Thursday 1 April 2010

मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा व्यवस्था


विजय शंकर शुक्ला (शोधकर्ता)
डाॅ0 रमाकांत यादव (निर्देशक)
चै0 चरण सिंह पी0जी0 काॅलेज, इटावा


मानव सामाजिक प्राणी है। उसमें ज्ञान प्राप्त करने व ज्ञान की क्षुधा-तृप्त करने की असीम अभिलाषा व क्षमता रहती है। वह विविध विषयों का अध्ययन, उनकी मीमांसा, अन्वेषण, विश्लेषण करने में असीम आनन्द का अनुभव करता है। ज्ञान द्वारा वह अपने लोक-परलोक के ऐहिक, लौकिक व धार्मिक जीवन तथा अपने व्यक्तित्व को सुधारने की आकांक्षा रखता है। मध्यकाल में मुस्लिम समाज के शिक्षाविदों, धार्मिक व्यक्तियों, चिन्तकों व विचारकों का ध्यान शिक्षा की ओर गया। क्योंकि बिना अरबी भाषा के ज्ञान को प्राप्त किए आम मुसलमान न तो कुरान को पढ़ या कण्ठस्थ कर सकता था, न शासन के नियमों को समझ सकता था और न मुहम्मद साहब द्वारा दिखाए गये मार्ग पर विधिवत् चल सकता था। उसके जीवन में शिक्षा का बड़ा महत्व था। इस काल में इस्लामी शिक्षा का सर्वागीण विकास हुआ। शिक्षा का मुख्य आधार धर्म था।
सर्वप्रथम इस्लामी शिक्षा का लक्ष्य मुसलमानों में ज्ञान की वृद्धि करना था। मुहम्मद साहब के अनुसार ज्ञान प्राप्त करना एक कर्तव्य है और बिना उसकी मुक्ति नहीं मिल सकती।1 प्रत्येक मुसलमान पुरूष और स्त्री के लिए ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है।2 मकतबों में बच्चो को प्रारम्भ से कुरान पढ़ायी जाती थी, जिससे उन्हें इस्लाम के मूल सिद्धान्तों के विषय में जानकारी हो सके।3  मुहम्मद साहब के अनुसार शिक्षा से बढ़कर कोई दूसरा उपहार नहीं है, जो माता-पिता अपने बच्चे को दे सकें।4 उनका कहना था कि ‘विद्वान की स्याही शहीद के रक्त से अधिक पवित्र है।5
इस्लामी शिक्षा का दूसरा लक्ष्य इस्लाम का प्रसार करना था। जबकि तीसरा लक्ष्य इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार सदाचार की एक विशिष्ट प्रणाली का विकास करना था।6 और इसका चैथा लक्ष्य भौतिक सुख प्राप्त करना था। लेकिन इसका सबसे बड़ा दोष यह था कि यह लोगों को उच्च पद प्राप्त करने के लिए प्रलोभन देता था। यही कारण था कि मुस्लिम शासक विद्यार्थियों को प्रशासन में सिपहसलार, काजी, वजीर आदि पदों पर नियुक्त करते थे।7 बहुत से हिन्दुओं ने भी उच्च पद प्राप्त करने की लालसा में फारसी भाषा का अध्ययन किया और उन्हें ऊँचे पदों पर रखा गया।
मध्य युग में शैक्षणिक कार्य प्रणाली, धर्माचार्यों और रहस्यवादियों द्वारा नियंत्रित की जाती थी। यही कारण था कि शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता था।8  हजरत अब्दुल कुद्दूस गंगोही ‘ज्ञानार्जन का लक्ष्य जीवन में अपने कर्तव्यों का पालन करना है। बिना ज्ञान के इस्लाम में वास्तविक आस्था नहीं हो सकती है। समस्त ज्ञान का लक्ष्य ईश्वर का प्रेम प्राप्त करना है।9
भारत में तुर्की सत्ता की स्थापना के उपरान्त मुसलमानों ने शिक्षा के प्रसार हेतु अनेक प्रकार की संस्थाओं जैसे कि मकतब, मदरसे, खानकाहों की स्थापना की। मुसलमान परिवारों में शिशु की शिक्षा विस्मिल्लाहखानी या मकतव संस्कार से प्रारम्भ होती थी। शिशु की आयु जब 4 वर्ष 4 माह 4 दिन की हो जाती थी तो उसके माता-पिता बड़े धूमधाम से विस्मिल्लाहखानी या अक्षर बोध का संस्कार मौलवी या काजी द्वारा सम्पन्न करवाते थे। इस अवसर पर शिशु से वर्णमाला का प्रथम अक्षर ‘अलिफ’, तख्ती पर