Sunday, 30 March 2008

कौटिल्य युगीन न्याय व्यवस्था: एक समीक्षात्मक विश्लेषण


आलोक कुमार 
(शोध छात्र)
प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग
काशी हिन्दी विश्वविद्यालय, वाराणसी।


भारतीय जनमानस प्राचीनकाल से ही न्यायप्रिय रहा है। प्राचीन चिंतकों एवं आचार्यों ने राजाओं को निरंतर यही निर्देश दिया कि वे अपने राज्य में न्याय व्यवस्था की समुचित स्थापना करते रहें।

कौटिल्य के युग तक सामाजिक स्थिति में बड़ा परिवर्तन हो चुका था और राजशक्ति का विकास केन्द्रीय शक्ति के रूप में हो रहा था। समाज का ढाँचा सरकार पर निर्भर होने लगा और चारों वर्णाश्रम अपने संयमन के लिए राजा की सहायता की अपेक्षा करने लगें।1 इतना ही नहीं सर्वधर्मों के नाश हो जाने पर राजा धर्म प्रवर्तक भी बन गया।2

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजतंत्रात्मक व्यवस्था का समर्थन किया गया है। इस व्यवस्था में ‘राजा’ संविधान की धुरी एवं राजनीतिक जीवन का केन्द्रस्थल था।3 वस्तुतः राजपद में ही संप्रभुता निहित थी।4 वह शासन रूपी यंत्र को संचालित करने वाली कुंजी थी।5 अर्थशास्त्र में सर्वोच्च विधायिनी संस्था का कोई वर्णन नहीं मिलता है फलतः आदेश जारी करना और कानून निर्माण करना राजा का ही कत्र्तव्य था जिसका एक मात्र उद्देश्य जनसुरक्षा की स्थापना करना था।6

कौटिल्य के पूर्व उपनिषदों से होती हुयी धर्मसूत्रोत्तर काल तक भारतीय न्यायपालिका का आधार यथार्थवादी के साथ दार्शनिक हो चुका था। इस काल तक समाज की भौतिक आवश्यकताओं के अधिक स्पष्ट होने, विदेशी आक्रमण से राष्ट्रभाव के विकास, अखण्ड राष्ट्र एवं राज्य की स्थापना वाह्य जातियों से संपर्क, बौद्ध जैन एवं भौतिकवादी संप्रदायों के आंदोलन आदि से समाज एवं व्यक्ति के सम्बन्धों में महत्वपूर्ण विकास हुआ, फलतः कौटिल्य ने ‘विधि’ का स्पष्ट लौकिक रूप संहिताबद्ध किया। इसमें कौटिल्य उदारवादी थे और उन्होंने परम्परागत उन्मुक्तियों एवं सुविधाओं में संशोधन प्रस्तुत किया। अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने ‘विधि’ एवं ‘धर्म’ में परम्परावादी अंश और उसका राज्य के साथ सम्बन्ध स्थापना में क्रँातिकारी परिवर्तन नहीं किया। ‘धर्म’ से व्यावहारिक विधि के साथ कत्र्तव्य विधि का रूप मानते हुये उसे शाश्वत रूप में ही स्वीकार किया। लेकिन व्यावहारिक विधि का आधार मानव व्यवहार एवं समाज स्वीकार करने से विधि के शाश्वत होने तथा उसके देवत्व के स्थान पर लौकिक सर्वोच्चता का रूप सामने आया।

विधि के कार्यान्वयन की राज्यशक्ति अर्थात राज्य-संप्रभुता उस समय पराकाष्ठा पर आ गयी और राज्य का कार्यक्षेत्र व्यापक हो गया। यहाँ विधि सामाजिक आवश्यकताओं से प्रभावित होकर नये रूप में आती है किन्तु समाज विधि को प्रभावित करने के साथ उसकी सर्वोच्चता स्वीकार करता है। इस सर्वोच्चता का कार्यान्वयन राज्य से होता है और राज्य का आधर जनस्वीकृति, जनकल्याण एवं विधि की सर्वोच्चता रहता है। राजा एवं राज्य के अन्य घटक लोक विधि से, जिसे धार्मिक एवं वैधानिक शक्ति प्राप्त है, शक्ति प्राप्त करते हैं एवं वह राज्य के आधार व शक्ति के रूप में अभिव्यक्त होती है। यही व्यवहार विधि, धर्म के संस्कार, अंधविश्वास, कर्मकाण्ड एवं इनके आधार पर स्थिर परम्परा से उच्च मानी गई है। इसके प्रयोग में विवेक, हेतु एवं तर्क का प्रयोग आवश्यक माना गया।7 यही कौटिल्य का विवेकवादी विधि का स्वरूप है।

