रमेश चन्द्र पाण्डेय
(यू0 जी0 सी0 / नेट)
भारत में 1857 के विद्रोह के उपरान्तएक सशक्त राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रार्दुभाव हुआ और 1857 के कुछ ही वर्षों के बाद भारत में राष्ट्रीयता का प्रवाह दिखायी देने लगा। जिन कारणों से भारत में राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय जागृति की भावना को जन्म दिया, उनमें सबसे महत्वपूर्ण एवं अग्रगण्य कारक सामाजिक एवं धार्मिक पुनर्जागरण था।
19वीं सदी में समाज सुधार हेतु अनेक आन्दोलन हुए। महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज और केरल में श्री नारायण धर्म परिपालन सभा ने सुधार का काम शुरू किया। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखण्ड आदि राज्यों में सुधार हेतु उच्च स्तर पर आन्दोलन हुए। इसके साथ कोल, भील मुण्डा संथाल आदि जनजातीय आन्दोलन, सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना का उत्कृष्ट निदर्शन है। अहमदिया और अलीगढ़ आन्दोलन, सिंह सभा और रहनुमाई मजदेयासान सभा क्रमशः मुसलमानों, सिखों व पारसियों के बीच उभरी सुधारवादी शक्तियाँ रहीं हैं। हाँलांकि ये सभी संगठन और आन्दोलन सिर्फ अपने-अपने धर्म से ही जुड़े थे और क्षेत्र-विशेष तक ही सीमित रहे, लेकिन इन सबमें एक विशेष समानता यह रही कि ये सभी आन्दोलन सामान्य चेतना की धार्मिक अभिव्यक्ति थे।
इन आन्दोलनों का प्रबल समर्थन धार्मिक सुधारों की तरफ ही था, फिर भी इनमें से किसी भी आन्दोलन का चरित्र पूरी तरह धार्मिक नहीं थां इनकी अंतः प्रेरणा मानववाद थी। 19 वीं शताब्दी के सुधारकों के मत में मानववाद स्पष्टतः परिलक्षित होता है। यथा- अक्षय कुमार और विद्यासागर ने इस तरह के प्रश्नों पर किसी किस्म की चर्चा से साफ इनकार कर दिया था। ईश्वर है या नहीं, यह पूछे जाने पर विद्यासागर का जवाब था कि ‘‘ईश्वर के बारे में सोचने के लिए मेरे पास वक्त नहीं है क्योंकि अभी तो इस धरती पर ही बहुत काम किया जाना है।’’ बंकिमचन्द्र और विवेकानन्द ने इहलौकिक उद्देश्यों के लिए धर्म के प्रयोग पर जोर दिया और कहा कि धर्म को मनुष्य की भौतिक समस्याओं का समाधान करना चाहिए। विवेकानन्द ने एक बार कहा था, ‘तुम्हारी भक्ति और मुक्ति की परवाह किसे है, कौन इसकी परवाह करता है कि तुम्हारे धर्म ग्रन्थ क्या कहते हैं? मैं बड़ी खुशी से एक हजार बार नरक जाने को तैयार हूँ, अगर इससे मैं अपने देशवासियों को ऊँचा उठा सकूँ।’’
19वीं सदी का भारतीय समाज धार्मिक अंधविश्वासों के जाल में जकड़ा हुआ था। इसके चलते सामाजिक सुधार का कार्य बहुत कठिन था। मैक्स वेबर ने लिखा है कि हिन्दू धर्म दरअसल ‘‘ जादू, अंधविश्वास और अध्यात्मवाद की खिचड़ी’’ बनकर रह गया था। ईश्वर की पूजा की जगह पशु-बलि और शारीरिक यातना जैसी जघन्य प्रथाओं का सिलसिला शुरू हो गया था। जनमानस पर पुजारियों और धर्माचार्यों का जबरदस्त असर था। मूर्तिपूजा और बहु-देवोपासना ने पुजारियों और धर्माचार्यों के इस वर्चस्व को कायम रखने में और भी मदद की। सारे आध्यात्मिक ज्ञान का वीणा उन्होंने ही ले लिया था और धार्मिक रिवाजों व नियमों की वे मनमानें ढंग से व्याख्या करते थे।
