Thursday 1 April 2010

प्राचीन भारतीय आर्थिक जीवन (1000 ई0पू0 से 600 ई0पू0 तक)


सुनीता
शोध छात्रा, प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी


किसी भी समाज का उत्कर्ष वहाँ के मनुष्य के आर्थिक जीवन की सम्पन्नता, समुन्नति और सुख-सुविधा पर निर्भर करता है। वेबर के अनुसार आर्थिक कार्यक्रम व्यक्ति के मानवीय सम्बन्ध के साथ-साथ सामाजिक सम्बन्ध को भी अभिव्यक्त करता है।1 यद्यपि मनुष्य का आर्थिक कार्यक्रम समय-समय पर घटता-बढ़ता रहता है और कभी-कभी परिवर्तित भी हो जाता है, किन्तु इसका मूल आधार कृषि और व्यापार हमेशा ही समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। आर्थिक जीवन को सहज रूप प्रदान करने वाली ये दोनों ही शक्तियाँ समाज के उत्कर्ष में सक्रिय सहयोग प्रदान करती हैं और समाज के विकास को स्वाभाविक गति देती है।
मनुष्य अपने कार्य और योजनाओं के द्वारा अपने तथा अपने परिवार के साथ-साथ अपने समाज के उत्कर्ष में सहायता प्रदान करता है। वस्तुओं के उत्पादन तथा उसके व्यवस्थित रूप से सुलभता के लिए प्रयत्न करता है। अपने आर्थिक प्रयत्नों और योजनाओं से मनुष्य अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताआंे की पूर्ति करता है और इसके लिए वह भोजन जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के अतिरिक्त अन्य वांछित वस्तुओं को भी ग्रहण करता है। उद्योग तथा उनकी उत्पादित वस्तुयें और लाभ प्राप्त करने के लिए सेवाओं का शोषण भी समाज मंे होता रहता है।2 ये प्रक्रियायें विश्व के प्रत्येक समाज में समान रूप से विकसित होती है। इस प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप समाज मंे दो वर्ग बन गये। एक वर्ग शोषण करने वाला था जो धनी या उच्च वर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ तो दूसरा वर्ग शोषित था जो निर्धन या निम्न वर्ग के रूप में सामने आया। पहले वर्ग के पास बहुत अधिक सम्पत्ति थी तो दूसरा वर्ग ‘‘माषक’’ या ‘‘अर्धमाषक’’ ही कमा पाता था और जैसे-तैसे अपना तथा अपने परिवार का पोषण कर पाता था।3
भारतीय समाज के आर्थिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि इस क्षेत्र मंे भी भारतीय जीवन दर्शन पर आधारित पुरुषार्थों का विशेष महत्त्व होता है। भारतीय दर्शन में चार पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष अपना विशिष्टतम स्थान रखते हैं और इसमें भी ‘अर्थ’ एक प्रधान तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। समाज के वर्णाश्रम व्यवस्था और पुरूषार्थ के बीच मंे अत्यन्त घनिष्ट सम्बन्ध रहा है और यह सम्बन्ध सैद्धान्तिक ही नहीं अपितु व्यावहारिक भी प्रतीत होता है। वर्ण और आश्रम के अन्तर्गत रहकर व्यक्ति चारों पुरूषार्थों के माध्यम से अपने दैनिक आवश्यकताआंे की पूर्ति करता था तथा अपने और अपने समाज का भौतिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष करता था। मनुष्य को अपनी मनोवांछित वस्तुओं की प्राप्ति अर्थ द्वारा ही होती है। अतः ‘अर्थ’ मनुष्य को भौतिक और लौकिक सुख प्रदान करने वाला है। महाभारत में इसे उच्चतम धर्म मानकर इसकी महत्ता को स्वीकार करते हुये यह कहा गया है कि यह समाज का प्रधान आधार तत्त्व है।4
कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में ‘अर्थ’ की आवश्यकता और महत्ता स्वीकार की है और इसे संसार का मूल माना है।5 कुछ ऐसे ही विचार वृहस्पति ने भी दिये हैं।6 याज्ञवल्क्य7 और नारद8 ने भी धर्मशास्त्र के साथ-साथ अर्थशास्त्र की महत्ता प्रतिपादित की है। धन के अन्तर्गत ही द्रव्य, वित्त, हिरण्य आदि को समाहित किया गया है। इनका आकलन आर्थिक सम्पत्ति के रूप में ही किया जाता है जिसे मनुष्य के भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए अत्यन्त आवश्यक तत्त्व की रूप मंे प्रतिष्ठित किया गया है।
प्राचीन भारतीय साहित्यों में संसार को एक सम्पन्न व्यक्ति के रूप में देखा गया है। ऋग्वेद के समय मंे जिसमें समृद्धि सम्बन्धी अनेक प्रार्थना-मंत्र हैं, भौतिक सम्पन्नता साधारण व्यक्ति के लिए नैतिक रूप से प्राप्य तथा पूर्ण एवं सुसंस्कृत जीवन के लिए आवश्यक मानी जाती थी। जीवन के चार आश्रमों में गृहस्थाश्रम को पर्याप्त क्षेत्र प्राप्त है क्योंकि इसी आश्रम के अन्तर्गत मनुष्य को पारिवारिक समृद्धि के निर्माण और उसका कुछ अंश ऐन्द्रिक सुख की प्राप्ति के लिए व्यय करने का प्रोत्साहन दिया जाता था।
इस प्रकार प्राचीन भारत के आदर्श यद्यपि लालसापूर्ण पश्चिमी देशों के आदर्शों के समान नहीं थे तथापि इसमें कहीं भी अर्थार्जन का निषेध नहीं किया गया है। प्राचीन भारतीय समाज का अध्ययन करने पर हम यह पाते हैं कि भारतवर्ष में केवल विलासप्रिय और सुखोपभोगी कला अनुरागियों का ही वर्ग नहीं था अपितु वैभव की खोज करने वाले व्यापारियों और सम्पन्न कारीगरों के साथ-साथ श्रमिकों का भी एक वर्ग था जो यद्यपि ब्राह्मणों और क्षत्रियों की अपेक्षा न्यूनतम आदर का पात्र था, किन्तु समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता था।
आर्थिक विकास की आधार शिला:
भारत में आर्थिक इतिहास को हम लगभग 2500 ई०पू० से देख सकते हैं। इस समय एक प्रकार की शहरी सभ्यता का उदय हुआ था जिसकी प्रमुख विशेषता थी कांस्य प्रौद्योगिकी का उपयोग। इस काल को कांस्ययुगीन संस्कृति कहने के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि पत्थरों के प्रचुर मात्रा में उपयोग के बाद भी इस काल में कांस्य और तांबे के बने औजार प्रचुर मात्रा में प्रयोग किये जाते थे।9 सिंधु घाटी में कांस्य से बने उपकरणों का युद्ध और उत्पादन दोनों क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता था। फलतः यह सभ्यता कृषक वर्ग के अतिरिक्त उत्पादन पर भी आधारित थी। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो अपने विशाल भवनों और अनाज भंडारों के लिए प्रसिद्ध थे। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि समाज का अतिरिक्त उत्पादन शहरों मंे इकट्ठा किया जाता था। किन्तु जो कृषक समुदाय हड़प्पाई नगरों को पोषण प्रदान करते थे उनके सम्बन्ध में हमें समुचित ज्ञान प्राप्त नहीं हो सका है। शहर के चारों ओर हड़प्पाई मृदभाण्डों के वितरण से यह संकेत मिलता है कि कृषि आधार इतना विस्तृत और मजबूत था कि अनेक शहरों को आश्रय दे सके।