लिखवाया जाता था। उसके बाद सम्पन्न परिवारों में शिशु को प्रारम्भिक शिक्षा देने के लिए शिक्षक नियुक्त किये जाते थे। इन शिशुओं का ज्ञान वर्ण माला, कुरान के पाठ, सुलेख व्याकरण आदि विषयों तक ही सीमित रहता था। इसके पश्चात् कुछ बड़े होने पर उन्हें साहित्य इतिहास तथा नीतिशास्त्र इत्यादि विषयों का अध्ययन करना पड़ता था। वे पदनामा, आमदनामा, मुलिस्ताँ, बोस्ताँ, हार-ए-दानिश तथा सिकन्दरनामा का अध्ययन करते थे। जो विद्यार्थी इसके उपरान्त शिक्षा नहीं ग्रहण करते थे उन्हें मुँशी तथा जो उच्च शिक्षा ग्रहण करते थे उन्हें मौलाना, मौलवी या फाजिल की पदवियाँ दी जाती थी। जो विद्यार्थी केवल अरबी की शिक्षा प्राप्त करते थे उन्हें कुरान के अतिरिक्त मुहम्मद साहब की जीवनी से सम्बन्धित ग्रन्थ, कुरान की टीकाएँ तसउफ्फ, दर्शन तथा अन्य विषयों का अध्ययन करना पड़ता था।
इस काल में शिक्षा प्रणाली में शिक्षा संस्थाओं का महत्वपूर्ण स्थान था। सम्पन्न परिवारों के घरों में बैठक में परिवार व आसपास के शिशु प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे। इस बैठक को मकतब कहते थे। इस मकतब के शिक्षक के भरण-पोषण का उत्तरदायित्व उस परिवार पर ही रहता था। जिन परिवारों के बच्चे वहाँ शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे, वे भी उसकी आर्थिक सहायता करते थे।
शिक्षा का दूसरा केन्द्र मदरसा था। राज्य द्वारा स्थापित मदरसों को राज्य की ओर से वित्तीय सहायता मिलती थी। ताजुल मआसिर के रचयिता हसन निजामी के अनुसार मुहम्मद गौरी ने अजमेर में अनेक मदरसों की स्थापना की। भारत में यह मदरसे अपने ही ढंग के थे। लखनौती में मुहम्मद बिन बख्यियार खिल्जी ने अनेक मदरसों की स्थापना की। इल्तुतमिश ने मुहम्मद गौरी के नाम पर दिल्ली में मुइज्जी मदरसे की स्थापना की। इसी नाम का एक मदरसा बदायूँ में स्थापित हुआ। रजिया ने नासिरिया मदरसे की स्थापना दिल्ली में की व मिनहाज को उसका आचार्य नियुक्त किया। कड़ा के कवि मुतहर ने अपनी दीवान में लिखा है कि फिरोज शाह ने अनेक मदरसों की स्थापना की। उसने स्वयं दिल्ली के हौज-ए-खास के पास फिरोजशाही मदरसा देखकर उसका वर्णन किया। जलाउद्दीन रूमी इस मदरसे के प्राचार्य थे। वे कुरान को 7 नियमों से पढ़ सकते थे तथा 14 विधाएँ जानते थे। हदीस के पाँच प्रसिद्ध संग्रहों का उन्हें ज्ञान था। यहाँ के विद्यार्थियों को तफ्सीर, फिकह व हदीस पढ़ाया करते थे। सिकन्दर लोदी ने मथुरा व नरवर में मदरसों की स्थापना की। इसी काल में उसने सम्भल में मदरसा स्थापित किया तथा वहाँ शेख अब्दुल्लाह को प्राचार्य नियुक्त किया। इसी प्रकार देश के विभिन्न भागों में मुसलमान अमीरों व शासकों ने अनेक मदरसों की स्थापना की। शिक्षा का तृतीय महत्वपूर्ण केन्द्र सूफी सन्तों की खनकाह थी। अजमेर में शेख मुइउद्दीन चिश्ती की, खनकाह दिल्ली में शेख निजामुद्दीन औलिया की खनकाह सीदी मौला की खनकाह, शिक्षा के सुप्रसिद्ध केन्द्र थे।
इस काल के महान कवियों में अमीर खुसरों का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसकी पद्य में अनेक ऐतिहासिक रचनाएं भी उपलब्ध हैं जैसे (1) केरान-उस-सादैन (2) मिफता उल-फुतूह (3) देवल रानी व खिज्र खाँ (4) नुहसिपेहर। उसने गद्य में (1) एजाज-ए-खुसरवी (2) अफजल लफवायद (3) तथा खजा इन उल फूतूह की रचना की। अमीर खुसरों ने आठ वर्ष की आयु से कविता लिखना प्रारम्भ किया। उसने तुर्की, फारसी, अरबी तथा हिन्दवी का गहन अध्ययन किया तथा फारसी के सभी कवियों की रचनाओं का भी अध्ययन किया।
