Thursday 1 April 2010

वैदिक युगीन सभा और समितिः एक समीक्षात्मक विश्लेषण


आलोक कुमार
प्रवक्ता, प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति विभाग, नेहरू ग्राम भारती विश्वविद्यालय, इलाहाबाद


हड़प्पा सभ्यता के पतनोपरांत एवं गौतम बुद्ध से पूर्व के समय को सामान्यतः वैदिक युग से अभिहित किया जाता है। लम्बी अवधि के इस युग में समाज एवं राजनीतिक दृष्टि से पर्याप्त विविधता दिखाई देती है। इस युग की प्रशासनिक व्यवस्था में सभा एवं समिति नामक दो संस्थाओं का विशिष्ट महत्व रहा है। सभा एवं समिति का वर्णन वैदिक साहित्य मंे मिलता है परन्तु कहीं भी उनके सापेक्षिक महत्व को नहीं बताया गया है। सभा एवं समिति के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद दिखाई देता है। हिलेब्रांड का मानना है कि समिति संस्था थी एवं सभा उसका अधिवेशन। परन्तु अथर्ववेद में उन्हें प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है।1 जिससे दोनों के स्वतंत्र अस्तित्व होने का प्रमाण मिलता है, अतः हिलेब्रान्ड का मत समीचीन प्रतीत नहीं होता। डाॅ0 बी0ए0 सेलेदारे के अनुसार- अथर्ववेद का यह कथन कि सभा और समिति प्रजापति की दो पुत्रियां हैं यह प्रदर्शित करता है कि हमें दोनों को बराबर महत्व देना चाहिए परन्तु उनका सापेक्षिक महत्व क्या था, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है।2डाॅ0 अल्तेकर का मत है कि इसकी संभावना है कि वैदिक भारत के विभिन्न भागों में अथवा विभिन्न समय या शताब्दियों में इन शब्दों का प्रयोग विभिन्न दृष्टिकोण से हुआ था।3
सभा- लुडविग की मान्यता है कि सभा उच्चतर सदन थी एवं समिति निम्न सदन4 अर्थात् दोनों अलग-अलग संस्थायें थीं। कीथ ने इस संदर्भ में विचार व्यक्त किया है कि समिति संपूर्ण जाति के कार्यों के लिए जनता का अधिवेशन थी एवं सभा से आशय एकत्र होने का स्थान था।5 लुडविग का विचार है कि सभा में पुरोहित और धनाढ्य वर्ग प्रतिनिधित्व पाते थे। उनके अनुसार यह जनसाधारण की परिषद नहीं थी। किन्तु जिमर का मानना है कि यह ग्राम सभा अथवा परिषद के मिलने का स्थान था जिसकी अध्यक्षता ग्रामिणी करता था।6 डाॅ0 वी0ए0 सेलेदारे का मत है कि शतपथ ब्राह्मण में जमा उच्च वर्ग के लोगों की परिषद थी, अतः ग्राम सभा समिति से अलग संस्था नहीं थी वरन् समिति के अधिवेशन-स्थल का ही नाम सभा था। डाॅ0 एन0 सी0 बंद्योपाध्याय के अनुसार सभा एक कौटुम्बिक संस्था (।द ।ेेवबपंजपवद व िापदे थ्वसा) थी जिसमें व्यक्ति रक्त-संबंध अथवा स्थानीय सानिध्य से बँधे हुये थे। यह एक केन्द्रीय कुलीनतंत्रात्मक जनसमूह थी जो राजा से संबंधित थी। इस प्रकार इसे राजनीतिक परिषद कहा जा सकता है। डाॅ0 काशीप्रसाद जायसवाल ने अपना मत प्रकट किया है कि समिति से यह अवश्य सम्बन्धित थी, परन्तु इसके वास्तविक संबंध को उपलब्ध सामग्री के आधार पर नहीं जाना जा सकता। उनके अनुसार यह समिति के अधीन कार्य करने वाली चुने हुये लोगों की एक प्रतिष्ठित और स्थायी संस्था थी।7 जिसका अध्यक्ष सभापति होता था। प्रो0 यू0 एन0 घोषाल इस मत से सहमत नहीं हैं क्योंकि किसी अन्य प्रमाण से इसकी पुष्टि नहीं होती है।8
पी0वी0 काणे महोदय भी इसमें संदेह व्यक्त करते हैं कि सभा एक निर्वाचित संस्था थी। तैत्तरीय ब्राह्मण9 और ऋग्वेद10 के आधार पर डाॅ0 अल्तेकर का कथन है कि सभा मुख्यतः गाँव की सामाजिक गोष्ठी ही थी परन्तु आवश्यकता पड़ने पर ग्राम-व्यवस्था से संबंध रखने वाले छोटे-छोटे मामलों पर भी इसी में विचार कर लिया जाता था।11
