Tuesday 31 March 2009

प्रतिभा-वाक्यार्थ के विरूद्ध जयन्त का तर्क: एक विवेचना



प्रो0 डी0 एन0 तिवारी
धर्म एवं दर्शन विभाग, बी0 एच0 यू0, वाराणसी *

जयंत भट्ट न्याय मंजरी1 में भर्तृहरि के प्रतिभा जैसे वाक्यार्थ का खण्डन करते हैं। उनकी प्रतिज्ञप्ति के अनुसार व्याकरण के दृष्टिकोण से प्रतिभा भाषा का विषय है और अर्थ प्रतिभा का विषय है और केवल इसी सन्दर्भ में प्रतिभा अर्थ कही जाती है। प्रतिभा के इस दृष्टिकोण को दृष्टि में रखते हुए जयन्त तर्क देते हैं कि यद्यपि आकार (रूप) नेत्र का विषय है फिर भी रूप का प्रत्यय (बुद्धि में रूप) नेत्र का विषय नहीं है। सामान्यतया प्रतिभा भाषा से उत्पन्न होती है लेकिन यह भाषा का विषय नहीं है। वाह्य वस्तुओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। यह कहना उचित नहीं है कि वाह्य वस्तुएँ वास्तव में अस्तित्ववान नहीं है। अतः यह प्रतिभा है जो भाषा का विषय है। उदाहरणार्थ ‘शेर आ गया’ ‘बहादुरों’, ‘कायरों’ जैसे शब्द अन्य-अन्य व्याक्तियों में अलग-अलग प्रभाव उत्पन्न करती है। ये प्रभाव प्रतिभा के कारण नहीं है परन्तु वाह्य संसार में अस्तित्ववान शेर के पहुँचने के व्यक्ति में निर्दिष्टीकरण द्वारा उत्पन्न होते हैं। यह न केवल शेर का बोध या प्रत्यय है वरन् वाह्य शेर की पहुँच है जो व्यक्तियों मंे भय आदि उत्पन्न करता है। जयन्त कहते हैं कि यह कहना समुचित नहीं है कि उस समय शेर वहां सत्य ही नहीं है क्योंकि ‘शेर नहीं आया था’ ‘मैंने झूठ बोला’ जैसे वाक्य नहीं सुने गए और इस प्रकार यहां कोई कथन नहीं है, जो एक वाह्य शेर के उपस्थिति का खण्डन करे। प्रतिभा को प्रायः वासना के आधार पर भाषा का अर्थ स्वीाकर नहीं किया जा सकता है बोध की विभिन्नता बर्हिअस्तित्ववान वस्तुओं के भिन्न निदृष्टिकरण के फलस्वरूप है। इसलिए जयन्त कहते हैं प्रतिभा केवल ‘उद्देश्य’ (तात्पर्य) (जैसे वाक्य के अर्थ) की तरह स्वीकृति है, लेकिन यह व्यक्तकत्र्ता (वक्ता) के व्यक्त (वाक्) जैसा स्वीकार नहीं किया जा सकता। अब यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रतिभा परस्परतः सम्बद्ध व्यक्त (संसृत्) जैसे वाक्यार्थ है, क्योंकि प्रतिभा जैसा कीव्याकरण मानता है एक पूर्ण अभाज्य है और सम्बद्ध पूर्ण नहीं है। जयन्त के अनुसार एक वाक्यार्थ वह है जो प्रयुक्त शब्दों में निहित उद्देश्य के बीच से जानी जाती है।
जयन्त द्वारा प्रतिभा-वाक्यार्थ पर उठाए गए प्रश्न का भर्तृहरि द्वारा समाधानः-
भर्तृहरि के मत से कहा जा सकता है कि जयन्त का यह तर्क कि प्रतिभा भाषा द्वारा उत्पन्न है और यह भाषा का अर्थ या विषय नहीं है, प्रतिभा शब्द के गलत अर्थ पर आधारित है। प्रतिभा भाषा द्वारा उत्पन्न नहीं होती परन्तु सुभिन्नतया इससे प्रकट होती है और केवल इसी सन्दर्भ में प्रतिभा को भाषा के विषय की तरह लिया जा सकता है। जयन्त की मान्यता से भिन्न अर्थ स्वयं प्रतिभा का विषय नहीं है। यह प्रत्यय की ‘अर्थ प्रतिभा का विषय है’, भर्तृहरि को एक सीमा तक स्वीकार नहीं है। यद्यपि उन्होंने ‘अर्थ प्रतिभा का विषय है; जैसे प्रत्यय का खण्डन नहीं किया तथापि यह उनके लिए स्वयं