पूर्व मध्यकाल में इतिहास लेखन की सही परम्परा का विकास सल्तनत काल से ही होता है। इस काल के प्रसिद्ध इतिहासकारों में ताजुल मासीर का रचयिता हसन-निजामी, तवकाते नासिरी के लेखक मिनहाज उस सिराज, तारीख-ए-फिरोज शाही व फतवाए जहाँदारी के लेखक जियाउद्दीन बरनी, फुतहउस सलातीन के लेखक एसामी, तारीख-ए-फिरोजशाही के लेखक अफीफ, तारीख-ए-मुबारकशाही के लेखक यहिया बिन अहमद सरहिन्दी, तारीफ-ए-मुहम्मदी के लेखक मुहम्मद विहमन्द खानी थे।
सल्तनत काल की भाँति मुगलकाल में भी मुस्लिम शिक्षा का मुख्य उद्देश्य आत्मा की शुद्धि, सन्तुलित आचरण, उत्तम व्यवहार व मानव के सभी गुणों का विकास करना था। मुगलकाल के शिक्षाविदों के विचार में इन उद्देश्यों की प्राप्ति केवल धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा प्रदान करके ही की जा सकती थी। मुगल सम्राट स्वयं शिक्षित थे अतः उन्होंने शिक्षा के प्रसार की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया। अकबर महान प्रथम मुगल सम्राट था जिसने शिक्षा प्रणाली में इस प्रकार के परिवर्तन किए कि धार्मिक एवं धर्म निरपेक्ष शिक्षा दोनों ही साथ-साथ दी जा सके।
पूर्वकाल की भांति मुगलकाल में भी शिक्षा के वही केन्द्र थे। बाबर स्वयं एक विद्वान और कवि था। उसकी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ एक अद्वितीय ग्रन्थ है। लेकिन अपने अल्प शासनकाल में शिक्षा के प्रसार के लिये वह कुछ नहीं कर सका। हुमायूँ ने दिल्ली में एक बड़ा मदरसा बनवाया और शेख हुसैन को उसका प्राचार्य नियुक्त किया। हुमायूँ के मकबरे में भी एक मदरसा खोला गया। वह स्वयं भूगोल, गणित व ज्योतिष में रूचि रखता था।
हुमायूँ की मृत्यु के बाद अकबर ने शिक्षा के प्रसार के लिये कार्य किया। यद्यपि वह पढ़ा-लिखा नहीं था, उसके समय में शिक्षा के सभी क्षेत्र में प्रगति हुई। उसने विद्वानों को सरकार की तरफ से वजीफे और जागीरें दीं। उसने सभी धार्मिक वर्गों के विद्वानों की प्रोत्साहन दिया। उसने अबुल फज्ल की सलाह से शिक्षा के विस्तार के लिये पाठ्यक्रम और नियमावली बनायी। उसने परम्परागत शिक्षा प्रणाली में सुधार किया और इस सम्बन्ध में राजकीय आदेश निकालें।
अकबर की शिक्षा नीति को उस समय के एक बड़े विद्वान् शीराजी ने प्रभावित किया। वह अनेक विषयों का ज्ञाता था, उसने दर्शनशास्त्र और मकूलात में विशेष योग्यता प्राप्त की थी। तकनीकी शिक्षा के विकास में उसका बहुत योगदान था। उसने बड़ी बन्दूक और तोप बनाने में लोहे को पक्का करके उसका उपयोग किया। उसकी रूचि छोटे बालकों को पढ़ाने में थी। अबुल फज्ल का पुत्र उसका शिष्य था।
शिराजी ने कारखानों में अपना प्रयोग किया और उसके द्वारा कारखानों की उत्पादन क्षमता में विकास हुआ। जेसुइट पादरी मांसरेट ने इन कारखानों की प्रशंसा की है। अकबर ने तकनीकी शिक्षा के विकास में व्यक्तिगत रूचि दिखलाई। उसने आगरा, फतेहपुर सीकरी और अन्य स्थानों पर मदरसे बनवायें। उसने बहुत सी संस्कृत की पुस्तकों का अनुवाद फारसी भाषा में कराया। उसके समय में हिन्दुओं ने अरबी और फारसी भाषाएँ सीखीं।