कौटिल्य के अनुसार कानून के चार स्रोत थे- धर्म, व्यवहार, चरित्र और शासन- जिनमें पूर्व की अपेक्षा बाद वाले स्रोतों का उच्च स्थान था।8 इन चारांे स्रोतों का वर्णन करते हुये उन्हेंने लिखा है कि सत्य में धर्म, प्रमाण में व्यवहार, सामाजिक जीवन में चरित्र और राजाज्ञा में शासन स्थित रहता है।9 अर्थशास्त्र में राजाज्ञा को कानून के अन्य स्रोतों में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। कौटिल्य के अनुसार परम्परा और धर्मशास्त्र दोनों की सहायता से विवादों का निर्णय करना चाहिए किन्तु मतभेद की स्थिति में धर्मशास्त्रों को ही प्रमाण मानना चाहिए।10 इसी प्रकार यदि राजा के धर्मानुकूल शासन का धर्मशास्त्र से विरोध हो जाये तो ऐसी स्थिति में राजशासन को ही प्रमाण मानना चाहिए।11 श्री यू0एन0 घोषाल का मानना है कि राजा को ही राज्य की समृद्धि हेतु कृषि, व्यापार, उद्योग, सैनिक और वैदेशिक आदि विषयांे से संबंधित नियम निर्माण एवं उन्हें कार्यान्वित करने का अधिकार प्राप्त था। इस रूप में वह अर्धविधायिनी शक्ति से युक्त था।12 अतः स्पष्ट हो जाता है कि अर्थशास्त्र की राज्य व्यवस्था में विधायिका के अभाव में ‘राजा’ को विधि निर्माण संबंधी विस्तृत शक्तियाँ प्राप्त थी।

राजा न्याय कार्य का संपादन स्वयं तथा न्यायाधीशों की सहायता से करता था। धर्मोपधा रीति से परीक्षित आमात्यों को राजा ही धर्मस्थीय (दीवानी) एवं कंटकशोधन (फौजदारी) न्यायालयांे में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करता था।13 राजा के नीचे धर्मस्थीय (दीवानी) एवं कंटकशोधन (फौजदारी) न्यायालय थे। धर्मस्थ्ीय न्यायालय जनपदांे की संधि पर, दस गाँवों के केन्द्र संग्रहण में, चार सौ गाँवों के केन्द्र द्रोणमुख में और आठसौगाँवों के केन्द्र स्थानीय में स्थापित थे। जिनमें तीन धर्मस्थ एवं तीन अमात्य एक साथ दीवानी संबंधी विवादों का निर्णय करते थे।14 इसी प्रकार तीन प्रदेष्टा और तीन आमात्यों द्वारा कंटकशोधन संबंधी विवादों का निपटारा किया जाता था।15

कौटिल्य ने लौकिक न्यायिक विभाग का नाम धर्मस्थीय रखा जिसके कार्यक्षेत्र से स्पष्ट होता है कि धर्मशास्त्र.ों के विधि संबंधी विषय उसमें आ जाते हैं। न्यायालय में धर्मस्थों के साथ आमात्यों को रखने का प्रयोग जनजीवन एवं न्यायिक प्रशासन के शासकीय रूप दोनों में वास्तविक समन्वय स्थापित करना था। धर्मस्थों को लोक विधि, जाति विधि आदि से सम्बद्ध करने से स्थिति अत्यंत स्पष्ट हो जाती है।

इसी प्रकार कंटकशोधन में भी सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक एकात्मकता स्थापित की गई। इसके माध्यम से भी समाज और न्यायालय दोनों निकट लाये गये और समाजकंटकों एवं राष्ट्रकंटकों के उन्मूलन का प्रयास किया गया। सामाजिक एवं राष्ट्रीय हित की अवहेलना कर अपने स्वार्थ की पूर्ति करने वालों को ‘कंटक’ कहा गया, उनसे समाज एवं राष्ट्र की रक्षा करना इस न्यायालय का कार्य था, इसीलिए इसे कंटकशोधन कहा गया।

