Thursday 1 April 2010

भारतीय शिक्षा दर्शन के प्रमुख तत्व



डाॅ0 चन्द्रावती जोशी
बी0एड0 प्रवक्ता, एम0बी0पी0जी0 काॅलेज, हल्द्वानी।


चिन्तन-मनन मानव जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। काल चक्र की गति के अनुरूप मनुष्य के विचार की विषयवस्तु में परिवर्तन होने के कारण दर्शन भी प्रभावित होता रहा है। जीवन दर्शन एवं दार्शनिक आधार में परिवर्तन होने के कारण शिक्षा दर्शन के स्वरूप में भी परिवर्तन होते रहते हैं। जब-जब समाज में व्याप्त रूढि़यों ने मानव-जीवन को अंधेरे में ढकेलने की कोशिश की, तब-तब तत्कालीन विचारकों, चिन्तकों एवं समाज सुधारकों ने समय की मांग के अनुसार विचारों में एक नया मोड़ दिया।1
प्राचीन भारतीय समाज, संस्कृति तथा शिक्षा के मूलाधार वेद रहे हैं। वेद ही भारतीय दर्शन के स्रोत हैं। डाॅ0 एस0एस0 माथुर का कथन है कि ‘‘वेद स्वयं में कोई दार्शनिक ग्रन्थ नहीं है, वरन् इनमें सब भारतीय दर्शनों के आधार मिलते हैं।’’
समय के साथ दार्शनिक चिन्तन में भी परिवर्तन आने लगा। उपनिषद् काल तक आते आते नैतिक स्तर में गहरे परिवर्तन हो गये। कर्म सम्बन्धी नियम मानव जीवन की असमानताओं की तर्कपूर्ण ढंग से व्याख्या करने के लिये प्रस्तुत किये गये। उपनिषदों ने इस पर बल दिया है। इनका दर्शन बुद्धिपरक है। उपनिषद सांसारिक या भौतिकवाद को भी महत्व देते हैं।
उपनिषद बहुत गहरे दार्शनिक चिन्तन के प्रतीक हैं किन्तु उनकी पहुँच बहुत अधिक प्रज्ञात्मक है। मानव कभी भी आत्म अनुशासन तथा ज्ञान से पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। वह जानता है कि उसे तो कर्म करना है और उसका फल उसके नियंत्रण में नहीं।2
उदार दृष्टि के कारण भारतीय दर्शन की प्रायः प्रत्येक शाखा अत्यन्त समृद्ध है। उदाहरण के लिये हम वेदान्त का उल्लेख कर सकते हैं। वेदान्त में चार्वाक, बौद्ध, जैन, सांख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक आदि सभी मतों पर विचार किया गया है। वस्तुतः भारत का प्रत्येक दर्शन ज्ञान का एक-एक भण्डार है। इस सम्बन्ध में श्री सतीशचन्द्र चट्टोपाध्याय एवं अन्य का कथन समीचीन है कि ‘‘जिन विद्वानों को भारतीय दर्शन का ज्ञान भलीभाँति है, वे बड़ी सुगमता से पाश्चात्य दर्शन की जटिल समस्याओं का समाधार कर सकते हैं।’’
संसार का मूल कारण क्या है? ईश्वर का स्वरूप क्या है? ऐसे प्रश्नों के समाधान के लिये कल्पना तथा युक्ति का आश्रय लेना आवश्यक है। विज्ञान की तरह दर्शन में भी प्रत्यक्ष की सहायता से अप्रत्यक्ष का प्रतिपादन होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान दर्शन का आधार है। यूरोप के दर्शनों की उत्पत्ति एक साथ नहीं वरन् एक दूसरे के पश्चात् होती गयी। कुछ समय तक किसी एक मत का प्रचार रहता है, उसके बाद किसी दूसरे मत का उत्थान होता है। भारत में ज्यों ही किसी दार्शनिक मत का प्रतिपादन होता था त्यों ही उनके अनुयायियों का संप्रदाय स्थापित हो जाता था। सम्प्रदाय के सभी सदस्य उस दार्शनिक विचार को अपने जीवन का अंग मानते थे।
दर्शन ही किसी देश की सभ्यता तथा संस्कृति को गौरवान्वित करता है। दर्शन में स्थानीय विचारों की छाप अवश्य पायी जाती है। भारतीय दर्शन में मतभेद तो पाया जाता है किन्तु भारतीय संस्कृति की छाप रहने के कारण उनमें साम्य भी पाया जाता है। इस साम्य को भारतीय दर्शन का नैतिक तथा आध्यात्मिक साम्य कह सकते हैं।
