अभाव में सर्वत्र हाहाकार होने लगा तब लोक रक्षा के लिए ईश्वर ने राजा को बनाया। इस प्रकार राजा की उत्पत्ति प्रजा पालनार्थ होती है। वह सर्वगुण सम्पन्न, सर्वशक्तिशाली होते हुए भी स्वच्छन्द एवं निरंकुश नहीं है, बल्कि वह दण्ड (कानून) से बंधा हुआ है, जैसा कि मनुस्मृति में कहा गया है - 
तस्यार्थे सर्वभूतानां गोप्तारं धर्मात्मजम्।
ब्रह्मतेजोमयं दण्डमसृजत्पूर्वमीश्वरः।।  
अर्थात् उस राजा का कार्य बनाने के लिए ईश्वर ने सब जीवों के रक्षा हेतु, ब्रह्म तेज से युक्त धर्मरूप दण्ड को पहले बनाया।
इसी अध्याय के पन्द्रहवें श्लोक में कहा गया है कि - 
तस्य सर्वाणि भूतानि स्थावराणि चराणि च।
भयाद्भोगाय कल्पन्ते स्वधर्मान्चलन्ति च ।।
अर्थात् उस दण्ड के भय से सब चराचर जीव सुख प्राप्त करते हैं और स्वधर्म से विचलित नहीं होते। मनुस्मृति में दण्ड की सर्वोच्चता स्थापित करते हुए सम्पूर्ण विश्व को दण्ड के अधीन बताया गया है। अध्याय 7 का श्लोक 23 कहता है- 
देवदानवगन्धर्वा रक्षासि पतगोरगाः।
तेऽपि भोगाय कल्पते दण्डेनैव निपीडिताः।।
अर्थात् देव, दानव, गन्धर्व, राक्षस, पक्षी और नाग ये सब दण्डभय से त्रस्त होकर ही नियम में रहते हैं। इसी क्रम में चैबीसवें श्लोक में कहा गया है कि -

दुष्येषुः सर्ववर्णाश्च भिद्यरन्सर्वसेतवः।
सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्य विभ्रमात्।।
अर्थात् दण्ड के उचित प्रयोग न होने से सभी वर्ण दूषित हो जाए, धर्म से सब बंधन टूट जाएं और सब में विद्रोह उत्पन्न हो जाए अर्थात् राज्य व्यवस्थाविहीन हो जाए।
इस प्रकार प्राचीन भारतीय राज्यों में संकल्पना के रूप में प्रभुसत्ता भले ही विद्यमान न रही हो किन्तु राज्यों की सर्वोच्चता स्थापित थी। यह सर्वोच्चता केवल आन्तरिक क्षेत्र में ही न होकर, बाह्य दृष्टि से भी स्थापित थी। अर्थात् वे किसी दूसरे राज्य के समक्ष समर्पण नहीं करते थे। राज्य द्वारा निर्मित कानून सर्वोच्च थे। उनका पालन न किए जाने पर दण्ड का प्रावधान था अर्थात् आॅस्टिन की कानूनी सम्प्रभुता तत्कालीन भारतीय राज्यों में विद्यमान थी। इसके साथ ही यदि शासक या कुछ संदर्भों में सम्प्रभु शक्ति सीमित थी तो वह थी प्रजा का कल्याण। इस हेतु राजा के कुछ कत्र्तव्य निर्धारित थे जिनसे वह बंधा था। इस प्रकार प्राचीन भारतीय राज्य सम्प्रभु राज्य थे। दूसरे शब्दों में सम्प्रभु राज्य की सारी विशेषताएं तत्कालीन राज्यों में पायी जाती थीं। 

सन्दर्भ ग्रन्थ

1. जे0 डब्ल्यू गार्नर: पोलिटिकल साइंस एण्ड गवर्नमेंट  पृ0- 156
2. आशीर्वादम्: पोलिटिकल थ्योरी,  पृ0- 296
3. डब्ल्यू0डब्ल्यू0 बिलोबी - द नेचर आफ द स्टेट, पृ0- 383
4. मैकसी -पोलिटिकल फिलासफी, पेज 164 बर्गेस: पालिटिकल साइंस एण्ड कान्सीट्यूशनल लाॅ,   पृ0 -  53
5. वी0 आर0 पुरोहित, राजनीति शास्त्र के मुल सिद्धांत, पृ0 -116-117।
6. वी0 आर0 पुरोहित, राजनीति शास्त्र के मुल सिद्धांत, पृ0 -118
7. डनिंगः पोलिटिकल थ्योरीज फ्राम रूसो टू स्पेन्सर, पृ0 202
8. मनुस्मृति: अध्याय सात, श्लोक क्रमशः 3,4,5,
9. वहीं: अध्यय 7, श्लेाक 14

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