Thursday 1 April 2010

वल्लभ वेदान्त में भक्ति: एक विमर्श


कु० अनीता
शोधच्छात्रा (संस्कृत विभाग), डी.ई.आई. दयालबाग़, आगरा


श्री वल्लभाचार्य ने भक्ति के क्षेत्र में जिस मार्ग का प्रवर्तन किया उसे ‘पुष्टि-मार्ग’ या ‘अनुग्रह-मार्ग’ के नाम से जाना जाता है। पुष्टिमार्ग के अनुसार मुक्ति भक्ति से सम्भव है और भक्ति भगवदनुग्रह से। प्रभु-कृपा ही भक्त के सम्पूर्ण कार्यों की नियामक है। जिस भक्त पर भगवद्-अनुग्रह हो जाता है, वह भक्त मुक्ति का अधिकारी होता है। श्री वल्लभ के उपास्य देव सगुण रसरूप श्रीकृष्ण हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण के दो रूप मानें हैं-एक रसरूप ‘ब्रज-कृष्ण’ तथा दूसरा ‘धर्म-संस्थापक रूपधारी मथुरा-द्वारिका-कृष्ण’।
‘पुष्टि’ शब्द का अर्थ है- पोषणं तदनुग्रहः(1) अर्थात् भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करना। सब प्रकार से अपने आपको भगवान् की शरण में समर्पित कर देना ही पुष्टि-भक्ति है। इसमें भक्त भगवद्-प्रेम में डूबकर अलौकिक तत्त्व का स्मरण करते हुए मोह-माया, सुख-दुःख तथा अपने-पराये को भुलाकर दीनतापूर्वक प्रभु की सेवा करता है। भक्त भगवान् की अनुचर भाव से सेवा करते हुए परमानन्द की अनुभूति करता है। षोड्श-ग्रन्थ ‘बालबोध’ में वल्लभाचार्य ने लिखा है कि, अहंकार, ममता इत्यादि के नाश से साधक के स्वार्थमुक्त हो जाने पर सभी इन्द्रियों के आस्वाद्य पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण के स्वरूपभूत आनन्द का अनुभव किया जाता है-
  अहंताममतानाशे सर्वथा निरहंकृतौ। स्वरूपस्थो यदा जीव कृतार्थः स निगद्यते।(2)
आचार्य वल्लभ ने जीवों के तीन भेद किये हैं- पुष्टि-मार्गी, मर्यादा-मार्गी और प्रवाह-मार्गी। इन्हीं तीनों भेदों के आधार पर भक्ति भी तीन प्रकार की मानी है-पुष्टि पुष्ट भक्ति, मर्यादा-पुष्ट-भक्ति और प्रवाह-पुष्ट-भक्ति। इन तीनों के अतिरिक्त उन्होंने एक चैथी भक्ति भी मानी है जोकि लोकातीत है- शुद्ध-पुष्टि-भक्ति। यह भक्त की सिद्धावस्था है।
इस प्रकार श्री वल्लभ ने पुष्टि-भक्ति के चार भेद किये हैं-
1. प्रवाह-पुष्टि-भक्ति - यह प्रवाह-जीवों की भक्ति है। इस भक्ति के अन्तर्गत आने वाले जीव इस व्यावहारिक संसार के मोह-माया में, पड़कर भी ऐसे कार्यों का सम्पादन करते हैं, जिनमें भगवद्-प्राप्ति सम्भव होती है।
2. मर्यादा-पुष्टि-भक्ति - इसका अनुशरण करने वाले जीव सांसारिक विषयों में आसक्ति को त्यागकर इन्द्रियों को वश में करके भगवद्लीला के श्रवण, मनन और कीर्तन आदि के द्वारा अपने मन को भगवान् की ओर लगाते हैं।
3. पुष्टि-पुष्ट-भक्ति- इसमें भक्त भगवान् का अनुग्रह प्राप्त कर भक्ति के सहगामी ज्ञान को अर्जित करते हैं।
4. शुद्ध-पुष्टि-भक्ति - शुद्ध-पुष्टि-भक्ति में जीव ईश्वर-प्रेम में ही मग्न रहते हैं। ऐसी भक्ति करने वाले भक्त को वल्लभ-मत में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसकी सिद्धि भगवदनुग्रह से ही सम्भव है। भक्त और भगवान् में परस्पर अटूट सम्बन्ध होना ही इसका लक्ष्य है।
भक्ति के परिपे्रक्ष्य में ‘नारद-भक्ति-सूत्र’ में कहा गया है कि  भक्ति ईश्वर के प्रति परमप्रेमरूपा एवं अमृत स्वरूपा है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है तथा तृप्त हो जाता है। उस भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न शोक करता है, न द्वेष करता है, न किसी वस्तु में आसक्त होता है। उस प्रेम-स्वरूपा भक्ति को पाकर साधक प्रेमोन्मत्त, शान्त और आत्माराम बन जाता है-