प्रख्यात समाज सुधारक राममोहन राय के अनुसार, इन पुजारियों ने धर्म को धोखाधड़ी और पाखण्ड के तन्त्र में बदल दिया था, धर्मभीरू लोग ‘अदृश्य और सर्वशक्तिमान ईश्वर को तो सर्वोपरि मानते ही थे, इन पुजारियों की इच्छा, आज्ञा और मर्जी को भी ईश्वरीय आदेश की तरह ही सिर झुकाकर स्वीकार करते थे। ऐसा कोई भी कार्य नहीं था, जिसे धर्म का नाम लेकर लोगों से कराया न जा सके। वस्तुस्थिति यह थी कि पुजारियों, धार्माचार्यों की यौन तुष्टि के लिए महिलाएं खुद अपने आपको समर्पित कर देती थीं।
उस समय रूढि़ग्रस्त हो चुके धर्म का मौसेरा भाई जाति प्रथा भी कई तरह के सामाजिक-आर्थिक शोषण का हथियार बनी हुई थी। संस्कार और कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था समाज को उच्च और निम्न वर्गों में विभाजित करने और लोगों के अलग-अलग सामाजिक स्थिति को यथावत रखने के लिए पोषित की जा रही थी। इसने समाज को इतने खण्डों में बाँट रखा था कि उसमें गतिशीलता ही नहीं रह गई थी, समाज जैसे जड़ हो गया था। इसकी सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात थी, छुआछूत, जिसके चलते ‘शूद्र’ को व्यक्ति की स्थिति प्राप्त नहीं थी। इसके अतिरिक्त अन्य कई प्रकार के सामाजिक नियन्त्रण, अंधविश्वास, धार्मिक कट्टरता, अंध-भाग्यवाद और अधिकार जैसे कारक भी थे, जिन्होने समाज को कई स्तरों पर विभाजित कर रखा था और जड़ बना रखा था।
सुधारवादी आन्दोलनों ने इन विषयों को पतनोन्मुख समाज के लक्षण की संज्ञा दी और इनका विरोध शुरू किया। इन आंदोलनों ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया शुरू करने के लिए प्रथमतः सामाजिक वातावरण तैयार करने का कार्य हाथ में लिया। इसके लिए सुधारवादियों ने लोगों के समक्ष सुनहरे अतीत का निदर्शन प्रस्तुत किया।
19वीं सदी में भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में सुधारों का प्रशस्त मार्ग राजा राम मोहन राय द्वारा ब्रह्म समाज की स्थापना के साथ प्रारम्भ हुआ इस श्रृंखला को केशव चन्द्र सेन, हेनरी विवियन डेरोजियो, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, शिवनाथ शास्त्री, सैय्यद अहमद खाँ, एनी बेसेन्ट, मुहम्मद इकबाल, शिवदयाल साहब, अरविन्द घोष, बाबा साहेब अम्बेडकर, गाँधी, लोहिया, जे0पी0 नारायण आदि सुधारकों ने अपने चिन्तन और व्यक्तिगत प्रयास से आगे बढ़ाया और समाज में कुछ मूलभूत परिवर्तनों की शुरूआत की। देशी भाषा एवं देशी साधनों के माध्यम से भारत में आधुनिकीकरण की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया।
इन आन्दोलनों का वास्तविक स्वरूप मध्यमवर्गीय था, जिससे सामान्य व्यक्ति तक इनकी पहुँच सुनिश्चित नहीं की जा सकी। बौद्धिक वर्ग की वैचारिक सूक्ष्मता भी इसका एक कारण बना।
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि ये आन्दोलन धर्म से ऊपर नहीं उठ सके। धार्मिक विश्वासों व प्रतीकों का इन्होनें सहारा लिया। परिणाम यह हुआ कि इनके कार्यक्षेत्र विभाजित होते गए। फिर इनके द्वारा विषय भी अलग-अलग उठाए जाते थे। इस तरह इनमें आन्तरिक द्वन्द्व व अन्र्तविरोध व्याप्त था। सबसे बड़ी बात तो यह कि कई सुधारक स्वयं ही रूढि़मुक्त नहीं हो पाए थे। केशवचन्द्र सेन का उदाहरण इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है जिन्होंने सामाजिक तौर पर बाल-विवाह विरोधी होते हुए भी अपनी अल्पवयस्क पुत्री का विवाह कूच, विहार के महाराज से कर दिया। सैयद अहमद खाँ तथा इकबाल के प्रारम्भिक राष्ट्रवादी विचारों तथा बाद के पृथकतावादी विचारों में भी यह अन्र्तविरोध और धार्मिक कट्टरता स्पष्ट परिलक्षित होती है।
