Tuesday, 31 March 2009

प्राथमिक शिक्षा में प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापक एवम् विशिष्ट बी0टी0सी0 अध्यापकों के मध्य व्यवसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन


डाॅ0 राजीव कुमार चैहान (प्रवक्ता)
(प्रवीन चैधरी), (तनु गुप्ता, शोध छात्रा)
बाबू कामता प्रसाद जैन महाविद्यालय,
बड़ौत (बागपत)

       प्रस्तावना:प्राचीन काल में शिक्षा छात्रों को गुरुकुलों में प्रदान की जाती थी। वैदिक काल में शिक्षक का स्थान इतना ऊँचा होता था कि गुरु की तुलना ब्रह्मा, विष्णु और महेश से की जाती थी। छात्र गुरुकुल में रहकर ही शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु समस्त विषयों का ज्ञाता और समाज का हितैषी होता था। शिक्षक राष्ट्र का सच्चा निर्माता होता था। विद्यार्थियों को शिक्षकों से बड़ी-बड़ी आशायें होती थी, क्योंकि विद्यार्थियों के जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान उसे ही करना होता है। बालक के व्यक्तित्व विकास में शिक्षक का महŸवपूर्ण स्थान है। इसी कारण शिक्षक को समाज में सर्वाधिक सम्मान दिया जाता है परन्तु विगत के दशक से शिक्षण प्रशिक्षण एवं शैक्षिक समस्याओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रायः अधिकांश शिक्षकों में गुणवत्ता का स्तर दिन प्रतिदिन घटता जा रहा है। सभी शिक्षकों में दक्ष शिक्षकों की कमी है। जिनकी प्राथमिक स्तर पर विशेष आवश्यकता है। इसका मुख्य कारण है कि शिक्षक कम वेतन के कारण अपने व्यवसाय के प्रति सन्तुष्ट नहीं है। अर्थात शिक्षकों की स्थिति शोचनीय है।
हमारे संविधान की धारा 45 में यह घोषणा की गई है कि संविधान लागू होने के समय से 10 वर्ष की अवधि के अन्दर 14 वर्ष तक के बच्चों की अनिवार्य एवम् निःशुल्क शिक्षा के लक्ष्य में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 लागू हैं, 10$2$3 शिक्षा संरचना लागू हैं और इसकी प्रथम 10 वर्षीय आधारभूत पाठ्यचर्या को तीन भागों में विभाजित किया गया है - कक्षा 1 से 5 तक प्राथमिक शिक्षा, कक्षा 6 से 8 तक उच्च प्राथमिक, कक्षा 9 तथा 10 माध्यमिक और $ 2 अर्थात कक्षा 11 तथा 12 को उच्च माध्यमिक शिक्षा कहा गया है। इस समय हमारे देश में 05 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की शिक्षा प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत आती हैं।
समस्या कथन:-‘‘प्राथमिक शिक्षा में प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापक एवम् विशिष्ट बी0टी0सी0 अध्यापकों के मध्य व्यवसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन‘‘
अध्ययन उद्भवः-1951 से हमारे देश में सभी विकास कार्य योजनाबद्ध तरीके से शुरू किये गये। 1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) शुरू हुई। इस योजना में शिक्षा पर 153 करोड़ रुपये व्यय किए गए जिनमें से 85 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा के विकास पर व्यय किए गए। दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) में शिक्षा पर 273 करोड़ रुपये व्यय किए गये जिनमें से 95 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा पर व्यय किये गये। तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66) में शिक्षा पर 589 करोड़ रूपये व्यय किये गये, जिनमें से 201 करोड़ रूपये प्राथमिक शिक्षा पर व्यय किये गए। चतुर्थ पंचवर्षीय (1969-74) में शिक्षा पर कुल 786 करोड़ रुपये व्यय किए गए जिनमें से 239 करोड़ रुपये प्राथमिक शिक्षा पर व्यय किये गये। पांचवी पंचवर्षीय योजना में 317 करोड़, छठी पंचवर्षीय योजना में 836 करोड़, सातवी पंचवर्षीय योजना में 2849 करोड़, आठवी पंचवर्षीय योजना में 9201 करोड़, नवीं में 1184.4 करोड़ रुपये व दसवीं पंचवर्षीय योजना में 28750 करोड़ रुपये रखे गये हैं। इस योजना का मुख्य लक्ष्य शिक्षा का सार्वभौमिकरण है।
प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में इसकी 45 वीं धारा में स्पष्ट निर्देश हैंः-‘‘राज्य इस संविधान के लागू होने के समय से दस वर्ष के अन्दर 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करेगा।‘‘और बस तभी से हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क करने की ओर ठोस कदम उठाए गए, यह बात दूसरी है कि उस लक्ष्य को हम 10 वर्षों के अन्दर तो क्या आज 56 वर्ष बाद भी प्राप्त नहीं कर सके हैं।
अध्ययन की आवश्यकता एवं महत्त्वः-आज शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर शिक्षकों की दशा शोचनीय है। उसे विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण शिक्षा का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है। जिसका मुख्य कारण शिक्षकों में गुणवत्ता का अभाव शिक्षण सामग्री का निम्न स्तर, शिक्षण कार्यों के प्रति उदासीनता, शिक्षकों का स्वार्थी होना, शिक्षण संस्थानों की दोषपूर्ण नीति एवं आर्थिक दशायें इत्यादि हैं।