सा त्वस्मिन् परम प्रेम रूपा, अमृत स्वरूपा च
यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धोभवति, अमृतो भवति।(3)
‘शांडिल्य-भक्ति-सूत्र’ में कहा है कि ईश्वर में अनुरक्ति ही भक्ति है-
सा परानुरक्तिरीश्वरे(4)
गोपेश्वर महाराज के मत में भक्ति एक ऐसा प्रेम है जिसका चरमोत्कर्ष प्रगाढ़ आनन्द में होता है-
यथा योगे वियोगे-वृत्तिः प्रेम तथा वियोगे योग-वृत्तिरपि प्रेम।(5)
श्री वल्लभाचार्य की शुद्ध-पुष्टि-भक्ति विशुद्ध-प्रेम का ही पर्याय है और इस की सिद्धि विरह से होती है इसलिए पुष्टि-भक्ति के श्रवण, कीर्तन और स्मरणादि सभी साधन विरहात्मक हैं। पुष्टि-भक्ति-मार्गी भक्त जब आराध्य के विरह में तन्मय होकर व्याकुल होता है और उसका रोम-रोम अपने इष्ट के विरह से व्यथित होने लगता है तब भक्त को क्लेश-युक्त देखकर अन्तस्थ प्रभु ब्रह्म रूप में आविर्भूत होते हैं। इस सम्बन्ध में श्री वल्लभ ‘तत्त्वार्थ-दीप-निबन्ध’ में लिखते हैं- भगवान् के प्रति महात्म्य ज्ञान, रखते हुए जो सुदृढ़ और सबसे अधिक स्नेह है, वही भक्ति है-
महात्म्य ज्ञान पूर्वस्तु सुदृढ़ सर्वतोऽधिकः।
स्नेहो भक्तिरिति प्रोक्तस्तयामुक्तिर्न चान्यथा।।(6)
श्री वल्लभ-वेदान्त में भक्ति के लिए दो बातें मुख्य हैं- प्रथम, ईश्वर के प्रति उत्कृष्ट प्रेम तथा दूसरी ईश्वर का निरन्तर ध्यान। पुष्टिमार्गीय भक्तों के लिए सम्पूर्ण कार्यों का नियामक भगवान् के अनुग्रह को ही बताया है-
अनुग्रहः पुष्टिमार्गे नियामक इति स्थितिः।(7)
श्री वल्लभाचार्य ने भक्ति का प्रचार-प्रसार ज्ञान के साधन के रूप नहीं किया। उनके मत में भक्ति का लक्ष्य ज्ञान अथवा मोक्ष न होकर प्रेम की पूर्णावस्था को प्राप्त करना है। इसमें पराभक्ति (निष्काम प्रेम) को प्राप्त करना ही साध्य है। भगवत्-प्रेम के अतिरिक्त कोई अन्य काम्य पदार्थ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना भक्त नहीं करता। इसलिए इस भक्ति को प्रेम-लक्षणा-भक्ति, अनुग्रह-भक्ति या पुष्टि-भक्ति कहा जाता है। प्रेम-भक्ति की भाव-समाधि में भगवान् के नाम और लीला द्वारा जिस परमानन्द और ईश्वर की रूप-सुधा का अनुभव भक्त करता है, उसे ‘भजनान्द’ कहा है-
ब्रह्मसंपद्यापिस्थितस्य जीवस्य प्रभोरत्यनुग्रहवशात् स्वरूपात्मकभजनान्दादित्सायां तत्कृत आविर्भावो भवत्येव।(8)
भगवान् की भक्ति कैसे की जाये? इस विषय में वल्लभाचार्य जी का मत है कि भगवान् सर्वभाव से भजनीय हैं। उनके अनुसार इस लोक के दुःखहर्ता तथा परलोक के बनाने वाले श्रीकृष्ण ही भगवान् हैं-
   एहिक परलोके च सर्वथा शरणं हरिः।  दुःखहानौ तथा पापे भये कामाद्यापूरणे।।(9)
भक्ति में, द्रोह में, प्रेम में सभी भावों में एकमात्र श्रीकृष्ण की ही शरण है-
भक्तृ द्रोहे भक्त यभावे भक्तैश्चापिकये कृते।
क्रिया प्रोक्तेन बहुनाशरणं भावयेद्धरिम्।।(10)
उपर्युक्त सभी प्रकार की भक्तियों का फल वल्लभाचार्य के अनुसार नित्य-लीला में अन्तःप्रवेश है। सभी पुष्टि-भक्तों के नित्य लीला में प्रविष्ट होने पर भी गुण-स्वरूप भेद से फल-स्वरूप भगवान् की प्राप्ति होती है-
गुणस्वरूपभेदेन तथा तेषां फलं भवेत।(11)