सुधारकों द्वारा अतीत से प्रेरणा ग्रहण करना आन्दोलन की एक अन्य कमी थी जो गैर-वैज्ञानिक होने के साथ-साथ गैर-ऐतिहासिक भी थी। स्वामी दयानन्द द्वारा वेदों की ओर लौटने के उद्घोष का निहितार्थ यह था कि वेदोत्तर गत तीन हजार वर्षों की भारतीय सभ्यता की उपलब्धियाँ शून्य थी। वैदिक काल के उस स्वर्ण युग में चूँकि निम्न वर्ग के लोगों की भूमिका नगण्य अथवा अस्पष्ट थी, इसलिए अतीत के गौरवगान में यह वर्ग शामिल नहीं था। इससे वर्गीय भेदभाव का विस्तार हुआ। मध्य युग की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ इसमें शामिल न होने के कारण मुसलमान भी इससे विरत रहे और अपनी जाति के अन्तर्गत ही सुधारों की प्रक्रिया शुरू की, जिसका क्षेत्र भी संकीर्ण रहा। यही संकीर्णता व कट्टरता आगे चलकर साम्प्रदायिकता के उभार की एक वजह बनी। हिन्दुओं की बात करें तो उनका धार्मिक अनुभव वैदिक धर्म को काफी पीछे छोड़ चुका था।
इस आन्दोलन में जो कठिनाई थी वह तत्कालीन परिस्थितियों का परिणाम थी। औपनिवेशिक पृष्ठभूमि की अपनी सीमाएँ थी।, जिसका आन्दोलन के स्वरूप और कार्य प्रणाली पर नकारात्मक प्रभाव अनिवार्यतः पड़ना ही था। राजनीतिक व आर्थिक दासता की बेडि़यों में जकड़े रहकर सामाजिक सुधार की बात प्रवंचना पूर्ण थी। ऐसे में यदि गुंजाइश थी भी तो केवल सीमित उदारवादी सुधारों की। सामाजिक या सांस्कृतिक क्रान्ति की नहीं।
आन्दोलन के उदारवादी चरित्र के कारण ही पश्चिम के उदारवादी तत्व इनसे समुचित सामंजस्य स्थापित किये और अंग्रेजों द्वारा इनका अपने हित में उपयोग किया जाना सम्भव हो सका। इन सबसे एक ऐसा वातावरण उत्पन्न हुआ जिसने ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध की भावना को अभिव्यक्त होने से रोके रखा। सम्मोहन के इस वातावरण में देश की वास्तविक सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं को ठीक से समझ पाना कठिन हो गया।
किन्तु इन समस्त बातों का यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि उक्त समाज सुधार आन्दोलनों की कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि थी ही नहीं, निःसन्देह पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान व विचारों के सम्पर्क से भारतीयों की सोच व दृष्टिकोण में मूलभूत परिवर्तन दिखाई दिए।
इस सम्पर्क के प्रति भारतीयों की बहुमुखी प्रतिक्रिया ने सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर अनेक दूरगामी परिणाम उत्पन्न किए। समाज की तत्कालीन जड़ता खत्म हुई और प्रगति का संदेश वहाँ पहुँचा। धार्मिक व सामाजिक बुराइयों का अन्त कर समानता, स्वतन्त्रता एवं मानवतावादी मूल्यों को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न शुरू हुआ। विशेषकर अछूतोद्धार, नारियों की स्थिति में सुधार एवं शिक्षा के प्रसार की दिशा में सराहनीय कार्य किया गया।