भारतीय दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण तथा मूलभूत साम्य यह है कि वे सभी पुरुषार्थ साधन के लिये हैं। भारत के सभी दर्शन मानते हैं कि दर्शन जीवन के लिये बहुत उपयोगी होता है। दर्शन का उद्देश्य केवल मानसिक कौतुहल की निवृत्ति नहीं है बल्कि किस प्रकार मनुष्य दूर-दृष्टि तथा अन्र्दृष्टि के साथ जीवन यापन कर सके, स्पष्ट करता है।
भारतीय दर्शन का एक और सामान्य धर्म है जिसका कर्मवाद के साथ गहरा सम्बन्ध है। इसके अनुसार संसार रंगमंच है जिसमें मनुष्य को कर्म करने का अवसर मिलता है जिस तरह रंगमंच पर नाटक के पात्र सज-धजकर आते हैं और पात्र भेद के अनुसार नाट्य करते है, उसी तरह मनुष्य इस संसार के रंगमंच पर शरीर, इन्द्रियों आदि उपकरणों से सज्जित होकर आता है और योग्यतानुसार कर्म करता है।3 डाॅ0 एस0एस0 माथुर का कथन समीचीन है कि ‘‘पहला ज्ञान पथ है। व्यक्ति को अपने आपको जानना चाहिये । वह अपनी वास्तविक प्रकृति से अवगत होे, दूसरा कर्म का पथ है।’’
भारतीय दर्शन की विशेषताओं इस प्रकार स्पष्ट है-


भारतीय दर्शन की विशेषतायें

भारतीय दर्शन का नैतिक तथा आध्यात्मिक साम्य भारतीय दर्शन के उद्देश्य
आध्यात्मिक असंतोष से दर्शन की उत्पत्ति होती है। नैराश्यवादी की झलक जगत् की शाश्वत नैतिक व्यवस्था
अमृत, अपूर्व, अदृष्ट तथा कर्म नैतिक व्यवस्था से आशा की उत्पत्ति
अज्ञान बंधन का कारण है अतः तत्वज्ञान से ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है अज्ञान को दूर करने के लिए निदिध्यासन आवश्यक है
आत्मसंयम से वासनाओं का निरोध मुक्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है।

नैतिक तथा आध्यात्मिक विचारों की समानता के साथ-साथ भारतीय दर्शन में यह भी एक सादृश्य है कि वे देश तथा काल को अनादि और अत्यन्त विशाल मानते हैं। इसका प्रभाव भारतीय दर्शन के नैतिक तथा आध्यात्मिक विचार पर बहुत अधिक पड़ा है। मनुष्य का क्षुद्र, क्षणस्थायी शरीर यद्यपि नगण्य है, तथापि इसके द्वारा आध्यात्मिक साधना करके वह देश काल के अतीत एक शाश्वत शान्ति और आनन्द की अवस्था भी प्राप्त कर सकता है। अतः मनुष्य जन्म दुर्लभ है।4
भारतीय दर्शन का विहंगालोकन करें तो निम्लिखित स्थिति परिलक्षित होती है-
भारतीय दर्शन
1 2 3 4 5 6 7 8 9
चार्वाक जैन बौद्ध न्याय वैशेषिक सांख्य योग मीमांसा वेदान्त

भारतीय दर्शन में शंकराचार्य का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। विदेशों में तो शंकराचार्य को वेदान्त दर्शन को ही भारतीय दर्शन मान लिया जाता है। वेदान्त भारतीय दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है और देश-विदेश में भारतीय दर्शन ने शंकराचार्य के नाम से जितना यश प्राप्त किया उतना किसी अन्य दार्शनिक ने नहीं किया। जिस समय आचार्य शंकर का प्रादुर्भाव हुआ उसके कई सौ वर्ष पूर्व ही भारत में बौद्ध धर्म का प्रसार हो चुका था।
आत्रेय, औडुलोनि, काशकृत्स्न, बादरि, काश्यप आदि आचार्य शंकराचार्य से पूर्व वेदान्त दर्शन के आचार्य थे किन्तु उनके मत एवं ग्रन्थ कालक्रम के प्रवाह में नष्ट हो गये।5 शंकर के बाद भी अनेक आचार्यों ने वेदान्त दर्शन का प्रतिपादन किया किन्तु शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन के प्रतिपादन में जिस प्रतिभा का परिचय दिया वह विलक्षण है शंकराचार्य के वेदान्त दर्शन में ब्रह्म को छोड़कर सभी पदार्थ ‘असत्’ हैं। केवल ब्रह्म ही सत् है। ब्रह्म पर सभी पदार्थों का आरोप होता है। आरोप का अधिष्ठान ब्रह्म है।