भक्ति के साधनों में श्री वल्लभाचार्य ने ‘नवधा-भक्ति’ (श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, वन्दन, दास्य, सख्य तथा आत्मा-निवेदन) के साथ-साथ ‘प्रेम लक्षणा’ नामक दसवीं भक्ति को भी माना है। इसके अन्तर्गत उन्होंने वात्सल्य तथा माधुर्य भावों को सम्मिलित किया है। उन्होंने ‘भक्तिवर्धिनी’ (श्लोक-3) में प्रेम-लक्षणा भक्ति की तीन अवस्थाओं का वर्णन किया है, वे हैं- स्नेह, आसत्ति और व्यसन। वे ‘स्नेह’ को भक्ति का सर्वप्रमुख तत्व मानते हैं। उनके अनुसार भगवान् के माहात्म्य का ज्ञान होने पर भगवान् के प्रति जो सुदृढ़ एवं सर्वाधिक स्नेह होता है, वही भक्ति है-
   महात्म्य ज्ञानपूर्वस्तु सर्वतोधिकः।  स्नेहो भक्तिरिति प्रोक्तास्तया मुक्तिर्नचान्यथा।।(12)
स्नेह के पश्चात् भगवान में ‘आसक्ति’ उत्पन्न होती है जिसके फलस्वरूप भक्त भगवान् में ही पूर्णरूपेण मन को लगाये रखता है। तत्पश्चात् उसे भगवान् में ‘व्यसन’ होता है। जब भक्त को भगवद्-व्यसन प्राप्त हो जाता है तब उसे संसार की कोई भी वस्तु अच्छी नहीं लगती। वह भगवान् में रमण करते हुए ही सर्वदा आनन्दित रहता है।
श्री वल्लभाचार्य के मत में भक्ति मुक्ति का साधन है परन्तु उसका महत्व मुक्ति से भी अधिक है। मुक्ति में जिस आनन्द का अनुभव होता है वह आत्मिक है परन्तु भक्त को जो रसानुभव होता है, वह इन्द्रियों तथा अन्तःकरण के द्वारा ही अनुभूत होता है। श्री वल्लभ ने इन्द्रियों तथा अन्तःकरण के द्वारा आनन्द का अनुभव करने वाले भक्तों की महत्ता जीवन्मुक्तों से भी अधिक मानी है-
  तथापि न प्रलीयन्ते जीवन्मुक्तगताः स्फुरम्,  आसन्यस्य हरेवापि सेवया देवभावतः।(13)
वल्लभाचार्य ने ‘अणुभाष्य’ में ‘सद्योमुक्ति’ तथा ‘क्रममुक्ति’ दो प्रकार की मुक्तियों का उल्लेख किया है। पुष्टि मार्गी भक्त की मुक्ति बिना भिन्न-भिन्न लोकोें में जाये और बिना प्रारब्ध कर्मों के भोगे ही हो जाती है- मर्यादा विपरीत स्वरूपत्वात् पुष्टिमार्गस्य न काचानात्रानुपपत्तिभर्वि नीया। तस्य अत्र भूषणत्वात्।(14) (पुष्टिमार्गी भक्त स्वयं प्रारब्ध नहीं भोगता, यह भगवदीय मर्यादा के विपरीत है, इसमें असम्भावना नहीं माननी चाहिए। यह तो पुष्टिमार्ग का आभूषण है।)
पुष्टि-भक्ति का अन्तिम लक्ष्य जीव के द्वारा भगवान् के लीलाधाम में पहुँचकर भगवद्-सानिध्य से मिलने वाले रसानन्द और स्वरूप-सुधा का पान करना है। यहाँ तक पहुँचने का एकमात्र उपाय भगवदनुग्रह ही हैं। भक्त का भगवान् की नित्य लीला में पहुँचना ही शुद्धाद्वैतमतानुसार मुक्ति है। इस मत में मुक्ति पर अधिक ध्यान न देकर भक्ति पर और भक्ति में भी पुष्टि-भक्ति पर अधिक ध्यान दिया गया है। पुष्टि-भक्ति की अवस्था को प्राप्त करना ही भक्त का सर्वप्रमुख और अन्तिम लक्ष्य है, परम प्राप्तव्य है क्योंकि इसी के परिणामस्वरूप भक्त भगवान् के लीलाधाम में अन्तः प्रवेश पाता है।
सन्दर्भ-
1. भागवत पुराण  - 2/10/4
2. बालबोध (षोडश ग्रन्थ)- 2
3. नारद-भक्ति-सूत्र - 15
4. शाडिल्य-भक्ति-सूत्र - 2
5. भक्ति मात्र्तण्ड, पृ0 75
6. तत्त्वार्थ-दीप-निबन्ध, श्लोक 46, पृ0127
7. सिद्धान्तमुक्तावली (षोडश ग्रन्थ), श्लोक-18
8. ब्रहमसूत्र, अणुभष्य-4/4/1
9. विवेक धैयेश्रय (षोडश ग्रन्थ) श्लोक-8
10. विवेक धैयेश्रय (षोडश ग्रन्थ) श्लोक-9
11. निरोध लक्षण (षोडश ग्रन्थ), श्लोक -17
12. तत्वार्थ- दीप-निबन्ध, प्र०प्र०,पृ० 80
13. तत्वार्थ-दीप-निबन्ध, शास्त्रार्थ प्रकरण, पृ० 77
14. ब्रहमसूत्र, अणुभाष्य- 4/1/17