शिक्षक शिक्षण में तथा छात्र अध्ययन में रुचि नहीं ले रहे हैं क्योंकि आज शिक्षक विभिन्न समस्याओं से ग्रस्त हैं। इसका मुख्य कारण है कि शिक्षक अपने व्यवसाय के प्रति उदासीन है। विद्यालयों में उन्हें उचित दर्जा नहीं दिया जा रहा है। विद्यालयों में शिक्षण कार्य अधिक व वेतन कम दिया जा रहा है जिसके कारण अध्यापक अपने विषय के प्रति रुचि नहीं ले रहे हैं। उनकी समस्याओं की ओर ध्यान में रखकर ही शोधकर्ता ने प्राथमिक स्तर के बी0टी0सी0 व एस0बी0टी0सी0 प्रशिक्षित अध्यापकों की व्यवसायिक संतुष्टि हेतु अपना शोध एवम् उनका उपयुक्त समाधान खोजने हेतु समस्या का चयन किया है।
अध्ययन के उद्देश्यः-प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में निम्नलिखित उद्देश्य लिए गये हैंः-
1. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्राथमिक स्तर के प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापक एवं एस0बी0टी0सी0 अध्यापकों की व्यावसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना।
2. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्राथमिक स्तर के प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापिकाओं व एस0बी0टी0सी0 अध्यापिकाओं की व्यवसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना।
3. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्रशिक्षित एस0बी0टी0सी0 अध्यापकों व अध्यापिकाओं की व्यवसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना।
4. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापकों एवं अध्यापिकाओं की व्यवसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना।
प्रस्तुत शोध की परिकल्पनायेंः-परिकल्पना का शाब्दिक अर्थ है ‘‘पूर्व चिन्तन‘‘। यह अनुसंधान की प्रक्रिया का दूसरा महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है। इसका तात्पर्य है कि किसी समस्या के विश्लेषण और परिभाषिकरण के बाद उनमें कारणों तथा कार्य-कारण के सम्बन्ध में ‘‘पूर्व चिन्तन‘‘ कर लिया है। इस निश्चय के बाद उसका परीक्षण शुरू हो जाता है। अनुसंधान कार्य इस परिकल्पना के निर्माण और उसके परीक्षण के बीच की प्रक्रिया है।
प्रस्तुत शोध के सन्दर्भ में शून्य परिकल्पनायें निर्धारित की गई हैं।
1. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्राथमिक स्तर के प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापक एवं एस0बी0टी0सी0 प्रशिक्षित अध्यापकों की व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अन्तर नहीं है।
2. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्राथमिक स्तर के प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापिकपाओं एवं एस0बी0टी0सी0 प्रशिक्षित अध्यापिकाओं की व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अन्तर नहीं है।
3. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्रशिक्षित एस0बी0टी0सी0 अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के मध्य व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अन्तर है।
4. बागपत जनपद के अन्तर्गत प्रशिक्षित बी0टी0सी0 अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के मध्य व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अन्तर नहीं है।
शोध विधि एवं प्रक्रिया:-
शैक्षिक अनुसंधान की अनेक विधियां हैं। इनमें से प्रत्येक विधि का अनुसंधान में आवश्यकतानुसार समस्या शोध की प्रकृति, स्थिति, काल, दशा एवं उद्देश्यों के आधार पर चयन किया जाता है। उचित विधियों का उपयुक्त समस्या में उपयुक्त स्थान पर सही अनुप्रयोग करने से शोध कार्यों की सार्थकता व निष्कर्षों की वैधता में सहायता मिल जाती है। प्रस्तुत शोध में सर्वेक्षण विधि का प्रयोग किया गया है। सर्वेक्षण शब्द से आशय खोज या अवलोकन से है।
न्यायदर्श एवं न्यायदर्श विधि:-
अनुसंधान चाहे किसी भी प्रकार का हो उसमें प्रदत्त संकलन की आवश्यकता होती है। यह प्रदत्त संकलन प्राथमिक और द्वितीय स्रोतों से संकलित किया जाता है। प्राथमिक स्रोतों में भौगोलिक क्षेत्र, संस्थायें तथा व्यक्ति सम्मिलित होते हैं और इन सबका समग्र रूप अर्थात सम्पूर्ण भौगोलिक संबंध, सम्पूर्ण संस्थायें संबंध सम्पूर्ण व्यक्ति, परिवार इत्यादि ‘‘समष्टि‘‘ की रचना करते हैं। इसका कोई भी अंग उसका एक ‘‘एलीमेन्ट‘‘ कहा जाता है। ‘‘समष्टि‘‘ का एक भाग जो वांछित न्यायदर्श से चुना जाता है। उस अध्ययन का न्यायदर्श कहलाता है। समष्टि से इस प्रकार के न्यायदर्श के चयन की विधि को सुनिश्चित करने की प्रक्रिया को न्यायदर्श कहते हैं।
प्रस्तुत शोध कार्य में शोधकर्ता ने स्वीकृत यादृच्छिकी न्यायदर्श विधि का प्रयोग किया है। इस विधि में न्यायदर्श का मानव विचलन या अन्य विचलन कम करने के उद्देश्य से कभी-कभी ‘‘समष्टि‘‘ को समवायी स्तरों में बाँट देते हैं। अब प्रत्येक स्तर में पड़ने वाली इकाइयों का ढांचा तैयार करते हैं और उन ढांचों में से इकाइयों की या दृच्छिकी न्यायदर्श विधि से चुन लेते हैं। शोधकर्ता ने आंकड़ों के चयन हेतु बागपत जनपद में स्थित बी0टी0सी0 व एस0बी0टी0सी0 प्रशिक्षित प्राथमिक स्तर के विद्यालयों में से 64 बी0टी0सी0 व 64 एस0बी0टी0सी0 पुरुष व महिला अध्यापकों को चयनित किया है।