इसके अतिरिक्त ग्रामसभाओं के माध्यम से निर्णय होता था। ग्राम सभाओं में राज्य की ओर से न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं होती थी। गाँव के किसान, गोपालक, वृद्ध एवं अन्य अनुभवी पुरूष- एक या एकाधिक निर्णय करते थे।16 इन सभाओं के कार्यक्षेत्र में घर, बाग, खेत, सीमाविवाद, तालाब और बाँध सम्बंधी अपराध थे। क्षेत्र की सीमा का विवाद ग्राम वृद्धों की सभा करती थी। यदि उनमें मतभेद हो जाये तो धार्मिक एवं पवित्र व्यक्ति जिन्हें प्रजा स्वीकार करती हो, वे निर्णय कर सकते थे। इनके विकल्प में पंचनिर्णय की व्यवस्था थी।17 इनसे निर्णय न होने पर राज्य हस्तक्षेप कर सम्पत्ति अपने अधिकार में ले लेता था।18 ग्रामों एवं अन्य सभाओं के साथ परिषदें भी न्याय करती थी। इनके कार्यक्षेत्र में जातीय विवाद आते थे।19

अर्थशास्त्र में देरी से न्याय को अच्छा नहीं कहा गया। कौटिल्य कहते हैं कि आवश्यक कार्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए क्योंकि अवधि बीत जाने पर वे ही कार्य कष्ट साध्य अथवा असाध्य बन जाते हैं।20 अर्थशास्त्र युगीन न्याय व्यवस्था में न्याय सबकों सुलभ था। यदि कोई न्यायाधीश प्रार्थी के साथ उचित न्याय नहीं करता तो उसे भी दण्ड दिया जाता था।21 इसके साथ ही यदि वे अपने कार्य में आलस्य करें या कत्र्तव्यच्युत  हो जायें तो वे दण्ड के भागी होते थे।22 यहाँ तक अनुचित दण्ड देने वाले न्यायाधीश भी दण्डित हो सकते थे।23

कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में न्यायिक व्यवस्था के संबंध में यथार्थवादी न्यायपालिका के विकास, राजा के न्यायिक उद्देश्य, न्यायालयों के संगठन विधि के स्रोत, स्थानीय संगठनों के विधि संबंधी अधिकार आदि का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने दण्ड के प्रावधानों के साथ दाण्डिक विमुक्तियों का भी उल्लेख किया है। वहाँ ‘विधि की संप्रभुता’ पूर्णरूपेण स्पष्ट है। समाज की विधि में सभी समाजों को उनकी विधि के कार्यान्वयन का समान अधिकार है। वस्तुतः समस्त नागरिकों को उनकी ही विधि के अनुसार जो अधिकार ‘अर्थशास्त्र’ में दिया गया है वैसा आज विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली अमेरिकी न्यायपलिका भी नहीं दे पायी है क्योंकि उस पर समाज का प्रभाव तो है पर समाज उसका स्रोत नहीं है।

संदर्भ ग्रन्थ

1. अर्थशास्त्र  1/4119
2. वही 3/1150
3. बंद्योपाध्याय,एन0सी: कौटिल्य, पृष्ठ- 90
4. सैलोटोर, भास्कर: एंशियेण्ट इंडियन पाॅलिटीकल थाॅट एण्ड इन्स्टीट्यूशन्स, पृष्ठ- 299
5. घोषल, यू0 एन0: ए हिस्ट्री आंडियन पाॅलिटीकल आइडियाज
6. बंद्योपाध्याय, एन0 सी0: कौटिल्य, पृष्ठ 78
7. अर्थशास्त्र: पृष्ठ 110, 117, 170 आदि।
8. अर्थशास्त्र 3/1/51
9. अर्थशास्त्र 3/1/52
10. वही 3/1/56
11. वही 3/1/57
12. घोषाल, य0 एन0 - पूर्वोक्त पृष्ठ- 114
13. आर्थशास्त्र 1/10/20
14. आर्थशास्त्र 3/1/1
15. आर्थशास्त्र 4/1/1
16. आर्थशास्त्र 3/9/12
17. आर्थशास्त्र 3/9/17-18
18. आर्थशास्त्र 3/9/19
19. आर्थशास्त्र 3/9/19
20. कैम्ब्रिज हिस्ट्री आॅफ इंडिया - वोल्यूम 1 पृष्ठ 485
21. अर्थशास्त्र 4/9/35
22. आर्थशास्त्र 4/9/36-41
23. आर्थशास्त्र 4/9/42-47


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