आन्दोलन की वजह से शेष विश्व के साथ भारत का अलगाव खत्म हुआ। धार्मिक व सामाजिक सुधारों के आपसी जुड़ाव से राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता दीर्घकालीन समय से महसूस की जाने लगी। इसके परिणामस्वरूप आगामी राष्ट्रीयता का उभरकर सामने आयी।
सबसे बड़ी उपलब्धि इस आन्दोलन की यह रही कि समानता, स्वतन्त्रता एवं जागरण का संदेश इसने एक ऐसे समय पर दिया जब सम्पूर्ण देश परतन्त्रता की बेडि़यों में आबद्ध था और जनता अंधविश्वास, रूढि़वादिता व अज्ञान के अन्धकार में भटक रही थी।
वैसे भी उपनिवेशों में राष्ट्रीय जागरण का उभार सामान्य रूप से विदेशी शासन के विरूद्ध प्रतिक्रिया के रूप में ही देखा जाता रहा है। भारत भी इसका अपवाद नहीं था। समाज सुधार आन्दोलन एवं सांस्कृतिक जागरण ने इस प्रतिक्रिया को एक सशक्त बौद्धिक आधार और मनोवैज्ञानिक प्रेरणा प्रदान की। देश को पराधीनता की बेडि़यों से छुटकारा दिलाने में इन्होंने सहायक की भूमिका अवश्य निभाई है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. सुरेन्द्र नाथ सेन, एटिन फिफ्टी सेवन, नई दिल्ली, 1957
2. ए0एम0 जैदी और ए0 जी0 जैदी, इनसाइक्लोपीडिया आॅफ द इंडियन नेशनल काँग्रेस, खण्ड-8, नई दिल्ली, एस0 चन्द एण्ड कम्पनी, 1980, पृ0 - 607
3. फड़के सोर्स-मैटेरियल्स फाॅर ए हिस्ट्री आॅफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया खण्ड-1
4. रूडोल्फ कृत मार्डनिटी आॅफ टेªडिशन, शिकागो, 1967
5. रजनी कोठारी, कास्ट इन इंडियन पाॅलिटिक्स, नई दिल्ली, 1970
(यू0 जी0 सी0 / नेट)
भारत में 1857 के विद्रोह के उपरान्तएक सशक्त राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रार्दुभाव हुआ और 1857 के कुछ ही वर्षों के बाद भारत में राष्ट्रीयता का प्रवाह दिखायी देने लगा। जिन कारणों से भारत में राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय जागृति की भावना को जन्म दिया, उनमें सबसे महत्वपूर्ण एवं अग्रगण्य कारक सामाजिक एवं धार्मिक पुनर्जागरण था।
19वीं सदी में समाज सुधार हेतु अनेक आन्दोलन हुए। महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज और केरल में श्री नारायण धर्म परिपालन सभा ने सुधार का काम शुरू किया। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखण्ड आदि राज्यों में सुधार हेतु उच्च स्तर पर आन्दोलन हुए। इसके साथ कोल, भील मुण्डा संथाल आदि जनजातीय आन्दोलन, सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना का उत्कृष्ट निदर्शन है। अहमदिया और अलीगढ़ आन्दोलन, सिंह सभा और रहनुमाई मजदेयासान सभा क्रमशः मुसलमानों, सिखों व पारसियों के बीच उभरी सुधारवादी शक्तियाँ रहीं हैं। हाँलांकि ये सभी संगठन और आन्दोलन सिर्फ अपने-अपने धर्म से ही जुड़े थे और क्षेत्र-विशेष तक ही सीमित रहे, लेकिन इन सबमें एक विशेष समानता यह रही कि ये सभी आन्दोलन सामान्य चेतना की धार्मिक अभिव्यक्ति थे।
