Thursday 1 April 2010

हिन्दुस्तानी संगीत पर सूफी संगीत का प्रभाव


अर्चना सिंह
शोध छात्रा, आधु0 एवं मध्यकालीन इतिहास विभाग, इला0 विश्व0, इलाहाबाद


आदिकाल से ही रहस्यवाद इंसान की हार्दिक आंतरिक तलाश और सर्वशक्तिमान से सीधा सम्पर्क स्थापित करने का साधन रहा है। संसार के सभी धर्माें, क्षेत्रों और भाषाओं में इसे प्रकट किया गया है। इसीलिए कहा जाता है कि इसकी कोई वंशावली नहीं है, शब्द ‘अहसन’ और ‘भक्ति’ दोनों में ही सर्वशक्तिमान से प्रेम करने की कल्पना मूलरूप से एक ही है इस सर्वशक्तिमान से प्रेम की कल्पना में डूबे हुए सूफियों, ने कैसे संगीत के माध्यम से भारत के दोनों की समुदायों में सामंजस्य व भाईचारे की भावना का विकास किया, कैसे तात्कालीन सूफी सांगीतिक तत्वों को हिन्दुस्तानी संगीत परम्परा ने आत्मसात् किया, तथा क्या इसके अंश वर्तमान समय के संगीत में देखे जा सकते हैं आदि ऐसे प्रश्नों को हमने अपने शोधपत्र का आधार बनाया है।
प्रत्येक धर्म के दो पहलू होते हैं, एक आन्तरिक और एक बाह्य इसी प्रकार इस्लामिक धर्म के बाह्य रूप में उसका सम्बन्ध उसके रीति रिवाजों से होता है जबकि आन्तरिक रूप से उसका सम्बन्ध धर्म के रहस्यवाद आध्यात्मवाद से होता है जिसे ‘‘तसव्वुफ’’ कहा जाता है जो ‘‘सूफी’’ के लिए सर्वाधिक उपयुक्त अरबी शब्द माना जाता है और इसी ‘‘तसव्वुफ’’ में विश्वास रखने वाले सूफी कहे जाते हैं। सूफियों के कई सिलसिले प्रचलित थे। आइने अकबरी में अबुल-फज़ल ने 14 सूफी सिलसिलों का विवरण दिया है किन्तु इसमें 4 ही ऐसे सिलसिले हैं जिनका भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इनमें चिश्ती, सुहरावर्दी, कादिरी और नक्शबन्दी मुख्य हैं।
सूफियों द्वारा प्रयुक्त संगीत को ‘‘समा’’ कहा जाता है। समा अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है पढ़ना, गाना। आरम्भ में सूफी एक जगह जमा हो जाते थे तथा सामूहिक रूप से ईश्वर के नामों का जाप करते थे जब ये जाप करते थे तो उसमें एक प्रकार के संगीत की लय निकालती थी। जिसे ‘‘समा’’ कहा जाता था। सूफियों का मानना था कि जब वे समा करते हैं तो उससे एक प्रकार के आनन्द की अभिव्यक्ति होती है तथा ईश्वर के प्रेम की ज्वाला हृदय में भड़कती है तब लोग भावोद्रेक के कारण अचेत हो जाते हैं झूमते-2 गिर जाते हैं उन्हें हाल आ जाता है। सारांशतः वे समा की पराकाष्ठा पर पहुँचकर सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन धीरे-धीरे इसमें परिवर्तन हुआ, हजरत मोहम्मद साहब की प्रशंसा में गीत गाये जाने लगे और सामूहिक नृत्य भी होने लगे और कुछ वाद्यों का भी उपयोग होने लगा जिसके कारण धर्माचार्यों द्वारा इसकी बहुत आलोचना होने लगी। किन्तु वास्तव में इस्लाम में कहीं भी संगीत को त्याज्य नहीं माना गया है।
