Tuesday 31 March 2009

गाँधी दर्शन में सत्याग्रह सिद्धान्त


सुमन मौर्य
शोध छात्रा, राजनीति विज्ञान विभाग,
हंडिया पी0जी0 काॅलेज, इलाहाबाद |

                  सत्याग्रह गाँधी जी के लिए संघर्ष का प्रमुख हथियार था। सत्याग्रह के इस हथियार को उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के अपने संघर्ष में, सत्य और अहिंसा की खोज करते हुए प्राप्त किया था। गाँधी जी रोलेट-एक्ट के विरूद्ध एक राष्ट्रव्यापी संघर्ष में उसका उपयोग करने से पहले अहमदाबाद के मिल मजदूरों के झगड़े को सुलझाने और बारदोली एवं कुछ अन्य स्थानों की शिकायतों को दूर करने के लिए कर चुके थे।
सत्याग्रह का निर्माण सत्य, अहिंसा और कष्ट-सहन इन तीन सिद्धान्तों से मिलकर हुआ है। कष्ट-सहन, विरोधी पर विजय प्राप्त करने के लिए हिंसात्मक साधनों का प्रयोग करने में हमारी असमर्थता का पर्याय नहीं है। दूसरे को कष्ट देना हिंसा है, परन्तु कष्ट-सहन, जिसका अर्थ ‘‘स्वयं अपने आपको कष्ट पहुँचाना है’’, गाँधी की दृष्टि में, ‘‘अहिंसा का सार’’ है। और इस प्रकार वह एक सकारात्मक नीति है, न कि निर्बल का अंतिम सहारा।
गाँधी जी ने सत्याग्रह की पद्धति में और निष्क्रिय प्रतिरोध की पद्धति में अंतर किया है। महात्मा गाँधी का कथन है कि ‘‘सत्याग्रह निष्क्रिय विरोध से उसी प्रकार भिन्न है जिस प्रकार उत्तरी ध्रुव, दक्षिणी ध्रुव से भिन्न है।1 इतिहास में निष्क्रिय प्रतिरोध का प्रयोग या तो हिंसा के प्रयोग में असमर्थता के कारण किया गया था, या हिंसा की ओर बढ़ने वाले एक प्रारम्भिक कदम के रूप में। ‘‘कमजोर की अहिंसा’’ का गाँधी जी की दृष्टि में कोई महत्त्व नहीं था।’’ गाँधीजी ने इस वाक्य को बार-बार दोहराया है कि ‘‘कायरता और हिंसा में से यदि एक को चुनना हो तो मेरी सलाह सदा ही हिंसा को चुनने की होगी।’’2
निष्क्रिय प्रतिरोध का प्रयोग हथियारों के उपयोग के साथ-साथ किया जा सकता था। सत्याग्रह में यह संभव नहीं था। निष्क्रिय प्रतिरोध में प्रतिपक्षों को परेशान करने का विचार छिपा हुआ था। सत्याग्रह में प्रतिपक्षी को हानि पहुँचाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। निष्क्रिय विरोध में हृदय परिवर्तन की शक्ति नहीं होती जबकि सत्याग्रह एक भावात्मक सिद्धान्त है अर्थात् ‘निष्क्रिय विरोध जीवन दर्शन नहीं बन सकता।’’3
डाॅ0 राधाकृष्णन ने इस संबंध में लिखा है कि - ‘‘सत्याग्रह प्रेम पर आधारित है न कि घृणा पर। यह अपने विरोधी का प्रेम से तथा पीड़ा सहकर हृदय परिवर्तन करता है। यह पाप का प्रतिरोध करता है, पापी का नहीं।’’4
सत्याग्रह सत्य के लिए आग्रह है। इस व्यापक अर्थ में इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के अन्याय व शोषण का प्रतिरोध तथा सभी प्रकार के संवैधानिक सुधारों एवं संवैधानिक सेवा के कार्यों का समावेश हो जाता है। गाँधी जी का सत्याग्रह एक आदर्श है।
गाँधी जी ने संघर्ष से बचने की कभी चेष्टा नहीं की, और न ही केवल हिंसा को उसका समाधान माना। ‘‘संघर्ष की स्थिति’’ का स्वागत गाँधी जी उसी भावना से करते थे जिससे एक योग्य चिकित्सक पुराने रोग से पीडि़त किसी रोगी का स्वागत करता है। आर्ननेस के शब्दों में, ‘‘गाँधी संघर्ष के केन्द्र की ओर स्वाभाविक रूप से आकर्षित हो जाते थे।’’ गाँधी कर्मयोगी थे। वे संघर्ष से अपने को अलग नहीं रखते थे बल्कि उसके बीच में घुस जाते थे। अर्थात् सत्याग्रही संघर्ष के केन्द्र में अपने आपको रखकर, उसकी तीव्रता में कमी लाने के उद्देश्य से हिंसा के प्रयोग को निरुत्साहित करने के काम में लग जाता है। यह उससे बच निकलने की चेष्टा नहीं करता।5