जहाँगीर स्वयं विद्वान् होकर भी शिक्षा का प्रेमी नहीं था। फिर भी उसने विद्वानों को प्रोत्साहन दिया। उसने चित्रकला के विकास में बहुत योगदान दिया। शाजहाँ स्वयं तुर्की भाषा में पारंगत था। उसके शासनकाल में एक प्रसिद्ध गणितज्ञ ने नक्षत्रों की एक तालिका बनाई और उलुगबेग द्वारा बनाई हुई पहले की तालिका में संशोधन किया। इसका नाम ‘जिचे शाहजहाँनी’ रखा। शाहजहाँ ने विद्वानों को संरक्षण दिया। उसके कृपापात्र विद्वानों में चन्द्रभान ब्राह्मण प्रमुख था जो एक उच्चकोटि का लेखक था। उसकी लिखी हुई पुस्तक ‘मेशाते ब्राह्मण’ पाठ्यक्रम में बहुत दिनों तक रही। शाहजहाँ ने जिन दूसरे विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया उनके नाम थे अब्दुल हकीम सियालकोटी, मुल्ला मुहम्मद काजिल और काजी मुहम्मद असलम। शाहजहाँ की पुत्री जहाँनारा बेगम ने आगरा की जामा मसजिद से संलग्न एक मदरसा खोला जो बहुत समय तक प्रख्यात रहा। शाहजहाँ का पुत्र दारा एक विद्वान् था। वह अरबी, फारसी और संस्कृत भाषाओं का ज्ञाता था। उसने उपनिषद्, भगवद्गीता, योग वाशिष्ठ का अनुवाद फारसी में किया। औरंगजेब ने शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के उद्देश्य से शिक्षा प्रणाली में सुधार किया। उसने पाठ्यक्रम को व्यावहारिक बनाया बहुत से मकतबों और मदरसों की स्थापना की और उनमें इस्लामी शिक्षा के प्रसार के लिए व्यवस्था की। उसने राज्य के ग्रन्थालय में बहुमूल्य पुस्तकों को रखवाया। वह पाठ्यक्रम में किसी ऐसी पुस्तक  को नहीं रखना चाहता था जो उसके विचारों के प्रतिकूल है। उसके समय में शेख मुहीबुल्ला एलाहाबादी की पुस्तकें प्रचलित थी।
सल्तनल काल की भाँति मुगलकाल मे मुसलमान समाज ने कभी भी स्त्रियों की शिक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान न दिया गया। स्त्रियों के लिए पर्दे में रहना अनिवार्य था। अतएव बाल्यावस्था में ही वे थोड़ी बहुत शिक्षा घर या मस्जिदों से संलग्न मकतबों में या व्यक्तिगत शिक्षिकाओं से ग्रहण कर सकती थीं। मुस्लिम समाज में केवल शाही परिवार की स्त्रियों को छोड़कर अन्य वर्गों की बालिकाओं या स्त्रियों को शिक्षा देने का चलन न था।
मुगल राज परिवार में सुशिक्षित महिलाओं में केवल गुलबदन बेगम, सलीमा, सुल्तान, नूरजहाँ, मुमताजमहल, जहाँनारा, जीनत उन्निसा बेगम आदि थीं। इनमें से गुलबदन बेगम, सलीमा सुल्तान, नूरजहाँ, मुमताज जेबुन्निसा के व्यक्तिगत पुस्तकाल्य थे। जिनमें विभिन्न विषयों पर पुस्तकें थीं। गुलबदन की कृति हुमायूँनामा ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थी परन्तु साहित्यिक दृष्टि से यह कृति साधारण थी। परन्तु सलीमा सुल्तान, नूरजहाँ व जेबुन्निसा की रचनाएँ उच्च कोटि की थीं।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद राजनैतिक अव्यवस्था हो गई, जिससे मुगलों की केन्द्रीय सरकार शिक्षा के प्रसार के लिए कुछ नहीं कर सकी।
सन्दर्भ सूची
1. चैबे डा0 झारखण्डे और श्रीवास्तव डा0 कन्हैया लाल - मध्ययुगीन भारतीय समाज एवं संस्कृति।
2. कीथ एफ0ई0, आपसिट, पृष्ठ सं0-107, ए0 रशीद, सोसाइटी एण्ड कल्चर व इन मेडिवल इण्डिया, कलकत्ता 1969, पृ0 सं0-150
3. रावत पी0एल0, हिस्ट्री आॅफ इण्डियन
4. वही          
5. वही
6. रावत पी0एल0, आपसिट - पृ0सं0-84
7. वही
8. जाफर एस0एम0, ऐजूकेशन, पृ0सं0-4
9. रसीद ए0एल0, आपसिट- पृ0सं0-150
10. मकताबे, हजरत अब्दुल कुद्दूस गंगोही पत्र सं0-68, पृष्ठ-95 (अनुवाद एस0एच0) असकरी, हजरत अब्दुल कुद्दूस गंगोही, पटना यूनिवार्सिटी, जर्नल, 19 पृष्ठ सं0-13-14
11. प्रो0 राधेश्याम - मध्यकालीन प्रशासन, समाज संस्कृति पृ0 - 295