वास्तव में इस्लाम में भी ‘समा’ की सत्ता किसी न किसी रूप में बनी रही और अवसर आने पर अनेक बार सूफियों में फूट भी पड़ी सूफी परम्परा के भावधारा का आधार प्रेम हैं जिसे इश्क की संज्ञा से अभिहित किया गया है इश्क मिजाजी से इश्क हकीकी तक पहुँचने का सूफी परम्परा अनुमोदन करती है। प्रेम का मूल है श्रृंगार रस और श्रृंगार रस की अभिव्यंजना के लिए संगीत से सशक्त माध्यम और कोई नहीं हो सकता। परिणामतः सूफी संतों ने अपने आदर्शों, सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार हेतु संगीत को माध्यम के रूप में चुना, संगीत ही वास्तव में ऐसा साधन था जो परस्पर प्रत्येक समुदाय को निकट लाने व प्रेम सौहार्द की भावना में बांधे रख सकता था सम्भवतः यही कारण था कि सूफियों ने तात्कालीन संगीत के कई तत्वों को आत्मसात कर दोनों ही संस्कृतियों के सम्मिश्रण से निर्मित एक नवीन ‘‘सूफीयाना संगीत’’ को जन्म दिया।
इस प्रकार ‘‘समा’’ में गाये जाने वाली गायन शैलियाँ यद्यपि तात्कालीन गायन के मूल प्राण प्रबंध गायन प्रणाली को नहीं समझ सके तथापि भारतीय संगीत की स्वरावलियों ने उन्हें आकर्षित किया। इसी कारण उन्होंने अरबी, फारसी दोनों  का सम्मिश्रण कर कौल, कल्बाना, नक्श-गुल, कव्वाली, गज़ल तराना आदि गायन विधाओं का चित्रण किया।
‘कव्वाली’ के उत्पत्ति व विकास के सन्दर्भ में डाॅ0 रामशर्मा का मत है कि कव्वाली की मुख्य विशेषता अरबी-फारसी, ईरानी-भारतीय संगीत का सम्मिश्रण है’’ परमात्मा की प्रशंसा या उसकी शान में गाना अथवा विरहावस्था में उसका स्मरण करना कव्वाली के माध्यम से सम्पन्न होता है। कव्वाली सूफीयाना संगीत की विशेष गायकी है जिसका मूलरूप आध्यात्म को स्पर्श करता है यह समा का ही रूप है। कव्वाली में सूफी दर्शन, खुदारसूल की तारीफ, वसूदों शरीफ द्वारा मालिक से इल्तजा, हुस्नों इश्क की रंगीनियत भरी शोखी, जश्न व महफिलों के मसले आदि शामिल होते हैं सूफियों की यह विशेष गायकी भारतीय संगीत में स्वीकारणीय हो गई है तथा वर्तमान समय में यह भक्ति संगीत, सुगम संगीत, चित्रपट संगीत आदि सभी क्षेत्रों में एक स्वतंत्र विधा के रूप में सम्मानित है।
सूफी संगीत में ‘‘कौल’’ विधा महत्वपूर्ण जो अरबी भाषा का शब्द है इसका अर्थ कथन, वचन, प्रवचन होता है। कौल में गम्भीर रागों के टुकड़े लिये जाते हैं इसीप्रकार नक्शगुल व नक्श-निगार भी वर्तमान समय में मौसम बहार तथा मल्हार ऋतु में गाये जाते हैं।
‘धमार’ उस गाने का नाम है जो सूफियों की महफिल में गाया जाता है जब सूफियाएं कराम खड़े होकर एक दूसरे का हाथ पकड़कर और वृत्त बनाकर नृत्य करते व सबके पांव कव्वाल के इस गाने के वजन पर उठते और बढ़ते हैं साथ ही इसके जो ताल बजायी जाती वो ‘धमार’ ताल में बंधी होती थी जिसे आधुनिक काल में ‘धमार’ कहा जाता है।