इन आन्दोलनों का प्रबल समर्थन धार्मिक सुधारों की तरफ ही था, फिर भी इनमें से किसी भी आन्दोलन का चरित्र पूरी तरह धार्मिक नहीं थां इनकी अंतः प्रेरणा मानववाद थी। 19 वीं शताब्दी के सुधारकों के मत में मानववाद स्पष्टतः परिलक्षित होता है। यथा- अक्षय कुमार और विद्यासागर ने इस तरह के प्रश्नों पर किसी किस्म की चर्चा से साफ इनकार कर दिया था। ईश्वर है या नहीं, यह पूछे जाने पर विद्यासागर का जवाब था कि ‘‘ईश्वर के बारे में सोचने के लिए मेरे पास वक्त नहीं है क्योंकि अभी तो इस धरती पर ही बहुत काम किया जाना है।’’ बंकिमचन्द्र और विवेकानन्द ने इहलौकिक उद्देश्यों के लिए धर्म के प्रयोग पर जोर दिया और कहा कि धर्म को मनुष्य की भौतिक समस्याओं का समाधान करना चाहिए। विवेकानन्द ने एक बार कहा था, ‘तुम्हारी भक्ति और मुक्ति की परवाह किसे है, कौन इसकी परवाह करता है कि तुम्हारे धर्म ग्रन्थ क्या कहते हैं? मैं बड़ी खुशी से एक हजार बार नरक जाने को तैयार हूँ, अगर इससे मैं अपने देशवासियों को ऊँचा उठा सकूँ।’’
19वीं सदी का भारतीय समाज धार्मिक अंधविश्वासों के जाल में जकड़ा हुआ था। इसके चलते सामाजिक सुधार का कार्य बहुत कठिन था। मैक्स वेबर ने लिखा है कि हिन्दू धर्म दरअसल ‘‘ जादू, अंधविश्वास और अध्यात्मवाद की खिचड़ी’’ बनकर रह गया था। ईश्वर की पूजा की जगह पशु-बलि और शारीरिक यातना जैसी जघन्य प्रथाओं का सिलसिला शुरू हो गया था। जनमानस पर पुजारियों और धर्माचार्यों का जबरदस्त असर था। मूर्तिपूजा और बहु-देवोपासना ने पुजारियों और धर्माचार्यों के इस वर्चस्व को कायम रखने में और भी मदद की। सारे आध्यात्मिक ज्ञान का वीणा उन्होंने ही ले लिया था और धार्मिक रिवाजों व नियमों की वे मनमानें ढंग से व्याख्या करते थे।
प्रख्यात समाज सुधारक राममोहन राय के अनुसार, इन पुजारियों ने धर्म को धोखाधड़ी और पाखण्ड के तन्त्र में बदल दिया था, धर्मभीरू लोग ‘अदृश्य और सर्वशक्तिमान ईश्वर को तो सर्वोपरि मानते ही थे, इन पुजारियों की इच्छा, आज्ञा और मर्जी को भी ईश्वरीय आदेश की तरह ही सिर झुकाकर स्वीकार करते थे। ऐसा कोई भी कार्य नहीं था, जिसे धर्म का नाम लेकर लोगों से कराया न जा सके। वस्तुस्थिति यह थी कि पुजारियों, धार्माचार्यों की यौन तुष्टि के लिए महिलाएं खुद अपने आपको समर्पित कर देती थीं।
उस समय रूढि़ग्रस्त हो चुके धर्म का मौसेरा भाई जाति प्रथा भी कई तरह के सामाजिक-आर्थिक शोषण का हथियार बनी हुई थी। संस्कार और कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था समाज को उच्च और निम्न वर्गों में विभाजित करने और लोगों के अलग-अलग सामाजिक स्थिति को यथावत रखने के लिए पोषित की जा रही थी। इसने समाज को इतने खण्डों में बाँट रखा था कि उसमें गतिशीलता ही नहीं रह गई थी, समाज जैसे जड़ हो गया था। इसकी सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात थी, छुआछूत, जिसके चलते ‘शूद्र’ को व्यक्ति की स्थिति प्राप्त नहीं थी। इसके अतिरिक्त अन्य कई प्रकार के सामाजिक नियन्त्रण, अंधविश्वास, धार्मिक कट्टरता, अंध-भाग्यवाद और अधिकार जैसे कारक भी थे, जिन्होने समाज को कई स्तरों पर विभाजित कर रखा था और जड़ बना रखा था।
सुधारवादी आन्दोलनों ने इन विषयों को पतनोन्मुख समाज के लक्षण की संज्ञा दी और इनका विरोध शुरू किया। इन आंदोलनों ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया शुरू करने के लिए प्रथमतः सामाजिक वातावरण तैयार करने का कार्य हाथ में लिया। इसके लिए सुधारवादियों ने लोगों के समक्ष सुनहरे अतीत का निदर्शन प्रस्तुत किया।