लुडविंग महोदय के अनुसार समिति जहाँ जनसाधारण का प्रतिनिधित्व होता था इसकी तुलना आधुनिक निचले सदन (प्रथम सदन-लोकसभा) से की जा सकती है। जिमर का मत है कि यह संपूर्ण जाति की केन्द्रीय परिषद थी। डाॅ0 वी0एम0 आप्टे का मत है कि ऋग्वेद में सभा और समिति में अंतर कर पाना कठिन है। उसके अनुसार, जातीय (राजनीतिक) विषयों को तय करने के लिए समिति लोगों के विशाल समूह की परिषद थी। डाॅ0 एन0सी0 बन्द्योपाध्याय के अनुसार यह समाज के समस्त लोगों का जन समूह था और राष्ट्र की परिषद थी। राजा से इसका गहरा संबंध था। डाॅ0 के0पी0 जायसवाल के अनुसार समिति सम्पूर्ण विश की राष्ट्रीय परिषद थी।12 उन्होंने अपना मत व्यक्त करते हुये लिखा है कि राजा समिति में उपस्थित होता था। प्रजा राजा का निर्वाचन और पुनर्विचार करती थी।13 ऋग्वेद के एक उदाहरण14 को लेकर वह अपने मत का प्रतिपादन करते हैं कि राजा का समिति में उपस्थित होना पुनीत कत्र्तव्य था (राजा न सत्यः समतोश्यानः)। अगर राजा समिति में उपस्थित नहीं होता था तो वह असत्य समझा जाता था। उनके अनुसार समिति का संगठन प्रतिनिधित्व के सिद्धांत पर निर्भर करता था जहाँ ग्राम इसकी इकाई होती थी। परन्तु डाॅ0 सेलेटारे कहते हैं कि ‘‘जायसवाल जी का मत केवल उनके दिमाग की दौड़ है। उन्होने अनुमानों की विशाल संरचना का निर्माण किया है जो कि आलोचनात्मक छानबीन पर खड़े नहीं हो सकती।’’15
डाॅ0 यू0 एन0 घोषाल भी डाॅ0 जायसवाल के इस मत से सहमत नहीं है कि समिति का संगठन प्रतिनिधित्व के सिद्धांत पर आधारित था और गाँव इनकी इकाई थे। घोषाल महोदय द्वारा प्रस्तुत तर्क इस प्रकार हैं-
(अ) यह कथन की ‘ग्रामणी’ राजसूय यज्ञ के रत्नहविशि संस्कार में कार्य करता हुआ, एक प्रतिनिधि व्यक्ति था। एक अच्छी कल्पना है, क्योंकि समान रूप से संभावना है कि वह ग्राम अथवा नगर से संबंधित था जहाँ राजमहल स्थित था।
(ब) जायसवाल जी ने अथर्ववेद16 को उद्धृत किया है। इसमें ‘संग्राम’ का अर्थ एकत्रित समिति नहीं है। ‘संग्राम’ और समिति एक दूसरे की सानिध्यता में हैं।
(स) वेदों में गाँव एक सामूहिक इकाई के रूप में निश्चयपूर्वक यह नहीं प्रदर्शित करते कि एंग्लो-सैक्सन जनवाद विवाद की भाँति एक जन-परिषद में स्थानीय प्रतिनिधि थे।
डाॅ0 अल्तेकर के अनुसार समिति केन्द्रीय सरकार की राजनीतिक परिषद थी। उनके अनुसार समितियाँ सम्भवतः कुछ सैन्य और कुलीन परिवारों के शीर्षों का संगठन थीं जिन्हें समाज के राजनीतिक व सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। सभा मुख्यतः गाँव की सामाजिक गोष्ठी थी परन्तु आवश्यकता पड़ने पर ग्राम-व्यवस्था से संबंध रखने वाले छोटे-मोटे मामलों पर भी इसी में विचार कर लिया जाता था। आपसी झगड़ों को निपटाना और जातीय रक्षा का प्रबंध करना ही इनका मुख्य विषय थे।
सभा और समिति के संगठन के बारे में निश्चित रूप से कुछ कह पाना कठिन प्रतीत होता है परन्तु विभिन्न विद्वानों के मतों के विश्लेषण से ऐसा आभास होता है कि समिति के सदस्य अनुभवी और विद्वान अवश्य रहे होंगे। समिति का राजा से निकट संबंध था और सभा मुख्यतः गाँव की सामाजिक गोष्ठी थी जिसका अधिवेशन सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर होता था।
संदर्भ ग्रन्थ
1. ‘‘सभा च मां समितिश्चावतां प्रजापतेदुहितरौसंविदाने’’ अथर्ववेद 7/12/1
2. सेलेदारे, बी0 ए0 - एंशियेंट इंडियन पाॅलिटीकल थाॅट एन्ड इंस्ट्ीट्यूशंस पृष्ठ-390
3. अल्तेकर, अ0स0- स्टेट एण्ड गवर्नमेण्ट इन एंशियेंट इंडिया पृष्ठ 139-40
4. कीथ, ए0वी0- दि कैम्ब्रिज हिस्ट्री आॅफ इंडिया, वोल्यूम-1, पृष्ठ-86
5. वही
6. वही
7. जायसवाल, के0 पी0- हिन्दू पाॅलिटी, पृष्ठ-18
8. घोषाल, यू0 एन0- स्टडीज इन इंडियन हिस्ट्री एण्ड कल्चर पृष्ठ- 353
9. तैतरीय ब्राह्मण- 1,1,10,6
10. ऋग्वेद- 728,6-10
11. अल्तेकर, अ0 स0- स्टेट एण्ड गवर्नमेण्ट इन एंशियेंट इंडिया, पृष्ठ-142
12. जायसवाल, के0पी0 पूर्वोक्त ग्रंथ पृष्ठ-12
13. वही पृष्ठ-12
14. ऋग्वेद 9.2.6
15. सेलेटारे, बी0ए0- पूर्वोक्त ग्रंथ- पृष्ठ 400
16. ये संग्रामः समित्येस्तेषु चारूवदेम ते’’- अथर्ववेद 7.12.