Thursday 1 April 2010

राजस्थान के सामन्ती परिवेश का मीराॅ के काव्य पर प्रभाव

रुचि दीक्षित
शोध-छात्रा, हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।


प्रत्येक व्यक्ति पर अपने समय का बहुत प्रभाव पड़ता है। वह लाख अपने को उससे दूर रखने का प्रयास करे परन्तु वह दूर नहीं हट सकता, क्योंकि उस व्यक्ति का मानसिक विकास इसी पर निर्भर है। जिस प्रकार के वातावरण में वह जीवन निर्वाह करता है उसी प्रकार उसके भाव व्यक्त होते हैं। उसका दृष्टिकोण उस वातावरण पर ही आधारित होता है, जिसे वह अपनी कृति के माध्यम से व्यक्त करता है।
मीराॅ का काव्य सृजन जिस युग में हुआ उस समय के परिवेश का मीराॅ के काव्य में पर्याप्त प्रभाव दिखाई पड़ता है। ‘‘इस लोक में रहकर ही आदर्श भक्ति का प्रस्तुतीकरण करने वाली मीराॅ को लोक से परे रखकर नहीं समझा जा सकता। उनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति लौकिक है। यही कारण है कि एक ओर उनके पदों में तत् युगीन राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों लोक प्रचलित धारणओं, लोक विश्वासों तथा मान्यताओं का दिग्दर्शन है तो दूसरी ओर लोक भाषा और उसकी लौकिक शब्दावली भी अपने सहज रूप में है। तत्कालीन आवागमन एवं मनोरंजन के साधन, रीति-रिवाज, खान-पान, वेशभूषा यहाँ तक कि लोक एवं व्यक्ति चिन्तन लोक और व्यक्ति पर शकुन एवं आस्थाओं का स्वाभाविक चित्रण मीराॅ के पदों में हुआ है। संक्षिप्त रूप से यही कहा जा सकता है कि मीराॅ के पदों में मीराॅ युग की भव्य सांस्कृतिक झाँकी विद्यमान है। मीराॅ के पदों को एक-एक शब्द से मीराॅ का युग मुखरित होता है। यह सच भी है कि जिस परिवार तथा समाज में मीराॅ पल्लवित हुई, जिन परिस्थितियों ने उसके जीवन निर्माण में योग दिया उन्हें वह कैसे विस्मृत करती क्योंकि मीराॅ भी तो अपने युग और परिस्थितियों की ही देन थी।’’1
16 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर 17 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक के समय में भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। राजस्थान की कुछ रियासतों को छोड़कर प्रायः पूरे उत्तर भारत में मुगलों का शासन स्थापित हो चुका था। सामाजिक व्यवस्था में सामन्तशाही का बोलबाला था। सामन्त जनता के शोषण के बल पर भोग विलास पूर्ण समृद्ध जीवन बिता रहे थे। मीराॅबाई के काव्य में मध्यकालीन राजस्थानी सामाजिक जीवन और उसकी व्यवस्था की झलक दिखाई देती है। सामान्य पारिवारिक जीवन से लेकर राज परिवार की व्यवस्था संगठन आदि का परिचय मीराॅ के पदों से प्राप्त होता है। उस युग में संयुक्त परिवार होते थे जो सामान्य परिवार से लेकर राज परिवार तक प्रचलित थे। मीराॅ के काव्य में सास, नन्द, देवर आदि पारिवारिक लोगों का उल्लेख मिलता है।-
हेली म्हाँसूँ हरि बिन रह्या न जाय।
सास लडे मेरी ननद खिजावै, राणा रह्यो रिसाय।
पहरो भी राज्यो चैकी ठिरयो, ताला दियो जड़ाय।2