गाँधी जी के जीवन काल में आणविक अस्त्रों का अविष्कार हो चुका था। और जापान में मानवता के विरूद्ध प्रयोग में उन्हें लाये जाते हुए भी गाँधी जी ने देखा था। पर इससे अहिंसा और सत्याग्रह के तकनीक में उनकी आस्था और दृढ़ हुई। अब उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि आणविक अस्त्रों के विकास और प्रयोग के बाद हिंसात्मक प्रतिरोध असंभव हो गया था और अहिंसात्मक साधनों की श्रेष्ठता स्पष्ट रूप से स्थापित हो गयी थी। हिंसा का विनाश प्रतिरोध में अपनायी गयी हिंसा से संभव नहीं है। ‘‘मानवता को हिंसा से ऊपर उठने के लिए अहिंसा का मार्ग ही अपनाना होगा।’’6
गाँधी जी सत्याग्रह को ऐसे वट वृक्ष की तरह मानते थे जिसकी अनेक शाखाएँ होती हैं। उन्होंने सत्याग्रह के साधन के लिए कई पद्धतियों को स्वीकार किया जैसे- असहयोग, सविनय अवज्ञा, हिजरत और उपवास आदि।
असहयोग के परिप्रेक्ष्य में गाँधी जी का विचार है कि जिसके विरूद्ध सत्याग्रह किया जाता है उसके साथ सहयोग न करना तथा कोई ऐसा कार्य न करना जिससे अनैतिक कार्य को सहयोग एवं प्रोत्साहन मिले। अंग्रेजों के विरूद्ध 1920-1922 तथा 1942 में गाँधी जी के द्वारा चलाये गये आन्दोलन असहयोग की ही अभिव्यक्ति थे। असहयोग की अभिव्यक्ति कई तरह से की जा सकती है। जैसे- हड़ताल, प्रदर्शन, बहिष्कार एवं धरना आदि।
सविनय अवज्ञा असहयोग की तुलना में अधिक उग्र एवं आक्रामक अस्त्र है। यह अन्याय के प्रति एक तरह से विरोध है। यहाँ गाँधी ‘थोरो’ से प्रभावित दिखते हैं। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी ने सविनय अवज्ञा का प्रयोग किया।
सत्याग्रह का एक अन्य रूप हिजरत था। हिजरत का तात्पर्य है कि व्यक्ति अपनी इच्छा से अपना स्थाई निवास स्थान छोड़कर चला जाये इसका प्रयोग उन लोगों के लिए बताया जो यह महसूस करते थे कि उनका शोषण हो रहा है तथा वे उस स्थान पर अपने आत्म-सम्मान की रक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि उनमें शक्ति का अभाव है।
समय-समय पर गाँधी जी की सत्याग्रही के लिए उपवास का भी सुझाव देते थे। स्वास्थ्य की दृष्टि से उपवास तो महत्त्वपूर्ण होता ही है। किन्तु एक सत्याग्रही के लिए आत्म-शुद्धि, आत्म-बल, एकाग्र-चित्तता और शांति का अमूल्य साधन भी है। इसका उस व्यक्ति पर जिसके विरूद्ध सत्याग्रह किया जा रहा है, शीध्र प्रभाव पड़ता है।
गाँधी जी के सत्याग्रह की तकनीक केवल विदेशी शक्ति के विरोध तक ही सीमित नहीं थी। वे इस बात की परवाह नहीं करते थे कि देश पर शासन विदेशियों का है अथवा अपना। गाँधी जी ने सत्याग्रह की तकनीक का प्रयोग सामाजिक व आर्थिक न्याय को प्राप्त करने, औद्योगिक संघर्षों में तथा साम्प्रदायिकता और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों के विरूद्ध भी किया। गाँधी जी ने जिस युग में इस तकनीक का अविष्कार किया वह भारतीय राष्ट्रवादी शक्तियों के द्वारा अँग्रेजी शासन के विरूद्ध संघर्ष का युग था।
दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने खानों में काम करने वाले भारतीयों के द्वारा चलाये जाने वाले उस आन्दोलन का नेतृत्व किया जो दक्षिण-अफ्रीका की सरकार की जाति-भेद की नीतियों के विरूद्ध था। भारत में चलाया गया उनका सत्याग्रह आन्दोलन 1917 में बिहार के चम्पारन जिले में नील की खेती करने वाले किसानों पर किये जाने वाले आर्थिक और सामाजिक अन्यायों के विरूद्ध था। 1918 का खेड़ा सत्याग्रह किसानों का आन्दोलन था जिसका उद्देश्य भूमि-करों का भुगतान न करने के लिए बम्बई की सरकार पर नैतिक दबाव डालना था। 1928 का बारदोली सत्याग्रह भी भूमिकर में बहुत अधिक वृद्धि के विरूद्ध था। इस सब आन्दोलनों का उद्देश्य, जनसाधारण को आर्थिक न्याय की प्राप्ति कराना था।
