Tuesday 31 March 2009

बाजार, समाज और भूमंडलीकरण


बृजेश प्रताप सिंह
शोध छात्र, राजनीतिविज्ञान,
उ0प्र0 राजर्षि टण्डन मुक्त वि0वि0, इलाहाबाद |


प्राचीन काल से ही हमारे देश में आयोजित होने वाले मेलों में लोग दूर-दूर से आते थे और अपनी जरूरतों का सामान खरीदा करते थे। इन मेलों से खुदरा बाजार और लघु उद्योगों को प्रोत्साहन मिलता था। यह मेले उस काल खण्ड में वैश्वीकरण के स्थानीय संस्करण थे। जिसकी संस्कृति भारत में प्राचीनता से मौजूद थी। परन्तु कालान्तरण में बाजार ने श्रम विभाजन और विशेषीकरण को बढ़ावा दिया और धीरे-धीरे बाजार के विकास ने शहरों और शहरी सभ्यता को जन्म दिया। ऐसे में स्वावलम्बी कृषक परिवार समाज की बुनियादी इकाई के रहते हुए भी देशी बाजार जैसी बड़ी राष्ट्रीय ईकाइयों से जुड़ता गया और मानव सभ्यता के विकास के साथ अर्थ व्यवस्था या बाजार का स्वरूप और उसकी जरूरतें बदलती गईं। मुद्रा के जन्म, इसके स्वरूप तथा भूमिका में परिवर्तन तथा बैंकिंग व्यवस्था के विकास ने बाजार के विकास को त्वरित किया जिससे औद्योगिक पूँजीवाद के उदय के साथ ही बाजार, समाज के नियन्त्रण से बाहर ही नहीं हुआ बल्कि उस पर हावी भी हो गया। बाजार, ‘‘समाज में सन्निहित’’ न रहा और ‘‘समाज द्वारा विनियमित’’ न होकर अब ‘‘स्वविनियमित’’ हो गया।
आज जबकि हमारा देश वैश्विक पूँजीवादी व्यवस्था का एक हिस्सा है तथा यहाँ के शासक वर्ग आर्थिक सुधार की छत्रछाया में पूँजीवादी विकास के एक नये दौर, यानी वैश्वीकरण के रास्ते पर चल पड़े हैं। ऐसे में कुछ वर्जित सवालों का सामना करना और जवाब खोजना जरूरी हो गया है।
इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है कि हमारा देश 1947 से पहले भी विश्व बाजार अर्थव्यवस्था से अच्छी तरह जुड़ा हुआ था। हम तब भी वैश्वीकरण की गिरफ्त में थे जो साम्राज्यवाद के रूप  में मौजूद था और जिसे हम आज मध्य एशिया में तेल भण्डारों पर कब्जे के रूप में पहचान सकते हैं। किन्तु हमने इसके खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी। क्योंकि इसका मतलब साफ-साफ इंग्लैण्ड की समृद्धि और भारत की गरीबी से जुड़ा हुआ था। आज जो वैश्वीकरण पर सवार होकर आर्थिक विकास की बात कर रहे हैं, वे सही भी हो सकते हैं। मगर, पूँजीवादी आर्थिक विकास की संरचनात्मक तर्क संगति तो वही है जो हमेशा  रही है-अर्थ व्यवस्था अच्छी हालत में है, मगर जनता नहीं। यही स्थिति अभी है और रहेगी भी। केन्द्र से बहुत दूर परिधि पर पड़े लोगों की हालत तो शायद और भी खराब हो।
गौरतलब है कि भारत की आजादी के बाद यहाँ के शासकों ने समता तथा अनुपाती न्याय का वायदा करते हुए आत्मनिर्भर आर्थिक विकास की एक ‘‘राष्ट्रीय परियोजना’’ तैयार की। उन्होंने समाजवादी रास्ते पर चलने तक की बात की जिससे आर्थिक विकास तो हुआ पर जनसाधारण को कोई विशेष फायदा नहीं मिल पाया। जहाँ तक आर्थिक विकास की बात है तो उसकी प्राथमिकतायें स्पष्ट होनी चाहिए। जाहिर तौर पर इसे विश्व पूँजीवादी बाजार की जरूरतों तथा प्रभुत्व वर्गों के उपभोक्तावाद से नहीं, बल्कि भारतीय जनता की बुनियादी जरूरतों से सम्बद्ध होना चाहिए। इसका जनकेन्द्रित प्रबन्धन होना चाहिए।