मीराॅ ने तत्कालीन समाज की स्त्रियों की दशा का वर्णन किया है। उस समय का समाज बहुविवाह, सती प्रथा तथा जौहर प्रथा से दूषित था। समाज में स्त्री का स्थान पुरुष के बराबर न था। पत्नी को पुरुष की दासी समझा जाता था। मीराॅ ने अनेक स्थानों पर अपने को ‘जनम-जनम की दासी’ कहती हैं। ‘‘सामन्ती नैतिकता नारी और भूमि को एक दृष्टि से देखती थी। वहाँ ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथित्या’ का सिद्धान्त ‘वीरभोग्या वसुन्धरा’ में बदल गया। सामन्त का राज्य बड़ा उसकी सेना बहुत बड़ी तो उसका अन्तःपुर भी बहुत बड़ा। भूमि दान की जाती थी तो स्त्री भी दान की जाती थी, जूएं में गाँव, भूमि, पैसा दाँव पर लगाया जाता है तो स्त्री भी। सामन्ती व्यवस्था में नारी का रूप बहुत कुछ ऐसा है जो धन का पर्याय है।3
नारी तभी तक मानवीय व्यवहार की पात्र थी जब तक वह पुरुष के आदेश का पालन करती थी, अगर वह जरा भी स्वतन्त्र होती थी तो वह पुरुष के अत्याचारों का शिकार बन जाती थी। साँप का पिटारा भेजना, विष का प्याला पीना आदि अत्याचार मीरा के पदों में वर्णित है-
साँप पिटारो राणा जी भेज्यो, दियो मेड़तणी गल डार।
हँस-हँस मीरा कण्ठ लगायो, यो तो म्हारे नौसर हार।
विष को प्यालो राणा जी भेज्यो, दियो मेड़तणी ने पाय,
कर चिराणमृत पी गई रे गुण गोविन्द को गाय।4
लोक जीवन में त्यौहारों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। त्यौहार किसी भी समाज या देश में अपना सांस्कृतिक महत्व रखते हैं। मीरा ने राजस्थान में मनाये जाने वाले रीति-रिवाज, परम्पराओं और त्यौहारों का उल्लेख किया है। इनमें से होली और गणगौर पर्वों का विशेष उल्लेख है। होली का मीराॅ ने बहुत सुन्दर वर्णन किया है, उस समय भी इस पर्व में सभी वर्णांे के लोग सम्मिलित होते थे। गणगौर का त्यौहार शिव-पार्वती पूजन का उत्सव है जिसे युवतियाँ उत्तम वर प्राप्ति हेतु एवं पति की लम्बी आयु एवं मंगल कामनाओं के लिए मनाती हैं-
घर आँगन न सुहावे, होली पिया बिन मोहि न भावे।5
$ $ $ $ $ $ होली पिया बिन लागै खारी, सुनो री सखी मोरी प्यारी।6
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साॅवलिया! म्हारै आज रंगीली गणगोर है ।
काली-पीली बादली चमकै, मेघ-घटा घणघोर है।7
लोक जीवन में शकुन-अपशकुन का अपना एक महत्व होता है। मीराॅ का युग चूँकि धर्म प्रधान था अतः उसमें शकुनों का अत्यधिक महत्व था। बाँयी आँख का फड़कना, काग का उड़ना शुभ शकुन माना जाता था।-
कद आसी गोपियाॅ बालो कान्ह फरकै बायी आँख री।8
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काग उड़ावत दिन गया, बूझूं पिडंत जोसी, हो।9
तन्त्र-मन्त्र में भी मीराॅ युग का समाज आस्था रखता था, ऐसा मीरा पदावली की कई पंक्तियों से स्पष्ट होता है-
तंत्र-मंत्र औषध कर तक पीर न जाई।
कोऊ उपकार करै, कठिन दर्द री माई।10
हमारे जन जीवन में जिन वस्तुओं का प्रयोग एवं प्रचलन होता है, जैसे- रीति-रिवाज, वेश-भूषा, आभूषण आदि होते हैं, वे सब संस्कृति का द्योतक होती हैं। भारतीय महिलाओं में आभूषण पहनने और श्रृंगार करने की रीति बहुत पुरानी है। राजस्थानी परिवेश में वेश-भूषा और आभूषण का अपना विशेष महत्व है स्त्री और पुरुष यहाँ तक कि पशुओं को भी वस्त्र और आभूषण पहनाने का प्रचलन था। लोक आभूषणों में चुड़ला, बाजूबन्द, नथनी, बिछुवा, पंचरंग चोला आदि का वर्णन मीराॅ के प्रेम काव्य में मिलता है-
सीस फूल सर बिराजै, गल केचन की खगवाली।
रणजण नैवर बाजे, धन जीवन मतवाली।11