19वीं सदी में भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में सुधारों का प्रशस्त मार्ग राजा राम मोहन राय द्वारा ब्रह्म समाज की स्थापना के साथ प्रारम्भ हुआ इस श्रृंखला को केशव चन्द्र सेन, हेनरी विवियन डेरोजियो, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, शिवनाथ शास्त्री, सैय्यद अहमद खाँ, एनी बेसेन्ट, मुहम्मद इकबाल, शिवदयाल साहब, अरविन्द घोष, बाबा साहेब अम्बेडकर, गाँधी, लोहिया, जे0पी0 नारायण आदि सुधारकों ने अपने चिन्तन और व्यक्तिगत प्रयास से आगे बढ़ाया और समाज में कुछ मूलभूत परिवर्तनों की शुरूआत की। देशी भाषा एवं देशी साधनों के माध्यम से भारत में आधुनिकीकरण की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया।
इन आन्दोलनों का वास्तविक स्वरूप मध्यमवर्गीय था, जिससे सामान्य व्यक्ति तक इनकी पहुँच सुनिश्चित नहीं की जा सकी। बौद्धिक वर्ग की वैचारिक सूक्ष्मता भी इसका एक कारण बना।
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि ये आन्दोलन धर्म से ऊपर नहीं उठ सके। धार्मिक विश्वासों व प्रतीकों का इन्होनें सहारा लिया। परिणाम यह हुआ कि इनके कार्यक्षेत्र विभाजित होते गए। फिर इनके द्वारा विषय भी अलग-अलग उठाए जाते थे। इस तरह इनमें आन्तरिक द्वन्द्व व अन्र्तविरोध व्याप्त था। सबसे बड़ी बात तो यह कि कई सुधारक स्वयं ही रूढि़मुक्त नहीं हो पाए थे। केशवचन्द्र सेन का उदाहरण इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है जिन्होंने सामाजिक तौर पर बाल-विवाह विरोधी होते हुए भी अपनी अल्पवयस्क पुत्री का विवाह कूच, विहार के महाराज से कर दिया। सैयद अहमद खाँ तथा इकबाल के प्रारम्भिक राष्ट्रवादी विचारों तथा बाद के पृथकतावादी विचारों में भी यह अन्र्तविरोध और धार्मिक कट्टरता स्पष्ट परिलक्षित होती है।
सुधारकों द्वारा अतीत से प्रेरणा ग्रहण करना आन्दोलन की एक अन्य कमी थी जो गैर-वैज्ञानिक होने के साथ-साथ गैर-ऐतिहासिक भी थी। स्वामी दयानन्द द्वारा वेदों की ओर लौटने के उद्घोष का निहितार्थ यह था कि वेदोत्तर गत तीन हजार वर्षों की भारतीय सभ्यता की उपलब्धियाँ शून्य थी। वैदिक काल के उस स्वर्ण युग में चूँकि निम्न वर्ग के लोगों की भूमिका नगण्य अथवा अस्पष्ट थी, इसलिए अतीत के गौरवगान में यह वर्ग शामिल नहीं था। इससे वर्गीय भेदभाव का विस्तार हुआ। मध्य युग की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ इसमें शामिल न होने के कारण मुसलमान भी इससे विरत रहे और अपनी जाति के अन्तर्गत ही सुधारों की प्रक्रिया शुरू की, जिसका क्षेत्र भी संकीर्ण रहा। यही संकीर्णता व कट्टरता आगे चलकर साम्प्रदायिकता के उभार की एक वजह बनी। हिन्दुओं की बात करें तो उनका धार्मिक अनुभव वैदिक धर्म को काफी पीछे छोड़ चुका था।
इस आन्दोलन में जो कठिनाई थी वह तत्कालीन परिस्थितियों का परिणाम थी। औपनिवेशिक पृष्ठभूमि की अपनी सीमाएँ थी।, जिसका आन्दोलन के स्वरूप और कार्य प्रणाली पर नकारात्मक प्रभाव अनिवार्यतः पड़ना ही था। राजनीतिक व आर्थिक दासता की बेडि़यों में जकड़े रहकर सामाजिक सुधार की बात प्रवंचना पूर्ण थी। ऐसे में यदि गुंजाइश थी भी तो केवल सीमित उदारवादी सुधारों की। सामाजिक या सांस्कृतिक क्रान्ति की नहीं।