शंकराचार्य ने जिस मोक्ष को लक्ष्य स्वीकार किया और जिस अद्वैत मत का प्रतिपादन किया वह बौद्ध मत से मिलता-जुलता है। कतिपय विद्वान शंकराचार्य पर बौद्ध मत का प्रभाव मानते हैं। इस सम्बन्ध में डाॅ0 मिश्र का कथन ध्यान देने योग्य है कि ‘‘बहुत से दार्शनिक तथा पारिभाषिक शब्द है। जिनका बौद्ध दर्शन और शंकर मत, दोनों एक ही अर्थ में प्रयोग किया गया है। इस सभी समानताओं को देखते हुए भी यही कहना उचित है कि ‘परमार्थतत्व’ के स्वरूप विचार में दोनों मतों में भेद नहीं है।’’
इस विश्व की जटिलता को स्पष्ट करने में अद्वैत वेदान्त जितना सफल हुआ है उतना कोई अन्य मत नहीं। इस सम्बन्ध में डाॅ0 उपाध्याय का कथन समीचीन है कि ‘‘वेदान्त ही शिक्षा का चरम अवसान है- ‘वसुधैव कुटुम्बकम’। समस्त संसार को अपना कुटुम्ब समझना, इस आदर्श के अनुसार चलना तथा वेदान्त की ग्रहनाीय शिक्षा आज क्षुद्र स्वार्थ की भावना से त्रस्त तथा परास्त मानव समाज कल्याण के लिए अमृतमयी है।’
आधुनिक युग में भौतिक विज्ञान ने भौतिक जगत् के अनेक तथ्यों का उद्घाटन किया है। फलस्वरूप वेदान्त को नये रूप में देखने, समझने एवं निरूपित करने की आवश्यकता हुई। महर्षि दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, टैगोर, महात्मा गांधी और श्री अरविन्द ने यह कार्य सम्पन्न किया।
महर्षि दयानन्द वेदों के ज्ञाता थे और वैदिक दर्शन ही उन्हें मान्य था। इस सम्बन्ध में श्री रमन विहारी लाल का कथन समीचीन है कि ‘‘महर्षि दयानन्द ने वेदों की जो व्याख्या की है उसमें भी उनका विवेक दृष्टिगोचर है। स्वामी दयानन्द के अनुसार शिक्षक और विद्यार्थी दोनों को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। स्वामी जी ने वैदिक धर्म के प्रचार के लिए भारतीय गणराज्य के आर्य समाज की स्थापना की। राष्ट्रपति डाॅ0 शंकरदयाल शर्मा के शब्दों में ‘‘दयानन्द सरस्वती जी का एक महत्वपूर्ण कार्य मैं यह जानता हूँ कि उन्होंने वेद को सर्वोच्च सत्य घोषित करके हमारे देश के लोगों में स्वाभिमान और आत्म विश्वास का भाव भरा। अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार और व्यवहार के कारण भारतीयों के मन में धीरे-धीरे जो हीन भावना घर करती जा रही थी, उसे दयानन्द सरस्वती जी ने दूर किया।
देश के राजनैतिक चेतना के साथ- साथ सांस्कृतिक तथा धार्मिक भावनाओं के विकास में बलिष्ठ कन्धा लगाने वालों में महर्षि विवेकानन्द का नाम स्मरणीय है। महर्षि विवेकानन्द ने जनता को अनुद्योग, आलस्य, अकर्मण्यता के स्थान पर उद्योग, परिश्रम, कर्मण्यता का पाठ पढ़ाया। स्वामी विवेकानन्द के सम्बन्ध में डाॅ0 रामशकल पाण्डेय का कथन उचित ही है कि ‘‘उनका जीवन आज भी सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर वह ज्ञान ज्योति बिखेर रहा है, जिसके प्रकाश पर संसार सब कुछ न्यौछावर करने को सन्नद्व है।’’ स्वामी जी के अनुसार शिक्षा को मात्र सूचना तक सीमित नहीं करना चाहिये। सूचना का अपने में कोई महत्व नहीं है। जो विचार जीवन निर्माण में सहायक हों उनकी अनुभूति करना आवश्यक है। उन्हीं के शब्दों में- ‘‘यदि तुम केवल पांच ही परखे हुये विचार आत्मसात कर उनके अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हों तो तुम एक पूरे ग्रन्थालय को कण्ठस्थ करने वाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हो। स्वामी विवेकानन्द बालक को इस प्रकार की शिक्षा देने के पक्ष में थे जिससे उसका चरित्र बने, बुद्धि का विकास हो, मानसिक शक्ति बढ़े और वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके।6