अर्थ है। यदि हम प्रतिभा को एक तात्त्विक (पराभौतिकी) मूल्य प्रदान करें और तब हम अर्थ को इसके विषय की तरह व्याख्या करें, उनका प्रतिभा जैसे अर्थ का दर्शन असम्मत होगा। इसका कारण है कि वे भाषा दार्शनिक के भाॅति सर्दव दार्शनिक प्रतिच्छाया के सीमा के प्रति सचेत रहे और यह दिखाने को बहुत इच्छुक थे कि कोई तात्त्विक पदार्थ (भाषा से अनछुआ) दार्शनिक प्रतिच्छाया का विषय नहीं है। इस प्रकार जब हम स्वयं को उनके विचार तक सीमित रखते हैं तब हम पाते हैं कि वह प्रतिभा को अर्थ की तरह भाषा द्वारा मस्तिष्क में अंकित स्फोट, सुभिन्न प्रबोधन जैसा संप्रेषित करते हैं जिसके आधार पर व्यावहार पूर्ण होता है। प्रतिभा करने या न करने के सभी प्रबोधकों का कारण है और मस्तिष्क में भाषा द्वारा प्रकट होता है और केवल इसी सन्दर्भ में यह भाषा का विषय कही जाती है, अन्यथा नहीं।
प्रतिभा स्वयं को वक्ता के वचन से संचरित होने के कारण के रूप में प्रकटित होता है। बिना विशिष्टीकृत प्रतिभा के अंकन के भाषा के द्वारा व्यवहार की आशा संभव नहीं है। इस प्रकार वक्ता के दृष्टिकोण से प्रतिभा भाषा के विषय की तरह समझी जाती है।
व्याकरणिक प्रतिभा के अर्थ जैसे सन्दर्भों में प्रतिभा को मनस या प्रज्ञा के रूप में प्रयुक्त करते हैं और दर्शित करते हैं कि प्रतिभा को प्रज्ञा जैसा बनने में कुछ नहीं कहा जा सकता। एम0एम0गोपीनाथ कविराज ने प्रतिभा के मनस या प्रज्ञा जैसे रूप को अधिक स्पष्ट रूप से विवेचित किया है। जैसे कि हमारा आयाम प्रतिभा जैसे अर्थ की प्रतिज्ञप्ति से सीमित है। हम सुझाव देते हैं कि यद्यपि मनस में विभिन्न प्रकार की प्रतिभाएं प्रकट होती हैं तथापि सभी सुभिन्न और विशिष्ट है, तथापि उनमें से सभी प्रतिभा उसी समान शब्द द्वारा अभिहित की जाती है। जब हम भर्तृहरि के प्रतिभा के अर्थ के विषय जैसे सिद्धान्त का मूल्यांकन करें उस समय प्रतिभा की यह व्याख्या मस्तिष्क में उपस्थित रहनी चाहिए और निश्चित है कि प्रतिभा यदि इस दृष्टिकोण बिन्दु से देखी गई तो मनस (प्रज्ञा) या सत्त्वात्मक सत्ता जैसी दृष्टियों में भ्रमित नहीं होंगे, जो कि अर्थ-बोध सत्ता से भिन्न है और इस प्रकार भर्तृहरि के प्रतिभा जैसे अर्थ और प्रतिभा जैसे मस्तिष्क के दृष्टिकोण में विभेदन आसान है।
अब प्रतिभा जैसे अर्थ या जैसे एक बोधात्मक अस्तित्व की समस्या पर आते हैं। यह कहा जा सकता है कि प्रतिभा अभाज्य स्फोट द्वारा प्रकट अभाज्य आभा है; वह प्रत्यय या विचार का विषय है। जिन्हें अज्ञानी या बच्चों द्वारा नहीं समझा जा सकता है। क्योंकि वे अभाज्य को अंश में समझते हैं या सम्पूर्ण को एक-एक करके समझते हैं जो उनसे विश्लेषण की माँग करती है। इस उद्देश्य के लिए वैयाकरणिक न्याकरणात्मक विश्लेषण (अपोधरा) की तकनीकि अपनाते हैं। यहां पर यह उल्लेखित करना उचित होगा कि वाक्यार्थ जो वैयाकरणिक के लिए अभाज्य आभा है, व्याकरणात्मक विश्लेषण (अपोधरा) की प्रक्रिया से विभिन्न शब्दार्थों (पदार्थों) में विश्लेषित है तब वाक्यार्थ उनके लिए विभिन्तया संश्लेषण, उद्देश्य, विभिन्न शब्दार्थों के साहचर्य, क्रिया, भावना आदि जैसे व्याख्यायित होता