हड़प्पा समाज मंे शासक, व्यापारी और शिल्पकार रहते थे। ये अपने जीवन निर्वाह के लिये किसानों के अतिरिक्त उत्पादन पर निर्भर रहते थे जो शहर के चारों तरफ स्थित गाँवों में रहते थे। हमें इस काल के कृषि उत्पादन के उपकरणों और पद्धतियों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं मिल पायी है। कालीबंगन मंे हल से खेती के प्रमाण अवश्य मिलते हैं किन्तु हल की फाल किस चीज की बनती थी इसके बारे में कुछ पता नहीं है। चँूकि वैदिक काल में लकड़ी के फालों का प्रयोग किया जाता था अतः हम यह सम्भावना व्यक्त कर सकते हैं कि इस काल में भी सम्भवतः लकड़ी के फालों का प्रयोग होता हो।
इस काल में किसान समुचित मात्रा में अन्न (चावल, गेहँू, जौ, तिल और मटर) का उत्पादन करते थे, जिसकी मात्रा उनके स्वयं के उपयोग से ज्यादा होती थी। इस अतिरिक्त उत्पादन को वे गाडि़यों, नावों और भारवाही पशुओं द्वारा शहरों को हस्तातंरित कर देते थे, जहाँ के लोग व्यापार और वाणिज्य के काम में लगे होते थे। यह खाद्यान्न स्पष्ट ही मजदूरी के रूप में वितरित किया जाता होगा, क्योंकि हमें अनाज संग्रह की कार्यप्रणाली की कोई जानकारी नहीं है। साथ ही हमें इसकी भी जानकारी नहीं है कि वितरण और उपभोग में कौन सी प्रक्रिया अपनायी जाती थी।
वाणिज्य के क्षेत्र में हम पाते हैं कि हड़प्पा संस्कृति का झुकाव पूर्व की अपेक्षा पश्चिम की ओर अधिक था। यह सम्भावना व्यक्त करने का प्रमुख आधार यह है कि 2500 ई०पू० से 1800 ई०पू० के बीच (विशेष रूप से 2400 ई०पू० के बाद) कुछ हड़प्पाई मुहरें सुमेर या निम्न मेसोपोटामियां से मिली हैं।10 सुमेरियाई मूलग्रन्थों मंे यह उल्लिखित है कि हाथीदाँत, गोमेद, मोर तथा चिडि़यों की लघु मूर्तियाँ सुमेर मंे मेलुहा से आते हैं जिसकी पहचान पश्चिमी भारत के रूप में की गयी हैं11 हड़प्पावासी भारी मात्रा में समुद्री व्यापार करते थे। लोथल और मोहनजोदड़ो से हमें जल पर तैरती हुयी नौका के मिट्टी के बने माॅडल प्राप्त हुये हैं और हड़प्पाई मुहरों पर भी नावें चित्रित हैं। गुजरात के समुद्र तटों पर अनेक हड़प्पाई स्थलों के होने से भी यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। हड़प्पा का विदेशी व्यापार कमोवेश विलासिता तथा प्रतिष्ठा की वस्तुओं तक सीमित था और आम लोगों के आर्थिक जीवन को ज्यादा प्रभावित नहीं करता था।12