औद्योगिक क्रान्ति के बाद यह माना जाने लगा कि बाजार को समाज के अधीन रखना तर्क संगत नहीं है उसे स्वविनियमित बाजार प्रणाली के तहत होना चाहिए। परन्तु आर्थिक प्रणाली के स्वतन्त्र इकाई के रूप में आने और अपने ही नियमों के अनुसार काम करने की क्षमता ने समाज को बाध्य कर दिया कि वह उसका अनुसरण करे। ऐसे में बाजार दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों को जन्म देते हैं, पहला यह कि बाजार की सीमाओं और परिधि को बढ़ाने की और दूसरा बाजार के क्षेत्र को कम कर लोगों की रक्षा करने की। ऐसे में स्वविनियमित बाजार से उत्पन्न होने वाले अनिश्चितता तथा उतार-चढ़ाव से समाज को बचाने के विकल्प तलाश किये जाने चाहिए जो विकासशील राष्ट्रों के शेयर बाजारों में उत्पन्न है।
वैश्वीकरण के युग में जब राष्ट्रीय सीमायें अर्थहीन हो गई हैं और राष्ट्र-राज्य की अवधारणा उपेक्षित हो गई है। भूमंडलीय बाजार के तर्क की माँग है कि सभी देश अपने दरवाजे वस्तुओं और पूँजी के उन्मुक्त प्रवाह के लिए खोल दें। उनके पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है जैसे-नाफ्टा और साफ्टा आदि। दावा किया जा रहा है कि ऐसा करने से पुराने झगड़े और प्रतिस्पर्धा समाप्त हो जायेगी। उनकी जगह सौहार्द आएगा तथा वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन तथा बेहतर प्रौद्योगिकी एवं व्यवसायिक संगठन के नए रूप ढूढ़ने के लिए मैत्रीपूर्ण होड़ होगी। इन सपनों के प्रति भी भारत सहित तमाम बाजारों में संशय है। इसी क्रम में जिस प्रकार राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्थायें सरकार की सक्रिय भूमिका पर निर्भर होती हैं उसी प्रकार भूंडलीकरण अर्थव्यवस्था को अंतिम ऋणदाता सहित शक्तिशाली विनियामक संस्थाओं की आवश्यकता है ऐसी संस्थाओं के न होने से अर्थव्यवस्था विशेष और वैश्विक बाजार को आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ेगा। मजदूर, खेतिहर और छोटे व्यवसायी आर्थिक संगठन के उस ढाँचे को वहन नहीं कर पायेंगे जिसमें उनकी दैनिक परिस्थितियों में समय-समय पर बड़े उतार-चढ़ाव हो। जो सामयिक मुद्रा स्फीति के उतार-चढ़ाव के सन्दर्भ में देखी जा सकती है। और इसी संकट में ऋणग्रस्त किसानों ने भारत के कई राज्यों में अपने असंतोष को व्यक्त करने के लिए आत्महत्या का रास्ता अपनाया है।
कहना न होगा कि बाजार की भूमिका में हुए मूलभूत रूपान्तरण को समझे बिना वर्तमान सामाजिक यथार्थ को समझ पाना बेहद जटिल है। इतना ही नहीं ‘‘वाशिंगटन आम राय’’ पर आधारित वर्तमान भूमण्डलीकरण की ठीक-ठीक पहचान भी नामुमकिन है।
यह कहना उचित नहीं होगा कि विकल्प नहीं है, विकल्प समाजवाद और उदारवादी लोकतन्त्र के संयोजन के आधार पर तैयार किया जा सकता है, इसके आधार पर देश के भीतर और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकार की भूमिका को बढ़ाना होगा और ‘‘अदृश्य शक्ति’’ अथवा बाजार की भूमिका को संतुलित करना होगा। जरूरत यह भी है कि सामान्य जन एकजुट होकर बाजार को जनतांत्रिक राजनीति के नियन्त्रण में लायें और भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था को अन्र्राष्ट्रीय सहयोग के आधार पर पुनर्निमित करें। वे जनतांत्रिक शासन के औजारों का इस्तेमाल कर अपनी व्यक्तिगत एवं सामूहिक आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के उद्देश्य से अर्थव्यवस्था का नियन्त्रण एवं निर्देशन करें। बाजार को समाज में फिर से सन्निहित करके भूमण्डलीकरण की नई व्याख्या करने और मानव को सर्वोपरि स्थान देने का कोई विकल्प नहीं है।

संदर्भ ग्रन्थ -
1. रयान पी0एम0 एल्लीस, द हिस्ट्री आॅफ द मार्केट स्टिम।
2. गिरीश मिश्र, इकाॅनामिक सिस्टम, दिल्ली, पृ0- 66,68।
3. द व्हील्स आॅफ काॅमर्स, पृ0-223।
4. कार्ल पोलान्यी, द ग्रेट ट्रंसफार्मेशनः द पोलिटिकल एंड एकोनाॅमिक ओरिजिंस आॅफ अवर टाइम, पृ0-57।


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