है। यह भी कहा जा सकता है कि पिछले अंक में विवेचित वाक्यार्थ के सभी सिद्धान्त अभाज्य प्रतिभा के व्याख्या के लिए उपयोगी है। परन्तु किसी भी विचार को सिद्धान्त या वाक्यार्थ की परिभाषा स्वीकार करना अनुचित है। प्रतिभा वाक्यार्थ है और अभाज्य आभा है। यह साहचर्य उद्देश्य आदि जैसे पृथकतया परिभाषित होते हैं। क्योंकि एक अभज्य किसी भी और अन्य प्रकार से परिभाषित नहीं हो सकता है। परिभाषा स्वयं अंश और पूर्ण की समझ पर आधारित है और इसलिए प्रतिभा की परिभाषा है।2
प्रतिभा वाक्यार्थ की विविध परिभाषाओं में साहचर्य का सिद्धान्त उन विचारकों द्वारा अनुमोदित है जो ‘भाव सम्बन्धों का पूर्ववर्ती है’ में विश्वास करते हैं (अभिहितान्वयवादिन)। अज्ञानी को शब्दार्थों के साहचर्य से वाक्यार्थ के अध्यापन के दृष्टि बिन्दु से उचित प्रतीत होता है। परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त उन विचारकों द्वारा अनुमोदित है जो ‘सम्बन्ध भाव का पूर्ववर्ती है, में विश्वास करते हैं (अभिधान वादिन)। उच्चारित शब्द या व्यंजित अर्थों के उद्देश्य की व्याख्या के दृष्टिकोण से समर्थित प्रतीत होती है जबकि वाक्यार्थ अभाज्य जैसा विश्वास करने वाले विचारक (अखण्डवाक्यावादिन), सामान्य व्यवहार में एक इकाई अर्थ की पूर्ति के लिए आगे की अभिलाषा को हटाकर, बोध की सम्पूर्णता की दृष्टिकोण से, इसे बोधित उचित ठहराते हैं। मस्तिष्क में अंकित वाक्यार्थ एक शब्दार्थ को अन्य शब्दार्थ से जोड़ने जैसा नहीं वरन् एक अभाज्य बोध जैसे जिसकी व्याख्या के लिए वाक्यार्थ के अन्य सिद्धान्त भी महत्त्वपूर्ण हैं।3
विरोध वाक्यार्थ के खण्डन या मण्डन से नहीं है क्योंकि सभी सिद्धान्तकार इसको स्वीकार करते हैं। यह तो इसकी व्याख्या है, जो अन्तर उत्पन्न करती है। अभाज्य अर्थ जैसा प्रतिभा का सिद्धान्त न केवल वाचिक भावो, वाक्य-चिह्नों, हाव-भावों आदि से स्फोट द्वारा मस्तिष्क में अंकित या प्रकट बोधों की वरन् योगियों और अन्य सिद्ध-पुरूषों की प्रत्यक्ष बोध की व्याख्या करने में उपयुक्त है। बोध सत्वात्मक, परिमेय, अतिपरिमेय आदि जैसे सुभिन्नतः स्पष्ट रूप से ज्ञापित होती हैं। कीट और प्राणियों की सत्वात्मक बोध, उनकी अदृश्य परिमेय गतिविधियों के प्रेक्षण के आधार पर लिए गए अनुमान से जानी जाती है, परिमेय बोध जब वाचिक भावों से उद्भाषित स्फोट द्वारा प्रकटन जैसा बोध है। ये संचारणीय बोध हैं जो मनोदशा से संचारित हो तो सत्यनिष्ठ बोध उत्पन्न करती हैं। अति परिमेय बोध प्रत्यक्ष आभाएं हैं, वे सिद्ध-पुरूषों की दृष्टि है (ऋषिः मन्त्र दृष्टिारः)। और वे जिसे यह प्राप्त है के अतिपरिमेय दैवीय गतिविधियों के प्रस्तुतीकरण के प्रेक्षण से जाना जाता है।

सन्दर्भ ग्रन्थ
1. न्याय मंजरी, पृ0-104-5।
2. इदम तदिति सान्येशामनाख्येया कथंचन् प्रत्यामवृत्त्सििद्ध पुष्पराज 2/44
3. पुष्पराज 2/1




* साभार-द सेन्ट्रल प्राब्लम आॅफ भर्तृहरिज फिलासफी, लेखक प्रो0 डी0एन0तिवारी, प्रकाशक- आई0सी0पी0आर0, नई दिल्ली। इस अंश के अनुवादक श्री राजेन्द्र तिवारी अधि0, उ0 न्या0, इलाहाबाद।

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