हड़प्पा कालीन शहरों मंे जहाँ चैराहे वाली सड़के हैं, जल-निकासी की विकसित व्यवस्था है, पक्की ईंटों के मकान हैं, वहीं इनके उचित बन्दोबस्त के लिए भारी संख्या में राज-मिस्त्रियों, बढ़इयों, कोयला बनाने वालांे, लोहारों, सर्वेक्षकों, इन्जीनियरों और गाडि़वानों की भी जरूरत पड़ती होगी। इनकी अर्थव्यवस्था संचालन की आन्तरिक क्रिया विधि क्या थी, इसे पता लगाने का हमारे पास साधन नहीं है किन्तु यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रौद्योगिकी में सुधार करके जब तक नये क्षेत्रों को खेती योग्य बनाकर उत्पादन बढ़ाने के कदम न उठाये गये हों तब तक ऐसा संभव नहीं था कि ग्रामीण आधार नगरीय ढाँचे के बोझ को बराबर उठाये रख सकते।
आगे भी भारतीय समाज की आर्थिक स्थिति का विकास क्रमशः होता रहा। आर्य लोग भौतिक और प्रौद्योगिकीय दृष्टि से कुछ बेहतर स्थिति में थे। हालांकि उनका समाज बहुत अधिक सुगठित और सुव्यवस्थित नहीं था, क्योंकि प्रारम्भिक अवस्था मंे ये यायावरी जीवन व्यतीत करते थे। स्पष्ट है कि इस प्रकार की जीवन शैली के अन्तर्गत ये कृषि कार्य नहीं करते होंगे या अपेक्षाकृत कम करते होेंगे। ये अपने साथ अपने पशुओं को लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते थे। ऋग्वेद से हमें अनेक ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह पता चलता है कि आर्यों ने अपने यायावारी जीवन को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अनार्यों से अनेक युद्ध किये।13 स्पष्ट है कि ये युद्ध आर्थिक अस्तित्व के लिए किये गये और आर्यों ने इसमें सफलता भी प्राप्त की। उत्तरवैदिक युग तक आर्य साधन-सम्पन्न हो गये। कृषि कार्य को भी इन्होंने अधिकाधिक रूप से समुन्नत कर लिया।
पूर्व वैदिक युग में आर्यों का कृषि सम्बन्धी ज्ञान शैशवावस्था में था अतः इस काल में बहुत अधिक विकसित कृषि के साक्ष्य नहीं मिलते फिर भी हम देखते हैं कि कृषि सम्बन्धी आर्यों का आकर्षण अत्यन्त उत्साहवर्धक था। ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है कि भूमि को हल से जोता जाता था और हल को छह, आठ या बारह बैल मिलकर खींचते थे।14 कटे हुये अनाज खलिहान में इकट्ठे किये जाते थे, जहाँ उन्हंे मंडित किया जाता था।15 अन्न की ‘उस्र्दर’ नामक बर्तन से माप की जाती थी16, तथा चलनी या सूप में ओसाया जाता था।17 इसके अतिरिक्त हमें सिंचाई से सम्बन्धित तथ्यों की जानकारी भी होती है। कुएँ से पानी खींचने के लिए चरस, वरत और गरारी का प्रयोग किया जाता था18 और उन्हें खेतों तक चैड़ी नालियों के माध्यम से पहुँचाया जाता था19 नहरों के प्रयोग के भी उल्लेख मिलते हैं।20 फसलों को कीड़ों और टिड्डियों से बचाने के उपाय भी किये जाते थे।21
इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋग्वैदिक आर्य कृषि के प्रति जागरूक थे और इसकी उन्नति के लिए भी प्रयासरत थे। इसके साथ ही अर्थव्यवस्था के दूसरे पहलू पशुपालन पर भी समान रूप से ध्यान देते थे। वे विभिन्न पशुओं को पालतू भी बनाने लगे थे, जिनमें गाय, बैल, भेड़, बकरी, घोड़ा अधिक महत्त्वपूर्ण थे। गाय इनके पशु-धन में विशेष स्थान रखती थी और इनकी देख-रेख करने वाले को गोपाल कहते थे।