गाँधी जी ने कुछ ऐसे आन्दोलन भी चलाये जो औद्योगिक प्रबन्धक व्यवस्था अथवा सामाजिक प्रतिक्रियावादिता के विरूद्ध थे। फरवरी-मार्च 1918 में चलाया गया अहमदाबाद मजदूर सत्याग्रह एक ऐसा मजदूर आन्दोलन था जिसका सरकार से किसी भी रूप  में सम्बंध नहीं था। मिल में हड़ताल हो जाने की स्थिति में व्यवस्थापकों ने बीच-बचाव करने के उद्देश्य से गाँधी जी को बुलाया था, परन्तु जब गाँधी जी ने देखा कि वस्तुओं के मूल्य-वृद्धि हो जाने के कारण मजदूरों के वेतन में 25 प्रतिशत बढ़ाने की माँग न्यायसंगत थी तो उन्होंने उपवास का भी सहारा लिया।
इसके बाद गाँधी जी ने रोलेट बिल के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाया। जयन्त बन्द्योपाध्याय ने यह ठीक ही लिखा है कि ‘‘सत्याग्रह के द्वारा स्वतंत्रता, समानता और भ्रार्तृत्व के मूल्यों को न केवल संरक्षण मिलता है और उनकी वृद्धि होती है, बल्कि सत्याग्रह के द्वारा ही उनकी अधिक से अधिक सुरक्षा और वृद्धि संभव है।’’7 गाँधीवादी दर्शन में सत्याग्रह को समाज परिवर्तन की पद्धति के रूप में स्वीकार किया गया है। माक्र्सवाद में वर्ग-संघर्ष का जो स्थान है, वही स्थिति गाँधी-दर्शन में ‘सत्याग्रह’ का है।
गाँधी जी के अहिंसा एवं सत्याग्रह के सिद्धान्त को कुछ विचारकों ने भारतीय संदर्भ में न केवल अप्रासंगिक बताया है, बल्कि उनकी आलोचना भी की है। डाॅ0 रामविलास शर्मा के अनुसार, आजादी प्राप्त करने के लिए गाँधी जी के सत्याग्रह का हथियार नाकाफी है।8 इसी तरह कम्युनिस्ट पार्टी का कहना था, राष्ट्रीय आन्दोलन सत्याग्रह द्वारा क्राँतिकारी परिणाम तक नहीं पहुँच सकता,  इसलिए कम्युनिस्ट उसे अस्वीकार करते हैं। गाँधीवाद की आलोचना करते हुए आलोचकों ने कहा है कि ‘‘वह साम्राज्यवाद को क्राँतिकारी शक्तियों का अलगाव करने और नाश करने का अवसर देता है, वह सत्याग्रही के कत्र्तव्य के बारे में शब्द-जाल द्वारा अपनी कायरता और दिवालियापन छिपाता है। वह खुलकर राजनीतिक हड़तालों का एवं जन सत्याग्रह का विरोध करता है, तथा वह रियासतों एवं युद्ध के मामले में साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेकता है।9
रजनीपामदत्त के अनुसार- गाँधी जी का अहिंसा शब्द बहुत निर्दोष, मानवीय और उपयोगी लगता है, पर इसके पीछे न केवल अंतिक संघर्ष को नकारने की बात छिपी है, बल्कि तात्कालिक संघर्ष को रोकने की भी बात छिपी है, क्योंकि हमेशा आम जनता के हितों को बड़े बुर्जुआ-वर्ग और जमींदार वर्ग के हितों के साथ जोड़ने की कोशिश की गई।10 गाँधीवाद के सत्य और अहिंसा की धारणा को भी अविश्वास की दृष्टि से देखा गया है। इस अविश्वास का कारण यह बताया जाता है कि जब तक मनुष्य में स्वार्थपूर्ण एवं अहंवादी प्रवृत्तियाँ हैं, तब तक हिंसा, शोषण, असत्य, अन्याय इत्यादि रहेंगे। सत्य और अहिंसा मानव जीवन के निर्देशित नियम नहीं बन सकते। इस प्रकार की आलोचना का सारांश यह है कि सत्य और अहिंसा का सिद्धान्त मूलतः अव्यावहारिक है और वह व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन का आधार नहीं बन सकता।11