टैगोर पहले भारतीय दार्शनिक हैं जिन्होंने शिक्षा को सामाजिक एवं बहुउद्देशीय प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया है। इस प्रकार उन्होंने शिक्षा प्रक्रिया के स्वरूप एवं कार्य दोनों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। शिक्षा के उद्देश्यों को उन्होंने मुख्य रूप से दो वर्गों में बांटा है।- भौतिक विकास एवं आध्यात्मिक विकास। भौतिक विकास के अन्तर्गत उन्होंने मानसिक, शारीरिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं चारित्रिक सभी उद्देश्यों को समान रूप से स्थान दिया है। आध्यात्मिक के अन्तर्गत धार्मिक विकास एवं समाज सेवा को स्थान दिया है।7
टैगोर विद्यालय को अध्यापकों तथ विद्यार्थियों के सहयोग की सृजनात्मक कृति मानते हैं। उन्होंने अपने विद्यालय में छात्रों को पूर्ण स्वतंत्रता दी उनका विचार था कि छात्र को अपनी इच्छा से कार्य करने का अवसर देना चाहिये। अध्यापक का कार्य केवल प्रेरणादयक होना चाहिये। प्रकृति के मध्य में स्थापित शान्ति निकेतन विद्यालय में वे अपने विचारों को मूर्त रूप देते थे। स्वयं गांधी ने शान्ति निकेतन के सम्बन्ध में अपनी आत्मकथा में रोचक वर्णन किया है। सम्बद्ध अंश यहां उद्धृत करना समीचीन होगा- ‘राजकोट से मैं शान्ति निकेतन गया वहां शान्ति निकेतन के अध्यापकों और विद्यार्थियों ने मुझे अपने प्रेम से नहलाया। स्वागत की विधि में सादगी, कला और प्रेम का सुन्दर मिश्रण था।’
गांधी जी इस युग के सबसे महान व्यक्ति थे। मानव जीवन से सम्बन्धित ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसमें उन्होंने कार्य न किया हो। देश को राजनीतिक स्वतंत्रता दिलाने, समाज में अछूतों का उद्धार करने, वर्ग विहीन समाज का निर्माण करने और संसार को सत्य, अहिंसा एवं प्रेम का पाठ पढ़ाने के लिये वे तब तक याद किये जायेंगे जब तक यह सभ्यता जीवित रहेगी। गांधी जी किसी नये दर्शन के प्रतिपादक नहीं है। उन्होंने प्राचीन भारतीय दर्शन को व्यावहारिक रूप दिया है परन्तु इसे व्यावहारिक रूप देने में उनकी अपनी मौलिकता है। इसलिए आज इसे अलग दर्शन माना जाता है। गांधी जी आत्मा और परमात्मा में विश्वास करते थे और मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मा की मुक्ति मानते थे।
शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उन्होंने हस्त कौशलों पर आधारित पाठ्यचर्या का निर्माण किया था। गांधी जी बुनियादी शिक्षा के पक्षधर थे। उन्हीं के शब्दों में- इसमें मुख्य कल्पना यह है कि बच्चों को जो भी दस्तकारी सिखाई जाय, उसके द्वारा उन्हें पूरी तरह से शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक शिक्षा दी जाय। उद्योग की तमाम क्रियाओं के द्वारा आपको बच्चों के अन्दर जो भी अच्छी है, उस सबको विकसित करना है और आप इतिहास, भूगोल तथा गणित के जो पाठ सिखाये, वे सब उस उद्योग से सम्बन्धित होगें।