22 उत्तरवैदिक काल मंे कृषि के निमित्त गाय, बैल आदि पशुओं का उपयोग किया जाता था।23 सुपुत्रांे के साथ-साथ गाय और घोड़ों को भी धन-सम्पत्ति के रूप में माना जाता था।24 भूमि को अधिक उपजाऊ बनाने के लिए पशुओं के गोबर (करीब) का खाद के रूप में प्रयोग किया जाता था, फलतः इनका और अधिक महत्त्व बढ़ जाता था। तैत्तिरीय उपनिषद् में अन्न को ब्रह्म की संज्ञा दी गयी है और कहा गया है कि समस्त प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं और अन्न द्वारा ही उनका जीवन पोषित होता है। नष्ट होने के बाद सभी अन्न में मिल जाते हैं और अन्ततोगत्वा एकरूप हो जाते हैं।25
वार्ता मंे ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों का कोई योगदान देखने को नहीं मिलता है। वैश्य वर्ण के लोग ही कृषि से सम्बद्ध थे और इसके विकास हेतु निरन्तर प्रयत्नशील थे।26 किन्तु खेतों पर श्रम का जो कार्य होता था वो शूद्रांे द्वारा किया जाता था जो अनेक प्रकार से खेतों की देखभाल भी किया करते थे।27 अथर्ववेद में उल्लिखित है कि वे खेतों को ऐसे हल से जोतते थे जिसकी मूठ लकड़ी की बनी होती है।28
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रारम्भिक युग में कृषि और पशुपालन का पर्याप्त विकास हुआ था। इसके साथ ही व्यापार एवं वाणिज्य का भी समुचित विकास हो रहा था। अतः हम कह सकते हैं कि ई॰पू॰ 1000 से ई॰पू॰ 600 तक की कालावधि में भारत की आर्थिक स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ अवस्था में थी।
सन्दर्भ
1. वेबर, मैक्स- द स्टडी आॅफ सोशल एण्ड इकनाॅमिक आर्गनाइजेशन, पृ० 150-54
2. कार्ल माक्र्स- कैपिटल 1, पृ० 371-82
3. अवदान प्प्- पृ० 357
4. महाभारत, उद्योग पर्व 72.23-24
5. संस्थाया धर्मशास्त्रेण शास्त्रं वा व्यावहारिकम्।
यस्मिन्नर्थे विरूध्यते धर्मेणार्थं विनिश्चयेत्।। अर्थशास्त्र 1.70 10-11
6. वृहस्पति 6.7-12
7. स्मृत्यो विरोधे न्यायस्तु बलवान् व्यवहारत्।
अर्थशास्त्रास्तु बलवर्द्धमशास्त्रमिति स्थितिः।। याज्ञवल्क्य स्मृति 2.21
8. यत्र विप्रतिपत्तिः स्याद्धर्मशास्त्रार्थशास्त्रयोः।
अर्थशास्त्रोक्तमुत्सृज्य धर्म शास्त्रोक्तमाचरेत्।। नारद स्मृति 1.1.39
9. व्हीलर, मार्टिमर- दि इंडस सिविलाइजेशन, कैब्रिज पृ० 78
10. शर्मा, आर०एस०- प्रारम्भिक भारत का आर्थिक और सामाजिक इतिहास, पृ० 131
11. थापर, रोमिला-जर्नल आॅफ दि इकनाॅमिक एण्ड सोशल हिस्ट्री आॅफ दि ओरिएण्ट ग्टप्प्प् (1975) पृ० 1-42
12. शर्मा, आर०एस०- पूर्वोद्धृत, पृ० 131
13. ऋग्वेद 4.16.13, 4.30.21
14. ऋग्वेद 8.6.48, 10.101.4
15. ऋग्वेद 10.48.7
16. ऋग्वेद 2.14.11
17. ऋग्वेद 10.71.2
18. वही 10.101.5-6
19. वही 8.69.12
20. वही 3.45.3, 10.99.4
21. वही 10.68.1
22. वही 4.15.6, 8.22.2, 7.55.3
23. शतपथ ब्राह्मण 2.4.3.13, 3.1.2.13, 4.5.6.10
24. ऋग्वेद 5.4.11
25. तैत्तिरीय उपनिषद् 3.31
26. काठक संहिता 37.1
27. कात्यायनी श्रौत सूत्र 22.10
28. अथर्ववेद 3.17.3