आर्थर मूर तथा जाॅन बौंड्यूरैन्ट ने नैतिक अथवा आध्यात्मिक दृष्टि से सत्याग्रह की श्रेष्ठता में संदेह किया है, उनका कहना है कि सत्याग्रह ऐसे लोगों के लिए संघर्ष का साधन है जिनके पास इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। इसलिए, वे सत्याग्रह को मानसिक हिंसा कहते हैं और इसके विद्रोह अथवा युद्ध की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक उत्कृष्ट नहीं मानते।12
सत्याग्रह की प्रासंगिकता के सम्बंध में प्रो0 सुशीला कौशिक ने कहा है कि गाँधी ने जनसाधारण और जन-आन्दोलन की महत्त्वपूर्ण भूमिका को समझा तथा सत्याग्रह का एक ऐसा कार्यक्रम बनाया जिससे जन-साधारण राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति जागरूक हो सके तथा मजदूर, किसान, पूँजीपति, व्यापारी, विद्यार्थी, वकील, तथा निम्न जातियाँ आदि सभी तरह के लोग आन्दोलन में भाग ले सकें। अपनी विचारधारा की सीमाओं, खामियों तथा मजबूरियों के बावजूद, गाँधी जी ने पहली बार राष्ट्रीय आन्दोलन को जनसाधारण का बहुवर्गीय आधार प्रदान किया।13 हम कह सकते हैं कि सत्याग्रह एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा सरकार के कार्यक्रमों और उसकी नीतियों को आसान तरीकों से प्रभावित किया जा सकता है तथा समाज की विभिन्न समस्याओं की ओर सरकार का ध्यान खींचा जा सकता है। सत्याग्रह एक ऐसी तलवार है जिसके सब ओर धार है उसे जैसे चाहो वैसे काम में लाया जा सकता है। खून न बहाकर भी वह बड़ी कारगर होती है, उस पर न तो कभी जंग लगती है और न उसे कोई चुरा ही सकता है। यही सत्य-शक्ति है। गाँधी जी ने इसे प्रेम-शक्ति या आत्म-शक्ति भी कहा है। इसका प्रयोग व्यक्ति और समाज दोनों के द्वारा किया जा सकता है।
अंत में हम कह सकते हैं कि आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं वह बहुत ही विचित्र दौर है क्योंकि जब देश आजाद हुआ तब देश के संचालन का महत्त्वपूर्ण निर्णय पश्चिम की ओर ललचाई निगाहों से देखते हुए लिया गया। पश्चिमी ढंग पर जो बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनीं और उनके इर्द-गिर्द जो केन्द्र विकसित हुए उन्हीं को हमने नया भारत मान लिया। परन्तु आज स्वतंत्रता के साठ साल बाद भी देश खुशहाल नहीं है। अतः आज के इस आणविक युग में विशेषकर 21 वीं सदी में अणुबम या बढ़ते हुए आतंकवाद के खिलाफ शुद्ध हृदय से सत्य और अहिंसा के सामाजिक संगठन के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता।
संदर्भ ग्रन्थ -
1. गाँधी, एम0के0: सत्याग्रह पृ0-5
2. यंग इंडिया, 11 अगस्त 1920
3. दिवाकर आर0आर0: सत्याग्रह, पृ0-27
4. महात्मा गाँधी: जीवन और दर्शन पृ0-119
5. आर्ननेस: ‘‘गाँधी एण्ड दी न्यूक्लियर एज’’ न्यू जर्सी, 1965, पृ0-39
6. तेंदुलकर, ‘महात्मा’ खण्ड - 7, 1953, पृ0-248
7. जे0 बन्द्योपाध्याय, ‘माओत्सेतुंग एण्ड गाँधी, पर्सपेक्टिव्ज आॅन सोशल ट्रांसफार्मेशन, अलाइड पब्लिशर्स, 1973, पृ0-64-66
8. रामविलास शर्मा, भारत में अँग्रेजी राज और माक्र्सवाद, खण्ड-2, नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, 1983 पृ0-435-36
9. स्वतंत्रता संग्राम और गाँधी का सत्याग्रह, पृ0-86
10. रजनीपामदत्त: आज का भारत, दिल्ली:मैकमिलन इण्डिया, 1988 पृ0-351
11. डाॅ0 बी0आर0 पुरोहित: आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, पृ0-204
12. वेद प्रकाश वर्मा, महात्मा गाँधी का नैतिक दर्शन, दिल्ली: बी0एल0 प्रिन्टर्स, पृ0-165
13. प्रभात कुमार - स्वतंत्रता संग्राम और गाँधी का सत्याग्रह

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