अध्ययन के उपकरण:-
प्रस्तुत शोध समस्या पर मानवीकृत उपकरण ‘‘व्यवसायिक सन्तुष्टी मापनी‘‘ का प्रयोग किया गया है। यह उपकरण ‘‘डा0 मनोरमा तिवारी‘‘ व ‘‘डी0एन0 पाण्डेय‘‘ द्वारा निर्मित है।

अकंन एव विशलेषण:-
1BTC o SBTC  अध्यापकों के अंकों से प्राप्त मध्यमान एवं ैण्क्ण् से ब्ण्त्ण् ज्ञात करना:

वर्ग ैण्क्ण्
ठज्ब् डंसम 32 110.12 15.11
ैठज्ब् डंसम 32 118.75 11.21
ब्ण्त्ण्ब्ण् (क्रान्तिक निष्पŸिा)
क्ध्ैम्क्
क् ड1ड2
110ण्12.118ण्75
           8ण्63
ैम्क् त्र दो सहसंबंधित मध्यमानों के अंतर की संभावित त्रुटि

ैम्क् 12ध्छ122ध्छ2

          ;15ण्11द्ध2ध्32;11ण्21द्ध2ध्32

          228ण्3ध्32125ण्7ध्32

          7ण्13ण्9

          11
          3ण्32
ैम्क्  3ण्32
ब्त्ब्  8ण्63ध्3ण्32
ब्त्ब्  2ण्599
प्रस्तुत तालिका नं0 (1) का अवलोकन करने से ज्ञात हुआ है कि ठज्ब् व ैठज्ब् का ब्त् का मान 2ण्599 है जो .1 स्तर (2.156) एवं .5 (1.26) स्तर से अधिक है। इसलिए हम कह सकते हैं कि ठज्ब् व ैठज्ब् अध्यापकों के व्यवसायिक सन्तुष्टि में अन्तर है।
2द्ध ठज्ब् व ैठज्ब् अध्यापिकाओं के अंकों से प्राप्त मध्यमान एवं ैण्क्ण् से ब्ण्त्ण् ज्ञात करना:
वर्ग ैण्क्ण्
ठज्ब् ;थ्मउंसमद्ध 32 130.43 11.3
ैठज्ब् ;थ्मउंसमद्ध 32 120.18 17.20
ब्ण्त्ण्ब्ण् (क्रान्तिक निष्पŸिा)
क्ध्ैम्क्
क् ड1ड2
त्र          130ण्43.120ण्18
त्र          10ण्25
ैम्क् त्र दो सहसंबंधित मध्यमानों के अंतर की संभावित त्रुटि