आन्दोलन के उदारवादी चरित्र के कारण ही पश्चिम के उदारवादी तत्व इनसे समुचित सामंजस्य स्थापित किये और अंग्रेजों द्वारा इनका अपने हित में उपयोग किया जाना सम्भव हो सका। इन सबसे एक ऐसा वातावरण उत्पन्न हुआ जिसने ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध की भावना को अभिव्यक्त होने से रोके रखा। सम्मोहन के इस वातावरण में देश की वास्तविक सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं को ठीक से समझ पाना कठिन हो गया।
किन्तु इन समस्त बातों का यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि उक्त समाज सुधार आन्दोलनों की कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि थी ही नहीं, निःसन्देह पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान व विचारों के सम्पर्क से भारतीयों की सोच व दृष्टिकोण में मूलभूत परिवर्तन दिखाई दिए।
इस सम्पर्क के प्रति भारतीयों की बहुमुखी प्रतिक्रिया ने सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर अनेक दूरगामी परिणाम उत्पन्न किए। समाज की तत्कालीन जड़ता खत्म हुई और प्रगति का संदेश वहाँ पहुँचा। धार्मिक व सामाजिक बुराइयों का अन्त कर समानता, स्वतन्त्रता एवं मानवतावादी मूल्यों को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न शुरू हुआ। विशेषकर अछूतोद्धार, नारियों की स्थिति में सुधार एवं शिक्षा के प्रसार की दिशा में सराहनीय कार्य किया गया।
आन्दोलन की वजह से शेष विश्व के साथ भारत का अलगाव खत्म हुआ। धार्मिक व सामाजिक सुधारों के आपसी जुड़ाव से राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता दीर्घकालीन समय से महसूस की जाने लगी। इसके परिणामस्वरूप आगामी राष्ट्रीयता का उभरकर सामने आयी।
सबसे बड़ी उपलब्धि इस आन्दोलन की यह रही कि समानता, स्वतन्त्रता एवं जागरण का संदेश इसने एक ऐसे समय पर दिया जब सम्पूर्ण देश परतन्त्रता की बेडि़यों में आबद्ध था और जनता अंधविश्वास, रूढि़वादिता व अज्ञान के अन्धकार में भटक रही थी।
वैसे भी उपनिवेशों में राष्ट्रीय जागरण का उभार सामान्य रूप से विदेशी शासन के विरूद्ध प्रतिक्रिया के रूप में ही देखा जाता रहा है। भारत भी इसका अपवाद नहीं था। समाज सुधार आन्दोलन एवं सांस्कृतिक जागरण ने इस प्रतिक्रिया को एक सशक्त बौद्धिक आधार और मनोवैज्ञानिक प्रेरणा प्रदान की। देश को पराधीनता की बेडि़यों से छुटकारा दिलाने में इन्होंने सहायक की भूमिका अवश्य निभाई है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. सुरेन्द्र नाथ सेन, एटिन फिफ्टी सेवन, नई दिल्ली, 1957
2. ए0एम0 जैदी और ए0 जी0 जैदी, इनसाइक्लोपीडिया आॅफ द इंडियन नेशनल काँग्रेस, खण्ड-8, नई दिल्ली, एस0 चन्द एण्ड कम्पनी, 1980, पृ0 - 607
3. फड़के सोर्स-मैटेरियल्स फाॅर ए हिस्ट्री आॅफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया खण्ड-1
4. रूडोल्फ कृत मार्डनिटी आॅफ टेªडिशन, शिकागो, 1967
5. रजनी कोठारी, कास्ट इन इंडियन पाॅलिटिक्स, नई दिल्ली, 1970
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