श्री अरविन्द वर्तमान युग के सर्वोत्कृष्ट साधक एवं भारतीय ऋषि परम्परा की उज्ज्वल कड़ी हैं। उनका दर्शन उपनिषदों के दर्शन के समकक्ष है। श्री अरविन्द के अनुसार मन तथा अन्तःकरण शिक्षक का मुख्य साधन है। उनका मत है कि शिक्षक छात्र को ज्ञान नहीं देता, वरन् वह यह सिखाता है कि विद्यार्थी स्वयं किस प्रकार ज्ञान को प्राप्त करें। श्री अरविन्द शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य के अन्तःकरण और आत्मा की शक्ति के निर्माण और विकास को मानते हैं। बालक की प्रारम्भिक शिक्षा में वह ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा पर बल देते हैं।8
उन्होंने शिक्षा के जिन विस्तृत उद्देश्यों का प्रतिपादन किया था उनकी प्राप्ति के लिए एक विस्तृत पाठ्यचर्या भी प्रस्तुत की थी। प्राचीन-आर्वाचीन, भारतीय और पाश्चात्य, सभी उपयोगी ज्ञान एवं क्रियाओं को पाठ्यचर्या में स्थान देकर उन्होंने विस्तृत दृष्टिकोण प्रदान किया है। विद्यालयों में भजन, कीर्तन, ध्यान और योग की क्रियाओं को स्थान देकर भारतीयों को भारतीय बनाने के प्रयत्न के लिये सदैव स्मरणीय रहेगें।
अनुशासन के सम्बन्ध में उनके विचार बड़े मार्मिक हैं। उनकी दृष्टि में स्वेच्छा से कर्तव्य पालन करना ही सच्चा अनुशासन है। इस अनुशासन को नैतिकता पर आधारित कर उन्होंने इसकी प्राप्ति का सच्चा रास्ता भी बताया है। उनके द्वारा स्थापित अरविन्द आश्रम अनुशासन का अनुकरणीय केन्द्र है।
दर्शन की सहायता के बिना शिक्षा अग्रसर नहीं हो सकती। शिक्षा की कला दर्शन शास्त्र की सहायता के बिना पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकती। दर्शन और शिक्षा एक दूसरे पर अन्योन्याश्रित हैं। प्रत्येक शैक्षणिक प्रश्न निश्चित रूप से जीवन दर्शन से सम्बन्धित होता है। प्रत्येक व्यक्ति का एक निश्चित जीवन दर्शन होता है, चाहे वह सत्य हो या असत्य। शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षा विधियाँ, अनुशासन की समस्या पाठ्य पुस्तकों का चुनाव आदि सब उन व्यक्तियों के जीवन दर्शन पर आधारित होते हैं, जो समाज में शिक्षा के लिए उत्तरदायी है। अतः शिक्षा का सही उपयोग तब तक नहीं कर सकते जब तक हम दार्शनिकों के जीवन दर्शन का अवलोकन न करें। दर्शनशास्त्र की सहायता से ही शैक्षणिक प्रश्नों का हल खोजा जा सकता है। अतएव यह कहा जा सकता है कि शिक्षा का दर्शन शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं का दर्शन की दृष्टि से विवेचन करता है।
संदर्भ ग्रन्थ
1. मनुस्मृति
2. शांकरभाष्य और आनन्दगिरि- टीका सहित प्रकाशित उपनिषद्, आनन्दाश्रय प्रेस, पूना।
3. भारतीय दार्शनिक निबन्ध - डाॅ0 डी0डी0 वंदिष्टे एवं डाॅ0 रमाशंकर वर्मा प्रकाशक- मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, मध्यप्रदेश।
4. पं0 शर्मा गिरिधर, वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना, 1960।
5. शर्मा चन्द्रधर, भारतीय दर्शन आलोचना और अनुशीलन, प्रकाशक मोतीलाल बनारसी दास दिल्ली-07, संस्करण- 1990 पृष्ठ-221।
6. कम्पलीट वक्र्स आॅफ विवेकानन्द, विवेकानन्द अद्वैत आश्रय, मायावती, अल्मोड़ा, 1955।
7. डाॅ0 सक्सेना लक्ष्मी, समकालीन भारतीय दर्शन, पृ0-129।
8. भट्टाचार्य अभय चन्द्र- श्री अरविन्द दर्शन, ज्ञानपुर (वाराणसी) 1973।