ैम्क् 12ध्छ122ध्छ2

          ;11ण्3द्ध2ध्32;17ण्2द्ध2ध्32

          127ण्69ध्32295ण्84ध्32

          16ण्85

          4ण्1
ैम्क्  4ण्1
ब्त्ब्  10ण्25ध्4ण्1
ब्त्ब्  2ण्5
प्रस्तुतं तालिका नं0 (2) का अवलोकन करने से ज्ञात हुआ है कि ठज्ब् व ैठज्ब् का ब्त् का मान 2.5 है जो .1 स्तर एवं .5 स्तर से अधिक है। इसलिए हम कह सकते हैं कि ठज्ब् व ैठज्ब् अध्यापिकाओं के व्यवसायिक सन्तुष्टि में अन्तर है।
3द्ध ैठज्ब् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के अंकों से प्राप्त उमंद व ैण्क्ण् से ब्ण्त् ज्ञात करना:
वर्ग  ;ैण्क्ण्द्ध
ैठज्ब् ;डंसमद्ध 32 118.75 11.21
ैठज्ब् ;मिउंसमद्ध 32 120.18 17.20
ब्ण्त्ण्ब्ण् (क्रान्तिक निष्पŸिा)
क्ध्ैम्क्
क् ड1ड2
त्र          118ण्75120ण्18
त्र          1ण्43
ैम्क् त्र दो सहसंबंधित मध्यमानों के अंतर की संभावित त्रुटि

ैम्क् 12ध्छ122ध्छ2


          ;11ण्21द्ध2ध्32;17ण्20द्ध2ध्32

          125ण्66ध्32295ण्84ध्32

          3ण्939ण्25

          13ण्18

          3ण्63
ैम्क्  3ण्63
ब्त्ब्  1ण्43ध्3ण्63
ब्त्ब्  ण्394
प्रस्तुतं तालिका नं0 (3) का अवलोकन करने से ज्ञात हुआ है कि ैठज्ब् अध्यापक व अध्यापिकाओं का मान .394 है जो .1 स्तर एवं .5 स्तर से कम है। इसलिए हम कह सकते हैं कि ैठज्ब् अध्यापक व अध्यापिकाओं के व्यवसायिक सन्तुष्टि में कोई अन्तर नहीं है।
4द्ध ठज्ब् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के अंकों से प्राप्त उमंद व ैण्क्ण् से ब्ण्त् ज्ञात करना:
वर्ग  ;ैण्क्ण्द्ध
ठज्ब् ;डंसमद्ध 32 110.12 15.11
ठज्ब् ;थ्मउंसमद्ध 32 130.43 11.30
ब्ण्त्ण्ब्ण् (क्रान्तिक निष्पŸिा)
क्ध्ैम्क्
क् ड1ड2
त्र          110ण्12130ण्43
त्र          20ण्31
ैम्क् त्र दो सहसंबंधित मध्यमानों के अंतर की संभावित त्रुटि

ैम्क् 12ध्छ122ध्छ2

          ;15ण्11द्ध2ध्32;11ण्30द्ध2ध्32

          7ण्133ण्99

          11ण्12
          3ण्33
ैम्क्  3ण्33
ब्त्ब्  20ण्31ध्3ण्33
ब्त्ब्  6ण्09
प्रस्तुतं तालिका नं0 (4) का अवलोकन करने से ज्ञात हुआ है कि ठज्ब् व ैठज्ब् अध्यापक व अध्यापिकाओं का मान 6.09 है जो .1 स्तर एवं .5 स्तर से अधिक है। इसलिए हम कह सकते हैं कि ठज्ब् अध्यापक व अध्यापिकाओं के व्यवसायिक सन्तुष्टि में अन्तर है।
निष्कर्ष:
1. प्रस्तुत शोध में बी0टी0सी0 अध्यापकों एवं एस0बी0टी0सी0 अध्यापकों के मूल्यांकन के पश्चात् व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अंतर पाया गया है।
2. प्रस्तुत शोध में बी0टी0सी0 एवं एस0बी0टी0सी0 अध्यापिकाओं के मूल्यांकन के पश्चात् उनकी व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अंतर पाया गया है।
3. प्रस्तुत शोध में एस0बी0टी0सी0 अध्यापक व अध्यापिकाओं के मूल्यांकन के पश्चात् उनकी व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अंतर नहीं पाया गया।
4. प्रस्तुत शोध में बी0टी0सी0 अध्यापक व अध्यापिकाओं के मूल्यांकन के पश्चात् इनकी व्यवसायिक सन्तुष्टि में सार्थक अंतर पाया गया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ

1. भारत में शिक्षा का विकास - डाॅ0 रामशक्ल पाण्डेय
2. भारत में शिक्षा का विकास एवं समस्यायें - डाॅ0 एस0पी0 गुप्ता
3. शैक्षिक अनुसंधान व उसकी विधियां - एच0के0 कपिल
4. शैक्षिक अनुसंधान की विधियां - पारसनाथ
5. शैक्षिक सांख्यिकी - एस0पी0 गुप्ता
6. कु0 शालू द्वारा झाँसी नगर के माध्यमिक विद्यालयों के अध्यापक एवं अध्यापिकाओं की व्यवसायिक सन्तुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन वर्ष 2001-02 में से।



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