उपरोक्त गायन शैलियों के साथ-2 अन्य विधायें जैसे तराना, ठुमरी भी हिन्दुस्तानी संगीत गायकी में सूफी परम्परा के तत्व दिखाती है तराना गायकी में यद्यपि निरर्थक शब्द होते हैं तथापि सूफियों ने उसमें फारसी शायरी जोड़कर उसे भी एक सार्थक आयाम दिया। आगे चलकर अनेक सार्थक शब्दों से युक्त तराने गीत लिखने का भी प्रयास किया गया जो सूफी परम्परा से पूर्ण प्रभावित हैं। स्व0 उस्ताद अमीर खाँ ने शोध द्वारा तराने के शब्दों का अर्थ निकालने का प्रयास किया है जैसे- यली- या इलाही, यला-या अल्लाह।
ठुमरी गायकी वियोग अथवा विप्रलम्भ श्रृंगार से ओत प्रोत हैं इसमें भावों का विशेष महत्व होता है जिस प्रकार जीवात्मा परमात्मा के वियोग में व्याकुल होती है यह विरहावस्था सामान्य होकर भी विशिष्ट व सूफीयाना होती है। जब भक्त को ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती तो वह व्याकुल होकर गाता है सूफियों की खानकाहों में मुखरित होने वाला संगीत में भी यही व्याकुलता झलकती है ऐसे उदाहरण है जिनमें नायिका (भक्त) नायक (ईश्वर) से मिलने के लिए तत्पर व व्याकुल है।
1. बाबुल मोरा नैहर छूटा जाय
2. सैया बिना घर सूना, सूना।
निर्गुण निराकार ईश्वर प्रेम को प्राप्त कर लेने की अभिलाषा सभी धर्मों को वर्तमान समय में भी उनके प्रति आकृष्ट करती है। संगीत व ईश्वरीय आस्था का सुन्दर सम्मिश्रण बहुत कम देखने को मिलता है।
इस प्रकार सूफी परम्परा से भारतीय संगीत को अनेक अनमोल रत्न प्राप्त हुए। सूफीयों ने तराने को जहाँ सार्थक आयाम दिया तो कव्वाली जैसी अनूठी गायनशैली का प्रभाव हिन्दुस्तानी भक्ति संगीत कीर्तन व सत्संग पर भी प्रभाव पड़ा। सूफीयों की परम्परा लोक गीतों पर आधारित थी इसी कारण पंजाब के लोकगीतों में विशेषतः सूफीयाना मनोवृत्ति के गीतों का अस्तित्व मिलता है। इसके अतिरिक्त राम-सीता की खोज में विलाप करते वन-वन भटकना, कृष्ण के विरह में गोपियों का व्याकुल होना आदि अनेक स्थानों पर हमें सूफी दर्शन की मान्यता ही झलकती है। वस्तुतः भारतीय पौराणिक वाङ्मय से सूफी काफी प्रभावित थे। इसी कारण उनके संगीत में भारतीयता व भारतीय दर्शन का पुट मिलना अस्वाभाविक नहीं है इसीलिए भारतीय लोक जीवन में सूफी संगीत के प्रति इतना रुझान देखने को मिलता है। इसी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि किस सीमा तक सूफी संगीत ने भारतीय संगीत को प्रभावित किया।
संदर्भ ग्रन्थ
1. फारुकी एन0 आर0: सम ऐस्पेक्ट्स आॅफ क्लासिकल सूफिज्म इस्लामिक कल्चर, भाग-स्ग्ग्टप् न0 1 जनवरी - 2002 हैदराबाद।
2. रिज़वी एस0ए0ए0: ए हिस्ट्री आॅफ सूफिज्म इन इंडिया, 2 वाल्यूम, नई दिल्ली 1975।
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4. कुरैशी, रेगुला बरकाडर््ट: सू्फी म्यूजिक आॅफ इंडिया एंड पाकिस्तान: साउण्ड कान्टेक्स्ट एण्ड मीनिंग इन कव्वाली, कैम्ब्रिज 1986।
5. आचार्य बृहस्पति: मुसलमान और भारतीय संगीत।
6. पाण्डेय चन्द्रबली:तसव्वुफ या सूफीमत।
7. सचदेव रेनू: धार्मिक परम्परायें एवं हिन्दुस्तानी संगीत ।
8. आचार्य बृहस्पति: संगीत चिंतामणि।
9. वशिष्ठ सत्यनारायण: तबले पर दिल्ली व पूरब ।
10. सिंह राजबाला: मध्यकालीन भारत में सूफीमत का उद्भव एवं विकास ।