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मैं गिरधर के रंग राती सैयाॅ
मैं पंचरंग चोला
पहन सखी री मै झिरमिट रमवा जाती।12
आभूषणों की तरह सोलह श्रृंगार का भी उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलता है। लोक जीवन में स्त्री श्रृंगार का अपना महत्व होता है। मीराॅ ने अपने प्रेम काव्य में सोलह श्रृंगार का वर्णन अनेक स्थानों पर किया है जिसमें माथे पर बिन्दी, आॅखों में काजल, जरी का चीर, आदि का वर्णन है-
सजि सोलह सिणगार, पहिरि सोनै राखड़ी।
साॅवलिया सूॅ प्रीत, औराॅ सूॅ आखड़ी।।13
मध्ययुगीन सामन्ती परिवेश में ललित कलाओं का अधिक प्रचार-प्रसार था, विशेष कर नृत्य और संगीत का। राज समाज और मन्दिरों में वेश्याओं का नाच और भांडों का गाना होता था। घरों में स्त्रियाँ नाचती गाती थीं। स्त्रियों का नृत्य तथ संगीत कला जानना आवश्यक समझा जाता था। राजघरानों में इसकी शिक्षा दी जाती थी। सम्भवतः मीराॅ को भी इसकी शिक्षा मिली होगी। डाॅ0 मंजु तिवारी के अनुसार- ‘‘मीराॅ संगीतशास्त्र के ज्ञान से अनभिज्ञ रही हों, यह भी नहीं माना जा सकता। उन्हें संगीत का पूरा ज्ञान था।’’14 मीराॅ के काव्य में संगीत की बहुलता दिखाई देती है। उनके पद राग-रागनियों से पूर्ण हैं। उनके गीतों में संगीत तत्व की स्थिति उन्हें उच्चस्तरीय गायिका का गौरव प्रदान करती है।15
मीराॅ के प्रेम काव्य के पदों में संगीत के साथ नृत्य और वाद्य यन्त्रों का उल्लेख हुआ है-
साॅवरिया रंग राची राणा, साॅवरिया रंग राची।
ताल पखावज मिरदंग बाजै, राधा आगे नाची।।16
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मैं गिरधर आगे नाचूँगी।
नाच-नाच पिव रसिक रिझाऊँ। प्रेमी जनकूँ जाचूँगी।
प्रेम प्रीति का बाँधि घूँघरू। सूरत कहनी काहूँगी।17
मीराॅ के काव्य में राजस्थानी परिवेश और लोकतत्व का पर्याप्त प्रभाव मिलता है जो उसे सुन्दर और ग्राह्य बनाता है।
संदर्भ ग्रन्थ
1. शेखावत कल्याण सिंह - मीरा ग्रन्थावली-2, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004, पृष्ठ-114,
2. वंशी बलदेव (संपादक) संत मीराबाई और उनकी पदावली, पद संख्या-24, पृष्ठ-89
3. त्रिपाठी विश्वनाथ - मीरा का काव्य, द मैकमिलन कम्पनी आॅफ इण्डिया, -1979, पृष्ठ-25
4. वंशी बलदेव (सं0) संत मीराबाई और उनकी पदावली परमेश्वरी प्र, दिल्ली पद संख्या-23, पृ-81।
5. चतुर्वेदी नन्द (सं0) मीरा संचयन, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2006 पृष्ठ-115,
6. वही, पृष्ठ-116
7. वही, पृष्ठ-51
8. चतुर्वेदी डाॅ0 परशुराम (सं0) मीराबाई की पदावली, अनीता प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-120
9. वही पृष्ठ-120
10. वही पृष्ठ-119
11. भाटी देशराज सिंह -मीराबाई और उनकी पदावली, अशोक प्र, दिल्ली,2000, पृ-174, पद सं-15,
12. चतुर्वेदी नन्द (सं0) मीरा संचयन, पद संख्या-171, पृष्ठ-159,
13. वंशी बलदेव (सं0) संत मीराबाई और उनकी पदावली पद संख्या-101, पृष्ठ-137,
14. तिवारी मंजू -हिन्दी गीतिकाव्य परम्परा और मीरा, राधाकृष्ण प्र,2004, पृ-225,
15. शेखावत कल्याण सिंह - मीराॅ ग्रन्थावली- पद संख्या-88, पृष्ठ-107
16. चतुर्वेदी नन्द (सं0) मीरा संचयन 152, पृष्ठ-148